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महाबंध
अबंधगा जीवा । परधादुस्सा० बंधगा जीवा असंखेज्जगुणा । अबंधगा जीवा संखेञ्जगु० । अगुरु ० उप० बंधगा जीवा विसेसा | ससाणं युगलाणं ओघ -भंगो। णवरियं हि अनंतगुणं तं हि असंखेञ्जगुणं कादव्वं । सव्वत्थोवा तित्थयरबंधगा जीवा । अबंधगा जीवा असंखेजगुणा ।
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३०७. मणुसपजत्त मणुसिणीसु एसेव भंगो। णवरि यं हि असंखेजगुणं दव्वं, तं हि संजगुणं कादव्वं । यासु सरिसताओ इमाओ पगदीओ गदिसु च जादिसु च णिरयगदि-पंचिंदिय पच्छा कादव्वा । आहारसरीरबंधगा थोवा | पंचणं सरीराणं अधगा जीवा संखेञ्जगुणा । ओरालि० बंधगा जीवा संखेज्जगुणा । वेउच्चि ० बंधगा जीवा संखेज ० | तेजाक० बंधगा जीवा विसेसा० । तसादि चदुयुगलाणं च । सव्वत्थोवा अबंधगा जीवा अप्पसत्थाणं बंधगा जीवा संखेञ्जगुणा । तसादि०४ बंधगा star संखेज्ज० । विहाय ० सरणाम तिरिक्खिणीभंगो ।
३०८. देवेसु - णिरयभंगो । एवं याव सदरसहस्सारति । किंचि : विसेसो देवो - घा याव ईसा त्ति, तं पुण इमं । सव्वत्थोवा पुरिसवे० बंधगा जीवा । इत्थवे ०
लघु, उपघात के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष युगलों में ओघ के समान भंग जानना चाहिए | इतना विशेष है कि जहाँ 'अनन्तगुणा' कहा है वहाँ 'असंख्यातगुणा' कर लेना चाहिए ।
तीर्थंकर प्रकृति के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । अबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । ३०७, मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यनियोंमें - इसी प्रकार भंग जानना चाहिए । यह विशेष है कि जहाँ असंख्यातगुणित द्रव्य कहा है, वहाँ संख्यातगुणित कर लेना चाहिए ।
जो गति और जाति नामकी समान प्रकृतियाँ हैं उनमें नरक गति और पंचेन्द्रिय जातिको पीछे कर लेना चाहिए।
विशेष- चारों गति के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं; मनुष्यगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं; तिर्यच गतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं, नरकगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ।
पंच जातियों के अबन्धक जीव सर्व स्तोक हैं। पंचेन्द्रियको छोड़कर शेष के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं | पंचेन्द्रियके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं।
आहारक शरीर के बन्धक स्तोक हैं । ५ शरीर के अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । औदारिक शरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । वैक्रियिक शरीर के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तैजस, कार्मण शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं ।
यही क्रम स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक के युगलों में भी लगा लेना चाहिए ।
स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्तक साधारण इन अप्रशस्त प्रकृतियोंके अबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। त्रसादिक चतुष्क के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । विहायोगति, स्वर नामक प्रकृतियों में तिर्यचिनीके समान भंग जानना चाहिए ।
३०८. देवों में नारकियोंके समान भंग जानना चाहिए। यह बात शतार, सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त जाननी चाहिए। किन्तु देवोधकी अपेक्षा ईशान स्वर्ग पर्यन्त किंचित् विशेषता है वह यह है ।
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