________________
पडबंधाहियारो
२६७
भयदु० पंचिदि० तेज क० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमिण-पंचंतराइयाणं बंधगा छच्चोद्द सभागो । अबंधगा केवलिभंगो। थीणगिद्धि ०३ मिच्छत्त- अट्ठकसा० मणुसायु - तित्थयरं बंधगा छच्चोद्द सभागो । अबंधगा छच्चोद्दसभागो, केवलिभंगो | सादantarataभाग वलिभंगो । अबंधगा छच्चोद्द सभागो । असाद-बंधगा बच्चोसभागो । अबंधगा बच्चोद्दस ० केवलिभंगो । दोष्णं बंधगा छच्चोद्दसभागो केवलि - भंगी । अधगा णत्थि | देवग दि०४ बंधगा छच्चोद्दस० । अबंधगा छच्चोद्दस • केवलिभंगो० । एवं दव्वं । भवसिद्धि ओघं ।
1
जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय, तैजस- कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धकका ४ है । अबन्धकोंके केवली-भंग है ।
विशेष - मिध्यात्व, सासादन, मिश्र तथा असंयत सम्यक्त्वी शुक्ललेश्यावालोंने विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक पद परिणत जीवोंने स्पर्श किया है । स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक पद परिणत संयतासंयतोंने लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिक पद परिणत शुक्ललेश्यावालोंने ४ भाग स्पर्श किया है। कारण तिर्यंच संयतासंयतोंका शुक्ललेश्या के साथ अच्युत कल्प में उपपाद पाया जाता है। मिश्र गुणस्थान में उपपाद तथा मारणान्तिक पढ़ नहीं होते हैं । ( पृ० ३०० )
स्त्यानगृद्धि ३, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी आदि ८ कपाय, मनुष्यायु, तीर्थंकर के बन्धकोंके १४ भाग हैं, अबन्धकोंके ४ वा केवली भंग है । साताके बन्धकोंके १४ भाग तथा केवली भंग है : अबन्धकोंके हैं । असाताके बन्धकोंके हैं। अबन्धकोंके १४वा केवलीभंग है। दोनों के बन्धकोंके ४ वा केवली-भंग है; अबन्धक नहीं है । देवगति ४ के बन्धकोंके है अबन्धकों तथा केवली भंग है। शेष प्रकृतियोंका इसी प्रकार निकालना चाहिए । भव्य सिद्धिकों में ओघवत् भंग है ।
विशेषार्थ - भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवों द्वारा स्वस्थान, समुद्घात एवं उपपादपदों से सर्वलोक स्पृष्ट है । स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिक और उपपाद पदों से अतीत व वर्तमान कालमें भव्यसिद्धिक एवं अभव्यसिद्धिकं जीवों द्वारा सर्वलोक स्पृष्ट है । विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा वर्तमानकाल में क्षेत्रके समान प्ररूपणा है । अतीत काल में द भाग पृष्ट है। वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवाँ भाग और मनुष्य लोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पष्ट है । भव्यसिद्धिक जीवों में शेष पदों की अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण ओके समान है । ( खु० बं० टी० पृ० ४४५ ) ।
१. "सुक्कले स्सिएसु मिच्छादिट्ठिप्पहूडि जाव संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । चोद्दसभागां वा देसूणा ।" -सू० १६२ - १६३ । २. शुक्कलेस्सिया सत्याण उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छचोसभागा वा देसूणा । समुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छवोसभामा वा देसूणा / असंखेज्जा वा भागा । सव्वलोगो वा । - खु० बं० सृ० २०९-२१६ । ३. “भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिट्टित्पहूडि जाव अजोगिकेवलित्ति ओघं ।" - पटू खं०, फो० सू० १६५ । भवियाणुवादेण भवसिद्धिय अभवसिद्धिय सस्थाण- समुग्वाद- उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो - खु० बं० सू० २१७-२१८, पृ. ४४४-४५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org