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________________ ३४८ महाबंधे इयस्स-णस्थि अप्पाबहुगं । यथाक्खादस्स-अबंधगा जीवा थोवा । बंधगा जीवा संखेज्जगुणा । संजदासंजदा-परिहारभंगो। णवरि थोवा देवायु-तित्थयर-बंधगा जीवा । अबंधगा जीवा असंखेजः । असजद-तिरिक्खोघं । णवरि अपच्चक्खाणावरणस्स अर्ब धगा णत्थि । तित्थयरं ओघं । ३२१. चक्खुदंस०-तसपञ्जत्तभंगो। अचक्खुदं० ओघं । णवरि एदेखि दोणं विसेसो णादव्यो। ३२२. तिण्णिलेस्सा-असंजदभंगो। तेऊए-सव्वत्थोवा थीणगिद्धि३ अब०। बंधगा जीवा असंखेज० । छदसण. बंधगा जीवा विसेसा० । दोवेदणी० णवणोक० छस्संठाणछसंघ० आदाउज्जो० दोविहा० तसथाव० थिरादिछयुगं दोगोदं देवोघं । सव्वत्थोवा पच्चक्खाणा०४ अबंधगा जीवा । अपञ्चक्खाणा०४ अबंध० जीवा असंखेज० । अपंता सूक्ष्मसाम्परायमें अल्पबहुत्व नहीं है। विशेष-यहाँ ज्ञानावरण ५, अन्तराय ५, दर्शनावरण ४, यशःकीर्ति, उच्च गोत्र तथा सातावेदनीयका बन्ध होता है। इनके बन्धकोंमें होनाधिकपनेका अभाव है। यहाँ इन १७ प्रकृतियोंका बन्ध सबके पाया जायेगा। यथाख्यातसंयम में अबन्धक जीव स्तोक हैं । बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। विशेषार्थ-यथाख्यात संयम उपशान्त कषायसे अयोगी जिन पर्यन्त पाया जाता है। अयोगी जिनको छोड़कर शेष जीवोंके साता वेदनीयका ही बन्ध होता है। अयोगी जिन ५६८ कहे गये हैं । ये अबन्धक हैं । इनकी अपेक्षा बन्धक संख्यातगुणे कहे हैं। संयतासंयतोंमें-परिहारविशुद्धिके समान भंग है। विशेष, देवायु तथा तीर्थकरके बन्धक स्तोक हैं। अबन्धक जीव असंख्यात गुणे हैं। असंयममें-तियंचोंके ओघवत् हैं। विशेष, यहाँ अप्रत्याख्यानावरणके अबन्धक नहीं हैं। तीर्थकर प्रकृतिका ओघवत् जानना चाहिए। विशेषार्थ-असंयममें अप्रत्याख्यानावरणका बन्ध होता है। इससे उसके अबन्धकका निषेध किया है। ३२१. चक्षुदर्शनमें-त्रस पर्याप्तकके समान भंग हैं। अचभुदर्शनमें- ओघवत् जानना चाहिए । विशेष यह है कि इन दोनोंमें जो विशेषता है उसे जान लेना चाहिए। विशेषार्थ-चक्षुदर्शन त्रसोंके ही होता है । चक्षुदर्शनी असंख्यात कहे हैं । अचक्षुदर्शन स्थावरोंके भी होता है । अचक्षुदर्शनी अनन्त हैं। (खु० ब०, द्र० प्र० सू० १४१, १४४) ३२२. कृष्णादि तीन लेश्यामें-असंयतके समान भंग हैं। तेजोलेश्यामें-स्त्यानगृद्धिके अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । ६ दर्शनावरण के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। २ वेदनीय, ६ नोकषाय, ६ संस्थान, ६ संहनन, आतप, उद्योत, २ विहायोगति, त्रस, स्थावर, स्थिरादि ६ युगल तथा २ गोत्रका देवोधके समान समझना चाहिए। प्रत्याख्यानावरण ४ के अबन्धक जीव सबसे कम हैं । अप्रत्याख्यानावरण ४ के अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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