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महाबंधे २६२. एवं परिहारे संजदु० (?) तं चेव, णवरि मास-पुधत्त । एवं सामाइ० छेदोप० । संजदासंजदा० सुहुमसं० सव्वाणं बंधगा जहणण एगस० । उक्कस्सेण छम्मासं अंतरं । अबंधगा णत्थि । यथाक्खाद०-सादबंधगा पत्थि अंतरं। अबंधगा जहण्णेण एगेस० उक्कस्सेण छम्मास० (सं)।
२६३. तेउपम्माणं-तिण्णि-आयु० बंधा जह० एगस० । उकस्सेण अडदालीसं मुहुत्तं, पक्खं ।
२६४. सुक्काए-दो आयु० मासपुधत्तं ।
२६५. सम्मादिट्ठि आभिणिभंगो । खइगसम्मा० वासपुधत्तं । सेसाणं णस्थि अंतरं । वेदगसम्मा० आयु० आभिणिभंगो । सेसं णत्थि अंतरं। ..
२६६. उवममसम्मा०-पंचणा० छदंस०चदुसंज० पुरिस० भयदु० पंचिदि० तेजाक० समचदु० बजरिसभ० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर
२६२. परिहारविशुद्धिमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि वर्षपृथक्त्वके स्थानमें मासपृथक्त्व अन्तर जानना चाहिए । इसी प्रकार सामायिक,छेदोपस्थापना संयममें जानना चाहिए। संयतासंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयसमें सर्व प्रकृतियोंके बन्धकोंका' जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे छह मास अन्तर है । अबन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके बिना जघन्यसे एक समय देखा जाता है। उत्कृष्ट से अन्तर छह मास होता है; कारण क्षपकश्रेणी आरोहणका छह मासोंसे अधिक उत्कृष्ट अन्ता नहीं पाया जाता है । ( खु० बं० टी०, पृ० ४८९)।
यथाख्यातसंयम में-साता वेदनीयके बन्धकोंका अन्तर नहीं है। अबन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कष्ट छह मास अन्तर जानना चाहिए।
विशेष-साता वेदनीयके ,अबन्धकोंका इस संयम में अयोगकेवली गुणस्थान है। उसका जघन्य अन्तर एक समय, उत्कृष्ट अन्तर छह मास है।
२६३. तेजोलेश्या-पद्मलेश्यामें-तीन आयुके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे ४८ मुहूर्त तथा पक्षप्रमाण अन्तर है।
२६४. शुक्ललेश्यामें-दो आयुके बन्धकोंका मासपृथक्त्व अन्तर है।। __ २६५. सम्यग्दृष्टियोंमें-आभिनिबोधिक ज्ञानके समान भंग है। क्षायिक सम्यक्त्वीमें दो आयुके बन्धकोंका वर्षपृथक्त्व अन्तर है। शेष प्रकृतियोंका अन्तर नहीं है । वेदक सम्यक्त्वियों में-आयुके बन्धकोंका आभिनिबोधिक ज्ञानके समान है। शेष प्रकृतियों में अन्तर नहीं है।
२६६. उपशमसम्यक्त्वियों में-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्माण, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभसंहनन, वर्ण ४,
१. सुहुमसापराइयसुद्धिसंजदाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमयं उक्कस्सेण छम्मासाणि -खु० बंसू०४२-४४। २. 'चदुण्हं खबगअजोगिकेवलोणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणणेण एगसमयं उक्कस्सेण छम्मासं।" -१६, १७। ३. "चदुण्हमवसामगाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पड्डच्च जहण्णण एगसमयं उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।” -पटूखं०,अं० सू० ३४३, ४४।
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