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महा
२०. पंचिंदि० तस०२ - पंचणा०-णवदंस० - मिच्छत्त० - सोलसक० भयदुगु ० तेजाक० वण्ण ०४-अगु० - उप० णिमिणं पंचंतरा० जह० खुद्धा० पज्जत े ० अंतो० । उक्क० सागरोपमसह ० पुन्त्रकोडिपुध० । पज्जत े सागरोपम-सद-पुध० | तसेसुबेसाग० सहस्साणि पुव्त्रको डिपुध०, पज्जत बेसागरोपमसहस्वाणि । सादावे० चदुआ ओघं । असादा० छण्णोक० णिरयग० चदुजा० - आहारदुगं पंचसंठाणंपंच संघ० - णिरयाणु० - आदावुज्जो०- अप्पस० थावर ०४ थिरादिदो युग ० दूभग० दुस्सर० अणादेज्ज० जस० अज्ज० जह० एग० । उक्क० अंतो० । पुरिस० ओघं । तिरिक्खगदितिगं ओरालि० ओरालिय० अंगोवं० जह० एय० । उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । मणुसग ० वज्जरि० मणुसाणु ० जह० एग० । उक्क० तेत्तीसं सा० | देवग०४ जह० एय० । उक्क० तिष्णि पलिदो० सादिरे० | पंचिंदि०
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हजार वर्ष प्रमाण है' । मनुष्य तथा तिर्यंच आयुका बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । शेष सातावेदनीय आदि प्रकृतियों का बन्धकाल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण है ।
२०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रस, त्रस -पर्यातकों में - ५ ज्ञानावरण, ६ दशनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायोंका जघन्य बन्धकाल क्षुद्रभव प्रमाण है। विशेष यह है कि पर्याप्तकोंमें जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इनका उत्कृष्टकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सहस्र सागरोपम है । विशेष यह है कि पर्याप्तकों में सागरोपम शतपृथकूत्व प्रमाण है । त्रसोंमें दो हजार पूर्वकोटिपृथकत्वाधिक है । इनके पर्याप्तकों में दो हजार सागरोपम प्रमाण बन्धकाल है । सातावेदनीय तथा आयु ४ का बन्धकाल ओघवत् जानना चाहिए । असातावेदनीय, ६
कषाय, नरकगति, ४ जाति, आहारकद्विक, पंच संस्थान, पंच संहनन, नरकानुपूर्वी, आताप, उद्यत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारण, स्थिरादि दो युगल, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्तिका बन्धकाल जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त है । पुरुषवेदका बन्धकाल ओघकी तरह जानना चाहिए । तिर्यंचगतित्रिक, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांगका जघन्य बन्धकाल एक समय उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर है । मनुष्यगति, वज्रवृषभ संहनन, मनुष्यानुपूर्वीका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट तेतीस सागर है । देवगति चतुष्कका जघन्य बन्धकाल एक समय, उत्कृष्ट साधिक तीन पल्योपम है ।
१. " बीइंदिया- तीइंदिया- चउरिंदिया बीइंदिय-ती इंदिय तउरिदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि । " - पटखं०, का०, १२८-१३० ।
२. "पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी के वचिरं कालादो होति ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतमुत्तं, उक्कण सागरोवमसहस्साणि, सागरोत्रमसदपुधत्तं ।" - पट्खं०, का०, १३४-१३६ ।
३. "तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टी केवचिरं कालादो होंति ? एगजीवं पडुच्च जपणेण अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण वेसागरोवमसहस्साणि पुञ्चकोडिपुबत्तेण भहियाणि वेसागरोवमसहस्साणि ।" - षट्खं०, का०, १५२ - १५७ /
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