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महाबंधे ओदइ० । अबंध० उपसमिगो भात्रो। एवं दोगदि-दोआणु० दोसरीर-दोअंगोवंगआहारदुग-थिरादि-तिण्णियुगलं ।
२६२. अणाहारे-कम्मइगभंगो। णवरि साद० ओघ । साधारणेण वि ओघं । मिच्छत्त-संजुत्ताओ सोलस-पगदीओ ओघाओ। सव्वत्थ याव अणाहारग ति बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा ति को भायो ? ओदइगो वा उपसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा पारिणामिओ वा भावो।
एव भावं समत्तं ।
इस प्रकार मनुष्य-देव गति, दो आनुपूर्वी, औदारिक-वैक्रियिक शरीर, २ अंगोपांग, आहारकद्विक, स्थिरादि तीन युगलोंके बन्धकों में कौन भाव है ? औदायिक भाव है। अबन्धकोंके कौन भाव है ? औपशमिक भाव है।
२९२. अनाहारकमें- कार्मण-काययोगके समान भंग है। विशेष यह है कि यहाँ साता वेदनीयका ओघवत् भंग जानना चाहिए। इसी प्रकार सामान्यसे भी ओघवत् जानना चाहिए । मिथ्यात्व संयुक्त १६ प्रकृतियों का ओघवत् भंग है । अनाहारकपर्यन्त सर्वत्र बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है । अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक वा पारिणामिक है।
विशेषार्थ-अनाहारकोंमें मिथ्यात्व गुणस्थानकी अपेक्षा औदयिकभाव है। सासादनकी अपेक्षा पारिणामिक है। चतुर्थ गुणस्थानकी अपेक्षा औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपमिक है। समुद्घातगत सयोगी तथा अयोगी जिनकी अपेक्षा क्षायिक भाव है।
इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ।
१. "मिच्छत्तहुं डसंढा संपत्तेयक्खथावरादावं । सुहुमतियं वियलिंदी णिरयदुणिरयायुगं मिच्छे ॥" -गो० क०,गा०६५। २. "अणाहाराणं कम्मइयभंगो। णवरि विसेसो अजोगिकेवलि त्ति को भावो? खइओ भावो । -जी० भावा०, सूत्र० ९२, ६३ । अनाहारकेषु विग्रहगत्यापन्नेषु त्रीणि गुणस्थानानि, मिथ्यादृष्टिः सासादनसम्यग्दृष्टिरसंयतसम्यग्दृष्टिश्च। समुद्घातगतः सयोगकेवल्ययोगकेवली च॥" -स० सि०,०८, अ० १, पृ०१२।
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