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________________ प्रस्तावना ६७ को उत्पन्न करते हैं। तत्त्वज्ञानरूपी ग्रीष्मकाल के द्वारा जिसका सम्पूर्ण क्लेशरूप जल सूख चुका है, उस शुष्क भूमि में कर्मबीजों का अंकुर कैसे उत्पन्न होगा ?" गीता में कार्यशीलता (activity) को कर्म बताया है ।' कहा है- “ अकर्मण्य रहने की अपेक्षा कर्म करना श्रेयस्कर है। संन्यास और कर्मयोग ये दोनों ही कल्याणकारी हैं; किन्तु कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग विशेष महत्त्वास्पद है । " ३ महाभारत शान्तिपर्व में लिखा है "कर्मणा बध्यते जन्तुः, विद्यया तु प्रमुच्यते ।” ( २४०, ७) - यह प्राणी कर्म से बँधता है, विद्या के द्वारा मुक्ति लाभ करता है । पतंजलि योगसूत्र में कहते हैं* - " क्लेश का मूल कर्माशय - कर्म की वासना है । वह इस जन्म में वा जन्मान्तर में अनुभव में आती है। अविद्यादिरूप मूल के सद्भाव में जाति, आयु तथा भोगरूप कर्मों का विपाक होता है। वे आनन्द तथा सन्ताप प्रदान करते हैं, क्योंकि उनका कारण पुण्य तथा अपुण्य है । " योगी के अशुक्ल तथा अकृष्ण कर्म होते हैं । संसारी जीवों के शुक्ल, कृष्ण तथा शुक्ल कृष्ण कर्म होते हैं । न्यायमंजरी में लिखा है- “जो देव, मनुष्य तथा तिर्यंचों में शरीरोत्पत्ति देखी जाती है, जो प्रत्येक पदार्थ के प्रति बुद्धि उत्पन्न होती है, जो आत्मा के साथ मन का संसर्ग होता है, वह सब प्रवृत्ति के परिणाम का वैभव है। सर्व प्रवृत्ति क्रियात्मक है, अतः क्षणिक है; फिर भी उससे उत्पन्न होनेवाला धर्म, अधर्म पदवाच्य आत्म-संस्कार कर्म के फलोपभोग पर्यन्त स्थिर रहता ही है ।" अशोक के शिलालेख नं. ८ में लिखा है- “इस प्रकार देवताओं का प्यारा प्रियदर्शी अपने भले कर्मों से उत्पन्न हुए सुख का उपभोग करता है । भिक्षु नागसेनने मिलिन्द सम्राट् से जो प्रश्नोत्तर किये थे, उनसे कर्मों के विषय में बौद्ध दृष्टि का अवबोध होता है" - १. “योगः कर्मसु कौशलम् । ” २. "कर्मज्यायो ह्यकर्मणः ।" - गी. ३,८ ३. “संन्यास कर्मयोगश्चय निःश्रेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते ॥ " - गी. ५,२ ४. “ क्लेशमूलः कर्माशयः दृष्टादृष्टजन्यवेदनीयः । सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः । ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् । " - यो. सू. २,१२ - १४ । “कर्माशुक्लकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् ” - यो. द. कैवल्यपाद. ७ ५. “यो ह्ययं देव-मनुष्य - तिर्यग्भूमिषु शरीरसर्गः, यश्च प्रतिविषयं बुद्धिसर्गः, यश्चात्मना सह मनसा संसर्गः स सर्वः प्रवृत्तेरेव ' परिणामविभवः । प्रवृत्तेश्च सर्वस्याः क्रियात्वात् क्षणिकत्वेऽपि तदुपहितो धर्माधर्मशब्दवाच्य आत्मसंस्कारः कर्मफलोपभोगपर्यन्तस्थितिरस्त्येव । ” - न्या. म., पृ. ७० ६. बुद्ध और बुद्धधर्म, पृ. २५६ ७. “राजा आह-भन्ते नागसेन, केन कारणेन मनुस्सा न सव्वे समका, अञ्जे अप्पायुका, अञ्जे दीघायुका, अञ बह्वाबाधा अञ्जे अप्पाबाधा, अञ्ञ दुव्वण्णा, अञ्ञे वण्णवन्तो, अञ्जे अप्पेसक्खा, अञ्ञे महेसक्खा, अञ्ञ अप्पभोगा, अञ्ञे महाभोगा, अञ्ञे नीचकुलीना, अञ्ञे महाकुलीना, अञ्ञ दुप्पञ्ञा, अञ्ञे पञ्ञावन्तीति । ” थेरो आह, किस्स पन, महाराज! रुक्खा न सव्वे समका, अञ्ञ अंविला, अञ्ञ लवणा, अज्ञे तित्तका, अज्ञ कटुका, अञ्ञ कसावा, अज्ञे मधुराति । मञ्ञामि भंते! बीजानां नानाकरणेनाति । एवमेव खो महाराज कम्मानं नानाकरणेन मनुस्सा न सव्वे समका । भासितं पेतं महाराज! भगवता कम्म कामाणवसत्ता, कम्मदायादा, कम्मयोनी, कम्मबंधु, कम्मपरिसरणा, कम्मं सत्ते विभजति यदिदं हीनप्पणीततायीति । कल्लोसि भंते नागसेनाति । ” —Pali Reader p. 39 मिलिन्दपञ्ह in अंगुत्तनिकाय, मिलिन्दप्रश्न ८१ Thus spoke king Milinda: 'How comes it, reverend Sir, that men are not alike? some Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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