________________
महाबंधे
पंचिदियतस०२ तिणि आयु-बंधगा जहणेण एगस० । उक्कस्सेण चउव्वीसं मुहुत्तं । तिरिक्खायु-बंधगा जहणेण एगस० । उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । पत्ते चउव्वीसं मुहुतं । सेसं मणुसोघं । तिष्णि-मण० तिणि वचि० चदुआयु० बंधगा जहणेण एगस० । उक्करसेण चउव्वीसं मुहुत्तं । सेसं णत्थि अंतरं ।
२६०
२५०. दोमण० दोवचि ० चदुआयु० तिष्णि मणभंगो | पंचणा० छदंसणा० चदुसंज० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंतराइगाणं बंधगा णत्थि अंतरं । अधगा जहणेण एगस० । उक्कस्सेण छम्मासं । सेसं पत्तेगेण साधारणेण य बंधगा णत्थि अंतरं । अबंधगा जहणेण एगस० । उक्कस्सेण छम्मासं । णवरि थीणगिद्वितिगं मिच्छत्त बारसक० दोअंगो० छस्संघ० परघादुस्सासं आहारदुगं आदाउजोवं दो - विहाय ० दोसरं बंधगा - अबंधगा णत्थि अंतरं ।
२५१. एवं चक्खु ० अचक्खु ० सष्णिति । णवरि अचक्खुदंस० आयु० ओघं । ओरालियमस०-धुविगाणं बंधगा णत्थि अंतरं । अबंधगा जहण्णेण एगस, उक्कस्सेण
1
1
पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-पर्याप्त, त्रस त्रस पर्याप्तकों में - तीन आयुके बन्धकोंका अन्तर जघन्य से एक समय, उत्कृष्टसे २४ मुहूर्त है । तिर्यंचायुके बन्धकोंका जघन्य से एक समय, उसे अन्तर्मुहूर्त अन्तर जानना चाहिए । पर्याप्तकों में २४ मुहूर्त हैं। शेष प्रकृतियों में मनुष्यों के ओघवत् जानना चाहिए ।
तीन मनोयोगी, तीन वचनयोगी में - ४ आयुका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे २४ मुहूर्त अन्तर है, शेष प्रकृतियोंमें अन्तर नहीं है ।'
२५०. दो मनयोगी, दो वचनयोगीमें-४ आयुके अन्तरका तीन मनोयोगीके समान भंग है । अर्थात् जघन्यसे एक समय, उत्कृष्ट से २४ मुहूर्त है । पाँच ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, तैजस-कार्माण, वणे ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायों के बन्धकका अन्तर नहीं है । अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे छह मास अन्तर है । शेषके बन्धकोंका सामान्य तथा प्रत्येक रूपसे अन्तर नहीं है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे ६ माह अन्तर है। विशेष यह है कि स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व १२ कषाय, दो अंगोपांग, ६ संहनन, परघात, उच्छ्वास, आहारकद्विक, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, दो स्वरोंके बन्धकों अबन्धकोंका अन्तर नहीं है।
२५१. इसी प्रकार अचक्षुदर्शनसे संज्ञी पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष यह है कि अचक्षुदर्शन में आयुका ओघवत् अन्तर I
औदारिक मिश्रकाययोगमें- ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकका अन्तर नहीं है; अबन्धकों का जघन्यसे एक समय उत्कृष्ट से वर्षपृथक्त्व अन्तर है ।'
विशेष- इस योग में ध्रुव प्रकृतियों के अबन्धक सयोगकेवली होंगे। वहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व हैं । कारण, कपाट
१. जोगाणुवादेण पंचमणजोगि- पंचवचिजोगि अंतरं केवचिरं कालादो होंदि ? णत्थि अंतरं निरंतरं ( २१-२३) २. "सजोगिकेवलीणमंतरं केत्रचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणणे एगसमयं उक्कस्सेण वासवुधत्तं । ” – षट् खं० अंतरा० १६६-६७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org