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महाबंधे सादासाद-पंचणोक० पंचिं० समचदु० परघादुस्सा -पसत्थवि० तस०४ थिरादिदोण्णि-युग सुभग-सुस्सर-आदेज्जा. जह० एग०, उक्क. अंतो० । अपचक्खाणाव०४-णपुंस०तिरिक्खगदि-चदुजादि-ओरालिय० पंचसंठा०-ओरालि०-अंगोवं०छसंघ०-तिरिक्खाणु०-आदा०-उज्जोव अप्पसत्थवि०-थावरादि०४-दूभग दुस्सर-अणादे - ज्ज०-णीचा०जह० एग० । अपञ्चक्खाणा०४ जह० अंतो०, उक्क ० पुवकोडिदेसू० । तिण्णि आयु० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडितिभागं दे० । तिरिक्खायु० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडि०सादिरे । वेउ व्वियछक्क० जह० एग०, उक्क० अणंतकालंअसंखे० । मणुसग०-मणसाण० उच्चा०ओघं ।
३२. पंचिदिय-तिरिक्ख तिग० धुविगाणं णत्थि अंत० । थीणगिद्धि०३ मिच्छ.
विशेषार्थ - एक मनुष्य या तियच, अट्ठाईस मोहनीयकी प्रकृतियोंकी सत्तावाला तीन पल्यकी आयुवाले मुर्गा, बन्दर आदिमें उत्पन्न हुआ। दो माह गर्भ में रहकर बाहर निकला। यहाँ आचार्य-परम्परागत दक्षिण-प्रतिपत्तिके अनुसार ऐसा उपदेश है कि तियचोंमें उत्पन्न हुआ जीव दो माह और मुहूर्तपृथक्त्वके ऊपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। उत्तर-प्रतिपत्तिके अनुसार तियचोंमें उत्पन्न हुआ जीव तीन पक्ष,तीन दिन और अन्तर्मुहूर्तके ऊपर सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। पश्चात् आयुके अन्त में मिथ्यात्वको प्राप्त कर मरण किया। इस प्रकार आदिके मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मासोंसे और आयुके अन्त में उपलब्ध दो अन्तर्मुहूतोंसे न्यून तीन पल्योपम काल मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर है । (ध० टी०,अन्तरा० पृ० ३२)
साता-असाता वेदनीय, ५ नोकषाय, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेयका अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। अप्रत्याख्यानावरण ४, नपुंसकवेद, तियचगति, चार जाति, औदारिक शरीर, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, तियचानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावरादिचतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका अन्तर जघन्य एक समय है किन्तु अप्रत्याख्यानावरण ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम एक कोटिपूर्व है।
विशेषार्थ-कोई मिथ्यात्वी जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मुर्छन पर्याप्तक एक कोटिपूर्वकी आयुवाले तियच में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर विश्राम ले, विशुद्ध हो, वेदक सम्यक्त्व तथा संयमासंयमको प्राप्त किया। मरणसमय देशसंयमसे च्युत हो गया। इस प्रकार उसके एक कोटि पूर्व में कुछ कम कालपर्यन्त अप्रत्याख्यानावरण ४ का अन्तर होगा।
तीन आयुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर एक कोटि पूर्वके तीन भागों मेंसे कुछ कम एक भाग प्रमाण है। तियचायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ अधिक एक कोटिपूर्व अन्तर है। वैक्रियिकषट्कका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अनन्तकाल, असंख्यात पुदगलपरिवर्तन है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका ओघके समान अन्तर जानना चाहिए।
३२. पंचेन्द्रिय-तिर्यंच, पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिमतीमें-ध्रुव प्रकृतियोंका अन्तर नहीं है,क्योंकि इनका निरन्तर बन्ध होता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व,
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