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________________ २२८ महाबंधे लोगो ।छस्संघ० पत्तेगेण साधारणेण वि खेत्तभंगो। अबंधगा सेरह० सव्वलोगो । परघादुस्सा० बंधगा तेरह. सव्वलोगो वा। अबंधगा लोगस्स अंसंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । आदावस्स बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा तेरह० सव्वलोगो। उजोवस्स बंधगा सत्तचोदस० । अबंधगा तेरह. सबलोगो वा। पसत्थवि० बंधगा छच्चोदस० । अबंधगा तेरह० सव्वलो० अप्पसत्थवि० बंधगा छचोद्दस० । अबं० सत्तचोद्द० सबलो० । दोण्णपि बारह ० । अबंधगा सत्तचोदस० सव्वलो० । एवं दूसर० । तसंबंधगा बारह । अबंधगा सत्तचो० सव्वलो। थावरबंधगा सत्तचोदस० सबलोगो । अबंधगा बारहचोद्दस० । दोणंपि बंधगा तेरहचोदस० सव्वलोगो। अबंधगा णस्थि । बादरं बंधगा तेरह० । अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । सुहुमबंधगा लोगस्स असंखे०, सबलोगो वा । अबंधगा तेरह० चोद्दस० । दोण्णं पगदीणं बंधगा तेरह. सव्वलो० । अबंधगा णत्थि । पज्जत्त-पत्तेग बंधगा तेरह० सव्वलो० । अबंधगा लोगस्स असंखे० सव्वलो० । अपज्जत्त साधारण-बंधगा लोग० असंखे०, सव्वलो० । अवंधगा तेरह० सबलो० । दोण्णं पगदीणं बंधगा तेरह० सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि। ___ छह संहननोंका पृथक्-पृथक अथवा समुदाय रूपसे क्षेत्र के समान भंग है । अबन्धकोंका १४ वा सर्वलोक है। परघात, उच्छ्वासके बन्धकोंके १४ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग है अथवा सर्वलोक है। आतपके बन्धकोंके क्षेत्र के समान है। अबन्धकोंके 12 अथवा सर्वलोक भंग है। उद्योतके बन्धकोंका छ, अबन्धकोंका १३ वा सर्वलोक भंग है । प्रशस्त विहायोगतिके बन्धकोंके छ, अबन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है। विशेष-अच्युत स्वर्गके स्पर्शनकी अपेक्षा ६ कहा है, कारण देवोंके प्रशस्त विहायो. गति पायी जाती है। प्रशस्त विहायोगतिके अबन्धक अर्थात् अप्रशस्तविहायोगतिके बन्धक अथवा दोनोंके अंबन्धकको अपेक्षा अधोलोकके ६ राजू तथा ऊर्ध्वके ७ इस प्रकार १३ है । अप्रशस्त विहायोगति के बन्धकोंका है, अबन्धकोंका पई वा सर्वलोक है। विशेष-सप्तम पृथ्वीके स्पर्शनको अपेक्षा अप्रशस्तविहायोगति के बन्धकोंके ६४ है । विहायोगतिके अबन्धककी अपेक्षा लोकाग्रके तियचोंके स्पर्शनकी दृष्टि से कर भाग है, कारण एकेन्द्रियके साथ विहायोगतिके बन्धका सन्निकर्षपना नहीं पाया जाता है। दोनों विहायोगति के बन्धकोंके १३, अबन्धकोंके १४ वा सर्वलोक है। दो स्वरोंमें भी इसी प्रकार है । त्रसके बन्धकोंके १४, अबन्धकोंके ३४ वा सर्वलोक है । स्थावरके बन्धकोंके र वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके १३ है। दोनोंके बन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं। बादरके बन्धकोंके १३ है, अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। सूक्ष्म के बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके ३ भाग है। दोनों प्रकृतियोंके बन्धकोंके वा सर्वलोक है; अबन्धक नहीं है। पर्याप्तक तथा प्रत्येकके बन्धकोंका भाग वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अपर्याप्त, साधारणके बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग, सर्वलोक है । अबन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है । पर्याप्त अपर्याप्त तथा प्रत्येक साधारणके बन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है; अबन्धक नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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