________________
पयडिबंधाहियारो
३४७ अंगो० बंधगा जीवा असंखेजः । ओरालि० अंगो० बंधगा जीवा असंखेजः । तिण्णं बंधगा जीवा विसे | थिरादि-तिण्णि-युगलं पंकिंदिय-भंगो। तित्थयरं बंधगा जीवा थोवा । अबंधगा जोवा असंखेज० । एवं ओधिदंस० । मणपजवणा० ओधिभंगो। णरि असंखेजगदीओ णस्थि । संखेज्जगुणं कादव्वं ।
३१८. एवं संजद० वेदणीयमणुसिभंगो।।
३१६. सामाइ० छेदो०- सव्वत्थोवा मायासंज. अबं० जीवा । माणसंज० अबं० जीवा विसेसा० । कोधसंज. अबं० जीवा विसेसा० । बंधगा जीवा असंखेज. (?) माणसंज० बंधगा जीवा विसेसा० । मायासंज. बंधगा जीवा विसे० । लोभसंज० बंधगा जीवा विसे० । सेसाणं किंचि विसेसेण मणपजत्रभंगो ।
३२०. परिहार०-आहारकाजोगिभंगो। णवरि आहारदुर्ग अस्थि । सुहुमसंपराबधा असंख्यातगुणे हैं । तीनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं।
स्थिरादि ३ युगलोंका पंवेन्द्रियके समान भंग जानना चाहिए ।
तीर्थकरके बन्धक जीव स्तोक हैं । अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अवधि-दर्शनमें जानना चाहिए । मनःपर्ययज्ञानमें अवधिज्ञान के समान भंग है। विशेष यह है कि यहाँ मनःपर्ययज्ञानमें असंख्यातगुणी संख्यावाली प्रकृति नहीं है। उनके स्थानमें संख्यातगुणेका पाठ करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि मनःपययज्ञान में संख्यातगुणका क्रम लगाना चाहिए।
"मणपज्जवणाणी दवपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा" ( दव्वपमाणाणुगम सूत्र १२४, १२५) । इस कारण यहाँ संख्य तगुणे करनेका विशेष कथन किया गया है।
३८. इसी प्रकार संयममार्गणामें जानना चाहिए । वेदनीयका मनुष्यनीके समान भंग है। अर्थात् साता-असाताके. अबन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। साताके बन्धक संख्यातगुणे हैं। असाताके बन्धक संख्यातगुणे हैं । दोनोंके बन्धक विशेषाधिक हैं।
३१६. सामायिक छेदोपस्थापना संयममें - माया-संज्वलनके अबन्धक जीव सबसे कम हैं। मान-संज्वलनके अबन्धक जाव विशेषाधिक हैं। क्रोध-संज्वलनके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । क्रोध संबलनके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं ( ? ) मान-संचलनके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। माया-संचलनके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। लोभ-संज्वलनके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंमें कुछ विशेषताके साथ मनःपर्ययज्ञानके समान भंग हैं।
विशेषार्थ'खुदाबन्ध में इन संयमियोंकी संख्या 'कोडि पुधत्तं' - कोटि पृथक्त्व कही है (सू०१२६ द० प्र०)। इससे क्रोध-संग्वलनके बन्धक 'असंख्यातगुणे'के स्थानमें 'संख्यातगुणे'
होना चाहिए।
३२०. परिहार विशुद्धि संयममें - आहारक काययोगीके समान भंग है। विशेष, इस संयममें आहारकद्विकका बन्ध पाया जाता है।
... विशेष - परिहारंविशुद्धि संयममें आहारकद्विकके उदयका विरोध है, बन्धका नहीं है।'
१. "मणपज्जवपरिहारे णवरि ण संढित्यिहारदुगं ।" -गो० क०,३२७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org