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महाबंधे
दितिगं ओरालियं च पविट्ठ । पुरिसवेददंडओ तिरिक्खोघं । णवरि जोणिणीसु देसू० । चदु आयु० ओघं । पंचिंदि० दंडओ तिरिक्खोघं ।
१६. पंचिंदिय-तिरि०-अप० पंचणाणा०-णवदं० मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगुं० ओरालिय० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं पंचंत० जह० खुद्धा० । उक्क० अंतो० । दो आयु ओघं । सेसाणं जह० एगस० । उक० अंतो० । एवं सव्व-अपज्जत्ताणं तसाणं थावराणं च ।
१७. मणुस०३-पंचणा० णवदंस० सोलसक० भय दुगुं० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं पंच-(पंचंत०) जह० एग० । [ उकस्सेण] तिणि पलिदो० पुव्वकोडिपुधः । एवं मिच्छ० । णवरि जह० खुद्धा० । पज्जत्त(०)मणुसिणि अंतो० । सादावे. चदुआयु ओघं । असाद०-छण्णोक०-तिण्णिगदि-चदु जाति(दि)-ओरालिय०पंचसंठा०-ओरालिय-अंगोल्छस्संघ०-तिण्णिआणु०-आदावुज्जो० अप्पस०-थावरादि०४तिर्यंचगतित्रिक तथा औदारिक शरीर में विशेष जानना चाहिए । पुरुषवेद दण्डकका तिर्यञ्चोंके
ओघवत है। इतना विशेष है कि योनिमती तिर्यञ्चों में कुछ कम जानना चाहिए। चार आयुका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय दण्डकमें तिर्यञ्चोंके ओघवत् है ।
१६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च-लब्ध्यपर्याप्तकोंमें--५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस-कार्मण' शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा पञ्च अन्तरायोंका बन्धकाल जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है।
मनुष्य,तियचायुका बन्धकाल ओघवत् है। शेषका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इस प्रकार संपूर्ण अपर्याप्तक त्रसों तथा स्थावरोंमें जानना चाहिए।
१७. मनुष्य सामान्य, मनुष्य पर्याप्त तथा मनुष्यनियोंमें-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण शरीर, वणे ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल एक समय, (उत्कृष्ट) पूर्वकोटि पृथक्त्वाधिक तीन पल्य प्रमाण है। इसी प्रकार मिथ्यात्वका भी बन्धकाल है । इतना विशेष है कि मनुष्य सामान्य में जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण है। पर्याप्त मनुष्य तथा मनुष्यनीमें जघन्य बन्धकाल अन्तमुहूर्त प्रमाण है । सातावेदनीय, चार आयुका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । असातावेदनीय, ६ नोकषाय, तीन गति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावरादि ४,
१. "पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्से ण अंतोमुहुत्तं ।" - षट्खं०,का० १५, ६७ ।
२. "मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि ।"-पखं०, का०, ६८-७०।
यहाँ यह विशेष है कि मनुष्य मिथ्यात्वीके ४७ पूर्व कोटि अधिक तीन पल्य है, पर्याप्त मिथ्यात्वी मनुष्यके २३ पूर्वकोटियाँ अधिक है । मनुष्यनी मिथ्यादृष्टिके सात पूर्वकोटि अधिक हैं। यथा-"मणुसमिच्छादिठिस्स चे य सत्तेतालपुत्रकोडीओ अहिया होंति, पज्जत्तमिच्छादिट्ठीणं तेवीसपुचकोडीयो, मणुसिणि मिच्छादिट्ठीसु सत्त पुन्वकोडीओ अहियाओ।"-ध० टी०,का०,पृ० ३७३ ।
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