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महाबंधे थीणगिद्धितियं मिच्छत्त० अणंताणु०४ बंधा अबंधगा अट्ठचोद्दसभागो। एवं दोआयु० उज्जोवं तित्थयरं च । सादासादाणं बंधा अबंधगा अठ्ठचोद्दसभागो । दोण्णं बंधगा अट्ठचोद्दसभागो । अबंधगा णस्थि । एवं बंधगा (?) वेदणीयभंगो। सेसाणं पत्तेगेण साधारणेण । णवरि देवायु-बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा अट्ठचोदसभागो। तिण्णं आयु० बंधा अबंधगा अठ्ठचोद्दसभागो। देवगदि०४ बंधगा पंचचोद्दस० । अबंधगा अट्ठचोद्दसभागो। अपचक्खाणा०४ ओरालियस० ओरालिय० अंगो० बंधगा (१). छस्संघ०साधारणेण अबंधगा पंचचोदस० | पच्चक्खाणा०४ बंधगा अट्ठचोद्दस । अबंधगा खेत्तभंगो। आहारदुगं देवायुभंगो। सुकाए-पंचणा० छदंस० अट्ठकसा०
भाग स्पृष्ट है, क्योंकि पद्मलेश्यावाले देवोंके एकेन्द्रिय जीवों में मारणान्तिक समुद्घातका अभाव है। उपपादकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है। अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम ५४ भाग स्पृष्ट है। क्योंकि मेरु मूलसे पाँच राजू मात्र मागे जाकर सहस्रार कल्प. का अवस्थान है।'
. स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकों,अबन्धकोंका है। मनुष्य तियचायु, उद्योत तथा तीर्थकर का इसी प्रकार है। साता, असाताके बन्धकों, अबन्धकोंका 4ह है। दोनोंके बन्धकोंका ६ है; अबन्धक नहीं है । शेष प्रकृतियोंका प्रत्येक तथा सामान्यसे इसी प्रकार वेदनीयका भंग है। विशेष, देवायुके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है; अबन्धकोंका है । तीन आयु (नरकायु बिना) के बन्धकों, अवन्धकोंका ६४ है। देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका ५४ है; अबन्धकोंका ६४ है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, ६ संहननके बन्धकों,अबन्धकोंका सामान्यसे ५४ है।
विशेष-देशसंयमी पद्मलेश्यावाले जीवोंके मारणान्तिक समुद्घातको अपेक्षा शतार, सहस्रार कल्पके स्पर्शनकी दृष्टिसे १४ कहा है।।
प्रत्याख्यानावरण.४ के बन्धकोंका ६४ है। अबन्धकोंका क्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भाग भंग है।
विशेष-प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक प्रमत्तसंयतोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग कहा है।
आहारकद्विकका देवायुके समान भंग है अर्थात् बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग है; अबन्धकोंके ६४ है।
शुक्ल लेश्यामें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, प्रत्याख्यानावरणादि ८ कषाय, भय.
१. पम्मलेस्सिया सत्थाण-समुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्टचोद्दसभागा वा देसूणा । उबवादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। पंचचोद्दसभागा वा देसूणा । खु० बं०,सू० २०३-२०८ । २. "संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेजदिभागो। पंचचोद्दसभागा वा देसूणा ।" -षट्खं, फो०, सू० १५६-१६०। ३. 'प्रमत्ताप्रमत्तलॊकस्यासंख्येयभागः ।" -स० सि०१८ ।
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