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पयडिबंधाहियारो
१३१ १०२. एवं तिण्णि लेस्सा० । णवरि किण्ण-णील. तित्थयरं बंधं० देवगदि०४ णियमा बंधगो। काऊए सिया देवगदि सिया मणुसगदि । तेऊए सोधम्मभंगो । णवरि देवायु देवगदि०४ आहारदुगं अस्थि । एवं पम्माए । णवरि एई दियतिगं णस्थि । सुक्काए णिरयगदितिगं तिरिक्खगदिसंयुतं च णत्थि । सेसं ओघभंगो।
१०३. वेदगे० आभिणि भंगो । एवं उवसम० । णवरि आयु णस्थि । सासणे मिच्छत्तसंयुतं तित्थयरं आहारदुगं च णस्थि । सेसं ओघभंगो। सम्मामि० उवसमसम्मा० भंगो । णवरि आहारदुगं तित्थयरं च णत्थि । १०४. अणाहारा० कम्मइगभंगो ।
एवं सत्थाणसण्णियासो समत्तो ।
१०१. संयतासंयतों में-संयतोंका भंग जानना चाहिए। विशेष, यहाँ आहारकद्विक नहीं है। इनमें प्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध पाया जाता है। असंयतोंमें-ओघवत् भंग है। विशेष आहारकद्विक नहीं है।
१०१, कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्यामें-इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष-कृष्णनील लेश्यामें-तीर्थकरका बन्ध करनेवाला नियमसे देवगति ४ का बन्धक है। कापोत लेश्यामेंस्यात् देवगति, स्यात् मनुष्यगतिका बन्ध होता है। तेजोलेश्यामें-सौधर्म स्वर्गके समान भंग है। विशेष, देवायु, देवगति ४ तथा आहारद्विकका बन्ध है। पद्मलेश्यामें-इसी प्रकार है । विशेष, यहाँ एकेन्द्रिय, स्थावर, आतापका बन्ध नहीं है। शुक्ललेश्यामें-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु तथा तिथंचगति संयुक्तका बन्ध नहीं है। शेष प्रकृतियोंका ओघवत् भंग है।
१०३. वेदक सम्यक्त्वमें-आभिनिबोधिक ज्ञानके समान भंग है। उपशमसम्यक्त्वमें-इसी प्रकार है । विशेष, यहाँ आयुका बन्ध नहीं होता है ।
सासादन सम्यक्त्वमें-मिथ्यात्वसम्बन्धी प्रकृतियाँ तीर्थकर, तथा आहारकद्विकका बन्ध नहीं है। शेष प्रकृतियोंका ओघवत् भंग है । सम्यक्त्वमिथ्यात्वमें उपशमसम्यक्त्वीका भंग जानना चाहिए। विशेष, यहाँ आहारकद्विक तथा तीर्थकरका बन्ध नहीं है । १०४. अनाहारकमें- कार्मण काययोगीके समान भंग है।
इस प्रकार स्वस्थानसन्निकर्ष पूर्ण हुआ।
१. “सम्मेव तित्थबंधो आहारदुर्ग पमादरहिदेसु ।" -गो० क०, गा० ९२ । २. "अयदोत्ति छलेस्साओ सुह-तियलेस्सा हु देसविरदतिये । तत्तो सुक्का लेस्सा, अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥" -गो० जी०, गा०५३१ । ३. "मिच्छस्संतिमणवयं वारं णहि तेउ पम्मेसु" -गो० क०,गा० १२० । “सुक्के सदरच उक्कं वामंतिमबारसं च णव अत्थि।" -गो० क०,गा० १२ । ४. "णवरि य सव्वुवसम्मे णरसुरआऊणि णस्थि णियमेण ।" -गो० क०,गा० १२० । ५. 'कम्मेव अणाहारे ।"-गोकगा० १२१ ।
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