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________________ २८४ महाबंधे एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अबंधगाःणस्थि । २३८. तेऊ देवोघं । एवं पम्माए वि । सुकाए धुक्गिाणं बंधाबंधगा सव्वद्धा । सेसं मणुस-पचत्तभंगो। २३६: सम्मादि० दोआयु. ओधिभंगों से सव्यद्धा । एवं खइग-सम्मा० । दोआयु सुक्कभंगो । वेदगे०-धुविगाणं बंधा सच्चद्धा, अबंधगा णत्थि । सेसं ओधिभंगो। बरि साधारणेण अबंधगा गस्थि । २४०. उवसमसम्मा०-धुविगाणं बंधगा जहण्णेण अंतोमुहत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। अबंधगा जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । चाहिए । 'सूक्ष्मसाम्परायसंयममें सर्व प्रकृतियों के बन्धकोंका जघन्यकाल एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है । अबन्धक नहीं है। .. विशेषार्थ-उपशान्तकषाय वा अनिवृत्ति बादर साम्पराय प्रविष्ट जीवोंके सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थानको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें मरणकर देवोंमें उत्पन्न होनेपर एक समय जघन्यकाल पाया जाता है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, उसमें संख्यात अन्न मुहूर्ताका समावेश है । (खु० बं०, टीका,पृ० ४७३, ४७४) . २३८. 'तेजोलेश्यामें-देवोंके ओघ समान है। पद्मलेश्यामें-इसी प्रकार है। शुक्ललेश्यामेंध्रवप्रकृतियोंके बन्धकों अबन्धकोंका सर्वकाल है। शेष प्रकृति योंका मनुष्यपर्याप्तकके समान भंग है। २३९. सम्यग्दृष्टियोंमें-दो आयुके बन्धकों अबन्धकोंका ओषके समान भंग है । शेष प्रकृतियों में सर्वकाल भंग है । क्षायिकसम्यक्त्वियों में-इसी प्रकार है। दो आयुका शुक्ललेझ्याके समान मंग है । वेदकसम्यक्त्वियोंमें--ध्रवप्रकृतियों के बन्धकोंका सर्वकाल है। अबन्धक नहीं है। शेष प्रकृतियोंका अवधिज्ञानके समान भंग है। विशेष यह है कि सामान्यसे अबन्धक नहीं है। २४०. उपशमसम्यक्त्वियोंमें-ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग हैं। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तमुहूते है। १. "सुहुममापराइयसुद्धिसंजदेसु सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा खवाः ओघं ।" -२७२ । २. "तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी...."सन्धद्धा" -षट्खं०, का०,२९१ । "सासणसम्मादिट्ठो ओघं ।" -२६४ । “सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ।" -२९५ । “संजदासंजदपमत्तअप्पमत्त. संजदा. सव्वद्धा।"-२९६ । ३. "सुक्कलेस्सिएसु चदुण्हमुवसमा चदुहं खवगा सजोगिकेवली ओघं ।'"-३०८। ४. “सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठो खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्टी मिच्छाइट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा" -खु००, सू० ४४, ४५। ५. "उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।" -षट् खं०,का० सू०३१६-२०। "उवसमसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी केवचिरं कोलादो होति ? जहण्णेण अंतोमुहुत्त । उक्कस्सेण मलिविमस्स असंखेरुजदिभागो"-खु००,कालाणुगम-सू०४६-४८। “पमत्त संजदप्पहुडि जाव उवसंतकसायबोदरामछदुमत्थात्ति केवनिरं कालादो होति.? :गाणाजीवं पडुच्च जहएणेण एगलमयं उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ।" -३२३-२४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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