SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ महाबंधे अट्ठतेरह० सबलोगो वा । अबं० णत्थि। पजत्त० पत्तेग बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबं० लोगस्स असंखेजदिभागो सबलोगो वा । तविवरीदं अपज. साधारण । दोण्णं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा। अबंधगा णस्थि । अजस० बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलो० । अबं० अट्ठतेरह० । दोण्णं बंधगा अट्ठतेरह० सव्वलोगो वा । अबंधगा त्थि। २१०. आभि० सुद० ओधि०-पंचणा० छदंस० अट्ठकसा० पुरिस० भयदु० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० वण्ण०४ अगु०४ पसत्थ० तस०४ सुभगादितिणि णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइगाणं बंधगा अट्ठचो० । अबं० खेत्तभंगो । सर्वलोक है । सूक्ष्म के विषयमें विपरीत क्रम है अर्थात् बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है: अबन्धकोंका ... वा १३ है। दोनोंके बन्धकोंका -5.१३ वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं हैं। पर्याप्त प्रत्येकके बन्धकोंका 5, १३ वा सर्वलोक है ; अबन्धकोंमें लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अपर्याप्त तथा साधारणमें इसके विपरीत क्रम है अर्थात् बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धकोंके 45, १३ वा सर्वलोक है। दोनों के बन्धकोंका १४ वा सर्वलोक है। अबन्धक नहीं है । अयशःकीर्ति के बन्धकोंका पई, १४ वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका, १३ है। दोनों के बन्धकोंका दहे, हे वा सर्व लोक है। अबन्धक नहीं हैं। विशेषार्थ-खुद्दाबन्धमें विभंगज्ञानीके सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है - विभंगज्ञानी जीवोंने स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। अतीत कालकी अपेक्षा उनने देशोन भाग स्पर्श किया है । स्वस्थान पदोंसे विभंगज्ञानी जीवोंने तीन लोकोंका असं. ख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातवाँ गुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत् स्वस्थानकी अपेक्षा देशोन भाग स्पर्श किया है। समुद्घातकी अपेक्षा विभंगज्ञानी जीवोंने लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है । अतीत कालकी अपेक्षा उनने देशोन भाग स्पर्श किया है। विहार करनेवाले विभंगज्ञानियोंने वेदना कषाय और वैक्रियिक समुद्घात पदोंसे देशोन भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिक पदका आश्रय कर सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि विभंगज्ञानी तिथंच और मनुष्यों के मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा अतीत कालमें सर्वलोक स्पर्श पाया जाता है। देव तथा नारकियोंके मारणान्तिक समुद्घातका आश्रय कर १३ भाग होते है। इनके उपपाद पदका अभाव है। २१०. आभिनिबोधिक-श्रुत-अवधिज्ञानियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय, तैजस- कर्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त-विहायोगति, त्रस ४, सुभगादि ३, निर्माण, उच्चगोत्र, ५ अन्तरायके बन्धकोंके कह, अबन्धकोंमें क्षेत्रके समान भंग है । अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है। विशेष-अतीत कालकी अपेक्षा विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक तथा मारणान्तिक समुद्घातगत सम्यक्त्वी जीवोंने ६ भाग स्पर्शन किया, जो कि मेरुके मूलसे ६ राजू ऊपर तथा नीचे दो राजू प्रमाण है । ( १६७) १. विभंगणाणी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अटुचोदसभागा देसणा। समुग्धादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्रचोदृसभागा देसूणा फोसिदा । सबलोगोवा। उववादं णत्थि। - खदा बंध,सू०१५१-१५८ । २. संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -षट्खं०,फो०,सू०७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy