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________________ पयडिबंधाहियारो १८६ तिण्णिसरीरछस्संठाणदोअंगो छस्संघ दोआणुपु० दोविहाय० सुभगादि-तिण्णि-युगलदोगोदं आभिणि भंगो। अट्ठपदं तेउ-लेस्सिग-तिरिक्ख-मणुसा० णqसगवेदंण बंधंति। पम्माए० सुक्कले० इत्थि-णवुसकवेदं ण बंधंति । भवसिद्धिया ओघभंगो। १७१. अब्भवसि०-तिण्णिआयु० वेउब्बियछक्क० बंधगा सव्वजी० केव० ? अणंतभागो । सव्व-अभवसिद्धिया केव० ? अणंतभागो। अबंधगा सव्वजी०. केव० १ अणंतभागो । सबअब्भवसिद्धिया केव० १ अणंतभागो (गा)। तिरिक्खायु सादभंगो। आयुचत्तारि तिरिक्खायुभंगो । धुवबंधगा सबजी० केव० ? अणंतभागो। अबंधगा णस्थि । सेसाणं पगदीणं पत्तेगेण साधारणेम वि पंचिंदियतिरिक्खभंगो । १७२. सम्मादिहि-खइगसम्मादिट्ठीसु-पंचणा० छदसणा० बारसक० पुरिस० भयदु० पंचिंदि० तेजाक० समचदु० बजरिसह० वण्ण०४ अगु०४ पसस्थवि० तस०४ सुभग-सुस्सर-आदेज-णिमिण-तित्थयर-उच्चागोद-पंचंतराइगाणं बंधगा सव्वजी० केव०? तीन वेद, २ गति, ३ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, दो विहायोगति, सुभगादि तीन युगल, दो गोत्रका सामान्य तथा पृथकसे आभिनिबोधिक ज्ञानके समान भंग है। अथे पद यह है कि तेजोलेश्यावाले तिथंच तथा मनुष्य नपुंसकवेदका बन्ध नहीं करते है। पद्म तथा शुक्ल लेश्यामें स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेदका बन्ध नहीं करते हैं।' भव्यसिद्धिकोंमें ओघवत् भंग है। १७१. अभव्यसिद्धिकोंमें-३ आयु, वैक्रियिकषटकके बन्धक सर्व जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । सर्व अभव्यसिद्धिकोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अबन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। सर्व अभव्यसिद्धिकोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं (?)। विशेष-यहाँ अबन्धक अभव्योंके 'अनन्त बहुभाग' होना उचित प्रतीत होता है। तिर्यंचायुका साता वेदनीयके समान भंग है। ४ आयुका तियचायुके समान भंग जानना चाहिए । ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक सर्वजीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं; अबन्धक नहीं हैं। शेष प्रकृतियोंका प्रत्येक तथा सामान्यसे पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान भंग हैं। विशेषार्थ-भूतबलि स्वामीने भव्यजीवोंको सम्पूर्ण जीवराशिके अनन्त बहुभाग प्रमाण बताया है तथा अभव्य जीवोंके सम्पूर्ण जीवराशिके अनन्तवें भाग कहा है। इससे अभव्य जीवोंकी न्यूनता स्पष्ट प्रमाणित होती है। १७२. सम्यग्दृष्टि-क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, १२ कषाय, पुरुषवेद, भय-जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस- कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वनवृषभसंहनन, वर्ण ४, अगुल्लघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, १. भवियाणुवादेण भवसिद्धिया सन्चजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंताभागा। २. अभवसिद्धिया सबजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतभागो॥ -खु० बं०,७३-७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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