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________________ महाबंधे ३०. आदेसे०-णेरइएसु पंचणा०-छदंसणा०-बारसक०-भय दुगुं०-पंचिं०-ओरालिय-तेजाकम्म०-ओरालिय०-अंगो०-वण्ण०४अगु०४तस०४णिमिण-तित्थय० - पंचंत०णथि अंत० । थीणगिद्धि ०३ मिच्छ• अणंताणुबं०४ जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । सादासा० पुरिस० चदुणो० समचदु० वज०रिसभसं०, पसत्थवि० थिरादि-दोण्णि-युग०-सुभग-सुस्सर-आदे०जह० एग०, उक्क० अंतो० । इथिवे.. नपुंसय०-दोगदि० पंचसंठा० पंचसं० दो आयु० (आणुपु०) अप्पसत्थवि० उज्जोवं भग-दुस्सर अणादेज्ज०-णीचुच्चागो० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । दो ३०. आदेशसे - नारकियोंमें - पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेंद्रिय जाति, औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, औदारिकशरीर अंगोपांग, वर्ण चार, अगुरुलघु चार, त्रस चार, निर्माण, तीर्थकर और पाँच अन्तरायोंके बन्धका अन्तर नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य अन्तर, अन्त मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम तेतीस सागर है। विशेषार्थ - यहाँ नरकगतिके आश्रयसे बध्यमान प्रकृतियोंके अन्तरका कथन किया गया है । क्षुद्रक बन्धमें इस प्रकार विशेष कथनकी विवक्षाके स्थानमें सामान्य रूपसे प्रतिपादन किया गया है। जैसे नरकगतिमें नारकी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है, इस प्रश्नके उत्तर में आचार्य जघन्यसे अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्टसे अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन कहते हैं । भूतबलि स्वामी रचित सूत्र इस प्रकार है, "एग जीवेण अन्तराणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइयाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१॥ जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥२॥ उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥३॥ इन पूर्वोक्त सूत्रोंपर धवलाटीकामें प्रकाश डालते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं-नरकसे निकलकर गर्भोपक्रान्तिक तिथंच जीवोंमें अथवा मनुष्यों में उत्पन्न हो, सबसे कम आयुके भीतर नरकायुको बाँध मरण कर पुनः नरकोंमें उत्पन्न हुए नारकी जीवके नरकगतिसे अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तर पाया जाता है । उत्कृष्ट अन्तरके सम्बन्धमें इस प्रकार स्पष्ट किया है-नारकी जीवके नरकसे निकलकर अविवक्षित गतियोंमें आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण पुद्गल परिवर्तन परिभ्रमण करके पश्चात् पुनः नरकोंमें उत्पन्न होनेपर सूत्रोक्त अन्तरका प्रमाण पाया जाता है। महाबन्धमें नारकियोंमें ज्ञानावरणादिके अन्तरका अभाव कहा है। स्त्यानगृद्धि, आदिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूत तथा उत्कृष्ट अन्तर देशोन तेतीस सागर कहा है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है : मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई मनुष्य या तिथंच नीचे सातवीं पृथ्वीके नारकियोंमें पैदा हुआ । छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर अल्प आयुके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको पुनः प्राप्त हुआ,(४) पुनः तियच आयुको बाँधकर (५) विश्राम लेकर (६) निकला । इसप्रकार छह अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर प्रमाणकाल मिथ्यात्वके अन्तरका है। यही अन्तर स्त्यानगृद्धित्रिक और अनन्तानुबन्धी चारका भी होगा। साता-असाता वेदनीय, पुरुषवेद, चार नोकषाय, समचतुरस्र संस्थान, वनवृषभसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेयका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूत है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आयु (आनुपूर्वी), अप्रशस्त विहायोगति, उद्योत, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, नीच, उच्च गोत्र का जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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