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महाबंधे १६६. एइंदिएसु-धुविगाणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णत्थि । सादा: सादबंधगा अबंधगासव्वलोगो। दोण्णं पगदीणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णस्थि । एवं सव्वाणं वेदणीयभंगो। णवरि मणुसायुबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सबलोगो वा। अबंधगा सव्वलोगो । तिरिक्खायुबंधगा अबंधगा सव्वलोगो। दोण्णं आयुगाणं बंधगा अबंधगा सबलोगो। एवं छस्संघओरालि० अंगो० परघादुस्सासआदाउओवदोविहाय-दोसर० ।
१६७. एवं सब्बसुहुम-एइंदिय-पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वण'फदि-णिगोद एदेसि० सव्वसुहुमाणं च ।
उपपाद परिणत असंयत सम्यग्दृष्टि देवोंने देशोन प भाग स्पर्श किये हैं। आरण-अच्युतवाले देवोंने उपपादसे कई भाग स्पर्श किया है, कारंण वैरी देवोंके सम्बन्धसे सर्व द्वीपसागरोंमें विद्यमान असंयतसम्यग्दृष्टि तथा संयतासंयत तियचोंका आरण-अच्युतकल्पमें उपपाद पाया जाता है । 'नव |वेयकवासी देवोंका मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्त लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है । अनुदिशसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त असंयत सम्यक्त्वी देवों. के स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कपाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक तथा उपपादरूप परिणमनकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है। सर्वार्थसिद्धि में मारणान्तिक तथा उपपादपदोंको छोड़ शेष पदोंकी अपेक्षा मानुषक्षेत्रका संख्यातवाँ भाग स्पर्शन है (खु. बं०, पृ० ३६२ )।
१६६. एकेन्द्रियों में-ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं।
विशेषार्थ-स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिक तथा उपपादको अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवोंने अतीत-अनागत कालमें सर्वलोक स्पर्श किया है । 'खुद्दाबंध टीकामें लिखा है वैक्रियिक समुद्घात पदसे लोकका संख्यातवाँ भाग स्पृष्ट है । इतना विशेष है कि सूक्ष्म जीवोंके वैक्रियिक समुद्घात नहीं होता। "णवरि सुहुमाणं बेउब्वियं णत्थि।" (३६३ पृ०)।
_ साता-असाताके बन्धकों-अबन्धकोंका स्पर्शन सर्व लोक है। दोनों प्रकृतियों के बन्धकोंका सर्वलोक स्पर्शन है ; अबन्धक नहीं है। इस प्रकार सर्व प्रकृतियोंका वेदनीयके समान भंग है । विशेष, मनुष्यायुके बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक स्पर्शन है । अबन्धकोंका सर्वलोक है । तिर्यंचायुके बन्धकों अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों आयुके बन्धकोंअबन्धकोंका सर्वलोक है। छह संहनन, औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति तथा दो स्वर में इसी प्रकार भंग है।
१६७. सर्वसूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें इसी प्रकार है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद, इनके सर्वसूक्ष्म भेदोंमें भी इसी प्रकार है।
१. "णवगेवज्ज जाव सबट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा सत्थाणस मुग्धाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो"- खु० बं०,सू० ४७-४८ । २. “इंदियाणुवादेण एइंदिय बादर-सुहुम-पज्जत्ता. पज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो।"-षट्खं०, फो०, सू० ५७। ३. "बादरपुढविकाइयबादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सबलोगो वा।"-सू० ६७-६८ ।
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