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महाबंधे पंचसं० पंचसंघ० तिरिक्खगदिपाओ० आदावुज्जो०-अप्पसत्थवि० [थावर-]थिरादिदोयुग० दुभगदुस्सर०-अणादे०-जस०-अजस० णीचा० जह० एग० । उक० अंतो०। पुरिस० मणुस० पंचिंदि० समच० ओरालिय० अंगो० वज्जरिस० मणुसाणु० पसस्थवि० तस० सुभग० सुस्सर० आदेज्ज उच्चागो. जह० एगस । उक्क० तेत्तीसं सा० । दो आयु ओघो (ओघ)। तित्थय० जह० वेसाग० सादि० । उक्त ० तेत्तीसं सा०। एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो द्विदिकालो णेदव्यो याव सव्वट्ठा त्ति । णवरि भवणवा०-वाण-वेत०-जोदिसि० तित्थय० णत्थि । सणकुमारादि पंचिंदियसंयुतं कादव्वं । एवं एइंदिय थावरि(२) णत्थि । आणदादि० तिरिक्खायु-तिरिक्खगदि०३ णस्थि । मणुसगदि धुवं कादव्वं । सागर प्रमाण बन्धकाल कहा है।'
साता-असाता वेदनीय, ६ नोकपाय, तिथंचगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्च संस्थान, पञ्च संहनन, तियंचगत्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, स्थिरादि दो युगल, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति, नीचगोत्रका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृषभ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्च गोत्र का जघन्य बन्धकाल एक समय है, उत्कृष्ट ३३ सागर है ।
विशेषार्थ- यह उत्कृष्ट बन्धकालका कथन सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी अपेक्षा है।
दो आयुका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य बन्धकाल साधिक दो सागर है, उत्कृष्ट ३३ सागर है ।
विशेषार्थ- देवगतिकी अपेक्षा तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कल्पवासी देवोंमें होता है। सौधर्मद्विकमें आयु साधिक द्विसागरोपम है और सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागरोपम है । इस अपेक्षा यहाँ वर्णन किया गया है।
इस प्रकार सब देवोंमें अपनी-अपनी स्थिति-प्रमाण बन्धका काल सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जानना चाहिए। इतना विशेप है कि भवनवासी, व्यन्तर तथा ज्योतिषी देवोंमें तीर्थंकर प्रकृति नहीं है । सनत्कुमारादि देवोंमें पंचेन्द्रियका संयोग करना चाहिए। वहाँ एकेन्द्रिय तथा स्थावर नहीं हैं।
विशेष - सौधर्मद्विकके आगे केवल पंचेन्द्रिय जातिका बन्ध होता है, एकेन्द्रिय, स्थावर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता है।
आनतादि स्वर्गामें - तिर्यंचगतित्रिक अर्थात् तिल्चायु, तिरांचगति, तिर्यश्चानुपूर्वी तथा उद्योतका बन्ध नहीं है । यहाँ मनुष्यगतिका ध्रुव रूपसे भंग करना चाहिए, । ( कारण, यहाँ मनुष्यगति का ही बन्ध होता है)।
विशेष - शतारचतुष्टय नामसे ख्यात तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी तथा उद्योतका बन्ध शतार-सहस्रारसे ऊपर नहीं होता है।
१. 'देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णे अंतोमुहुत्तं, उक्कस्से ण एक्कत्तीस सायरोपमाणि ।"-पट्ख०,का०,८७-८६ ।
२. "कप्पित्थीसु ण तित्थं...''-गो० क०,गा० ११२ । षट्० टी०भा० १,पृ० ६१, १३१ ।
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