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पयडिबंधाहियारो तित्थय० सिया सव्ये अबंधगा। सिया अबंधगा य बंधगो य । सिया अबंधगा य बंधगा य । छस्संघ० दोविहा० दोसर० ओघभंगो ।
१४०. एवं कम्मइगे । णवरि आयुगं णस्थि ।
१४१. इथि० पुरिस० णस० कोधादि०४ सामाइ० छेदो० धुवपगदीओ मोत्तूण सेसाणं दोण्णं मणभंगो।।
१४२. अवगद-पंचणा० चदुदंस० चदुसंज० जसगित्ति उच्चा० पंचंत सिया सव्वे अबंधगा। सिया अबंधगा य बंधगो य । सिया अबंधगा य बंधगो (गा) य। सादं अत्थि बंधगा य अबंधगा य ।
१४३. अकसा०-सादं अस्थि बंधगा य अबंधगा य। एवं केवलिणा. केवलिदं० ।
१४४. मदि-सुद० विभंग० असंज० किण्ण-णील-काउ०-अब्भव० मिच्छादि० असणित्ति तिरिक्खभंगो । णवरि किंचि विसेसो जाणिदवाओ। परिहार-संजदासंजदेसु अप्पप्पणो पगदीओ णिरयभंगो।
( मनुष्य तिथंचायु ) का ओघके समान भंग है। देवगतिचतुष्क और तीर्थंकरके स्यात् सर्व अबन्धक हैं। स्यात अनेक अबन्धक तथा एक वन्धक है। स्यात् अनेक अबन्धक है और अनेक बन्धक हैं। ६ संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरमें ओघवत् भंग जानना चाहिए।
१४०. इसी प्रकार कार्मणकाययोगमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ आयुका बन्ध नहीं है।
१४१. स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोधादि ४, सामायिक, छेदोपस्थापनासंयममें ध्रुवप्रकृतियोंको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका दो मनोयोगके समान भंग जानना चाहिए।
१४२. अपगतवेदमें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ४ संज्वलन, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और ५ अन्तरायोंके स्यात् सर्व अबन्धक हैं। स्यत् अनेक अबन्धक और एकजीव बन्धक है । स्यात् अनेक अबन्धक हैं, और एक जीव बन्धक हैं (?) विशेषार्थ-यहाँ अनेक अबन्धक तथा एक जीव बन्धक है;यह कथन हो चुका है,अतः पुनः आगत इस पाठमें यह संशोधन सम्यक् प्रतीत होता है कि अनेक बन्धक हैं और अनेक अबन्धक हैं।
साताके नाना जीव बन्धक हैं और अनेक अबन्धक हैं।
१४३. अकषायियोंमें-साताके अनेक बन्धक और अनेक अबन्धक हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शनमें-इसी प्रकार जानना चाहिए।
१४४. मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगावधि, असंयत, कृष्ण, नील, कापोतलेश्या, अभव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि तथा असंज्ञी जीवोंमें तिथंचोंके समान भंग जानना चाहिए । और इनकी जो कुछ विशेषता है वह भी जाननी चाहिए। परिहारविशुद्धि संयम और संयतासंयतोंमेंअपनी-अपनी प्रकृतियोंका नरकवत् भंग जानना चाहिए।
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