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पयडिबंधाहियारो
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आयु० जह० अंतो०, उक० छम्मासं देखणा । एवं पढमादि याव छट्टित्ति । धुविगाणं तित्थय० णत्थि अंत | साददंड० ओघं । णवरि मणुस ० मणुसग० पाओ० - उच्चागोदं पवि० | सेसे णिरयोघं । णवरि अप्पष्पणो ट्ठोदी भाणिदव्वा । सत्तमाए पुढवीए रिओघं । वरि दोगदि-दो आणुपु०-दोगोदं० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं ० देसूणा । अडक० -भय-दु० -तेजा-कम्म० वण्ण०४ अगु० थीण गिद्धि ३ मिच्छ० - अनंताणु०४ जह० एवं इत्थि० । णवरि जह० एग० ।
३१. तिरिक्खेसु - पंचणा० छदंस० उप० णिमिणं पंचंरा० णत्थि अंत० । अंतो०, उक्क०तिष्णि पलिदोव० देसू०
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एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम तेतीस सागर है । विशेष- यहाँ 'दो आयु' के स्थान में दो आनुपूर्वी पाठ उपयुक्त लगता है, कारण दो आयुका अन्तर आगे कहा गया है । दो आयुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम छह माह अन्तर है ।
विशेषार्थ - नारकियों में भुज्यमान आयुके अधिक से अधिक छह माह और कमसे कम अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर आगामी बध्यमान मनुष्य तिर्यंच आयुका बन्ध होता है । किसी जीवने छह महीने जीवन शेष रहनेपर प्रथम अन्तर्मुहूर्त में नरकगति में परभवकी आयुका बन्ध किया और पश्चात् मरणसमय में पुनः बन्ध किया । इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर होगा |
इस प्रकार प्रथमसे छठी पृथिवी पर्यन्त जानना चाहिए । यहाँ ध्रुव प्रकृतियों तथा तीर्थंकरका अन्तर नहीं है ।
विशेषार्थ - तीर्थंकर प्रकृतिवाला जीव मिध्यात्वसहित मरण कर मेघा नामकी तीसरी पृथ्वी से नीचे नहीं जाता। इससे उसके बन्धका अन्तर तीसरी पृथ्वी तक जानना चाहिए, मीचेही पृथिवियों में नहीं जानना चाहिए ।
सातादण्डकका ओघके समान अर्थात् जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र में प्रविष्ट के विशेष जानना चाहिए ।
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'शेष प्रकृतियों में नारकियोंके ओघके समान है। विशेष यह है कि यहाँ प्रत्येक नरक में अपनी-अपनी स्थिति के समान अन्तर जानना चाहिए। सातवीं पृथ्वीमें सामान्य नरकके समान अन्तर है । इतना विशेष है कि दो गति, दो आनुपूर्वी, दो गोत्रका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम तेतीस सागर अन्तर है ।
३१. तिर्यंचोंमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायोंका बन्धका अन्तर नहीं है । क्योंकि इनका निरन्तर बन्ध होता है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्य है। इसी प्रकार स्त्रीवेदका अन्तर समझना चाहिए । विशेष यह है कि यहाँ जघन्य एक समय ( और उत्कृष्ट कुछ कम तीन पल्य ) है ।
१. "पढमादि जाव सत्तमीए पुढत्रीए णेरइएसुमिच्छादिट्टि - असंजदसम्मादिठ्ठोणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सागरोवमं, तिण्णि, सत्त, दस, सत्तारस, बावीस, तेतीसं सागरोवमाणि देसूणाणि " -- षट्खं०, अन्तरा० २८-३० ।
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