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________________ पयडिबंधाहियारो २२७ तेरह सबलोगो । पंचिंदि० बंधमा नारह० । अबंधमा सत्तचोइस० सबलोगो। पंचजा० तेरह ० सव्वलोमो । अबंधमा थि । ओरालिय० बंधगा सत्तचोदस०, सव्वलोगो । अबंधगा बारह । वेउब्धिय० बंधमा बारह०, अबंधगा सत्तचोदस०, सव्वलोगो । दोण्णं पगदीणं बंधगा तेरह०, सव्वलोगो । अबंधगा पत्थि । समचदु० बंधगा छचोद्द० । अबंधगा तेरह० सबलोगो । चदुष्णं संठाणाणं बंधगा खेत्तभंगो। अबंधगा तेरह० सबलोगो। हुंडसंठाणस्स तेरह. सबलोगो । अबंधगा छच्चोइसभागो वा। छस्संठाणं बंधगा तेरह. सबलोगो। अबंधगा पत्थि । ओरालिय-अंगो. बंधगा खेत्तभंगो । अबंधगा तेरह० सबलोगो। वेउब्बिय-अंगो० बंधगा बारह । अबंधगा सत्तचोदस०, सव्वलोगो । दोण्णं अंगो० बंधगा बारह । अचंधगा सत्तचो०, सव्व विशेष-लोकाग्र भागमें विद्यमान एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेकी अपेक्षा छ स्पर्शन है। एकेन्द्रियके अबन्धकोंका स्पर्शन सप्तम पृथ्वी पर्यन्त ६ राजू तथा अच्युत स्वगे पर्यन्त ६ राजू प्रमाण होनेसे १४ कहा है। दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय जातिके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है । अबन्धकोंका वा सर्वलोक है। विशेष-विकलेन्द्रियके अबन्धकोंका लोकाग्रमें स्थित एकेन्द्रियका स्पर्शन तथा अधोलोकमें सप्तम पृथ्वी पर्यन्त स्पर्शनकी अपेक्षा ११ कहा है। पंचेन्द्रिय जाति के बन्धकोंके १३ है । अबन्धकोंके १४ वा सर्वलोक है । पंच जातियोंके बन्धकोंके १३वा सर्वलोक है ; अबन्धक नहीं हैं । औदारिक शरीरके बन्धकोंके ट है.. वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके १३ है।। विशेष-लोकाग्रके एकेन्द्रियोंके स्पर्शनकी अपेक्षा बन्धकोंके १४ है । अबन्धकोंके वैक्रियिक शरीरको अपेक्षा ऊपर ६ राजू तथा नीचे ६ राजू इस प्रकार १३ है। वैक्रियिक शरीरके बन्धकोंके १३ है । अबन्धकोंके र वा सर्वलोक है । दोनों शरीरोंके बन्धकोंके १ भाग वा सर्वलोक है ; अबन्धक नहीं हैं। समचतुरस्र संस्थानके बन्धकोंके १४ तथा अबन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है । विशेष-इस संस्थानके बन्धकोंके अच्युत स्वर्गके स्पर्शनकी अपेक्षा कर है। अबन्धकोंके अधोलोकके ६ तथा ऊर्ध्वके ७ राजू मिलाकर 8 भाग कहा है । ' चार संस्थान अर्थात् समचतुरस्र तथा हुण्डकको छोड़कर शेषके बन्धकोंका क्षेत्रवत् भंग है , अबन्धकोंका १४ वा सर्वलोक है । हुण्डक संस्थानके बन्धकोंका १३ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके 4 भाग है।. छह संस्थानोंके बन्धकोंके १३ वा सर्वलोक है, अबन्धक नहीं है। औदारिक अंगोपांगके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है। अबन्धकोंके १४ वा सर्वलोक है। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका १३ है, अबन्धकोंका छ वा सर्वलोक भंग है। विशेष-इसके बन्धकोंके ऊपर ६ राजू तथा नीचे ६ राजू, इस प्रकार १३ भंग है। यह वैक्रियिक अंगोपांगके अबन्धकोंके लोकानके एकेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा १४ कहा है। दोनों अंगोपांगोंके बन्धकोंका १३ तथा अबन्धकोंका १४ वा सर्वलोक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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