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पयडिबंधाहियारो
३८७ भाणिदव्वं । विभंगे वेउव्विय छकं तिण्णिजादि-सुहुम-अपजत्त-साधारणाणं णस्थि अप्पाबहुगं । सेसाणं देवभंगो। आभि० सुद. ओधिणाणीसु-दोण्णं जीवसमासाणं दोवेदणीय-चदु-णोकसाय-थिरादि-तिण्णि-युगलाणं ओघं । सेसाणं णत्थि अप्पाबहुगं। एवं ओधिदं० सम्मादिट्ठी-खइग-सम्मादिट्ठी-वेदग-सम्मादिट्ठी-उवसम-सम्मादिट्ठी त्ति । मणपज्जवणाणिओधिभंगो। णवरि एक जीवट्ठाणं । एवं संजद-सामाइय-छेदोवट्ठावणं परिहार-संजदासंजद० । चक्खु-दंसणी तिण्णि जीवसमासाणि। तिण्णिलेस्सि० वेउब्धियछक्क पंचजादि-तसथावरादि०४ णत्थि अप्पाबहुगं । सेसाणं णिरय-भंगो । तेउलेस्सि०देवगदि०४ वज सेसाणं देवोधभंगो। एवं पम्माए । णवरि सहस्सार-भंगो । सुकाएआणद-भंगो । सण्णिस्स दोणं जीवसमासाणं ओघं ।
एवं सत्थाणं अद्धा अप्पाबहुगं समत्तं । एवं पत्तेगेण णीदं ।
विभंगावधिमें-वैक्रियिकपटक, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्तक-साधारणके बन्धकोंमें अल्पबहुत्व नहीं है । शेप प्रकृतियों के विषय में देवगतिके समान भंग हैं।
आभिनिवोधिक-श्रुत-अवधिज्ञानियों में--पर्याप्तक, अपर्याप्तकरूप दो जीव-समास हैं। इनमें दो वेदनीय, चार नोकषाय, स्थिरादि तीन युगलके बन्धकोंमें ओघवत् जानना चाहिए । शेष प्रकृतियों में अल्पबहुत्व नहीं है।
अवधिदर्शन, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टिमेंइसी प्रकार जानना चाहिए। मन पर्ययज्ञानीमें-अवधिज्ञानके समान भंग है। विशेप, यहाँ संज्ञी पर्याप्तकरूप एक ही जीव स्थान है।
संयमी, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, संयतासंयतोंमें-मनःपर्ययज्ञानके समान एक जीव-स्थान है । चक्षुदर्शनी में-चौइन्द्रिय पर्याप्तक तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक ये तीन जीव-समास हैं।
कृष्ण-नील-कापोत-लेश्याओंमें-वैक्रियिकषट्क, ५ जाति, त्रस स्थावरादि ४के बन्धकोंमें अल्पबहुत्व नहीं है। शेष प्रकृतियोंमें नरकगति के समान भंग हैं।
तेजोलेश्यामें-देवगति ४ को छोड़कर शेष प्रकृतियोंके विपयमें देवोंके ओघवत् भंग है।
____ पद्मश्यामें- इसी प्रकार भंग है । विशेप यह है कि यहाँ सहस्रार स्वर्गके समान भंग है।
शुक्ललेश्यामें-आनत स्वर्ग के समान भंग है। संज्ञोमें-पर्याप्तक, अपर्याप्तक ये दो जीव-समास हैं। उनमें ओववत् जानना चाहिए।
इस प्रकार स्वस्थान अद्धा-अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
इस प्रकार प्रत्येक रूपसे वर्णन किया।
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