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________________ ८५ पयडिबंधाहियारो अणंताणु०४ जह० अंतो०, इथिवेद० जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदोव०देसू० । सादासादं० पंचणोक० देवगदि०४ पंचिंदि० समचदु० परघादुस्सा०-पसत्थवि०तसचदुरं थिरादिदोण्णि-युग०-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज उच्चा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अपचक्खाणा०४ जह० अंतो०, उक्क० पुषकोडिदेसू० । गपुंसय तिगदि-चदुजादि. ओरालिय०-पंचसंठा०-ओरालियअंगो०-छस्संघ० तिणि आणपु०-अप्पसत्थ० आदाउज्जो०-थावरादि०४ दूभग-दुस्सर-अणादे०-णीचागो० जह० एग०, उक्क० पुवकोडिदे० । आयु-चत्तारि तिरिक्खोघं । पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपज्ज०-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलस० भयदु० ओरालिय-तेजाकम्म० वण्ण०४ अगु० उपघा० णिमिणं पंचंत० णस्थि अंत० । सादासाद० सत्तणोक० दोगदि-पंचजादि-छस्संठाण०ओरालिय० अंगो छस्संघ० -दोआण० परघादुस्सा० आदा-वुज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयुगल-णीचुच्चा०गोदाणं जह० एग०, उक्क० अंतो० । दोआयु० जहण्णु० अंतो० । एवं सव्व-अपज्जत्ताणं तसाणं थावराणं च । अनन्तानुबन्धी ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा स्त्रीवेदका जघन्य एक समय तथा इन सबका उत्कृष्ट कुछ कम ३ पल्य अन्तर है। . विशेषार्थ - मोहनीय कर्मकी २८ प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाले तिर्यंच अथवा मनुष्य तीन पल्योपमको आयुवाले पंचेन्द्रिय तिर्यचत्रिक कुक्कुट, मर्कट आदि में उत्पन्न हुए वा दो माह गर्भमें रहकर निकले। महत प्रथक्त्वसे विशद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए और आयुके अन्त में आगामी आयुको बाँधकर मिथ्यात्वसहित मरण किया । पुनः इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्तोसे तथा मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मासोंसे न्यून तीन पल्योपम काल तीनों प्रकारके तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। यही अन्तर मिथ्यात्व आदिका भी है। साता-असाता वेदनीय, ५ नोकषाय, देवगति ४, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि दो युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, और उच्चगोत्रका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। अप्रत्याख्यानावरण ४ का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्व कोटि अन्तर है। नपुंसकवेद, देवगतिके बिना ३ गति, ४ जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, ३ आनुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, आताप, उद्योत, स्थावरादि ४, दुभंग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि है । चार आयुका तियचोंके ओघ समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस-कार्माण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पंच अन्तरायोंका अन्तर नहीं है। साता-असाता वेदनीय, ७नोकषाय. २ गति ( मनुष्यतिर्यंचगति ), ५ जाति, ६ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि-दस-युगल, नीच उच्च गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त अन्तर है। दो आयुका जघन्य तथा उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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