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पयडिबंधाहियारो असंपत्तं बधतो दो-गदि सिया बध० । दोणं गदीणं एकादरं ब। ण चेव अब एवं चदुजादि-कस्संठा० दो-आणु० पजत्तापज० थिरादिपंचयुगलाणं । तिण्णिसरी० ओरालि० अंगो. वण्ण४ अगु० उप० तस-बादर-पत्ते० णिमि० णियमा बौं । परघादुस्सास० उजो० सिया [बंधगो०] । दो विहा० दो सरी० ( सर ) सिया [२०] । दोण्णं दोण्णं एकदरं बध० । अथवा दोणं दोण्णं पि अब ।
८३. परघादं बधंतो चदुगदि सिया ब सिया अब । चदुण्णं गदीणं एकदरं ब०, ण चेव अब । एस भंगो पंच-जादि-दो-सरीरं छसंठा० चदु-आणु० तसथावरादि-णवयुगलाणं पज्जत्तापञ्जत्तवज्जं । तेजाक. वण्ण०४ अगु० उप० उस्सासपज. णिमिणं णियमा बधगो। आहारदुर्ग आदा-बुज्जो० तित्थय सिया ब० सिया अब। दो अंगो० छस्संघ० दो विहा० दो सर० सिया बसिया अब । दोणं छण्णं दोण्णं दोण्णं एक्कदरं व अथवा दोणं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि अब । एवं भंगो उस्सास पज्जत्त० थिर(१)सुभ(१)णामाणं च ।
क्रम है । विशेष यह है कि यहाँ तीर्थंकर प्रकृतिको छोड़ देना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ तीर्थंकर प्रकृतिका सन्निकर्ष न बतानेसे ज्ञात होता है कि संहनन चतुष्टयके साथ तीर्थकरका बन्ध नहीं होता। वज्रवृषभ संहननके साथ तीर्थकरका बन्ध हो सकता है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्वीमें होता है। अतः मिथ्यात्व-सासादनमें बँधनेवाले असम्प्राप्तासुपाटिका संहनन तथा वज्रवृषभको छोड़,शेष ४ संहननका अभाव होगा।
असम्प्राप्तामृपाटिकासंहननका बन्ध करनेवाला-दो गति (मनुष्य-तिर्यंचगति ) का स्यात् बन्धक है। दो गतियोंमें-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है। ४ जाति, ६ संस्थान,२ आनुपूर्वी, पर्याप्तक-अपर्याप्तक, स्थिरादि पंचयुगलोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
औदारिक-तैजस-कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। परघात, उच्छ्वास तथा उद्योतका स्यात् बन्धक है। दो विहायोगति, दो स्वरका स्यात् बन्धक है। दो-दोमें-से अन्यतरका बन्धक है अथवा दो-दोका भी अबन्धक है।।
८३. परवातका बन्ध करनेवाला-४ गतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । इन चारोंमें-से अन्यतरका बन्धक है। अबन्धक नहीं है । ५ जाति, औदारिक वैक्रियिक शरीर, ६ संस्थान. ४ आनुपूर्वी, पर्याप्तक-अर्याप्तक रहित बस-स्थावरादि ९ युगलमें भी इसी प्रकार है। अर्थात् इनमें से एकतरका बन्धक है; अन्यका बन्धक नहीं है। तैजस कार्मण , वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, उच्छ्वास, पर्याप्त तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। आहारकद्विक, आताप, उद्योत, तीथंकरका स्यात् बन्धक है , स्यात् अबन्धक है। दो अंगोपांग, ६ संहनन, दो विहायोगति तथा २ स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है। इन २, ६, २, २ में-से किसी एकका बन्धक है । अथवा २, ६, २, २ का भी अबन्धक है ।
उच्छ्वास, पर्याप्तक, नामकर्ममें इसी प्रकार भंग जानना चाहिए।
विशेषार्थ-स्थिर तथा शुभका वर्णन आगे किया गया है, इससे मूल पाठमें 'थिर-सुभ'का उल्लेख अधिक पाठ प्रतीत होता है ।
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