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________________ २२० महाबंचे णवुंसग० बंधगा अबंधगा सव्वलोगो । तिष्णं वेदाणं बंधगा सव्वलोगो, अबंधगा केवलिभंगो । वेदाणं भंगो हस्मादिदोयुगलं पंचजादि छस्संठा • तसथावरादिणवयुगलं दोगोदं च । वेदणीयायु (?) आहारदुग-बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, अबंधगा सव्वलोगो । तिरिक्खायुबंधगा अबंधगा सव्वलोगो । मणुसायुबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, अट्ठचोदसभागा वा सव्वलोगो वा । अबंधगा सव्वलोगो । चदुआयुबंधगा अबधगा केव खेत्त फोसिदं ? सव्वलोगो । णिरयदेवगदिबंधगा के० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, छचोदसभागा वा । अबंधगा सव्वलोगो । तिरिक्खमणुसदिबंधा अबंधगा सव्वलोगो । चदुर्गादिबंधगा सव्वलोगो । अबंधगे केवलिभंगो । और शिष्ट क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करनेवाले हैं, ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि भूतकाल और भविष्यकालमें स्पर्शनकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। धवलाटीकाके ये शब्द महत्त्वपूर्ण हैं " अधवा अदीदाणागद काल विसिखेत्ताणं परूवणाणि पच्छिमन्त्रसुत्ताणि ति णिच्छु काव्वो उभयत्थ विसेसाभावादो” घ० टी०, पृ० १६८ । इस कथनने सर्वार्थसिद्धि आदिके आर्ष वाक्योंका समर्थन कर दिया है, जिनमें "स्पर्शनं त्रिकालगोचरम् " स्पर्शनको त्रिकाल गोचर कहा गया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद के बन्धकों, अबन्धकोंने सर्वलोक स्पर्शनं किया है। तीनों वेदों बन्धोंने सर्वलोक स्पर्श किया है। इनके अबन्धकोंमें केवली के समान भंग है । विशेषार्थ - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदके अबन्धकोंका प्रत्येक वेदकी अपेक्षा अबन्धकोंके सर्वलोक स्पर्शन कहा है, कारण यहाँ एक वेदका अबन्ध होते हुए अन्य वेदका बन्ध हो जाता है । वेदत्रयके अबन्धक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानसे अयोगकवली पर्यन्त हैं । उनकी अपेक्षा केवली भंग अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग अथवा सर्वलोक स्पर्श कहा है। हास्य, रति, अरति, शोक, एकेन्द्रियादि पंच जाति, ६ संस्थान, त्रस स्थावरादि नवयुगल तथा २ गोत्रमें वेदके समान भंग है । वेदनीय, आयु, आहारकद्विकके बन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग है; अबन्धकोंके सर्वलोक है । तियंचायुके बन्धकों अबन्धकोंके सर्वलोक है। मनुष्यबन्धकोंके लोकका असंख्यातवाँ भाग, १४ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके सर्वलोक है । विशेष—यहाँ ऊपरके ६ राजू तथा नीचेके २ राजू इस प्रकार १४ राजू स्पर्शन हैं । चार आयु बन्धकों, अबन्धकोंने कितना क्षेत्र स्पर्शन किया है ? सर्वलोक । नरकगति, देवगति के बन्धकोंने कितना क्षेत्र स्पर्शन किया है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग वा भाग हैं | अबन्धकोंके सर्वलोक है । विशेष - यहाँ सप्तम नरकके स्पर्शनकी अपेक्षा नरकगतिका स्पर्शन ४ है तथा सोलहवें स्वर्गके स्पर्शनकी अपेक्षा देवगतिका स्पर्शन कहा है । तिर्यंचगति मनुष्यगति के बन्धकों, अबन्धकोंका सर्वलोक है । चारों गतियोंके बन्धकोंका १. ' असं जदसम्माट्ठीहि विहारवादसत्थाण- वेदणकसाय - वेउब्विय मारणंतियसमुग्धादगदेहि अट्ठचोद भागा देणा फोसिदा उवरि छ रज्जू, हेट्ठा दो रज्जू ति ।" ध० टी०, फो०, पृ० १६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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