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________________ पयडिबंधाहियारो २८९ तिरिक्ख-अपज तिरिक्खायु० जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । मणुसायु ओघं । दो-आयु० तिरिक्खायुभंगो। सेसं णस्थि अंतरं । एवं पंचिंदिय-तस-अपज० विगलिंदिय-बादर-पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० बादर-वणफदि-पत्तेय-पञ्जत्ताणं । णवरि तेउ० आयु चउन्धीसं मुहुतं । २४८. मणुसेसु-चदु-आयुबंधगा जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण चउव्वीसं मुहुत्तं । दो वेदणी० अबंधगा जहण्णण एगस० । उक्कस्सेण छम्मास० । मणुसिणीसु वासपुधत्तं । सेसं णत्थि अंतरं । मणुस-अपज्ज. सव्वाणं जहण्गेण एगसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। २४६. देवाणं-णिरयभंगो । णवरि सवढे पलिदोवमस्स संखेजदिभागो। ~~~ पंचेन्द्रिय तियं च अपर्याप्तकों में तिथंचायुका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यायुका ओघवत् अन्तर है। दो आयुके बन्धकों का तिथंचायुके समान भंग है । शेष प्रकृतियों में अन्तर नहीं है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय-त्रस-अपर्याप्तक, विकलेन्द्रिय, बादर पृथ्वी, बादर अप् , बादर तेज, बादर वायु, बादर वनस्पति प्रत्येक पर्याप्तकों में जानना चाहिए। विशेप, तेजकायमें आयुका २४ मुहूर्त अन्तर है। २४८. मनुष्यगतिमें-चार आयुके बन्धकों का जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे २४ मुहूर्त अन्तर है । दो वेदनीयके अबन्धकों का जघन्यसे अन्नर एक समय, उ कृट से छह माह हैं। विशेष'-साता-असातायुगल के अबन्धक अयोगकेवली होगे । उनका नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है, उत्कृष्ट अन्तर छह मास है। मनुष्यनियोंमें दोनों वेदनोयोंके अबन्धकोंका अन्तर वर्षपृथक्त्व है । शेषका अन्तर नहीं है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें-सर्व प्रकृतियोंका जघन्यसे अन्तर एक समय, उत्कृष्ट से पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है । विशेषार्थ-शंका-इस इतनी महान राशिका अन्तर किसलिए होता है ? समाधान-यह तो राशियोंका स्वभाव ही है और स्वभाव में युक्तिवादका प्रवेश नहीं है, क्योंकि उसका भिन्न विषय है । ( ध० जी० अंत० टीकापृ०५६) __२४२. देवोंमें-नरकके समान भंग है। विशेष इतना है कि सर्वार्थसिद्धि में पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण अन्तर है। १. “चदुण्हं खवग-अजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं उक्कस्सेण छम्मासं ।" -षट् खं०,अंतरा० १६, १७ । “उत्कृष्टेन षण्मासाः।" -स० सि. १, ८ । २. 'मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु चदुण्हमुवसामगाणमंतरं के चिरं कालादो होंदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणणेण एगसमयं उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।"-७०,७१ । "मणसू-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? णाणाजीवं पच्च जहण्णेग एगसमयं ।" ७८ । मणस अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो- चु० बं०,असू०८-१०1 "किम?-मेदस्स एम्महंतस्स रासिस्स अंतरं होंदि ? एसो सहाओ एदस्स । ण च सहावे जत्तिवादस्स पवेसो अत्यिभिण्णविसयादो।" -ध० टी०,अ० पृ०५६ । “उक्कमेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।"-: । ३. देवगदीए देवाणमंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? णत्थि अन्तरं णिरंतरं (११-१३) भवणवामिय जाव सव्वमिद्धिविमाणवासिय देवा देवगदिभंगो १४-खु० बं०,अंतरा। ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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