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पडबंधाया
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२२४. मणुस-अपजत्तगेसु-धुविगाणं बंधगा केव० कालादो होंति ? जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा णत्थि । सादासादबंघमा अबंधगा जहणणेण एगसमओ, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । दोष्णं बंधगा जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अबंधगा णत्थि । दो- आयु० पत्तेगेण साधारणेण य बंधगा-अबंधगा जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । ओरालि० अंगो० छस्संघड० परधादुस्सा० आदाउजो० दोविहाय दोसरं बंधगा - अबंधगा जहणणेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । एवं पत्तेगेण साधारणेण वि । सेसाणं वेदणीयभंगो ।
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२२५. देवाणं णिरयभंगो। णवरि एइंदियपयडि जाणिदूण भाणिदव्वं । २२६. पंचिंदिय-तस० तेसिं पञ्जत्ता वेदणीयं साधारणेण अबंधगा जहण्णुक
२२४. मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकों में ध्रुव प्रकृतियों के बन्धक कितने काल तक होते हैं ? जघन्यसे क्षुद्रग्रहण काल, उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भाग पर्यन्त होते हैं; अबन्धक नहीं हैं | साता असता वेदनीयके बन्धक, अबन्धक जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्य के असंख्यातवें भाग होते हैं । दोनोंके बन्धक जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण पर्यन्त उत्कृष्टसे पल्य के असंख्यातवें भाग होते हैं; अबन्धक नहीं हैं। दो आयु ( मनुष्य तिर्यंचायु) के बन्धक - अबन्धक प्रत्येक साधारणसे जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, परघात उच्छ्वास आतप, उद्योत, दो विहायोगति, दो स्वर के बन्धक, अबन्धक जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं । सामान्य तथा प्रत्येकसे इसी प्रकार जानना चाहिए। शेषका वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए । अर्थात् जघन्य से एक समय, उत्कृष्टसे पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ।
२२५. देवोंमें- नारकियोंके समान भंग है । विशेष यह है कि यहाँ एकेन्द्रिय प्रकृतिको भी जानकर कहना चाहिए ।
विशेष - नारकी जीव मरणकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक मनुष्य या तिर्थंच होते हैं, किन्तु देवों की उत्पत्ति एकेन्द्रियों में भी होती है । अतः देवगति में एकेन्द्रिय जाति के बन्धका भी उल्लेख है ।
२२६. पंचेन्द्रिय त्रस तथा इनके पर्याप्तकों में साधारणसे वेदनीयके अबन्धकोंका
१. " मणुस-अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।" - षट्खं०, का०१८३-८४ | खुदाबंध, सू० ६, ७, ८ । २. "णेरइएसु मिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सन्वद्धा । सासणसम्मादिट्ठीसम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ।” -षट्खं०, का०, ३६ । देवगदीए देवा केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । - खु० बं० सू०६, १० । “ सासण-सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।” (५,६ ) । " सम्मामिच्छाइट्टी के वचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।" ( ९, १० ) असंजदसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सब्वद्धा ।"-षट्खं०,का०,१३ ।
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