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महाबंधे ८४. आदावं बंध० तिरिक्खग० एइंदि० तिण्णि सरी. हुंडसंठा० वण्ण०४ तिरिक्खाणु० अगु०४ थावर-बादर-पज्जत्त-पत्तेय-भ० अणा० णिमि० णियमा ब। थिरादि-तिष्णि युग० सिया ब । तिण्णि युगलाणं एकदरं ब, ण चेव अब ।
८५. उजो बंधंतो तिरिक्खगदि० तिण्णं सरी० वण्ण०४ तिरिक्खाणु० अगु०४ बादर-पज्जत्त-पत्तेय-णिमि० णियमा बधगो। पंच-जादि-छस्संठा० तसथाव० थिराथिर सुभासुभ-सुभगभग-आदेज्जअणादेज्ज-जस०-अजस० सिया बं० । एदेसिं एकतरं बं० । ण चेव अबं० । ओरालिय० अंगो० सिया बं० । सिया अबं० | छस्संघ० दो विहा० दो सरीर (सरं ) सिया बं० । छण्णं दोण्णं दोण्णं एकदरं बं० । अथवा दोण्णं(१)छण्णं दोण्णं दोणं पि अबंध० ।
८६. अप्पसत्थ-विहाय० बंधतो तिण्णि गदि सिया बं०, तिण्णं गदीणं एक्कदरं वं०, ण चेव अबं० । एवं भंगो चदुजादि० दो सरी० छस्संठा० दो अंगो० णिरय
४. आतापका बन्ध करनेवाला-तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय, तीन शरीर, हुंडक-संस्थान, वर्ण ४, तिर्यंचगत्यानुपूर्वो, अगुरुलघु ४, स्थावर, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । स्थिरादि तीन युगलका स्यात् बन्धक है । तीन युगलोंमें• से अन्यतरका बन्धक है । अबन्धक नहीं है ।
विशेषार्थ-आताप प्रकृतिका उदय सूर्यके विमानमें स्थित बादर पृथ्वीकायिक जीवोंके पाया जाता है। इससे यहाँ एकेन्द्रियका ही बन्ध कहा है । संहननके बन्धके अभावका कारण भी यही है, क्योंकि स्थावरोंमें संहनन नहीं होता है।
८५. उद्योतका बन्ध करनेवाला-तिर्यंचगति, ३ शरीर, वर्ण ४, तिथंचानुपूर्वी, अगुरुलघु ४, बादर, पर्याप्तक', प्रत्येक तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । ५ जाति, ६ संस्थान, त्रसस्थावर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, आदेय, अनादेय, यशःकोर्ति, अयशःकीर्तिका स्यात् बन्धक है। इनमें से एकतरका बन्धक है । अबन्धक नहीं है ।
विशेषार्थ-उद्योत प्रकृति एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त पायी जाती है, इस कारण इसके बंधककी पंच जातियाँ कही हैं।
औदारिक अंगोपांगका स्यात् बन्धक है । स्यात् अबन्धक है। छह संहनन, २ विहायोगति, २ स्वरका स्यात बन्धक है । इन ६.२.२ में-से एकतरका बन्धक है. अथवा ६.
६, २, २ में से एकतरका बन्धक है. अथवा ६, २, २ का भी अबन्धक है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियकी अपेक्षा उद्योतके बन्धककों अंगोपांग, संहनन, विहायोगति तथा स्वरका अवन्धक भी कहा गया है। यहाँ यह विशेष बात ज्ञातव्य है कि शरीरका पूर्व में कथन हो चुका है, अतः यहाँ 'दो शरीर' के स्थान में 'दो सर' पाठ सम्यक् प्रतीत होता है।
८६. अप्रशस्त विहायोगतिका बन्ध करनेवाला-नरक-तिर्यंच-मनुष्यगतिका स्यात् बन्धक है । तीन गतियों में से एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-देवोंमें अप्रशस्तविहायोगतिका अभाव है। अतः यहाँ उसका उल्लेख नहीं है। ४ जाति, २ शरीर, ६ संस्थान, २ अंगोपांग, नरक-तियच-मनुष्यानुपूर्वी, स्थिर,
१ "मूलुण्हपहा अग्गी आदावो होदि उण्हसहियपहा। आइच्चे तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोवो ॥" -गो० क०,गा० ३३।
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