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पडबंधाहियारो
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सिया अगो । अथवा छष्णं दोष्णं दोष्णं पि अबं० । तस० सिया० । थावरं सिया० | दोष्णं पगदी० एकतरं बं०, ण चेव अबं० | एवं अट्ठयुगलाणं । एवं तिरिक्खाणु ० ।
७०. मणुसगदिं बं० पंचिंदि० ओरालिय- तेजाक० ओरालि० अंगो० वण्ण०४ मणुसाणु० अगु० उप० तस बादर-पत्रो० णिमि० णियमा [ बंधगो ] । छस्संठा० संघ ० पज्जत्ता० अपज० श्रीरादि- पंच-युग० सिया बं०, सिया अचं० । एदेसिं एकतरं बं०, ण चैव अबं० । परधादुस्सा० तित्थय० सिया बं०, सिया अनं० । दो विहा० दो सर० सिया बंध०, सिया अ० । अथवा दोणं दोष्णं पि अनं० । एवं मणुसाणु० । ७१. देवगदिं बंधतो पंचिदि० वेउव्विय-तेजाक० समचदु० वेउव्वि० अंगो० वण्ण०४ देवाणु० अगु०४ पसत्थ तस०४ सुभग-सुस्सर-आदे० णिमि० णियमा बं० । आहारदुग - तित्थय० सिया० [ बं० सिया ] अबं० । थिरादेतिणि यु० सिया बं०, सिया अबंध । तिण्णि युगलाणं एकतरं बंध०, ण चेत्र अबं० । एवं देवाणुपु० ।
दो विहायोगतिका स्यात् बन्धक है। दो स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । अथवा ६ संहनन, दो विहायोगति, तथा दो स्वरोंका भी अबन्धक है ।
विशेषार्थ -- एकेन्द्रियों में संहननके समान विहायोगति तथा स्वरका अभाव है। इस कारण ६, २, २ का अबन्धक भी कहा है ।
सका स्यात् बन्धक है । स्थावरका स्यात् बन्धक है । दोनोंमें से किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति और स्थिर इनके आठ युगलों का इसी प्रकार वर्णन समझना चाहिए अर्थात् प्रत्येक युगल में से अन्यतरका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । तिर्यचानुपूर्वीका बन्ध करनेवाले के तिर्यंचगति के समान भंग है ।
७०. मनुष्यगतिका बन्ध करनेवाला - पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक-तैजस- कार्माण शरीर, औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्धक है । ६ संस्थान, ६ संहनन, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिरादि पंचयुगलका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इनमें से किसी एकका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । परघात, उच्छ्वास, तीर्थंकरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । दो विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक हैं । अथवा दो विहायोगति, दो स्वरका भी अबन्धक है | मनुष्यानुपूर्वी में मनुष्यगति के समान जानना चाहिए।
७९. देवगतिका बन्ध करनेवाला - पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस- कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, प्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । आहारद्विक, तीर्थंकरका [ स्यात् बन्धक ] स्यात् अबन्धक है। स्थिरादि तीन युगलका स्यात् बन्धक स्यात् अबन्धक है। तीन युगलों में से किसी एक युगलका बन्धक है, अबन्धक नहीं है।
देवानुपूर्वी में देवगति के समान जानना चाहिए ।
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