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________________ १४० महाबंधे पंचजादि-दोसरीर छस्संठा दोअंगो-छस्संघ० चदुआणु० दोविहा० तसादिणवयुगलं । एवं दुगुच्छाए । ११६. णिरयायुं बंधतो पंचणा० णवदंस० असादावे० मिच्छ० सोलसक० णपुंसक० अरदिसोगभयदु० णिरयगदि-पंचिं० वेगुब्धिय० तेजाकम्म० हुंडसंठा० वेगुवि० अंगो० वण्ण०४ णिरयाणु० अगुरु०४ अप्पसत्थ० तस०४ अथिरादिछक्कं णिमिणं णीचागोदं पंचंत० णियमा बं० । ११७. तिरिक्खायुं बंधतो पंचणा० णवदंस० सोलसक० भय दुगु० तिरिक्खगदि-तिष्णिसरी०-वण्ण०४ तिरिक्खाणु० अगु० उप० णिमिण. णीचागो० पंचंत० णियमा बंध। सादं सिया बं०, असादं सिया बंध० । दोण्णं एक्कदरं बं० । ण चेव अबं० । एस भंगो तिण्णिवेद-हस्सादिदोयुग० पंचजा० छस्संठा० तस-थावरादिणवयुगलाणं० । मिच्छत्तं ओरालि० अंगो० परघाउस्सा आदावजो० सिया बं० । छस्संघ० दोविहा० दोसरं सिया बंध० । एदेसिं एकदर० बं० अथवा अबं० । ११८. मणुसायुगं बंधतो पंचणा० छदंसणा० बारसक० भय-दुगुंछा०-मणुसग० विशेष-गतिका बन्ध अपूर्वकरणके छठे भाग पर्यन्त होता है तथा भयका अपूर्वकरणके अन्तिम भाग तक बन्ध होता है। इस कारण भयके बन्धकको गति चतुष्टयका अबन्धक भी कहा है। ____ ५ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, ४ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, त्रसादि ९ युगलका गति के समान भंग जानना चाहिए । जुगुप्साका बन्ध करनेवालेके भय के समान भंग जानना चाहिए। ११६. नरकायुका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, १६ कषाय, नपुंसकवेद, अर ति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक-तैजस-कार्मण शरीर, हुंडकसंस्थान, वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, नरकानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, अप्रशस्त विहायोगति, स ४, अस्थिरादिषट्क, निर्माण, नीचगोत्र, तथा ५ अन्तरायोंका नियमसे बन्धक है। ११७. तिर्यंचायुका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, १६ कपाय, भय, जुगुप्सा, तियचगति, ३ शरीर ( औदारिक-तैजस- कार्मण ), वर्ण ४, तिथंचानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र और ५ अन्तरायका नियमसे बन्धक है। साता वेदनीयका स्यात् बन्धक है , असाताका स्यात् बन्धक है । दोमें-से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। तीन वेद, हास्यादि दो युगल, ५ जाति, ६ संस्थान, बस-स्थावरादि ६ युगल में वेदनीय के समान जानना चाहिए । अर्थात् एकतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है। मिथ्यात्व, औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योतका स्यात् बन्धक है । ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका स्यात् बन्धक है । इनमें से एकतरका बन्धक है अथवा किसीका भी वन्धक नहीं है। ११८. मनुष्यायुका बन्ध करनेवाला-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कपाय, भय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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