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________________ पयडिबंधाहियारो २८३ समओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। २३४. आभि० सुद० ओधि०-धुविगाणं बंधगा सव्वद्धा। अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अट्ठकसा० आहारदु० बजरिसभ० तित्थय० बंधाबंधगा सम्बद्धा । सेसाणं दोणं मणजोगीणं भंगो। णवरि मणुसायु० मणुसिभंगो । देवायु० ओघं। २३५. एवं ओधिदंस० । एवं चेव मणपजव० सामा० छेदो० । णवरि देवायु० मणुसिभंगो । संजदा मणुसिभंगो। २३६. परिहार-धुविगाणं बंधगा सव्वद्धा। अबंधगा णत्थि । दोवेदणीयाणं बंधापंधगा सव्वद्धा । दोण्णं पगदीणं बंधगा सम्बद्धा । अबंधगा णस्थि । देवायु० मणुसिभंगो । सेसं वेदणीयभंगो। २३७. एवं संजदासंजदाणं । देवायु० ओघं । सुहुम० सव्वाणं बंधगा जहण्णेण कि मिथ्यात्वके अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। ___ २३४. आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानमें-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका सर्व. काल है । अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त है । आठ कषाय, आहारक वृषभसंहनन. तीर्थकरके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है। शेष प्रकृतियोंका दो मनोयोगियों के समान भंग है। अर्थात् बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। विशेष यह है कि मनुष्यायुका मनुष्यनियोंके समान भंग है । देवायुके विषय में ओघवत् जानना चाहिए। २३५. इसी प्रकार अवधिदर्शनमें जानना चाहिए। मनःपर्ययज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना, संयममें इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि देवायुके बन्धकोंमें मनुष्यनीका भंग जानना चाहिए । संयतोंमें मनुष्यनीका भंग है। २३६. परिहारविशुद्धिसंयममें-ध्रुवप्रकृतियोंके बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धक नहीं है । दोनों वेदनीयोंके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वकाल है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकोंका सर्यकाल है । अबन्धक नहीं है। देवायुका मनुष्यनीके समान भंग है। शेष प्रकृतियोंमें वेदनीयका भंग है। ___ २३७. संयतासंयतोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। देवायुका ओघवत् भंग जानना १. "आभिणिबोहियणाणि-सुदणाणि-ओधिणाणीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकषायवीदरागछदुमत्यात्ति ओघं ।"-सू० २६६। "असंजदसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। संजदासंजदा"""सव्वद्धा । पमत्त-अप्पमत्तसंजदा...'"सम्वद्धा। चउण्हं उवसमा...""णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । चदुण्हं खवगा अजोगिकेवली'"" "जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।" -सू० १३, १६, १९, २२, २३, २६, २७। २. "मणपज्जवणाणी केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा"-खु० बं०,३१, ३२ । “संजमाणुवादेण । संजदा सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा जहाक्खादावेहारसुद्धिसंजदा संजदासजदा असंजदा केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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