________________
द्वितीय संस्करण
यह परम आनन्द की बात है कि 'महाबन्ध' सदृश दुरूह और गम्भीर ग्रन्थ के प्रथम खण्ड का प्रथम संस्करण समाप्त हो जाने से उसके पुनः मुद्रण का मंगल प्रसंग प्राप्त हुआ। हमने 'महाबन्ध' का सूक्ष्मता से पुनः पर्यालोचन करके भूमिका, अनुवाद आदि में अत्यधिक आवश्यक तथा उपयोगी परिवर्तन और परिवर्धन किये हैं।
__इस ग्रन्थ की कोई पूर्व में टीका नहीं थी, अतः १७ वर्ष के शास्त्राभ्यास के फलस्वरूप अनेक बातें परिवर्तन तथा संशोधन योग्य लगीं। सहारनपुर के श्रुतप्रेमी बन्धु श्री नेमीचन्दजी एडवोकेट तथा ब्र.. रतनचन्दजी मुख्तार ने अनेक महत्त्वपूर्ण संशोधनों का सुझाव दिया। मूडबिद्री जाकर पुनः प्रतिलिपि मिलाने के कार्य में हमारे अनुज अभिनन्दनकुमार दिवाकर, एम.ए., एल.एल.बी., एडवोकेट ने महत्त्वपूर्ण योग दिया था। हमारे भाई श्रेयांसकुमार दिवाकर, बी.एस-सी. से भी उपयोगी सहायता मिली। भाई शान्तिलाल दिवाकर के ज्येष्ठ चिरंजीव ऋषभकुमार ने लेखन कार्य में पर्याप्त श्रम उठाया है।
भारतीय ज्ञानपीठ ने इस ग्रन्थ के पुनः मुद्रण का भार उठाया। इन सबके प्रति हम अत्यन्त आभारी हैं। चारित्रचक्रवर्ती, क्षपकशिरोमणि, १०८ आचार्य शान्तिसागर महाराज की इच्छानसार सम्पूर्ण 'महाबन्ध' की ताम्रपत्रीय प्रति के लिए पूर्ण ग्रन्थ संशोधन, सम्पादन तथा मुद्रण का महान कार्य करने का पवित्र सौभाग्य मिला था। उस कार्य के अनुभव से इस टीका के कार्य में विशेष लाभ पहुँचा। सन् १८५५ में उन ऋषिराज ने सिद्धक्षेत्र कुन्थलगिरि में ३६ दिन पर्यन्त सल्लेलखनापूर्वक आदर्श देहोत्सर्ग किया। अतः उनके पुण्यचरणों को कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करते हुए प्रणामांजलि अर्पित करते हैं। ऋषीश्वर धरसेन आचार्य तथा पुष्पदन्त-भूतबलि मुनीन्द्रों के चरणों को शतशः वन्दन है, जिनके कारण इस द्वादशांग वाणी के अंगरूप आगम का संरक्षण हुआ। 'जयउ सुयदेवदा।'
दिवाकर सदन, सिवनी ३० दिसम्बर, १६६४
-सुमेरुचन्द्र दिवाकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org