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________________ ११६ महाबंधे ण चैव अ० | हरसरदी सिया [ बं० ], अरदिसोग० सिया [ बं० ] | दोष्णं युग० एकद० ण चेव अ० । एवं दुगु० । ६७. णिरयायुगं बंधतो तिरिक्खायुगं मणुसायुगं देवायुगं अगंधगो | एवमण्णमण्णस्स अबंधगो । ६८. णिरयगतिं [ दिं ] बंधंतो पंचिंदि० वेउब्विय-तेजाक० हुंडठाणं वेउब्वि० अंगो० वण्ण०४ णिरयाणुपु० अगु०४ अपस० तस०४ अथिरादिछ० णिमिण० णियमा बं० । एवं णिरयाणुपुव्त्रि ० । ६६. तिरिक्खगतिं बंधतो ओरालिय-तेजाक० वण्ण०४ तिरक्खाणु० अगु० उप० णिमिण० णियमा बंध० । एइंदियजादि सिया० । एवं बेइं० तेइं० चदु० पंचिंदि० सिया [ बंधगो ] | पंचणं जादीणं एक्कदरं बधगो, ण चेव अबंधगो । एवं छठा ० एकतरं बंधगो | ण चेव अबंधगो । ओरालि० अंगो० परचादुस्सा० आदावुञ्जो० सिया बं० सिया अब ० । छस्संघ० सिया० । दो विहाय० सिया० । दो सरं सिया बंधगो, किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । हास्य, रतिका स्यात् बन्धक है। अरति, शोकका स्यात् बन्धक है। दोनों युगलों में से एक युगलका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । जुगुप्साका बन्ध करनेवाले इसी प्रकार जानना चाहिए। ६७. नरकाका बन्ध करनेवाला - तिर्यंचायु, मनुष्यायु तथा देवायुका अबन्धक है । इसी प्रकार किसी अन्य आयुका बन्ध करनेवाला शेषका अबन्धक है। जैसे तिर्यंचायुका बन्धक शेष तीन आयुओंका अबन्धक होगा । कारण एक समय में बध्यमान एक ही आयु होगी। ६८. नरकगतिका बन्ध करनेवाला - पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तैजस, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, नरकानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, अप्रशस्त विहायोगति, स ४, अस्थिरादिषटक, निर्माणका नियमसे बन्धक है । विशेषार्थ - नरकगति में संहननका अभाव होने से उसका बन्ध नहीं बताया है। कारण संहनन अस्थिबन्धन विशेषरूप है, वैक्रियिक शरीर में अस्थिका अभाव है । कानुपूर्वीका बन्ध करनेवाले के- नरकगति के समान जानना चाहिए । ६६. सियंचगतिका बन्ध करनेवाला - औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर, वर्ण ४, तिर्यंचानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। एकेन्द्रिय जातिका स्यात् बन्धक है । इसी प्रकार दो, तीन, चार, पंचेन्द्रिय जातिका स्यात् बन्धक है। पंचजातियोंमें-से एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । इसी प्रकार छह संस्थानों में से किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आता, उद्योतका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । ६ संहननोंका स्यात् बन्धक है । विशेषार्थ - तियंचगति के बन्धकके ६ संहननका बन्ध अनिवार्य नहीं है; कारण एकेन्द्रियों में संहनन नहीं होता है । अस्थिबन्धन विशेषको संहनन कहते हैं । एकेन्द्रियोंके अस्थियाँ नहीं पायी जाती हैं। उनके द्वारा गृहीत आहारका मांस रुधिरादिरूप परिणमन नहीं होता है । इस कारण उनके संहननका अभाव कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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