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महाबंधे
मणपञ० संजद ० सामा० छेो० परिहार० सुदुमसंप० खेत्तभंगो ।
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२११. संजदासंजद - विगाणं बंधगा छच्चोहस० । अबंधगा णत्थि । सादासाद- बंधा अबंधगा छच्चोद्दस० | दोष्णं पगदीणं बंधगा छच्चोद सभागो । अबंधगा णत्थि । एवं चदुणोक० थिरादि- तिष्णियुगल० । देवायु- तित्थयरं बंधगा खेत्तभंगो । अ० छच्चोद्दसभागो । असंजदेसु-धुविगाणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा णत्थि । श्रीणगिद्धितियं अर्णताणुर्व०४ बंधगा सव्वलो० । अबंधगा अट्ठचोदस० | मिच्छत्तअतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच असंयत सभ्य भाग है ।
उपपाद पदसे लोकका असंख्यातवाँ भाग तथा भाग स्पर्श किया है। आरण, अच्युत आदिके देवों में दृष्टि और संयतासंयत जीवोंका उपपाद क्षेत्र देशोन
शंका- नीचे दो राजू मात्र मार्ग जाकर स्थित अवस्था में आयुके क्षीण होनेपर मनुष्य में उत्पन्न होनेवाले देवीका उपपाद क्षेत्र क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि प्रथम दण्डसे कम उसका भागांमें ही अन्तर्भाव हो जाता है तथा मूल शरीर में जीव प्रदेशों के प्रवेश बिना उस अवस्था में उनके मरणका अभाव भी है। (खु०बंटी पृ० ४२-४३० ) १
मन:पर्ययज्ञानी, संयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय मेंक्षेत्रके समान लोकका असंख्यातवाँ भाग है ।
विशेष-संयम, सामायिक छेदोपस्थापना तथा सूक्ष्मसाम्परयका वर्णन पहले अपगतवेद के साथ आ चुका है। यहाँ पुनः उनका कथन चिन्तनीय है ।
२११. संयतासंयतों में - ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंका है। अवन्धक नहीं है । साताअसाताके बन्धकों,अबन्धकोंका है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकों का पैठ है, अबन्धक नहीं है । हास्य- रति, अरति शोक तथा स्थिरादि तीन युगलों में इसी प्रकार जानना चाहिए | देवायु तथा तीर्थंकर प्रकृति के बन्धकों का क्षेत्रके समान है; अवन्धकोंका
है।
विशेषार्थ - संयतासंयत जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है | धवला टीका में लिखा है कि वर्तमान कालकी अपेक्षा स्पर्शनका निरूपण क्षेत्र प्ररूपण के समान है । अतीत कालमें तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यात गुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
शंका- विहारवत् स्वस्थान पदकी अपेक्षा उपर्युक्त स्पर्शनका प्रमाण भले ही ठीक हो, क्योंकि वैरी देवोंके सम्बन्धसे अतीत कालमें सर्वद्वीप, समुद्रों में संयतासंयत जीवोंकी सम्भावना है, किन्तु स्वस्थान पदकी अपेक्षा उक्त स्पर्शन नहीं बनता । कारण स्वस्थान में स्थित संयतासंयत जीवोंका सर्वद्वीप समुद्रों में अभाव है।
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यद्यपि सर्वत्र संयतासंयत जीव नहीं हैं, तथापि तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण स्वयंप्रभ पर्वतके पर भागमें स्वस्थान स्थित
१. आभिणिवोहिय - सुद ओहिणाणी सत्याण समुग्वादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । अभागा देणा । उत्रवादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । छवोट्सभागा देणा । - ० ० सूत्र १५६ - १६४ । २. मणपज्जवणाणी सत्थाणसमुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स अलंखेज्जदिभागो । उववादं णत्थि । - खु० नं०, १६५ - १६६ । ३. पमत्त संदष्प हूडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो - षटूखं०, फो०, सू० है ।
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