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________________ [ फोसागमपरूवणा ] १६०. फोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओवेग [ स्पर्शनानुगम ] १०. ओघ तथा आदेश से स्पर्शानुगमका दो प्रकार निर्देश करते हैं । विशेषार्थ - स्पर्शन के छह भेद कहे हैं - णामफोसणं, ठवणफोसणं, दवफोसणं, खेतफोसणं, कालफोसणं, भावफोसणं वेदि छव्विहं फोसणं'- नाम स्पर्शन, स्थापना स्पर्शन, क्षेत्र स्पर्शन, काल स्पर्शन, भाव स्पर्शन ये स्पर्शनके छह प्रकार हैं। इन छह स्पर्शनों में से यहाँ किस स्पर्शनसे प्रयोजन है ? समाधान - "पदेसु फोसणेसु जीवस्खेसकोसणं पयदं' – इन स्पर्शनोंमें से यहाँ जीव द्रव्य सम्बन्धी क्षेत्र स्पर्शन प्रकृत है। शेष द्रव्योंका आकाशके साथ जो संयोग है वह क्षेत्र स्पर्शन है। शंका-अमूर्त आकाश के साथ शेष अमूर्त और मूर्त द्रव्योंका स्पर्श कैसे संभव है ? समाधान - वह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अवगाह्य अवगाहक भावको ही उपचार से स्पर्श संज्ञा प्राप्त है। अथवा सत्व, प्रमेयत्व आदि के द्वारा मूर्त द्रव्यके साथ अमूर्त द्रव्यों की परस्पर समानता होनेसे भी स्पर्शका व्यवहार बन जाता है। (जी० फो० टी० ) पूज्यपाद स्वामीने स्पर्शनको त्रिकाल गोचर कहा है, किन्तु 'धवला टीकाकारने लिखा है - जो भूतकाल में स्पर्श किया गया और वर्तमान में स्पर्श किया जा रहा है, वह स्पर्शन कहलाता है । (अस्पर्शि, स्पृश्यत इति स्पर्शनम् ) सब द्रव्योंको निवासभूमि प्रदान करनेकी क्षमता आकाश द्रव्यमें है । यद्यपि एवंभूतनकी अपेक्षा सर्व द्रव्य स्वप्रतिष्ठ हैं; किन्तु धर्मादिका अधिकरण आकाश है यह कथन व्यव हार नयसे किया गया है। जैसे कहा जाता है "क' भवानास्ते ?" आप कहाँ रहते हैं ? 'आत्मनि' - मैं अपनी आत्मामें रहता हूँ, क्योंकि एक वस्तुकी अन्य वस्तुमें वृत्ति नहीं पायी जाती है। यदि एक वस्तुकी अन्य पदार्थ में वृत्ति हो, तो आकाशमें ज्ञानादिक तथा रूपादिककी वृत्ति हो जाये (स० सि०५८ ) व्यक्ति का नया पक्ष पकड़ता है, वह तत्त्रको नहीं समझ पाता है। पूज्यपाद स्वामी इन सप्त नयोंपर विवेचन करते हुए कहते हैं "एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्राः सम्यग्दर्शनहेतवः स्वतन्त्राश्चासमर्थाः" (स० सि० पृ० ५९ ) ये नय मुख्य तथा गौणरूपता धारण करते हुए सम्यग्दर्शन के हेतु हैं । स्वतन्त्रता धारण करनेपर ये असमर्थ हो जाते हैं । इसीसे सर्व द्रव्योंको अवकाश देनेवाले आकाश द्रव्यके विषयमें कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं : . १. धर्मादीनां पुनरधिकरणमाकाशमित्युच्यते व्यवहारनयवशात् । एवंभूतनयापेक्षया तु सर्वाणि द्रव्याणि स्वप्रतिष्ठान्येव तथा चोक्तं क्व भवानास्ते ? आत्मनीति धर्मादीनि लोकाकाशान बहिः सन्तीत्येतावदत्राधाराधेयकल्पना साध्यं फलम् । - स० सि० पृ० १२९ अध्याय ५, सूत्र १२ । यथा वा भवानास्ते ? आत्मनीति कुतः ? वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्तिः स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् - ( पृ० ५८, स० सि०अ० १ सू० ३३ ) । २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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