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________________ ३१२ महाबंधे २७८. वेउब्धियका०-देवोघं । वेउवि० मि० तं चेव । गवरि आयु-णत्थि। २७६. कम्मइगका० धुविगाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अवंधगात्ति को भावो ? खइगो भावो। थीणगिद्धितियं मिच्छत्त-अणंताणु०४ बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा त्ति को भावो? उपसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा । मिच्छ०[अबंध० पारिणामियो भावो। साद-बंधाबंधगा त्ति को भावो? ओदइगो भावो । असादबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। अबंधगा त्ति को भावो १ ओदइगो खइगो वा। दोण्णं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा णत्थि । इथि-णवुसबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा ति को भावो ? ओदइगो वा उपसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा । अपेक्षा औदायिक भाव कहा जा सकता है। तीर्थकर प्रकृतिकी बन्ध व्युच्छित्तियुक्त इस योगमें सयोगी जिनकी अपेक्षा शायिक भाव कहा है। २७८. वैक्रियिक काययोगियोंमें देवोंके ओघवत् जानना चाहिए। वैक्रियिक मिश्रकाययोगियों में देवांके ओघवत् है । इतना विशेष है कि यहाँ आयुका बन्ध नहीं पाया जाता है। विशेष-इस योगमें मिथ्यात्वीके औदयिक, सासादन सम्यक्त्वीके पारिणामिक तथा असंयत सम्यक्त्वीके औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव हैं। २७६. कार्मण काययोगियों में ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक भाव है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चारके बन्धकों के कौन भाव है ? औदायिक है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव हैं। विशेष-यहाँ उक्त प्रकृतियोंके अबन्धक अविरत सम्यक्त्वीको अपेक्षा औपशमिक, क्षायिक तथा शायोपशमिक भाव कहे हैं। सयोगकेवलीकी भी अपेक्षा क्षायिक भाव है। मिथ्यात्वके बन्धकों(?)के कौन भाव हैं ? पारिणामिक भी है। विशेष-यहाँ बन्धकोंके स्थानपर अबन्धक पाठ ठीक बैठता है, कारण पारिणामिक भाव सासादन गुणस्थानमें पाया जाता है जहाँ मिथ्यात्वका अबन्ध है । साताके बन्धकों,अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है.। असाताके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक वा क्षायिक भाव है। साता-असाता दोनों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है; अबन्धक नहीं है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक, औपशमिक, क्षायिक तथा शायोपशमिक भाव है। नपुंसकवेदके १ "कम्म इशकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी सजोगिकेवली ओघ । कुदो ? मिच्छादिदीणमोदइएण, सासणाणं पारणामिएण, कम्मइयकायजोगि-असंजदसम्मादिट्रोणं ओवसमिय-खइय-खओ. वसमियभावेहि सजोगिकेवलीणं खइएण भावेण ओघम्मि गदगुणटाणेहि साधम्मुवलंभा।" -जी० भा०,सू० ४०,पृ० २२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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