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महाबंधे साधारणं वेदणीय-भंगो । सुहम अजस० बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा लोगस्स संखेअदिभागो, सत्तचोदसभागो वा। दोण्णं पगदीणं बंधगा सव्वलोगो। अबंधगा णत्थि । एवं वादर-बाउ० अपज्जत्तात्ति । बादर पुढवि-आउ० तेउ-तेसिं च अपञ्जत्ता बादर-वणप्फदि णिगोद-पज्जत्ता-अपजत्ता बादर-वणफदि० पत्तेय तस्सेव अपञ्जत्त बादरएइंदियभंगो । णवरि यं हि लोगस्स संखेजदिभागो तं हि लोगस्स असंखेजदिभागो कायरो।
१६६. पंचिंदिय-तस-तेसिं पजत्ता-पंचणा० छदंस० अट्ठक० भयदु० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० पंचंत बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, अट्ठ-तेरहचोद्दसभागो वा सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो। थीणगिद्धि०३ अणंताणु०४ बंधगा अट्ठतेरह०, सबलोगो वा । अबंधगा अट्ठ-चोद्दसभागो केवलिभंगो । [ साद०
यशःकीर्ति में इसी प्रकार जानना चाहिए। पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारणमें वेदनीयके समान भंग है। सूक्ष्म तथा अयशःकीर्तिके बन्धकोंका सर्वलोक है। अवन्धकोंका लोकका संख्यातवाँ भाग वा ४ है। बादर-सूक्ष्म तथा यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति के बन्धकोंका सर्वलोक है । अबन्धक नहीं हैं। बादरवायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार है । बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, वादर तेजकायिक, बादर-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक, बादरअपकायिक अपर्याप्तक, बादर-तेज कायिक-अपर्याप्तक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक, बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक, बादर निगोद पर्याप्तक, बादर-निगोद-अपर्याप्तक, बादर वनस्पति प्रत्येक, बादर वनस्पति प्रत्येक अपर्याप्तमें बादर एकेन्द्रियके समान भंग है। विशेप, जहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग है, वहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग करना चाहिए।
विशेषार्थ-स्वस्थान पदों द्वारा लोकके संख्यात भाग स्पर्शके विषयमें खुद्दाबन्ध टीकामें कहा है । वायुकायिक जीवोंसे परिपूर्ण पाँच राजू बाहल्यरूप राजूप्रतर बादर एकेन्द्रिय जीवोंसे परिपूर्ण सात पृथिवियों, उन पृथिवियोंके नीचे स्थित बीस-बीस हजार योजन बाहल्यरूप तीनतीन वातवलय क्षेत्रों तथा लोकान्त में स्थित वायुकायिक क्षेत्रको एकत्रित करनेपर तीनों लोकोंका संख्यातवाँ भाग और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र विशेष उत्पन्न होता है । इसलिए अतीत व वर्तमान कालों में लोकका संख्यातवाँ भाग प्राप्त होता है । (खु० बं० पृ० ३६३)।
१६६. पंचेन्द्रिय, त्रस, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रस-पर्याप्तकोंमें-५ ज्ञानावरण, ६ दर्शनावरण, आठ कषाय, भय-जुगुप्सा, तैजस-कार्मण, वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण तथा ५ अन्तरायके बन्धक लोकके असंख्यातवें भाग, नई, १३ वा सर्वलोकका स्पर्शन करते हैं । अबन्धकोंका केवली-भंग है । स्त्यानगृ द्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंका कई, १३ वा सर्वलोक है । अबन्धकोंके 4 भाग वा केवलीके समान भंग जानना चाहिए।
१. “पंचिंदिय-पंचिदियपज्जत्तएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्टचोद्दसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा । सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ।"-पट्खं०, फो०,सू०६०-६२ । “तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघ ।" -सू०७२।
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