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महाबंधे
३३. मणुस०३-पंचणा०छदंसण चदुसंज०भयदुगुंतेजाकम्म०वण्ण०४ अगुरु० उप० णिमिण० तित्थय० पंचंत० जहण्णु० अंतो० । थीणगिद्धितिग-दंडओ इत्थिदंडओ साददंडओ णपुंसदंडओ आयुदंडओ पंचिंदिय-तिरिक्ख-पज्जत्तभंगो। णवरि मणुसा० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडिसादि०। आहारदुगं जह० अंतो०, उक० पुचकोडिपुध०।
सभी अपर्याप्तक त्रस-स्थावरोंका इसी प्रकार अन्तर समझना चाहिए।
विशेषार्थ-सामान्य कथनकी अपेक्षा तिर्यंचोंका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कटसे सागरोपम-शत-पृथक्त्व कहा है। खहाबंधकी टीकामें लिखा है तिरिक्खस्स तिरिक्खे हितो णिग्गयस्स सेसागदीसु सागरोवमसद पुधत्तादो उवरि अवट्ठाणाभावादो (पृ० १८२)-तिर्यंच जीवके तिर्यंचोंमें-से निकल कर शेष गतियों में सागरोपमशत पृथक्त्व कालसे ऊपर ठहरनेका अभाव है।।
____३३. मनुष्य-सामान्य, मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यिनीमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस-कार्मण वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और ५ अंतरायोंका जघन्य, उत्कृष्ट अन्तर अंतर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धित्रिक-दंडक, स्त्रीदंडक, सातादंडक, नपुंसकदंडक, आयुदंडकमें पंचेन्द्रिय-तियञ्च-पर्याप्तकके समान अंतर है । विशेष मनुष्यायुका जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक पूर्वकोटि है।।
आहारकद्विकका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व है ।'
विशेषार्थ-२८ मोहनीयकी प्रकृतियोंको सत्तावाला अन्य गतियोंसे आकर कोई जीव मनुष्य हुआ । गर्भको आदि लेकर ८ वर्षका हुआ । सम्यक्त्व एवं अप्रमत्त गुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ। (१) पुनः प्रमत्तयंयत हो अंतरको प्राप्त हुआ और ४८ पूर्वकोटियाँ परिभ्रमण कर अंतिम पूर्वकोटिमें देवायुको बाँधता हुआ अप्रमत्तसंयत हो गया । (२) इस प्रकार अंतर प्राप्त हुआ । तत्पश्चात् प्रमत्तसंयत होकर (३) मरा और देव हुआ। ऐसे तीन अंतर्मुहूर्तासे अधिक आठ वर्षोंसे कम ४८ पूर्वकोटियाँ उत्कृष्ट अंतर होता है । (ध० टी०,अंत० पृ० ५२)
आहारकद्विकके बंधक अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती होते हैं । इस कारण यह वर्णन-क्रम उसमें भी सुघटित है।
'खुदावंध मनुष्यों तथा पंचेन्द्रिय-तियचोंको जघन्य अंतर क्षुद्रभवग्रहण काल तथा उत्कृष्ट अंतर असंख्यातपुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनंतकाल कहा है। सूत्रों के शब्द इस प्रकार हैं - "पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपजत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोगिणी पंचिंदियतिरिक्खअपजता मणुसगदीए मणुस्सा मणुसपजता मणुसिणी मणुसअपजत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण खुद्दाभवगहणं। उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा" (सूत्र ८, ६, १० पृष्ठ १८६, १६०)।
१. संजदासंजदप्पहडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुनकोडिपुधत्तं । सूत्र ६७, ६८, ६९, अंत०, पृ० ५२ । उत्कर्षेण पूर्वकोटिपृथक्त्वानि । स० सि०, १, ८ ।
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