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________________ पयडिबंधाहियारो १५१ १३३. तिरिक्खेसु णिरयभंगो। णवरि चदुआयु-दोअंगो० छस्संघ० दोविहा० दोसर० ओघं । एवं पंचिंदिय-तिरिक्ख०३ । णवरि चदुण्हं आउगाणं सिया सव्वे अबंधगा । सिया अबंधगा य, बंधगो य । सिया अबंधगा य । १३४. पंचिंदिय-तिरिक्ख-अपज्जत्तेसु-पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक० भयदु० ओरालियतेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत. सव्वे बंधगा, अबंधगा णत्थि । ओरालिय० अंगो० परघादुस्सा० आदाउज्जो० अत्थि बंधगा य, अबंधगा य । छस्संघ० दोविहा० दोसर० ओघभंगो । सेसं णिरयभंगो । १३५. एवं सव्व-अपज्जताणं, सब-एइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं च । णवरि एइंदिय-पंचकायाणं आयूण दूण ( साधेदूण ) भाणिदव्वं । १३६. मणुस०३ ओघ । णवरि सादं अस्थि बंधगा य अबंधगाय । असादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य । दोण्णं वेदणीयाणं सिया सव्वे बंधगा। सिया बंधगा य, अबंधगो य । सिया बंधगो य अबंधगा य । चदुग्णं आयुगाणं सिया सव्वे अबंधगा। सिया अबंधगा य, बंधगो य। सिया अबंधगा य बंधगा य । एवं पंचिंदि० तस०२ १३३. तिर्यंचोंमें-नरकके भंग समान समझना चाहिए। विशेष ४ आयु, २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका ओघके समान समझना चाहिए | पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक-तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीमें भी इसी प्रकार समझना चाहिए । विशेषता यह है कि ४ आयुके स्यात् सब अबन्धक हैं। स्यात् अनेक अबन्धक हैं,एक जीव बन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक हैं । १३४. पंचेन्द्रिय तियंच-लब्ध्यपर्याप्तकोंमें-ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक-तैजस कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तरायके सब बन्धक है; अबन्धक नहीं हैं। औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योतके अनेक बन्धक हैं और अनेक अबन्धक हैं । ६ संहनन, २ विहायो. गति, २ स्वरका ओघके समान भंग समझना चाहिए। शेषका नरकवत् भंग समझना चाहिए। __ १३५. इस तरह सम्पूर्ण लब्ध्यपर्याप्तक, सम्पूर्ण एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचकायोंके भंग समझना चाहिए । विशेष, एकेन्द्रिय और पंचकायोंमें आयुको जानकर कहना चाहिए, अर्थात् इनमें मनुष्य और तिर्यच आयुका हो बन्ध होता है ।। १३६. मनुष्यत्रिक अर्थात् सामान्यमनुष्य, पर्याप्तमनुष्य और मनुष्यनीमें-ओघके समान है । विशेष, साताके अनेक बन्धक हैं, अनेक अबन्धक हैं । असाताके अनेक बन्धक हैं, अनेक अबन्धक हैं । दोनों वेदनीयोंके स्यात् सर्व बन्धक हैं । स्यात् अनेक बन्धक हैं और एक अबन्धक हैं। स्यात् एक जीव बन्धक और अनेक जीव अबन्धक हैं। चारों आयुके स्यात् सर्व अबन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक हैं तथा एक जीव बन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक और अनेक बन्धक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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