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________________ बंधा हियारो पुरिसवे ० -देवग० - वेउच्चि समच० वेउन्वि० अंगो० देवाणुपु० पसत्थवि० सुभग० सुस्सर० आदेज्ज० उच्चागो० जह० एस० । उक्क० तिष्णि पलिदो० । चदुआयु० तिरिक्खगदितिगं ओघं । पंचिंदिय० परघा० उस्सासं तस०४ जह० एग० । उक्कस्सेण तिष्णि पलिदो० सादिरे० । १५. पंचिंदि० तिरिक्ख० ३ ओघं । पढमदंडओ जह० खुद्दा० । पज्जतजोणिणीसु [ जहणेण ] अंतो० । उक्क० तिष्णि पलिदो० पुव्त्रको डिपुध० । एवं थीण गिद्धितिगं अट्ठकसा० । णवरि जह० एस० । साददंडओ तिरिक्खोघं । णवरि तिरिक्खग ५७ कीर्तिका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, देवानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट तीन पल्य है । चार आयु और तिर्यंचगतित्रिकका ओघ के समान जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छवास, त्रस ४ का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य प्रमाण है । १५. पंचेन्द्रिय-तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीमें - ओघके समान जानना चाहिए । प्रथम दण्डकमें जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण है । तिर्यंचपर्याप्तक तथा योनिमतियों में ( जघन्य ) अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट' पूर्वकोटि पृथक्त्वाधिक तीन पल्य प्रमाण बन्धकाल है । विशेषार्थ - - एक देव, नारकी, मनुष्य अथवा विवक्षित पंचेन्द्रियं तिर्यंचसे विभिन्न अन्य तिर्यंच मरकर विनित पंचेन्द्रिय तिर्यंच हुआ। वहाँ संज्ञी स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदोंमें क्रमसे आठ-आठ पूर्वकोटि काल व्यतीत करके तथा असंज्ञी स्त्री, पुरुष, नपुंसकमें पूर्ववत् आठ-आठ पूर्व कोटि प्रमाण काल-क्षेप करके पश्चात् लव्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न हुआ । वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः पंचेन्द्रिय तिर्यच असंज्ञी पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर उनमें के स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदी जीवों में पुनः आठ-आठ पूर्वकोटि प्रमाण काल व्यतीत करके पश्चात् संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तक स्त्री और नपुंसक वेदियोंमें आठ-आठ पूर्व कोटियाँ तथा पुरुष वेदियों में सात पूर्वकोटियाँ भ्रमण करके पश्चात् देवकुरु, वा उत्तरकुरुमें, तिचोंमें, पूर्व बद्धायुके वश पुरुष या स्त्री तिच हुआ तथा तीन पल्योपम काल व्यतीत करके मरा और देव हुआ । इस प्रकार पूर्वकोटि पृथक्त्व वर्ष अधिक तीन पल्य कहे हैं । (ध०टी० का ० पृ० ३६७, ३६७) २ इसी प्रकार स्त्यानगृ द्धित्रिक तथा आठ कषायका भी जानना चाहिए । विशेष यह है कि यहाँ जघन्य एक समय है । साता दण्डकमें तिर्यंचोंके ओघवत् जानना चाहिए। १. “पंचिदिय-तिरिक्ख- पंचिदियतिरिक्खपज्जत - पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छादिट्ठी केव चिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्त उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणभहियाणि । "-पट्खं०, का० ५७-५६ । २. यहाँ बारह भावोंमें से ११ भवोंमें पूर्व कोटिपृथक्त्ववर्ष अर्थात् आठ-आठ पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण परिभ्रमणका काल और अन्तके बारहवें भाव में सात पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण परिभ्रमण करनेका काल मिलकर ९५ पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होता है । इस कालको 'पूर्वकोटिपृथक्त्व ' शब्दसे ग्रहण किया है । ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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