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महाबंधे
२५४ खेत्तभंगो । ओरालिय-अंगोवंगं बंधगा, अबंधगा सबलोगो। वेउब्धिय-अंगोवंगं, बंधगा बारहभागो, अबंधगा सबलोगो । दोण्णं बंधगा अबंधगा सव्वलोगो। परघादुस्सासं आदावुज्जोवं बंधगा अबंधगा सव्वलोगो । एवं णीचुचागोदाणं । अवगदवेदे खेतभंगो । एवं अकसाइ० केवलिणा० संज० सामाइ० छेदो० परिहा० सुहुमं प० (सुहुमसंप०) यथाक्खाद० केवलदंसण त्ति । कोधादि०४ ओघभंगो। णवरि धुविगाणं बंधगा सव्वलोगो । अबंधगा णस्थि । यं हि अबंधगा अस्थि तं हि लोगस्स असंखेजदिभागो।
न्धकोंका क्षेत्रके समान है। औदारिक अंगोपांगके बन्धकों और अबन्धकोंका सर्वलोक है। वैक्रियिक अंगोपांगके बन्धकोंका १३ है ; अबन्धकोंका सर्वलोक है। दोनों के बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है । परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योतके बन्धकों,अबन्धकोंका सर्वलोक है। इसी प्रकार नीच गोत्र, उन गोत्रका है।
अपगत वेद में क्षेत्र के समान भंग है।'
विशेषार्थ-अपगतवेदी जीवोंने स्वस्थान पढ़ोंसे लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। दण्ड, कपाट वा मारणान्तिक समुद्घातोंको प्राप्त अपगत वेदियों-द्वारा चार लोकोंका असंख्यातवाँ भाग, अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीत और वर्तमानकालकी अपेक्षा स्पृष्ट है। विशेप, कपाट समुद्भातगत अपगतवेदियों-द्वारा तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग अथवा संख्यातगुणा (तिरियलोगस्स संखेजदिभागो संखेजगुणो वा फोसिदो) क्षेत्र स्पृष्ट है । प्रतर समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यात बहुभाग तथा लोकपूरण समुद्घात अपगत वेदियोंकी अपेक्षा सर्वलोक स्पृष्ट है। इनमें उपपाद पदका अभाव है। (खु० बं०,टीका,पृ० ४२३-४२५)।
अकषाय, केवलज्ञान, संयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात, केवलदर्शनमें इसी प्रकार है।
विशेषार्थ-पर्यायार्थि कनयका अवलम्बन करनेपर संयत जीव अपायी जीवोंके तुल्य नहीं है। क्योंकि अकषायी जीवोंमें अविद्यमान वैक्रियिक-तैजस और आहारक समुद्घात पद संयतोंमें पाये जाते हैं।
पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर सामायिक-छेदोपस्थापना शुद्धिसंयत जीव मन:पर्ययज्ञानियोंके तुल्य होते हैं क्योंकि मनःपर्ययज्ञानियोंमें तैजस तथा आहारक समुद्घातपदों का अभाव है, किन्तु सूक्ष्मसाम्परायी मनःपर्ययज्ञानियोंके तुल्य नहीं होते। सूक्ष्म साम्पराय संयमियोंमें वैक्रियिक पदका अभाव है। (खु० बं०, टीका,पृ० ४३१-४३२ )। ___क्रोधादि ४ कषायमें-ओघके समान भंग है। विशेष, ध्रुव प्रकृतियों के बन्धको का सर्वलोक है; अबन्धक नहीं हैं । जहाँ अबन्धक है वहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है।
१. “अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलितिः ओघं । सजोगिकेवली ओघं ।"-षट्खं०, फोसू० ११८, ११६ । अवगदवेदा सत्यागेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। समुग्धादगदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। असंखेज्जा वा भागा। सम्वलोगो वा। उववाद णत्थि । अकसाई अवगदवेदभंगो। केवलणाणी अवगदवेदभंगो। संजमाणुवादेण संजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा अकसाइभंगो । सामाइयच्छेदोवद्रावणसुद्धिसंजद-सुहमसांपराइयसंजदाणं मणपज्जवणाणिभंगो। केवलदंसणी केवलणाणिभंगो -खु० बं०,सू० ।
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