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पयडिबंधाहियारो ओदइ० । अबंध० उवसमि० खइगो । एवं सव्वाणं ओघं । णवरि जस० अज्जस० दोगोदं पत्तेगेण साधारणेण वि वेदणीयभंगो।
२८१. एवं पुरिस० णवूस कोधादि०४ । णवरि कोधे परिस० हस्सभंगो । माणे तिण्णं संजलणा० । मायाए दोण्णं संजलणा० । लोमे लोभ-संजल. धुविगाणं भंगो । सेस-संजलणं णिद्दाभंगो।
२८२. अवगदवेदेसु-पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० जस० उच्चागोद-पंचंतराइगाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। अबंधगा त्ति को भावो ? उवसमिगो वा खइगो वा । सादबंध० को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा ति को भावो ? खइगो भावो।
२८३. अकसाइगेसु-साद-बंधगा० ओदइगो भावो । अबंधगा० खइगो भावो । क्षायिक भाव मानना चाहिए। इसमें अतिप्रसंगकी आशा नहीं करनी चाहिए । कारण, प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अथके प्रसंगवश अतिप्रसंग दोपका परिहार होता है । (ध० टी०, भावाणु० पृ० २०५-६)
इतना विशेष है कि यशाकीर्ति, अयशाकीर्ति, तथा दो गोत्रोंका प्रत्येक सामान्यकी अपेक्षा वेदनीयके समान भंग है।
२८१. पुरुषवेद, नपुंसकवेद तथा क्रोध आदि चार कषायोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए।' विशेष यह है कि क्रोधमें, पुरुपवेदके बन्धकोंका हास्यके समान भंग है । मानमें, तीन संज्वलन, मायामें, दो संज्वलन तथा लोभमें लोभ संज्वलनके बन्धकोंका ध्रुव प्रकृतिके समान भंग है; अर्थात् बन्धकों के औदयिक और अबन्धकोंके औपशमिक तथा क्षायिक भाव हैं। संज्वलन कषायमें बन्ध होनेवाली शेष प्रकृतियोंके बन्धकोंका निद्रांके समान भंग है। अर्थात् बन्धकोंके औदयिक, अवन्धकोंके औपशमिक तथा क्षायिक हैं।
२८२. अपगत वेद में - ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, यशःकीर्ति, उच्च गोत्र तथा ५ अन्तरायोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। इनके बन्धकोंके कौन भाव है ? औपशभिक तथा क्षायिक है। ___साता वेदनीयके बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक भाव है ? अबन्धकोंके कौन भाव है ? क्षायिक भाव है।
विशेषार्थ-अपगत वेदियोंमें द्रव्य वेदका नाश नहीं होता। यहाँ भाव वेदका विनाश होता है। धवला टीकामें लिखा है- मोहनीयके द्रव्य कर्म स्कन्धको अथवा मोहनीय कर्मसे उत्पन्न होनेवाले जीवके परिणामको वेद कहते हैं। उनमें वेदजनित जीवके परिणामका अथवा परिणामके साथ मोहकर्म-स्कन्धका अभाव होनेसे जीव अपगत वेदी होता है। (ध० टी० भा०, पृ० २२२)
अपगतवेदमें साताके अबन्धक अयोगकेवली होंगे, उनके क्षायिक भाव है।
२८३. अकषायियोंमें - साताके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक भाव है। अबन्धकों के कौन भाव है ? क्षायिक भाव है।
१. "क्रोधमानमायासु मिथ्यादृष्टयादीनि अनिवृत्तिबादरस्थानान्तानि सन्ति । लोभकषाये तान्येव सूक्ष्मसाम्परायस्थानाधिकानि ।" -स० सि०,पृ० ११ ।
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