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________________ ६६ महाबन्ध 'महाबन्ध' शास्त्र का प्रमेय बन्ध तत्त्व है। 'षटूखण्डागम' के द्वितीय खण्ड 'खुद्दाबन्ध' (क्षुद्रबन्ध) की अपेक्षा षष्ठखण्ड में बन्ध के विषय में विस्तारपूर्वक प्रतिपादन होने के कारण प्रतीत होता है कि उसे 'महाबन्ध' कहा गया है। 'तत्त्वार्थसूत्र' बन्ध के विषय में यह व्याख्या करता है "सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः।" ८,२ 'जीव कषायसहित होने से कर्मरूप परिणत होने योग्य पुद्गलों को-कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण करता है, उसे बन्ध कहते हैं।' यहाँ बन्ध को समझने के पूर्व कर्मसिद्धान्त पर प्रकाश डालना उचित ऊँचता है। कारण, बन्ध के विवेचन की आधारभूमि कर्मतत्त्व को हृदयंगम करना परमावश्यक है। कर्म की अवस्था-विशेष का ही नाम बन्ध है। कर्मविषयक मान्यताएँ जैन आगम में कर्मसाहित्य का अतीव महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ कर्म के विषय में सर्वांगीण, सुव्यवस्थित एवं वैज्ञानिक (Scientific) पद्धति से विवेचन किया गया है। अन्य धर्मों तथा दर्शनों ने भी कर्म को महत्त्व प्रदान किया है। अज्ञ जगत् में भी कर्मसिद्धान्त की मान्यता पायी जाती है। जैसा करो, तैसा भरो' यह सक्ति इसी सिद्धान्त की ओर निर्देश करती है। अँगरेजी भाषा में 'As you sow, so you reap'-'जैसा बोओ, तैसा काटो'-कहावत प्रचलित है। तुलसीदास का कथन है "तुलसी काया खेत है, मनसा भयो किसान। पाप पुण्य दोउ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान ॥". कहते हैं एक बार गौतम बुद्ध भिक्षार्थ किसी सम्पन्न किसान के यहाँ गये। इस कृषक ने कहा-"आप मेरे समान किसान बन जाइए। मेरे समान आपको धन-धान्य की प्राप्ति होगी। ऐसा करने से भीख माँगने का प्रसंग नहीं प्राप्त होगा। बुद्ध ने कहा-“भाई! मैं भी तो किसान हूँ। मेरा खेत मेरा हृदय है। इसमें सत्कर्मरूपी बीज बोकर मैं विवेकरूपी हल चलाता हूँ। मैं विकार-वासनारूपी घास आदि की निराई करता हूँ और प्रेम तथा आनन्द की अपार फसल काटता हूँ।" दार्शनिक ग्रन्थों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि 'कर्म' शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग हुआ है। मीमांसा दर्शन पशुबलि आदि यज्ञ तथा अन्य क्रियाकाण्ड को कर्म मानते हैं। वैयाकरण पाणिनि अपने 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' (१,४,७६) सूत्र-द्वारा कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट को कर्म कहते हैं। वैशेषिक दर्शन ने अपने सप्तपदार्थों की सूची में कर्म को भी स्थान प्रदान किया है। वैशेषिक दर्शनकार कणाद कहते हैं - "जो एक द्रव्य हो-द्रव्यमात्र में आश्रित हो, जिसमें कोई गुण न रहे तथा जो संयोग और विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे, वह कर्म है। उसके उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमन ये पाँच भेद कहे गये हैं। नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य क्रियाओं को भी कर्म-कहते हैं। सांख्यदर्शन ने संस्कार अर्थ में 'कर्म' को ग्रहण किया है। ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिका में लिखा है- 'सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति होने पर भी पुरुष संस्कारवश-कर्म के वश से शरीर धारण करके रहता है, जैसे गति प्राप्त चक्र संस्कार के वश से भ्रमण करता रहता है।" ___ वाचस्पति मिश्र का कथन है-“४ क्लेशरूपी जल से सिंचित बुद्धिरूपी भूमि में कर्मरूपी बीज अंकुरों १. एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम्।" १,७। -सभाष्य वैशेषिक दर्शन ४,३५ २. “उत्क्षेपणं ततोऽवक्षेपणमाकुञ्चनं तथा। प्रसारणं च गमन कर्माण्येतानि पञ्च च ॥" -सि. मुक्तावली ६ ३. “सम्यक्ज्ञानाधिगमाद्धर्मादीनामकारणप्राप्तौ। तिष्ठति संस्कार वशाच्चक्रभ्रमिवद्धृतशरीरः ॥" -सां. त. कौ. ६७ ४. "क्लेशसलिलावसिक्तायां हि बुद्धिभूमौ कर्मबीजान्यङ्करं प्रसुवते। तत्त्वज्ञाननिदाघनिपीतसकलक्लेशसलिलायामूषरायां कुतः कर्मबीजानामङ्कुरप्रसवः?" -सां. त. कौ., पृ. ३१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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