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पयडिबंधाहियारो
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संखे० ० गुणा । असाद- अरदि-सोग० अज० उक्कस्सिया बंधगद्धा संखे० गुणा । एवं मणपञ्जव । णवरि दो - आयुगाणं भाणिदव्वं (व्वे) एकं चैव भाणिदव्वं ।
३५६, संजदा - सामाइ० छेदो० परिहार० संजदासंजद० मणपज्जव० भंगो । अधिदं० अधिणाणिभंगो ।
३६०. किण्णणीलकाउलेस्सि० णिरयभंगो। तेउ०- देवोघं । पम्म० - सहस्सारभंगो । सुक्कले ० - आणदभंगो ।
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३६१. सम्मादिट्ठी - खइग० वेदग० उवसम० ओघिणा णि-भंगो। णवरि उवसम० आयुगाणं णत्थि अप्पा बहुगं ।
३६२. आहाराणुवादेण-आहारा मूलोघं । अणाहारा कम्म (?) कम्मइ० काजोग-भंगो |
एवं परत्थाण- अद्धा - अप्पा बहुगं समत्तं । एवं पगदिबंधो समत्तो ।
साता, हास्य, रति, यशःकीर्ति के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । असाता, अरति, शोक, अयशःकीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । मन:पर्ययज्ञान में - इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष, यहाँ बन्धकोंमें दो आयुके स्थान में एक देवायुका ही बन्ध कहना चाहिए ।
३५१. संयत, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि तथा संयतासंयतों में- मन:पवत् भंग है ।
अवधिदर्शन में - अवधिज्ञानका भंग है ।
३६०. कृष्ण-नील-कापीत लेश्या में - नरकगति के समान भंग है । तेजोलेश्या में - देवोंके ओघवत् है । पद्मलेश्या में - सहस्रार स्वर्गके समान भंग है । शुक्ललेश्या में - आनत - स्वर्गका भंग है।
३६१. सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टिमें – अवधि - ज्ञानके समान भंग है । विशेष, उपशमसम्यक्त्वमें आयुकृत अल्पबहुत्व नहीं है ।
विशेष - सम्यग्दृष्टिके मनुष्य अथवा देवायुका ही बंन्ध होता है, उपशम सम्यक्त्व मेंइन दोनोंका ही बन्ध नहीं होता है ।'
३६२. आहारानुवादसे - आहारकोंमें मूलके ओघवत् जानना चाहिए। अनाहारकमेंकार्मण काययोगवत् जानना चाहिए ।
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इस प्रकार परस्थान - अंद्धा - अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार प्रकृतिबन्ध समाप्त हुआ ।
१. "णवरिय सब्बुवसम्मे णरसुरआऊणि णत्थि नियमेण ।” गो० क० गा० १२० ।
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