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________________ पयडिबंधाहियारो पंचिंदि० समचदु० परघादुस्सा० पसत्थ. तस०४ थिरादितिण्णियु० सुभग-सुस्सरआदे० उच्चा० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अट्ठक० जह• अंतो०, उक्क पुन्वकोडिदेसू० । इत्थि० णवंस० तिरिक्खग० एइंदिय० पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० आदावुज्जो० अप्पसत्थवि० थावर-भग-दुस्सर-अणादे णीचा० जह० एग०, उक्क. पणवण्णं पलिदो० देसू० । णिरयायुजह. अंतो० । उक्क० पुबकोडितिभागं देसू० । तिरिक्खायु-मण सायु जह० अंतो० । उक्क० पलिदोपमसदपुध० । देवायु ० जह. अंतो० । उक्क० अट्ठावण्णं पलिदो० पुवकोडिपुध० । दोगदि० तिण्णि ना० वेउधि० वेउधिय० अंगो० दोआणुपु० सुहुम-अपज्जत्त० साधार०जह०एग० उक० विशेषार्थ-मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी जीव ५५ पल्योपमवाली देवीमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर,(१) विश्राम ले घशाद हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर अन्तरको प्राप्त हुआ। आयुके अन्त में आगामी भवको आयुको बाँधकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और मरण किया। इस प्रकार कुछ कम ५५ पल्योपम स्त्रीवेदी मिथ्या दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी प्रकार मिथ्यात्वादिका अन्तर जानना चाहिए। (ध० टी०,अन्तरा०पृ०६५) ___ साता-असाता वेदनीय, ५ नोकषाय, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्र संस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिरादि तीन युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। आठ कषायोंका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि अन्तर है। विशेषार्थ-मोहनीयकी २८ प्रकृतिकी सत्तावाला कोई जीव मरण कर भाव-स्त्रीवेदी किन्तु द्रव्य पुरुष हुआ। एक कोटिपूर्वकी आयु प्राप्त की। गर्भसे लेकर आठ वर्ष बीतनेपर सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके साथ-साथ सकलसंयमको भी प्राप्त किया। पश्चात् संक्लेशवश गिरकर अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरणरूप ८ कपायका बन्ध करके मरण किया। इस प्रकार अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायोंके बन्धकका अन्तर कुछ कम एक कोटिपूर्व कहा है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, निर्गच गति, एकेन्द्रिय जाति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तिर्यंचानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट कुछ कम ५५ पल्य प्रमाण है । नरकायुका जघन्य अन्तमहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम कोटिपूर्वका त्रिभाग है । तिर्यंचायु, मनुष्यायुका जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पल्यशत पृथक्त्व है। विशेषार्थ-कोई ८ मोहकी प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव स्त्रीवेदी था। मरणकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंको पूर्ण कर (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वी हुआ,(४) पश्चात् मिथ्यात्वी हो गया। तिर्यंच आयु अथवा मनुष्यायुका बन्ध कर मरण किया और पल्यशत पृथक्त्व कालप्रमाण परिभ्रमण कर तिरींचायु या मनुष्यायका बन्ध कर सम्यक्त्वसहित हो मरण किया। इस प्रकार असंयत सम्यकदृष्टि स्त्रीवेदी जीवकी अपेक्षा पल्यशत पृथक्त्व प्रमाण अन्तर होता है। (ध०टी०,अन्तरा० पृ०१६) देवायुका जघन्य अन्तर्मुहूते, उत्कृष्ट ५८ पल्योपम पूर्वकोटि पृथक्त्व है। दो गति, तीन जाति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, दो आनुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारणका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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