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________________ महाबंधे १४. तिरिक्खेसु पंचणाणा० छदसण. मिच्छ० अट्ठक० भयदुगुंछ० तेजाक० वण्ण०४ अगुरु० उप० णिमिणं पंचंत० बंध० जह० खुद्धाभव०, उक्क० अणंतकालं असंखे० [पोग्गलपरियटुं० ] । एवं थीणगिद्धितिगं अणंताणु ० आदि० (१) अट्ठकसाय ओरालिय०, णवरि जह० एगस० । सादासा०-छण्णोकसा०-दोगदि-चदुजादि-पंचसंठाणं ओरालिय. अंगो० छस्संघड ०-दोआणुपु०-आदावुज्जोव० अप्पसत्थवि० थावरादि०४ थिरादि दो यु. भग-दुश्सर-अणादेज्ज-जस० अजस० जह० एगस०, उक्क० अंतो०। विशेष - ओघ रचनावाला ताड़पत्रका अंश नष्ट हो गया, अतः ओघ रचना अज्ञात है। मिथ्यात्व दण्डकमें इसी प्रकार जानना चाहिए । पुरुषवेद दण्डकमें अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण किन्तु कुछ कम बन्धकाल है दो आयु ( मनुष्य तिर्यंचायु ) का बन्धकाल ओषके समान है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्धकाल प्रथम पृथ्वीमें जघन्यसे चौरासी हजार वर्ष है, उत्कृष्ट से देशोन एक सागर है। विशेषार्थ - इस कथनसे विदित होता है कि तीर्थकर प्रकृतिका बन्धक नरकमें कमसे कुल ८४ हजार वर्षकी आयुको प्राप्त करेगा । उदाहरणार्थ- श्रेणिक महाराजके जीवने नरकमें जाकर ८४ हजार वर्ष की आयु प्राप्त की है।। दूसरी पृथ्वीमें जघन्य बन्धकाल साधिक एक सागर, उत्कृष्ट किंचित् ऊन तीन सागर है। तीसरी पृथ्वीमें जघन्य साधिक तीन सागर, उत्कृष्ट साधिक तीन सागर बन्धकाल है । विशेषार्थ- तीसरी पृथ्वीमें सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति पायी जाती है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ उत्पन्न होनेवाला जीव किंचित् ऊन सात सागर पर्यन्त सम्यक्त्वी रहनेसे उतने काल पर्यन्त तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करता है; किन्तु इस सम्बन्धमें यह आगम बताता है कि उस प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्धकाल साधिक तीन सागर है। इससे अधिक बन्धकालकी कल्पना करना आगम बाधित होगा। सातवीं पृथ्वीमें-नारकियोंके ओघवत् जानना चाहिए । विशेष यह है कि दर्शनावरण ३, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी ४, तिथंचगतित्रिकका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उच्चगोत्रका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ तीर्थकर प्रकृति नहीं है। [चौथी, पाँचवीं तथा छठी पृथ्वीमें भी तीर्थंकर प्रकृति नहीं है। १४. तिल्चोंमें - ५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसकार्माण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायोंका जघन्यसे बन्धकाल भद्रभव ग्रहण, उत्कृष्ट से अनन्तकाल असंख्यात पुद्गल परावतेन है। स्त्यानगृद्धि त्रिक, अनन्तानुबन्धी आदि आठ कषाय तथा औदारिक शरीर में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ जघन्य बन्धकाल एक समय है । साता-असातावेदनीय, ६ नोकषाय,२ गति, ४ जाति, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावरादि ४, स्थिरादि दो युगल, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यश-कीर्ति, अयशः १. “तिरिक्खगदीए तिरिक्खेमु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियटुं"-षट्खं०, का० ४८। २. "सासणसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ।"-पटूखं०, का०५, ७, ८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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