Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 22 Chandrapragyapti Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आग गम आगम अपूज्य आनंद-क्षमा ललित- सुशील-सुधर्मसागर - गुरुभ्यो नमः म् सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि नमो नमो निम्मलदंसणस्स आगम १७ “चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्तिः आग ~1~ भाग पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा 22 आगम आगम आगम आगम आगम ! आगम 4 आगम 4 आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब BITSTET आगम अभिनव संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आज भागम $300 $30101 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा RAHAN OHOTEOS FOSHO ~ 2 ~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यजम आज आम आजम नमो नमो निम्मलदसुणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहषि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275 ~3~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਕੁਤਾ ਰਸ ਬਹਿਲ ਕਸ ਕਸ ਕਸ ਹਸ , अमावासमा सामान ..वाचना शताब्दी वर्ष Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-२२] श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति (उपांगसूत्रम्-१७) नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं वृत्ति: मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ] ['चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्रस्य मलयगिरि रचित वृत्ते: हस्तप्रतस्य आधारेण एवं पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरैः संपादित 'सूर्यप्रज्ञप्ति' सूत्रस्य साहायेन ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह संकलिता) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि' श्रेणि भाग-२२ श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र - मेधावी, समाधिमृत्यु- प्राप्त, बहुमुखी प्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब • जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फिर भी • गुरुभक्ति बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है | * चारित्र ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ़ कर्मों का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज कासा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया। लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण - न्याय - साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए | • एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक • हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्युक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस पत्थर के ऊपर ये सभी आगम साहित्य को कंडारा, सूरतमें ताम्रपत्र पर भी अंकित करवाए और "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए । वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | * सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, निर्युक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत प्राकृत नए ग्रंथों की रचना भी की । कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक् श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की | * ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य संरक्षण, तिथि प्रश्न इत्यादि विषयोमे T सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईंओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | * सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | .. मुनि दीपरत्नसागर... ...... . ....ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी "..... —. ~6~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक । | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर.... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ । पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | : के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। *मुनि दीपरत्नसागर... . . -. - .. - .. - .. - .. -.. - .. - .. -.. - .. - .. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ उद्धार कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादा पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व, गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी जिन की प्रेरणा से ये “सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते हैं, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है । समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर • का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यो के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्य श्री हर्षसागर सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है | मुनि दीपरत्नसागर *** [कात्रज]पूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय -रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर - सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ ~8~ .. मुनि दीपरत्नसागर —— Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [ - ], ----- प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Eration Intima RAAAAAARA ॥ अर्हम् ॥ श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितविवरणयुतं श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति-उपाङ्गम् 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' सूत्रस्य हस्तप्रत- आधारेण एवं पू० आगमोद्धारक आचार्यदेवश्री आनंदसागरसूरीश्वरै: संपादित 'सूर्यप्रज्ञप्ति' सूत्रस्य साहान (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह संकलिता - 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' मूलं एवं वृत्ति:) संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागर [M.Com.,M.Ed.,Ph,D.,श्रुतमहर्षिं] ‘सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-२२ SUUUUUUUUUvovyUUUUU चन्द्रप्रज्ञप्ति ( उपांग) सूत्रस्य “टाइटल पेज" ~9~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाइका: १०८+१०३ चन्द्रप्रज्ञप्ति (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: २१४ | पृष्ठांक | | मूलांक: | विषय: पृष्ठांक: | पृष्ठां १४८ १८० ०१२ ०१२ ०१५ ०१७ ०२१ ३१४ ३१६ १९७ २११ ०४२ ३१८ १२ ३१९ | ०४५ ।। ३५९ ३६२ ०५४ ०६० २१३ २२० २२२ २३४ २४५ ४० | मूलांक विषय: ००१ | प्राभृतं- ०१ | वृत्तिकारकता प्रतिज्ञा-गाथा: ००२ | प्राभूतानां संख्यादि निर्देश: ००३ | प्राभृतप्राभृत विषय-अधिकार: ०१८ | प्राभूतप्राभूत-१ ૦૨૨ | प्राभृतप्राभृत- २ ०२४ | प्राभूतप्राभूत- ३ ०२५ | प्राभूतप्राभृत-४ ०२६ | प्राभूतप्राभूत-५ ०२८ | प्राभृतप्राभृत-६ ०२९ | प्राभूतप्राभूत-७ ०३० | प्राभृतप्राभृत-८ ०३१ | | प्राभूतं- ०२ ०३१ | प्राभृतप्राभृत- १ ०३२ | प्राभूतप्राभूत-२ ०३३ | प्राभूतप्राभूत-३ ०३४ | प्राभूतं- ०३ ०३५ | प्राभूतं- ०४ ०३६ | प्राभूतं- ०५ ०३७ प्राभूतं- ०६ ०७० १०७ मूलाक: | विषय: प्राभूतं- ...१० वर्तते ०७० | प्राभूतप्राभूत- १७ ०७१ प्राभूतप्राभूत- १८ प्राभूतप्राभूत- १९ ०७५ प्राभूतप्राभूत- २० ०८६ प्राभृतप्राभृत- २१ ०८७ प्राभूतप्राभूत- २२ ०९८ | प्राभृतं- ११ ०९९ | प्राभृतं- १२ प्राभूतं- १३ प्राभूतं- १४ | प्राभृतं- १५ | प्राभूतं- १६ प्राभृतं- १७ ११७ | प्राभूतं- १८ । १२९ । | प्राभूतं- १९ | प्राभृतं- २० २०८ उपसंहार-गाथा २१२ सूत्रदाने पात्रता २१३ अंतिम मंगल गाथा: ४१६ ४८० ०३८ । प्राभतं-०७ ०३९ । प्राभूतं- ०८ ०४० | प्राभूतं- ०९ ०४२ | प्राभूतं- १०.... ०४२ | प्राभूतप्राभूत- १ ०४३ | प्राभूतप्राभूत-२ ०४५ प्राभूतप्राभृत- ३ ०४६ | प्राभूतप्राभूत-४ ०४७ प्राभूतप्राभूत-५ ०४८ | प्राभूतप्राभूत-६ ०५० प्राभूतप्राभूत-७ ०५१ | प्राभृतप्राभृत-८ ૦ર | प्राभूतप्राभूत-९ प्राभूतप्राभृत- १० ०५४ प्राभूतप्राभूत- ११ ०५६ प्राभूतप्राभूत- १२ ०५७ | प्राभूतप्राभूत-१३ ०६१ | प्राभूतप्राभूत- १४ ०६८ | प्राभूतप्राभूत- १५ ०६९ | प्राभूतप्राभूत- १६ ०७५ ।। ०८४ ०८६ १०२ २६९ ५०२ ५०२ २७१ ५२४ २७५ २८६ ५३२ ५४८ १९४ ५८३ / ३०५ ३०७ १४६ । । ६०४ / ६०४ / ३०८ ३१२ १७० ६०७ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७]उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['चन्द्रप्रज्ञप्ति' - मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा प्रवर्तमान काळमें सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति आगम बहुलतया एक सामान ही प्राप्त होते है. नंदीसूत्र एवं पक्खिसूत्रमें ये दोनों आगम अलगअलग ही गिनवाए है, ये दोनों आगमो को उत्तराध्ययन सूत्र की वृत्तिमे अलग-अलग अंगसूत्रो के उपांग बताये है, फिरभी कौनसे काल में ये दोनों आगम एक सामान जैसे हो गए, इसका मुझे पता नही है। मैंने तो L. D. Institute of indology में से 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' की मलयगिरीजी रचिता वृत्ति की हस्तप्रतमें से इस आगम का संकलन किया है, फिर इसकी तुलना 'सूर्यप्रज्ञप्ति' से की, तब मुझे पता चला की 'चन्पप्रज्ञप्ति' में मलयगिरिजीने आरम्भमें चार गाथा लिखी है जो 'सूर्यप्रज्ञप्ति' की वृत्तिमें नहीं देखी, जबकी सूर्यप्रज्ञप्ति में प्रशस्तिमें एक ऐसी गाथा है, जो चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्रमे नहीं है । इसके अलावा प्रत्येक प्राभृत, प्रतिपत्ति आदि विषयवस्तु दोनों आगमो मे सामान ही है, हा, दोनों में किंचित पाठांतर मिले थे, हमने इसको इस संकलनमें स्थान दे दिया है । [१] “सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रम्” के नामसे सन १९ १९ (विक्रम संवत १९ ७५) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी ) महाराज साहेब | [२] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" सूत्र की हस्तप्रत २२ x ९ से.मि. थी, जो 'मुनि माणेक की प्रेरणा से संवत १८५६ में कार्तिक वद-७ को 'बोरसद' में पटेल नाथाभाई सनाभाई नामक लहिया ने पूर्ण की थी. * हमारा ये प्रयास क्यों? +आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो का प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे परिवर्तित गाथा एवं पातः के अलावा पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर प्राभृत, प्राभृतप्राभृत और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा प्राभृत, प्राभृतप्राभृत एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक प्राभृत, प्राभृतप्राभृत और मूल लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है । शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म०सा० की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये ‘सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-२२ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है | ...मुनि दीपरत्नसागर. ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [१] + गाथा ||१|| __पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: [प्राभृत-१] अर्हम् | श्री वर्षमानाय नमः ||मुक्ताफ़लमिव करत कलितं, विश्वे समस्तमपि सततं योवेति, विगतकर्मसंग, यति नाथो जिनो वीर ||१|| सर्वश्रुत-पारगता: प्रतिहत नि:शेष कुपथ संताना:, जगदेवतिलकभूता:, जयंति गणधारिणः ||२|| विलसउ मनसिस दामे जिनवाणि परम कल्पलतिकेव, कल्पित सकल नरामर, शिवसुखफ़लदानतर्ललिता ||३|| चन्द्रप्रज्ञप्तिमहं गुरूपदेशानुसारत: किञ्चित् विवृणोमि यथाशक्ति स्पष्टं स्वपरोपकाराय ||४|| [तत्राविघ्नेनेष्ठप्रसिद्ध्यर्थमादाविष्ट देवता स्तवमाह) [प्राभृत-१- प्राभृतप्राभृतं-१] नमो अरिहंताणं] जयति नवनलिन कुवलय वियसियसयवत्तपत्तलदलच्छो, वीरो गयंदमयगलसलिलयगयविक्कमो मयवं ||१|| इतस्तवो द्विधा | गुणोत्किर्तनरूप: प्रणामरूपश्च, तत्र जयति रागादि शत्रूनभिभवति तेषामग्रे एव निर्मूलकार्षकषितच्चात् तथापि तत्फलसिद्ध्द्धच्च लक्षणामध्याप्यविच्युतमवतिष्ठति इति फ़ले हेतूपचारा जयति इति तं यदि वा संप्रत्यपि "भगवनुभक्त्यानुध्यायमानोध्यात्राणमभिभवति रागादि क्लेशान् भत्तइ जिनवराणं खिध्येति पुव्वसंचिया कम्मा इति | वचनात् ततो क्षयति इति फ़लम् अथवा क्षयति सर्वानपि सुरासुरप्रभृतीन् प्राणिन: स्वगुणैरतिशायी सप्रेथावतामवश्यं प्रणामा) गुणैरधिकत्वात् ततो जयति किमुक्तं भवति तं प्रतिप्रणतोस्मि इति यतेन प्रणामरूपस्तव: सामर्थ्यगम्यो भावित: कोसावित्याह"| वीर:शूरवीर विक्रान्तो वीरयतिस्म कषायादि शत्रून प्रति विक्रामति स्मेति वीरः । इयं च वीर इति नाम न यादृच्छिकं किन्तु यथावस्थितम् अनन्य साधारणं परिषहोपसर्गादि विषयं दीप अनुक्रम ~12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [१] + गाथा ||२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: तिर्यञ्चमपि च सुरासुरकृतं, अतो वीर इति नाम्नाश्चपायापगम अतिशयोध्वन्यते अथवा "ईर गतिप्रेरणयोः" विशेषेण अपुनर्भाव स्वरूपेण ईरयति-प्रेरयति आत्मन: सकाशाच्चावयति याति शिवमिति वीरः | अत्राप्यपायागमातिशय प्रतिपत्ति किं विशिष्टं इति आहनवनलिन इत्यादि | प्राकृते पूर्वनिपातो विशेषणनाम तत्र इति | पत्तल वियसिय शब्दश्च नलिनादि शब्दानां पूर्वं द्रष्टव्य:, पत्तलमिति पत्र समृद्धं, पत्ततमिश्चं तिरकं पत्तलं इति वचनात् कत्वं प्रत्यग्रं | विकसितं व्याकोशीभूतम् तं च ईशच्चेतंविदु, पद्ममिषभीलमथो उत्पलं ईषद् क्तं तु नलिनं इत्यादि पद्मं, कुवलयं नीलोत्पलं शतपत्रं पत्र शतं संख्योपेतं पद्ममेव, तेषां दलं पत्रं तद्वत् दीर्घ मनोहारिणी वाऽक्षिणी यस्य स तथा पुन: कथंभूत इत्याह- गजेन्द्र मदकलसलिनगतविक्रमः - अत्रापि मदकल शब्द स्पष्ट विशेषणभूतस्य विषेष्यात्पर: निपात: प्राकृतत्वात् मदकलो मदमभिगृहणानस्तरुणो गजो, गजानामिन्द्र गजेन्द्रः शेष गजेभ्यो गुणैरधिकतरत्वात् मदकलश्चासौ गजेन्द्रश्च मदकलगजेन्द्रस्तस्येव ललितो मनोज्ञ लीलया सहितो गतरूपो विक्रमो यस्य स तथा कथंभूत इत्याह- भगवान् भग: समग्रैश्वर्यादिरूप: उक्तं च ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्यरास: श्रिय:, धर्मस्याथ प्रयत्न स्पर्षस्यां भग इतिंगता भगोऽस्यास्तीति भगवान | अनेन ज्ञानातिशयोवागतिशय: पूजातिशयोश्चोक्तस्तत्रैश्वर्यवाचित्व विवक्षायां पूजातिशय: प्रयत्नवाचित्वविवक्षायां वागतिशयश्च प्रवर्तते न च ज्ञानातिशयमन्तरेण तथारूपो वागतिशय: पूजातिशयश्च वर्तते | आभ्यां ज्ञानातिशयोप्याक्षिप्यते एते च ज्ञानातिशयादयश्चत्वारोप्यतिशया देह सौगन्ध्यादिनामतिशयानाम् उपलक्षणंतानंतरेणैतेषाम् संभवात्, तत: चतुस्त्रिंशदतिशयोवेतो भगवान् वीरो | जयतीतीतत्फलम् द्रष्टव्यं, तदेवं वर्तमाने तीर्थाधिपते वर्द्धमानस्वामिनो नमस्काराभिधाय संप्रति सामान्यत: पञ्चानामपि परमेष्ठिनां नमस्कारमाह नमिऊण असुरसुर गरुल भूयगपरिवंदिए गयकिलेशे, अरिहे सिद्धायरिए उवज्झाए सव्वसाय ||२|| दीप अनुक्रम 27 ~13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [२] + गाथा ||२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: असुर-सुर-गरुड-भूयग वन्दितान्-अर्हति त्रिदृशकृतां समवसरणादि रूपां पूजामित्यर्हतस्तिर्थकृतस्तान् तथा सिद्धान् अपगत सकल कर्ममलात, आचार्यान् पञ्चविध ज्ञानादयाचार स्वयम् परिपालयन् परोपदेशदान सतत प्रवृतान् उपाध्याय यथाशक्ति दवादशांग स्वयम् अध्ययनपराध्यापन निजसुमानसान साधून ज्ञानादिक्रियाभि: मुक्तिसाधन प्रवणान् नत्वा नमस्कृत्या किमित्याह फुडवियड पायइत्थं वोच्छं पुव्वसुयसारणी-संद, सुहुमगणि नोवदिहं जोइसगणराय पन्नतिं ||३|| स्फुटयथावस्थितौ निर्मलबोधविषयो, विकटो-विस्तीर्ण:सूक्ष्मतर बुद्धिगम्य इत्यतः, प्रकट साक्षादषरेषूपरिस्फुरन्निवार्थो यस्यां सा तथा तां पूर्वश्रुतसार निस्पंदभूतानामेतेन पूर्वेभ्या इयं चन्द्रप्रज्ञप्तिउद्धृतेत्यावेदितं | इयं च न पूर्वाणि स्वयमधीत्पतत उद्धृता किं गुरूपदेशान्सारतस्तत आह सूक्ष्मगएकपदिष्ठां सूक्ष्म:, सूक्ष्ममिति परिकलितो गणि आचार्यो, गणोऽस्यास्ति इति व्यक्तेस्तेनोपदिष्टां यथा पूर्वाण गुरवेण व्याख्यातानि तथा तेभ्योधुतेति भाव: ज्योतिषि ग्रह नक्षत्र तारकाणि तेषां गण: समुहस्तस्यरांक्षाधिपतिध्योति: गणराजश्चेन्द्रस्तस्य प्रज्ञप्ति | प्रज्ञप्ते-प्ररूप्यते अनयेति प्रज्ञप्तिर्यथावस्थित तत् स्वरूप प्रतिपादिका वचनसंततिस्तां वक्ष्ये प्रतिपाद| यिष्यामि तत्र पूर्वेषु चन्द्रादि वक्तव्यता | । नामेण इन्दभूतीति गोतमो वंदिऊण तिविहेण, पुच्छड़ जिनवरवसहं जोइसगणराय पन्नतिं ||५|| प्रथमतो गौतमप्रश्नोपेक्षेवमावेदयति यो नाम्ना जगति इन्द्रभूतिरिति प्रसिद्धो, गौतमो गौतमगोत्र: स भगवंतं जिनवर वृषभं वर्द्धमान स्वामिनमस्य स्व समीपे तत्प्रश्नसंभवात् त्रिविधेन च मनसा वाचा कायेन च वंदित्वा-नमस्कृत्य, ज्योतिषराजस्य-चन्द्रमस उपलक्षणमेतत् सूर्यादेश्च प्रज्ञप्तेप्ररूप्यते इति प्रज्ञप्तिश्चन्द्रादीनां यथावस्थिता स्वरूपस्थितस्ताम् संपृच्छतीति | दीप अनुक्रम ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत -,-------------------- मूलं [३] + गाथा ||१-५|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति (मल० प्रत ||१|| सूत्रांक [३] शिष्यस्य प्रश्नावकाशम् आशय प्रथमतो प्राभृतेषु यद्वक्तव्यं तदुपक्षिपन् गाथा पञ्चकमाह कह मंडलाइ बच्चइ १ तिरिच्छा किं च गच्छद २। ओभासइ केवइयं ३ सेयाइ किं ते संठिई ४ ॥१॥ कहिं पडिहया लेसा ५, कहिं ते ओयसंठिई ६। के सूरियं वरयते ७, कहं ते उदयसंठिई ८॥२॥ कह कट्ठा पोरिसीच्छाया ९, जोगे किं ते व आहिए १० । किं ते संवच्छरेणादी ११, कह संबच्छराइय १२॥३॥ कहं चंदमसो बुडी १३, कया ते दोसिणा बह १४ । के सिग्घगई बुत्ते १५, कहं दोसिणलक्षणं ॥ ४॥चयणोववाय १७ उच्चत्ते १८, सूरिया कह आहिया १९ । अणुभावे के व संवुत्ते २०, एवमेयाई वीसई॥५॥ (सूत्रं ३) प्रथमे प्राभूते सूर्यो वर्षमध्ये कति मण्डलान्येकवारं कति वा मण्डलानि द्विकृत्वो ब्रजतीत्येतन्निरूपणीयं, किमुक्ता भवति -एवं गौतमेन प्रश्ने कृते तदनन्तरं सर्वं तद्विषयं निर्वचनं प्रथमे प्राभूते वक्तव्यमिति । एवं सर्वत्रापि भावनीयं । द्वितीये प्राभृते 'कि' कर्थ वाशब्दः सर्वप्राभृतवक्तव्यतापेक्षया समुच्चये तिर्यग्नजतीति २, तृतीये चन्द्रः सूर्यो वा किय-1 क्षेत्रमवभासयति-प्रकाशयतीति ३, चतुर्थे श्वेतताया:-प्रकाशस्य 'किं' कथं 'ते' तव मते संस्थितिः-व्यवस्थेति ४, पश्चमे परिवर्तितनिमाविकः कृतप्राञ्जलिभिः । भक्तिबदुमानपूर्वमुपयुका श्रोतम्य ॥१॥ ||१-५|| दीप अनुक्रम [५-९] २०-प्राभूतस्य नामानि एवं तस्य विषय-वर्णनं ~15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [३] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक ||१-५|| कस्मिन् सूर्यस्य प्रतिहता लेश्येति ५, षष्ठे 'क' केन प्रकारेण किं सर्वकालमेकरूपावस्थायितया उत्तान्यधा ओजस:-प्रकाशस्य संस्थिति:-अवस्थानमिति ६, सक्षमे के पुद्गलाः सूर्य वरयन्ति-सूर्यलेश्यासंसृष्टा भवन्तीति ७, अष्टमे 'कथं। केन प्रकारेण भगवन् ! 'ते'. तव मतेन सूर्यस्योदयसंस्थितिः, नवमे कतिकाष्ठा-किंप्रमाणा पौरुषीच्छाया ९, दशमे| योग इति वस्तु किं 'ते' त्वया भगवताऽऽख्यातमिति १०, एकादशे कस्ते-तव मतेन संवत्सराणामादिरिति ११, द्वादशे कति संवत्सरा इति १२, त्रयोदशे 'कथं' केन प्रकारेण चन्द्रमसो वृद्धिः वृद्धिप्रतिभासः, खपलक्षणमेतत्तेन वृद्ध्यवृद्धि-11 प्रतिभास इत्यर्थः १३, चतुर्दशे 'कदा'कस्मिन् काले 'ते' तव मतेन चन्द्रमसो ज्योत्स्ना बहु-प्रभूतेति, १४, पञ्चदशे कश्चन्द्रादीनां मध्ये शीघ्रगतिरुक्त इति १५, षोडशे किं ज्योत्स्नालक्षणमिति वक्तव्यं १६, सप्तदशे चन्द्रादीनां च्यवनमुपपातश्च स्वमतपरमतापेक्षया वकन्यः १७, अष्टादशे चन्द्रादीनां समतलाद्भूभागादूर्ध्वमुच्चत्वं-यावति प्रदेशे व्यवस्थितस्वं तत्स्वमतपरमतापेक्षया प्रतिपाद्यं १८, एकोनविंशतितमे कति सूर्या जम्बूद्वीपादावाख्याता इत्यभिधेयं १९, विंशतितमे कोऽनुभावश्चन्द्रादीनामिति २०॥ एवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण एतानि अनन्तरोदितार्थाधिकारोपेतानि विंशतिः प्राभृतान्यस्यां सूर्यप्रज्ञप्तौ वक्तव्यानि, अथ प्राभृतमिति कः शब्दार्थः, उच्यते, इह प्राभृतं नाम लोकप्रसिद्धं यदभीष्टाय देशकालोचितं दुर्लभ वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते, प्रकर्षणासमन्ताद् भ्रियते-पोष्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुपस्यानेनेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तेः, 'कृहुल'मिति वचनाच करणे कप्रत्ययः, विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभाः परिणामसुन्दराश्चाभीष्टेभ्यो-विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येनोपनीयन्ते, ततः प्राभृतानीव | दीप अनुक्रम [५-९] F OR ~16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं - + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति * प्रत * प्राभूते १माभूतप्राभूत * * * ||१-५|| सूर्यप्रज्ञ- प्राभृतानि, प्राभूतेषु चान्तरगतानि माभृतमाभृतानि, तदेवमुक्ता विंशतेरपि प्राभूतानामर्थाधिकाराः । सम्मति प्रथमें | तिवृत्तिः प्राभृते यान्यपान्तरालवीन्यष्टी प्राभृतप्राभृतानि तेषामर्थाधिकारान् उपदिदिक्षुराह(मल०) बहोवही मुहुत्ताण १ मद्धमंडलसंठिई २। के ते चिन्नं परियरइ ३ अंतरं किं चरंति य ४॥६॥ उग्गाहइ ||२|| केवइयं ५, केवतियं च विकंपइ ६। मंडलाण य संठाणे ७, विक्खंभो ८ अट्ठ पाहुडा ॥७॥ (सूत्रं ४) छप्पंच य सत्तेव य अह तिन्नि य हवंति पडिवत्ती। पढमस्स पाहुडस्स हवंति एयाउ पडिवत्ती॥८॥(सूत्रं ५) पडिवत्तीओ उदए, तह अस्थमणेसु य । भियवाए कण्णकला, मुहताण गतीति य॥९॥ निक्खममाणे सिग्घ-| गई पविसंते मंदगईइ य । चुलसीइसयं पुरिसाणं, तेसिं च पडिवत्तीओ ॥१०॥ उदयम्मि अह भणिया भेदग्याए दुवे य पडिवत्ती । चत्तारि मुहुत्तगईए हुंति तइयंमि पडिवत्ती॥११॥ (सूत्रं ६) आवलिय | मुहत्तम्गे २, एवंभागा य ३ जोगस्सा ४। कुलाई५ पुन्नमासी ६य, सन्निवाए७य संठिई ८॥१२॥ तार(य)ग्गं| च ९नेता य १०, चंदमग्गत्ति ११ यावरे। देवताण य अज्झयणे १२, मुहुत्ताणं नामया इय १३ ॥१३॥ +दिवसा राइ चुत्ता य १४, तिहि १५ गोत्ता १६ भोयणाणि १७ य । आइचवार १८ मासा १९ य, पंच संव-| फछराइय २०॥ १४ ॥ ओइसस्स य दाराई २१, नक्वत्तविजए विय २२ । दसमे पाहुडे एए, बावीसं पाहुहडपाहुडा ॥ १५॥ (सूत्रं ७) प्रथमस्य प्राभृतस्य सरके प्रथमे प्राभृतप्राभूते मुहूर्तानां दिवसरात्रिगतानां वृक्ष्यपवृद्धी वक्तव्ये १, द्वितीयेऽर्द्धमण्ड * दीप अनुक्रम [५-९] ||शा * * प्राभृतप्राभृतस्य विषयाधिकार: वर्ण्यते ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-1, ------------------ मूलं [४-७] + गाथा:(६-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१०],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४-७]] ||६-१५|| लालस्य द्वयोरपि सूर्ययोः प्रत्यहोरात्रमर्धमण्डलविषया संस्थिति:-व्यवस्था वक्तच्या २, तृतीये तव मतेन का सूर्यः किय दपरेण सूर्येण चीर्ण क्षेत्र प्रतिचरतीति निरूप्यं ३, चतुर्थं द्वावपि सूर्यों परस्परं कियत्परिमाणमन्तरं कृत्वा चारं चरत | इति प्रतिपाद्यं ४, पञ्चमे कियत्प्रमाणं द्वीपं समुद्रं वाऽवगाह्य सूर्यश्चारं चरतीति ५, षष्ठे एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकैकः सूर्यः कियत्प्रमाण क्षेत्रं विकम्प्य-विमुच्य चारं चरतीति ६, सप्तमे मण्डलानां संस्थानमभिधानीयं ७, अष्टमे मण्डलानामेव विष्कम्भो-बाहल्यमिति ८, एवमर्थाधिकारसमन्वितानि प्रथम प्राभृते अष्टी प्राभृतप्राभूतानि । सम्पति प्रथम एव प्राभृते चतुरादिषु प्राभृतप्राभूतेषु यत्र यावत्यः प्रतिपत्तयः परमतरूपास्तत्र तावतीरभिधित्सुराह-'छप्पंचे'त्यादि, प्रथमस्य प्राभृतस्य चतुरादिषु प्राभृतप्राभृतेषु यथाक्रममेताः प्रतिपत्तया-परमतरूपा भवन्ति, तद्यथा-चतुर्थे प्राभृतप्राभृते षट् प्रतिपत्तयः ४, पश्चमे पश्च ५, पछे सप्त ७, सप्तमे अष्टौ ८, अष्टमे तिन ३ इति ॥ सम्प्रति द्वितीये प्राभूते यदाधिकारोपेतानि त्रीणि प्राभूतप्राभृतानि सान् प्रतिपादयति-पडिवत्ती'त्यादि, द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथमे प्राभूतप्राभृते सूर्यस्योदये अस्तमयनेषु च प्रतिपत्तयः-परमतरूपाः प्रतिपाद्याः स्वमतप्रतिपत्तिश्च, द्वितीये भेदधातः कर्णकला च वक्तव्या, किमुक्तं भवति ?-भेदो मण्डलस्थापान्तरालं तत्र घातो-गमनं, 'हन हिंसागत्यो रिति वचनात् , स एकेषां मतेन प्रतिपाद्यः, यथा विवक्षिते मण्डले सूर्येणापूरिते सति तदनन्तरं सूर्योऽपरमनन्तरं मण्डलं सङ्कामतीति, तथा कर्णः-कोटिभागः तमधिकृत्यापरेषां मतेन कला वक्तव्या, यथा विवक्षिते मण्डले द्वावपि सूर्यो प्रथमक्षणे प्रविष्टौ सन्तौ पूर्वापरकोटिद्वयं लक्षीकृत्य बुद्ध्या परिपूर्ण यथावस्थितं मण्डलं विवक्षित्वा ततः परमण्डलस्य कर्ण-कोटिभागरूपमभिसमीक्ष्य ततः KAB%E35 % दीप अनुक्रम [१०-१९] JainEautatinintamatunt Far FaranaLPHABDKOne ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-1, ------------------ मूलं [४-७] + गाथा:(६-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१०],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत १ प्राभृते प्राभृतप्राभृतं सूत्रांक [४-७]] सूर्यप्रज्ञ- कलया २-मात्रया २ इत्यर्थः अपरमण्डलाभिमुखमभिसर्पन्तों चार चरत इति । तृतीये प्राभृतमाभृते प्रतिमण्डलं मुहूर्तेषु तिवृत्तिःगतिः-गतिपरिमाणमभिधातव्यं, तत्र निष्कामति प्रविशति वा सूर्ये यादृशी गतिर्भवति तादृशीमभिधित्सुराह- (मल.) निक्खमें त्यादि निष्क्रामन्-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादहिनिर्गच्छन् सूर्यो यथोत्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् शीघ्रगतिः शीघ्रतरग-* तिर्भवति, प्रविशन्-सर्ववाद्यान्मण्डलादभ्यन्तरमागच्छन् प्रतिमण्डलं मन्दगतिः मन्दमन्दगतिः, तेषां च मण्डलाना ||३|| चतुरशीत-चतुरशीत्यधिक शतं सूर्यस्य भवति, तेषां मण्डलानां च विषये प्रतिमुहर्त सूर्यस्य गतिपरिमाणचिन्तया पुरुषाणां प्रतिपत्तयो नाम-मतान्तररूपा भवन्ति । सम्प्रति कस्मिन् प्राभूतप्राभृते कति प्रतिपत्तय इत्येतत्मरूप-14 यति-द्वितीये प्राभृते त्रिवपि प्राभृतमाभूतेषु यथाक्रममेवंसयाः प्रतिपत्तयो भवन्ति, तद्यथा-प्रथमे प्राभृतमाभृते उदये-सूर्योदयवकन्यतोपलक्षिते अष्टौ भणितास्तीर्थकरगणधरैः प्रतिपत्तयो, द्वितीये प्राभृतप्राभृते भेदपाते-भेदघातरूपे परमतवक्तव्यतोपलक्षिते द्वे एवं प्रतिपत्ती भवतः, तृतीये प्राभृतप्राभृते मुहर्सगती-मुहूर्तगतिवक्तव्यतोपलक्षिते चतम्रः प्रतिपत्तयो भवन्ति, 'चत्तारी'ति च सूत्रे नपुंसकत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि लि व्यभिचारि, यवाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-लिङ्गंव्यभिचार्यपीति । सम्प्रति दशमप्राभृते यान्यपान्तरालवत्तीनि द्वाविंशतिसयानि प्राभृतप्राभृतानि तेषामाधिकारमाह-दशमे प्राभूते एतानि-सूत्रे पंस्वनिशा प्राक्तत्वात एतदर्थाधिकारोपेतानि द्वार्विचातिः प्राभृतप्राभूतानि भवन्ति, तद्यथा-प्रथमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्राणामावलिकाक्रमो वक्तव्यो, यथा अभिजिदादीनि नक्षत्राणि भवन्तीति १, द्वितीये नक्षत्रविषयं मुहूर्त्तानं-मुहर्त्तपरिमाणं वक्तव्यं २, तृतीये 'एवं भागा'इति 'पूर्वभागा'इति पूर्वपश्चि HASKA5 ||६-१५|| KORBA दीप अनुक्रम [१०-१९] ||३|| ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-1, ------------------ मूलं [४-७] + गाथा:(६-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक H ||६-१५|| मादिप्रकारेण भागा वक्तव्याः ३, चतुर्थे 'योगस्सति योगस्यादिर्वक्तव्यः, तथा च वक्ष्यति-ता कहं ते जोगस्स४ आई आहियत्ति वइज्जा इति ४, पश्चमे कुलानि चशब्दादुपकुलानि कुलोपकुलानि च वक्तव्यानि ५, पष्ठे पौर्णमासीति पौर्णमासीवक्तव्यता अभिधेया ६, सप्तमे 'सन्निपात इति अमावास्यापौर्णमासीसन्निपातो वक्तव्यः ७, अष्टमे नक्षत्राणां संस्थितिः-संस्थानं वक्तव्यं ८, नवमे नक्षत्राणां तारायं-तारापरिमाणमभिधेयं, दशमे नेता वक्तव्यो, यथा कत्ति नक्षअत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमाप्त्या के मासं नयन्तीति १०, अपरस्मिन्नेकादशे प्राभृतप्राभृते चन्द्रमार्गाः-चन्द्र मण्डलानि नक्षत्रावधिकृत्य वक्तव्यानि ११, द्वादशे नक्षत्राधिपतीनां देवतानामध्ययनानि-अधीयते-ज्ञायते एभिरित्यध्ययनानि-नामानि वक्तव्यानि १२, त्रयोदशे मुहूर्तानां नामकानि वक्तव्यानि १३, चतुर्दशे दिवसा रात्रयश्चोक्काः १४, पञ्चदशे तिथयः १५, षोडशे गोत्राणि नक्षत्राणां १६ सप्तदशे नक्षत्राणां भोजनानि बाच्यानि, यथेदं नक्षत्रमेवंरूपे भोजने कृते शुभाय भवतीति १७, अष्टादशे आदित्यानामुपलक्षणमेतचन्द्रमसां च चारा वक्तव्याः १८, एकोनविंशति| तमे मासाः १९, विंशतितमे संवत्सराः २०, एकविंशतितमे ज्योतिषां-नक्षत्र चक्रस्य द्वाराणि वक्तव्यानि, यथाऽमूनि ॥ नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि अमूनि च पश्चिमद्वाराणीत्यादि २१, द्वाविंशतितमे नक्षत्राणां विषय:-चन्द्रसूर्ययोगादिविषयो | निर्णयो वक्तव्य इति ॥ तदेवमुक्का प्राभृतप्राभृतसक्या तेषामर्थाधिकाराच, सम्प्रति यदुक्तं 'प्रथमस्थ प्राभृतस्य प्रथमे । प्राभृतमाभृते मुहूर्तानां वृद्व्यपवृद्धी वक्तव्ये' इति तद्विवक्षुर्यथा तद्विषये गौतमनामा प्रथमगणधरो भगवन्तं पृच्छति स्म यथा च भगवान् तत्त्वमचकथत् तथोपदर्शयन्नाह दीप ॐॐॐ अनुक्रम [१०-१९] EREKAS Jaintuicshun intimataima ~20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२०] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [१] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्ति णं काले ते समए णं मिथिला नाम नयरी होत्था रिद्धत्थि | मियसमिद्धा पमुहतजण जाणवया जाव पासादीया एक (४), (तीसे णं मिहिलाएं नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे तिवृत्तिः * (वण्णओ, तेणं काले णं ते णं समए णं तंमि माणिभद्दे चेइए) सामी समोसढे, परिसा निग्गता, धम्मो कहितो, ( मल० ) ( पडिगया परिसा) जाच राजा जामेव दिसिं पादुम्भूए तामेव दिसिं पडिगते (सूत्रं १ ) ||४|| "काले 'मित्यादि त इति प्राकृत शैलीवशात् तस्मिन्निति द्रष्टव्यं, अस्यायमर्थौ-यदा भगवान् विहरति स्म तस्मिन् |णमिति वाक्यालङ्कारे दृष्टवान्यत्रापि शब्दो वाक्यालङ्कारार्थे यथा 'इमा णं पुढवी' इत्यादाविति, काले अधिकृतावसर्पिणीचतुर्थभागरूपे, अत्रापि शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, 'ते णं समए पंति समयोऽवसरवाची, लोके वक्तारो - नाद्याप्येतस्य वक्तव्यस्य समयो वर्त्तते, किमुक्तं भवति ? - नाद्याध्येतस्य वक्तव्यस्यावसरो वर्त्तत इति, तस्मिन् समये भगवान् प्रस्तुतां सूर्यवक्तव्यतामच कथत्, तस्मिन् समये मिथिला नाम नगरी अभवत्, नन्विदानीमपि सा नगरी वर्त्तते ततः कथमुक्तमभवदिति १, उच्यते, वक्ष्यमाणवर्णक ग्रन्थोक्तविभूतिसमन्विता तदैवाभवत् न तु ग्रन्थविधानकाले, एतदपि कथमवसेयमिति चेत् १, उच्यते, अयं कालोऽवसर्पिणी, अवसर्पिण्यां च प्रतिक्षणं शुभा भावा हानिमुपगच्छन्ति, एतच सुप्रतीतं जिनप्रवचनवेदिनां, अतोऽभवदित्युच्यमानं न विरोधभाक् सम्प्रति अस्या नगर्या वर्णकमाह'रिद्धत्थिमियसमिद्धा पमुइयजणजाणवया पासाईया एक इति ऋद्धाः - भवनैः पौरजनैश्वातीव वृद्धिमुपगता 'ऋधू वृद्धाविति वचनात् स्तिमिता - स्वचक्रपरचक्रतस्करडमरादिसमुत्थभयकलोलमालाविवर्जिता समृद्धा- धनधान्यादिविभूतियुक्ता, ततः पदत्रयस्यापि कर्मधारयः, तथा 'पमुहयजणजाणवय'ति प्रमुदिता:- प्रमोदवन्तः प्रमोदहेतुवस्तूनां तत्र | Education intematon सूत्रस्य प्रस्तावना, नगरी वर्णनं For Perine Priit the Only ~21~ 1|8|| Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति -% प्रत 95 सूत्रांक SC सद्भावाजना-नगरीवास्तव्या लोका जानपदा-जनपदभवास्तत्र प्रयोजनवशादायाताः सन्तो यत्र सा प्रमुदितजनजान-1 पदा, यावच्छब्देनौपपातिकग्रन्थप्रतिपादितः समस्तोऽपि वर्णकः 'आइन्नजणसमूहा(मणुस्सा) इत्यादिको द्रष्टव्यः, (सू.१)स च ग्रन्थगौरवभयान लिख्यते, केवलं तत एवौपपातिकादवसेयः, कियान् द्रष्टव्य इत्याह-पासाईया एक' इति अत्र कशब्दोपादानात् प्रासादीया इत्यनेन पदेन सह पदचतुष्टयस्य सूचा कृता, तानि च पदान्यमूनि-प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा, तत्र प्रासादेषु भवा प्रासादीया प्रासादबहुला इत्यर्थः, अत एव दर्शनीया-द्रष्टुं योग्या, प्रासादानामतिरमणीयत्वात् , तथा अभिमुखमतीवोक्तरूपं रूपं-आकारो यस्याः सा अभिरूपा प्रतिविशिष्ट-असाधारणं रूपं-आकारो यस्याः सा प्रतिरूपा, 'तीसे णं मिहिलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए एत्थ णं माणिभद्दे नाम चेइए। होत्था वण्णओं' इति तस्या मिथिलानगर्या बहिर्य औत्तरपौरस्त्यः-उत्तरपूर्वारूपो दिग्विभाग ईशानकोण इत्यर्थः, एकारो मागधभाषानुरोधतः प्रथमैकवचनप्रभवः,यथा कयरे आगच्छह दित्तरुवे (उत्त०१२-६)इत्यादौ, अत्र' अस्मिन् औत्तरपौरस्त्ये दिग्विभागे माणिभद्रमिति नाम चैत्यमभवत्, चितेलेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्य, तञ्चसंज्ञाशब्दत्वाद्देवताप्रतिविम्बे प्रसिद्धं, ततस्तदाश्रयभूतं यद्देवताया गृहं तदप्युपचाराचैत्य, तच्चेह व्यन्तरायतनं द्रष्टव्यं, नतु भगवतामहतामायतनमितिः 'वण्णओ'त्ति तस्यापि चैत्यस्य वर्णको वक्तव्यः, स चौपपातिकग्रन्थादवसेयः (सू.२)। 'तीसेणं मिहिलाए' इत्यादि, तस्यां । ४च मिथिलायां नगर्यो जितशत्रुर्नाम राजा, तस्य देवी-समस्तान्तःपुरप्रधाना भार्या सकलगुणधारणाद् धारिणीनाम्नी ला देवी, 'वण्णओ'त्ति तस्य राज्ञः तस्याश्च देव्या औपपातिकग्रन्थोक्को वर्णकोऽभिधातव्यः, (सू.७) तेण काले णं तेणं समए 151525 अनुक्रम [२०] ANIMEducatan imaniational For PAHATEERVIEntumony Hriciancibraram सूत्रस्य प्रस्तावना, माणिभद्रचैत्यस्य वर्णनं ~22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२०] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [१] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्ति सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ||५|| णं तंमि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, पडिगया परिसा' तस्मिन् काले तस्मिन् समये तस्मिन् | माणिभद्रे चैत्ये 'सामी समोसढे 'त्ति स्वामी जगद्गुरुर्भगवान् श्रीमहावीरो अर्हन् सर्वज्ञः सर्वदर्शी सप्तहस्तप्रमाणशरीरोच्छ्रयः समचतुरस्त्रसंस्थानो वज्रर्षभनाराचसंहननः कज्जलप्रतिमकालिमोपेतस्निग्धकुचितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्धजः उत्तप्त* तपनीयाभिरामकेशान्तकेश भूमि रातपत्राकारोत्तमाङ्गसन्निवेशः परिपूर्णशशाङ्कमण्डलादप्यधिकतरवदनशोभः पद्मोत्पलसुरभिगन्धनिःश्वासो वदनविभागप्रमाणकम्बूपमचारुकन्धरः सिंहशार्दूलवत्परिपूर्णविपुलस्कन्धप्रदेशो महापुरकपाटपृथुलवक्षःस्थलाभोगो यथास्थितलक्षणोपेतः श्रीवृक्षपरिघोपमप्रलम्बबाहुयुगलो रविशशिचक्र सौवस्तिकादि प्रशस्त लक्षणो| पेतपाणितलः सुजातपार्श्वे झषोदरः सूर्यकरस्पर्शसञ्जातविकोशपद्मोपमनाभिमण्डलः सिंहवत्संवर्त्तितकटीप्रदेशो निगूढजानुः कुरुविन्दवृत्तजङ्घायुगलः सुप्रतिष्ठितकूर्म्मचारुचरणतलप्रदेशः अनाश्रवो निर्ममः छिन्नश्रोता निरुपलेपोऽपगत| प्रेमरागद्वेषश्चतुस्त्रिंशदतिशयोपेतो देवोपनीतेषु नवसु कनककमलेषु पादन्यासं कुर्वनाकाशगतेन धर्म्मचक्रेण आकाशगतेन छत्रेण आकाशगताभ्यां चामराभ्यामाकाशगतेनातिस्वच्छस्फटिक विशेषमयेन सपादपीठेन सिंहासनेन पुरतो देवैः प्रकृध्यमाणेन २ धर्म्मध्वजेन चतुर्दशभिः श्रमणसहस्रैः पटूत्रिंशत्सरायिकासहस्रैः परिवृतो यथास्वकल्पं सुखेन विहरन् यथारूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसा चाऽऽत्मानं भावयन् समवसृतः, समवसरणवर्णनं च भगवत औपपातिकग्रन्थादवसेयं (सू.१० यावत् ३३) 'परिसा निग्गय'त्ति मिथिलाया नगर्या वास्तव्यो लोकः समस्तोऽपि भगवन्तमागतं श्रुत्वा भगवद्वन्दनार्थं स्वस्मादाश्रयाद्विनिर्गत इत्यर्थः, तन्निर्गमश्चैवम्- 'तए णं मिहिलाए नयरीए सिंघाडगतियच उच्च चरचर म्मुहमहापहेसु Jan Education intimal सूत्रस्य प्रस्तावना, भगवत् महावीरस्य वर्णनं For Para Prata Use Only ~ 23~ प्रस्तावना. ||५|| Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२०] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ ( मूलं + वृत्तिः) – - प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [१] प्राभूत [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्ति ------ बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासेइ एवं पनवेइ एवं परुवेइ एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव सवनू सबदरिसी आगासगएणं उत्तेणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे इह आगए इह समागए इह समोसढे इहेव मिहिलाए नयरीए बहिआ माणिभद्दे वेइए अहापडिरूवं उग्गहं ओगिव्हित्ता अरिहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहाख्वाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ?, तं सेयं खलु एगस्सवि आरियरस धम्मि यस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अहस्स गहणयाए ?, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सकारेमो सम्माणेमो कलाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेमो, एयं णो इहभवे परभवे य हियाए सुहाए | खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तए णं मिहिलाए नयरीए बहवे उग्गा भोगा इत्याद्योपपातिकग्रन्थोक्तं (सू.२७) सर्वमवसेयं यावत्समस्ताऽपि राजप्रभृतिका पर्षत् पर्युपासीना तिष्ठति । 'धम्मो कहिओ'ति तस्याः पर्षदः पुरतो निःशेपजनभाषानुयायिन्या अर्द्धमागधभाषया धर्म्म उपदिष्टः, स चैवम्-'अस्थि लोए अस्थि जीवा अस्थि अजीवा' इत्यादि, तथा - "जहे जीवा बज्नंति मुच्चंती जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करिंति केई अपडिबद्धा ॥ १ ॥ अट्टनियहियअचित्ता जह जीवा सागरं भवमुविंति । जह व परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुविंति ॥ २ ॥ 'तहा आइक्खइत्ति आर्चनियत्रितचिता यथा जीवाः सागरं Jain Education intimation १ यथा जीवा बध्यन्ते मुच्यन्ते यथा च संक्लिश्यन्ते । यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति केचिदप्रतिबद्धा: भयं (दुःखसागर) उपयान्ति यथा च परिहीमकर्माणः सिद्धाः सिद्धामुपयान्ति ॥ २ ॥ For Pro Prata Used ~ 24~ www.tanera Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [?] दीप अनुक्रम [२०] “चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ ( मूलं + वृत्तिः) - प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [१] प्राभूत [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्ति सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) |||| ------ 'जाव राजा जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए' इति, अत्र यावच्छन्दादिदमोपपातिकप्रन्थोक्तं द्रष्टव्यं 'तए णं सा महइमहालिया परिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हडतुडा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आग्राहिणपयाहिणं करेइ करिता बंदर नमसइ वंदित्ता नर्मसित्ता एवं व्यासी- सुयक्खाए णं भंते ! निम्गंथे पावयणे, नत्थि य केइ अने समणे वा माहणे वा एरिसं धम्ममा इक्खिसए, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिसं पडिगया, तए णं से जियसनू राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धमं सुच्चा निसम्म हडतुडे जाव हयहियए समणं भगवं महावीरं वंदइ नर्मसइ वंदित्ता नर्मसित्ता पसिणाई पुच्छर पुच्छित्ता अट्ठाई परियाएर परिवाइता उडाए उडाइ, उडाए उट्ठित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी-सुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव एरिसं धम्ममा इक्खित्तए, एवं वइत्ता हत्थि दुरूहइ दुरूहित्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियाओ माणिभद्दाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जामेव दिसं पाउडभूए तामेव दिसं पडिगए' (सु. ३५ ३६-३७) इति इदं च सकलमपि सुगमं, नवरं यामेव दिशमवलम्ब्य, किमुक्तं भवति ? - यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतःसमवसरणे समागतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । समए णं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेडे अंतेवासी इंदभूती णामे (मं) अणगारे गोतमे गोतेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बजरिसहनारायसंघयणे जाव एवं बयासी ( सू २ ) "ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेहे अंतेवासी इंदभूई नामे अणगारे गोयमे Education intentional For Pata Und ~ 25~ प्रस्तावना. ॥६॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गम (१७) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [२१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [१] मूलं [२] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः गोसेणं सन्तुस्सेहे समवउरंससंठा णसंठिए वारिसह मारायसंघयणे जाव एवं वयासी' इति, तस्मिन् काले तस्मिन् समये, शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठ इति प्रथमः, अन्तेवासी शिष्यः, अनेन | पदद्वयेन तस्य सकलसङ्गाधिपतित्वमावेदयति, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतनामधेयः, नामेति प्राकृतत्वात् विभक्तिप रिणामेन नाम्नेति द्रष्टव्यं, अन्तेवासी च किल विवक्षया श्रावकोऽपि स्यात् अतस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थमाह-'अनगारः' न विद्यते अगारं - गृहमस्येत्यनगारः, अयं च विगीतगोत्रोऽपि स्यादत आह-गौतमो गोत्रेण गौतमाहयगोत्रसमन्वित इत्यर्थः, अयं च तत्कालोचितदेहपरिमाणापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादत आह- 'सप्तोत्सेधः' सप्तहस्त प्रमाणशरीरोच्ह्रायः अयं चेत्थंभूतो लक्षणहीनोऽपि सम्भाव्येत अतस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह-'समचतुरस्त्र संस्थानसंस्थितः समाः-शरीरलक्षणशास्त्रोक्त प्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयो यस्य तत्समचतुरस्रं, अस्त्रयस्त्विह चतुर्दिग्रविभागोपलक्षिताः शरीरावयवा द्रष्टव्याः, अन्ये त्वाहुः-समा-अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत्समचतुरस्रं, अश्रयश्च पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरं १ आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं २ दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरं ३ वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तर ४ मिति, अपरे त्वाहुः- विस्तारोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरस्रं तच्च तत्संस्थानं च २ संस्थानं - आकारस्तेन संस्थितो- व्यवस्थितो यः स तथा, अयं च हीनसंहननोऽपि केनचित्सम्भाव्येत तत आह-'वज्जरिसहनाराय संघयणे' नाराचं-उभयतो मर्कटबन्धः ऋषभः - तदुपरिवेष्टनपहः कीलिका अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवंरूपं संहननं यस्य स तथा, 'एवं जाव व्यासी' इति, यावच्छन्दोपादानादिदमनुतमप्यवसेयं-'कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे इन्द्रभूतिगौतमस्य वर्णनं F&P Us On ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक ||७|| सूर्यप्रज्ञ-1 महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छूतसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे पउद्दसपुषी चउनाणोवगए प्रस्तावना. विवृत्तिः सबक्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरे झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं (मल०) भावेमाणे विहरइ, तए णं से भयवं गोयमे जायसढे जायसंसए जायकोउहले उप्पन्नसहे उप्पन्नसंसए उप्पनकोउहल्ले कासमुप्पण्णसढे समुप्पन्नसंसए समुष्पन्नकोउहाले उहाए उठेइ उठाए उहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छा उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, आयाहिणपयाहिणं करित्ता वंदइ नमसइ8 | वंदित्ता नमंसित्ता पच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नर्मसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पजुवासेमाणे एवं वयासी, अस्यायमथें:-कनकस्य-सुवर्णस्य यः पुलको-लवस्तस्य यो निकषः-(कप)पट्टके रेखारूपा,तथा पद्मग्रहणेन पद्मकेसराण्युच्यन्ते, अवयवे समुदायोपचारात्, यथा देवदत्तस्य हस्ताग्ररूपोऽष्यवयवो देवदत्तः, तथा च देवदत्तस्य हस्तानं स्पृष्ट्वा लोको वदति-देवदत्तो मया स्पृष्ट इति, ततः कनकेषु (कस्य) पुलकनिकषवत्पद्मकेसरवञ्च यो गौरः स कनकपुलकनिकषपद्मगौरः, अथवा कनकस्य यः पुलको-दुतत्वे सति बिन्दुस्तस्य निकषो-वर्णः तत्सदृशः कनकपुलकनिकषः, तथा पद्मवत्-पद्मकेसर |इव यो गीः स पद्मगौरः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः समासः, अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि शक्रयेत अत आह'उग्गतवे' सगं-अप्रधृष्यं तपः-अनशनादि यस्य स तथा, यदन्येन प्राकृतेन पुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि मनसा तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दीप्तं-जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादि ४ यस्य स तथा, 'तत्ततवें'त्ति तप्तं तपो येन स तप्ततपाः, एवं हितेन तपस्तप्तं येन सर्वाण्यष्यशुभानि कर्माणि भस्मसा --56 अनुक्रम [२१] 116/1 ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक लात्कृतानीति, महत्-प्रशस्तमाशंसादोपरहितत्वात्तपो यस्य स महातपाः, तथा 'उराले'त्ति उदारः-प्रधानः अथवा ओरालो-12 भीष्मः, उग्रादिविशेषणतः पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः, तथा घोरो-निर्घणः परीपहेन्द्रियादिरिपुगणविना|शनमधिकृत्य निर्दय इत्यर्थः, तथा घोरा-अन्यैर्दुरनुचरा गुणा-ज्ञानादयो यस्य स तथा, तथा घोरैस्तपोभिस्तपस्वी, 'घोर| बंभचेरवासि'त्ति घोरं-दारुणं अल्पसत्त्वैर्दुरनुचरत्वात् ब्रह्मचर्यं यत्तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, उच्छूढ-उज्झितं उज्झितमिव उज्झितं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन स उच्छूढशरीरः, 'संखित्तविउलतेउलेसे'त्ति संक्षिप्ता-शरीरान्तर्गतत्वेन हस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेष-10 प्रभवा तेजोग्याला यस्य स तथा, 'चउदसपुषि'त्ति चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव रचितत्वात् , असी चतुर्दशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आह-चउनाणोवगए' मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानरूपज्ञानचतुष्टयसमन्वित इत्यर्थः, उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति, चतुर्दशपूर्वविदामपि पटूस्थानपतितत्वेन श्रवणादत आह-'सर्वाक्षरसन्निपाती' अक्षराणां सन्निपाता:-संयोगाः सर्वे च ते अक्षरसन्निपाताश्च सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयानि स तथा, किमुक्तं भवति -या काचित् जगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूर्वी वा सम्भवति ताः सर्वा अपि आनातीति, एवंगुणविशिष्टो भगवान् विनयराशिरिव साक्षादितिकृत्वा शिष्याचारत्वाश्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते विहरतीति योगः, तत्र दूर-विप्रकृष्टं सामन्त-सन्निकृष्टं तत्प्रतिषेधा|ददूरसामन्तं, तत्र नातिदूरे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् तत्र विहरतीत्यत आह-'उहुंजाणु'त्ति ऊर्च जानुनी 585523 अनुक्रम [२१] ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) सुत्रांक ||८|| यस्यासौ ऊर्ध्वजानुः, शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्यायास्तदानीमभावाच उत्कटुकासन इत्यर्थी, अधःशिरा नोर्च तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः किन्तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरिति भावः, 'झाणकोट्टोवगए'त्ति ध्यान-धर्म्य शुक्त वा तदेव कोष्ठः-कुशूलो धानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतो, यथा हि कोष्ठके धान्य प्रक्षिप्तमविप्रसृतं भवति, एवं भगवानपि ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्तःकरणवृत्तिरित्यर्थः, 'संयमेन पञ्चाश्रवनिरोधादिलक्षणेन 'तपसा' अनशनादिना, चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थो लुप्तो द्रष्टव्यः, संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थ, प्राधान्यं च संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जराहेतुत्वेन, तथाहि-अभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच जायते सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः, ततो भवति संयमतपसोर्मोक्षं प्रति प्राधान्यमिति, 'अप्पाणं भावेमाणे विहरई' इति आत्मानं भावयन्-वासयन् तिष्ठतीत्यर्थः, 'ततोणं से इति ततो-ध्यानकोष्ठोपगतविहरणादनन्तरं, णमिति वाक्यालङ्कारार्थः, 'स' भगवान् गौतमो 'जायसडे' इत्यादि जातश्रद्धादिविशेषणः सन् उत्तिष्ठतीति योगः, तत्र जाताप्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वज्ञान प्रति यस्यासौ जातश्रद्धः, तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयो नामानवधारितार्थ ज्ञानं, स चैवं भगवतः-इह सूर्यादिवक्तव्यता अन्यथा, अन्यथा च तीर्थान्तरीयरुपदिश्यते, ततः किं तत्त्वमिति संशयः, तथा 'जायकुमहल्लेत्ति जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहलः जातीत्सुक्य इत्यर्थः, यथा कथमेना सूर्यवक्तव्यता भगवान् प्रज्ञापष्यितीति, तथा 'उप्पन्नसहे'त्ति उत्पन्ना-प्रागभूता सती भूता श्रद्धा यस्यासी उत्पन्नश्रद्धः, अथ जातश्रद्ध इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इत्यभिधीयते ?, प्रवृत्तश्रद्धत्वेनोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात्, न धनुत्पन्ना अनुक्रम [२१] ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रद्धा प्रवर्तत इति, अत्रीच्यते, हेतुत्वप्रदर्शनार्थ, तथाहि-कथं प्रवृत्तश्रद्धः?, उच्यते यत उत्पन्नश्रद्ध'इति, हेतुत्वप्रदर्शन चोपपन्न, तस्य काव्यालङ्कारत्वात् , यथा 'प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करा, प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरी'मित्यत्र यद्यपि प्रवृत्त*दीपत्वादेवाप्रवृत्तभास्करत्वमवगतं तथाप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीप्तत्वादेर्हेतुतयोपन्यस्तमिति समीचीनं, 'उप्पन्नसहे उप्पन्नसंसए''उप्पन्नकोउहल्ले' इति प्राग्वत, तथा संजायसहे'इत्यादि पदपदं प्राग्वत्,नवरमिह सम्शब्दः प्रकोंदिवचनो वेदितव्यः, तत 'उहाए उलेह' इति उत्थानमुत्था ऊर्व-वर्तनं तया उत्तिष्ठति, इह 'उद्वेद' इत्युक्त क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयते यथा वक्तुमुत्तिष्ठते ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमुत्थयेत्युक्तम्, 'जेणेवेत्यादि प्राकृतशैलीवशादव्ययत्वाच्च येनेति यस्मिन्नित्यर्थे द्रष्टव्यं, यस्मिन् दिग्भागे श्रमणो भगवान् महावीरो वर्तते 'तेणेच'त्ति तस्मिन् दिग्भागे उपागच्छति, इह | वर्तमानकालनिर्देशस्तकालापेक्ष या उपागमनक्रियाया वर्तमानत्वात्, परमार्थतस्तूपागतवानिति द्रष्टव्य, उपागम्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं कर्मतापन्नं विकृत्वा-त्रीन् वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, आदक्षिणात्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः-परितो भ्राम्यतो दक्षिण एव आदक्षिणप्रदक्षिणः तं करोति, कृत्वा वन्दते-स्तौति नमस्यत्ति-कायेन प्रणमति, वन्दित्वा नमस्थित्वा च 'न'नैव अत्यासन्नोऽतिनिकटः अवग्रहपरिहारात् अथवा नात्यासन्नस्थाने वर्तमान इति गम्यं, तथा 'न' नैवातिदूरोऽतिविप्रकृष्टोऽनौचित्यपरिहारात्, अथवा नातिदूरे स्थाने 'सुस्सूसमाणे'त्ति भगवचनानि श्रोतुमिच्छन्, 'अभिमुत्ति अभि-भगवन्तं प्रति मुखमस्येत्यभिमुखः 'विणयेण'त्ति विनयेन हेतुना 'पंजलियडे'त्ति | 2 ४ीप्रकृष्ट:-प्रधानो ललाटतटपटितत्वेन अञ्जलि-हस्तन्यासविशेषः कृतो-विहितो येन स प्राञ्जलिकृतः, भार्योढादेराकृतिग-1* णतया कृतशब्दस्य परनिपात: 'पज्जुवासेमाणे इति पर्यपासीन:-सेवमान:, अनेन विशेषणकदंबकेन श्रवणविधिरूपदर्शितः, उक्तं च "निद्दाविगहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पञ्जलिउडेहिं भत्तिबहुमानपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ||१|| invoy wo इति, 'एवं वदासि' त्ति एवं-वक्ष्यमाण प्रकारेण महर्तवृद्धिअपवृद्धि वक्तव्यता विषयं प्रश्नं अवादीत् उक्तवान् । अनुक्रम [२१] ~30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभृते १प्राभृतप्राभूत प्रत (मला सुत्रांक सूर्यप्रज्ञ- नेता कहं ते वद्धोवद्धी मुहुत्ताणं आहितेति वदेजा ता अट्ठएकूणवीसे मुलुत्तसते सत्तावीसं च सहिभागे प्तिवृत्तिःमुहत्तस्स आहिते वि(ति)वदेजा (सूत्रं ८) | 'ता कहं ते बद्धोबडी मुहुत्ताण'मित्यादि, अत्र तावच्छन्दः क्रमार्थः, क्रमश्चायमस्त्यन्यदपि चन्द्रसूर्यादिविषय ॥९॥ प्रभूतं प्रष्टव्यं, परं तदास्तां सम्प्रत्येतावदेव तावत्पृच्छामि-'कथं केन प्रकारेण भगवन् ! 'ते' त्वया 'मुहूर्तानां' दिवसरात्रिविषयाणां वृद्ध्यपवृद्धी आख्याते इति भगवान् प्रसादमाधाय 'वदेत्' यथावस्थितं वस्तुस्वरूपं कथयेत् येन मे संशयापगमो भवति, अपगतसंशयश्च परेभ्यो निःशङ्कमुपदिशामीति । अत्राह-ननु गौतमोऽपि चतुर्दशपूर्वधरः सर्वाक्षरसन्निपाती सम्भिन्नश्रोताः सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञाकुशलः सूत्रतश्च प्रवचनस्य प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव, उक्त च-संखाईएवि भवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेजा । नयणं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्थो ॥१॥" ततः कथं संशयसम्भवस्तदभावाञ्च किमर्थं पृच्छतीति !, उच्यते, यद्यपि भगवान् गौतमो यथोकगुणविशिष्टस्तथापि तस्याद्यापि मतिज्ञानावरणीयाधुदये वर्तमानत्वात् छद्मस्थता, छद्मस्थस्य च कदाचिदनाभोगोऽपि जायते, यत उक्कम्-"न हि नामानाभोग छमस्थस्येह कस्यचिन्नेति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृतिकर्म ॥१॥" ततोऽनाभोगसम्भवादुपपद्यते [भगवतोऽपि संशया, न चैतदना, यत उर्फ उपासकश्रुते आनन्दश्रमणोपासकावधिनिर्णयविषये-'तेर्ण' भत। कि आणदेणं समणोवासपणं तस्स ठाणस्स आलोइयवं जाव पडिक्कमियवं उयाहु मए , ततो गं गोयमादी समणे भगवं संपातीतानपि भवान् कथयति महा परः पृच्छत् । न चैनं अनतियायी विजानाति पौष उपयः ॥ १॥ अनुक्रम [२२] ॥९ ॥ → इत: सूत्रात् चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं सूर्यप्रज्ञप्ति सर्वथा समान एव वर्तते| इस सूत्र से लेकर इस आगम के अन्त तक चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के सभी सूत्र तथा वृत्ति वर्तमान कालमे सर्वथा एक सम्मान ही पाये जाते है] ~314 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ------------------ प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक महावीरे गोयम एवं वयासी-तुम चेव णं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिकमाहि, आणंदं च समणोवासयं एयमई खामेहि, तए ण समणे भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमझु विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिकमइ, आणदं च समणोवासयं एयमई खामेह' इति, अथवा भगवान् अपगतसंशयोऽपि | शिष्यसम्प्रत्ययार्थं पृच्छति, तथाहि-तमर्थ शिष्येभ्यः प्ररूप्य तेषां सम्प्रत्ययार्थं तत्समक्षं भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छतीति. यदिवा इत्थमेव सूत्ररचनाकल्प इति न कश्चिद्दोषः। एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवान् श्रीवर्द्धमानस्वामी | प्रतिवचनमभिधातुकामः सविशेषबोधाधानाय प्रथमतो नक्षत्रमासे यावन्तो मुहूर्ताः सम्भवन्ति तावतो निरूपयति| 'ता अ?'त्यादि, तावदिति शिष्योक्तपदानुवादः स च न्यायमार्गप्रदर्शनार्थ, तथाहि-सर्वेणापि गुरुणा शिष्येण प्रश्न |कृते सति शिष्यपृष्टस्य पदस्य अन्यस्य वा शिष्योक्तस्य तथाविधस्य पदस्य अनुवादपुरस्सरं प्रतिवचनमभिधातव्यं येन |गुरुषु शिष्याणां बहुमानो भवति-यथाऽहं गुरूणां सम्मत इति, अन्यच्च तावच्छन्दस्यायमर्थः-आस्तामन्यत्प्रतिवक्तव्यमिदानी तावदेव तवाग्रे कथयामि, एतस्मिन्नक्षत्रमासे अष्टौ मुहूर्तशतानि एकोनविंशानि-एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिं सप्तषष्टिं भागानहमाख्याता इति स्वशिष्येभ्यो वदेत् , एतेन चैतदावेदयति-इह शिष्येण सम्यगधीतशास्त्रेणापि गुर्वनुज्ञातेन सता तत्त्वोपदेशोऽपरस्मै दातव्यो नान्यथेति, अथ कथमेकस्मिनक्षत्रमासे अष्टौ शतान्ये कोनविंशत्यधिकानि मुहानामेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागा इति, उच्यते, इह युगे चन्द्रचन्द्राभिदिवर्जितचन्द्राभिवर्धितरूपसंवत्सरपचकारमके सप्तपष्टिर्नक्षत्रमासाः, युगे चोक्तस्वरूपे अहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशद-18 WWEA++ॐकर अनुक्रम [२२] ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल.) प्रत ॥१०॥ धिकानि १८३०, तत एतेषां सप्तपध्या भागो वियते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः, शेषा तिष्ठति एकविंशतिः, सा मुहू- १ प्राभृते | नयनार्थ त्रिंशता गुण्यते, जातानि पटू शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तेषां सप्तपट्या भागे हृते लब्धा नव मुहूर्ताः ९, १प्राभूतशेषाऽवतिष्ठते सप्तविंशतिः, आगतं नक्षत्रमासः सप्तविंशतिरहोरात्राः नव मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्त- प्राभूत पष्टिभागाः, तत्र सप्तविंशतिरहोरात्रा मुहूर्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते जातान्यष्टौ शतानि दशोत्तराणि ८१०, तेषां मध्ये उपरितना नव मुहर्ताः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि ८१९, आगतं नक्षत्रमासे मुहूर्तपरिमाणमष्टी शतान्ये कोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागा इति । इदं च नक्षत्रमासगतमुहर्तपरिमाणं है उपलक्षणं, तेन सूर्यादिमासानामप्यहोरात्रसङ्ख्या परिभाव्य मुहर्तपरिमाणं यथाऽऽगमं भावनीयं, तश्चैवम्-सूर्यमासा युगे पष्टिर्भवन्ति, युगे चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकान्यहोरात्राणां, ततस्तेषां पष्ठया भागे हते लब्धा त्रिंशदहोरात्राः एकस्य | चाहोरात्रस्याई, एतावत्सूर्यमासपरिमाणं त्रिंशन्मुहूर्त्तश्चाहोरात्र इति त्रिंशत्रिंशता गुण्यते, जातानि नव शतानि मुहर्चाना, अर्दै चाहोरात्रस्य पश्चदश मुहूर्ताः, तत आगतं सूर्यमासे मुहूर्तपरिमाणं नव शतानि पश्चदशोत्तराणि ९१५, तथा युगे द्वापष्टिश्चन्द्रमासास्ततोऽष्टादशशतानां त्रिंशदधिकानां द्वाषष्ट्या भागो झियते, लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य, तत्र द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य करणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव ॥१ शतानि पश्यधिकानि ९६०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः, शेषा तिष्ठति त्रिंशत् ३०, एकोनत्रि-12 शचाहोरात्रा मुहर्तकरणार्थ विंशता गुण्यन्ते, जातान्यष्टौ शतानि सत्यधिकानि ८७०, ततः पाश्चात्याः पश्चदश मुहूत्तों अनुक्रम [२२] ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [<] दीप अनुक्रम [२२] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [१] मूलं [८] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः एषु मध्ये प्रक्षिष्यन्ते, तत आगतं चन्द्रमासे मुहूर्त्तपरिमाणमष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि त्रिंशच द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य । कर्म्ममासश्च त्रिंशदहोरात्र प्रमाणस्ततस्तत्र मुहूर्त्त परिमाणं नव शतानि परिपूर्णानि, तदेवं मासगतं मुहूर्त्त परिमाणमुक्तं, प्रतदनुसारेण च चन्द्रादिसंवत्सरगतं युगगतं च मुहूर्त्तपरिमाणं स्वयं परिभावनीयं । तथा च सत्यवगतं मुहूर्त्तपरिमाणं, सम्प्रति प्रत्ययने थे दिवसरात्रविषये मुहर्त्तानां वृद्ध्यपवृद्धी ते अवबोद्धुकाम इदं पृच्छति ता जया णं सुरिए सबभंतरातो मंडलातो सबबाहिरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति सङ्घबाहिरातो मंडलातो सहन्तरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति, एस णं अद्धा केवतियं रातिंदियग्गेणं आहितेत्ति यदेखा १, ता तिण्णि छावट्टे रातिंदियसए रातिंदियग्गेणं आहितेतिवदेखा (सूत्रं ९ ) ता एताए अद्धाए सरिए कति मंडलाई चरति ?, ता चुलसीयं मंडलसतं चरति, घासीति मंडलसतं दुक्खुतो चरति, तंजहा- क्खिममाणे चेव पवेसमाणे चेव, दुवे य खलु मंडलाई सई चरति, तंजहा सधन्तरं चेव मंडल सङ्घबाहिरं चैव मंडलं ( सूत्रं १० ) ॥ 'ता जया णमित्यादि, तावच्छन्दार्थभावना सर्वत्रापि प्रागुक्तानुसारेण यथायोगं स्वयं परिभावनीया, शेषस्य च वाक्यस्यायमर्थ:-'यदा' यस्मिन् काले, णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्विनिर्गत्य प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलचारेण यावत् सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति परिभ्रमणमुपपद्यते, सर्वबाह्याच मण्डलादपसृत्य प्रतिरात्रिन्दिवमेकैकमण्डलपरिभ्रमणेन यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, 'एषा' एतावती, णमिति पूर्ववत् अद्धा Jan Eiration Intimanal F&P ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [९-१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९-१० दीप सूर्यप्रज्ञ- कियता रात्रिदिवाण' रात्रिदिवपरिमाणेन आख्याता इति वदेत् ?, अत्र प्रतिवचन-'ता तिनि' इत्यादि, एपा अद्धा I प्तिवृत्तिःराविन्दिवाण त्रिभी रात्रिदिवसशतैः षट्पष्टैः-षट्पध्यधिकैराख्याता इति, स्वशिष्येभ्यो वदेत् । पुनः पृच्छति- ता१प्राभृत(मल०) एयाए ण'मित्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, एतया-एतावत्या षट्पट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणया अद्धया कति मण्ड-III प्राभूत ॥११॥ |लानि सूर्यो द्विकृत्वश्चरति ?, कति वा मण्डलाम्येकवारमिति शेषः, अत्र प्रतिवचनवाक्यम्-'ता चुलसीय'मित्यादि, सामान्यतश्चतुरशीत-चतुरशीत्यधिक मण्डल शतं चरति, अधिकस्य मण्डलस्य सूर्यसत्कस्याभावात् , 'तत्रापि चतुरशीतशतमध्ये 'यशीतं' घशीत्यधिक मण्डलशतं द्विकृत्वश्चरति, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तराममण्डलाद्वहिनिष्क्रामन् सर्वबाह्यामण्डलादभ्यन्तरं प्रविशंश्च, द्वे च मण्डले-सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यरूपे सकृद्'एकैकं वारं 'चरति'परिभ्रमति भूयः प्रश्नयति जइ खलु तस्सेव आदिचस्स संवच्छरस्स सयं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति सई अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति सई दुवालसमुहत्ता राती भवति, पढमे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति, दोचे उम्मासे अधि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे,णत्थि अट्ठारसमुहुत्ताराती, अस्थि दुवालस-| मुहत्ते दिवसे भवति पढमे छम्मासे, दोचे छम्मासे णधि पण्णरसमुहते दिवसे भवति, णस्थि पण्णरस-| II११॥ मुहत्ता राती भवति, तत्थ णे कं हेतुं वदेजा, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ सबदीवसमुदाणं सबभतराए जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, ता जता णं सूरिए सबभंतरमंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुष्टुत्ता राती भवति, से| अनुक्रम [२३-२४] ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [१], प्राभृत [१], मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः निक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरन्तंसि अग्भितरं मंडल उबसंकमित्ता चारं चरति, ता जयाणं सूरिए अमितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अहारसमुहुत्ते दिवसे भवति | दोहिं एगट्टभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राती भवति दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अधिया, से णिक्खममाणे सूरिए दोघंसि अहोरसंसि अन्नंतरं तवं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभितरं तवं मंडल उबसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहसे दिवसे भवति चाहिं एगट्टिभागमुहतेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राती भवति चउहिं एट्टिभागमुतेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए एगमेगे मंडले दिवसे खेत्तस्स णिवुद्देमाणे २ रतणिक्स्सस्स अभियुद्धेमाणे २ सबवाहि रमंडलं उवसंकमिता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सबन्धंतरातो मंडलाओ सङ्घबाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तता णं सभंतरमंडलं पणिधाय एगेणं तेसीतेणं राईदियसतेणं तिण्णि छावट्ट एगडिंग हुत्ते सते दिवसे खेत्तस्स णिबुद्वित्ता रतणिक्खेत्तस्स अभिबुद्धित्ता चारं चरति, तदा णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अहारसमुहुत्ता राती भवति, जहण्णए वारसमुहुते दिवसे भवति, एस णं पढने छम्मासे एस णं पढमं छम्मासस्स पजबसाणे से पचिसमाणे सूरिए दोघं छम्मासं अयमाणे (आयमाणे ) पढमंसि अहो रन्तंसि बाहिरातरं मंडल उवसंकमेता चारं चरति, ता जया णं सुरिए वाहिराणंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति, दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए F&PO ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- दोसि अहोरत्तंसि याहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं मूरिए बाहिरं तचं मंडलं उव-४१प्राभृते संकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति च उहि एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमु- १प्राभूत (मल.) हुत्ते दिवसे भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए। एवं खलु एतेणुचाएणं पविसमाणे सूरिए तदाणं-12 प्राभृते ॥ १२॥ तरातो तयाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे दो दो एगट्ठिभागमुटुत्ते एगमेगे मंडले रतणिखेत्तस्स णिबुड्डे प्रमाणे २ दिवसखेत्तस्स अभिवढमाणे २ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सूरिए सबबाहिराओ मंडलाओ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं सबवाहिरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसतेणं तिन्नि छावढे एगट्ठिभागमुहत्तसते रयणिखेत्तस्स निहित्ता दिवसखेसस्स अभिववित्ता चारं चरति तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालस-18 मुहुत्ता राती भवति, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दुच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे एस णं आदिचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे, इति खलु तस्सेवं आदिचस्स संवच्छरस्स सह अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, सई अट्ठारसमुहत्ता राती भवति, सई दुवालसमुलुत्ता राती भवति, पढमे छम्मासे अधिक अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे नस्थि दुवालसमुहुत्ता राई अस्थि दुवालसमुहत्ता राई नत्थि दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, पढमे वा उम्मासे णत्थि परुणरसमुहत्ते दिवसे भवति, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता अनुक्रम [२५] ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [११] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः राई भवति णत्थि रातिंदियाणं वडोवहीए मुहताण वा चयोवचरणं, णण्णत्थ वा अणुवा यगेईए, गाधाओ भाणितवाओ (सूत्रं ११ ) पढमस्स पाहुडस्स पढमं पाहुड पाहुडं ॥ १-१ ॥ 'जह खलु' इत्यादि, यदि खलु षट्षष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणायामद्धायां द्व्यशीतं मण्डलशतं द्विकृत्वश्वरति द्वेच मण्डले एकैकं वारमिति तत एवं सति यदेतद्भगवद्भिः प्ररूप्यते, तस्य षट्षष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणस्य सूर्यसंवसरस्य मध्ये सकृद् एकवारमष्टादश मुहूर्त्त प्रमाणो दिवसो भवति, सकृच्चाष्टादश मुहूर्त्ता रात्रिः, तथा सकृद्-एकवारं द्वादशमुइत्तों दिवसो भवति सकृच द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तत्रापि षण्मासे प्रथमेऽस्ति अष्टादश मुहूर्त्ता रात्रिर्नत्वष्टादशमुहर्त्ता दिवसः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव प्रथमे षण्मासे द्वादशमुहूर्त्ता दिवसो न तु द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, द्वितीये पण्मासेऽस्त्यष्टादश मुहूर्तो दिवसो नस्वष्टादशमुहर्त्ता रात्रिः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव द्वितीये पण्मासे द्वादशमुहर्त्ता रात्रिर्नतु द्वादशमुहूर्त्ता दिवसः, तथा प्रथमे पण्मासे द्वितीये षण्मासे नास्त्येतत् यदुत-पश्चदशमुहूर्त्तोऽपि दिवसो भवति, नाप्यस्त्येतत्, यदुत पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिरिति, तत्र एवंविधे वस्तुतस्त्वावगमे को हेतुः १-किं कारणं कया युक्त्या एतत्प्रतिपत्तव्यमिति भावार्थ:, 'इति वदे' दिति, अत्रार्थे भगवान् प्रसादं कृत्वा वदेत् । अत्र प्रतिवचनमाह-'ता अयण्ण' मित्यादि, 'अयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो णमिति वाक्यालङ्कारे 'जम्बूद्वीपो'जम्बूद्दीपनामा द्वीपः, स च सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः-सर्वमध्यवर्त्ती सर्वेषामपि शेषद्वीपसमुद्राणामित आरम्य यथागमोतक्रमद्विगुणविष्कम्भतया भवनात् 'जाव परिक्खेवेणं पझन्ते इति, अत्र यावच्छन्दोपादानादिदमन्यद् प्रन्थान्तरे प्रसिद्धं सूत्रमवगन्तव्यं 'सबक्खुडागे बट्टे तेलापूय संठाणसं Jain Eration intimanal F&P One ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ-४ ठिए बद्दे रहचकवालसंठाणसंठिए वढे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिए बट्टे पडिपुन्नचंदसंठाणसठिए जोयणसयसहस्समायाम-13 १प्राभृते तवृत्तिः विक्खंभेणं तिनि जोयणसयसहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगु- १प्राभृत(मल०) लाई अर्द्धगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते' इति, अत्र 'सबखुड्डाग'त्ति सर्वेभ्योऽप्यन्येभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः। प्राभूत ॥१३॥ क्षुल्लको-लघुरायामविष्कम्भाभ्यां योजनलक्षप्रमाणत्वात् , शेषं प्रायः सुगम परिधिपरिमाणं गणितं च क्षेत्रसमासटी-४ कातः परिभावनीयं, 'ता'इति ततो यदा णमिति पूर्ववत्, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा णमिति प्राग्वत् उत्तमकाष्ठाप्राप्तोऽत्र काष्ठाशब्दः प्रकर्षवाची परमप्रकर्षप्राप्तो यतः परमन्योऽधिको न भवति स इत्यर्थः, 'उकोस'त्ति उत्कर्षतीत्युत्कर्षः उत्कर्ष एवोत्कर्षका उत्कृष्ट इत्यर्थः, अष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, तस्मिन्नेव च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले | | सूर्ये चारं चरति जघन्या-सर्वलध्वी द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, एषोऽहोरात्रः पाश्चात्यस्य सूर्यसंवत्सरस्य पर्यवसानं, ततः स | सूर्यस्तस्मात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानिष्क्रामन् नवं सूर्यसंवत्सरमाददानः-प्रवर्तमानः प्रथमे अहोरात्रे 'अभितरानंतर'|न्ति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति ततो यदा सूर्योऽभ्यन्तरानन्तरं-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादनन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा अष्टादशमहत्तों दिवसो द्वाभ्यां महतंकषष्टिभागाभ्यामूनो भवति, द्वाभ्यां च मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, कथमेतदवसीयते इति चेत् ?, उच्यते, इहक मण्ड| लमेकेनाहोरात्रेण द्वाभ्यां सूर्याभ्यां परिसमाप्यते, एकैकश्च सूर्यः प्रत्यहोरात्र मण्डलस्य त्रिंशदधिकोऽष्टादशशतसङ्ख्यान |भागान् परिकल्प्य एकैकं भाग दिवसक्षेत्रस्य रात्रिक्षेत्रस्य वा यथायोग्य हापयिता वर्द्धयिता वा भवति, स चैको मण्ड अनुक्रम [२५] १३॥ K ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] SSAGARMA-960 लगतस्त्रिंशदधिकाष्टादशशततमो भागो द्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्यां गम्यते, तथाहि-तानि मण्डलगतानि त्रिंशदधिकान्यष्टादशशतानि भागानां द्वाभ्यां सूर्याभ्यामेकेनाहोरात्रेण गम्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणः, ततः सूर्यद्वयाकापेक्षया पष्टिमहर्ता लभ्यन्ते ततस्त्रैराशिककर्मावकाशः, यदि षट्या महतैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि मण्डलस्य | भागानां गम्यते तत एकेन मुहूर्तेन किं गम्यते !, राशित्रयस्थापना-। ६० । १८३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनाजातानि तान्येवाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि तेषामायेनराशिना षष्टिलक्षणेन भागो हियते लन्धाः सार्धात्रिंशद्भागाः, एतावन्मुहूर्त्तन गम्यते, मुहूर्तश्चैकपष्टिभागीक्रियते तत आगतमेको भागो द्वाभ्यां मुहूतेकप|ष्टिभागाभ्यां गम्यते, यदिवा यदि ज्यशीत्यधिकेनाहोरात्रशतेन षट् मुहूर्ता हानौ वृद्धौ वा प्राप्यन्ते तत एकेनाहोरात्रेण किं प्राप्यते ?, राशित्रयस्थापना-1 १८३ । ६।१ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशिर्गुण्यते, जातास्त एव पद, तेषां ज्यशीत्यधिकेन शतेन भागहरणं, अत्रीपरितनराशेः स्तोकत्वाद्भागो न लभ्यते ततश्छेद्यच्छेदकराश्योखिकेनापवर्त्तना, जात उपरितनो राशिकिरूपोऽधस्तन एकपष्टिरूपः, आगतं द्वावेकषष्टिभागौ मुहूर्तस्य एकस्मिन्नहोरात्रे वृद्धी काहानी वा प्राप्यते इति, तथा 'ता'इति तस्माद द्वितीयान्मण्डलानिष्क्रामन् सूर्यों द्वितीये अहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरं मण्डल-1 मपेक्ष्य तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा तस्मिन्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमवेक्ष्य तृतीये मण्डले उपसङ्कम्य चार चरति सदा चतुर्भिर्मुहुर्तस्यैकपष्टिभागेहींनोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, चतुर्भिमुहूर्तस्यैकषष्टिभागैरधिका द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिः, एवमुक्तनीत्या 'खलु'निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन प्रतिमण्डलं अनुक्रम [२५] ~40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [११] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः ( मल०) सूर्यप्रज्ञ- 4 दिवसरात्रविषय मुहूर्त्ते कषष्टिभागद्वयहानिवृद्धिरूपेण निष्क्रामन् मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैर्दक्षिणाभिमुखं गच्छन् तिवृत्तिः सूर्यः, 'तयाणंतरा' इति तस्माद्विवक्षितादनन्तरान्मण्डलात् ' तयानंतर' मिति तद्विवक्षितमनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् २ एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तस्य द्वौ द्वावेकषष्टिभागी दिवसक्षेत्रस्य 'निर्वेष्टयन् २' हापयन् २ रजनिक्षेत्रस्य प्रतिमण्डलं द्वौ द्वौ मुहूर्त्तस्यैकषष्टिभागौ अभिवर्द्धयन् २ व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे प्रथमपण्मासपर्यवसानभूते सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति 'ता' इति ततो यदा तस्मिन् काले अहोरात्ररूपे णमिति प्रागिव सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्मण्डलपरिचमणगत्या शनैः शनैः निष्क्रम्य सर्ववा मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलं 'प्रणिधाय' मर्यादी कृत्य द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः, एकेन त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि 'षट्षष्टानि षट्षष्ट्यधिकानि मुहूर्त्तेक पष्टिभागशतानि दिवसक्षेत्रस्य 'निर्वेष्ट्य' हापयित्वा रजनिक्षेत्रस्य तान्येव त्रीणि मुहत्कषष्टिभागशतानि षट्षष्ट्यधिकानि अभिवर्द्धा चारं चरति, तदा णमिति पूर्ववत्, उत्तमकाष्ठा प्राप्ता - परमप्रकर्षप्राप्ता उत्कर्षिका उत्कृष्टा अष्टादश मुहर्त्ताअष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणा रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहर्तप्रमाणो दिवसः, एषा प्रथमा षण्मासी, यदिवा एतत् प्रथमं षण्मासं, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्यत्वात् एष व्यशीत्यधिकशततमोऽहोरात्रः प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानं । 'से पविसमाणे' इत्यादि, 'स'सूर्यः सर्ववायान्मण्डलाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वित्तीयं पण्मासमाददानः प्रतिपद्यमानो द्वितीयस्य पण्मासस्य प्रथमे अहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वागनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति 'ता' इति तत्र यदा सूर्यो बाह्यात्- सर्व बाह्यान्मण्डलादर्वाक्तनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्यामूना अष्टा ॥ १४ ॥ * Jan Eiration intimanal F&P On ~ 41~ प्राभृते प्राभूत प्राभृर्त ॥ १४ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, द्वाभ्यां मुहू कषष्टिभागाभ्यामधिको द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, ततस्ततोऽपि द्वितीयान्मण्डलादभ्यन्तरं स सूर्यः प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीये अहोरात्रे 'बाहिरं तच्चति सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वातनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति 'ता जया ण'मित्यादि, ततो यदा णमितिपूर्ववत् , सूर्यः सर्ववाह्यान्मण्डलादाफनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति 'ता जया ण'मित्यादि ततो यदा णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वचाह्यान्मण्डला-2 दर्वातनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिश्चतुर्भिः एगहिभागमुहुत्तेहिंति प्राकृतत्वाद व्यत्यासेन पदोपन्यासः, एवं तु यथास्थितपदनिर्देशो द्रष्टव्यो-मुहूकषष्टिभागैरूना भवति, चतुर्भिर्मुहूकषष्टिभागैरधिको द्वादशमुहूत्तों दिवसः। 'एवं खलु एएण'मित्यादि, एवं-उक्कनीत्या खल्येतेन-अनन्तरोदितेनोपायेन प्रतिमण्डलं रात्रिदिवसविषयमुहकपष्टिभागद्वयहानिवृद्धिरूपेण प्रविशन् मण्डलपरिचमणगल्या शनैः शनैरुत्तराभिमुखं । गच्छन् 'तयाणंतराउत्ति तस्माद्विवक्षितान्मण्डलात्'तयाणंतर मिति तद्विवक्षितमनन्तरं मण्डलं सामन् २एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तस्य द्वौ द्वावेकषष्टिभागी रजनिक्षेत्रस्य निर्वेष्टयन दिवसक्षेत्रस्य प्रतिमण्डलं द्वौ द्वौ मुहूर्तस्यैकषष्टिभागी अभिवर्द्धयन् २ ज्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे द्वितीयपण्मासपर्यवसानभूते 'सबभंतति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति, 'ता'इति ततो यदा-यस्मिन् काले णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलान्मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविश्य सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा सर्वबाह्यमण्डलं 'प्रणिधाय'मर्यादीकृत्य तदर्वाकनाद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः, एकेन त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि पट्पटानि-पटूपाधिकानि मुहत्ते RECETAX*XHAMKOA GAISAIAK अनुक्रम [२५] F OR ~42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [११] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः ( मल० ) ॥ १५ ॥ सूर्यप्रज्ञ- ४ स्यैकषष्टिभागशतानि रजनिक्षेत्रस्य निर्वेष्य-हापयित्वा दिवसक्षेत्रस्य च तान्येव त्रीणि षट्षष्टानि मुझतैकपटिभागशतानि तिवृत्तिः अभिव चारं चरति, तदा णमिति वाक्यालङ्कारे उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षकः - उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्त्तो * दिवसो भवति जघन्या च द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, एतद् द्वितीयं षण्मासं, यदिवा एषा द्वितीया षण्मासी, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात्, एष षट्षष्ट्यधिकत्रिशततमोऽहोरात्रो द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानभूतः, 'एष' एवंप्रमाण आदित्य संवत्सरा, एष षट्षष्ट्यधिकत्रिशततमोऽहोरात्रः 'आदित्यस्य' आदित्यसम्बन्धिनः संवत्सरस्य पर्यवसानम् । सम्प्रत्युपसंहारमाह-'इइ खलु तस्सेव' मित्यादि, यस्मादेवं 'इति' तस्मात्कारणात्तस्यादित्यस्य- आदित्य संवत्सरस्य मध्ये 'एवं' उत्केन प्रकारेण 'सकृद्' एकवारमष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति सकृच्चाष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तथा सकृद् द्वादशमुत्तों दिवसो भवति सकृच्च द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तत्र प्रथमे षण्मासे अस्त्यष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, सा च प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे, नत्वष्टादशमुत्तों दिवसः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव प्रथमे षण्मासे द्वादशमुहूर्ती दिवसः, सोऽपि प्रथमषण्मासपर्यवसानेऽहोरा, नतु द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, द्वितीये षण्मासेऽस्त्येतद् यदुत अष्टादश मुहूर्त्ता दिवसो भवति, स च द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे नत्वष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तथा अस्त्येतत् यदुत तस्मिन्नेव द्वितीयषण्मासे अस्ति द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः साऽपि तस्मिन्नेव द्वितीयपण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे, न पुनरस्त्येतत् यदुत द्वादशमुद्दतों दिवसो भवतीति, तथा प्रथमे वा षण्मासे नास्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहतों दिवसो भवति, नाप्यस्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिः, किं सर्वथा नेत्याह- नान्यत्र - रात्रिन्दिवानां वृध्यपवृद्धेरन्यत्र न भवति, रात्रिन्दिवानां तु वृद्ध्यपवृद्धौ च भवत्येव पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिः पञ्चदशमुत्तों दिवसः, ते च वृक्ष Jain Estration intimanal F&P Us On ~43~ १ प्राभूते १ प्राभूत• प्राभृतं ।। १५ ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२५] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [११] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः पवृद्धी रात्रिन्दिवानां कथं भवत इत्याह-'मुहुत्ताणं चयोवचएण' मुहूर्त्तानां पञ्चदशसङ्ख्यानां चयोपचयेन चयेन - अधिकत्वेन वृद्धिरपचयेन-हीनत्वेनापवृद्धिः, इयमत्र भावना - परिपूर्णपखदशमुहूर्त्तप्रमाणे दिवसरात्री न भवतो, हीनाधिक पञ्चदशमुहूर्त्त| प्रमाणे तु दिवसरात्री भवतः, एवं 'अन्नस्थ वा अणुवायगईए' इति वाशब्दः प्रकारान्तरसूचने अन्यत्रानुपातगते:--अनुसार| गतेः पञ्चदशमुहूर्ती दिवसः पञ्चदशमुहूर्त्ता वा रात्रिर्न भवति, अनुसारगत्या तु भवत्येव, सा चानुसारगतिरेवं-यदि त्र्यशी| त्यधिकशततमे मण्डले षण्मुहूर्त्ता वृद्धौ हानौ वा प्राप्यन्ते ततोऽर्वाक् तदर्द्धगतौ त्रयो मुहूर्त्ताः प्राप्यन्ते, त्र्यशीत्यधिकशतस्य वाऽर्द्ध सार्द्धा एकनवतिः तत आगतं एकनवतिसयेषु मण्डलेषु गतेषु द्विनवतितमस्य च मण्डलस्यार्थे गते पञ्चदश मुहूर्त्ताः प्राप्यन्ते, तवस्तत ऊ रात्रिकल्पनायां पञ्चदशमुत्तों दिवसः, पञ्चदशमुहूर्त्ता च रात्रिर्लभ्यते नान्यथेति, 'गाहाओ भणितव्बाओ'ति अत्र अनन्तरोक्तार्थसङ्ग्राहिका अस्या एव सूर्यप्रज्ञप्तेर्भद्रबाहु खामिना या निर्युतिः कृता तत्प्रतिबद्धा अन्या वा काश्चन ग्रन्थान्तरमुप्रसिद्धा गाथा वर्त्तन्ते ता 'भणितच्या' पठनीयाः, ताश्च सम्प्रति कापि पुस्तके न दृश्यन्त इति व्यवच्छिन्नाः सम्भाव्यन्ते ततो न कथयितुं व्याख्यातुं वा शक्यन्ते, यो वा यथा सम्प्रदायादवगच्छति तेन तथा शिष्येभ्यः कथनीया व्याख्यानीयाश्चेति । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं १ समाप्तं तदेवमुक्तं प्रथमस्य प्राभृतस्य प्रथमं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति द्वितीयमर्द्धमण्डल संस्थितिप्रतिपादकं विवक्षुरिदं प्रश्नसूत्रमाह Fin अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं १ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं २ आरभ्यते ~ 44~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: भिवात्तः प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२६-२७] ता कहं ते अद्धमंडलसंठिती आहिताति वदेजा?, तत्थ खलु इमे दुवे अद्धमंडलसंठिती पं०,२०-दाहिणााभते चेव अद्धमंडलसंठिती उत्तरा चेव अडमंडलसंठिती । ता कहं ते दाहिणअद्धमंडलसंठिती आहितातिप्राभृत(मल.) &वदेजा, ता अपणं जंबुद्दीवे दीवे सबदीवसमुदाणंजाब परिक्खेवेर्ण ता जया ण सरिए सबभंतरं दाहिणं * प्राभूत ॥१६॥ अमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राती भवति, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संबच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसिर दाहिणाए अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाते अम्भितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलं संठिति उवसंकमित्ता चार चरति, जता णं सरिए अम्भितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं घरति तदा णं अट्ठार समुहत्ते[हिं] दिवसे भवति दोहिं एगट्ठभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राती दोहिं एगहिभागमुहत्तेहि &अधिया से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरसि उत्तराए अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाए अम्भितरं तच दाहिणं अद्धमंडलं संठिति वसंकमित्ता चारंचरति ।ता जया णं सूरिए अभितरं तचं दाहिणं अद्धमंडलं ४ संठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुष्टुत्ते [हिं] दिवसे भवति चाहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे दिवालसमुहुत्ता राई भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अधिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे X ॥१६॥ सरिए तदर्णतरातोऽणतरंसि तंसि २ देसमि तं तं अद्धमंडलसंठिति संकममाणो २ दाहिणाए २ अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाते, सववाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठितिं उबसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सुरिए 94555575 ~45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२६-२७] सबबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ता उकोसिया अट्ठारसमु-15 हुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति । एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमछम्मासस्स पज्जवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराते अंतरभागाते तस्सादिपदेसाते बाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए % बाहिराणतरं दाहिणअद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहि एगहिभागमुहुरोहिं ऊणा दुधालसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सामरिए दोचंसि अहोरत्तंसि दाहिणाते अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाए वाहिरंतरं तच्च उत्तरं अद्धमंडलसं-18 |ठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं उत्तरं अहमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चार चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्सा राई भवति चाहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया, एवं खलु एतेणं उपाएणं पविसमाणे सूरिए तदाणंतराउ तदाणंतरं तंसि २ देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिति संकममाणे २ उत्तराए अंतराभागाते तस्सादिपदेसाए सबभंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया सरिए सवन्तरं दाहिणं अहमंडलद्विति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा ण उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठार-1 समुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एस णं दोचे छम्मासे, एसणं दोचस्स छमासस्स पज्जवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे, एसणं आदिचसंवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं १२)ता कहं ते %ASAKASEXSAX ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२६-२७] 5ॐ उत्तरा अद्धमंडलसंठिती आहितातिवदेजा, ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सबदीवजावपरिक्खेवेणं, ता जताणं माभृते सरिए सबभंतरे उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारस-13 मुटुत्ते दिवसे भवति जहपिणया दुवालसमुहत्ता राई भवति जहा दाहिणा तहा चेव णवरं उत्तरहिओप्राभूत अभितराणतरं दाहिणं उवसंकमइ, दाहिणातो अन्भितरं तचं उत्तरं उवसंकमति, एवं खलु एएणं उवाएणं जाव सबबाहिरं दाहिणं उवसंकमति, सबबाहिरं दाहिणं उपसंकमति २त्ता दाहिणाओ बाहिराणंतर उत्तरं जवसंकमति उत्तरातो माहिरं तच दाहिणं तचातो दाहिणातो संकममाणे २ जाव सबभतरं उबसंकमति, तहेव । एस णं दोचे छम्मासे एसणं दोचस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस गं आदिचे संवच्छरे, एसणं आदिचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे गाहाओ। (सूत्रं १३) बीयं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहं ते इत्यादि, 'ता'इति क्रमार्थः, पूर्ववत् भावनीयः, कध'केन प्रकारेण भगवन् ! 'ते'तव मते 'अर्द्धमण्डलसंस्थिति अर्द्धमण्डलब्यवस्था आख्यातेति वदेत्, पृच्छतश्चायमभिप्रायः-इह एकैका सूर्य एकैकेनाहोरात्रेणकैकस्य मण्ड|लस्या मेव भ्रमणेन पूरयति, ततः संशया कथमकैकस्य सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रमेकैकाब्रमण्डलपरिभ्रमणव्यवस्थेति पृष्ठति, अत्र भगवान् प्रत्युत्तरमाह-ता खलु इत्यादि, 'ता' इति तत्रार्द्धमण्डलव्यवस्थाविचारे खलु-निश्चितमिमे द्वे अर्द्धमण्डलसंस्थिती मया प्रज्ञसे, तद्यथा-एका दक्षिणा चैव-दक्षिणदिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिः-अर्द्धमण्डलव्यवस्था में द्वितीया उत्तरा चैव-उत्तरदिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिः, एवमुक्केऽपि भूयः पृच्छति-'ता कहं ते'इत्यादिइंह ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२६-२७] SGACASSACROSSC द्वे अपि अर्धमण्डलसंस्थिती ज्ञातव्ये तत्रेदं तावत्पृच्छामि-कथं त्वया भगवन् 'दक्षिणा'दक्षिणदिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिराख्याता इति वदेत् ,भगवानाह-'ता अयपण'मित्यादि, इदं जम्मूदीपवाक्यं प्रागिव स्वयं परिपूर्ण परि भावनीयम्,'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा, णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वाभ्यन्तर-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतां दक्षिणाकामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्गम्य चार चरति तदा णमिति पूर्ववत् , उत्समकाष्ठाप्राप्त:-परमप्रकर्षप्राप्ता, उत्कर्षक-उत्कृष्टोऽ-12 टादशमहत्तों दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादूई। शनैः शनैः सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथंचनापि मण्डलगत्या परिभ्रमति येनाहोरात्रपर्यन्ते सर्वा-1 भ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागानपरे च दे योजने अतिक्रम्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयोसरार्जमण्डलसीमायां वर्तते, तथा चाह-से निक्खममाणे इत्यादि स सूर्यः सर्वाभ्यन्तरगतात् प्रथमक्षणादूई शनैः शनैर्निक्रामन् अहोरात्रेऽतिकान्ते सति नवम्-अभिनव संवत्सरमाददानो नवस्य प्रथमेऽहोरात्रे दक्षिणस्माद्-दक्षिणदिग्भाविनोऽन्तरात्-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद्विनिर्गत्य 'तस्सादिपएसाए इति-11 तस्य-सर्वाभ्यन्तरानन्तरस्योत्तरार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्याभ्यन्तरानन्तरां-सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति, स चादिप्रदेशादूई शनैः शनैरपरमण्डलाभिमुखमत्रापि तथा कथञ्चनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते तदपि मण्डलमन्ये च द्वे योजने परित्यज्य दक्षिणदिग्भाविनस्तृतीयस्य मण्डलस्य सीमायां भवति, ता जया णमित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरानन्तरां द्वितीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति JAINERatan international ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२६-२७] सूर्यप्रज्ञ-1 तदा दिवसोऽष्टादशमुहतों द्वाभ्यां मुहतैकषष्टिभागाभ्यामूनो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्ता रात्रिःद्वाभ्यां मुहूर्तेक-181 प्राभृते प्तिवृत्तिःपष्टिभागाभ्यामभ्यधिका, ततस्तस्या अपि द्वितीयस्या उत्तरार्द्धमण्डलसंस्थितेरुक्कप्रकारेण स सूर्यो निष्क्रामन् अभिनवस्य प्राभृत (मल) सूर्यसंवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविनोऽन्तराद् द्वितीयोत्तरार्द्धमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टि प्राभृतं ॥१८॥ भागाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद विनिःसृत्य 'तस्साइपएसाए' इति तस्य-दक्षिणदिग्भाविनस्तृतीयस्यार्द्धलमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'अम्भितरं तच ति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमपेक्ष्य तृतीयां दक्षिणाम मण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य & चारं चरति, अत्रापि तथा चारं चरति आदिप्रदेशाद शनैः शनैरपरमण्डलाभिमुखं येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते तन्मण्डलगतानष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागानपरे च द्वे योजने अपहाय चतुर्थस्योत्तरार्द्धमण्डलस्य सीमायामवतिष्ठते, 'ता जया 'मित्यादि, ततो यदा णमिति पूर्ववत् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानृतीयां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्काम्य चारं परति तदा अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति चतुर्भिर्मुहूत्तैकषष्टिभागैरूनो द्वादशमुहर्ता रात्रिः चतुर्भिर्मुहत्तैकषष्टिभागैरभ्यधिका, 'एवं खलु'इत्यादि, एवं-उतनील्या खलु-निश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकयोजनद्वयविकम्पनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्तरादर्द्धमण्डलातदनन्तरं तस्मिन् २ देशे-दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे वा तां तां-अर्द्धमण्डलसंस्थितिं सङ्कामन २ घशीत्यधिकशततमाहोरात्रपर्यन्ते गते दक्षिणमात्-दक्षिणदिग्भाविनोs-IA शान्तरात् ब्यशीत्यधिकशततममण्डलगताटाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरयोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपा दागा तस्साइपएसाए इति तस्य-सर्ववाह्यमण्डलगतस्योत्तरस्यार्द्धमण्डलादिप्रदेशमाश्रित्य सर्वबाह्यामुत्तरार्द्धमण्डलसंस्थि ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२६-२७] तिमुपसङ्कम्य धारं परति, स चादिप्रदेशादू शनैः २ सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरदक्षिणार्द्धमण्डलाभिमुखं स्था कथंचनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरदक्षिणार्द्धमण्डलसीमावां भवति, नतो बदा णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वबाह्यामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चार चरति, तब उत्तमकाष्ठां प्राप्ता (परमप्रकर्षगा) उत्क[र्षिका उत्कृष्टा अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहूर्तों दिवसः, 'एस 'मित्यादि, निगमनवाक्यं प्राग्वत्, सास पविसमाणे इत्यादि, सूर्यः सर्ववाह्योत्तरार्द्धमण्डलादिप्रदेशादूर्व शनैः शनैः सर्वबाह्यानन्तरद्वितीयदक्षिणार्द्धमण्ड लाभिमुखं सामन् तस्मिन्नेवाहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति अभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददानो द्वितीयस्य षण्मासस्था प्रथमेऽहोरात्रे उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविसर्वबाह्यमण्डलगतादन्तरात् सर्वबाह्यान्तरार्द्धमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरार्वाग्भावियोजनदयप्रमाणादपान्तरालरूपानागात् 'तस्साइपएसाए'इति तस्य-दक्षिणदिग्भा-II विनः सर्ववाहानन्तरस्य दक्षिणस्यार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'बाहिराणंतरंति सर्ववाहास्य मण्डलस्यानन्तरामभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति, अत्रापि धार आदिप्रदेशादूर्व तथा कथंचनाच्यभ्यन्तराभिमुख बचते येनाहोराधपर्यन्ते सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरस्य तृतीया मण्डलस्य सीमायां भवति, 'ता जया ण'मित्यादि, ततो दहा सूर्यो बाह्यानन्तरा-सर्ववाह्यादनन्तरांदक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्गम्य चार चरति तदा अष्टादशमुहर्ता रात्रि - मुहकपष्टिभागाभ्यामूना भवति, द्वादशमुहर्चप्रमाणो दिवसोहाभ्यां मुह कषष्टिभामाभ्यामधिकः 'से पविसमा मावि मतामियाहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन द्वितीयस्व पण्मासस द्वितीयेोराने दक्षिणमादामाद SACROS24* FitraalMAPINANORN ~50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२६-२७] सूर्यप्रज्ञ-18क्षिणदिग्भाविनोऽन्तरादक्षिणदिग्भाविसर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरा- १प्राभृते लोग्भावियोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपानागाद्विनिःसृत्य तस्साइपएसाए'इति तस्य-सर्वबाह्यादभ्यन्तरस्य तृतीयस्योत्त *३प्राभृत(मल.) प्राभृतं रार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशात्-आदिप्रदेशमाश्रित्य बाह्यतृतीयां सर्वबाह्याया अर्द्धमण्डलसंस्थितेस्तृतीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थि॥ १९॥ तिमुपसङ्गम्य चारं चरति, अत्रापि चार आदिप्रदेशादारभ्य शनैः शनैरपरार्द्धमण्डलाभिमुख तथा कथंचनापि प्रवर्त्तमानो द्रष्टIव्यो येन तदहोरात्रपर्यन्ते सर्वबाह्यादर्द्धमण्डलाततीयामर्वातनीमर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुह तो रात्रिश्चतुर्भिर्मुहर्तेकपष्टिभागैरूना भवति, द्वादशमुहर्त्तश्च दिवसश्चतुर्भिर्मुहूर्त्तकषष्टिभागैरभ्यधिका, 'एच'मित्यादि, एवम्-उक्तप्रकारेण खलु-निश्चितमेतेनोपायेन-प्रत्यहोरात्रमभ्यन्तरमष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागयोजनद्वयविकम्पनरूपेण शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तराद् अर्द्धमण्डलात् तदनन्तरां तस्मिन् २ प्रदेशे दक्षिणपूर्वभागे उत्तरापरभागे |वा ता तामर्द्धमण्डलसंस्थितिं सङ्क्रामन् द्वितीयस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशततमाहोरात्रपर्यन्ते गते उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविनोऽन्तरात्सर्वबाह्यमण्डलमपेक्ष्य यद् यशीत्यधिकशततम मण्डलं तद्गताष्टाचत्वारिंशद्योजनकपष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तराभ्यन्तरयोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाडागात् 'तस्साहपएसाए इति तस्य-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतस्य दक्षिण ॥१९॥ | स्वार्द्ध मण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति, स चादिप्रदेशादूर्व शनैः शनैः सर्वाभ्यन्तरानन्तरवाह्योत्तरार्द्धमण्डलाभिमुखं तथा कथश्वनापि चार प्रतिपद्यते येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरानन्तरस्योत्तरस्यार्द्धमण्डलस्य सीमायां भवति, 'ताजया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणा Fhi ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] मर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य पारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षका उत्कृष्टः अष्टादशमहप्रमाणो दिवसो भवति, सर्वजघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, 'एस ण'मित्यादि, निगमनवाक्यं प्राग्वत्, तदेवमुक्ता दक्षिणा अर्द्धमण्डलसंस्थितिः । साम्प्रतमुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिं जिज्ञासुः प्रश्नयति-ता कहं ते इत्यादि, एतत्प्राग्वद् व्याख्येयं, 'ता जयाण'-17 मित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चार चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्चा रात्रिः, 'जहा दाहिणा तह चेव'त्ति यथा दक्षिणा अर्द्धमण्ड|लव्यवस्थितिः प्रागभिहिता तथा चैव-तेनैव प्रकारेणैषाऽप्युत्तरार्द्धमण्ड लज्यवस्थितिराख्येया, नवरं 'उत्तरे ठिओ अम्भितराणतरं दाहिणं उवसंकमइ, दाहिणाओ अम्भितरं तचं उत्तरं उवसंकमइ, एएणं उवाएणं जाव सबबाहिरं दाहिणं उव-18 संकमइ, सबबाहिराओ बाहिराणतरं उत्तरं उवसंकमइ, उत्तराओ बाहिरं तच्चं दाहिणं तच्चाओ दाहिणाओ संकममाणे २. जाव सबभंतरमुत्तरं उवसंकमई'इति, नवरमयं दक्षिणार्द्धमण्डलव्यवस्थितेरस्यामुत्तरार्द्धमण्डलव्यवस्थायां विशेषो-यदुत सर्वाभ्यन्तरे उत्तरस्मिन्नर्द्धमण्डले स्थितः सन् तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते नव संवत्सरमाददानः प्रथमस्य षण्मासस्य प्रथमेडहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरां सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, तस्मिन्नहोरात्रेऽति-18 कान्ते प्रथमस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरतृतीयां सर्याभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयामुत्तराम मण्डलसंस्थिति-12 मुपसङ्कामति, एवं खल्वनेनोपायेन प्रागिव तावद् वक्तव्यं यावत्प्रथमस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे पर्यवसानभूते सर्वबाह्या दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, एतत्प्रधमस्य षण्मासस्य पर्यवसानं, ततो द्वितीयस्य षण्मासस्य दीप अनुक्रम [२६-२७] -- - %A8 F OR ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२६-२७] सूर्यप्रज्ञ- प्रथमेऽहोरात्र बाह्यानन्तरां सर्ववाह्यस्य मण्डलस्याक्तिनीमुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रामति ततस्तस्मिन्नहोरात्रेऽविमन्ते | सिवृत्तिः द्वितीयस्य षण्मासस्थाऽहोरात्रे उत्तरस्या अर्द्धमण्डलसस्थितेर्विनिःसृत्य बाह्यतृतीयां सर्वबाह्यस्य मण्डलस्याकिनी तृतीयां १माभृते २प्राभृत(मल०) दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, तस्याश्च तृतीयस्या दक्षिणस्था मर्द्धमण्डलसंस्थितेरेकैकेनाहोरात्रेकम्मर्द्धमण्डलसं प्राभूत ॥२०॥ स्थिति सङ्क्रामन् २ तावदवसेयो यावद् द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुक्सका मति, तदेवं दक्षिणस्या अर्द्धमण्डलसंस्थितेः उत्तरस्यामईमण्डलसंस्थिती नानात्वमुपदर्शितं, एतदनुसारेण च स्वयमेव रसूत्रालापको यथावस्थितः परिभावनीयः, सचैवं 'से निक्खममाणे सूरिए नव संवच्छरमयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि २उत्तराए मैं अंतराए भागाए तस्साइपएसाए अम्भितराणतरं दाहिणं अद्धमंडलं संठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, जारिए। | अभितराणंतरं दाहिणं अवमंडलसंठितिं उबसंकमित्ता चारं चरति तया णं अवारसमुहुचे दिवसे भवति दोहि पाहि| भागमुहत्तेहि अणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहि एयष्टिमागमुहुत्तेहिं अहिया, से निक्सममाणे सूरिए दोमंसि बहो रत्तंसि दाहिणार अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए अभितरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई नवसंकमित्ता चारं पति, व्या गं अहारसमुहुत्ते दिवसे भवति चाहिं एगडिभागमहत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवति घनहिं पाहिभागमा हुसेहि अहिया, एवं खलु एएणं उवाणं निक्खममाणे सूरिए तयाणतराओ तयागंतरं संसि तंसि देससि सं सदम-3॥२०॥ डलसंठिई संकममाणे उत्तराप भागाए' तस्साइपएसाप सबबाहिरं दाहिणमद्धमंडलसंलिई स्वसंकमिचा चारं काति, सा जया णं सूरिप सबबाहिरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिड्भुवसंकमिता चारं घरतितका गं उच्चमडक्या उछोडिया अकारस सकर ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३]] दीप अनुक्रम [२६-२७] कामुहुत्ता राई भवति, जहाए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, एस पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स फवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासमयमाणे पढमंसि अहोरत्तैसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिराणमातरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिइमुवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सूरिए वाहिराणतरं उत्तरं अनमंडलसंठिइमुवसंकमित्ता चारं चरति तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहि य एगहिभागमुहुत्तेहि ऊणा दुवालसमुहत्ते दिवसे भवा चर(दो)हिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएक पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं तंसि तसि देससि तं ते अद्धमंडलसंठिई संकममाणे दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए सबभंतरं उत्तरं अहमंडलसंठिइमुवसंकमित्ता चार चरइ, ता जया णं सूरिए सबभंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चार चरइ तथा उत्तमकङ्कपत्ते उकोसिए अद्वारसमहत्ते दिवसे भवति, जानिया वालसमहत्ता राई भवतित्ति, एस णं दुचे छम्मासे इत्यादि प्राग्वत्, इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभूतस्य प्राभूतप्राभृतं २ समाप्त तदेवमुक्तं द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं, सम्पति तृतीयमभिधातव्यं, तत्र चार्थाधिकारश्चीर्णपतिचरणं, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह|ता के ते चित्रं पद्धिचरति आहितेति वदेजा, तत्थ खलु श्मे दुवे सूरिया पं०, तं०-भारहे चेव सूरिए एरवए चेव सूरिए, ता एते ण दुधे मूरिए पत्तेयं २तीसाए २ मुहत्तेहिं एगमेगं अद्धमंडलं चरंति, सट्ठीए २ कामुत्तेहिं एगमेगं मंहलं संघातंति, ता णिक्खममाणे खलु एते दुवे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिण्ण पडि-| चिरति, पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिण्णं पटिचरंति, तं सतमेगं चोतालं,तत्थ के हेऊ ॐ wwwjainettiraryam | अत्र प्रथमे प्राभूते प्राभूतप्राभूतं- २ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभूते प्राभूतप्राभूतं- ३ आरभ्यते ~544 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [२८] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [१४] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ- ४ वदेज्जा ?, ता अग्रवणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, तत्थ णं तत्थ णं अयं भारहए चैव सूरिए जंबुद्दीवस्स सिवृत्तिः २ पाईणपडिणापतउदीर्णदाहिणायताए जीवाय मंडलं चडवीस एणं सतेणं छेत्ता दाहिणपुरत्थिमिलंसि बड( मल०) भागमंडलसि बाणउतियसूरियमताएं जाई अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरति, उत्तरपचत्थिमेहंसि च भागम॥ २१ ॥ २ ढलंसि एक्काणउति सूरियमताई जाई सूरिए अप्पणो चेव चिण्णं पडिचरति, तत्थ अयं भारहे सूरिए एरवतस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स २ पाईणपडिणीपायताए उदीणदाहिणायताएं जीवाए मंडलं चडवीसएणं सतेणं छेत्ता उत्तरपुरथिमिलंसि च भागमंडलसि बाणउति सूरियमताई जाव सूरिए परस्स चिण्णं पडिचरति, दाहिणपञ्चत्थमेसि चभागमंडलंसि एकूणणउतिं सूरियमताई जाई सृरिए परस्स चेच चिण्णं पडिचरति, तत्थ अयं एरवए सूरिए जंबुद्दीवरस २ पाईणपडिणायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडल चडवीसणं सतेणं छेत्ता उत्तरपुरत्थिमिहंसि चन्भाग मंडलसि बाणउति सूरियमयाई जाव सूरिए अप्पणी चेव चिण्णं पडियरति दाहिणपुरथिमिलंसि च भागमंडलंसि एक्काणउतिसूरियमताई जाव सूरिए अप्पणो चैव चिण्णं पडिचरति, तत्थ णं एवं एरवतिए सूरिए भारहस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स पाईणपडिणायताप उदीर्णदाहिणायताएं जीवाए मंडलं चडवीसएणं सतेणं छित्ता दाहिणपचत्थिमेल्लंसि च भागमं| डलंसि बाणउर्ति सूरियमताई सूरिए परस्स चिण्णं पडिचरति, उत्तरपुरत्धिमेल्लुंसि च भागमंडलंसि एकाउर्ति सुरियमताई जाई सूरिए परस्स चैव चिण्णं पडिचरति, ता निक्खममाणे खलु एते दुबे सूरिया णो Jan Eaton inmatinal F&P Us On ~ 55~ १ प्राभूते ३ प्राभृतप्राभृर्त ॥ २१ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] 46496SROSCOM अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति, पविसमाणा खल्लु एते दुवे सूरिया अण्णमपणस्स चिण्णं पडिचरंति, सतमेगं चोतालं । गाहाओ (सूत्रं)१४॥ तइयं पाहुड पाहुई सम्मत्तं ॥ | 'ता के ते'इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, कस्त्वया भगवन् ! सूर्यः स्वयं परेण वा सूर्येण चीर्ण क्षेत्रं प्रतिचरति-प्रतिचरन् आख्यात इति वदेत् ?, एवं भगवता गौतमेनोके भगवान् वर्द्धमानस्वामी आह-तत्व'इत्यादि, तत्र-अस्मिन् जम्बूद्वीपे परस्परं चीर्णक्षेत्रप्रतिचरणचिन्तायां खलु-निश्चितं यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमधिकृत्येमौ द्वौ सूयौं प्रज्ञप्ती, तद्यथा-भारतश्चैव सूर्यः ऐरावतश्चैव सूर्यः, 'ता एए णमित्यादि, तत एतौ णमिति वाक्यालङ्कारे द्वौ सूर्यों प्रत्येक | त्रिंशता मुहूरेकैकमर्द्धमण्डलं चरतः पथ्या २ मुहूर्तः पुनः प्रत्येकमेकैकं परिपूर्ण मण्डलं 'ससातयतः'पूरयतः 'ता निक्खममाणा'इत्यादि, ता इति तत्र सूर्यसत्कैकसंवत्सरमध्ये इमो द्वावपि सूयौँ सर्वाभ्यन्तराममण्डलान्निष्क्रामन्ती नोऽन्योऽन्यस्थ-परस्परेण चीर्ण क्षेत्र प्रतिचरतः, नैकोऽपरेण चीर्ण क्षेत्रं प्रति चरति, नाप्यपरोऽपरेण चीर्णमिति भावः, इदं स्थापनावशादवसेयं, सा च स्थापना इयम्- । सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरी प्रविशन्ती द्वावपि खलु सूर्यावन्योअन्यस्य-परस्परेण चीर्ण प्रतिचरतः, तद्यथा-शतमेकं चतुश्चत्वारिंशं, किमुक्तं भवति -यैश्चतुर्विंशत्यधिकशतसौभाग-1 मण्डलं पूर्यते तेषां चतुश्चत्वारिंशदधिकशतमुभयसूर्यसमुदायचिन्तायां परस्परेण चीर्णप्रतिचीर्ण प्रतिमण्डलमवाप्यते | इति, एतदवगमार्थ प्रश्नसूत्रमाह-'तत्थ को हेतू'इति, 'तत्र एवंविधाया वस्तुतत्वव्यवस्थाया अवगमे को हेतुः, का उपपत्तिरिति ?, अनार्थे भगवान् वदेत् , अत्र भगवानाह–ता अयण्ण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपस्वरूपप्रतिपादकं वाक्यं | अनुक्रम [૨૮] ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल० प्रत प्राभृते प्राभृतप्राभूत पूर्ववत् स्वयं परिपूर्ण परिभावनीयं तत्थ ण'मित्यादि, तत्र जम्बूद्वीपे णमिति प्राग्वत् , 'अयं भारहे चेक रिप इति | सर्वबाह्यस्य मण्डलस्य दक्षिणस्मिन्नर्द्धमण्डले यश्चारं चरितुमारभते स भरतक्षेत्रप्रकाशकत्वादारत इत्युच्यते, यस्त्वितर-1 स्तस्यैव सर्ववाह्यस्य भण्डलस्योत्तरस्मिन्नमण्डले चारं चरति स ऐरावतक्षेत्रप्रकाशकत्वादैरावतः, तत्रार्य प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो जम्बूद्वीपस्य सम्बन्धी भारतः सूर्यो यस्मिन् मण्डले परिभ्रमति तत्तन्मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-8 विभज्य चतुर्विशत्यधिकशतसकलान् भागान् तस्य २ मण्डलस्य परिकल्प्येत्यर्थः, सूर्यश्च प्राचीनापाचीनायतया उदगदक्षिणायतया च जीवया-प्रत्यया दवरिकया इत्यर्थः, तन्मण्डलं चतुर्भािगविभज्य दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्व आग्नेये| कोणे इत्यर्थः 'चम्भागमंडलंसि'त्ति प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययो मण्डलचतुर्भागे-तस्य तस्य मण्डलस्य चतुर्थे भाये सूर्यसंवत्सरसत्कद्वितीयषण्मासमध्ये द्विनवति सूर्यगतानि-द्वानवतिसङ्ग्यानि मण्डलानि स्वयं सूर्येण गतानि-चीर्णानि, किमुक्त भवति :-पूर्व सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्निष्कामता स्वचीर्णानि प्रतिचरतीति गम्यते, एतदेव व्याचष्टे-'जाई. सरिए अप्पणा चिण्णं पडियर' इति यानि सूर्य आत्मना-स्वयं पूर्व सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानिष्क्रमणकाळे इतिशेषा, चीर्णानि प्रतिचरति, तानि च द्विनवतिसक्दानि मण्डलानि चतुर्भागरूपाणि चीर्णानि प्रतिचरति, न परिपूर्णचतुर्भागमात्राणि, किन्तु स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसत्काष्टादशाष्टादशभागप्रमितानि, ते चाष्टादशाष्टादशभागा न सर्वव्यापि मण्ड- H लेषु प्रतिनियते एक देशे, किन्तु कापि मण्डले कुत्रापि, केवलं दक्षिणपौरस्त्यरूपचतुर्भागमध्ये ततो 'दाहिणपुरस्थिमसिपउभागमंडलंसी'त्युक्तम्, पवमुत्तरेष्वपि मण्डलचतुर्भागवष्टादशभागप्रमितत्वं भावनीय, स एव भारतः सूर्यस्तेषामेष अनुक्रम [૨૮] ॥२२॥ ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] द्वितीयानां षण्मासानां मध्ये उत्तरपश्चिमे चतुर्भागमण्डले-मण्डलचतुर्भागे एकनवतिसङ्ग्यानि मण्डलानि स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसत्काष्टादशाष्टादशभागप्रमितानि 'खर्यमतानि स्वयं सूर्येण पूर्व सर्वाभ्यन्तराममण्डलानिष्क्रमणकाले चीर्णानि प्रतिचरतीति गम्यते, एतदेव व्याचष्टे-'जाई सूरिए अप्पणा चेव चिपणाई पहिचरति एतत्पूर्ववद् व्याख्येयं, इह सर्वबाह्यान्मण्डलात् शेषाणि मण्डलानि त्र्यशीत्यधिकशतसङ्ख्या नि तानि च द्वाभ्यामपि सूर्याभ्यां द्वितीयषण्मासमध्ये प्रत्येकं परिभ्रम्यन्ते, सर्वेष्वपि च दिग्विभागेषु प्रत्येकमेकं मण्डलमेकेन सूर्येण परिभ्रम्यते द्वितीयमपरेण एवं यावत्सर्वान्तिम मण्डल, तत्र दक्षिणपूर्व दिग्भागे द्वितीयषण्मासमध्ये भारतः सूर्यों द्विनवतिमण्डलानि परिचमति, एकनवतिमण्डलानि ऐरावतः, उत्तरपश्चिमे दिग्विभागे द्विनवतिमण्डलाम्पैरावतः परिभ्रमति, एकनबतिमण्डलानि भारतः, एतश्च पट्टिकादी मण्डलस्थापनां कृत्वा परिभावनीयं, तत उक्तम्-दक्षिणपूर्वे द्विनवतिसङ्ग्यानि मण्डलानि उत्तरपश्चिमे वेकनवतिसक्यानि भारतः स्वयं चीर्णानि प्रतिधरतीति । तदेवं भारतसूर्यस्य स्वीयं चीर्णप्रतिभरणपरिमाणमुकमिदानीं तस्यैव भारतसूर्यस्य परचीर्णप्रतिचरणपरिमाणमाह-तत्थ य अयं भारहे'इत्यादि, 'तत्र'जम्बूद्वीपे 'अयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो जम्बूद्वीपसम्बन्धी भारतः सूर्यों यस्मिन् मण्डले परिश्रमति तत्तन्मण्डल चतुर्विशत्यधिकेन भाग-1 शतेन छित्त्वा भूयश्च प्राचीनापाचीनायव्रया उदीच्यदक्षिणायतया च जीवया तत्तन्मण्डलं चतुर्भिविभक्य सत्तरपूर्वे ४ इंसाने कोणे इत्यर्थः 'चतुर्भागमण्डले'तस्य तस्य मण्डलस्य चतुर्थे भागे तेषामेव द्वितीयानां घमासानां मध्ये ऐरावदातस्य सूर्यस्य द्विनवतिसूर्यमतानि-द्विनवतिसकमान्यैरावतेन सूर्येण पूर्व निष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्रतिचरति, एतदेव अनुक्रम [२८] F OR ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यमज्ञप्तिवृत्तिः (मल) ॥२३॥ सुत्राक [१४] व्यक्तीकरोति-'जाई सूरिए परस्स चिण्णाई पडिचरई' यानि सूर्यों भारतः 'परस्स चिन्नाई इत्यत्र षष्ठी तृतीयार्थे परेण- १ प्राभृते ऐरावतेन सूर्येण निष्क्रमणकाले चीर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपश्चिमे च मण्डलचतुर्भागे एकनवर्ति-एकनवतिसङ्ग्यानि ||३ प्राभृतऐरावतस्य सूर्यस्येत्यत्रापि सम्बध्यते, ततोऽयमर्थः-ऐरावतस्य सूर्यस्य सम्बन्धीनि सूर्यमतानि, किमुक्तं भवति -ऐराव प्राभूत तेन सूर्येण पूर्व निष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्रतिचरति, एतदेवाह-'जाई सूरिए परस्स चिपणाई पडियरई एतत्पूसर्ववत् व्याख्येयं, अत्राप्येकस्मिन् विभागे द्विनवतिरेकस्मिन् भागे एकनवतिरित्यत्र भावना प्रागिव भावनीया, तदेवं भारतः सूर्यो दक्षिणपूर्वे द्विनवतिसयानि उत्तरपश्चिमे एकनवतिसङ्ख्यानि स्वयं चीर्णानि उत्तरपूर्वे द्विनवतिसक्यानि दक्षिणप|श्चिमे एकनवतिसक्यान्यैरावतसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीत्युपपादित, सम्प्रति ऐरावतः सूर्य उत्तरपश्चिमदिग्भागे द्विनवतिस यानि मण्डलानि दक्षिणपूर्व एकनवतिसङ्ग्यानि स्वयं चीर्णानि दक्षिणपश्चिमे द्विनवतिसक्यान्युत्तरपूर्षे एकनवतिसक्यानि भारतसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीत्येतत्प्रतिपादयति-तत्य अयं एरवए सूरिए'इत्यादि, एतच्च सकलमपि प्रागुक्तसूत्रव्याख्यानुसारेण स्वयं व्याख्येयं । सम्प्रत्युपसंहारमाह-'ता निक्खममाणा खलु'इत्यादि, अस्थायं भावार्थ:-ह भारतः सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् प्रतिमण्डल द्वौ चतुर्भागौ स्वयं चीणों प्रतिचरति द्वौ तु परचीौँ ऐरावतोऽप्यभ्यन्तरं प्रविशन् | प्रतिमण्डलं द्वौ चतुर्भागी स्वचीणों प्रतिचरति द्वौ तु परचीर्णाविति सर्वसङ्ख्यया प्रतिमण्डलमेकैकेनाहोरात्रद्वयेन उभय ॥२३॥ सूर्यचीर्णप्रतिचरणविवक्षायामष्टी चतुर्भागाः प्रतिचीर्णाः प्राप्यन्ते, ते च चतुर्भागाश्चतुर्विंशत्यधिकशतसत्काष्टादशभागप्रमिताः, एतच्च प्रागेव भावित, ततोऽष्टादशभिगुणिताश्चतुश्चत्वारिंशदधिक शतं भागानां भवति, तत एतदुकं भवति अनुक्रम [२८] ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] 'पविसमाणा खलु एए दुवे सूरिया अन्नमन्नस्स चिन्नं पडियरंति, तंजहा-सयमेगं चोयाल मिति, 'गाहाओ'ति, अत्राप्येतदर्थप्रतिपादिकाः काञ्चनापि सुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते, ताश्च व्यवच्छिन्ना इति कथयितुं न शक्यन्ते, यो वा यथा सम्प्रदायादवगच्छति तेन तथा वक्तव्याः। यदत्र कुर्वता टीका, विरुद्धं भाषितं मया । क्षन्तव्यं तत्र तत्त्वज्ञैः, शोध्यं तच्च विशेषतः ॥१॥" इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथमस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभूतप्राभृतं समाप्तम् || इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ३ समाप्त तदेवमुक्तं तृतीयं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति चतुर्थ वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकारः कियत्प्रमाणं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरत इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता केवइयं एए दुवे सूरिया अण्णमपणस्स अंतरं कटु चारं चरंति आहिताति वदेना, तत्थ खलु इमातो छ पडिवत्तीओ पण्णताओ, तत्थ एगे एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसत अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट सरिया चारं चरंति आहिताति बदेवा, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु-ता &ाएगं जोयणसहस्सं एग चउतीसं जोयणसयं अन्नमन्नस्स अंतरं कट्ठ सूरिया चार चरंति आहियत्ति वइज्जा, एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमाहंसु-ता एग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसय अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति आहिताति वदेजा, एगे एवमाहंसु ३, एवं एग समुदं अपणमण्णस्स अंतरं अनुक्रम [૨૮] अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभूते प्राभूतप्राभृतं- ४ आरभ्यते ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभूत [४], -------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- कटु ४, एगे दो दीवे दो समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु मूरिया चारं चरंति आहियाति वदेजा, एगे एक प्राभृते प्तिवृत्तिः माहेसु ५, एगे पुण एवमाहंसु तिणि दीवे तिण्णि समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति आहियाला प्राभृत (मल०) ति वएजा, एगे एचमाहंसु ६, वयं पुण एवं वयामो, ता पंच पंच जोयणा पणतीसं च एगट्ठिभाये जोषणस्स माभूत ॥२४॥ साएगमेगे मण्डले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिषद्वेमाणावा निवडेमाणा वा सूरिया चारं चरति । तत्थ कोहे आहिताति वदेज्जा , ता अयपणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते, ता जया णं एते दुवे सूरिया सचम्मतरमंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तदा णं णवणउतिजोयणसहस्साई छच्चत्ताले जोयणसते अण्णमण्णस्स अंतरं कहु चारं घरंति आहिताति वदेवा । तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति, जहपिणया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, ते निक्खममाणा सूरिया णवं संवच्छर अयमाणा पढ़मंसि अहोरसि अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरंति, ता जता णं एते दुवे सूरिया' अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमिसा चारं चरति तदा णं नवनवति जोयणसहस्साई छच पणताले जोयणसते पणवीसं च एगहिभागे जोयणस्स अण्णमपणस्स अंतरं कट्टचारं चरंति आहिताति वदेजा, तता णं अट्ठारसमुहले दिवसे भवति दोहिं एगट्टिभागमुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमहत्ता राती भवति दोहि.एमविभागमुत्तेहि अधिया, ते णिक्खममाणे सूरिया दोचंसि अहोरसि अभितरं तचं मंडलं जवसंकमिशा चारं चरंति ना| जता दुवे सूरिया अम्भितरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तया णं नवनवई जोपणसहस्साई -1 +% अनुक्रम % [२९] % ॥२४॥ % * FridaIMAPIVARANORN ~61 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [४], -------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] कावणे जोयणसए नव य एगहिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टचारं चरति आहियसि वइज्जा, तदा Xणं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवह चाहिं एगहिभागमुहसेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवई चाहिं एगट्ठिभाग-1 मुहुत्तेहिं अधिया, एवं खलु एतेणुवाएणं णिक्खममाणा एते दुवे सूरिया ततोणंतरातो तदातरं मंडलातो मंडलं संकममाणा २पंच २ जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवद्धेमाणा २ सबबाहिरं मंडलं जबसंकमिसा चारं चरति, तता गं एग जोयणसतसहस्सं छच सट्टे जोयणसते अण्णमण्णस्स अंतरं कह चारं परति, ससाणं उत्तमकट्ठपसा उचोसिया अट्ठारसमुहसा राई भवा, जहण्णए दुवालसमुहले दिवसे भवति, एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, ते पविसमाणा सूरिया दोचं छम्मासं अयमाणा पढमंसि अहोरसंसि बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता पारं चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिराणंतरं मंडलं उपसंकमिशा चारं चरति तदा णं एग जोयणस-1 यसहस्सं छच्च चउप्पण्णे जोयणसते छत्तीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कडे चारं चरंति आहिताति चज्जा, तदा णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुसे दिवसे भवति दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए, ते पविसमाणा सरिया दोसि अहोरत्तैसि बाहिरं तचं मंडलं उपसंकमिशा चार चरंति, ता जता णं एते दुवे सूरिया बाहिरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तता णं एगं जोयणसयसहस्संच अख्याले जोयणसते पावपणं च एगविभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट चार ॐARA अनुक्रम [२९] ~62 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [४], -------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत मल. . . . . . सूत्रांक [१५]] सूर्यप्रज्ञ- चरंति तताणं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ चउहिं एगहिभागमुहत्तेहिं ऊणा दुधालसमुहत्ते दिवसे भवति चउहि १ प्राभृते प्तिवृत्तिः &ाएगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए। एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणा एते दुवे सरिया ततोऽणतरातो तदाणंतरं मंड- ४प्राभृत लाओमंडलं संकममाणा पंच २जोयणाई पणतीसे एगहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्संतरं णिबुढे- प्राभृतं ॥२५॥ माणा २ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, जया णं एते दुवे सूरिया सबभंतरं मंडलं उवसंकमिसा। चारं चरति तता णं णवणउति जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसते अण्णमण्णस्स अंतरं कह चारं चरंति, तता णं उत्तमकट्टपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहपिणया दुवालसमुहत्ता राई भवति, एस णं दोचे छमासे एस णं दोबस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एस णं आइचे संवच्छरे, एस णं आइचसंवकछरस्स &ीपज्जवसाणे । (मूत्रं १५) चउत्थं पाहुडपाहुढं समत्तं ॥१-४॥ 'ता केवइयं एए दुवे सूरिया इत्यादि, 'ताइति प्राग्वत्, एतौ द्वावपि सूयौं जम्बूद्वीपगती कियत्प्रमाणं परस्पर-IA मन्तरं कृत्वा चारं चरतः, चरन्तावाख्याताविति भगवान् वदेत, एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति शेषकुमतविषय-||2 तत्त्वबुद्धिब्युदासार्थं परमतरूपाः प्रतिपत्तीर्दर्शयति-तत्व खलु इमाओ'इत्यादि, 'तत्र' परस्परमन्तरचिन्तायां खलु निश्चितमिमाः-वक्ष्यमाणस्वरूपाः षट् प्रतिपत्तयो-यथास्वरुचि वस्त्वभ्युपगमलक्षणास्तैस्तैस्तीर्थान्तरीयैः श्रीयमाणाः प्रज्ञप्ता, ४ता एव दर्शयति-तत्थेगे' इत्यादि, तेषां पण्णां तत्तत्प्रतिपत्तिमरूपकाणां तीथिकानांमध्ये एके तीर्थान्तरीयाः प्रथम स्वशिष्य || 20 प्रत्येवमाहुः-'ता एग'मित्यादि, ता इति पूर्ववद्भावनीयः, एक योजनसहस्रमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिकं योजनशतं परस्पर अनुक्रम EXERCENERA SEXEKX* [२९] ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [४], -------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] 55555 स्यान्तरं कृत्वा जम्बुद्वीपे द्वौ सूर्यो चार चरतश्चरन्तावाख्यातावितिस्वशिष्येभ्यो वदेत् , अत्रैवोपसंहारमाह-एके एव-18 माहुरिति, एवं सर्वत्राप्यक्षरयोजना कर्त्तव्या, एके पुनर्द्वितीयास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः-एक योजनसहस्रमेकं च चतुर्विंशचतुर्विंशदधिक योजनशतं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके तृतीयाः पुनरेवमाहुः-एक योजनसहस्रं एकं च पञ्चत्रिंशदधिक योजनशतं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके पुनश्चतुर्था एक्माहुः-एक द्वीप एकं च समुद्रं परस्परम न्तरं कृत्वा चार चरतः, एके पुनः पञ्चमा एवमाहुः-द्वौ द्वीपी द्वौ समुद्रौ परस्परमन्तरं कृत्वा चार चरतः, एके षष्ठाः मा पुनरेवमाहः-बीन् द्वीपान त्रीन समुद्रान् परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरत इति । एते च सर्वे तीर्थान्तरीया मिथ्यावादि-1 नोऽयथातत्त्ववस्तुव्यवस्थापनात् , तथा चाह-वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरासादितकेवलज्ञानलाभाः परतीथिकव्यवस्थापितवस्तुव्यवस्थाब्युदासेन 'एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमुपलभ्य वदामः, कथं वदथ यूयं भगवन्त इत्याह-ता पंचे'त्यादि, 'ता' इति आस्तामन्यद्वक्तव्यं इदं तावत्कथ्यते, द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यतरान्म-12 Mण्डलानिष्क्रामन्ती प्रतिमण्डल पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणे: ला अभिवर्द्धयन्ती वाशब्द उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चये 'निबुड्डेमाणा वा' इति सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्ती | प्रतिमण्डलं पञ्च पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य निर्वेष्टयन्तौ पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणात हापयन्ती, वाशब्दः पूर्वविकल्पापेक्षया समुच्चये, सूयौं चार चरतः, चरन्तावाख्याताविति स्वशिष्येभ्यो वदेत्, एवमुक्ते। भगवान् गौतमो निजशिष्यनिःशवित्तत्वव्यवस्थापनार्थ भूयः प्रश्नयति-तत्थ 'मित्यादि, तत्र एवंविधाया वस्तुतत्त्व अनुक्रम [२९] FitraalMAPINANORN ~64 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [४], -------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: H प्रत सुत्रांक [१५]] सूर्यप्रज्ञ- व्यवस्थाया अवगमे को हेतु:-का उपपत्तिरिति प्रसादं कृत्वा वदेव, भगवानाह-ता अयन'मित्यादि इदं जम्बदीप-12 १भाभृते प्तिवृत्तिः४ स्वरूपप्रतिपादक वाक्यं पूर्ववत्परिपूर्ण स्वयं परिभावनीयम् , 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे ४ प्राभृतमलाएतौ जम्बूद्वीपप्रसिद्धी भारतैरावती द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः तदा नवनवतियोजनसह- प्राभूत ॥२६॥ खाणि षट् योजनशतानि चत्वारिंशानि-चत्वारिंशदधिकानि परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः चरन्तावाख्याताविति चदेत, कथं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वयोः सूर्ययोः परस्परमेतावत्प्रमाणमन्तरमिति चेत् , उच्यते, इह जम्बूद्वीपो योजनलक्षप्रमाणविष्कम्भस्तत्रैकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य मध्ये अशीत्यधिक योजनशतमवगाझ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरति, | द्वितीयोऽप्यशीत्यधिक योजनशतमवगाह, अशीत्यधिकं च शतं द्वाभ्यां गुणितं त्रीणि शतानि षट्याधिकानि ३६०12 भवन्ति, पतानि जन्यूहीपे विष्कम्भपरिमाणाल्लक्षरूपादपनीयन्ते, ततो यथोक्तमन्तरपरिमाणं भवति, 'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरे द्वयोरपि सूर्ययोश्चरणकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्त:-परमप्रकर्षप्राप्तः उत्कर्षकः-उत्कृष्टो अष्टादशमुहूतों दिवसो भवति, जघन्या-सर्वजघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः 'ते निक्खममाणा' इत्यादि ततस्तस्मात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला|सी बावपि सूर्यों निकामन्तौ नवं सूर्यसंवत्सरमाददानौ नवस्य सूर्यसंवत्सरस्थ प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानग्तरमिति सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलादनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरतः सा जया ण'मित्यादि ततो यदा एतौ द्वावपि सूर्यों सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतस्तदा नवनवतियोजनसहस्राणि षट् कतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि योजनानां पश्चत्रिंशतं चैकषधिभागान् योजनस्येत्येतावत्प्रमाण परस्परमन्तरं कृत्वा चारं अनुक्रम [२९] EA564 JAINER nintimalsina FhiraMAPIVARAuNORE ~65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ----------------- प्राभृतप्राभूत [४], ------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] 4444SAROADS चरतश्चरन्तावाख्याताविति वदेत् , तदा कथमेतावत्प्रमाणमन्तरमिति चेत् ?, उच्यते, इह एकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्य अपरे च द्वे योजने विकम्प्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले चरति, एवं द्वितीयोऽपि, ततो हे योजने अष्टाचत्वारिंशकषष्टिभागा योजनस्येति द्वाभ्यां गुण्यंते, गुणिते च सति | पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येति भवति, एतावदधिकं पूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्र प्राप्यते, ततो यथोक्तमन्तरपरिमाणं भवति, 'तया णमित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचार चरणकालेऽष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, द्वाभ्यां 'एगविभागमुहत्तेहि ति मुहकपष्टिभागाभ्यामूनो, द्वादशमुहर्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहूत्तकपष्टि-12 भागाभ्यामधिका, 'ते निक्खममाणा'इत्यादि, ततस्तस्मादपि द्वितीयान्मण्डलान्निष्कामन्तौ सूर्यो नवस्य सूर्यसंवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरस्य-सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः 'ता जया ण'मित्यादि, ततो यदा णमिति पूर्ववत् , एतौ द्वौ सूर्यो अभ्यन्तरतृतीयं-सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः, 'तदा' तस्मिंस्तृतीयमण्डलचारचरणकाले नवनवतियोजनसहस्राणि षट् च शतानि एकपञ्चाशदधिकानि योजनानां नव चैकषष्टिभागान योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतश्चरन्तावाख्याताविति वदेत् , तदा कथमेतावत्प्रमाणम-18 न्तरकरणमिति चेत् ?, उच्यते, इहाप्येकः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरद्वितीयमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वे योजने विकम्प्य चारं चरति, द्वितीयोऽपि, ततो देयोजने अष्टाचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येति द्वाभ्यां गुण्यते, द्विगुणमेव पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशबैकपष्टिभागा योजनस्पति भवति, एतावत्पूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादवाधिक अनुक्रम [२९] ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२९] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [४], मूलं [१५] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञतिवृत्तिः ( मल०) B. २७ ॥ प्राप्यते इति भवति यथोक्तमत्रान्तरपरिमाणं, 'तया णमित्यादि, यदा सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् तृतीये मण्डले चारं चरतस्तदा अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति, चतुर्भिः 'एमट्टिभागमुहृतेहिं' प्राकृतत्वात्पद व्यत्यासः, ततोऽयमर्थः - मुहूत्तैकपष्टिभागैरुनो, द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिश्चतुर्भिर्मुह तक पष्टिभागैरधिका, एव' मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण खलु निश्चितमेतेनोपायेन २ प्रतिमण्डलमेकतोऽप्येकः सूर्यो द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकपष्टिभागान् विकम्प्य चारं चरति, अपरतोऽप्यपरः सूर्य इत्येवंरूपेण निष्क्रामन्तौ तौ जम्बूद्वीपगतौ द्वौ सूर्यो पूर्वस्मात्पूर्वस्मात्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन्ती एकैकस्मिन् + मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणापेक्षया पश्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमभिवर्द्धयन्तावभिवर्द्धयन्तौ नवसूर्यसंवत्सरस्य त्र्यशीत्यधिकशततमेऽहोरात्रे प्रथमषण्मासपर्यवसानभूते सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः, 'ता जया ण'मित्यादि ततो यदा एतौ द्वौ सूर्यो सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः तदा तावेकं योजनशतसहस्रं षट् च शतानि षष्यधिकानि १००६६० परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, कथमेतदव सेयमिति चेत् ?, उच्यते, इह प्रतिमण्डलं पश्ञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्यन्तरपरिमाणचिन्तायामभिवर्द्धमानं प्राप्यते, सर्वाभ्य अन्तराच मण्डलात्सर्ववाह्यं मण्डलं त्र्यशीत्यधिकशततमं ततः पञ्च योजनानि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि योजनानां ९१५, एकषष्टिभागाश्च पञ्चत्रिंशत्सङ्ख्या अशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातानि तेषां चतुःषष्टिशतानि पञ्चोत्तराणि ६४०५, तेषामेकषष्ट्या भागे हृते लब्धं पश्चोत्तरं योजनशतं १०५, एतत्प्राक्तने योजनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि दश शतानि विंशत्यधिकानि योजनानि १०२०, एतत् सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतोत्तर परिमाणे Jan Eiration Intimanal F&P On ~67~ १ प्राभृते ४ प्राभूतप्राभृतं ॥ २७ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [४], -------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % A प्रत सूत्रांक [१५] | नवनवतियोजनसहस्राणि षट् शतानि चत्वारिंशदधिकानि ९९६४० इत्येवंरूपे प्रक्षिप्यते, ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डले अन्तरपरिमाणं भवति, 'तया ण'मित्यादि तदा सर्वबाह्यमण्डलचारचरणकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-परमप्रकर्षप्राप्ता उत्कृष्टा अष्टादशमहा रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहत्तों दिवसः, 'एस णं पढमे छम्मासे इत्यादि प्राग्वत, 'ते पविस-12 माणा'इत्यादि, तो ततः सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ द्वौ सूर्यों द्वितीयं षण्मासमाददानी द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे बाह्यानन्तरं-सर्वबाह्यान्मण्डलादागनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतस्तदा एक योजनशतसहस्रं षट् शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि षड्विंशतिं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, चरन्तावा| ख्यातावितिबदेत् , कथमेतावत्तस्मिन् सर्ववाह्यान्मण्डलादतिने द्वितीये मण्डले परस्परमन्तरकरणमिति चेत् ?, उच्यते, इहैकोऽपि सूर्यः सर्ववाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान योजनस्थापरे च द्वे योजने अभ्यन्तरं प्रविशन् सर्वबाह्यामण्डलादर्वातने द्वितीये मण्डले चारं चरति, अपरोऽपि, ततः सर्वबाह्यगतादष्टाचत्वारिंशदतरपरिमाणाद् अत्रान्तरपरिमाणं पञ्चभियोजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्योनं प्राप्यते इति भवति यथोक्तमत्रान्तरपरिमाणं,'तया णमित्यादि, तदा सर्ववाह्यानन्तरावाक्तनद्वितीयमण्डलचारचरणकालेऽष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, द्वाभ्यां मुहूत्र्तकषष्टिभागाभ्यामूना, द्वादशमुहूत्तों दिवसो द्वाभ्यां मुह कषष्टिभागाभ्यामधिकः, 'ते पविसमाणा इत्यादि, ततस्तस्मादपि सर्ववाह्यमण्डलाक्तिन| द्वितीयमण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ तौ द्वौ सूयौं द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरं तचंति सर्वबाह्यान्मदण्ड लादाक्तनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः 'ता जया णमित्यादि तत्र यदा एतौ द्वी सूर्यो सर्वबाह्यान्मण्ड ॐॐॐ** अनुक्रम [२९] * ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२९] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [४], मूलं [१५] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः ( मल० ) ॥ २८ ॥ लादर्वाक्तनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः तदा एकं योजनशतसहस्रं षट् च योजनशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि द्विपञ्चाशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, प्रागुक्तयुक्त्या पूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्रान्तरपरिमाणमस्य पश्चभियोजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागर्योजनस्य हीनत्वात्, 'तया ण'मित्यादि, तदासर्वबाह्यान्मण्डलादवतनतृतीय मण्डलचारचरणकालेऽष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, चतुर्भिर्मुहूर्त्ते कषष्टिभागैरूना, द्वादशमुहर्त्ता दिवसश्चतुर्भिरेकषष्टिभागैर्मुहर्त्तस्याधिकः । 'एवं खलु इत्यादि, एवम् उक्तप्रकारेण खड- निश्चितमनेनोपायेन एकतोऽप्येकः सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् पूर्वपूर्वमण्डलगता दन्तरपरिमाणादनन्तरे अनन्तरे विवक्षिते मण्डले अन्तरपरिमाण| स्याष्टाचत्वारिंशतमेकप ष्टिभागान् द्वे च योजने वर्धयति हापयत्यपरतोऽप्यपरः सूर्य इत्येवंरूपेण एतौ जम्बूद्वीपगतौं सूर्यो तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन्तौ सङ्क्रामन्ती एकैकस्मिन् मण्डले पूर्वपूर्व मण्डलगतादन्तरपरिमाणात् अनन्तरेऽनन्तरे विवक्षिते मण्डले पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरपरिमाणं निर्वेष्टयन्तौ - हापयन्तौ हापयन्तावित्यर्थः, द्वितीयस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सूर्य संवत्सरपर्यवसानभूते सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा एतौ द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः तदा नवनवतियोजन सहस्राणि षट् योजनशतानि चत्वारिंशानि चत्वारिंशदधिकानि परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, अत्र चैवं रूपान्तरपरिमाणे भावना प्रागेव कृता, शेषं सुगमम् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम- प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ४ समाप्तं अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ४ परिसमाप्तं F&P On ~69~ १ प्राभृते ४ प्राभृतप्राभृतं ॥ २८ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [५], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] तदेवमुक्तं चतुर्थ प्राभृतपाभृतं सम्पति पञ्चममारभ्यते, तस्य चायं पूर्वमुपदर्शितोऽर्थाधिकारो-यथा कियन्त द्वीप समुद्रं वा सूर्योऽवगाहते इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहA ता केवतियं ते दीवं समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, आहितातिवदेवा, तस्थ खलु इमाओ अपंच पडिवत्तीओ पण्णताओ-एगे एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतं दीचं वा समुरं &ावा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु १, एगे, पुण एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एग चउ-ते. तीसं जोषणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु२, एगे पुण एवमाहंसु-ता एग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसतं दीवं वा समुदंवा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु & ३, एगे पुण एवमाहंसु-ता अबहुं दीवं वा समुदंवा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमाइंसु ४, एगे पुणही एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एग तेत्तीसं जोयणसतंदीवं वा समुई ओगादित्तासरिए चारं चरति ५० तत्थ जे ते एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीसं जोयणसतं दीवं वा समुदं वा उग्गाहित्ता सूरिए चारं चरति, ते एवमासु, जता णं सूरिए सबभतरं मंडलं उवसंकमिता चारं चरति तया णं जंबुद्दीवं एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई, ता जया णं सूरिए सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं लवणसमुई एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसपं ओगाहित्ता चारं अनुक्रम [३०] अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-५ आरभ्यते ~70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [३०] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [५], मूलं [१६] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ-चर, तया णं लवणसमुहं एवं जोयणसहस्सं एवं व तेत्तीस जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ, तया णं सिवृत्तिः ४ उत्तमक पत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहन्ता राई भवति, जहरिणए दुवालसमुत्ते दिवसे भव । एवं चोत्तीसं ( मल० ) है जोयणसतं । एवं पणतीसं जोयणसतं। (पणतीसेऽवि एवं चैव भाणियां) तस्थ जे ते एवमाहंसु ता अव दीवं वा ॥ २९ ॥ समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, ते एवमाहंसु-जता णं सूरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तताणं अवहं जंबुद्दीचं २ ओगाहित्ता चारं चरति, तता णं उत्तमकङ्कपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एवं सङ्घबाहिरएवि, णवरं अवद्धं लवणसमुद्दे, तता णं राईदियं तहेव, तत्थ जे ते एवमाहंसु-ता णो किञ्चि दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, ते एवमाहंसु-ता जता णं सूरिए सङ्घभंतरं मंडल उचसंकमित्ता चारं चरति तता णं णो किंचि दीव वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति तता णं उत्तमक पत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवति, तहेच एवं सवबाहिरए मंडले, णवरं णो किंचि लवणसमुदं ओगाहित्ता चारं चरति, रातिंदियं तहेव, एगे एवमाहंसु (सूत्रं १६ ) ॥ Eatont 'ता के वइयं दीवं समुद्धं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरह' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, 'कियन्तं' कियत्प्रमाणं द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, चरन्नाख्यात इति वदेत्, एवं प्रश्नकरणादनन्तरं भगवान्निर्वचनमभिधातुकाम एतद्विषये परतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावो पदर्शनार्थ प्रथमतस्ता एव परतीर्थिकप्रतिपत्तीः सामान्यत उपन्यस्यति'तत्थ खलु' इत्यादि, तत्र सूर्यस्य चारं चरतो द्वीपसमुद्रावगाहनविषये खल्विमाः- वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च प्रतिपत्तयः F&P ON ~71~ १ प्राभृते ५ प्राभृतप्राभृतं ॥ २९ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [५], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] 23929 -562 परमतरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एके तीर्थान्तरीया एक्माहुः–ता इति तावच्छन्दस्तेषां तीर्थान्तरीयानां प्रभूतवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः एक योजनसहस्रमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिक योजनशतं द्वीप समुद्र या अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, किमुक्तं भवति ?-यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एक योजनसहनमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिक योजनशतं जम्बूद्वीपमवगाय चारं चरति, तदा च परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, सर्वजघन्या च द्वादशमुहत्तों रात्रिः, यदा तु सर्ववाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरितुमारभते तदा लवणसमुद्रमेक योजनसहनमेकं च त्रयखि-श शदधिकं योजनशतमवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, तदा चोत्तमकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहर्तप्रमाणा रात्रिर्भवति, सर्वजघन्यो द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसः, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' १, एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः,'ता' इति पूर्ववत् , एक योजनसहस्रमेकं च चतुस्त्रिंशदधिक योजनशतं द्वीपं समुद्र वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, भावना प्राग्वत् , अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु', एके पुनस्तृतीया एवमाहुः-एक योजनसहस्रमेकं च पंचत्रिंशदधिकं योजनशतमवगाह्य सूर्यश्चार चरति अत्रापि भावना प्रागिव,अत्रैवोपसंहारमाह-एगेएवमाहंसु एके पुनश्चतुर्थास्तीर्थान्तरीया एवमाहुर, अवहुं'ति अप-ले गतं सदप्यवगाहाभावतो न विवक्षितमद्धे यस्य तमपार्द्धमर्द्धहीनमर्द्धमात्रमित्यर्थः, द्वीपं समुद्र वा अवगाह्य सूर्यचारं चरति, &ाइयमत्र भावना-यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डल मुपसङ्कम्य सूर्यश्चारं चरति तदा अझै जम्बूद्वीपमवगाहते, तदा च दिवसःX परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो भवति, सर्वजघन्याच द्वादशमुहूर्तप्रमाणारात्रिः, यदा पुनः सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्क्रम्य सूर्यश्चारं चरति तदा अर्द्ध अपरिपूर्ण लवणसमुद्रमवगाहते, तदा च सर्वोत्कर्षकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिः सर्व अनुक्रम [३०] ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [५], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- जघन्यो द्वादशमुहूत्तों दिवसः, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमासु'४, एके पुनः पञ्चमास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः-न किश्चिद१प्राभृते तिवृत्तिःहाद्वीपं समुद्र वा अवगाह्य सूर्यश्चार चरति, अत्रायं भावार्थः यदापि सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कग्य सूर्यश्वारं चरति५माभूत (मल त दापि न किमपि जम्बूद्वीपमवगाहते, किं पुनः शेषमण्डलपरिभ्रमणकाले, यदापि सर्ववाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य सूर्यश्चारं प्राभूत चरति तदापि न लवणसमुद्रं किमप्यवगाहते, किं पुनः शेषमण्डलपरिभ्रमणकाले, किन्तु द्वीपसमुद्रयोरपान्तराल एव ॥३०॥ सकलेवपि मण्डलेषु चार चरति, अत्रोपसंहारमाह-'एगे एवमासु' ५। तदेवमुक्ता उद्देशतः पश्चापि प्रतिपत्तयः, सम्प्रत्येता एव स्पष्टं भावयति 'तत्व जेते एवमाहंसुइत्यादि, प्रायः समस्तमपीदं व्याख्याताथै सुगम च, नवरं चोत्तीसेवित्ति एवं त्रयत्रिंशदधिकयोजनशतविषयप्रतिपत्तिवत् चतुर्विंशे शते या प्रतिपत्तिस्तस्यामालापको वक्तव्यः, स चैवम्-'तत्थ जे ते एवमाहंसु एगं| जोयणसहस्सं एगं च चउतीसं जोयणसयं दीवं समुदं वा ओगाहित्ता चार चरइ, ते एवमाइंसु जयाणं सूरिए सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं जंबुद्दीवं एग जोयणसहस्समेगं च चोत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ, तया 3 दाउत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहनिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ,ता जया णं सूरिए सवबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं लवणसमुदं एग जोयणसहस्सं एगं चोत्तीस जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरति, तयाणं " ॥३०॥ उत्तमकट्ठपत्ता उफोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवति जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' 'पणतीसे वि एवं चेव भाणियचं' एवमुफेन प्रकारेण पश्चत्रिंशदधिकयोजनशतविषयायामपि प्रतिपत्ती सूत्रं भणितन्यं, तच सुगमस्वारस्वयं भावनीयं 55 अनुक्रम [३०] ACANCER ~73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [५], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] एवं सबषाहिरेवित्ति एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डल इव सर्ववाद्येऽपि मण्डले आलापको वक्तव्यः, नवरं जम्बूद्वीपस्थाने अवद्धलवणसमुहं ओगाहित्ता' इति वक्तव्यं, तञ्चैवम्-'जया णं सूरिए सघबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अवढे लवणसमुई ओगाहित्ता चारं चरति, तया णं राइंदियप्पमाणउन्भासगत्ति,''तया णमिति वचनपूर्वक | रात्रिन्दिवपरिमाणं जबूद्वीपापेक्षया विपरीतं वक्तव्यं, यज्जम्बूद्वीपावगाहे दिवसप्रमाणमुक्तं तद्रात्रेद्रष्टव्यं यद्रात्रेस्तद्दिवसस्य, तच्चैवम्-'तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहन्ने दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ', एवमुत्तरसूत्रेऽप्यक्षरयोजना भावनीया । तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रत्येतासां मिथ्याभावोपदर्श-| नार्थ स्वमतमुपदर्शयति| वयं पुण एवं वदामो, ता जया णं सूरिए सबभंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति, तता णं जंबुद्दीवं असीतं जोषणसतं ओगाहित्ता चार चरति, तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुसे दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवति, एवं सत्वयाहिरेवि, णवरं लवणसमुई तिपिण तीसे जोयणसते जाओगाहित्ता चारं चरति,तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उकोसिया अट्ठारसमुहुत्ताराई भवह जहण्णए दुवालसमुहत्ते| दिवसे भवति, गाथाओ 'माणितबाओ। (सूत्रं १७) पदमस्स पंचम पाहुडपाहुई ॥१-५॥ IA 'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञानदर्शना 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा जम्बूद्वीपमशीत्यधिक योजनशतमवगाह्य चारं चरति, तदा चोचमकाष्ठाप्राप्त अनुक्रम [३०] कसर RECHERS H ~74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [३१] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [५], मूलं [१७] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः ( मल० ) सूर्यप्रज्ञ- ५ उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, सर्वजघन्या द्वादशमुहूर्त्ता रात्रि:, 'एवं सहवाहिरेवि'त्ति एवं सर्वाभ्यन्तरमतिवृत्तिः ण्डल इव सर्वबाह्येऽपि मण्डले आलापको वक्तव्यः, स चैवम्- 'जया णंसदबाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरह', इति, नवरमिति सर्वबाह्यमण्डलगतादालापका दस्यालापकस्य विशेषोपदर्शनार्थः, तमेव विशेषमाह - 'तया णं लवणसमुदं तिनि तीसे जोयणसए ओगाहित्ता चारं चरइ, तथा णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भव' इति इदं च सुगमं, क्वचित्तु 'सङ्घबाहिरेवी' त्यतिदेशमन्तरेण सकलमपि सूत्रं साक्षालिखितं दृश्यते, 'गाहाओ भाणियन्ताओ' अत्रापि काश्चन प्रसिद्धा विवक्षितार्थसङ्ग्राहिका गाथाः सन्ति ता भाणितव्याः, ताश्च सम्प्रति व्यवच्छिन्ना इति न कथयितुं व्याख्यातुं वा शक्यन्ते, ययासम्प्रदायं वाच्या इति ॥ ॥ ३१ ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ५ समाप्तं तदेवमुक्तं पञ्चमं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति षष्ठं वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकारः - कियन्मात्रं क्षेत्रमेकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्पते इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता केवति (ते) एगमेगेणं रातिदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति आहिनेति वदेज्जा ?, तत्थ खलु इमाओ सत्त पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता दो जोयणाई अद्धदुचत्तालीसं तेसीतसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं रातिदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु F&P अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ५ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ६ आरभ्यते ~75~ १ प्राभृते"प्राभूत ॥ ३१ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [६], -------------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 1559 प्रत ता अहातिलाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ मूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु २, एगे पुण| एवमाहंसु ना तिभागूणाई तिन्नि जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरति, एगे एव-| माहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु-ता तिषिण जोयणाई अद्धसीतालीसं च तेसीतिसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राईदिएणं विकंपहत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु ४, एगे पुण एवमाहंसु-ता अबुहाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु ५, एगे पुण एवमाहंसु, ता घउभागणाई चत्तारि जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एवमाहंसु-ता चत्तारि जोयणाई अद्धवावणं च तेसीतिसतभागे जोयणस्स एगगेगेणं राइदिएणं विक-X पहत्ता २ सरिए चारं चरति एगे एवमाहंसु ७। वयं पुण एवं वदामो ता दो जोषणाई अडतालीसं च एगहिभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राईदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, तत्थ णं को हेतू इतिवदेजा, ता अपण्णं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं पन्नत्ते, ता जता णं सूरिए सबभंतरं मंडलं जवसं-IX कमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संबच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभितराणंतर मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अम्भितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा Aणं दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता चारं चरति, तता णं अनुक्रम [३२] ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सिवृत्तिः (मल.) १प्राभृते प्राभूतमाभृत सुत्राक [१८] अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगडिभा-1 गमुटुत्तेहिं अहिया । से णित्रममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तसि अम्भितरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं मूरिए अभितरं तच्च मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स दोहिं राइंदिएहि विकंपइत्ता चारं चरति, तता णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चउहिं एगविभागमुहुत्तेहिं अधिया, एवं खल एतेणं उबाएणं णिक्खममाणे सूरिए तताणंतराओ तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ दो जोपणाई अडतालीस च एगहिभागे जोयणरस एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राईदिएणं विकम्पमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ना जया णं सूरिए सबभंतरातो मंडलातो सत्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता गं सबभंतरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीतेणं राईदियसतेणं पंचदमुत्तरजोयणसते विकंपइत्ता चारं चरति, तता णि उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहपणए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमछम्मासे एस णं पढमछम्मासस्स पज्जवसाणे, से य पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरतसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति ता जता णं सूरिए वाहिराणंतरं मंडलं उचसंक- मित्ता चारं चरति तया णं दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणसए एगेणं राइदिएणं विकम्पइत्ता चारं चरति, तता णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ते दीप %%% अनुक्रम [३२] %960 ॥३२॥ ~77 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [६], -------------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 545645555-456565439 दिवसे भवति दोहिं एगहिभागेहि मुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सरिए दोसि अहोरत्तंसि बाहिरत-2 सि मंडलंसि जवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सरिए बाहिरतचं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति |तया णं सरिए बाहिरतचं मंडलं जवसंकमित्ता चारं चरति, तया णं पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे। जोयणस्स दोहिं राईदिएहि विकंपइत्ता चारं चरति, राइदिए तहेव, एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सरिए ततोऽणंतरातो तयाणतरं च णं मंडलं संकममाणे २ दो जोयणाई अडयालीसं च एगहिभागे जोयणस्सा एगमेगेणं राइदिएणं विकंपमाणे २ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सूरिए सबयाहिरातो मंडलातो सच्चभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता गं सबबाहिरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीएणं राई दियसतेणं पंचदसुत्तरे जोयणसते विकंपइत्ता चार चरति, तता णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दोबस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे एस णं आदिचरस संवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं १८) छ8 पाहुडपाहुडं ॥१-६॥ | 'ता केवइयं ते एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कियत्प्रमाणं क्षेत्रमिति गम्यते, 'एगमेगेणं' ति अत्र प्रथमादेकशब्दान्मकारोऽलाक्षणिकस्ततोऽयमर्थः-एकैकेन रात्रिन्दिवेन-अहोरात्रेण विकम्प्य विकम्य विकम्पनं नाम स्वस्वमण्डला(हिरवध्वष्कणमभ्यन्तरप्रवेशनं वा सूर्यः-आदित्यश्चारं चरति, चार चरन् आख्यात इति अनुक्रम [३२] ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [°C] दीप अनुक्रम [३२] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृत [१], • प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ सिवृत्तिः ( मल०) ॥ ३३ ॥ वदेत् १, एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति एतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव प्ररूपयति- 'तत्थे'त्यादि, 'तत्र' सूर्यविकम्पविषये खल्विमाः सप्त प्रतिपत्तयः परमतरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - 'तस्येंगे' त्यादि, 'तत्र' तेषां सप्तानां प्रवादिनां मध्ये एके एवमाहुः, द्वे योजने अद्धों द्वाचत्वारिंशत्-द्वाचत्वारिंशत्तमो येषां ते अर्द्धद्वा४ चत्वारिंशतस्तान् सार्द्धंकचत्वारिंशत्सवानित्यर्थः, त्र्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य, किमुक्तं भवति १-व्यशीत्यधिकशतसङ्ख्यैर्भागैः प्रविभक्तस्य योजनस्य सम्बन्धिनोऽर्द्धाधिकैक चत्वारिंशत्सान् भागान् एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य विकम्प्य सूर्यश्चारं चरति, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु' । एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः, अर्द्धतृतीयानि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अत्राप्युपसंहारः 'एंगे एवमाहंसु' २ । एके पुनस्तृतीया एवमाहुःत्रिभागोनानि त्रीणि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्वारं चरति, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' २, एके पुनश्चतुर्थास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः - त्रीणि योजनानि अर्द्धसप्तचत्वारिंशतश्च, सार्द्धषट्चत्वारिंशतश्चेत्यर्थः, त्र्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अत्रैवोपसंहारमाह- 'एगे एवमाहंस' ४ । एके पुनः पश्चमा एवमाहुः - अर्द्धचतुर्थानि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अत्रोपसंहारवाक्यं 'एगे एवमाहंसु' ५, एके पुनः पष्ठास्तीर्थान्तरीया एवमाहु:- चतुर्भागोनानि चत्वारि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अत्रोपसंहारवाक्यं 'एगे एवमाहंस' ६, एके पुनः सप्तमा एवमाहुः चत्वारि योजनानि अर्द्धपश्चाशतश्च सार्द्धंकपञ्चाशत्सयांश्च त्र्यशीत्यधिकशतभागान योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य २ चारं Eaton int F&P Us On ~79~ १ प्राभृते६ प्राभृत प्राभूतं ॥ ३३ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [६], -------------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत चरति अत्रोपसंहारवाक्य 'एगे एवमाहंसुतदेवं मिथ्यारूपाः परप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति स्वमत भगवानुपदर्शयति'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेव-वक्ष्यमाणप्रकारेण केवलज्ञानोपलम्भपुरस्सरं वदामः, यदुत द्वे द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशञ्चैकषष्टिभागान योजनस्थ एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य २चारं चरति, चारं चरन् आख्यात इति वदेत् , साम्प्रतमस्यैव वाक्यस्थ स्पष्टावगमनिमित्तं प्रश्नसूत्रमुपभ्यस्यति-तत्थ को हेतू इति वएज्जा' तत्र-एवंविधवस्तुत-बट्र &ावावगतौ को हेतुःका उपपत्तिरिति वदेत् भगवान् , एवमुक्के भगवानाह–ता अयण्ण मित्यादि, इदं जम्बूद्वीप वाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीय व्याख्यानीयं च, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्घम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्तः-परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षका उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, 'से निक्खममाणे' इत्यादि, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानिष्कामन् स सूर्यो नवं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'अमितराणंतरं ति सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरं-बहिर्भूतं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्घम्य चारं चरति, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा तस्मिन्नवसंवत्सरसत्के प्रथमेऽहोराने सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्क्रम्य सूर्येश्वारं चरति, चारं चरितुमारभते, 'तदा णमिति प्राग्वत्, वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं च एकषष्टि|भागान् योजनस्य एकैकेन राविन्दिवेन पाश्चात्येनाहोरात्रेण विकम्प्य चारं चरति, इयमत्र भावना-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादूर्वं शनैः शनैस्तदनन्तरं द्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथंचन मण्डलगत्या परिचमति यथा तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्थापरे च द्वे योजने अतिकान्तो भवति, 34545454555 अनुक्रम [३२] ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [६], -------------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः (मल०) ॥३४॥ ततो द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे एव द्वितीयमण्डलमुपसम्पन्नो भवति, तत उक्तम्-'तया णं दो जोयणाई अडया १प्राभृते लीसं च एगहिभागे जोयणस्स एगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता सूरिए चार चरति', 'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वा साप्रामृत भ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारचरणकाले णमिति पूर्ववत् अष्टादशमुहूर्तों दिवसो भवति द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागा प्राभूत भ्यामूनः द्वादशमुहर्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहत्तैकषष्टिभागाभ्यामधिका, तस्मिन्नपि द्वितीये मण्डले प्रथमक्षणादूर्व तथा कथश्चनापि तृतीयमण्डलाभिमुख मण्डलपरिभ्रमणगत्या चारं चरति यथा तस्याहोरात्रख पर्यन्ते द्वितीयमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्थापरे च तदहिभूते द्वे योजने अतिक्रान्तो भवति, ततो नवसंवत्सरख द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथमक्षण एव तृतीयं मण्डलमुपसङ्कामति, तथा चाह-से निक्खममाणे इत्यादि, स सूर्यों द्वितीयान्मण्डलात्मथमक्षणादूर्व शनैः शनैर्निष्कामन्-वहिर्मुखं परिभ्रमन् नवसंवत्सरसत्के द्वितीयेऽहोरात्रे 'अभितरतचंति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीयमण्डलमुपसङ्काम्य चारं चरति, तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां यावत्प्रमाण क्षेत्रं विकम्प्य चार चरति तावनिरूपयितुमाह-ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां सर्वाभ्यन्तरमण्डलगततदनन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं च एकपष्टिभागान् योजनस्य धिकम्प्य, तथाहि-एकनाप्यहोरात्रेण द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशच योजनस्यैकषष्टिभागा ॥५॥ विकम्पिता द्वितीयेनाप्यहोरात्रेण, तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भवति, एतावन्मानं विकम्प्य चारं चरति, 'तया 'मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगम, सम्प्रति शेषमण्डलेषु गमनमाह-'एवं खलु'इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रका अनुक्रम [३२] Fhi ~81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [६], -------------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत रेण खलु-निश्चितमेतेनोपायेन तत्तन्मण्डलप्रवेशप्रथमक्षणादूचं शनैः शनैस्तत्तद्वहिर्भूतमण्डलाभिमुखगमनरूपेण तस्मात्तनमण्डलान्निष्क्रामन् तदनन्तराम्मडलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्कामन् २एकैकेन रात्रिन्दिवेन दे द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्पयन् २ प्रथमपण्मासपर्यवसानभूते व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति, 'ता जया ण'मित्यादि, सुगम, 'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधायIMI अवधीकृत्य तत्तद्गतमहोरात्रमादि कृत्वा इत्यर्थः, व्यशीतेन-यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन पश्चदशोत्तराणि योजनशतानि माविकम्प्य, तथाहि-एकैकस्मिन्नहोरात्रे द्वे द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनत्य विकम्पयति, ततो देव योजने न्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्येते, जातानि त्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि ३६९, येऽपि चाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा (प्रथायर १०००) स्तेऽपि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि ८७८४, तेषां योजनानयनार्थमेकषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशं योजनशतं १४४, एतत्पूर्वस्मिन् योजनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि पञ्च शतानि दशोत्तराणि ५१०, एतावत्प्रमाणं विकम्प्य चारं चरति, 'तया ण'मित्यादि, राबिन्दियपरिमाण सुगर्म, सर्वबाह्ये दीच मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादूर्व शनैः शनैरभ्यन्तरसर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथञ्चनापि मण्डल गत्या परिभ्रमति येन प्रथमषण्मासपर्यवसानभूताहोरात्रपर्यवसाने सर्ववाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकपष्टिभागान् योजनस्थापरे च द्वे योजने अतिक्रम्य सर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलसीमायां वर्तते, ततोऽनन्तरे द्वितीयस्य षण्मासस्य & प्रथमेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे सर्वबाह्यानन्तरं द्वितीयमभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशति, तथा चाह-से पविसमाणे इत्यादि, अनुक्रम [३२] Fhi ~82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [६], -------------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: हिराणंतर ति सवेबाह्यला प्राभूते प्राभूत प्रत प्राभूत सूर्यप्रज्ञ- स सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादुक्कप्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयषण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'वाहिराणंतति सर्ववाद्यस्य तिवृत्तिः४ मण्डलस्याभ्यन्तरं द्वितीयमनन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता जया णमित्यादि, ता इति-तत्र यदा सूर्यो वाह्या-3 (मल०) नन्तरं-सर्वबाह्यमण्डलानन्तरमभ्यन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा एकेन रात्रिन्दिवेन सर्ववाघमण्डल गतेन प्रथमपण्मासपर्यवसानभूतेन द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्प्य, एतच्चानन्तरमेव भावित, चार चरति-बार प्रतिपद्यते, 'तया ण'मित्यादि, राविन्दिवपरिमाणं सुगम, 'से पविसमाणे इत्यादि, स सूर्यः सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरद्वितीयमण्डलादपि प्रथमक्षणादूर्वं शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरतचंति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्याभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां रानिन्दिवाभ्यां सर्वबाह्यमण्डलगतसर्ववाद्यानन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्प्य तथा एकेनाप्यहोरात्रेण प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेन द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य विकम्पयति, द्वितीयेनाप्यहोरात्रेण द्वितीयषण्मासप्रथमेन, तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भवति, 'तया 'मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगर्म, 'एवं खलु एएण उवाएणं पविसमाणे इत्यादि सूत्रं प्रागुक्तसूत्रानुसारेण स्वयं परिभावनीयम् ॥ | इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभूतस्य प्राभूतप्राभतं ६ समाप्तं । [३२] In३५॥ अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ६ परिसमाप्तं ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [७], -------------------- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक | तदेवमुक्तं षष्ट प्राभृतमाभृतं, सम्प्रति सप्तममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः पूर्वमुद्दिष्टो यथा 'मण्डलानां संस्थान वक्तव्य'मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते मंडलसंठिती आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमातो अट्ट पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्धेगे एवमाहंसु-ता सबावि मंडलवता समचउरंससंठाणसंठिता पं० एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु, तासबाविणं मंडलवताविसमचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता एगे एवमाहंसु२, एगे पुण एवमासु सबाविणं मंडलवया समचदुकोणसंठिता पं० एगे ए०३, एगे पुण एवमाहंसु सवावि मंडलवता विसमचउकोणसंठिया पं० एगे| एवमासु ४, एगे पुण एवमाहंसु-ता सवावि मंडलवया समचकवालसंठिया पं० एगे एवमाहंसु५, एगे पुण एवमाहंसु-ता सवावि मंडलवता विसमचकवालमंठिया प० एगे एवमासु ६, एगे पुण एवमाहंसुता सवावि मंडलवता चकद्धवालसंठिया पं० एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु-ता सवावि मंडलवता छत्तागारसंठिया पं० एगे एवमाहंसु, तत्व जेते एवमाहंसु ता सबावि मंडलवता छत्ताकारसंठिता पं० एतेणं |गएणं णायचं, णो चेव णं इतरेहिं, पाडगाहाओ भाणियबाओ (सूत्रं १९)॥ पढमस्स पाहुडस्स सत्तमं| पाहुडपाहुड समतं ॥ १-७॥__ 'ता कहं ते मंडलसंठिई'इत्यादि, 'ता' इति पूवित्, कथं भगवन् ! तत्त्वया मण्डलसंस्थितिराख्याता इति भगवान रे वदेत् , एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सत्येतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिध्याभावोपदर्शनार्थ प्रथमतस्ता एवोप अनुक्रम [३३] कर अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- आरभ्यते ~844 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [७], -------------------- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: BESEX । दर्शयति-तत्थ खलु'इत्यादि, 'तत्र' तस्यां मण्डलसंस्थितौ विषये खल्विमा-वक्ष्यमाणस्वरूपा अष्टौ प्रतिपत्तयः प्रज्ञष्ठाः प्राभृते तिवृत्तिः तद्यथा-तत्र तेषामष्टानां परतीर्थिकानां मध्ये एके-प्रथमे तीर्थान्तरीया एवमाहुः, 'ता'इति तेषामेव तीर्थान्तरीयाणाम- प्राभूत (मल.) नेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, 'सवावि मंडलवयत्ति मण्डलं-मण्डलपरिचमणमेषामस्तीति मण्डलवन्ति चन्द्रा- प्राभृतं दिविमानानि तद्भावो मण्डलवत्ता, तत्राभेदोपचारात् यानि चन्द्रादिविमानानि तान्येव मण्डलवत्ता इत्युच्यन्ते, तधा४ ॥३६॥ चाह-सर्वा अपि-समस्ता मण्डलवत्ता-मण्डलपरिभ्रमणवन्ति चन्द्रादिविमानानि, समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ता, अनोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' एवं सर्वाण्युपसंहारवाक्यानि भावनीयानि, एके पुनर्वितीया एवमाहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ता विषमचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः २, तृतीया एवमाहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ताः समचतुष्कोणसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ३, चतुर्था आहुः-सर्वा अपि भण्डलवत्ता विषमचतुष्कोणसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ४, पञ्चमा आहुः-सर्वा अपि मण्डल बत्ताः समचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ५, षष्ठा आहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ता विषमचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ता-६, सप्तमा आहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ताश्चकार्द्धचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ७, अष्टमा पुनराहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ताछत्राकार-18 संस्थिताः प्रज्ञप्ता:-उत्तानीकृतछत्राकारसंस्थिताः, एवमष्टावपि परप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्पति स्वमतमुपदिदर्शयिषुराह'तत्थ इत्यादि, तत्र-तेषामष्टानां तीर्थान्तरीयाणां मध्ये ये एवमाहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ता छत्राकारसंस्थिताः प्रज्ञप्ता ॥३६॥ इति, एतेन नयेन, नयो नाम प्रतिनियतैकवस्त्वंशविषयोऽभिप्रायविशेषो, यदाहुः समन्तभद्रादयो-'नयो ज्ञातुरभिप्राय'। इति, तत एतेन नयेन-एतेनाभिप्रायविशेषेण सर्वमपि चन्द्रादिविमानज्ञानं ज्ञातव्यं, सर्वेषामप्युत्तानीकृतकपि ॐॐ अनुक्रम [३३] + St ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [७], -------------------- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: + प्रत + सूत्रांक + + + यार्डसंस्थानसंस्थितत्वान्न चैक-बैच इस वार्नयैलथावस्तुतखाभावात, 'पाहुपमाहाओ भाणियचाओंति अत्रापि अधिकत्तपातपाभूतार्थप्रतिपादिकाः काश्चन गाथा वर्तम्ते, ततो यथासम्प्रदाय भणितव्या इति । ... ........... इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभतस्य प्राभतप्राभतं " समाप्तं तदेवमुक्तं सप्तमं प्राभूतमाभृतं, साम्प्रतमधममारभ्यते-तस्य चायमथाधिकारी-मण्डलानां विष्कम्भो वक्तव्यमा ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता सावि णं मंडलवया केवतियं बाहल्लेणं केवलियं आयामविक्रमेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहिताति वदेजा ?, तत्थ खलु इमा तिषिण पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एबमाइंसु-ता सघाविणं मंडलवता जोयणं वाहालेणं एग जोषणसहस्सं एग लेतीसं जोयणसतं आपामविक्खंभेषणं तिपिण जोयणसहस्साई तिण्णि य नवणजए जोयणसते परिक्खेवेणं १०, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु-ला सदावि णं मंडलवता जोयर्ण बाहल्लेणं एगं जोयणसहस्सं एगं च चउत्तीसं जोयणसय आयामचिक्खंभेणं तिषिण जोयणसहस्साई चत्तारि विउत्तरे जोपणसते परिक्खेवेणं पं०, एगे एषमासु, एगे पुण एवमाहंसु-ता जोवणं बाहल्लेणं एगं जोषणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसतं मायामविक्खंभेणं तिमि जोयणसहस्साई सारि पंघुसरे जोयणसले परिक्खेषेण पण्णसा, एगे एवमाइंसु, वयं पुण एवं वपामो ता सबाषि मंगलवला अडतालीसं एगडिभाने जोषणास बारलेणं अधियता आयामविलंमेणं परिक्खेोणं आहिताति बवेजा, तत्व + अनुक्रम [३३] * * * अत्र प्रथमे प्राभूते प्राभूतप्राभूतं-७ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभूते प्राभूतप्राभूतं- ८ आरभ्यते ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभूतेप्राभृतप्राभृतं प्रत सुत्राक [२०] दीप सूर्यप्रज्ञ पणं को हेऊत्ति वदेजा, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, ता जया णं सूरिए सबभतरं मंडलं ज्व- प्तिवृत्तिः संकमित्ता चारं चरति तया णं सा मंडलवता अडतालीसं एगहिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणउइजोयण(मल.) सहस्साई उच्च चत्ताले जोयणसते आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसतसहस्साई पण्णरसजोयणसहस्साई एगूणणउति जोयणाई किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं तता णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहूत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, से णिक्खममाणे मूरिए णवं संबच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभितराणतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति तदा णं सा मंडलवता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स पाहल्लेणं णवणवहें जोयणसहस्साई छच्च पणताले जोयणसते पणतीसं च एगहिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिपिण जोयणसतसहस्साई पनरसं च सहस्साई एगं चउत्तरंजोयणसतं किंचिविसेसूर्ण परिक्वेवेणं तदा णं दिवसरातिप्पमाणं तहेव । सेणिक्खममाणे सरिए दोचंसि अहोरसि अभितरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सरिए अधिभतरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं सा मंडलवता अडतालीसं| एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणवतिजोयणसहस्साई छच्च एकावपणे जोयणसते णव य एगहिभागा जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साई पन्नरस य सहस्साई एर्ग च पणवीसं जोयणसयं| परिक्खेवेणं पं०, तताणं दिवसराई तहेव, एवं खाल्लु एतण णएणं निक्खममाणे सूरिए तताणंतरातो तदाणं अनुक्रम [३४] ~87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप तर मंडलातो मंडलं जवसंकममाणे २ जोयणाई पणतीसं घ एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंहले विक्खंभवुहिं अभिवहेमाणे २ अट्ठारस २जोयणाई परिरयबुर्खि अभिवढेमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सवयाहिरमंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तता णं सा मंडलयता अडतालीसं एगट्ठिभागा जोयणसयसहस्सं उच्च सद्धे जोयणसते आयामविक्खंभेणं तिनि जोयणसयसहस्साई अट्ठारस सहस्साई तिण्णि य पण्णरसुत्सरे जोयणसते परिक्खेवेणं तदा णं उकोसिया 'अट्ठारसमुहुत्ता राई। भवति जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं उम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं याहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ताजया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं जवसंकमित्ता चार चरति तता णं सा मंडलवता अइतालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं एग जोषणसयसहस्सं छच चउपपणे जोयणसते छचीसं च एगहिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिनि जोयणसतसहस्साई अट्ठारससहस्साई दोणि य सत्ताणउते जोयणसते परिक्खेवेणं पं०, तता णं राइदियं तहेव, से पविसमाणे सरिए दोचे अहोरत्तंसि बाहिरं तचं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तता णं सा मंडलवता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहलेणं एग जो यणसतसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावणं च एगढिमागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिणि जोय अनुक्रम [३४] FirmwalMAPINEUMORE ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२०]] दीप नसतसहस्साई अट्ठारस सहस्साई बोक्षिण अउपणातीसे जोपणसने परिक्खेवेष पं०, विवसराई तहेब, पर्व भितखल्लु एतेणुपाए परिसमाणे सूरिप लताणंसरालोतदातरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २पंच २जोग-II (मल०) दाणा पणलीसं च एपविभाग ओयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धिं णिबुढेमागे २ अट्ठारस जोय- प्राभूत शणाई परिरपबुर्खि णिपुडेमाणे २ सहभंतरं मंच उपसंकमित्ता चारं चरति, ता जता गं सरिए सबभतरं ॥३८॥ मंडलं उपसंकमित्ता चार घरति, सता अंसा मंडलषया अडयालीसं एगविभागे जोयणस्स बाहलेणं गवणलाउति ओयणसहस्साइं वचसाले जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिपिण जोपणसयसहस्साई पप्पारस य& सहस्साई अउणाति - जोपणाई किंचिविसेसाहियाई परिक्खेवे पंतता णं उशमकट्टपले उक्कोसए अट्ठारसमुहसे दिवसे भवति, जहणिया दुधालसमुहमा राई भरति, एस पां दोबस्स छम्मासस्स पजपसाणे एस आदि संवच्छ एसगं आदिचस्स संबस्छरस्स पजचसाणे, ता सवाविप मंडलवता अडतालीसंद एगडिभामे जोयस बाहलेणं, समावि मंडलसरिया वो जोयणाई विखंभेषां, एस णं अशा लेसीयसतपडप्पण्णो पंचवमुत्तरे ओषणसमे आहितालिवदेवा, ता अन्भितरातो मंडलवलाओ बाहिरं मंडलवतं चाहिरालो वा अम्भित मंडलवतं एसपं असा केवतियं आहिमालि बजा?, ता पंचदसुप्सरजोयणसते आदि- ॥३८॥ तालि बजा, अभितरा मंडलवतात बाहिरा मंडलषया बाहिराओबंडसवतातो अम्भितरा मंडलबताएस अद्धा बलियं धाहितालिबदेवा, ता पदसत्तरे जोयाणसते अहताहीसंच एगतिमाये शोयपाल आदि अनुक्रम [३४] ॐ Fhi ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - [२०] दीप ट्रातानि बवेजा, ता अम्भलरातो मंडलवतातोपहिरमंडलबला वाहिरालो. अभंतरमंदसक्ता एस केवतियं आहितालि वदेखा , ता पंचणबुसरे जोषणसते तेरस प पपद्विभाये जोवपास्स आहिताति बवेजा, अम्भितराते मंडलषताए बाहिरा मंडलक्या बाहिरास्ते मंडलवताले अन्तरमंडलवया, पसां अद्धा केवति आहिताति वदेजा ?, ता पंचदसुत्सरे जोयणसए आहियत्ति बवेजा (सूत्रं २०) अहम पाहुबपाहुडं । पर पाहुई समत्तं॥ | 'तासवाविणं मण्डलवपा' इस्यादि, सा' इति पूर्ववत्, सर्वाण्यापि माइलपदावि मण्डलरूपाणि पदानि मण्डलपदानि - मण्डलपदानि] सूर्यमण्डलस्थानानीत्यर्थः, कियम्मानं वाहल्येग कियदायामविष्कम्भाभ्यां किवत्परिक्षेपेण-परिधिचा आख्यातानि इति वदेत्, सूत्रे स्त्रीवनिर्देशामाकृतत्वात, प्राकृते रिलिजव्यभिचारि, बदाह पाणिनिः स्वधाकृतलक्षणे-लिई व्यभिचार्यपी लि, एवं भगवता गोलमेन प्रश्न कृते सतिभगवानेतद्विषयपर तीथिकप्रतिपसीनां मिथ्याभाकोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एबोपन्यस्यसि-तस्थ स्वम्' इत्यावि, तत्र मण्डलबाहयादिविचारविषये खतिवमास्तिमा प्रतिपयःप्रज्ञप्ता, तद्यथा-तबतेषां बयाणां परतीथिकानांमध्ये एके तीर्थान्तरीमएवमाहुः-'ता' इति प्राग्वत्, सर्वाफ्यपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि जोयणं बाहल्लेणं तिप्रत्येक योजनमेकं 'बाहत्येन' पिघलेन एक बोजनसहनमेकं च वयसिंश-बबस्विंवादधिक योजनशत, आयामविसंभेणं'लि आयाम विष्कम्भन आयामरिक समाहारो खसेम शोकमायामेन विष्कम्भेन चेत्यर्थः बीणि योजनसहमामि श्रीणि वनरक्यतानि योजनशतारिपरिपतः प्रालि, सर देशं सीर्यान्तरपाया मतेच पण्डका अनुक्रम [३४] RESS JAANElaimstanimimational ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल.) प्राभृतेप्राभृत प्राभूत प्रत सूत्राक ॥ ३९॥ [२०]] दीप स्यायामविष्कम्भमेवं योजनसहस्रमेक योजनशतं च प्रयस्त्रिंशदधिकमायामविष्कम्माभ्यां ते परिरयपरिमाणं वृत्तपरिमाणात् त्रिगुणमेव परिपूर्णमिच्छन्ति, न विशेषाधिकमतस्त्रीणि योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि नवनवतानीत्युक्त, तथाहि-सहस्रस्य त्रीणि सहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशतश्च नवनवतिरिति, इदं परिरयपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वहस्स परिरओ होई' इति परिरयगणितेन व्यभिचारि, तेन हि परिरयपरिमाणानयने त्रीणि योजनसहस्राणि पश्च शतानि ब्यशीत्यधिकानि किश्चित्समधिकान्यागच्छन्ति, तथाहि-एक योजनसहनमेकं च योजनशतं त्रयस्त्रिंशदधिकमि-४ त्येकादश योजनशतानि प्रयखिंशदधिकानि ११३३, एतेषां वर्गों विधीयते, जात एकको द्विकोऽष्टकखिकः षट्कोऽष्टको नवकः १२८३५८९, सतो दशभिर्गुणितेन जातमेकमधिकं शून्यं १२८३६८९०, एतेषां वर्गमूलानयने आगच्छति पथोक15 परिरयपरिमाणमतस्तम्मतेन परिरयपरिमाणं व्यभिचारि, एवमुत्तरमपि मतदयं परिभावनीयं, अत्रैव प्रथममते उपसंहार एगे एवमासु १, एके पुनरेवमाहुः सर्वाण्यपि सूर्यमण्डलपदानि प्रत्येकमेकं योजनं बाहल्येन एक योजनसहनमेकं च योजनातं चतुर्खिश-चतुखिंशदधिकमाषामविष्कम्भाभ्यां ११३४ त्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि युत्त-15 राणि ३४०२ परिक्षेपतः, तथाहि-एतेषामपि मतेन विष्कम्भपरिमाणात् परिरयपरिमाणं परिपूर्णत्रिगुणरूपं, ततः सह-18 प्रस्य त्रीणि सहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि चतुर्विंशतो व्युत्तरं शतमिति, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमासु' एके पुनरेवमाहुः-सर्वाण्यपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि प्रत्येकमेक योजनं बाहल्येन एकं योजनसहनमेकं च योजनशतं की पञ्चत्रिश-पश्चत्रिंशदधिकमायामविष्कम्भाभ्यां ११३५ त्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि पञ्चोत्तराणि ३४०५/ अनुक्रम [३४] ॥३९॥ ~91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप परिक्षेपतः, तथाहि-एकस्य योजनसहस्रस्य त्रीणि योजनसहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि पञ्चत्रिंशतः पञ्चोत्तरं शतमिति, एतानि त्रीण्यपि मतानि मिथ्यारूपाणि परिरयपरिमाणमात्रेऽपि व्यभिचारात्,.अतो भगवान् तेभ्यः पृथक् स्वमतमुपदर्शयति-वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-ता सबाधीत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् सर्वाण्यपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि प्रत्येकं बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य आयामविष्कम्भपरिक्षेपेण-आयामविष्कम्भपरिक्षेपैः पुनरनियतानि आख्यातानि, कस्यापि मण्डलस्य कियान आयामो विष्कम्भः परिक्षेपश्चेति भाव इति स्वशिष्येभ्यो वदेत् , एवमुक्त भगवान् गौतमः पृच्छति-तत्थ णं को हेऊ इति वइज्जा' तत्र-मण्डलपदानामायामविष्कम्भपरिक्षेपानियतत्वे को हेतु:-का उपपत्तिरिति वदेत् , अत्र भगवानाह-ता अयन मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं परिभावनीय व्याख्यानीयं च, ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्या लङ्कारे सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपर्द, सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वाद्, बाहल्येकानाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य ज्ञातव्यं, आयामविष्कम्भाभ्यां नवनवतियोजनसहस्राणि पटू शतानि चत्वारिं शदधिकानि ९९६४०, तथाहि-एकतोऽपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलमशीत्यधिक योजनशतं जम्बूद्वीपमवगाह्य स्थितमपरतोऽपि, ततोऽशीत्यधिक योजनशतं द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि पश्यधिकानि ३६०, एतानि जम्बूद्वीपविष्कम्भपरिमाणालक्षरूपात् शोध्यन्ते, ततो यथोकमायामविष्कम्भपरिमाणं भवति, त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश सहसाणि एकोनवत्यधिकानि ३१५०८९ परिक्षेपतः, तथाहि-तस्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य विष्कम्भो नवनवतिर्योजनस अनुक्रम [३४] BER F OR ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १ प्राभूते सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) माभूतप्राभूत प्रत सूत्रांक ॥४०॥ [२०] दवाणि पद शतानि भवारिंगरपिचनि १९१४०, पतेषां पा विधीयते, जातो नवको नवको बिकोऽहक पकको शिको नक्का होरेर शून्ये ९९२८१२९९.०, तसो दशभिर्युषचे जातमेकमधिकं शून्यं ९९२८१२९६०००, अलबर्ग-5 भूलानयनेन तब्ध यो परिस्याप्रमाणं, शेषं सिधति द्विक पककोऽष्टक शून्यं सप्तको नवकः २१८०७९ पतत् त्व, 'तया 'मिल्याविना रात्रिदिवपरिमाणं सुगमं । 'से निक्लममाणे इत्यादि, स सूर्यः सर्वाभ्यम्तराममण्डलामागुरू-15 प्रकारेण विकासन नयं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्व प्रथमेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसहाय चार चरति तन यदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपदमष्टाचत्वारिंशदेकर स्मिागायोजनस्प बाइस्येन, नवनवतियोजनसहस्राणि षट् शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि पञ्चविंशचकषष्टिभागा योजनस्थायामविष्कम्भाभ्यां तथाहिएकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनखापरेच हे योजने बहिरवटभ्य द्वितीये मण्डले चारं चरति द्वितीयोऽपि, ततो द्वयोर्योजनयोरष्टाचत्वारिंशतश्चैकपष्ठिभामानां योजचख द्वाभ्यां गुणने पक्ष बोजवानि पञ्चविंशकपष्टिभागा योजनस्पति भवति, पतत्प्रथममण्डलविष्कम्भपरिमाणेविकत्वेन प्रक्षिप्यते, तसो भवति यथोक वितीयमण्डलविष्कम्भावामपरिमाणमिति, तत्र चीणि योजनशतसहस्राणि परबच सहमाणि पर सखोतरं बोजनमतं किशिविशेषाधिक परिरयेपा प्रज्ञावं, तथाहि-पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणादस्य मण्डलस्य विष्कम्भायामपरिमाणे पञ्च योजनानि पचत्रिंशकपष्टिभागा योजनस्थाधिकल्वेन प्राप्यम्ते, सतोऽस्ख | राशेः पृथक परिरक्परिमाथमानेतन्य, तत्र पछयोजमापेकपविभागकरणार्थमेका गुण्यम्ते, जातानि बीणि अत्तानि अनुक्रम [३४] ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप योत्तरामि ३०५, पतेषां मध्ये उपरितनाः पञ्चत्रिंशदेकवधिभामा प्रक्षिप्वन्ते, जातानि जीवि शतामि चत्वारिंशवलि शनि ३४०, एतेषां वर्गो विधीयते, वर्गपिका व दशभिर्गुणनात् ततो जास एकक एकका पञ्चका स्त्रीणि शून्यानि |११५९०.०, तत एषां वर्गमूलानयने लब्धानि दक्ष शतानि पञ्चसमत्यधिकानि १०७५, एतेषां योजवान वनार्थमेकपा भागे इते सब्धानि सप्तदश योजनानि अपत्रिंशकपष्टिभागा योजनस्य १७6, एतत्पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणेऽधिकरवेन प्रक्षिप्यते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणं भवति, किश्चिविशेषोनता च किचिदूनत्रयोविंशत्या एकषष्टिभाग-1 (रूनता द्रष्टव्या, 'तया पांदिवसराइफमाणं तह बेव' तदा-द्वितीयमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्रिप्रमाणं तथैवसम्वत् ज्ञातव्यं, तवैषम्-तया णं अद्वारसमुकुसे विक्से हबर दोदि एगद्विभागमुहुत्तेहि ऊणे दुवालसमु- हुत्ता राई भवति दोहि एगविभागमुडुत्तेहिं अहिया, 'से णिक्खममाणे इत्यादि, ततः सूर्यो द्वितीयस्मारमण्ड-* लादुतप्रकारेण निष्कामन मक्संवत्सरसरके द्वितीयेऽजोरात्रे 'अम्भितरं तचंति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयं मण्डल-2 मुफ्सङ्कम्य चारं घरलि, 'ता जया यमित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डस्लात्तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्ब चारं चरति तदा सत्तृतीयं मण्डलषद अष्टाचत्वारिंशवेकपष्टिभागा योजनस्य बाहत्येम नवनवतियोजनसहस्राणि षट् योजक शताम्येकपश्चाशदधिकानि बच चकाटियागा योजनख ९९१५१ आयामरिष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाश्यां, तथाहि प्रायिवात्रापि पूर्णपाडलविकम्भायामपरिमाणात् पञ्च योजनानि पश्चत्रिंशकपष्टिभागा योजनस्साधिकत्वेन प्राप्यन्ते, ततो दोस्थोकमायामविष्कम्भपरिमाय भवति बीवियोजनमासदशापिपजस सत्यापिएर पञ्चविंशत्यधिक योजना अनुक्रम [३४] SHNA Fhi ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३४] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृत [१], • प्राभृतप्राभृत [८], मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रशविवृत्तिः ( मल० ) ॥ ४१ ॥ Eatont परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं, तथाहि - पूर्वमण्डलादस्य विष्कम्भे पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्याधिकत्वेन प्राप्यन्ते, ततो यथोक्तमत्रायामविष्कम्भपरिमाणं भवति, तस्य च पृथक् परिश्यपरिमाणं सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशञ्च एकषष्टिभागा योजनस्य, एतन्निश्चयनयमतेन, परं सूत्रकृता व्यवहारनयमतमवलम्ब्य परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि विवक्षितानि, व्यवहारनयमतेन हि लोके किञ्चिदूनमपि परिपूर्ण विवक्ष्यते, तथा यदपि पूर्वमण्डलपरिश्यपरिमाणे किञ्चिदूनत्वमुक्तं तदपि व्यवहारनयमतेन परिपूर्णमित्र विवक्ष्यते, ततः पूर्वमण्डलपरिश्यपरिमाणे अष्टादश योजनान्यधिकश्वेन प्रक्षिष्यन्ते इति भवति यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिश्यपरिमाणं, 'तया णं दिवसराई तहेव' इति तदा तृतीयमंडलचा रचरणकाले दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, तच्चैत्रम्-तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति चउहिं एगट्टिभागमुहुसेहि ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चउहि एगट्टिभागमुहुत्तेहि अहिया, 'एवं खल्वि'त्यादि, एवं उक्तप्रकारेण खलु निश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् सङ्क्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशञ्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्येवं परिमाणां विष्कम्भवृद्धिमभिव|र्द्धयशभिवर्द्धयन् एकैकस्मिन्नेतन्मण्डले अष्टादश अष्टादश योजनानि परिश्यवृद्धिमभिवर्द्धयन्नभिवर्द्धयन् इहाष्टादश अष्टादशेति व्यवहारत उक्तं, निश्चयनयमतेन तु सप्तदश सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशतं चैकषष्टिभागा योजनस्येति द्रष्टव्यं एतच्च प्रागेव भावितं, न चैतत्स्वमनीषिका विजृम्भितं यत उक्तं तद्विचारप्रक्रमे एव करणविभावनायां-सत्तरस जोयणाई अहतीसंच एगद्विभागा १७ एयं निच्छरण संववहारेण पुण अट्ठारस जोयणाई' इति प्रथमषण्मासपर्य - F&P On ~95~ १ प्राभृते ८ प्राभृतप्राभृतं ॥ ४१ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप बावसानभूते ज्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्ग्राम्य चार चरति, 'ता जया ण'मित्यादि तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा तत्सर्वबाह्यं मण्डल पदं अष्टचत्वारिंशदेकषष्टि-2 भागा योजनस्य वाहल्येन एक योजनशतसहस्रं षटू शतानि पश्यधिकानि १००६६० आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः सर्वबाह्यं मण्डलं पर्यवसानीकृत्य व्यशीत्यधिक मण्डलशतं भवति, मण्डले २ च विष्कम्भे २ परिवर्द्धन्ते पञ्च २ योजनानि पश्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य, ततः पञ्च योजनानि त्र्यशीत्यधिकेन । शतेन गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, येऽपि च पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य तेऽपि त्र्यशीत्य[धिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि चतुःषष्टिः शतानि पश्चोत्तराणि ६४०५, तेषामेकषष्ट्या भागे हृते लब्धं पञ्चोत्तरं योजनशतं १०५, एतत्पूर्वस्मिन् राशौ प्रक्षिप्यते, जातानि दश शतानि विंशत्यधिकानि १०२०, एतानि सर्वाभ्यन्तरमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणे अधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डलगतविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५ परिक्षेपतः, नवरं पश्चदशोत्तराणि किश्चिश्यूनानि द्रष्टच्यानि, तथाहि-अस्य मण्डलस्य विष्कम्भो योजनलक्षं पटू योजनशतानि पश्यधिकानि १००६६०, | अस्य वर्गो विधीयते, जात एककः शून्यमेककखिको द्विकश्चतुष्कस्त्रिकः पञ्चकः षट्को द्वे शून्ये १०१३२४३५६००, ततो दशभिर्गुणने जातमेकमधिकं शून्यं १०१३२४३५६०००, अस्य वर्गमूलानयने लब्धानि त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्दशोत्तराणि ३१८३१४, शेषमुद्धरति. पञ्चकः' पञ्चकस्त्रिकचतुष्का शून्यं चतुष्का अनुक्रम [३४] ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल०) सुत्रांक ॥४२॥ [२०] दीप ५५३४०४ छेवराशिः पत्रिका पर पदो द्विकोऽवका ६३६६२८ तत एतेन पञ्चदशं योजनं किश्चिदून किल उभ्यते ४ & इति व्यवहारतः सूत्रकृता परिपूर्ण विवक्षित्वा पञ्चदशोत्तराणीत्युक्तं, अथवा मण्डले २ पूर्व २ मण्डलात्परिरयजी सन-लाप्राभूत दश २ योजनानि अष्टात्रिंशकपष्टिभागा योजनस्य लभ्यन्ते, ततः सप्तदश योजनानि व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, प्राभृतं जाताम्येकत्रिंशच्छताम्येकादशोत्तराणि ३१११, येऽपि चाष्टात्रिंशदेकषष्टिभागास्तेऽपि छ्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातान्येकोनसप्ततिशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ६९५४, तेषां योजनानयनार्थयेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धं चतुर्दशोसरं योजनशतं ११४, तव पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते जातानि द्वात्रिंशच्छतानि पञ्चविंशत्यधिकानि ३२२५, एतानि सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिरयपरिमाणे त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि नवाशीत्यधिकानि ३१५०८९ इत्येवंसपेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्दशोत्तराणि ३१८३१४, तथा सप्तदशानां योजनानां अष्टात्रिंशतकषष्टिभागानामुपरि यानि त्रीणि शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ३७५ शेषाण्युजरम्ति तानि ध्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातान्यष्टषष्टिसहस्राणि पटू शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि ६८६२५, तेषां छेवराशिना पश्चाशदपिकविंशतिशतरूपेण २१५० भागो द्रियते, लब्धा एकत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, शेष सोकत्वात् त्यक्तं, परं व्यवहारतः परिपूर्ण योजनं विवक्षितमिति पञ्चदशोत्तराणीत्युक्तं, 'लया णमित्यादिना रात्रिन्दिवपरिमाणं पण्मासोपसंहरणं भा॥४२॥ च सुगम, 'से पविसमाणे' इत्यादि, तलास सूर्यः सर्वबाद्यान्मण्डलात् प्रागुक्कप्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन वितीयं पण्मा-1 समाददानो द्वितीयस्य पण्मासस्य प्रथमे भहोराने सर्ववाद्यानन्तरमर्वातन विसीय मण्डलमुपसङ्खम्ब चार घरति, 'ताली अनुक्रम [३४] ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप जया ण'मित्यादि, तन्न यदा णमितिषाक्यालकारे सर्ववाद्यानन्तरमर्वातनं द्वितीयं भण्डलमुपसङ्गम्य चार परति तदा तन्मण्डलपदं अष्टाचत्वारिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, एक योजनशतसहस्रं षटू च योजनशतानि चतुष्पचाशदधिकानि पशितिश्चैकषष्टिभागा योजनस्य १००६५४२६ आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि-एक-11 तोऽपि तन्मण्डलं सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्थापरे द्वे योजने विमुच्याभ्यन्तरमवस्थितम-15 परतोऽपि, ततो योजनद्वयस्याष्टाचत्वारिंशतश्चैकषष्टिभागानां द्वाभ्यां गुणने पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशकषष्टिभागा योजनस्येति भवति, एतत्सर्वबाह्यमण्डलगतविष्कम्भायामपरिमाणात् शोभ्यते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तनवत्यधिके ३१८२९७ परिक्षेपतः प्रक्षिप्तं, तथाहि-पूर्वमण्डलादस्य मण्डलस्य विष्कम्भायामपरिमाणे पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशकषष्टिभागा योजनस्येति त्रुव्यन्ति, पश्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशतश्चैकषष्टिभागानां परिरये सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशकपष्टिभागा योजनस्य भवन्ति, परं सूत्रकृता व्यवहारनयमतेन परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि विवक्षितानि, प्रागुक्तात्सर्वबाह्यमण्डलपरिरयपरिमाणात् त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि इत्येवंरूपादष्टादश योजनानि शोध्यन्ते, ततो | यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणं भवति, 'तया णं राइंदियाणं तह चेष'ति तदा रात्रिन्दिवं रात्रिदिवसी तथैव | वक्तव्यौ, तौ चैवम्-'तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहि एगठिभागमुहुत्तेहि ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे हवा दोहि एगडिभागमुहुत्तेहि अहिए' इति, 'से पविसमाणे इत्यादि, ततः स सूर्यस्तस्मादपि द्वितीयस्मान्मण्डलात्मागुक ॐॐॐॐॐ अनुक्रम [३४] ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ------------------- प्राभृतप्राभूत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत RSSB सूत्राक [२०]] दीप सूर्यप्रज्ञ-1 प्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सवबाह्यान्मण्डलादवाक्तनं तृतीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार १प्राभृतेप्तिवृत्तिःलाचरति, तत्र यदा सूर्यः सर्ववाद्यान्मण्डलादर्वातनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा तन्मण्डलपदं अष्टाचत्वा प्राभृत(मल०) रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन एक योजनशतसहस्रं षट् च योजनशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि द्विपञ्चाशचै प्राभृतं ॥४३॥ कषष्टिभागा योजनस्य १००६४८५२ आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्या, तथाहि-पूर्वस्मान्मण्डलादिदं मण्डलमायामविष्कम्भेन पञ्चभियोजनैः पश्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य हीनं, ततः पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणादेक योजनशतसहस्रं षट् शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि पविंशतिश्चैकषष्टिभागा योजनस्वेत्येवरूपात्पञ्च योजनानि पश्चत्रिंशबैक पष्टिभागा योजनस्य शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८२७९ परिक्षेपतःप्रक्षिप्तं, तथाहि-प्राक्तनमण्डलादिदं मण्डलं पञ्चभियोजनैः पश्चविंशता कषष्टिभागैर्योजनस्य विष्कम्भतो हीन, पश्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशतकषष्टिभागानां परिरयपरिमाणं व्यवहारतोऽष्टादश योजनानि, ततस्तानि पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमधिकृतपरिरयपरि|माणं भवति, 'दिवसराई तहेव'त्ति दिवसरात्री सधैव प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं एगहिभागमुटुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगडिभागमुहुत्तेहि अहिए' इति, 'एवं खल्वि'त्यादि|४| एतत्सूत्रं प्रागुक्कव्याख्यानानुसारेण स्वयं परिभावनीयं, नवरं 'निवेढमाणे' इति निवष्टयन निर्वेष्टयन् हापयन् हापयदिमित्यर्थः, 'ता जया ण'मित्यादि सुगम, अधुना प्रस्तुतवक्तव्यतोपसंहारमाह-'ता सवाविण'मित्यादि, ततः सर्वाण्यपि अनुक्रम [३४] कहकर ४३॥ Fhi ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप भण्डलपदानि प्रत्येक बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, उपलक्षणमेतत् , अनियतानि चायामविष्कम्भपरि[धिभिः तथा सर्वाण्यपि च मण्डलान्तरकाणि-मण्डलान्तराणि, सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , हे द्वे योजने विष्कम्भेन, तत एष द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशच्चैकपष्टिभागा योजनस्येत्येवंरूपो, णमिति वाक्यालङ्कारे, अध्वा-पन्याख्यशीत्यधिकशतप्रत्युत्पन्नः-व्यशीत्यधिकेन शतेन गुणितः सन् पञ्चदशोत्तराणि योजनशतान्याख्याता इति वदेत्, तथाहि-के योजने व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्येते जातानि त्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि ३६६, येऽपि च अष्टाचत्वारिंशदेकष-8 ष्टिभागास्तेऽपि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातानि सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि ८७८४, तेषां योजनानय-15 नार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशं योजनशतं १४४, तत् पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि पश्च शतानि दशोत्तराणि ५१०, अस्यैवार्थस्य व्यक्तीकरणाथै भूयः प्रश्नसूत्रमाह-ता अभितराओ'इत्यादि, 'ता' इति तत्र अभ्यन्तरात्-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलपदात् परतो यावद्बाह्य-सर्वबाह्यं मंडलपदं बाह्याद्वा-सर्वबाह्याद्वा मण्डलपदादांक यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलपदमेष--एतावान् अध्वा कियान्-कियत्प्रमाण आख्यात इति वदेत् , एवमुक्ते गौतमेन भगवानाह-'ता' इत्यादि, तावानभ्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि आख्यात इति वदेत् । स्वशिष्येभ्यः, पश्चदशोत्तरयोजनशतभावना प्रागुकानुसारेण स्वयं परिभावनीया, "अभितराए'इत्यादि, अभ्यन्तरेण मण्डलपदेन सह अभ्यन्तरा मण्डलपदादारभ्य यावद्वाह्य-सर्वबाह्य मण्डलपदं यदिवा बाह्येन-सर्ववाद्येन मण्डलपदेन सर्वबाह्यान्मण्डलपदादारभ्य &ायावत्सवाभ्यन्तरं मण्डलं एष एतावान् अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् 1, भगवानाह-'ता पंचे'त्यादि, स एतावान् CBSITERARE534645 अनुक्रम [३४] ~100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल. प्रत ८प्राभूत माभूत सूत्राक ॥४४॥ [२०] दीप अध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतान्यष्टाचत्वारिंशचैकषष्टिभागा योजनस्येत्याख्यात इति वदेत्, पूर्वस्मादध्वपरिमाणात् एतस्याध्वपरिमाणस्य सर्वबाह्यमण्डलगतेन चाहल्यपरिमाणेनाधिकत्वात् , 'ता अभितरेत्यादि, 'ता' इति अभ्यन्तरा-2 न्मण्डलपदात्परतो बाह्यमण्डलपदात्-सर्वबाह्यमण्डलादाक् यद्वा बाह्यमण्डलपदादाक् अभ्यन्तरमण्डलात्परत एषः अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् !, भगवानाह–ता पंचेत्यादि, पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि त्रयोदश चैकषष्टि|भागा योजनस्य आख्यात इति वदेत् , पूर्वस्मादध्वपरिमाणादस्याध्वपरिमाणस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतसर्वेबाह्यमण्डलगतवाहल्यपरिमाणेन पश्चत्रिंशदेकषष्टिभागाधिकैकयोजनरूपेण हीनत्वात् , तदेवमभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो यावत्सर्वबाचं मण्डलं सर्ववाद्याद्वा मण्डलादाक् यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं तथा सर्वाभ्यन्तरसर्वबाधमण्डलाभ्यां सह तथा सर्वाभ्यन्तरसर्ववाह्यमण्डलाभ्यां विना यावदध्वपरिमाणं भवति तावनिरूपित, सम्प्रति सर्वाभ्यन्तरेण मण्डलेन सह सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो बाह्यमण्डलादर्वाक यदिवा सर्वचाह्यमण्डलेन सह सर्वबाह्यमण्डलादर्वाक् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो यावदध्वपरिमाणं भवति तावन्निरूपयति-अमितराए' इत्यादि, अभ्यन्तरेण मण्डलपदेन सह अभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः सर्ववाह्यान्मण्डलाद गिति गम्यते, यदिवा सर्वबाह्येन मण्डलपदेन सह सर्वबाह्यान्मण्डलादक सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परत इति गम्यते, योऽध्वा एष णमिति वाक्यालकारे अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् !, भगवानाह-'ता', | इत्यादि, तावानध्या पश्चदशोत्तराणि योजनशतानि आख्यात इति वदेत्, भावना सुगमत्वान्न क्रियते। C इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथम-प्राभूतस्य प्राभूतप्राभृतं ८ समाप्त 4 अनुक्रम [३४] ॥४४॥ % ES Foto अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ८ परिसमाप्तं तत् समाप्ते प्रथमं प्राभृतं अपि परिसमाप्तं ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक [२१] 5 तदेवमुक्तं प्रथमप्राभृतं, सम्प्रति द्वितीयं वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकारः 'कथं तिर्यक् सूर्यः परिश्रमतीति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-' | ता कहं तेरिच्छगती आहिताति वदेज्जा, तत्थ खलु इमाओ अट्ट पहिवत्तीओ पण्णताओ, तत्थेगेएवमा हंसु ता पुरच्छिमातो लोअंतातोपादोमरीची आगासंसि उत्तिट्ठति से गं इमलोयं तिरिय करेइ तिरियं करेत्तापचत्थिमंसि लोयंसि सायंमि रायं आगासंसि विद्धंसिस्संति एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरच्छिमातो लोअंतातो पातो सूरिए आगासंसि उत्तिद्दति, सेणं इमं तिरियं लोपं तिरियं करेति | करित्ता पचत्थिमंसि लोयंसि सूरिए आगासंसि विडंसंति, एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरत्थिमाओ लोयंतातो पादो सूरिए आगासंसि उत्तिट्ठति, से इमं तिरियं लोयं तिरियं करेति करित्ता पचत्थिमंसि लोयंसि सायं अहे पडियागच्छति, अधे पडियागच्छेत्ता पुणरवि अवरभूपुरस्थिमातो लोयंतातो पातो सूरिए आगासंसि उत्तिट्ठति, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमासु-ता पुरत्थिमाओ लोगंताओ पाओस् |रिए पुढविकायंसि उत्तिकृति, से णं इमं तिरियं लोयं तिरिय करेति करेत्ता पचत्थिमिल्लंसि लोयंतसि सायं सूरिए पुढविकार्यसि विद्धंसह, एगे एवमाहंसु४, एगे पुण एवमासु पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढविकायंसि उत्तिकैइ से णं इमं तिरियं लोयं तिरियं करेइ करेत्ता पचस्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए पुढविकासि अणुपविसह अणुपविसित्ता अहे पडियागच्छद २ पुणरवि अवरभूपुरस्थिमाओ लोगंताओ अनुक्रम -46- [३५] 515 अथ द्वितियं प्राभृतं आरब्धं अत्र द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ आरभ्यते ~102~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल.) सुत्राक ॥४५॥ [२१] ACTOR पाओ सूरिए पुढविकायंसि उत्तिइ, एगे एव०५, एगे पुण एवमाहेसु ता पुरथिमिल्लाओ लोयंताओ पाओग्राभृतः सूरिए आउकार्यसि उत्तिट्ठइ, से णं इमं तिरियं लोयं तिरिय करेइ करेत्ता पचस्थिमंसि लोयंतंसि पाओ १ प्राभृतसूरिए आउकायंसि विद्धंसंति, एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एबमाहंमु-ता पुरथिमातो लोगंतातो पाओ प्राभृतं सूरिए आउकार्यसि उत्तिट्टति, से णं इमं तिरिय लोयं तिरिय करेति २ सा पञ्चस्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए आउकार्यसि पविसह, पविसित्ता अहे पडियागच्छति २त्ता पुणरवि अवरभूपुरस्थिमातो लोयंतातो पादो सूरिए आउकासि उत्तिट्ठति, एगे एव०७, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरस्थिमातो लोपंताओ बहई जोयणाई यह जोयणसाई बरई जोयणसहस्साई उहुं दूरं उप्पतित्ता एत्थ पातो मूरिए आगासंसि उत्तिट्ठति, से थे इमं दाहिणहुं लोयं तिरियं करेति करेसा उत्तरडलोयं तमेव रातो, से णं इमं उत्सरलोयं तिरियं करेइ २सा दाहिणडलोपं तमेव राओ, से णं इमाई दाहिणुत्तरडलोयाई तिरियं करेइ करित्ता पुरस्थिमाओ लोयंतातो बहुई 'जोयणाई बहुयाई जोयणसताई बहूई-जोयणसहस्साई उहुं दूर उप्पतित्ता एत्थ णं पातो सूरिए आगासंसि उत्तिहति एगे एवमाहंसु८ । वयं पुण एवं वयामो, ता जंबुद्दीवस्स २ पाईणपडीणायतओदीणदाहिणायताए जीवाए मंबलं चउदीसेणं सतेणं छेत्ता दाहिणपुर- ४ ॥४५॥ च्छिमसि उत्तरपञ्चस्थिमंसि य चउम्भागमंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो अट्ट जोयणसताई उडे उष्पतित्सा एत्थ णं पादो दुवे सूरिया उसिट्ठति, ते णं इमाई दाहिणुत्तराईम अनुक्रम [३५] FhiralMAPIMIREUMORE ~103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत काकड SC44642 सूत्रांक [२१] % जंबरीवभागाईतिरियं करेंति २सा पुरस्थिमपचत्थिमाई जंबुद्धीवभागाई तामेव रातो, से गं इमाई पुर-1 छिमपचत्थिमाई जंबुद्धीवभागाइं तिरियं करेंति २त्ता दाहिणुत्तराईबुद्दीषभागाई तामेव रातो, ते णं| इमाई दाहिणुत्तराई पुरच्छिमपचत्थिमाणि य जंबुद्दीवभागाई तिरियं करेति २त्ता जंबुद्दीवस्स २ पाईणपडियायतओदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउबीसेणं सतेणं छेसा दाहिणपुरच्छिमिल्लंसि उत्तरपच्चथिमिल्लसि य चभागमंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो अट्ट जोय-18 माणसयाई उहुं उष्पइत्ता, एस्थ णं पादो दुवे सूरिया आगासंसि उत्तिकृति (सूत्र २१)। पितीयस्स परम ॥१॥ 'ता कहं तेरिफछगई' इत्यादि, अस्त्यन्यदपि प्रभूत प्रष्टव्यं परं एतावदेव तावत्पृच्छामि कथं 'ते' त्वया भगवन् ! सूर्यस्य तिर्यग्गतिः-तिर्यकपरिभ्रमणमाख्याता इति वदेत् , एवमुक्के भगवान् एतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनार्थ प्रथमतस्ता एव प्रतिपत्तीरुपन्यस्यति-तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र-सस्यां सूर्यस्य तिर्यग्गती-तिर्यग्गतिविषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपा अष्टौ प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, ता एव क्रमेणाह-'तत्थेगे'इत्यादि, सातत्र-तेपामष्टानां परतीथिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एघमाहुः, 'ता' इति पूर्ववत् पौरस्त्यालोकान्तादूर्वमिति गम्यते, पूर्वस्यां दिशीति भावार्थः, माता-प्रभातसमये मरीचिः-मरीचिसङ्घातः किरणसवात इत्यर्थः, आकाशे उत्तिष्ठति-उत्पबचते, एतेन एतदुक्तं भवति-नैतद्विमानं नापि रथो नापि कोऽपि देवतारूपः सूर्यः किन्तु किरणसवात एवष वर्तुलगोला कारो लोकानुभावात्प्रतिदिवसं पूर्वस्यां दिशि प्रातराकाशे समुत्पद्यते, यतः सर्वत्र प्रकाशः प्रसरमधिरोहति, स इत्थंभूतो अनुक्रम [३५] 945 ~104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत तिवृत्तिः (मल.) सुत्रांक ॥४६॥ [२१] मरीचिसात उपजातः सन् णमिति वाक्यालङ्कारे इम-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं लोक-तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति, किमुक्ताभृते भवति !-तिर्यक् परिभ्रमन्निम तिर्यग्लोकं प्रकाशयतीति, तिर्यक् कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये विध्वंसते, प्राभूतअत्रोपसंहारः-'एगे एवमासु तथा जगत्स्वाभाव्यात् स मरीचिसवात आकाशे विध्वंसते-विध्वंसमुपयाति एवं सकल- प्राभूत कालमपि, अत्रैवोपसंहारः, 'एगे एवमाहंसु' १, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यो लोकप्रसिद्धो देवतारूपो भास्करस्तथाजगत्स्वाभाव्यादाकाशे उत्पद्यते, स चोत्पन्नः सन्निम तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति-तिर्यक् परिभ्रमन्निम लोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, तिर्यक् च कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये आकाशे विध्वंसते अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु'२, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदावस्थायी तथाविधपुराणशास्त्रप्रसिद्ध आकाशे उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोद्तः सन्तिम प्रत्यक्षत उपलभ्यमान मनुष्यलोकं तिर्यक् करोति तिर्यक् च कृत्वा || पश्चिमलोकान्ते सायं-सम्ध्यासमये अध आकाशमनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति-अधोभागेन प्रत्यागच्छति, | अधोलोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्तते इत्यर्थः, तन्मतेन हि भूरियं गोलाकारा लोकोऽपि च गोलाकारतया व्यवस्थितः, इदं च मतं सम्प्रत्यपि तीर्थान्तरीयेषु विज़म्भते, ततस्तद्गत पुराणशास्त्रादेतत्सम्यगवसेयं, अस्य त्रयो भेदार, एक एव-| & माहुः-प्रातः सूर्य आकाशे उद्गच्छति, अपरे आहुः पर्वतशिरसि, अन्ये आहुः-समुद्रे इति, तत्र प्रथमानामिदं मतमुप-॥४५॥ मान्यस्तं, अधः प्रत्यागत्य च पुनरप्यवरभुव:-अधोभुवः पृथिव्या अधोभागाद्विनिर्गत्येत्यर्थः, पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्ध्वमाकाशे | 2 प्रातः सूर्य उगछति, एवं सर्वदापि द्रष्टव्यं, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' ३, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्यालोकान्ता अनुक्रम [३५] JAMERITatonintamatima ~105~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] C4% दूर्व प्रातः सूर्यो देवतारूपस्तथाविधपुराणप्रसिद्धः पृथिवीकाये-पृथिवीकायमभ्ये उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति-उत्पयते,X स चोत्पन्नः सन्तिम मनुष्यलोक तिर्यकरोति, तिर्यक् परिश्रमन्निमं मनुष्यलोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, तिर्यकृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सामध्ये समये सूर्यः पृथिवीकाये-अस्तमयभूधरशिरसि विध्वंसते-विध्वंसमुपयाति, एवं प्रतिदिवस सकलकालं जगत्स्थितिः परिभावनीया, अनोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्यालोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदावस्थायी पृथ्वीकाये-उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोद्गतः सन्निमं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति, तिर्यकुकृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये पृथिवीकार्य-अस्तमयभूधरमनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति-अधोभागवर्तिनं लोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्त्तते, ततः पुनरप्यवरभुवः-अधोभुवः पृथिव्या |4|| अधोभागाद्विनिर्गत्येत्यर्थः, पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये-उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति, एतेऽपि भूगोलवादिनः परं पूर्व आकाशे उत्तिष्ठतीति प्रतिपन्नाः एते तु पर्वतशिरसीति शेषः, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' ५, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्यालोकान्तादूर्घ प्रातः सूर्योऽष्काये-पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति-उत्पद्यते, स चोरपन्नः सन्निम-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति, तिर्यकृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सार्य-सान्ध्ये समये सूर्योऽकाये-पश्चिमसमुद्रे विध्वंसमुपगच्छति, एवं सर्वदापि, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमासु' ६, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यः सदा वस्थायी पुराणशास्त्रप्रसिद्धोऽस्काये-पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोद्गतः सन्तिम तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति, तिर्यक्x & परिभ्रमन्निम तिर्यग्लोक प्रकाशयतीत्यर्थः, तिर्यक् कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये सूर्योऽप्कार्य-पश्चिमसमुद्र अनुक्रम [३५] ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) प्राभुते १ प्राभूत प्रत ॥४७॥ मनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति-अधोभागवर्तिनं लोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्तत इति भावः, अधः प्रत्यागत्य चावरभुवः-अध:पृधिव्या अधोभागाद्विनिर्गत्येत्यर्थः, पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्योऽकाये पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति- उद्गच्छति, एवं सकल कालमपि, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु'७,एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रथमतो| बहूनि योजनानि ततः क्रमेण बहूनि योजनशतानि तदनन्तरं क्रमेण बहूनि योजनसहस्राणि दूरमूर्ध्वमुत्प्लुत्य-बुझ्या गत्वा अत्र-अस्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदावस्थायी उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोगतः सन्निम दक्षिणा - लोक-दक्षिणदिग्भाविनमर्द्धलोकं, दक्षिणं लोकस्यामित्यर्थः, तिर्यकरोति-तिर्यक् परिश्रमन् दक्षिणलोकाई प्रकाशयतीत्यर्थः, दक्षिणं चार्द्धलोकं तिर्यकुर्वन् तदैवोत्तरमीलोकं रात्री करोति, ततः स सूर्यः क्रमेणेममर्द्धलोकमुत्तरै तिर्यकरोति, तत्रापि तिर्यक् परिभ्रममन् उत्तरमर्द्धलोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, उत्तर चालोकं तिर्यपरिभ्रमणेन प्रकाशयन् तदैव दक्षिणमर्द्धलोकं रात्रौ करोति, ततः स सूर्य इमो दक्षिणोत्तरार्द्ध लोको तिर्यकृत्वा भूयोऽपि पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रथमतो बहूनि योजनानि गत्वा ततः क्रमेण बहूनि योजनशतानि तदनन्तरं बहूनि योजनसहस्राणि दूरमूर्ध्वमुत्प्लुत्य-मुख्या गत्वा अत्र-अस्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्य आकाशे उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, एवं सकल कालं, अत्रोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु'८। तदेवं परप्रतिपत्तीरुपदय स्वमतमुपदर्शयति–'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञानाः केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तूपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्योपरि यद्वा तद्वा मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा, चतुर्विंशत्यधिकशतसश्वान् भागान् मण्डलं परिकल्प्ये [३५] ॥४७॥ FitraalMAPINAMORE ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक त्यर्थः, भूयश्च प्राचीनापाचीनायतया उदीच्यदक्षिणायतया प्रत्यश्चया-दवरिकयेत्यर्थः, तन्मण्डलं चतुर्भिर्भागैर्विभज्य दक्षिणपौरस्त्य उत्तरपश्चिमे च चतुर्भागमण्डले-मण्डलचतुर्भागे एकत्रिंशद्भागप्रमाणे, एतावति किल चतुरशीत्यधिकमपि * मण्डलशतं सूर्यस्योदये प्राप्यते इति 'चउवीसेणं सएणं छित्ता चउठभागमंडलंसी स्युकं, अस्या:-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया रक्षप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्ध्वमष्टी योजनशतान्युत्प्लुत्य-चुन्या गत्वा अत्रान्तरे प्रातद्वौं | सूर्यावृत्तिष्ठतः-उद्गच्छतः, दक्षिणपौरस्त्यमण्डलचतुर्भागे भारतः सूर्य उगच्छति अपरोत्तरस्मिन् मण्डलचतुर्भागे ऐरावतः सूर्यः, तौ चैवमुद्गतौ भरतैरावतसूयौँ यथाक्रममिमौ दक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीपभागौ तिर्यकरुतः, किमुक्तं भवति 2-13 भारतः सूर्यो दक्षिणपौरस्त्यमण्डल चतुर्भागे उद्गतः सन् तिर्यक् परिभ्रमति तिर्यक् परिश्रमन् मेरोदक्षिणभागं प्रकाश-* यति, ऐरावतः पुनः सूर्योऽपरोत्तरदिग्विभागे उद्गच्छति, स चोद्गतः सन् तिर्यक् परिधमन् मेरोरुत्तरभागं प्रकाशयतीति, इत्थं च भारतैरावतसूर्यो यदा मेरोदक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीपभागौ तिर्यकुरुतः तदैव ती पूर्वपश्चिमी जम्बूद्वीपभागौर रात्री कुरुतः, एकोऽपि सूर्यस्तदा पूर्वभार्ग पश्चिमभागं वा न प्रकाशयतीत्यर्थ, दक्षिणोत्तरीच भागो तिर्यकृत्वा ताविमौ । पूर्वपश्चिमौ जम्बूद्वीपभागी तिर्यफरुता, इयमत्र भावना-ऐरावतः सूर्यो मेरोरुत्तरभागे तिर्यक परिभ्रम्य तदनन्तरं मेरोरेव | पूर्वस्यां दिशि तिर्यक् परिभ्रमति, भारतः सूर्यो मेरोदक्षिणतस्तिर्यक् परिचम्य सदनन्तरं मेरोः पश्चिम भागे तिर्यक परिभ्रमतीति, इत्थं च यदा ऐरावतभारतौ सूर्यों यथाक्रम पूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कुरुतस्तदैव दक्षिणोसरी जम्बूद्वीप|भागौ रात्री कुरुतः, एकोऽपि सूर्यस्तदा दक्षिणभागं उत्तरभार्ग वान प्रकाशयतीति भावः, तत इत्थं यथाक्रममैरावत 1525%% [२१] अनुक्रम [३५] Fhi ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभृते १प्राभूत प्राभूत प्रत तिवांतर मल०) सूत्राक ॥४८॥ [२१] भारतसूर्यों पूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कृत्वा यो भारतः सूर्यः स उत्तरपश्चिममण्डलचतुर्भागे उदयमासादयति, यश्चरावतः स दक्षिणपीरस्त्ये मण्डलचतुर्भागे इति, एतदेवोपदर्शयन्नुपसंहारमाह-ते णं' इत्यादि, तो भारतैरावती सूर्यों प्रथमतो यथाक्रममिमौ दक्षिणोत्तरी जम्बूद्वीपभागी ततो यथायोगं पूर्वपश्चिमी जम्बूद्वीपभागी, भारतः पश्चिमभागमरावतः पूर्वभागमित्यर्थः, तिर्यक् कृत्वा जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्योपरि यद्वा तद्वा मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा भूयश्च प्राचीनापाचीनायतया उदीच्यदक्षिणायतया च जीवया प्रत्यञ्चया दवरिकया इत्यर्थः, चतुर्भिविभज्य यथायोगं दक्षिणपौरस्त्ये उत्तरपश्चिमे वा मण्डलचतुर्भागे अस्या रसप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्वमष्टी योजनशतान्युत्प्लुत्य अत्रास्मिन्नवकाशे प्रातद्वौं सूर्यावाकाशे उत्तिष्ठतः-उद्गच्छता, य उत्तरभार्ग पूर्वस्मिन्नहोराने प्रकाशितवान् स दक्षिणपौरस्त्ये मण्डल चतुर्भागे उद्गच्छति, यस्तु दक्षिण भागं प्रकाशयति स्म स उत्तरपश्चिमे मण्डल चतुभोंगे, एवं सकलकालं जगत्स्थितिः परिभावनीया । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दवितिय-प्राभतस्य प्राभतप्राभतं । समाप्तं । तदेवमुफ द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति द्वितीयमारभ्यते, तस्य चायमाधिकारो यथा| 18'मण्डलान्तरे सङ्क्रमणं वक्तव्य'मिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे २ सूरिए चारं चरति आहिताति वदेजा, तत्थ खल इमातो दुवे C4%255ॐ अनुक्रम [३५] ॥ ४ ॥ अत्र द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ परिसमाप्तं अथ द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ आरभ्यते ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [२], -------------------- मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] दीप परिषसीओ पण्णत्ताओ, तस्येगे एघमासु ता मंडलातो मंडलं संकममाणे २ सूरिए भेषधाएणं संकामहरा जाएगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमासु ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए कण्णकलं णिवेटेति, तत्थ जे ते एक माहंसु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे २ भेषधाएणं संकमइ, तेसि णं अयं दोसे, ता जेणंतरण मंडलातो मंडलं संकममाणे २ सूरिए भेयघाएणं संकमति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो न गच्छति, & पुरतो अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेति, सिणं अयं दोसे, तस्थ जे ते एवमाहंसु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे सूरिए कपणकलं णिवेदेति, तेसि णं अयं विसेसे ता जेणंतरेणं मंडलातो मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेदेति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो गच्छति, पुरतो गच्छमाणे मंडलकालं ण परिहवेति, तेसिणं अयं विसेसे. तत्थ जे ते एवमाहंस-मंडलातो मंडलं संकममाणे सरिए कपणकलं णिवेदेति, एतेणं णएणं तवं, णो चेष णं इतरेणं । (सूत्रं २२) बितियस्स पाहुबस्स वितीयं ॥ 'ता कह'मिस्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं भगवन् ! मण्डलान्मण्डलं सङ्कामन् सूर्यश्चारं चरति, चार घरमाख्यात [इति वदेत्, किमुक्तं भवति !-कथं भगवन्नेष सूर्यश्चारं परम् मण्डलाम्मण्डलं सामन् आख्यात इति, अत्र हि मण्डला मण्डलान्सरसङ्गमणमेव वक्तव्यमतस्तदेव प्रधानीकृत्य वाक्यस्य भावार्थो भाषनीया, एवमुक्त भगवानाह-'तत्य स्खलु। इत्यादि, तत्र-मण्डलान्मण्डलान्तरसङ्कमणविषये खल्विमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते तयथा-सत्रके एवमाहुः-ता इति पूर्ववत्स्वयं परिभाषनीषं, मण्डलादपरमण्डलं सामन्-सङ्कमितुमिच्छन् सूर्यों भेदधातेन सङ्कामति, भेदो-मण्डलस्य मण्डलस्थापा-८ अनुक्रम [३६] ~110 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [२], -------------------- मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- (मल.) तिवृत्तिः सूत्रांक ॥४९॥ न्तरालं तत्र घातो-गम, एतच्च प्रागेवोक्तं, तेन संक्रामति, किमुक्तं भवति :-विवक्षिते मण्डले सूर्येणापूरिते सति तद- प्राभूते पा२प्राभूतस्तरमपान्तरालगमनेन द्वितीयं मण्डलं सङ्कामति, सङ्कम्य च तस्मिन्मण्डले चारं चरति, अनोपसंहारः 'एगे एवमाहंसुर प्राभृतं १, एके पुनरेवमाहुः 'ता' इति पूर्ववत् मण्डलान्मण्डलं सामन्-सङ्क्रमितुमिच्छन् सूर्यस्तदधिकृतं मण्डलं प्रथमक्षणादू-का ध्वंमारभ्य कर्णकलं निर्वेष्टयति-मुञ्चति, इयमत्र भावना-भारत ऐरावतो वा सूर्यः स्वस्वस्थाने उद्गतः सन् अपरमण्डलगतं कर्णे प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्य शनैः शनैरधिकृतं मण्डलं तया कयाचनापि कलया मुश्चन् चारं चरति येन । तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति अपरानन्तरमण्डलस्यारम्भे वर्चते इति, कर्णकलमिति च क्रियाविशेषणं द्रष्टव्यं, तचैवं| भावनीयं-कर्ण-अपरमण्डलगतप्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्याधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादूर्वं क्षणे क्षणे कलयाऽतिकान्तं यथा भवति तथा निर्वेष्टयतीति, तदेवं प्रतिपत्तिद्वयमुपन्यस्य यद्वस्तुतत्त्वं तदुपदर्शयति-तत्थेत्यादि, तत्र-तेषां द्वयानां मध्ये ये एपमाहुः-मण्डलामण्डल सङ्कामन भेदघातेन सङ्कामति तेषामयं-अनन्तरमुच्यमानो दोषः, तमेवाह-येन-न्यावता | कालेन अन्तरेण-अपान्तरालेन मण्डलान्मण्डल सङ्कामन् सूर्यो भेदघातेन सङ्कामतीत्युच्यते, एतावतीमद्धां पुरतो-द्वितीये मण्डले न गच्छति, किमुक्तं भवति -मण्डलामण्डलं सामन् यावता कालेनापान्तरालं गच्छति तावत्कालाऽनन्तरं परि-1 अमितुमिष्टे, द्वितीयमण्डलसत्काहोरात्रमध्यात् व्यति, ततो द्वितीये मण्डले परिभ्रमन् पर्यन्ते तावन्तं कालं न परिचमेत् ॥४९॥ | तद्गताहोरात्रस्य परिपूर्णीभूतत्वात् , एवमपि को दोष इत्याह-पुरतो द्वितीयमण्डलपर्यन्तेऽगच्छन् मण्डलकालं परिभ-13 | वति, यावता कालेन मण्डल परिपूर्ण भ्रम्यते तस्य हानिरुपजायते, तथा च सति सकलजगद्विदितप्रतिनियतदिवस अनुक्रम [३६] कर FridaIMAPIVAHauwone ~111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [२], -------------------- मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक रात्रिपरिमाणव्याघातप्रसङ्गः, 'तेसि णमयं दोसे'त्ति तेषामयं दोषः, 'तत्धेत्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-मण्ड-14 उलान्मण्डलं सामन् सूर्योऽधिकृतमण्डल कर्णकलं निर्वेष्टयति-मुञ्चति तेषामय विशेषो-गुणः, तमेव गुणमाह-'जेणे-15 * स्यादि, येन-यावता कालेनापान्तरालेन मण्डलान्मण्डलं सङ्कामन् सूर्यः कर्णकलमधिकृतं मण्डलं निर्वेष्टयति, एतावती मद्धां पुरतोऽपि द्वितीयमण्डलपर्यन्तेऽपि गच्छति, इयमत्र भावना-अधिकृतं मण्डल किल कर्णकलं निर्वेष्टितं अतोऽपान्त-18 रालगमनकालोऽधिकृतमण्डलसत्क एवाहोरात्रेऽन्तर्भूतस्तथा च सति द्वितीये मण्डले सङ्कान्तः सन् तद्गतकालस्य मनागप्यहीनत्वाद् यावता कालेनापान्तरालं गम्यते तावता कालेन पुरतो गच्छत्ति, ततः किमित्याह-पुरतो गच्छन्मण्डलकालं न परिभवति यावता कालेन प्रसिद्धेन तन्मण्डलं परिसमाप्यते तावता कालेन तन्मण्डलं परिपूर्ण समापयति, न पुनर्म| नागपि मण्डलकालपरिहाणिस्ततो न कश्चित् सकलजगत्प्रसिद्धप्रतिनियतदिवसरात्रिपरिमाणव्याघातप्रसङ्गः, एष तेषाः | मेवादिनां विशेषो-गुणः, तत इदमेव मतं समीचीन नेतरदित्यावेदयन्नाह 'तत्थेत्यादि तत्र येते वादिन एवमाहुमण्डलान्मण्डलं सामन् सूर्योऽधिकृतं मण्डलं कर्णकलं निर्वेष्टयति, एतेन नयेन-अभिप्रायेणासान्मतेऽपि मण्डलान्मण्ड-8 लान्तरसङ्क्रमणं ज्ञातव्यं, न चैवमितरेण नयेन, तत्र दोषस्योक्तत्वात् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां द्वितिय-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं २ समाप्त 24 अनुक्रम [३६] JAME TIMITatana F OR अत्र द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ परिसमाप्त ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत तिः भ७०) सूत्राक [२३] +5 सव सूर्यप्रज्ञ तदेवमुक्तं द्वितीयस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति तृतीयमुच्यते-तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा२ माभूते ट्रामण्डले २ प्रतिमुहर्स गतिर्वक्तव्ये ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ३प्राभृतता केवतियं ते खेत्तं सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमातो पत्तारि माभृतं पडिवत्तीओ पण्णसाओ, तत्थ एगे एबमारंसु-ताछ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेण गच्छति, ॥५०॥ एगे एवमासु १, एगे पुण एवमाहंमु-ता पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति एगेx एवमासु २, एगे पुण एचमाहंसु-ता चत्तारि २ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुटुत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु-ता छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु ४, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छत्ति &ाते एबमाइंसु-जता णं सूरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चरति तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसे अट्ठारस मुहुसे दिवसे भवति, जहणिया तुवालसमुहत्सा राई भवति, तेसिं च णं दिवसंसि एगं जोषणसतसहस्सा अट्ठय जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णसे, ता जया णं मरिए सपबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति । तया णं उत्तमकहपसा कोसिया अट्ठारसमुष्टता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, तेर्सि ॥५०॥ चणं विवसंसि बावत्तर्रि जोयणसहस्साई तापक्खेत्ते पण्णते, तथा णं, छ जोपणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहसेणं गच्छति, तत्थ जे ते एबमाईसुता पंच पंच जोयणसहस्साईसरिए एगमेगेणं मुहुसेणं गच्छति, अनुक्रम [३७] अथ द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ आरभ्यते ~113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः Jan Eiration int ते एवमाहंता जता णं सूरिए सङ्घन्तरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति, तहेव दिवसराइप्पमाणं तंसि व (णं तावखेत्तं नउइजोपणसहस्साई, ता जया णं सङ्घवाहिरं मंडल) उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं तं चैव रादियप्यमाणं तंसि च णं दिवसंसि सद्धिं जोयणसहस्साई नायकखेत्ते पत्ते, तता णं पंच (पंच) जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता जया णं सूरिए सवन्तरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं दिवसराई तहेव, तंसि च णं दिवसंसि बावन्तरिं जोयणसहस्साई तावक्खेसे पण्णत्ते, ता जया णं सूरिए सङ्घबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं राईदियं तथैव, | तंसि च णं दिवसंसि अडयालीसं जोयणसहस्साई तावक्खेसे पं० तता णं चत्तारि २ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं महत्तेणं गच्छति तत्थ जे ते एवमाहंसु छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुसेणं गच्छति ते एवमाहंसु-ता सूरिए णं उग्गमणमुहतेणं सिय अत्थमणमुहु सिग्धगता भवति, तता णं छ छ जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, मज्झिमतावखेत्तं समासादेमाणे २ सूरिए मज्झिमगता भवति, तता णं पंच पंच जोयणसहस्साइं एगमेगेणं मुहतेणं गच्छति, मज्झिमं तावखेत्तं संपत्ते सूरिए मंदगती भवति, तता णं चत्तारि जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहतेणं गच्छति, तत्थ को हेऊत्ति बदेजा ?, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्लेवेणं, ता जया णं सूरिए सकभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं दिवसराई तहेब तंसि च णं दिवसंसि एकाणइति जोयणसहस्सारं तावन्ते पं०, ता जया णं F&P UW ON ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल० २ प्रामृते३ प्राभृत प्रत ॥ ५१॥ ASKAR सरिए सबवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं राइदियं तहेब, तस्सि च णे दिवसंसि एगहि- जोयणसहस्साई तावखेत्ते पण्णत्ते, तता णं छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति, एगे एवमासु वयं पुण एवं वदामो ता सातिरेगाई पंच रजोयणसहस्साइंसूरिए एगमेगेणं मुहसेणं गच्छति, तत्थ को हेतूत्ति वदेजा, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ परिक्खेवेणं ता जता णं सूरिए सवभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच र जोयणसहस्साई दोषिण य एकावण्णे जोयणसए एगूणतीसं च सहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इधगतस्स मणुसस्स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहि दोहि य तेवढेहिं जोषणसतेहिं एकवीसाए य सहिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छति, तया णं दिवसे राई तहेव, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढ़मंसि अहोरत्तंसि अन्भितराणंतरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति, ता जयाणं सूरिए अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई दोण्णि य एकावणे जोयणसते सीतालीसंच सहिभागे जोयणस्स एगमेगणं मुहुतेणं गच्छति, तता णं इहगयस्स मणूसस्स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं अउणासीते य जोयणसते सत्तावपणाए सट्ठिभागेहि जोयणस्स सहिभागं च एगडिहा छेत्ता अजणावीसाए चुणियाभागेहिं सूरिए चक्खुष्कासं हवमागच्छति, तता णं दिवसराई तहेव, से णिक्खममाणे सूरिए दोसि अहोरत्तंसि अम्भितरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं मूरिए अम्भितरतचं मंडलं स्वसंकमित्ता चार चरति तता पंच २ अनुक्रम [३४] ॥५१॥ FhiralMAPIMIREUMORE ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] जोयणसहस्साई दोणि य यावण्णे जोयणसते पंच य सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता गं इहगतस्स मण सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं छपणउतीए य जोयणेहिं तेत्तीसाए य सहिभागेहि। जोयणस्स सर्टि भागं च एगद्विधा छेत्ता दोहिं चुणियाभागेहिं सूरिए चक्खुष्कासं हधमागच्छति, तता णं दिवसराई तहेव, एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे मूरिए तताणंतराओ तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ अट्ठारस २ सहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुटुत्तगतिं अभिवुहेमाणे २चुलसीतिं सीताइ जोयणाई पुरिसच्छायं णिबुडेमाणे २ सबवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ताजया णं सूरिए सववाहिरमंडलं उर्वसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई तिनि य पंचुत्तरे जोयणसते पण्पारस य सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणूसस्स एकतीसाए जोयणेहिं अट्टाहिं एक्कतीसेहिं जोयणसतेहिं तीसाए प सहिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हमागच्छति तता णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमे, छम्मासे एस जे पढमस्स छम्मासस्स पनवसाणे ॥ से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उथसंकमित्ता चारं चरति ता जता णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई तिपिण य चात्तरे जोषणसते सत्तावणं च ६ सहिभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इधगतस्स मणूसस्स एकतीसाए जोयणसहस्सोहि टीप अनुक्रम [३७] ~116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], ------------------- प्राभृतप्राभूत [३], ------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) प्रत प्राभूत सूत्राक १५२॥ [२३] XXSEX नवहि य सोलेहिं जोयणसएहिं एगूणतालीसाए सहिभागेहिं जोयणस्स सहिभागं च एगट्टिहा छेत्ता सहिए प्राभृते चुण्णियाभागे सरिए चक्खुफासं हवमागच्छति, तता णं राइंदियं तहेब, से पविसमाणे सूरिए दोचंसिदा अहोरत्तंसि बाहिरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरतच मंडलं उवसंकमित्ता प्राभूत चारं चरति तता णं पंच पंच जोयणसहस्साई तिन्नि य चउत्तरे जोयणसते ऊतालीसं च सद्विभागे जोय. णस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणूसस्स एगाधिरोहिं पत्तीसाए जोयणसहस्सेहि। एकावण्णाए य सहिभागेहिं जोयणस्स सहिभागं च एगद्विधा छेत्ता तेवीसाए चुपिणयाभागेहिं सरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छति, राइंदियं तहेब, एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सरिए तताणतरातो तताणतरं* मंडलातो मंडलं संकममाणे २ अट्ठारस २ सहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई णिचुढेमाणे २ सातिरेगाई पंचासीति २ जोयणाई पुरिसच्छायं अभिवढेमाणे २ सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जता णं सुरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमिता चारं चरति तताणं पश्च २ जोयणसहस्साई दोषिण य एक्कावण्णे जोयपासए अट्ठतीसं च सहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति तता णं इहगयस्स मणूसस्स IM५२॥ |सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य दोवडेहिं जोयणसतेहिं एकवीसाए य सहिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुष्कासं हबमागच्छति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहसे दिवसे भवति, जहपिणया दुवा 1514- 15 सव अनुक्रम [३७] LSAX ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] SEAS टीप हालसमुहत्ता राई भवति, एस णं दोचे छम्मासे एसणं दोबस्स छम्मासस्स पजवसाणे एस णं आदिचेर संवच्छरे एस णं आदिचसंवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं २३) वितियं पाहुडं समत्तं ॥ AL 'ता केवतियं ते खित्तं सूरिए'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कियन्मानं क्षेत्रं भगवन् ! ते वया सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, गच्छन्नाख्यात इति वदेत् , एवमुक्ते सति भगवान् एतद्विषयपरतीथिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव परप्रतिपत्तीरुपदर्शयति-तस्थ'इत्यादि, तत्र-प्रतिमुहर्तगतिपरिमाणचिन्तायां खल्विमाश्चतस्रः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-तत्र-तेषां चतुर्णा वादिनां मध्ये एके एवमाहुः-षट् २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तन गच्छति, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु' १, एवमग्रेतनान्युपसंहारवाक्यानि भावनीयानि, एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः-पश्च २४ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहर्सेन गच्छति २, एके पुनस्तृतीया एवमाहुः-चत्वारि २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहुर्तेन गच्छति, ३, अपरे पुनश्चतुर्था एवमाहु-पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहुर्तेन गच्छति, ट्रातदेवं चतस्रोऽपि प्रतिपत्तीः सहेपत उपदर्य सम्प्रत्येतासां यथाक्रमं भावनिकामाह-'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-पटू पटू योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहून गच्छति ते एवमाहुः यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति सदा उत्तमकाठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहा दिवसो भवति सर्वजघन्या च द्वादशमुहतो रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञष्ट एक योजनशतसहस्रमष्टौ च योजनसहस्राणि, तथाहि-तस्मिन्नपि मण्डले उदयमानः * सूर्यो दिवसस्थार्डेन यावन्मानं क्षेत्र व्यामोति तावति व्यवस्थितश्चक्षुर्गोचरमायाति तत एतावत्किल पुरतस्तापक्षेत्रं, यावच्च अनुक्रम [३७] + Jantairaton ki FitraalMAPINAMORE ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञविवत्तिः (मल०) प्राभृते ३प्राभूतप्राभृत प्रत सूत्रांक ॥ ५३॥ [२३]] WIपुरतस्तापक्षेत्रं तावत्पश्चादपि, यत उदयमान इवास्तमयमानोऽपि सूर्यो दिवसस्थाढेन यावन्मात्रं क्षेत्र व्याप्नोति तावति व्यवस्थितश्चक्षुषोपलभ्यते, एतच्च प्रतिप्राणि सुप्रसिद्धं, सर्वाभ्यन्तरे च मण्डले दिवसस्थाई नव मुहूर्तास्ततोऽष्टादशभिर्मुहर्यावन्मात्र क्षेत्रं गम्यं तावत्प्रमाणं तापक्षेत्रं, एकैकेन मुहूर्तेन षट् षट् योजनसहस्राणि गम्यन्ते, ततः पण्णां योजनसहसाणामष्टादशभिर्गुणने भवत्येकं योजनशतसहस्रमष्टौ योजनसहस्राणीति, एवमुत्तरत्रापि तत्तन्मण्डलगतदिवसपरिमाणं प्रतिमुहर्तगतिपरिमाणं च परिभाच्य तापक्षेत्रपरिमाणभावना भावनीया, यदा च सर्वचाय मण्डलमुपसङ्काम्य चार चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति सर्वजघन्यश्च द्वादशमुहूर्तो दिवसः, तस्मिंश्च दिवसे तापक्षेत्रपरिमाणं द्विसप्ततिर्योजनसहस्राणि ७२०००, तदा हि तापक्षेत्र द्वादशमुहूर्तगम्यप्रमाणं, अबार्थे च भावना प्रागुक्तानुसारेण स्वयं |भावनीया, मुहूर्तेन च षटू पटू योजनसहस्राणि गच्छति, ततः पण्णां योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणने भवन्ति द्वासप्ततिरेव योजनसहस्राणीति, इमामेवोपपत्ति लेशत आह-तेसि णमित्यादि, तेषां हि तीर्थान्तरीयाणां मतेन सूर्यः षट् पड़ यो जनसहनाण्येकैकेन मुहून गच्छति तत: सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाले च मण्डले यथोक्तमेव तापक्षेत्रपरिमाणं भवतीति, तथा का'तत्धे'त्यादि, तत्र-तेषां वादिनां मध्ये ये ते एवमाहुः पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति त एवमाहुः-यदा सूर्यः सर्याभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति 'तहेव दिवसराइप्पमाण'मिति अत्र प्रस्ताचे दिवसरात्रि-1 प्रमाणं तथैव-प्रागिव द्रष्टव्यं, 'तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अवारसमुहुत्ते दिवसे हवा, जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई इति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहुर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं-तापक्षेत्रपरिमाणं प्रज्ञप्तं व अनुक्रम [३७] ॥५३॥ K JAMERITatun imumational Fhi ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] नवतियोंजनसहस्राणि, तदा हि प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादशमुहूर्तप्रमाणं तापक्षेत्रं, एकैकेन च मुहूर्तेन गच्छति सूर्यः पञ्च | पञ्च योजनसहस्राणि, ततः पञ्चानां योजनसहस्राणामष्टादशभिर्गुणनेन नवतिरेव योजनसहस्राणि भवन्ति, 'ता जया णमित्यादि, यदा सूर्यः सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा 'तं चेव राइंदियप्पमाण मिति, तदेव प्रागुक्त रात्रिंदिवप्रमाण-रात्रिदिवसप्रमाणं वक्तव्यं, तद्यथा-"उत्तमकठ्ठपत्ता उक्कोसिया अटारसमुहुत्ता राई हवइ जहन्निए दुवालसमहत्ते दिवसे भवतीति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिन् सर्ववाद्यमण्डलगते सर्वजपन्ये द्वादशमहलप्रमाणे दिवसे | तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं षष्टिोजनसहस्राणि ६००००, तदा ह्यनन्तरोक्तयुक्तिवशाद् द्वादशमुहूर्ध्वगम्यप्रमाणं तापक्षेत्रमेकैकेन च मुहून पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छति ततः पञ्चानां योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणने भवति षष्टिर्योजनसहस्राणि, अत्रैवोपपत्तिलेशमाह-'तया णं पंच पंचे'त्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारचरणकाले सर्वबाह्यमण्डलचारचरणकाले च पथ पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहुर्तेन गच्छति, ततः सर्याभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले यथोक्तमातपक्षेत्रप-13 रिमाणं भवति २, 'तत्थे' त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-चत्वारि २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति त एवं सूर्यतापक्षेत्रप्ररूपणां कुर्वन्ति-यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं उत्तमककृपत्ते उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे हवइ जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई' इति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं द्विसप्ततियोंजनसहस्राणि ७२०००, तथा हि-एतेषां मतेन सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन चत्वारि २ योजनसहस्राणि गच्छति, सर्वाभ्यन्तरे च टीप अनुक्रम [३७] C4X ~120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ-18 मण्डले तापक्षेत्रपरिमाणं प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादशमुहूर्त्तगम्य, ततश्चतुर्णा योजनसहस्राणामष्टादशभिर्गुणने भवन्ति द्विस-४२ प्राभृते तिवृत्तिः सतियोंजनसहस्राणि, 'ता जया 'मित्यादि, सतो यदा सूर्यः सर्ववाद्यं मण्डलमुपसङ्काम्य चार चरति, तदा 'राईदियं ३ प्राभृत (मल.) तहेव'त्ति रात्रिंदिवं-रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव-प्रागिव वक्तव्यं, तचैवम्-'तया णं उत्तमकवपत्ता उकोसिया अझरसमुहुत्ता प्राभृत ॥५४॥ राई भवइ, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति' 'तस्सि च णमित्यादि, तस्मिंश्च सर्वबाह्यमण्डलगते द्वादशमुहूर्तप्रमाणे राई भवइ, जहन्ना दुवालसमुहुत्ते दिव दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं अष्टाचत्वारिंशयोजनसहस्राणि ४८०००, तदा हि तापक्षेत्रं द्वादशमुहर्तगम्यं, एकैकेन च मुहूर्तेन चत्वारि २ योजनसहस्राणि गच्छति, ततश्चतुर्णा योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणनेऽष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणि भवन्ति, इमामेवोपपत्तिं लेशतो भावयति–'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले सर्वबाह्यमण्डलचारकाले च यतश्चत्वारि योजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ततः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले यथोक्त तापक्षेत्रपरिमाणे भवति ३ । 'तत्थे त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहर्तेन लीगच्छति ते एवमाहुः-एवं सूर्यचार प्ररूपयन्ति, सूर्य सद्गमनमहत्तै अस्तमयनमुहर्ने च शीघ्रगतिर्भवति ततस्तदा-उद्ग-18 मनकालेऽस्तमयनकाले च सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन षट् षड् योजनसहस्राणि गच्छति, तदनन्तरं सर्वाभ्यन्तरगतं मुहूर्त्तमात्रगम्य तापक्षेत्रं मुक्त्वा शेष मध्यम तापक्षेत्रं परिभ्रमेण समासादयन् मध्यमगतिर्भवति, ततस्तदा पञ्च पश्च योजनसहस्राणि ॥५४॥ एकैकेन मुहूर्जेन गच्छति, सर्वाभ्यन्तरं तु मुहूर्त्तमात्रगम्य तापक्षेत्रं सम्प्राप्तः सन् सूर्यो मन्दगतिर्भवति, ततस्तदा यत्र तत्र वा मण्डले चत्वारि २ योजनसहस्राणि पकैकेन मुहर्तेन गच्छति, अत्रैव भावार्थ पिपृच्छिषुराह-'तत्थेत्यादि, तत्र ॐॐॐॐॐ अनुक्रम ECARE [३७] ~ 121~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 59-2645%2 सूत्राक -+ [२३] -+ + टीप एवंविधवस्तुतत्त्वव्यवस्थायां को हेतुः-का उपपत्तिरिति वदेत, एवं स्वशिष्येण प्रश्ने कृते सति ते एवमाहुः 'ता अयपण'मित्यादि, अन जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् स्वयं परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च, 'जया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति तदा दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं उत्तमकहपत्ते उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ,' 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वा-18 भ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणदिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं एकनवतियोजनसहस्राणि ९१०००, तानि चैवमुपपद्यन्तेउद्गमनमुहूर्तेऽस्तमयमुहूर्ते च प्रत्येक षट् योजनसहस्राणि गच्छतीत्युभयमीलने द्वादश योजनसहस्राणि १२०००, सर्वाभ्यन्तरं मुहर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्र मुक्त्वा शेपे मध्यमे तापक्षेत्रे पञ्चदशमुहूर्तप्रमाणे पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छतीति पश्चानां योजनसहस्राणां पञ्चदशभिर्गुणने पश्चसप्ततिर्योजनसहस्राणि ७५०००, सर्वाभ्यन्तरे तु मुहूर्त्तमात्रगम्ये तापक्षेत्रे चत्वारि योजनसहस्राणि ४००० गच्छतीति सर्वमीलने एकनवतियोजनसहस्राणि ९१००० भवन्ति, न चैतान्यन्यथा घटन्ते, तथा 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य सूर्यश्वारं चरति तदा रात्रिंदिवं-रात्रिंदिवपरि-18 माणं तथैव-प्रागिव वेदितव्यं, तचैवम्-'तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अहारसमुहुत्ता राई भवइ, जहन्नए दुवालस-16 मुहुत्ते दिवसे भवई' इति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वबाह्यमण्डलगते द्वादशमुहर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्त, एकपटियोंजनसहस्राणि ११०००, तानि चैवं घटां प्राञ्चन्ति-उद्गमनमुहर्ते अस्तमयमुहूर्ते च प्रत्येके पद षट् योजन-18 सहचाणि गरछन्ति, सत उभयमीलने द्वादश योजनसहस्राणि भवन्ति १२०००, सर्वाभ्यन्तरं मुहर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं अनुक्रम [३७] ~122~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल) सूत्राक [२३] मुक्त्वा शेषे मध्य मे तापक्षेत्रे नवमुर्तगम्यप्रमाणे पश्च पश्च योजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, ततः पश्चानां प्राभूते योजनसहस्राणां नवभिर्गुणने पश्चचत्वारिंशयोजनसहस्राणि भवन्ति ४५०००, सर्वाभ्यन्तरे तु मुहर्तमानगम्ये तापक्षेत्रे . प्राभृतचत्वारि योजनसहस्राणि ४००० गच्छति, सर्वमीलने एकषष्टियोजनसहस्राणि,न तान्यन्यथोपपद्यन्ते, ततः 'तया 'मि- प्राभूत त्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले सर्वबाह्यमण्डल चारकाले चोक्तप्रकारेण पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसह-12 वाणि सूर्य एकैकेन 'मुहर्तेन गच्छति, अयोपसंहारः-'एगे एवमासु' एके चतुर्था वादिन एवं-अनन्तरोक्केन 4 प्रकारेणाहुः। तदेवं परतीर्थिकतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति वमतमुपदर्शयति-वयंपुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञाना केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तूपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-ता साइरेगाई'इत्यादि, ता| इति पूर्ववत् सातिरेकाणि-समधिकानि पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहतेन गच्छति, इह कापि मण्डले | कियताऽधिकेन पश्च पश्च योजनसहस्राणि गपछति, ततः सर्वमण्डलप्राप्तिमपेक्ष्य सामान्यत उक्तं सातिरेकाणीति, एवमुके हैं भगवान् गौतमस्वामी स्वशिष्याणां स्पष्टायबोधनाय भूयः पृच्छति-तत्थे त्यादि, तत्र-एवंविधायामनन्तरोदिताया। वस्तुव्यवस्थायां को हेतु:-का पपसिरिति वदेत, भगवान् वर्द्धमानस्वामी आह-'ता अयण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीप-18 ॥ ५५॥ वाक्यं पूर्ववरस्वयं परिपूर्ण परिभावनीयं, 'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मजलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा पश्च पश्च योजनसहनाणि द्वे द्वे योजनशते एकपश्चाशदधिके एकोनत्रिंशतं च षष्टिभागान योजनस्य ५२५१३१ एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह द्वाभ्यां सूर्याभ्यामक मण्डलमेकेनाहोरात्रेण परि अनुक्रम [३७] ॐ5-15515 FitraalMAPINANORN ~123~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 1555% सूत्रांक [२३] टीप समाप्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुर्तप्रमाणः, प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणने परमार्थतो द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां मण्डलं परिभ्रमणतः। परिसमाष्यते, द्वयोश्चाहोरात्रप्रमाणयोर्मुहूर्ताः षष्टिर्भवन्ति, ततो मण्डलपरिरयस्य षट्या भागं हारयेत् , भागलब्धं भवति तन्मुहूर्तगतिप्रमाणं, तत्र सर्वाभ्यन्तरे मण्डले परिरयप्रमाणं त्रीणि लक्षाणि पश्चदश सहस्राणि नवाशी(एकोननव)त्यधिकानि ३१५०८९ अस्य षया भागेहते लब्धं यथोकं मुर्तगतिपरिमाणमिति। अत्रास्मिन् सर्वाभ्यन्तरे मण्डले कियति क्षेत्रे व्यवस्थित उदयमानः सूर्य इहगतानां मनुष्याणां चक्षुर्गोचरमायातीतिप्रश्नावकाशमाशश्याह-'तया ण'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरमण्डल चारचरणकाले उदयमानः सूर्य इहगतस्य मनुष्यस्य, अत्र जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थ:-इहगतानां भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहर्दाभ्यां त्रिषष्टाभ्यां-त्रिषष्ठ्यधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेकविंशत्या च षष्टिभागै&ोजनस्य चक्षुःस्पर्श 'हर्षति' शीघ्रमागच्छति, काऽत्रोपपत्तिरिति चेत्, उच्यते, इह दिवसस्यान यावन्मानं क्षेत्र व्याप्यते तावति व्यवस्थित उदयमानः सूर्यः उपलभ्यते, सर्वाभ्यन्तरेघ मण्डले दिवसोऽष्टादशमुहर्तप्रमाणस्तेषामढ़ें नव मुहूर्ताः, एकेकस्मिंश्च मुह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चार चरन पच पच योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते एकपश्चाशदधिके एकोन-| त्रिंशतं च षष्टिभागान योजनस्य गछति, तत एतावन्मुहुर्तगतिपरिमाणं नवभिर्महतैर्गुण्यते, ततो भवति यथोकं दृष्टिपथप्राप्तताविषये परिमाणमिति, 'तया णमित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारधरणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं उत्तमकहपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवई' इति, 'से निक्खममाणे इत्यादि, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलामागुक्तप्रकारेण निष्कामन सूर्यों नवं संवत्सरमाददानो अनुक्रम [३७] %A5 ~124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: IM प्रत सूर्यप्रज्ञ नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'अम्भितरानंतरं'ति सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्थानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्गम्य ||२प्राभूते सिवृत्तिः चार चरति 'ता जया 'मित्यादि तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्गम्य पारंपाभृत(मल०) चरति तदा पञ्च योजनसहस्राणि द्वे योजनशते एकपञ्चाशदधिके सप्तचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य ५२५१४ माभृत ॥५६॥ एकैकेन मुहर्तन गच्छति, तथाहि-अस्मिन् सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि । पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं व्यवहारतः परिपूर्ण सप्तोत्तरं निश्चयमतेन तु किंचिन्यून ३१५१०७, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्ति-13 वशात् पश्या भागो हियते, लब्धं यधोकमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं, अथवा पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणादस्य मण्डलस्य परिरयपरिमाणे व्यवहारतः परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि वर्द्धन्ते, निश्चयतः किश्चिदूनानि, अष्टादशानां च पोजनानां पष्ट्या भागे हृते लब्धा अष्टादश षष्टिभागा योजनस्य, ते प्राक्तनमण्डलगतमुहूर्तगतिपरिमाणेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो भवति यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणमिति, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्तताविषयं परिमाणमाह-'तया ण'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनं इहगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारि-3 शता योजनसहरेकोनाशीत्यधिकेन योजनशतेन सप्तपञ्चाशता पष्टिभागैरेकै च षष्टि भागमेकषष्टिधा छित्त्वा तख सत्करेकोनविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं पञ्च योजनसहवाणि ॥५६॥ देते एकपञ्चाशदधिके सप्तचत्वारिंशच्च पष्टिभागा योजनस्य ५२५१४ दिवसोऽष्टादशमुहर्तप्रमाणो द्वाभ्यों मुहकप-12 ४ष्टिभागाभ्यामूनस्तस्याद्धे नव मुहूत्तो एकेन एकपष्टिभागेन हीनाः, ततः सकलैकषष्टिभागकरणार्थ नव मुहूत्तो एकपल्या * अनुक्रम [३७] % ~125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] टीप गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तत एक रूपमपनीयते, जातानि पञ्च शतान्यष्ट चत्वारिंशदधिकानि ५४८, ततोऽस्य द्वितीयस्य मण्डलस्य यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि लक्षाणिपञ्चदश सहस्राणि शतमेकं सप्तोत्तरमिति ३१५१०७, तत्पञ्चभिः शतैरष्टाचत्वारिंशदधिकैर्गुण्यते, ततो जात एककः सप्तको द्विकः पदः सप्तकोऽष्टकः षटूस्त्रिका पदः १७२६७८६३६, ततो योजनानयनार्थमेकपष्टेः पश्या गुणिताथा यावान् राशिर्भवति तेन भागो हियते, एकपट्यां च षष्ट्या गुणितायां पत्रिंशच्छ तानि पश्यधिकानि भवन्ति ३६६०, तैर्भागे हृते लब्धं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकोनाशीत्यधिक योजनानां, शेषमुखरति, चतुर्विंशच्छतानि पण्णवत्यधिकानि ३४९६, ततोऽस्माद्योजनानि नायान्तीति षष्टिभागानयनार्थं छेदराशिरेकषष्टिर्धियते, तेन भागे हुते लब्धाः सप्तपश्चाशत्पष्टिभागाः" एकस्य च पष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागा इति । 'तया पमित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्री तथैव-मागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं अद्वारसमुहुत्ते दिवसे हवा दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवाल समुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगडिभागमुहुत्तेहिं अहिया इति, से निक्खममाणे इत्यादि, द्वितीयस्मादपि मण्डलात् स सूर्यः प्रागुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् नवस्य संवत्सरस्व सत्के४ द्वितीयेऽहोरात्रे 'अम्भितरतर्थति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति, 'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरान्मण्ड लानृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा पश्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे योजनशते द्विपश्चाशे द्विपञ्चाशदधिके पञ्च च षष्टिभागान् योजनस्य ५२५२० एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तथाहि-अस्मिम्मण्डले परिरयपरि-18 माणे त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं पञ्चविंशत्यधिक ३१५१२५, ततोऽस्य प्रागुरुयुक्तिवशात् षड्या अनुक्रम [३७] F OR ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) ॐ ॥५७ भागो हियते, लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमार्ग, अथवा पूर्वमण्डलमुहुर्तगतिपरिमाणादस्मिन् मण्डले मुहूर्त-शर प्राभूतेभागा इयत, लब्ध यथार गतिपरिमाणचिन्तायां प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादश एकषष्टिभागा योजनस्थाधिकाः प्राप्यन्ते, ततस्तत्प्रक्षेपे भवति यथोकमत्र ३ प्राभृत मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं, अत्रापि रष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमाह-'तया ण'मित्यादि, सदा-सर्वोभ्यन्तरानन्तरत- माभृतं माती यमण्डल चारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनस्य भावादिहगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्रः पणवत्या च योजनैखविंशता च षष्टिभागर्योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां पुर्णिकाभागाभ्यां ४७०९६६। सूर्यचक्षुःस्पर्शमागछति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसोऽष्टादशमुहर्तप्रमाणश्चतुर्भिमहत्पष्टिभागेरूनस्तस्या नव मुहूर्ता द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां हीनाः, ततः सामरत्येनकषष्टिभागकरणार्थ नवापि मुहर्ता एकपष्टया गुप्यन्ते, गुणयित्वा च द्वायंकषष्टिभागौ तेभ्योऽपनीयेते, ततो जाता एकपष्टिभागाः पञ्च शतानि सप्त चत्वारिंशताऽधिकानि ५४७, ततोऽस्य तृतीयमण्डलस्य यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पश्चदश सहस्राणि शत| मेकं पञ्चविंशत्यधिकमिति ११५१२५, तत्पश्चभिः शतैः सप्तचत्वारिंशदधिकैर्गुप्यते, जाता सप्तदश कोटयखयोविंशतिः | शतसहस्राणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि श्रीणि शतानि पश्वसप्तत्यधिकानि १७२३७३३७५, एतेषामेकषष्टया पाल्या गुणितया ३६६० भागो हियते, लब्धानि सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि षष्णव त्यधिकानि ४७०९६, शेषमुद्धरति विंशतिशतानि पञ्चद ||५७॥ शोत्तराणि २०१५, ततोऽस्माद्योजनानि नायान्तीति पष्टिभागानयनार्थं हेदराशिरेकषष्टिधियन्ते, तेन भागे हृते लग्धाख| यस्त्रिंशत्पष्टिभागाः। एकस्य च पष्टिभागस्य सत्को द्वावेकषष्टिभागी 'तया ण'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरतृतीय [३४] JAMEraton intimalsina ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः मण्डल चार चरणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वेदितव्ये, ते चैवम्- 'तथा णं अहारसमुहुते दिवसे हवइ, चउहिं एगडिभागमुहुतेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिया' इति, सम्पति चतुर्थादिषु मण्डलेष्वविदेशमाह-- ' एवं खल्वि'त्यादि, एवं उकेन प्रकारेण खलु निश्चितमेवेन-अनन्तरोदितेनोपायेन शनैः शनैस्तत्तद्बहिर्म ण्डलाभिमुखगमनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्तराम्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं प्रागुक्तप्रकारेण सङ्क्रामन् सङ्क्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तगतिमित्यच सूत्रे द्वितीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वाद्भवति प्राकृतलक्षणवशात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, यथा--'कस्तो रक्ति मुद्धे । पाणियसद्धा सउणयाण' मित्यन [ कुतो रात्रौ मुग्धे ! पानीयश्रद्धा शकुनका नाम ] ततोऽयमर्थः- मुहूर्त्तगतौ अष्टादश २ षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान्निश्चयतः किश्चिदूनानभिवर्द्धयमानः २' पुरिसच्छायमिति पुरुषस्य छाया यतो भवति सा पुरुषच्छाया सा चेह प्रस्तावात् प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य दृष्टिपथप्राप्तता, अत्रापि द्वितीया सप्तम्यर्थे, ततोऽयमर्थः तस्यामेकैकस्मिन् मण्डले चतुरशीतिः २ 'सीपाई'ति शीतानि किञ्चिदयूनानीत्यर्थः, योजनानि निर्वेष्टयन् २- हापयन्नित्यर्थः, इदं च स्थूलत उक्तं, परमार्थतः पुनरिदं द्रष्टव्यं प्रयशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्यं एकस्य षष्टिभागस्य एकपष्टिधा छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंशद्भागाश्चेति दृष्टिपथप्राप्तताविषये विषयहानी ध्रुवं ततः सर्वभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीयं यन्मण्डलं तत आरभ्य यस्मिन् यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातुमिष्यते तत्तन्मण्डलसपया षटूत्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीये मण्डले एकेन चतुर्थे द्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभिर्यावत् सर्ववा मण्डले व्यशीत्यधिकेन शतेन, गुणयित्वा च ध्रुवराशिमध्ये प्रक्षिप्यते, प्रक्षिष्ठे सति यद्भवति तेन namatsind F&PO ~ 128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत २ प्राभृते प्राभूतप्राभृतं सूत्राक [२३] व सूर्यप्रज्ञ- हीना पूर्वमण्डलगता दृष्टिपथप्राप्तता-तस्मिन् विवक्षिते मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता द्रष्टव्या, अथ त्र्यशीतियोजनानीत्यादि- तिवृत्तिः कस्य ध्रुवराशेः कथमुत्पत्तिः!, उच्यते, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते (मल०) त्रिषष्ट्यधिके योजनानामेकविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य ४७२६३३७एतच्च नवमुहूर्तगम्यं, तत एकस्मिन् मुहकपष्टि- पाकभागे किमागच्छतीति चिन्तायां नव मुहर्ता एकषष्टया गुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतान्येकोनपश्चाशदधिकानि ५४९, तैर्भागो। Mहियते, लब्धा षडशीतिर्योजनानि पञ्च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य एकषष्टिवा छिन्नस्य सत्काचतुर्विशति र्भागाः ८६ पूर्वस्मात् २ च मण्डलादनन्तरानन्तरे मण्डले परिरयपरिमाणचिन्तायामष्टादश २ योजनानि व्यवहारतः परिपूर्णानि वर्धन्ते, ततः पूर्वपूर्वमण्डलगतमुहर्तगतिपरिमाणादनन्तरानन्तरे मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणचिन्तायो प्रतिमुहूर्त्तमष्टादशाष्टादश षष्टिभागा योजनस्य प्रवर्द्धमाना द्रष्टव्याः, प्रतिमुहूर्ते कषष्टिभागं चाष्टादश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाः, सर्वाभ्यन्तरानन्तरे च द्वितीये मण्डले सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो भवति नवभिर्मुहू तैकषष्टिभागनोनाचन्मार्च क्षेत्रं व्याप्यते तावति स्थितस्ततो नव मुहूर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तेभ्य एक रूपमपनीयते, जातानि पञ्च शतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि ५४८, तैरष्टादश गुण्यन्ते, जातान्यष्टानवतिः शतानि चतुःषष्टिसहितानि ९८६४, तेषों षष्टिभागानयनार्थमेकषध्या भागो हियते, लब्धमेकषष्ट्याधिक शतं षष्टिभागानां त्रिचत्वारिंशदेकषष्टिभागस्य | सत्का एकपष्टिभागाः १६, तत्र विंशत्यधिकेन षष्टिभागशतेन द्वे योजने लब्धे पश्चादेकचत्वारिंशत्वष्टिभागा अवतिछन्ते, एतच्च द्वे योजने एकचत्वारिंशतषष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्कात्रिचत्वारिंशदेका ष्टिभागा इत्येवं. + अनुक्रम [३७] CANC+ ॥५८॥ S ~129 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृत [२], • प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः Jain Estration in | रूपं प्रागुक्तात् षडशीतियोजनानि पञ्च षष्टिभागा योजनस्य एकषष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विंशतिरेकषष्टिभागा इत्येतस्माच्छो-ध्यते, शोधिते च तस्मिन् स्थितानि पश्चात् व्यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्का | द्विचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः ८३ । एतावद् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषये सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतात् दृष्टिपथ| प्राप्ततापरिमाणात् हानौ प्राप्यते, किमुक्तं भवति १-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राष्ठतायां हानी पुर्व, अत एव | ध्रुवराशिपरिमाणात् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमेतावता हीनं भवतीति एतच्चोत्तरोत्तरमण्डल विषयदृष्टिपथप्राप्तताचिन्तायां हानौ ध्रुवं, अत एव ध्रुवराशिरिति ध्रुवराशेरुत्पत्तिः, ततो द्वितीयस्मान्मण्डलादनन्तरे तृतीये मण्डले | एष एव ध्रुवराशिः एकस्य षष्टिभागस्य सत्कैः षटूत्रिंशतैकषष्टिभागैः सहितः सन् यावान् भवति तद्यथा-व्यशीतियोंजनानि चतुर्विंशतिः षष्टिभागा योजनस्य सप्तदश एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा इति एतावान् द्वितीयमण्डल - गतात् दृष्टिपथप्राष्ठतापरिमाणात् शोध्यते, ततो भवति यथोकं तस्मिन् तृतीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषयं परिमाणं, | चतुर्थे मण्डले स एव ध्रुवराशिद्वसप्तत्या सहितः क्रियते, चतुर्थं हि मण्डलं तृतीयापेक्षया द्वितीयं ततः पट्त्रिंशद् द्वाभ्यां गुण्यते, गुणिता च सती द्विसप्ततिर्भवति, तया च सहितः सन् एवंरूपो जातरूयशीतियजनानि चतुवैिशतिः षष्टिभागा | योजनस्य त्रिपञ्चाशदेकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिर्भागाः ८२३ । एतावान् तृतीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्त तापरिमाणात् शोध्यते, ततो यथावस्थितं चतुर्थे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चेदम्- 'सप्तचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि त्रयोदशोत्तराणि अष्टौ च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का दश एकषष्टिभागाः ४७०१३६ F&PO ~130~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभूत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- (मल) प्रत ॥ ५९॥ [२३] सर्वान्तिमै तु मण्डले तृतीयमण्डलापेक्षया यशीत्यधिकशततमे यदा दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा सार प्राभूते पत्रिंशत् व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, जातानि पश्चषष्टिशतानि द्विपश्चाशदधिकानि ६५५२, ततः षष्टिभागानयनार्थमे-४३प्राभूतकपध्या भागो झियते, लब्ध सप्तोत्तर शतं पष्टिभागानां १०७, शेषाः पञ्चविंशतिरेकपष्टिभागा उद्धरन्ति २५, एतत् ध्रुव- प्राभूत | राशी प्रक्षिप्यते, ततो जातमिदं-पश्चाशीतियोजनानि एकादश पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पट् एकपष्टिभागाः ८५४ षटूशित एवमुत्पत्तिः-पूर्वस्मात् २ मण्डलादनन्तरेऽनन्तरे मण्डले दिवसो द्वाभ्यां द्वाभ्यां मुहूत्कषष्टिभागाभ्यां हीनो भवति, प्रतिमुह कषष्टिभागं चाष्टादश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा हीयन्ते, तत उभयमीलने पत्रिंशमयति, ते चाष्टादश एकपष्टिभागाः कलया न्यूना लभ्यन्ते न परिपूर्णाः, परं व्यवहारतः पूर्व परिपूर्णा विवक्षिताः, तच्च कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा घशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं सत्य ट्राचिन्त्यते तदा एकषष्टिरेकषष्टिभागास्यन्ति, एतदपि व्यवहारत उच्यते, परमार्थतः पुनः किश्चिदधिकमपि त्रुव्यदबसेय,। ततोऽमी अष्टपष्टिरेकपष्टिभागा अपसार्यन्ते, तदपसारणे पश्चाशीतियोजनानि नव पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभा-1 मागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ८५ इति जातं, ततः सर्ववाद्यमण्डलानन्तराकिनद्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणादेकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पोडशोत्तराणि योजनानामेकोनचत्वारिंशत्यष्टिभागा योजनस्य एकस्य प| ॥ ५९॥ पष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ११९१६॥ इत्येवंरूपात् शोध्यते, ततो यथोक्तं सर्ववाद्ये मण्डले दृष्टिपथप्राप्त-| तापरिमाणं भवति, तश्चाने स्वयमेव सूत्रकृद्रक्ष्यति, तत एवं पुरुषच्छायायां रष्टिपथप्राप्ततारूपायां द्वितीयादिषु केषुचि अनुक्रम [३७] F OR ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः + प्रत ज सूत्रांक [२३] टीप मण्डलेषु चतुरशीति २ किश्चिन्यूनानि योजनानि उपरितनेषु तु मण्डलेवधिकानि अधिकतराणि उक्कप्रकारेण नि.-| ष्टयन २ तावदवसेयं यावत्सर्ववाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, 'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा णमिति पूर्ववत् ५ सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन पश्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि त्रीणि शतानि पश्चदश |च पष्टिभागान् योजनस्य ५३०५ गच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टा-12 दश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५, तत एतस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् पट्या भागो हियते, ततो लब्धं| | यथोक्तमत्र मुहर्तगतिपरिमाणमिति, अत्रैव दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह-'तया ण'मित्यादि, तदा-सर्वबाह्यमण्डलचारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनमिहगतानां मनुष्याणां एकत्रिंशता योजनसहरष्टभिरेकत्रिंशदधिकोजनशतैविंशता च षष्टिभागोंजनस्य ३१८३१६सूर्यः शीघ्रं चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तदा ह्यस्मिन् मण्डले चारं चरति सूर्य द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, दिवसस्य चार्डेन यावन्मात्रं क्षेत्र व्याप्यते तावति व्यवस्थित उदयमानः सूर्य उपलभ्यते, द्वादशानां च मुहूर्तानामढ़े षट् मुहूर्तास्ततो यदत्र मण्डले मुहुर्तगतिपरिमाणं पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चोत्राणि पश्चदश च षष्टिभागा योजनस्य ५३०५७ तत् पद्भिर्गुण्यते, ततो यथोक्तमत्र दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, अत्रापि दिवसरात्रिप्रमाणमाह-तया ण'मित्यादि, सुगमम् । 'से पविसमाणे इत्यादि, स सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलादुक्तप्रकारेणाभ्यन्तरै मण्डलं प्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददानो द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिरानंतर ति सर्वबाह्यान्मण्डलादनन्तरमा तनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति 'ता जया ण'मित्यादि तत्र यदा सर्वेबाह्यानन्त अनुक्रम [३७] ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[१७], उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः - सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल०) ॥ ६० ॥ रमर्यातनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकेन मुहर्त्तेन पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि चतुरुत्तराणि योजनशतानि सप्तपञ्चाशतं च पष्टिभागान् योजनस्य ५३०४ गच्छति, तथाहि--अस्मिन् मण्डले परिश्यपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके योजनानां ३१८२९७, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् पट्या भागो हियते, हृते च भागे लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाहू - 'तथा णमित्यादि, तदा इहगतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनं इहगतानां मनुष्याणामेकत्रिंशता योजनसहस्रैर्नवभिः षोडशैः- पोडशोत्तरैर्योजनशतैरेकोनचत्वारिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैः षष्ट्या चूर्णिकाभागैः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि--अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहर्त्तकपष्टिभागाभ्यामधिकः, तेषां चार्द्ध षट् मुहूर्त्ता एकेन मुहूर्त्तेकपष्टिभागेनाभ्यधिकाः, ततः सामस्त्येनैकपष्टिभागकरणार्थे पडपि मुहर्त्ता एकपट्या गुण्यन्ते गुणयित्वा च एकषष्टिभागस्तत्राधिकः प्रक्षिप्यते ततो जातानि त्रीणि शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि एकषष्टिभागानां | ३६७, ततः सर्वबाह्यादर्वाकने तस्मिन् द्वितीये मण्डले यत्परिश्यपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके ३१८२९७, तदेभिस्त्रिभिशतैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गुण्यते, जाता एकादश कोटयोऽष्टषष्टिक्षाश्चतुर्द्दश सहस्राणि नव शतानि नवनवत्यधिकानि ११६८१४९९९, एतस्य एकपट्या गुणितया पट्या ३६६० भागो हियते, हृते च भागे लब्धान्येकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि ३१९१६, शेषमुद्धरति चतुर्विंशतिः शतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि २४३९, न चातो योजनान्यायान्ति ततः षष्टिभागानयनार्थमे कपष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनचत्वारिंशत्यष्टि Jan Eiration Intimanal F&P Us On ~ 133~ २ प्राभृते र प्राभृतप्राभूतं ॥ ६० ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः भागाः २९ एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकपष्टिभागाः 'तथा णं राईदियं तहेव तदा सर्वबाह्यानन्तरार्वाकनद्वितीयमण्डलयोश्चारकाले रात्रिन्दिवं - रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव प्रागिव वक्तव्यं तचैवम्- 'तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहि एगट्टिभागमुहुतेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे हवइ दोहि एगट्टिभागमुहुत्तेहि अहिए' इति, 'से पविसमाणे' इत्यादि, ततः सर्ववाह्यानन्तशर्वाचनद्वितीयस्मादपि मण्डलादुक्तप्रकारेण प्रविशन् सूर्यो द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरतचं'ति सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वाचनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति 'ता जया ण' मित्यादि तत्र यदा णमिति पूर्ववत् सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वाचनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा पञ्च पञ्च योजन सहस्राणि त्रीणि चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनचत्वारिंशतं च पष्टिभागान् योजनस्य ५३०४ एकैकेन मुहर्त्तेन गच्छति, तस्मिन् हि मण्डले परिश्यपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके इति ३१८२७९, अस्य षष्ट्या भागो हियते, हृते च भागे लब्धं यथोकमत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं, अत्रापि हि दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमाह-'तया ण' मित्यादि, तदा इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनस्य भावादिहगतानां मनुष्याणामेकाधिकैर्द्वात्रिंशता सहस्रैरेकोनपञ्चाशता षष्टिभागैरेकं च पष्टिभागमेकपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैस्त्रयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसो द्वादशमुहूर्त्त प्रमाणश्चतुर्भिरेक षष्टिभागैरधिकस्तस्यार्द्धं पर मुहर्त्ता द्वाभ्यां मुहतैंकषष्टिभागाभ्यामधिकाः, ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थं पडपि मुहर्त्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च द्वावेकप ष्टिभागौ प्रक्षिप्येते, ततो जातानि त्रीणि शतान्यष्टषष्ट्यधिकान्येकषष्टिभागानां ३६८, ततोऽस्मिन् मण्डले यत्परिश्यपरि Jain Estration intimanal F&PO ~ 134~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल०) ॥१॥ माणे त्रीणि लक्षाण्यष्टादश साहवाणि वे शते पकोमाशीत्यधिके २१८२७९ इति, सदेभिखिमिः शतैरष्टषष्यधिगुण्यति, प्राभते जाता एकादश कोल्वा एकसप्ततिः शतसहस्राणि पशितिः सहस्राणि पट् शतानि द्विसप्तत्यधिकानि १५७१२६६७२,४प्राभृतएतस्य पश्या पकंपा गुणितया ३१६० भागो हियते, हृते च भागे लब्धानि द्वात्रिंशत्सहस्राणि एकोत्तराणि ३२००१ प्राभूत शेषमुद्धरति त्रीणि सहस्राणि द्वादशोत्तराणि ३०१२, तेषां षष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनपश्चाशत्पष्टिभागाप्रयोविंशतिश्च एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा इति, रसिदिय तहेव'त्ति रात्रिन्दिवं-रात्रि-1 दिवसपरिमाणमत्र तथैव-प्रागिव वक्तव्यं, तचैवम्-'तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं एगविभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे हवइ चउहि एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए' इति, सम्प्रति सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तनेषु चतुरादिषु मण्डलेषु अतिदेशमाह-एवं खस्वित्वादि, 'एवं उकेन प्रकारेण खलु' निखितमेतेनोपायेन शनैः शनैस्तसवभ्यन्तरानन्तरमण्डलाभिमुखगमनरूपेणाभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तराममण्डलातदनन्तरं मण्डलं सामन् २ एकैकस्मिन मण्डले मुहर्तगतिमित्यत्र द्वितीया सप्तम्यर्थे मुहर्तगती-मुहर्तगतिपरिमाणे अष्टादश २ पष्टिभागान् योजनस्य व्यवहा-1 रतः परिपूर्णान् निश्चयतः किश्चिदूनान्निवेष्टयन् २-हापयन २ इत्यर्थः, पूर्वपूर्वमण्डलापेक्षया अभ्यन्तराभ्यन्तरमण्डलस्य , ६१॥ परिरयमधिकृत्याष्टादशभियोजनैहनिस्वात् ,पुरुषच्छायामित्यत्रापि द्वितीया सप्तम्यर्थे, ततोऽयमर्थः-पुरुषच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायर्या सातिरेकाणि पश्चाशीतिः २ योजनानि अभिवर्द्धयन् २, इदं च सर्ववाह्यान्मण्डलादाक्तनानि कतिप | यानि प्रथमद्वितीयादिमण्डलान्यपेक्ष्य स्थूलत उक्तं, परमार्थतः पुनरेवं द्रष्टव्यं-इह येनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला अनुक्रम [३७] सर Fhi ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३७] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) • प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः त्परतो दृष्टिपथप्रासतां हापयन् विनिर्गतस्तेनैव क्रमेण सर्वबाह्यान्मण्डलादवनेषु मण्डलेषु दृष्टिपथप्राप्ततामभिवर्द्धयन् प्रविशति, तत्र सर्वबाह्यमण्डलावा कनद्वितीय मण्डलगतात् दृष्टिपथप्रासतापरिमाणात् सर्वबाह्यमण्डले पञ्चाशीतिर्योज नानि नव पष्टिभागान् योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कान् षष्टिभागान् हापयति, एतञ्च मागेव| भावितं, ततस्तस्मात्सर्वबाह्यान्मण्डलादव ने द्वितीये मण्डले प्रविशन् तावद्भूयोऽपि दृष्टिपथप्राप्ततापैरिमाणेऽभिवर्द्धयति ध्रुवं ततोऽर्वाक्तनेषु मण्डलेषु यस्मिम् २ मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते (तत्र तत्र ) तृतीयमण्डलादारभ्य तत्तन्मण्डलसायां षट्त्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-तृतीयमण्डलचिन्तायामेकेन चतुर्थमण्डलचिन्तायां द्वाभ्यामेवं यावत्सर्वाभ्यन्तरमण्डलचिन्तायां द्व्यशीत्यधिकेन शतेन, इत्थं च गुणयित्वा यलभ्यते तद् ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशिना सहितं पूर्वपूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं तत्र २ मण्डले द्रष्टव्यं तद्यथा-तृतीये मण्डले षट्त्रिंशत् एकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाता पत्रिंशदेव, सा ध्रुवराशेरपनीयते, जातं शेषमिदं पञ्चाशीतियोंजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाश्चतुर्विंशतिः ८५ एतेन सहितं पूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्त तापरिमाणं एकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि योजनानामेकोनचत्वारिंशत्वष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ३१९१६ । इत्येवंरूपं क्रियते, ततोऽधिकृते तृतीये मण्डले यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्च प्रागेवोपदर्शितं चतुर्थे मण्डले पत्रिंशद् द्वाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशिना तृतीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्तता परिमाणं सहितं क्रियते, तत इदं तत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं Jain Eration Indemn F&P Us On ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) ॥३२॥ +5 भवति-द्वात्रिंशत्सहस्राणि पडशीत्यधिकानि योजनानामष्टापश्चाशच पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का| २प्राभूत एकादशैकपष्टिभागाः ३२०८६।१८।४, एवं शेषेष्वपि मण्डलेषु भावनीयं, यदा तु सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्त-४ |३प्राभूत| तापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा पत्रिंशद् वशी त्यधिकेन शतेन गुण्यते, तृतीयमण्डलादारभ्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य | प्राभूत व्यशीत्यधिकशततमत्वात् , ततो जातानि पञ्चषष्टिशतानि द्विपश्चाशदधिकानि ६५५२, तेषामेकषष्ट्या भागे हते लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां, शेष पञ्चविंशतिः३० । एतत्पश्चाशीतियोजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ८५।। इत्येवंरूपात् ध्रुवराशेः शोध्यते, जातानि पश्चात् व्यशीतियोजनानि द्वाविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः, इह पत्रिंशत् २ एकषष्टिभागाः कलया न्यूनाः परमार्थतो लभ्यन्ते एतच्च प्रागेवोकं, तच्च कलान्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा अष्टषष्टिरेकषष्टिभागा लभ्यन्ते, ततस्ते भूयः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातमिदंव्यशीतियोजनानि त्रयोविंशतिः पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः ८३ एतेषु सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकमेकोनाशीत्यधिक योजनानां सप्तपञ्चाशत्पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः ४७१७९।४।। ॥६२॥ इत्येवंरूपं सहितं क्रियते, ततो यथोकं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्च सधचत्वारिंशत्सहस्राणि साढे शते विषष्यधिके योजनानामेकविंशतिश्चषष्टिभागा योजनस्य ४७२६३।४ एवं दृष्टिपथप्राप्ततायां कतिपयेषु मण्डलेषु अनुक्रम [३४] ~137~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सातिरेकाणि पश्चाशीति योजनानि अग्रेतनेषु चतुरशीतिं पर्यन्ते यथोक्ताधिकसहितानि ध्यशीति योजनानि अभिवर्धयन् । साचद् वक्तव्यः यावत्साभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्गम्य चार चरति 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरम-1 ण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा पञ्च पश्च योजनसहस्राणि द्वे एकपञ्चाशदधिके योजनशते एकोनत्रिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य ५२५१४ एकेन मुहूर्तेन गच्छति, तदा च इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनं इहगताना मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहर्वाभ्यां त्रिषष्टाभ्या-विषयधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेकविंशत्या षष्टिभागैर्योजनस्य ४७२६३ सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, एतच्च मुहर्तगतिपरिमाणं दृष्टिपथमाप्ततापरिमाणं च प्रागेव भावितं सूत्रकृताऽपि प्रस्तावाजय उक्त ततो न पुनरुक्ततादोषः, 'तया णं उत्तमकट्ठपसे' इत्यादि सुगम, यावत्याभृतप्राभूतपरिसमाप्तिः। इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां द्वितिय-प्राभृतस्य प्राभूतप्राभृतं ३ समाप्तं [२३] टीप अनुक्रम [३७] अथ तृतीयं प्राभृतम् ॥ तदेवमुक्तं द्वितीय प्राभृत, सम्पत्ति तृतीयमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः, "कियरक्षेत्र चन्द्रः सूर्यों या प्रकाशयतीति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता केवतियं खेत्तं चंदिमसरिया ओभासंति उज्जोवेति तवेंति पगासंति आहितातिवदेजा ?, तत्व खलु इमाओ वारस पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तत्थेगे एवमासु, ता एगं दीवं एग समुई चंदिमसूरिया ओभासेंति अत्र द्वितियं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ तृतीयं प्राभृतं आरभ्यते ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] सूर्यप्रज्ञ उजोति तवेंति पगासेंति, एगे एवमासु ता तिषिण दीवे तिणि समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति०, एगे प्राभृतम् प्तिवृत्तिः एवमाहंसु २, एगे पुण एचमाहंसुता अद्धचउत्थे दीवसमुद्दे चंदिमसरिया ओभासंति उज्जोति तति पगार्सिति मल०) एगेएवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु ता सत्त दीचे सत्त समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासिंति ४ एगे एव माहंसु ४ एगे पुण एवमासु ता दस दीवे दस समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति ४, एगे एवमाहंसु ५, एगे पुण एवमा॥६३॥ हंसु, ता बारस दीवे वारस समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति ४, एगे एवमासु ६, एगे पुण एवमाहंसु, पायालीसं &ादीवे पायालीसं समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति पक(४),एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु बावत्तरि दीवे| बावत्तरि समुदे दिमसरिया ओभासंति, एक(४),एगे एवमाहंसु८, एगे पुण एवमाहंसु तायातालीसं दीवसतं यायाल समुहसतं चंदिमसूरिया ओभासंति४ एगे एवमाहंसु ९, एगे पुण एवमाहंसु, ता बावसरि समुहसतं लादिमसूरिया ओभासंति एक(४)एगे एवमाहंसु १०, एगे पुण एवमाहंसुता बायालीसं दीवसहस्सं वायालं समुह |संहस्सं चंदिमसूरिया ओभासंति, एक(४), एगे, एवमासु ११, एगेपुण एवमासु ता यावत्सरंदीवसहस्सं वाच-1 प्रीत्तरं समुद्दसहस्सं चंदिमसूरिया ओझासंति पक (४) एगे एवमासु १२, वयं पुण एवं बदामो-अयपणं जंबुडीवे सबदीवसमुदाणं जाव परिक्वेवेणं पण्णसे, से णं एगाए जगतीए सवतो समंता संपरिक्खिसे, सा र्ण जगती|| तहेव जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जाव एवामेव सपुष्पावरेणं जंबुद्दीवे २ चोइस सलिलासयसहस्सा छप्पन्नं च सलिलासहस्सा भवन्तीति मक्खाता, जंबुद्दीवेणं दीवे पंचचक्कभागसंठिता आहितातिवदेजा, ता कह अनुक्रम [३८] ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३८] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-], प्राभृत [३], मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः जंबुद्दीवे २ पंचचक्रभागसंठिते आहिताति वदेखा, ता जता णं एते दुवे सूरिया सबभंतर मंडल उवसंकमिता चारं चरति तदा णं जंबुद्दीवस्स २ तिष्णि पंचचउक्तभागे ओभासंति उज्जोर्वेति तवंति पभासंति, तं०- एगेवि एवं दिवडुं पंचचकभागं ओभासेति एक (४) एगेवि एवं दिवहं पंचचकभागं ओभासेति ण्क (४) तता णं उत्तमकद्वपत्ते उक्कोस अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहण्णिया दुबालसमुहुत्ता राई भवइ, ता जता णं एते दुवे सूरिया सङ्घबाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं जंबुद्दीवस्स २ दोणि चक्रभागे ओभासंति उज्जीवंति तवंति पगासंति, ता एगेवि एवं पंचचकवालभागं ओभासति उज्जोवेइ तवेइ पभासह, एगेवि एवं पंचचकवालभागं ओभासह एक (४), तता णं उत्तमकट्टपत्ता उकोसिया अट्ठारसमुहन्ता राई भवइ जहण्णए दुबालसमुह से दिवसे भवति ॥ (सूत्रं २४ ) ॥ ततियं पाहुडं समत्तं ॥ 'ता केवइय' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् कियत् क्षेत्रं चन्द्रसूर्याः, बहुवचनं जम्बूद्वीपे चन्द्रद्वयस्य सूर्यद्वयस्य च भावात्, अवभासयन्ति, तत्रावभासो ज्ञानस्यापि प्रतिभासो व्यवहियते अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह-उद्योतयन्ति, स चोद्योतो यद्यपि | लोके भेदेन प्रसिद्धो यथा सूर्यगत आतप इति चन्द्रगतः प्रकाश इति, तथाप्यातपशब्दश्चन्द्रप्रभायामपि वर्त्तते, यदुक्तम्“चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना, तथा चन्द्रातपः स्मृतः” इति, प्रकाशशब्दः सूर्यप्रभायामपि एतच्च प्रायो बहूनां सुप्रतीतं, तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थमुभयसाधारणं भूयोऽप्येकार्थिकद्वयमाह-तापयन्ति प्रकाशयन्ति आख्याता इति, इहार्षत्वात्तिवाद्यन्त| पदेनापि सह नामपदस्य समन्वयो भवति, तत एवमर्थयोजना द्रष्टव्या कियत् क्षेत्रं चन्द्रसूर्या अवभासयन्त उद्योतयन्त Eaton intamat F&P Us On ~140~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [३], --------------------प्राभूतप्राभत [-1,-------------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत (मल.) ॥६४॥ स्तापयन्तः प्रकाशयन्त आख्याता भगवतेति भगवान् वदेत् !, एवं गौतमेनोके भगवानेतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एवोपन्यस्यति-तत्थे'त्यादि, तत्र-चन्द्रसूर्याणां क्षेत्रावभासनविषये इमाः खलु द्वादश प्रतिपत्तयः-परतीथिकाभ्युपगमरूपा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्थे'त्यादि, तत्र-तस्यां द्वादशानां परतीर्थिकानां मध्ये एकेप्रथमास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः, एक द्वीपं एक समुद्रं चन्द्रसूर्यो अवभासयन्तौ उद्योतयन्तौ तापयन्तौ प्रकाशयन्ती, सूत्रे |द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात्, उक्तं च-'बहुवयणेण दुवयण मिति, द्विवचनं चात्र तात्त्विकमवसेयं, परतीधिकैरेकस्य चन्द्रमस एकस्य च सूर्यस्याभ्युपगमात्, सम्पति अस्यैव प्रथममतस्योपसंहारमाह-एगे एबमासु' एवं सर्वाण्यपि उपसंहारवाक्यानि भावनीयानि१, एके द्वितीयाः पुनरेवमाहुः-त्रीन द्वीपान् त्रीन् समुद्रान् चन्द्रसूर्यों यावच्छ(कश)ब्दोपादानात् अवभासयत इत्यनेन सह पदचतुष्टयं द्रष्टव्यं, तद्यथा-अवभासयत उद्योतयतस्तापयतः प्रकाशयत इति, एवमुत्त-15 रत्रापि द्रष्टव्यं, २, एके पुनस्तृतीया एवमाहुः- अद्धच उत्थे'इति अर्द्ध चतुर्थ येषां ते अर्बचतुर्थाः, त्रयः परिपूर्णाश्चतुर्थस्य | चालमित्यर्थः, अर्द्धचतुर्थान् द्वीपान अर्धचतुर्थान् समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयत इत्यादि प्राग्वत् ३, एके चतुर्थाः पुनरेवमाहुः-सप्तद्वीपान् सप्त समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः४, एके पुनः पञ्चमा एवमाचक्षते-दश द्वीपान् दश समुद्रान चन्द्र-13 सूर्याववभासयतः ५, एके पुनः षष्ठा एवमभिदधति-द्वादश द्वीपान् द्वादश समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ६, एके पुनः | सप्तमा एवं भाषन्ते-द्विचत्वारिंशतं द्वीपान् द्विचत्वारिंशतं समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ७, एके पुनरष्टमा एवमाहुः-13 द्वासप्तति द्वीपान् द्वासप्तति समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ८, एके पुनर्नवमा एवमाहुः-द्विचत्वारिंश-द्वाचत्वारिंशद अनुक्रम [३८] 4%95%-50-456 ॥६४ F OR ~141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [३], --------------------- प्राभतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] धिक द्वीपशतं द्वाचत्वारिंशदधिकं समुद्रशतं चन्द्रसूर्याषवभासयतः ९, एके पुनर्दशमा एवं जल्पन्ति-द्वासप्तत-द्वासप्त| त्यधिक द्वीपशतं द्वासप्तत्यधिकं समुद्रशतं चन्द्रसूर्याववभासयतः १०, एके एकादशाः पुनरेवमाहुर-द्वाचत्वारिंशंद्वाचत्वारिंशदधिकं द्वीपसहस्रं द्वाचत्वारिंशदधिकं समुद्रसहसं चन्द्रसूर्याववभासयतः ११, एके द्वादशाः पुनरेवमाहुःद्वासप्ततं-द्वासप्तत्यधिकं द्वीपसहचं द्वासप्तत्यधिकं समुद्रसहस्र चन्द्रसूर्याववभासयतः १२, एताश्च सर्वा अपि प्रतिपत्तयो| मिथ्यारूपास्तथा च भगवानेता व्युदस्य स्वमतं भिन्नमेव कथयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवल चक्षुषः केवलपाचक्षुषा यथावस्थितं जगदुपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता अयन्न'मित्यादि, अत्र 'जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए'त्ति यथा जम्बूदीपप्रज्ञप्तौ 'अयण्णं जंबुद्दीवे इत्यारभ्य यावत् एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोद्दस सलिलसयसहस्साई छप्पन्नं च सलिलासहस्सा भवंतीति मक्खाय' मित्युक्तं, तथा एतावग्रन्थसहस्रचतुष्टयप्रमाणमत्रापि वक्तव्यं परं अन्धगौरवभयान लिख्यते, केवलं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिपुस्तकमेव निरीक्षणीयमिति, अयमेवंरूपो जम्बूद्वीपः पञ्चभिः पञ्चसङ्ख्योपेतैश्चक्रभागैः-चक्रवालभागैः संस्थित आख्यातो मया इति वदेत्स्वशिष्याणां पुरतः, एवमुक्त भगवान् गौतमः स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधार्थं भूयः पृच्छति-'ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं भगवान् । त्वया जम्बूद्वीपो द्वीपः पश्चचक्रभागसंस्थित आख्यात इति वदेत् , भगवानाह-'ता जया ण'मित्यादि, ता इति पूर्वबत्, यदा णमिति वाक्यालङ्कारे, एतौ प्रवचनवेदिनां प्रसिद्धी द्वौ सूर्यों सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसदम्य चारं परतः तदा तो समुदितौ द्वावपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य त्रीन् पञ्चचक्रवालभागान् अवभासयत उद्योतयतस्तापयंतः प्रकाशयतः, RECCCCCC अनुक्रम [३८] Fhi ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [३], --------------------प्राभूतप्राभत [-1,-------------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] सूर्यप्रज्ञ- कथं प्रकाशयत इति परप्रश्नावकाशमाशङ्कव एतदेव विभागत आह-'एगोऽवी'त्यादि, एकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राभृतम् तिवृत्तिः भएकं पञ्चचक्रवालभार्ग-पञ्चमं चक्रवालभागं व्यर्द्ध मिति-द्वितीयमर्द्ध यस्य स व्यर्द्धः, पूरणार्थो वृत्तावन्तभूतो यथा (मल.) तृतीयो भागस्त्रिभाग इत्यत्र, तं, अयं च भावार्थः-एक पञ्चमं चक्रवालभार्ग द्वितीयस्य पञ्चमस्य चक्रवालभागस्यान ॥६५॥ सहितं प्रकाशयति, तथा एकोऽपि-अपरोऽपि द्वितीयोऽपीत्यर्थः, एकं पञ्चमं चक्रवालभागं व्यर्दै प्रकाशयतीत्युभयप्रका| शितभागमीलने परिपूर्ण भागत्रयं प्रकाश्यं भवति,इयमत्र भावना-जम्बूद्वीपगतं प्रकाश्यं चक्रवालं पश्यधिकषटूविंशच्छतभागं कल्प्यते ३६६०, तस्य पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतप्रमाणः ७३२, सार्द्धः सन् अष्टानवत्यधिकसहस्रभागमानः १०९८, ततः सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्यः षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतसङ्ग्यानां भागानामष्टानवत्यधिक सहस्र प्रकाशयति, द्वितीयोऽप्यष्टानवत्यधिक सहस्र, उभयमीलने एकविंशतिःशतानि षण्णवत्यधिकानि २१९६ प्रकाश्यमानानि लभ्यन्ते, तदा च द्वौ पश्चचक्रवालभागौ रात्रिः, तद्यधा-एकतोऽपि पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागसङ्ख्यो रात्रिरपरतोऽपि एकः पञ्चमभागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागसङ्ख्यो रात्रिः, उभयमीलने चतुर्दश शतानि चतुःषष्ट्य|धिकानि १४६४ षष्ठयधिकषत्रिंशच्छतभागानां रात्रिः, सर्वभागमीलने पत्रिंशग्छतानि पट्याधिकानि भवन्ति, Itn६५॥ | सम्पति तत्र दिवसरात्रिप्रमाणमाह-'तया ण'मित्यादि, तदा-अभ्यन्तरमण्डलचारकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्तः-परमप्रकर्षप्राप्तः उत्कृष्टोऽष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहर्ता रात्रिः, ततो द्वितीयेऽहोराने द्वितीये. मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्यैकं पञ्चमं चक्रवालभार्ग साई पट्यधिकपत्रिंशच्छ अनुक्रम [३८] SSSS ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [३], -------------------- प्राभूतप्राभत [-1, -------------------- मलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: Aty प्रत सूत्रांक [२४] तभागसत्कभागद्वयहीन प्रकाशयति, अपरोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभागं सार्द्ध पश्यधिकषट्त्रिंशच्छतभागद्वयहीन प्रकाशयति, तृतीयेऽहोरात्रे तृतीये मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभार्ग साई षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छ-४॥ हातभागसरकभागचतुष्टयन्यून प्रकाशयति, अपरोऽप्येकं पञ्चमं चक्रवालभागं सार्द्ध षष्यधिकषत्रिंशच्छतभागसत्कभागचतु ध्वन्यून प्रकाशयति, एवं प्रत्यहोरात्रमेकैकः सूर्यः षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतभागसत्कभागद्वयमोचनेन प्रकाशयन् ताबदवसेयः यावत्सर्वबाह्यं मण्डलं सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः व्यशीत्यधिकशततम, ततः प्रतिमण्डलं भागद्वयमोचनेन यदा सर्वबाह्ये मण्डले चरति तदा त्रीणि शतानि षट्पट्याधिकानि भागानां त्रुप्यन्ति, व्यशीत्यधिकस्य शतस्य द्वाभ्यां गुणने एतावत्याः सङ्ख्याया भावात् , त्रीणि च शतानि षट्पट्यधिकानि पञ्चम चक्रवालभागस्य द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागप्रमाकणस्या, ततः पञ्चमचक्रवालभागस्याई परिपूर्ण तत्र मण्डले त्रुव्यतीति एक एव परिपूर्णः पञ्चमचक्रवालभागस्तत्र प्रकाश्या, तथा चाहता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा णमिति पूर्ववत् एतौ प्रवचनप्रसिद्धी द्वावपि सूर्यो। सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरतः तदा तौ समुदितौ जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य द्वौ चक्रवालपश्चमभागौ अव|भासयत उद्योतयतस्तापयतः प्रकाशयतः, तद्यथा-एकोऽपि सूर्य एक पशम चक्रवालभागं प्रकाशयतीत्येकोऽपि अपरोऽपि द्वितीयोऽपीत्यर्थः एकं पञ्चमं चक्रवालभागं प्रकाशयति, 'तया णमित्यादि, तदा सर्वबाह्यमण्डलचारिकाले उत्तमकाष्ठामाता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्जघन्यतो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, इह यथा EXCSCR अनुक्रम [३८] Fhi ~144~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३८] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [२४] प्राभृत [3], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( भल० ) ॥ ६६ ॥ निष्क्रामतोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपविषयः प्रकाशविधिः क्रमेण हीयमान उक्तः तथा सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशतोः क्रमेण वर्द्धमानो वेदितव्यः, तद्यथा - द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वाचनेऽनन्तरे द्वितीये मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्य एकं जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य पश्चमचक्रवालभागं षष्यधिकपटूत्रिंशच्छतसङ्ख्य भागसत्कभागद्वयाधिकं प्रकाशयति, अपरोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभागं षष्यधिकषट्त्रिंशच्छतसय भागसत्कभागद्वयाधिकं प्रकाशयति, द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वा कने तृतीये मण्डले वर्त्तमान एकं पञ्चमं चक्रवालभागं षष्ट्यधिकषटूत्रिंशच्छतसंख्य भागसत्कभागचतुष्टयाधिकं प्रकाशयति, अपरोऽपि सूर्यः परतं एकं पञ्चमं चक्रवालभागं यथोक्तभागचतुष्टयाधिकं प्रकाशयति, एवं प्रतिमण्डलमेकैकः सूर्यः षष्ट्यधिकपटूत्रिंशच्छत भागसत्कभागद्वयवर्द्धनेन प्रकाशयन् तावदवसेयः यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं, तस्मिंश्च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वितीयस्य पञ्चमचक्रवालभागस्यार्द्ध परिपूर्ण भवति, तत एकोऽपि सूर्यस्तत्र मण्डले एकं पथमं चक्रवालभागं सार्द्धं जम्बूद्वीपस्य प्रकाशयत्यपरोऽप्येकं पचंमं चक्रवालभागं सार्द्धं, तथा चैतदेव जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दश भागान् परिकल्प्यान्यत्राप्युक्तम्- 'छच्चेव उदसभागे जंबुद्दीवस्स दोवि दिवसयरा । ताविंति दिसलेसा अभिंतरमंडले संता ॥ १ ॥ चत्तारि य दसभागे जंबुदीवरस दोवि दिवसयरा । ताविंति संतळेसा बाहिरए मंडले संता ॥ २ ॥ छत्तीसे भागसए सद्धिं काऊण जंबुदीवरस । तिरियं तत्तो दो दो भागे बहेइ हायइ वा ॥ ३ ॥ ” इति ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां तृतिय प्राभृतं समाप्तं Jain Eaton Intl अत्र तृतीयं प्राभृतं परिसमाप्तं F&P On ~ 145~ ३ प्राभृतम् ॥ ६६ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३९] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [२५] प्राभृत [४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः ॥ अथ चतुर्थ प्राभृतम् ॥ तदेवमुक्तं तृतीयं प्राभृतं सम्प्रति चतुर्थमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः 'कथं श्वेततायाः संस्थितिराख्याते 'ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह--- ता कहं ते सेआते संठिईया आहिता तिवदेना :, तस्थ खलु इमा दुविहा संठिती पं० तं० - चंदिमसूरियसंठिती य १ तावक्खेत्तसंठिती य २, ता कहं ते चंदिमसूरियासंठिती आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु | इमातो सोलस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता समचउरंससंठिता चंदिमसूरियासंठिती एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु, ता विसमचउरंस संठिता चंदिमसूरियसंठिती पं० २, एवं समचउको णसंठिता ३ ता विसमचउकोणसंठिया ४ समचक्कवालसंठिता ५ विसमचकवाल संठिता ६ चकद्धचक्रवालसंठिता पं० एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु ता छत्तागारसंठिता चंदिमसूरियसंठिता पं० ८ गेहसंठिता ९ गेहावणसंठिता १० पासादसंठिता ११ गोपुरसंठिया १२ पेच्छाघरसंठिता १३ वलभीसंठिता १४ हम्मि यतलसंठिता १५ वालग्गपोतियासंठिता १६ चंदिमसूरियसंठिती पं० तत्थ जे ते एवमाहंसु ता समचरं ससंठिता चंदिमसूरियसंठिती पं० एतेणं णएणं तवं णो चेव णं इतरेहिं ॥ ता कहं ते तावक्खेत्तसंठिती आहिताति वदेज्जा ?, तत्थ खलु इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पन्नताओ, तत्थ णं एगे एवमाहंसु ता गेहसं|ठिता तावखित्तसंठिती पं०, एवं जाव वालग्गपोतियासंठिता तावक्खेत्तसंठिती, एगे एवमाहंसु ता जस्सं Jannational F&Pr अथ चतुर्थ प्राभृतं आरभ्यते ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [४], -------------------- प्राभूतप्राभत [-1, -------------------- मलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभृतम् प्रत सूत्रांक [२५]] दीप सूर्यप्रज्ञ-8 ठिते जंबुद्दीवे तस्संठिते तावक्खेत्तसंठिती पण्णता एगे एवमाहंसु ९, एगे पुण एबमासु ता जस्संठित प्तिवृत्तिःभारहे वासे तस्संठिती पण्णत्ता १०, एवं उजाणसंठिया निजाणसंठिता एगतो णिसघसंठिता, दुहतो णिस-15 (मल०) हसंठिता सेयणगसंठिता एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु, ता सेणगपट्ठसंठिता तावखेत्तसंठिती पण्णता, ॥६७॥ एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वदामो, ता उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठिता तावक्खेत्तसंठिती पं० अंतो संकुडा चाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिधुला अंतो अंकमुहसंठिता याहिं सस्थिमुहसंठिता उभतो पासेणं तीसे दुवे वाहाओ अवहिताओ भवंति पणतालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, तीसे दुवे पाहाओ अणवहिताओ भवंति, तं०-सपन्भंतरिया चेव वाहा सत्वबाहिरिया चेव बाहा, तत्थ को हेतूसिवदेजा, ता अपपणं जंबुडीवे २ जाव परिकखेवणं ता जया णं सूरिए सबभंतरं मंडलं उबसंकमिसा चारं चरति तता णं उद्धी-13 मुहकलंबुआपुप्फसंठिता तावखेससंठिती आहितातिवदेज्जा अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा अंतो वहा वाहिं |पिधुला अंतो अंकमुहसंठिता बाहिं सत्थिमुहसंठिआ, दुहतो पासेणं तीसे तव जाव सबवाहिरिया चेष वाहा, तीसे गं सबभंतरिया वाहा मंदरपञ्चयंतेणं णव जोयणसहस्साइं चत्तारि य छलसीते जोयणसते णव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितातिवदेजा, ता से णं परिक्खेवविसेसे कतो आहितातिवदेना, ता जेणं मंदरस्स पञ्चयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहि छित्ता दसहिं भागे हीर-17 |माणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिताति वदेज्जा, तीसे णं सधयाहिरिया याहा लवणसमुइतेणं चउणार्ति अनुक्रम [३९] ॥६ ॥ 156515 ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप लाजोयणसहस्साई अट्टय अट्टसढे जोयणसते पसारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितातिवदेजा. माता से परिक्खेवविसेसे कतो आहिताति वदेज्जा', ता जे णं जंबुरीवस्स २ परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहि गुणित्ता दसहिं छत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिताति वदेना, तीसे णं तावक्खेते केवतियं आयामेणं आहितातिवदेज्जा ?, ता अत्तरि जोयणसहस्साई तिणि य तेत्तीसे जोयणसते जोय-| सिभागे च आयामेणं आहितेति वदेजा, तया णं किंसंठिया अंधगारसंठिई आहितेति वदेजा, उद्धीमुह-18 कलंचुआपुष्फसंठिता तहेव जाव बाहिरिया चेव बाहा, तीसे गं सबभतरिया पाहा मंदरपवतंतेणं छज्योयणसहस्साई तिणि य चवीसे जोयणसते छच्च दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितेतिवदेजा, तीसे | णं परिक्खेवविसेसे कतो आहितेति वदेजा!, ता जे णं मंदरस्स पञ्चयस्स परिक्खेवेणं तं परिक्वेवं दोहि। गुणेत्ता सेसं तहेव, तीसे सच्चयाहिरिया बाहा लवणसमुदंतेणं तेवहिजोयणसहस्साई दोपिण य पणयाले जोयणसते छच्च दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा, ता से णं'परिक्खेवविसेसे कत्तो आहितेति वदेज्जा', ता जे णं जंबुद्दीवस्स २ परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणित्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीर माणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहितेति बदेजा, ता सेणं अंधकार केवतिय आयामेणं आहितेति वदेवा!, ४ता अट्ठत्तरि जोयणसहस्साई तिणि य तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागं च आयामेणं आहितेति वदेजा, तता णं उत्तमकहपत्ते अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, ता जया णं अनुक्रम [३९] ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], --------------------प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूल [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- (मल.) प्रत सूत्रांक [२५]] सरिए सवबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं किंसंठिती तावखेत्तसंठिती आहिताति वदेज्जा ? ४प्राभूतम् ठाता उद्धामुहकलंबुयापुप्फसंठिती तावक्खेत्तसंठिती आहिताति वदेजा, एवं जं अम्भितरमंडले अंधकारसं-18 ठितीए पमाणं तं बाहिरमंडले तावक्खेत्तसंठितीए जं तहिं तावखेत्तसंठितीए तं वाहिरमंडले अंधकारसंठितीए भाणियई, जाव तता णं उत्तमकट्ठपत्ता कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमहुत्ते दिवसे भवति, ता जंबुद्दीवे २ सूरिया केवतियं(खेत्त) उहुं तवंति केवतियं खेतं अहे तवंति केवतियं खेतं ४ तिरियं तवंति , ता जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया एग जोयणसतं उहुं तवंति अट्ठारस जोयणसताई अधे पतवंति सीतालीसं जोयणसहस्साई दुन्नि य तेवढे जोयणसते एकवीसं च सद्विभागे जोयणस्स तिरियं| तवंति (सूत्रं २५)॥ चउत्थं पाहुडं समत्तं ॥ | 'ता कहं ते सेयाए संठिई आहिया इति वदेजा ता इति पूर्ववत्, कथं भगवन् ! त्वया श्वेततायाः संस्थितिरा-| ख्याता इति भगवान् वदेत् १, एवं भगवता गौतमेनोके वर्द्धमानस्वामी भगवानाह-'तत्धे'त्यादि, तत्र श्वेतताया विषये खल्वियं-वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा संस्थितिः, तद्यथा' तामेव तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति, तद्यथेत्यत्र तच्छब्दोऽव्यय, ततोऽ। यमर्थ:-सा श्वेतता यथा-येन प्रकारेण द्विधा भवति तथोपदश्यते, चन्द्रसूर्यसंस्थितिस्तापक्षेत्रसंस्थितिच, इह श्वेतता ten चन्द्रसूर्यविमानानामपि विद्यते तत्कृततापक्षेत्रस्य च ततः श्वेततायोगादुभयमपि श्वेतताशब्देनोच्यते, तेनोक्तप्रकारेपार श्वेतता द्विविधा भवति, तत्र चन्द्रसूर्यसंस्थितिविषये प्रश्नयति-ता कहं तें'इत्यादि, ता इति प्राग्वत् , कथं ते वया दीप अनुक्रम [३९] ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [४], -------------------- प्राभूतप्राभत [-1, -------------------- मलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप भगवन् ! चन्द्रसूर्यसंस्थितिराख्याता इति वदेत् !, इह चन्द्रसूर्यविमानानां संस्थानरूपा संस्थितिः प्रागेवाभिहिता बात इह चन्द्रसूर्यविमानसंस्थितिश्चतुर्णामपि अवस्थानरूपा पृष्टा द्रष्टच्या, एवमुक्ते भगवानेतद्विपये यावत्यः परतीथि-1 काणां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्थेत्यादि, तत्र चन्द्रसूर्यसंस्थितौ विचार्यमाणायां खल्विमाः षोडश प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एके वादिन एवमाहुः-समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, समचतुरस्र संस्थिति-संस्थान यस्याश्चन्द्रसूर्यसंस्थितेः सा तथा, अत्रैवोपसंहारवाक्यमाह-एगे एवमासु, एवं सर्वत्रापि प्रत्येकमुपसंहारवाक्यं द्रष्टव्यं १, एके पुनरेवमाहुः विषमचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिराख्याता, अत्रापि विषमचतुरस्र संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः २, एवं 'समचउकोणसंठिय'त्ति एवं-उक्तेन प्रकारेणापरेषामभिप्रायेण समचतुष्कोणसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिवक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु समचउक्कोणसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु' अत्र 'समचउक्कोणसंठिय'त्ति समाश्चत्वारः कोणा यत्र तत् समचतुष्कोणं (तत्) संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः ३, 'विसमचउकोणसंठिय'त्ति 'एगे पुण एवमाईसु-विसमचउकोणसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु' ४ 'समचावालसंठिय'त्ति समचक्रचाल-समचक्रवालरूपं संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण चन्द्रसूर्यसंस्थितिवक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे एषमाइंसु समचकवालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु' ५, 'विसमचकवालसंठिय'त्ति विषमचक्रवालं-विषमचक्रवालरूपं संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषां मतेन चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्व-3 क्तव्या, सा चैवम्-'एगे एवमाहंसु विसमचक्कवालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु' ६, चक्कद्धचकवाल अनुक्रम [३९] ~150 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [४], -------------------- प्राभूतप्राभत [-1, -------------------- मलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ग्राभूतम् सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) प्रत सुत्रांक ॥६९॥ [२५]] दीप संठिय'त्ति चक्रस्य-रथाङ्गस्य यदर्द्धचक्रवालं-चक्रवालस्यार्द्ध तद्रूपं संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा, अन्येषामभिप्रा- येण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाईसु चकद्धचक्यालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु'७,'एगे पुण'इत्यादि, एके पुनराहुः छत्राकारसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिःप्रज्ञप्ता, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु'८'इसंठिय'त्ति गेहस्येव-वास्तुविद्योपनिबद्धस्य गृहस्पेव संस्थित--संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतेन चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु गेहसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु'९, 'गेहावणसंठिय'त्ति गृहयुक्त आप-४ णो गृहापणो-वास्तुविधाप्रसिद्धस्तस्येव संस्थितः-संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवस्-'एगे पुण एवमासु, गेहावणसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु'१०,'पासायसंठिय'त्ति प्रासादस्पेव संस्थान यस्याः सा तथाऽन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु, पासायसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु' ११ 'गोपुरसंठिय'त्ति, गोपुरस्येव-पुरद्वारस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथाऽन्येषां मतेनाभिधा-13 तव्या, सा चैवम् -'एगे पुण एवमाहंसु गोपुरसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु' १२ 'पेच्छाघरसंठिया त्ति प्रेक्षागृहस्येव वास्तुविद्याप्रसिद्धस्य संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतेनाभिधातच्या, तथथा-'एगे पुण: एवमासु पिच्छाघरसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु' १३, 'बलभीसंठिय'त्ति बलभ्या श्व-गृहाणा-13 माच्छादनस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषां मतेनाभिधातव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाईसु बउभीसठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु' १४, 'इम्मियतलसंठियत्ति हयं-धनवतां गृहं तस्य तल-उपरितनो अनुक्रम 65** [३९] 564- ~151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत SEXI सूत्रांक [२५] भागस्तस्यैव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाइंसु हम्मियतलसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु' १५ 'वालग्गपोत्तियासंठिय'त्ति वालाप्रपोतिकाशब्दो देशीशब्दवादाकाशतडागमध्ये व्यवस्थितं क्रीडास्थानं लघुप्रासादमाह तस्या इव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतेन अभिधानीया, तद्यथा-'एगे पुण एवमासु वालग्गपोत्तिया संठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णचा, एगे एवमासु'१६॥ तदेवमुक्ताः परतीथिकानां प्रतिपत्तयः, एतासां च मध्ये या प्रतिपत्तिः समीचीना तामुपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तत्र-तेषां पोडशानां परतीपिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः-समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञता इति, एतेन नयेन नेतन्यंएतेनाभिप्रायेणास्मन्मतेऽपि चन्द्रसूर्यसंस्थितिरवधार्येति भावः, तथाहि-इह सर्वेऽपि कालविशेषाः सुषमसुषमादयो युगमूलाः, युगस्य चादौ श्रावणे मासि बहुलपक्षप्रतिपदि प्रातरुदयसमये एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां दिशि वर्त्तते तदूद्वितीयस्त्वपरोत्तरस्यां चन्द्रमा अपि तत्समये एको दक्षिणापरस्यां दिशि वर्तते द्वितीय उत्तरपूर्वस्यामत एतेषु युगस्यादौ चन्द्रसूर्याः समचतुरनसंस्थिता वर्तन्ते, यत्त्वत्र मण्डलकृतं वैषम्यं यथा सूयौं सर्वाभ्यन्तरमण्डले वते चन्द्रमसौ सर्वबाये इति तदल्पमितिकृत्वा न विवक्ष्यते, तदेवं यतः सकलकालविशेषाणां सुषमासुषमादिरूपाणामादिभूतस्य युगस्यादौ समचतुरस्रसंस्थिताः सूर्यचन्द्रमसो भवन्ति ततस्तेषां संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानेनोपवर्णिता, अन्यथा वा यथासम्प्रदाय समचतुरस्त्रसंस्थितिः परिभावनीयेति, 'नो चेव णं इयरेहिति नो चेक-नैव इतरैः-शेषेर्नयैश्चन्द्रसूर्यसंस्थितिख़तव्या, | तेषां मिथ्यारूपत्वात् , तदेवमुक्ता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः। सम्प्रति तापक्षेत्रसंस्थितिमभिधातुकामः प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नसू दीप अनुक्रम [३९] ~152~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३९] मूलं [२५] प्राभृत [४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ७० ॥ चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-] Eaton माह - 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं भगवन् ! क्या तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत् ?, एवमुक्ते भगवान् एतद्विषये यावत्यः परतीर्थिकानां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति- 'तत्थे'त्यादि, तत्र तस्यां तापक्षेत्रसं* स्थितौ विषये खल्त्रिमाः षोडश प्रतिपत्तयः - परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र तेषां षोडशानां परतीर्थिकानां मध्ये एके एवमाहु:-'गेहसंठिय'त्ति गेहस्येव - वास्तुविद्या सिद्धगृहस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु, एवं जाव वालग्ग पोत्तियासंठिया तावखित्तसंठिई पत्ता इति, एवं - अनन्तरोकेन प्रकारेण-चन्द्रसूर्यसंस्थितिगतेन प्रकारेणेत्यर्थः, गृहसंस्थिताया ऊर्ध्वं तावद् वतव्यं यावद्वालाग्रपोत्तिकासंस्थिता प्रज्ञप्ता इति, तचैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसु गेहावणसंठिया तावखेत्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु २, एगे पुण एवमाहंसु पासायसंठिया तावखित्त संठिई पत्ता, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु गोपुरसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंस ४, एगे पुण एवमाहंसु पिच्छाघरसंठिया तावखितसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंनु ५, एगे पुण एवमाहंसु वलभीसंठिया तावखित्तसंठिई पत्ता, एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एवमाहंसु हम्मियतलसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु वालग्गपोत्तिवासंठिया तावखित्तसंठिई पत्ता, एगे एवमासु ८' अत्र सर्वेष्वपि पदेषु विग्रहभावना प्रागिव कर्त्तव्या, 'एगे पुण' इत्यादि एके पुनरेवमाहुः 'जस्संठिय'त्ति यत् संस्थितं - संस्थानं यस्य स यत्संस्थितो जम्बूद्वीपो द्वीपस्तत्संस्थिता - तदेव -- जम्बू द्वीपगतं संस्थित संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्रोपसंहारः 'एंगे एवमाहंस' ९, एके पुनरेवमाहु:- यत्संस्थितं भारतं वर्षे तत्संस्थिता F&P UW One ~153~ ४ प्राभृतम् ॥ ७० ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३९] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [२५] प्राभृत [४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञष्ठा, अत्र विग्रहभावना प्रागित्र वेदितव्या, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' १०, एवं उक्तेन प्रकारेण | उद्यानसंस्थिता तापक्षेत्र संस्थितिरपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसु, उज्जाणसंठिया तावखित्तसंठिई पत्ता, एगे एवमाहंसु, (ग्रंथाग्रं २००० ) अत्र उद्यानस्येव संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः ११, 'निज्वाणसंठिय'त्ति निर्याणं पुरस्य निर्गमनमार्गः तस्येव संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसु, निजाणसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंस' १२, 'एगतोनिसहसंठिय'त्ति एकतो- रथस्य एकस्मिन् पार्श्वे यो नितरां सहते स्कन्ध्र पृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधो बलीवईस्तस्येव संस्थित संस्थानं यस्याः सा एकतोनिषधसंस्थिता अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु, एगतोनिसहसं|ठिया तावखित्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु' १३, 'दुहतोनि सहसंठिय'त्ति अपरेषामभिप्रायेणोभयतो निषधसंस्थिता वक्तव्या, उभयतो- रथस्योभयोः पार्श्वयोर्यो निषधौ-बलीवद्द तयोरिव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा, सा चैवं वक्तव्या - एगे पुण एवमाहंसु दुहओनिसहसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु' १४ 'सेपणगसंठिय'त्ति श्येनकस्यैव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेणाभिधातव्या, सा चैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसु सेयाणसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता एगे एवमाहंस' १५, 'एगे पुण' इत्यादि, एके पुनरेवमाहुः, सेचनकपृष्ठस्येव श्येनपृष्ठस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्रोपसंहारमाह- 'एंगे एवमाहंस' १६, तदेवमुक्ताः षोडशापि प्रतिपत्तयः, एताश्च सर्वा अपि मिथ्यारूपा अत एता व्युदस्य भगवान् स्वमतं भिन्नमुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, Jan Eiration intimat F ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३९] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [२५] प्राभृत [४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञानाः केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तूपलभ्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'उद्धी + ४ प्राभृतम् मुखेत्यादि, ऊर्ध्वमुखकलम्बुकपुष्पसंस्थिता - ऊर्ध्वमुखस्य कलम्बुकापुष्यस्येव - नालिकापुष्पस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ॥ ७१ ॥ ॐ ( मल० ) * सा तथा, तापक्षेत्र संस्थितिः प्रज्ञता, मया शेषश्व तीर्थकृद्भिः, सा कथम्भूतेत्यत आह- अन्तः- मेरुदिशि सङ्कचा-सङ्कुचिता बहि:- लवणदिशि विस्तृता, तथा अन्तर्मेरुदिशि वृत्ता- वृत्तार्द्धवलयाकारा सर्वतोवृत्तमेरुगतान् त्रीन् द्वौ वा दशभागान४ भिव्याप्य तस्या व्यवस्थितत्वात्, बहिर्लवणदिशि पृथुला मुत्कलभावेन विस्तारमुपगता, एतदेव संस्थानकथनेन स्पष्टं स्पष्टयति-'अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थिमुहसंठिय'त्ति अन्तर्मेरुदिशि अङ्क :- पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूप आसनबन्धः तस्य मुखं- अग्रभागोऽर्द्धवलयाकारस्तस्येव संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथा बहिर्लवणदिशि स्वस्तिकमुखसंस्थिता - स्वस्तिक:- सुप्रतीतः तस्य मुखं- अग्रभागः तस्येवातिविस्तीर्णतया संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथा, 'उभओपासेणं ति उभयपार्श्वेन मेरुपर्वतस्योभयोः पार्श्वयोस्तस्याः -तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभेदेन द्विधाव्यवस्थितायाः प्रत्येकमेकैकभावेन ये द्वे बाहे ते आयामेन - जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते भवतः, सा चैकैका आयामतः किंप्रमाणा इत्याहपञ्चचत्वारिंशत् २ योजनसहस्राणि ४५०००, तस्यास्तापक्षेत्र संस्थितेरेकैकस्या द्वे च बाहे अनवस्थिते भवतः, तद्यथासर्वाभ्यन्तरा सर्वबाद्या च तत्र या मेरुसमीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वाभ्यन्तरा, या तु लवणदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्ते विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्ववाह्या, आयामश्च दक्षिणोत्तरायततया प्रतिपत्तव्यो विष्कम्भः पूर्वापरायततया, एवमुक्ते सति भगवान् गौतमः स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधनार्थं भूयः पृच्छति- 'तत्थे' त्यादि, तत्र तस्यामेवंविधायामनन्त Eatont F ~ 155~ ॥ ७१ ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], --------------------प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूल [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप रोदितायां वस्तुच्यवस्थायां को हेतुः -का उपपत्तिरिति भगवान् वदेत् !, एवमुक्त भगवानाह-'ता अयण्ण'मित्यादि, इदं जम्बद्वीपघाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण भावनीयं, 'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य || चार चरति तदा 'उद्धमुहकलंबुयापुप्फे त्यादि, प्राग्वत् व्याख्येयं यावत्सर्वाभ्यन्तरा वाहा सर्वबाह्या च चाहा, 'तीसे ज'मित्यादि, तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थिते. सर्वाभ्यन्तरा बाहा मेरुपर्वतान्ते-मेरुपर्वतसमीपे, सा च परिक्षेपेण-मन्दरपरिक्षेपगततया नव योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि षडशीत्यधिकानि नव च दशभागा योजनस्य ९४८६ आख्याता मया इति वदेत्, एवमुक्त भगवान् गौतमः प्रश्नयति-ता से णमित्यादि, ता इति प्राग्वत् , स तापक्षेत्रसंस्थितपरिक्षेपविशेषो-मंदरपरिरयपरिक्षेपणविशेषः कुतः-कस्मात्कारणादेवंप्रमाण आख्यातो नोनोऽधिको वेति वदेत् , भगवानाह-'ता जे णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यो णमिति वाक्यालकारे मन्दरस्य-मेरोः पर्वतस्य परिक्षेपः-परिरयगणितप्रसिद्धस्तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा तदनन्तरं च दशभिश्छित्त्वा-विभज्य, अथ कस्मादेवं क्रियत इति चेत् , उच्यते, इह सर्वाभ्यन्तरे से मण्डले वर्तमानः सूर्यो जम्बूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्र तत्र प्रदेशे तत्तच्चक्रवालक्षेत्रप्रमाणानुसारेण त्रीन् दशभागान् प्रकाशयति, एतच्च प्रागेवोक्तं, सम्पति च मन्दरसमीपे तापक्षेत्रे चिन्ता क्रियमाणा वर्तते ततो मन्दरपरिरयः सुखावबोधार्थं प्रथमतस्त्रिभिर्गुण्यते गुणयित्वा च दशभिर्विभज्यत इति, दशभिश्च भागे हियमाणे यथोक्तं मन्दरसमीपे तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति, तथाहि-मन्दरपर्वतस्य विष्कम्भो दश सहस्राणि १०००० तेषां वर्गो दश कोव्यः १०००००००० तासां दशभिर्गुणने कोटिशतं १००००००००० अस्य वर्गमूलानयने लब्धानि एकत्रिंशत्सहस्राणि षट् शतानि किश्चिन्यूनत्रयोविंशत्यधिकानि अनुक्रम [३९] JAMEartan intimaternal ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], --------------------प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूल [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभृतम् प्रत सूत्रांक [२५]] दीप सूर्यप्रज्ञ- परं व्यवहारतः परिपूर्णानि विवक्ष्यन्ते ३१६२३, एष राशिस्त्रिभिर्गुण्यते, जातानि चतुर्नवतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि प्तिवृत्तिःपकोनसप्तत्यधिकानि ९४८७९, एतेषां दशमिर्भागहारे लब्धानि नव योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि (मल०) नव च दशभागा योजनस्य, तत एष एतावान्-अनन्तरोदितप्रमाणः परिक्षेपविशेषा-मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषस्तापक्षे संस्थितेराख्यात इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः, अयं चार्थोऽन्यत्राप्युक्त:-"मन्दरपरिरयरासीतिगुण दसभाइयमिजं लड़ा ॥७२॥ &ातं होइ तावखेत्तं अभितरमंडले रविणो ॥१॥" तदेवं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये मन्दरसमीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरवाहाया विष्कम्भपरिमाणमुक्त, इदानीं लवणसमुद्रदिशि जम्बूदीपपर्यन्ते या सर्वबाह्या चाहा तस्या विष्कम्भपरिमाणमाह-तीसे 'मित्यादि, तस्थाः-तापक्षेत्रसंस्थितेः लवणसमुद्रान्ते-लवणसमुद्रसमीपे सर्ववाह्या बाहा सा परि-3 क्षेपेण-जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपेण चतुर्नवतियोजनसहस्राणि अष्टौ च अष्टषष्ट्यधिकानि योजनशतानि चतुरश्च दशभागान योजनस्य ९४८६८ यावदाख्याता इति वदेत्, अत्रैव सष्टावबोधाधानाय प्रश्नं करोति-ता से ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, स एतावान् परिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेः कुतः१-कस्मात् कारणादाख्यातो नोनोऽधिको वेति वदेत्, भगवानाह-'ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् यो जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः-परिरयगणितप्रसिद्धस्तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा तदनन्तरं च दशभिनिछत्वा-दशभिर्विभज्य अत्रार्थे कारणं प्रागुक्तमेवानुसरणीय, दशभिर्भागे ह्रियमाणे यथोकं जम्बूद्वीपपर्यन्ते तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपस्त्रीणि लक्षाणि षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके ३१६२२७ त्रीणि गब्यूतानि ३ अष्टाविंशं धनुःशतं १२८ त्रयोदश अङ्गुलानि १३ एकम ङ्गुलं , एतावता च अनुक्रम [३९] ॥७२॥ ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] योजनमेकं किल किशिन्यूनमिति व्यवहारतः परिपूर्ण विवक्ष्यते, ततो द्वे शते अष्टाविंशत्यधिके वेदितव्ये २१६२२८.13 एष त्रिभिर्गुण्यते जातानि नव लक्षाणि अष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि ९४८६८४, एतेषां &ादशभिर्भागो हियते, लब्धं यथोक्तं जम्बूद्वीपपर्यन्ते सर्वबाह्याया बाहाया विष्कम्भपरिमाणं, ततः 'एस 'मित्यादि, एप | एतावान् अनन्तरोदितप्रमाणः परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिरयः परिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेराख्यात इति वदेत , उन चैतदन्यत्रापि-"जंबुद्दीवपरिरये तिगुणे दसभाइयं मिलौं । त होइ तावखितं अम्भितरमंडले रविणो ॥ " | तदेवं जम्बूद्वीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरायाः सर्वबाह्यायाश्च बाहाया विष्कम्भपरिमाणमुक्तं । सम्प्रति सामस्त्येनायामतस्तापक्षेत्रपरिमाण जिज्ञासुस्तद्विषयं प्रश्नमाह-ता से णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , तापक्षेत्रं आयामतः सामस्त्येन दक्षिणोत्तरायततया कियत्-किंप्रमाणमाख्यातमिति वदेत् ?, भगवानाह-ता अहुत्तर'मित्यादि ता इति पूर्ववत् अष्टसप्ततिः योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशानि-त्रयस्त्रिंशद धिकानि योजनविभागं च यावत् आयामेन दक्षिणोत्तरायत तया आख्यातमिति वदेत् , तथाहि-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानस्य सूर्यस्य तापक्षेत्रं दक्षिणोत्तरायततया मेरोरारभ्य तावद्धपद्धते यावालवणसमुद्रस्य षष्ठो भागः, उक्तं च-"मेरुस्स मज्झभागाजाव य लवणस्स रुंदछन्भागा। तावायामो एसो सगडु द्धीसंठिओ नियमा ॥१॥" अत्र 'एसो'इत्यादि, एष तापो नियमात् शकटोद्धिसंस्थितः, शेष सुगम, तत्र मेरोरारभ्य। जम्बूद्वीपपर्यन्तं यावत्पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि लवणस्य विस्तारो द्वे योजनलक्षे तयोः षष्ठो भागस्त्रयस्त्रिंशद्योजन-1 सहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनस्य च विभागः, तत उभयमीलने यथोकमायामप्रमाणं भवति, 9%85%2525 दीप अनुक्रम [३९] ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूल [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत प्तिवृत्तिः (मल०) प्राभृते तापक्षेत्र प्रमाणं सू २५ ॥७३॥ सूत्रांक [२५] इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानस्य सूर्यस्य लेश्या अभ्यन्तरं प्रविशन्ती मेरुणा प्रतिस्खल्यते, यदि पुनर्न प्रतिस्खल्यते ततो मेरोः सर्वमध्यभागगतं प्रदेशमवधीकृत्यायामतो जम्बूद्वीपस्य पश्चाशतं योजनसहस्राणि प्रकाशयेत् , अत एवेत्थं जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशतं योजनसहस्राणि प्रकाश्यानि सम्भाव्य सर्वाभ्यन्तरेऽपि मण्डले वर्तमाने सूर्ये तापक्षेत्रस्यायामप्रमाणं ज्योतिष्करण्डकमूलटीकायां श्रीपादलिप्तसूरिभिरुयशीतिर्योजनसहयाणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योज-2 नस्य च विभाग इत्युक्त, युकं चैतत्सम्भावनया तापक्षेत्रायामपरिणाम, अन्यथा जम्बूद्वीपमध्ये तापक्षेत्रस्य पश्चचत्वारिंशसहस्रमात्रपरिमाणाभ्युपगमे यथा सूर्यो बहिनिष्कामति तथा तत्प्रतिबद्धं तापक्षेत्रमपि, ततो यदा सूर्यः सर्वबाह्य मण्ड-* लमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा सर्वथा मन्दरसमीपे प्रकाशो न प्रामोति, अथ च तदापि तत्र मन्दरपरिरयपरिक्षेपेण विशेषपरिमाणमये यक्ष्यते, तस्मात्पादलिप्तसूरिव्याख्यानमप्यभ्युपगन्तव्यमिति । तदेवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमधिकृत्य |ट्र तापक्षेत्रसंस्थितिरुक्का, सम्पति तदेव सर्वोभ्यन्तरमण्डलमधिकृत्यान्धकारसंस्थितिं प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलाचारकाले 'किंसंठिय'त्ति किं संस्थित-संस्थानं यस्याः यदिवा कस्खेव | 2 | संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा किंसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिराख्याता इति वदेत् ?, भगवानाह-'ता इत्यादि, ता इति | पूर्ववत् कवींमुखकृतकलम्बुकापुष्पसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिराख्याता इति वदेत, सा च अन्तः-मेरुदिशि विष्कम्भ-1 मधिकृत्य सङ्कुचा-सङ्कुचिता, बहिः-लवणदिशि विस्तृता, तथा अन्तः-मेरुदिशि वृत्ता-वृत्ताद्धवलयाकारा, सवेतो वृत्तमेरुगती बी दशभागी ग्याप्य तस्या व्यवस्थितत्वात, बहिः-लवणदिशि पृथुला-विस्तीर्णो, एतदेव संस्थानकथनेन दीप अनुक्रम [३९] ॥७३॥ ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [४], -------------------- प्राभूतप्राभत [-1, -------------------- मलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5 प्रत सूत्रांक 4505% [२५] स्पष्टयति-'अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सस्थिमुहसंठिया' अनयोश्च पदयोाख्यानं प्रागिव वेदितव्यं, 'उभओ पासे 'मित्यादि, तस्याः-अन्धकारसंस्थितेस्तापक्षेत्रसंस्थितिद्वैविध्यवशाद द्विधा व्यवस्थिताया मेरुपर्वतस्योभयपानउभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकमेकैकभावेन ये जम्बूद्वीपगते बाहे ते आयामेन-आयामप्रमाणमधिकृत्यावस्थिते भवतस्तद्यथापञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि ४५०००, द्वे च बाहे विष्कम्भमधिकृत्यैकैकस्या अन्धकारसंस्थितेर्भवतस्तद्यथा-सर्याभ्यन्तरा| सर्ववाह्या च, एतयोश्च व्याख्यानं प्रागिव द्रष्टव्यं, तत्र सर्वाभ्यन्तराया बाहाया विष्कम्भमधिकृत्य प्रमाणमभिधित्सुराह-तीसे 'मित्यादि, तस्या-अन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा या बाहा मन्दरपर्वतान्ते-मन्दरपर्वतसमीपे सा च षटू योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विंशानि-चतुर्विशत्यधिकानि ६३२४ षट् द्वादशभागान् योजनस्य यावत्परिक्षेपेणपरिरयपरिक्षेपणेनाख्याता इति वदेत् , अमुमेवार्थ स्पष्टावबोधनार्थं पृच्छति-'ता से 'मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सः-यथोक्तप्रमाणपरिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषः कुतः-कस्मात्कारणात् आख्यातो नोनोऽधिको वेति भगवान् वदेत् १, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यो णमिति वाक्यालङ्कारे मन्दरस्य पर्वतस्य परिक्षेपः प्रागुक्तप्रमाणः तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा, कस्माद् द्वाभ्यां गुणनमिति चेत्, उच्यते, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरतोः सूर्ययोरेकस्यापि सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्र तत्र वा प्रदेशे यत्तचकवालक्षेत्रानुसारेण दशभागास्त्रयः प्रकाश्या भवन्ति अपरस्यापि सूर्यस्य चयः प्रकाश्या दशभागास्तत उभयमीलने षट् दशभागा भवन्ति, तेषां च त्रयाणां २ दशभागानामपान्तराले द्वौ २ दशभागी रजनी ततो द्वाभ्यां दीप अनुक्रम [३९] JAINEDuratonistrational FitneralMAPINANORN ~160~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः (मल०) प्रत प्रमाणं सूत्रांक ॥ ७४॥ [२५] गुणनं, तौ च द्वौ दशभागाविति दशभिर्भागहरणं, 'सेसं तं चेच'त्ति शेषं तदेव प्रागुक्त वक्तव्यं, तच्चेदम्-'दसहिं छित्ता पचपदसाह छत्ताज४प्राभूते दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहियत्ति वइजा' अस्थायमर्थः-दशभिश्छित्त्वा-दशभिर्विभज्य दशभि तापक्षेत्रर्भागे हियमाणे यथोक्तमन्धकारसंस्थितेर्मन्दरपरिरयपरिक्षेपपरिमाणमागच्छति, तथाहि-मेरुपर्वतपरिरयपरिमाणमेकत्रिशयोजनसहस्राणि षट् शतानि त्रयोविंशत्यधिकानि ३१६२३, एतद् द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि त्रिषष्टिः सहस्राणि द्वे शते सू२५ षट्चत्वारिंशदधिके ६३२४६, एतेषां दशभिर्भागे हुते लब्धानि षट् योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि | षट् च दशभागा योजनस्य ६३२४ । तत एष एतावाननन्तरोदितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपणविशेष आख्यात इति वदेत् । तदेवमुक्तमन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तराया बाहाया विष्कम्भपरिमाणम् , अधुना सर्वबाह्याया बाहाया आह-तीसे 'मित्यादि, तस्याः-अन्धकारसंस्थिते. सर्वबाह्या बाहा लवणसमुद्रान्तेलवणसमुद्रसमीपे जम्बूद्वीपपर्यन्ते, सा च परिक्षेपेण-जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपणेनाख्याता त्रिषष्टियोंजनसहस्राणि द्वे पञ्चचत्वारिंशे योजनशते पटू च दशभागान् योजनस्य यावत् ६३२४५ । एतदेव स्पष्ट स्पशिष्यानवयोधयितुं भगवान् गौतमः पृच्छति-'ता से ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् , तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सः-तावान् परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिक्षेपणविशेषः कुतः -कस्मात्कारणात् आख्यातो नोनोऽधिको वेति वदेत् १, भगवान् वर्द्धमानस्वामी आह-ता जे 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यो णमिति वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः प्रागुक्तप्रमाणः तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुण-18 ॥७४॥ यित्वा दशभिश्छित्वा-दशभिर्विभज्य, अन्न कारण मागेवोक, दशभिर्भागे हियमाणे यथोक्तमन्धकारसंस्थितेर्जम्बूदीपप दीप अनुक्रम [३९] ~161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप रिरयपरिक्षेपणमागच्छति, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि षोडश सहस्राणि द्वे शते अष्टाविंशत्यधिक ३१६२२८, एतद् द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि पट् लक्षाणि द्वात्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि षट्पञ्चाशदधिकानि ६३२४५६, तेषां दशभिर्भागे हते लब्धानि त्रिषष्टियोजनसहस्राणि द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके पटू च दशभागा योजनस्या ५३२४५। तत एष एतावान् अनन्तरोदितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपणविशेष आख्यात इति वदेत् , तदेवमुक्तं सर्वबाह्याया अपि बाहाया विष्कम्भपरिमाणं, सम्पति सामस्त्येनान्धकारसंस्थितेरायामप्रमाणमाह-'तीसे णमित्यादि, इदं चायामप्रमाणं तापक्षेत्रसंस्थितिगतायामपरिमाणवत्परिभावनीयं, समानभावनिकत्वात् । अत्रैव सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानयोः सूर्ययोर्दिवसरात्रिमुहूर्तप्रमाणमाह-तया ण'मित्यादि सुगमं । तदेवं| सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तापक्षेत्रसंस्थितिं अन्धकारसंस्थितिं चाभिधाय सम्प्रति सर्वबाह्यमण्डले तामभिधित्सुराह-'ता जया 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , यदा सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति तदा किंसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत् !, भगवानाह-'ता ऊद्धमुहे'त्यादि, ता इति पूर्ववत् , ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता (इति ) वदेत् स्वशिष्येभ्यः, 'एव'मित्यादि, एवं-पूर्वोक्तेन प्रकारेण यदभ्यन्तरमण्डले अभ्यन्तरमण्डलगते सूर्ये अन्धकारसंस्थितेः प्रमाणमुक्कं तद्वाह्यमण्डले-बाह्यमण्डलगते सूर्ये तापक्षेत्रसंस्थितेः परिमाणं भणितव्यं, यत्पुनस्तत्र-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणं तद्बाह्यमण्डले वर्तमाने सूर्येऽन्धकारसंस्थितःप्रमाणामभिधातव्यं, तच्च तावत् 'तयाणं उत्तमकहपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राईत्यादि, तश्चैवं सूत्रतो भणनीयं-'अंतो संकुडा अनुक्रम HEROHTAS [३९] ~162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५]] दीप सूर्यप्रज्ञ- वाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिहला अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्धिमुहसंठिया,उभयोपासेणं तीसे दुवे वाहाओ अववियाओ प्राभृते प्तिवृत्तिः भवंति, पणयालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, दुवे य णं तीसे बाहाओ अणवडिआओ भवंति, तंजहा-अमितरिया चेवर तापक्षत्र(मल.) चाहा सबबाहिरिया चेव वाहा, तीसे णं सबभतरिया वाहा मंदरपबयंतेणं छ जोयणसहस्साई तिन्नि य चउवीसे जोया प्रमाण सू२५ ॥७५॥ माणसए छच्च दसभागा जोयणस्स परिक्खेवणं आहियत्ति वएजा, तीसे णं परिक्खेवविसेसे कओ आहियत्तिवएज्जा, ताप जेणं मंदरस्स पवयस्स परिक्खेवे ते णं दोहिं गुणित्ता दसहिं छित्सा दसहिं भागे हीरमाणे, एस गं परिक्खेवविसेसे। & आहियत्ति वएज्जा?, ता से णं तावक्खेत्ते केवइयं आयामेणं आहियत्ति वएज्जा?, ता तेसीइ जोयणसहस्साई तिनि तेत्तीसे जोयणसए जोयणतिभागं आहियत्ति वएज्जा, तया णं किंसंठिया अंधकारसंठिई आहिअत्ति वइजा, ता उड्डीमुहक-| लंबुयापुप्फसंठाणसंठिया आहियत्ति वएज्जा, अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिहला अंतो अंकमुहसठिया है बाहिं सत्थिमुहसंठिया उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ भवंति, पणयालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, दुवे य गं तीसे पाहाओ अणवाहियाओ भवंति, तंजहा-सबभतरिया चेव बाहा सबबाहिरिया चेव बाहा, तीसे णं सबभतरिया: बाहा मंदरपत्यंतेणं नव जीयणसहस्साई चत्तारि य छलसीए जोयणसए नव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेर्ण माहि-18 यत्ति वएज्जा, ता जे णे मंदरस्स पबयस्स परिक्लेवे ते परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे, एस ण परिक्खेवविसेसे आहियत्ति वएजा, तीसे णं सबबाहिरिया बाहा लवणसमुईतेण चउणजई जोयणसहस्साई अह य| Xअहे जोयणसए चत्वारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिए इति वएज्जा, वा एस णं परिक्खेवविसेसे को अनुक्रम [३९] FirmaaMAPINHINORN ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत - - सूत्रांक --- [२५] आहिए इति वएज्जा, ताजे णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवे पण्णते. ते परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेषविसेसे भाहिए इति वएज्जा, तीसे णं अंधकारे केवइए आयामेणं आहिए इति वइजा, ता तेसीइ जोयणसहस्साई तित्रिय तित्तीसे जोयणसए जोयणत्तिभागं च आहिए इति वएजा, तया णं उत्तमकहपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुचा राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' इदं च सकलमपि मागुक्तसूचव्याख्यानुसारेण स्वयं परिभावनीयं, तापक्षेवसंस्थितौ चिन्त्यमानायां यन्मंदरपरिरयादि द्वाभ्यां गुण्यते अन्धकारचिन्तायां तु तत्रिभिस्तदनन्तरं चोभयत्रापि दशभिविभजनं तथा सर्ववाद्ये मण्डले सूर्यस्य चारं चरतो लवणसमुद्रमध्ये पक्ष योजनस-* हस्राणि तापक्षेत्रं तदनुरोधा, अन्धकारश्चायामतोवर्द्धते ततख्यशीतियोजनसहस्राणि इत्युक्तमिति । तदेवमुक्कं तापक्षेत्रसंस्थितिपरिमाणमन्धकारसंस्थितिपरिमाणं च, सम्प्रत्यूर्वमधः पूर्वविभागेऽपरविभागे च यावत्प्रकाशयतः सूर्यों तन्निरूपणार्थ सूत्रमाहता जंबुद्दीवे 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , जंबूद्वीपे कियत्-कियत्प्रमाण क्षेत्रं सूर्यावूर्व तापयतः-प्रकाशयतः कियक्षेत्रमधः कियक्षेत्र तिर्यक्, पूर्वभागे अपरभागे चेत्यर्थः, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यों प्रत्येक स्वविमानादूर्ध्वमेकं योजनशतं तापयतः-प्रकाशयतः अधस्तापयतोऽष्टादश योजनशतानि, एतच्चायोलौकिकग्रामापेक्षया द्रष्टव्यं, तथाहि-अधोलौकिकग्रामाः समतलभूभागमवधीकृत्याधो योजनसहस्रेण व्यवस्थिता तत्रापि सूर्यप्रकाशः प्रसरति, ततः समतलभूभागस्थाधो योजनसहस्रं तदूर्व चाष्टी योजनशतानीत्युभयमीलनेऽष्टादश योजनशतानि, तिर्यक् स्वविमानात् पूर्वभागेऽपरभागे च प्रत्येक तापयतः सप्तचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि द्वे योजनशते दीप अनुक्रम [३९] FitneralMAPINAHAuNORE ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [४], -------------------- प्राभूतप्राभत [-1, -------------------- मलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - ५प्राभते सूर्यप्रज्ञ- विवृत्तिः (मल०) प्रत लेश्याप्रति हतिः सूर सूत्राक [२५]] टीप त्रिषष्टे-त्रिपश्यधिके एकविंशतिं च पष्टिभागान् योजनस्य । ४७२६३३ ॥ : इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां चतुर्थ-प्राभृतं समाप्त तदेवमुक्तं चतुर्थं प्राभृतं, सम्प्रति पञ्चममारभ्यते-तस्य चायमाधिकारः 'कस्मिन् लेश्या प्रतिहते ति, ततस्तद्विषर्य प्रश्नसूत्रमाह ता कस्सि णं सूरियस्स लेस्सा पडिहताति वदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता मंदरंसिणं पचतंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहता आहिताति चदेवा, एगे एवमासु १ एगे पुण एवमाहंसु ता मेकैसि णं पञ्चतंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहता आहितातिवदेजा, एगे एवमाहंसु २, एवं एतेणं अभिलावेणं भाणियई, ता मणोरमंसि ण पब्वयंसि, ता सुदंसणंसिणं पवयंसि, ता सयंपभंसि णं पवतंसि ता गिरिरायंसि णं पञ्चतंसि ता रतणुच्चयंसिणं पञ्चतंसिता सिलुचयंसिणं पवयंसि ता लोअमजसंसि पचतंसि ता लोयणार्भिसि गंपवतंसिता अच्छंसिणं पचतंसि तासूरियावतंसि णं पवतंसि सूरियाचरणंसि गं पवतंसि ता उत्तमंसि णं पवयंसि ता दिसादिस्सिणं पचतंसि ता अवतंसंसिणं पचतंसि ता धरणिखीलंसि णं पवयंसि ता धरणिसिंगंसि णं पच्वयंसि ता पवर्तिदंसि णं पवतंसि ता पचयरायसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहता आहिताति वदेजा, एगे एवमासु । वयं पुण एवं बदामो-ता मंदरेवि पवुञ्चति अनुक्रम [३९] ॥७६॥ अत्र चतुर्थ प्राभृतं परिसमाप्तं अथ पञ्चमं प्राभृतं आरभ्यते ~165~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] जाव पवयराया बुचति, ता जे णं पुग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पुग्गला सरियस्स लेसं पडिहणंति, अदिहावि गं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, चरिमलेसंतरगताविण पोग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिमहणंति ॥ (सूत्र २६ ) ॥ सूरिषपण्णत्तीए भगवतीए पंचमं पाहुडं समत्तं ॥ 'ता कस्सि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , अभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य लेश्या प्रसरतीति कस्मिन् स्थाने लेश्या प्रतिहता ४ आख्याता इति वदेत् ?, अयमिह भावार्थ:-इहावश्यमभ्यन्तरं प्रविशन्ती सूर्यस्य लेश्या कस्मिन् स्थाने प्रतिहतेत्यभ्युपगन्तव्यं, यतः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले जम्बूद्वीपगतं तापक्षेत्रमायामतः पश्चचत्वारिंशद्योजनसहस्रप्रमाणमेवाख्यातमेतच्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगते सूर्ये लेश्याप्रतिहतिमन्तरेण नोपपद्यते, अन्यथा निष्कामति सूर्ये तत्प्रतिबद्धस्य तापक्षेत्रस्यापि निष्क्रमणभावात् सर्ववाद्ये मण्डले चार घरति सूर्ये हीनमायामतो भवेत् न च हीनमुक्तमतोऽवसीयते कापि लेश्या प्रतिघातमुपयाति ततस्तदवगमाय प्रश्न इति, एवं प्रश्ने कृते सति भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्थेत्यादि, तत्र-सूर्यलेश्याप्रतिहतिविषये खल्विमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा 'तन्त्र' तेषां ५ विंशतः परतीर्थिकानां मध्य एक एवमाहुः-मन्दरे पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, वदेदिति तेषां | मूलभूतं स्वशिष्यं प्रत्युपदेशः, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु'१, एके पुनरेवमाहुः-मेरौ पर्वते सूर्यलेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, एके एवमाहुः २, 'एच'मित्यादि एवं-उक्तेन प्रकारेण-एतेन वक्ष्यमाणेन प्रतिपत्तिविशेषभूतेना-2 लापकेन शेषप्रतिपत्तिजातं नेतव्यं, तानेव प्रतिपत्तिविशेषभूतानालापकान् दर्शयति-ता मणोरमंसि गं पवतंसी 1350-1534555154 अनुक्रम [४०] FhiraIMAPIVAHauwORE ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [५], --------------------प्राभूतप्राभत [-1,-------------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२६]] सूर्यप्रज्ञ- त्यादि प्रत्यालापकं च पूर्वोक्तानि पदानि योजनीयानि, तत एवं सूत्रपाठ:-'एगे पुण एवमाहेसु ता मणोरमंसि णं पवयंसि ५ माभूते हिवृत्तिःसूरियलेसा पडिहया आहियत्ति वइज्जा एगे एवमासु ३, एगे पुण एवमाहंसु, ता सुदंसणंसि णं पवर्षसि सूरियलेसालेश्याप्रति(मल०) पडिहया आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु, ता सयंपहसि णं पवयंसि सूरियलेसा पडिहया हतिः सू२६ आहियत्ति वइज्जा एगे एवमाईसु ५, एगे पुण एवमाहंसु ता गिरिरायसि णं पवयंसि सूरियलेसा पडिहया आहियत्ति ॥७७॥ Bावएजा, एगे एवमासु ६, एगे पुण एवमाइंसु ता रयणुचयंसि पयंसि सूरियलेसा पडिया आहियत्ति वइज्जा एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहेसु ता सिलुच्चयंसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा, एगे पवमा मासु ८, एगे पुण एवमाइंसु ता लोयमझसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति चएज्जा, एगे एवमाहंसु ९, जाएगे पुण एवमाहंसु ता लोगनाभिंसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वइजा एगे एवमाहंसु १०, एगे पुण एवमाईसु ता अच्छसि गं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वइज्जा एगे एवमाइंसु ११, एगे| पुण एवमाइंसु ता सूरियावसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएना एगे एवमाहंसु १२, एगे पुण पवमाहंसु ता सूरियावरणंसि पश्यसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु १३, एगे पुण एव-181 माइंसु ता उत्तमंसि णं पञ्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिया आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु १४, एगे पुण एवमाहंसु Iता दिसादिस्सि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु १५, एगे पुण एवमाहंसु ता | | ७७॥ अवतंससि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएजा एगे एवमाहंसु १६, एगे पुण एवमाहंसु ता धरणि-| SHARE अनुक्रम [४०] ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 456 प्रत सूत्रांक [२६] खीलंसि ण पधयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाइंसु १७, एगे पुण एवमाहंसु ता धरणिसिं गंसि शं पश्यसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएजा एगे एवमासु १८,एगे पुण एवमाहंसु ता पवईदंसि णं पवहायसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु १९, एगे पुण एवमासु ता पवयरायसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएजा एगे एवमाहंसु २०, तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-'धयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्योतिष एवं वदामः यदुत 'ता'इति पूर्ववत् यस्मिन् पर्वतेऽभ्यन्तरं ट्रामसरन्ती सूर्यस्य लेश्या प्रतिघातमुपगच्छति स मन्दरोऽप्युच्यते यावत्पर्वतराजोऽप्युच्यते, सर्वेषामध्येतेषां शब्दानामे कार्थिकत्वात् , तथा मन्दरो नाम देवस्तत्र पल्योपमस्थितिको महर्द्धिक परिवसति तेन तद्योगान्मन्दर इत्यभिधीयते१, सकलतिर्यग्लोकमध्यभागस्य मर्यादाकारित्वाम्मेरुः २, मनांसि देवानामपि अतिसुरूपतया रमयतीति मनोरमः ३, शोभनं जाम्बूनदमयतया वजरलबहुलतया च मनोनिवृतिकर दर्शनं यस्यासी सुदर्शन:, ४, स्वयमादित्यादिनिरपेक्षा रजबहुल-18 तया प्रभा-प्रकाशो यस्य स स्वयंप्रभः ५, तथा सर्वेषामपि गिरीणामुच्चैस्त्वेन तीर्थकरजन्माभिषेकाश्रयतया च राजा है| गिरिराजः ६, तथा रसानां नानाविधानामुत्-पावल्येन चयः-उपचयो यत्र स रनोच्चयः ७, तथा शिलाना-पाण्डुक-14 कम्बलशिलामभृतीनामुत्-ऊर्ध्व शिरस उपरि चयः-सम्भवो यत्र स शिलोच्चयः ८, तथा लोकस्य-तिर्यग्लोकस्य समस्त स्यापि मध्ये वर्तते इति लोकमध्यः ९, तथा लोकस्य-तिर्यग्लोकस्य स्थालप्रख्यस्य नाभिरिव-स्थालमध्यगतसमुन्नतवृत्तच-18 अनुक्रम [४०] ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूल [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक ॥ ७८॥ [२६] दीप न्द्रक इव लोकनाभिः १०, तथा अच्छ:-स्वच्छ, सुनिर्मलजाम्बूनदरलबहुलत्वात् ११, तथा सूर्य उपलक्षणमेतत् चन्द्र-४५प्राभृते ग्रहनक्षत्रतारकाच प्रदक्षिणमावर्तन्ते यस्य स सूर्यावर्तः १२, तथा सूर्यरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाभिश्च समन्ततःलालश्याप्रति माहिति सू२६ परिभ्रमणशीलैरानियते स्म-वेष्ट्यते स्मेति सूर्यावरणः 'कृढ़हुल मिति वचनात्कर्मण्यनत्प्रत्ययः १३, तथा गिरीणामुत्तम इति उत्तमः १४, दिशामादिः-प्रभवो दिगादिः, तथाहि-रुचकात् दिशां विदिशां च प्रभवो रुचकश्चाष्टप्रदेशात्मको मेरुमध्यवत्ती, ततो मेरुरपि दिगादिरित्युच्यते १५, तथा गिरीणामवतंसक इवेत्यवतंसकः १६, अमीषां च षोडशानां नाम्नां सवाहिके इमे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिद्ध गाथे-"मंदर मेरुमणोरम सुदंसण सयप य गिरिराया । रयणोच्चए सिलोच्चय मझे लोगस्स नाभी य ॥१॥ अच्छे य सूरियावत्ते, सूरियावरणे इय । उत्तमे य दिसाई य, वडिसे श्य सोलसे ॥२॥" तथा धरण्या:-पृथिव्याः कीलक इव धरणिकीलकः, तथा धरण्याः शृङ्गमिव धरणिशृङ्गः, पर्वतानामिन्द्रः पर्वतेन्द्रः, पर्वतानां राजा पर्वतराजः, तदेवं सर्वेऽपि मन्दरादयः शब्दाः परमार्थत एकार्थिकास्ततो भिन्नाभिप्रायतया प्रवृत्ताः प्राक्तनाः प्रतिपत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपा अवगन्तव्याः। यापि च लेश्याप्रतिहतिः सा मन्दरेऽप्यस्ति अन्यत्रापि च, तथा चाहता जे णं इत्यादि, ता इति पूर्ववत् ये णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिताः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिघ्नन्ति, अभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायास्तैः प्रतिस्खलितत्वात् , येऽपि पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिता अपि दृश्यमानपुद्गलान्तर्गताः सूक्ष्मत्वान्न चक्षुःस्पर्शमुपयान्ति तेऽप्यष्टा अपि सूर्यलेश्यां प्रति- ४ ॥७८॥ प्रन्ति, तैरप्यभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायाः स्वशक्त्यनुरूपं प्रतिस्खल्यमानत्वात, येऽपि मेरोरन्यत्रापि चरमलेश्या अनुक्रम [४०] CONGRESS Fhi ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [४०] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [२६] प्राभृत [५], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः न्तरगताः- चरमलेश्याविशेषसंस्पर्शिनः पुद्गलास्तेऽपि सूर्यलेश्यां प्रतिघ्नन्ति तैरपि चरमलेश्या संस्पर्शितया चरमलेश्यायाः प्रतिहन्यमानत्वात् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां पंचमं प्राभृतं समाप्तं तदेवमुक्तं पञ्चमं प्राभृतं सम्प्रति पष्ठमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः - 'कथमोजः संस्थितिराख्याता' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह- ता कहं ते ओयसंठिती आहितातियदेवा ?, सत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवसीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव सरियस्स ओया अण्णा उप्पले, अण्णा अवेति, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुत्तमेव सरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जति अण्णा अवेति २, एतेणं अभिलावेणं तच्चा, अणुरा इंदियमेव ता अणुपक्खमेव ता अणुमासमेव ता अणुउडुमेव ता अणुअयणमेव ता अणुसंयच्छरमेव ता अणुजुगमेव ता अणुवाससयमेव ता अणुवाससहस्समेव ता अणुवाससयसहस्समेव ता अणुपुवमेव ता अणुपुइसयमेव अणुपुवसहस्तमेव ता अणुपुवसतसहस्समेव ता अणुपलितोयममेव ता अणुपलितोवमसतमेव ता अणुपलितोवमसहस्समेव ता अणुपलितोवमसयसहस्समेव ता अणुसागरोवममेव, ता अणुसागरोवमसतमेव ता अणुसागरोवमसहस्समेव ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव एगे एवमाहंसु Jain Estration intimat अत्र पञ्चमं प्राभृतं परिसमाप्तं F&P One अथ षष्ठं प्राभृतं आरभ्यते ~170~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [६], --------------------- प्राभतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सू२७ सूत्रांक [२७] सूर्यप्रज्ञ-18/ता अणुउस्सप्पिणिओसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अण्णा उपजति अण्णा अवेति, एगे एवमासु वयंठा प्तिवृत्तिःलपुण एवं वदामो ता तीसं २ मुहुत्ते सूरियस्स ओया अवहिता भवति, तेण परं सूरियस्स ओया अणवाहिता स्थिति(मल.) भवति, छम्मासे सरिए ओयं णिवुड्डेति छम्मासे मूरिए ओर्य अभिवति, णिक्खममाणे सूरिए देसं णिचुडेति प्राभृते ॥७९॥ पविसमाणे सूरिए देसं अभिवुहुह, तत्थ को हेतूति वदेज्जा ?,ता अयपणं जंबुद्दीवे २सबदीवसमुजाव परि-18 क्लेवेणं, ता जया णं सूरिए सबभंतरं मंडलं उथसंकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया तुवालसमुहुत्ता राई भवति, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छ अयमाणे पढमंसि अहोरसि अभितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभि-| तराणतरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति तताणं एगणं राइदिएणं एगं भागं ओयाए दिवसखित्तस्स णिवु-| द्वित्ता रतणिक्खेत्तस्स अभिवाहित्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसहिंतीसेहिं सतेहिं छित्ता, तता णं अट्ठारसमहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगविभागमुष्टुत्तेहिं अणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं 1 M ॥७९॥ अहिया, से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि अम्भितरतचं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, ता. |जया णं सूरिए अभितरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं दोहिं राईदिएहिं दो भागे ओयाए दिवसखेत्तस्स णिबुडित्ता रयणिखित्तस्स अभिवढेसा चारं चरति, मंडलं अट्ठारसतीसेहिं सरहिं छेत्ता, तताणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चरहिं एगहिभागमु अनुक्रम [४१] ~171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] हुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एतेणुवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओतदाणंतरं मंडलातो मंडल संकममाणे रएगमेगे मंडले एगमेगेणं राइदिएणं पगमेगेणं २ भाग ओयाए दिवसखेत्तस्स णिवुहेमाणे २ रयणिवेत्तस्स अभिवढेमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सबभंतरातो मंडलातो सबबाहिरं मंडलं अवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सबभंतरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीतेणं राइंदियसतेणं एग तेसीतं भागसतं ओयाए दिवसखेत्तस्स णिब्युहेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिवुहेत्ता चारं चरति मंडलं अट्ठारसहि तीसेहिं छेत्ता, तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमछम्मासे एस णं पढ़मस्स छम्मासस्स पजवसाणे, से पविसमाणे सूरिए| दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए चाहिराणंतरं मंडल उपसंकमित्ता चार चरति तता णं एगेणं राईदिएणं एग भार्ग ओयाए रतणि क्खेत्तस्स णिचुहेत्ता दिवसखेसस्स अभिवढेत्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसहिंतीसेहिं छेत्ता, तता णं & अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगट्टिभागमुटुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगहिभा गमुहत्तेहिं अधिए, से पविसमाणे सूरिए दोसि अहोरत्तंसि बाहिरं तथं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सरिए बाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं दोहिं राईदिएहिं दो भाए ओयाए & रमणिखेत्तस्स णिव्वुहेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवुहेत्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहिं छेत्ता, तया णं अनुक्रम [४१] ~172 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [६].-..-...------------ प्राभतप्राभूत [-1,----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञसित्तिः (मल.) प्रत प्राभूते सुत्राक [२७] दीप अट्ठासमुहुत्ता राई भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति चरहिं एगहिभा- ओ गमुहुत्तेहिं अधिए, एवं खलु एतेणुचाएणं पविसमाणे सूरिए तताणंतरातो तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संक-2 ममाणे २ एगमेगेणं राईदिएणं एगमेगेणं भागं ओयाए रयणिखेत्तस्स णिब्वुहमाणे २ दिवसखेत्तस्स अभिवढेमाणे २ सबभंतरं मंडलं उयसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सबवाहिरातो मंडलातो सधभंतर मंडल सू२५ उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सबबाहिरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीलेणं राइंदियसएण एग तेसीतं ५ भागसतं ओयाए रयणिखित्तस्स णिबुहेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवहेत्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसतीसेहिं |सएहिं छेत्ता, तता णं उत्समकट्ठपसे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहत्ता राई। भवति, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दोचस्स छम्मासस्स पज्जयसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे, एस गं| आदिचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं २७) ॥ छई पाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहते ओयसंठिई'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं ?-केन प्रकारेण किं सर्वकालमेकरूपावस्थायितया उतान्यथा ओजस:-प्रकाशस्य संस्थितिः-अवस्थानमाख्याता इति वदेत्, एवमुक्त भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयः सम्भवन्ति तावतीः कथयति-तत्थे'त्यादि, तत्र-ओजःसंस्थिती विषये खल्विमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां पञ्चविंशतेः परतीथिकानां मध्ये एके वादिन एवमाहुः, 'ता'इति पूर्ववत्, अनुसमयमेव-प्रतिक्षणमेव | X८॥ सूर्यस्य ओजोऽन्यदुत्पद्यते अन्यदपैति, किमुक्तं भवति -प्रतिक्षणं सूर्यस्य ओजः प्राक्तनभिन्नप्रमाणं विनश्यति, अन्य अनुक्रम [४१] ~173 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [४१] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-], प्राभृत [६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः मूलं [२७] देव प्राक्तनाद्भिशप्रमाणमोज उत्पद्यते, सूत्रे व ओजःशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः प्राकृतत्वादार्थत्वाद्वा, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' १, एके पुनरेवमाहुः, 'ता' इति पूर्ववत्, अनुमुहूर्त्तमेव-प्रतिमुहूर्त्तमेव सूर्यस्य ओजोऽन्यदुत्पद्यते अन्यच्च प्राक्तनमपैति, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' २, 'एव' मित्यादि, एवं उक्तेन प्रकारेण एतेन वक्ष्यमाणेन प्रतिपत्तिविशेषभूतेनालापकेन शेषं प्रतिपत्तिजातं नेतव्यं, तानेवाभिलापविशेषान् दर्शयति- 'ता अणुराईदियमेवेत्यादि, सुगमं, नवरं रात्रिन्दिवं रात्रिन्दिवमनु अनुरात्रिंदिवमित्येवं सर्वत्र विग्रहभावना करणीया, पाठः पुनरेवं सूत्रस्य वेदितव्यःएगे एवमाहंसु ता अणुराईदियमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजाइ अन्ना अवेति, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण | एवमाहंसु ता अणुपक्खमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ, अन्ना अबेइ, एगे एवमाहं ४, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमासमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जति (अन्ना) अवेइ, एगे एवमाहंसु ५, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुउरमेव सूरियरस ओआ अन्ना उप्पज्जइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु ६, एगे एवमाहंसु ता अणुअयणमेव सूरियरस ओया अन्ना उप्पजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुसंवच्छरमेव सूरियस्स ओजा अन्ना उप्पज्जइ अन्ना अवेद, एगे एवमाहंसु ८, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुजुगमेव सूरियस्स ओभा अन्ना उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु ९, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुवाससयमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु १०, ता एगे पुण एवंमाहंसु अणुवास सहस्तमेव सूरियस्स ओआ अण्णा उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु ११, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुवासस्य| सहरसमेव सूरियरस ओया अण्णा उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु १२, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपुवमेव सूरि Jan Eiration intimanal F&PO ~174~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [६], --------------------- प्राभतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक सू२७ [२७] सूर्यप्रज्ञ- यस्स ओया अन्ना उप्पजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमासु १२, एगे पुण एवमाइंसु ता अणुपुबसयमेव सूरियस्स ओया ओजःप्तिवृत्तिः अन्ना उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहेसु १४, एगे पुण एवमासु ता अणुपुषसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्प- स्थिति(मल.) जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमासु १५, एगे पुण एवमासु ता अणुपुबसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उपजा, प्राभृते ॥१॥IDअन्ना अवेइ, एगे एवमाईसु १६, एगे पुण एवमासु ता अणुपलिओषममेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जा, अन्ना अवेहDI एगे एवमासु १७, एगे पुण पवमासु ता अणुपलिओवमसयमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पाइ, अन्ना अवेइ, एगे। Kएवमासु १८, एगे पुण एवमाहेसु ता अणुपलिओवमसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जा अन्ना अवेइ, एगे एव-14 मासु १९, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ, अन्ना अवेह, एगे एव-| माईसु २०, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुसागरोषममेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु २१, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुसागरोवमसयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेह, एगे एवमासु २२, एगे। पुण एवमाहंसु ता अणुसागरोवमसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जा, अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु-२३, एगे पुष्प एवमासु ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमासु २४, एगे पुण पवमाहंसु ता अणुउस्सप्पिणिोसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमाइंसु २५' एताश्च XI मापतिपत्तयः सवों अपि मिथ्यात्वरूपा यतोऽत एतासामपोहेन भगवान् स्वमतमुपदर्शयति-वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण IX॥८१॥ बदामः, तमेव प्रकारमाहता तीस मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपे प्रतिवर्ष परिपूर्णतया त्रिंशतं त्रिंशतं मुहचान अनुक्रम [४१] ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [४१] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-] प्राभृत [६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः मूलं [२७] Jan Eaton intam यावत् सूर्यस्य ओजः - प्रकाशोऽवस्थितं भवति, किमुक्कं भवति, सूर्य संवत्सरपर्यन्ते यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चार चरति तदा सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतभोजः परिपूर्णप्रमाणं त्रिंशतं मुहर्त्तान् यावद् भवति, 'तेण परं'ति ततः परं सर्वाम्यन्तरान्मण्डलात्परमित्यर्थः, सूर्यस्याजोऽनवस्थितं भवति, कस्मादनवस्थितं भवतीति चेत्, अत आह— 'छम्मासे' इत्यादि, यस्मात्कारणात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः प्रथमान् सूर्यसंवत्सरसत्कान् षण्मासान् यावत्सूर्यो जम्बूद्वीपमतमोजः - प्रकाशं प्रत्यहोरात्रमेकैकस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशतसङ्ख्य भागसत्कस्य भागस्य हापनेन निर्वेष्टयति- हापयति, तदनन्तरं द्वितीयान् षण्मासान् सूर्यसंवत्सरसःकान् यावत्सूर्यः प्रत्यहोरात्रमेकैकत्रिंशदधिकाष्टादशशत सत्य सत्कभागवर्द्धनेनौज :- प्रकाशमभिवर्द्धयति, एतदेव व्यक्तं व्याचष्टे-'निक्खममाणे' इत्यादि, सुगमम्, नवरं देशमिति - त्रिंशदधिकानामष्टादशशतसङ्ख्यानां भागानां सत्कं प्रत्यहोरात्रमेकैकं भागं, तेनोच्यते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले परिपूर्णतया त्रिंशतं मूहूर्त्तानं यावदवस्थितं सूर्यस्योजस्ततः परमनवस्थितमिति, एतदेव वैतत्येन विभावयिषुः प्रश्नसूत्रमुपन्यस्यन्नाह - 'तत्थे'त्यादि, तत्र- निष्क्रामन् सूर्यो देशं यथोक्तरूपं निर्वेष्टयति प्रविशन्नभिवर्द्धयतीत्येतस्मिन् विषये को हेतुः ? -का उपपत्तिरिति वदेत्, भगवानाह - 'ता अयन्न' मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहर्त्ता दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् सूर्यो नव संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरान F&P On ~ 176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [६], --------------------प्राभूतप्राभत [-1,-------------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल.) प्रत ॥८२॥ तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकेन रात्रिन्दिवेन सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेन प्रथमक्षणादूर्व शनैः शनैः कलामात्रकलामात्रहापननाहोरात्रपर्यन्ते एक भागमोजसः-प्रकाशस्य दिवसक्षेत्रगतस्य निर्वेष्ट्य-हापयित्वा तमेव चैक स्थितिभागं रजनिक्षेत्रस्याभिवर्द्धयित्वा चारं चरति, कियत्प्रमाणं पुनर्भाग दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयित्वा रजनिक्षेत्रस्य प्राभूत वर्द्धयित्वा ?, तत आह-मण्डलमष्टादशभिस्त्रिंशैः-त्रिंशदधिकैः शतैश्छित्त्वा, किमुक्तं भवति -द्वितीयं मण्डलमष्टादश-2 सू२७ [भिस्त्रिंशदधिकैर्भागशतैर्विभज्य तत्सत्कमेक भागमिति, कस्मात्पुनर्मण्डलस्याष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि भागानां परिकल्प्यन्ते ?, उच्यते, इह एकै मण्डलं द्वाभ्यां सूर्याभ्यां एकेनाहोरात्रेण नम्या पूर्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुहर्तप्रमाणः,12 प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणने परमार्थतो द्वावहोरात्रौ भवतः, द्वयोश्चाहोरात्रयोः पष्टिर्मुहुर्ताः, ततो मण्डलं प्रथमतः पथ्या | भागैर्विभज्यते, निष्कामन्तौ च सूर्यों प्रत्यहोरात्रं प्रत्येकं द्वौ द्वौ मुहूर्तेकषष्टिभागी हापयतः प्रविशन्ती चाभिवर्द्धयतः, यौ च द्वौ मुहकपष्टिभागौ तौ समुदितावेकः सार्द्धत्रिंशत्तमो भागः, ततः षष्टिरपि भागाः सार्द्धया त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशताऽधिकानि च भागानां, एवं निष्क्रामन् सूर्यः प्रतिमण्डलं त्रिंशदधिकाष्टादशशतसयानां भागानां सत्कमेकैकं भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयन् रजनिक्षेत्रस्याभिवर्द्धयन् ' तावद्वतव्यः यावत्सर्ववाहो मण्डले व्यशीत्यधिक भागशतं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयिता रजनिक्षेत्रस्य चाभिवर्द्धयिता भवति, व्यशीत्यधिक ॥८२॥ च भागशतमष्टादशशतानां त्रिंशदधिकानां दशमो भागः, ततः 'सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् सर्वघाह्ये मण्डले जम्बूद्वीपचक्रवाल दशभागखुव्यति रजनिक्षेत्रस्याभिवर्द्धते' इति यत्मागभिहितं तदपि समीचीनं जातमिति, एवमभ्यन्तरं प्रविशन् अनुक्रम [४१] FitraalMAPINAMORE ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [६].-..-...------------ प्राभतप्राभूत [-1,----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] प्रतिमण्डलमष्टादशशतभागानां त्रिंशदधिकानां सत्कमेकै भागमभिवर्द्धयन् तावद्वक्तव्यो यावत्सम्यन्तरे मण्डले त्र्यशीत्यधिक भागशतं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्याभिवर्द्धयति रजनिक्षेत्रगतस्य च हापयति, ज्यशीत्यधिकं च भागशत । जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशमो भागस्ततः सर्वबाह्यान्मण्डलात्सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्यैको दशमश्चक्रवालभागोऽभिवर्द्धते रजनिक्षेत्रगतस्य तु सुव्यतीति यत्प्रागवादि तदविरोधीति, सूत्रं तु तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसें'इत्यादिकं सकलमपि प्राभूतपरिसमाप्तिं यावत्सुगम, नवरमेवमत्रोपसंहारः-यत एवं सूर्यचारस्ततः प्रतिसूर्यसंवत्सरं सूर्यसंवत्सरपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्रिंशतं २ मुहूर्तान् यावत्परिपूर्णमवस्थितमोजस्ततः परमनवस्थित, सर्वाभ्यन्तरेऽपि च मण्डले त्रिंशतं मुहूर्तान् यावत्परिपूर्णमवस्थितमोज उच्यते व्यवहारतो निश्चयतः पुनस्तत्रापि प्रथमक्षणा-| दृर्व शनैः शनहींयमानमवसेयं, प्रथमक्षणादृर्व सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमखं चार चरणादिति ।। इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां षष्ठं-प्राभृतं समाप्तं | तदेवमुक्त षष्ठं प्राभृतं, सम्पति सप्तमं आरभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः 'कस्तव मतेन भगवन् ! सूर्य परयती ति, तत भएतद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहशता के ते सूरियं वरंति आहिताति वदेजा?, तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णताओ, तत्थेगे एव माहंसुता मंदरे णं पचते सूरियं वरयति आहितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमासु ता मेरू । अनुक्रम [४१] अत्र षष्ठं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ सप्तमं प्राभृतं आरभ्यते ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [७], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सू२७ सूर्यप्रज्ञ- Iण परते सूरिय चरति आहितेति वदेजा, एवं एएणं अभिलावेणं तवं जाव परतराये णं पड़ते सरियं वर- 10 वरणयति आहितेति वदेज्या, तं एगे एवमासु, वयं पुण एवं बदामो-ता मंदरेवि पवुचति तहेव जाव पचतरा-४ प्राभूत (मल०) एवि पवुच्चति, ताजे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसति ते पोग्गला सूरियं वरयंति, अदिहावि णं पोग्गला. मसूरियं वरयंति, चरमलेसंतरगतावि गं पोग्गला सूरियं वरयति (सूत्रं २८)॥ सत्तमं पाहुएं समत्तं ॥ 2 'ता के ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कस्तव मतेन भगवन् ! सूर्य वरयति ?, वरयन् 'धर ईप्सायां' आप्तुमिच्छन् | स्वप्रकाशकत्वेन स्वीकुर्वन् , आख्यात इति वदेत् , एवमुक्ते भगवान् एतद्विषया यावत्यः परतीथिकानां प्रतिपत्तयः तावती: कथयति-तत्थे'त्यादि, तत्र सूर्य प्रति वरणविषये सविमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां विंशते परतीथिकानां मध्ये एके प्रथमा एवमाहुः-मन्दरः पर्वतः सूर्य वरयति, मन्दरः पर्वतो हि सूर्येण मण्डलपरिसम्या सर्वतः प्रकाश्यते, ततः सूर्य प्रकाशकत्वेन वरयतीत्युच्यते, अत्रोपसंहार:-'एगे एवमाहंसु'१, एके पुनरेवमाहुः, मेरुपर्वतः सूर्य परयन्नाख्यात इति वदेत्, अत्राप्युपसंहारः 'एगे एवमासु' २, 'एव'मित्यादि, एवं-उक्केन प्रकारेण लेश्याप्रतिहतिविष-II यविप्रतिपत्तिवत् तावनेतन्यं यावत्पर्वतराजः पर्वतः सूर्य वरयन् आख्यात इति वदेत्, एके एवमाहुरिति, किमुक्कंठा भवति ?-यथा प्राक् लेश्याप्रतिहतिविषये विंशतिः प्रतिपत्तयो येन क्रमेणोक्तास्तेन क्रमेणात्रापि वक्तव्या, सूत्रपाठोऽपि ॥३॥ प्रथमप्रतिपत्तिगतपाठानुसारेणान्यूनातिरिक्तः स्वयं परिभावनीयो, अन्धगौरवभयात्तु न लिख्यते, तदेवमुक्ताः परतीर्थिकमतिपत्तयः, संप्रति भगवान् स्वमतमुपदर्शयति-वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकार अनुक्रम [४२] 56454645 FitneralMAPINANORN ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [७], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] माह-ता मंदरेऽवी'त्यादि, ता इति पूर्ववत् , योऽसौ पर्वतः सूर्य वरयन् आख्यातः स मन्दरोऽप्युच्यते मेरुरप्युच्यते यावत्पर्वतराजोऽप्युच्यते, एतच्च प्रागेव भाषितं, ततो भिन्नभिन्नविषयतया प्रवृत्ताः प्राक्तन्यः प्रतिपत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपा अवगन्तव्याः, अपि च-न केवलो मेरुरेव सूर्य वरयति, किं त्वन्येऽपि पुद्गलाः, तथा चाहता जे णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् जे णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गला मेरुगता अमेरुगता वा सूर्यलेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गलाः स्वप्रकाशकत्वेन सूर्य वरयन्ति, ईप्सितं हि सूर्येण प्रकाश्यते, ततो लेझ्यापुद्गले सह सम्बम्धात्परंपरया ते-सूर्य स्खं कुर्वन्तीत्यु-1|| च्यते, ये च प्रकाश्यमानपुद्गलस्कन्धान्तर्गता मेरुगता अमेरुगता वा सूर्येण प्रकाशिता अपि सूक्ष्मत्वान्न चक्षुःस्पर्शमुपगच्छन्ति तेऽपि प्रागुक्तयुक्त्या सूर्य घरयन्ति, येऽपि च चरमलेश्यान्तरगताः-स्वचरमलेश्याविशेषस्पर्शिनः पुद्गलास्तेअपि सूर्य वरयन्ति, तेषामपि सूर्येण प्रकाश्यमानत्वात् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां सप्तम-प्राभृतं समाप्त तदेवमुक्त सप्तमं प्राभृतं, सम्प्रति अष्टममारभ्यते-तस्य चायमाधिकारः-कथं त्वया भगवन् ! उदयसंस्थितिराख्याता' इति, तत इत्थंभूतमेव प्रश्नसूत्रमाह‘ता कहं ते उदयसंठिती आहितेति बदेजा, तत्थ खलु इमाओ तिणि पडिवत्तीओ पपणत्ताओ, तत्धेगे| एवमाहंसु, ता जया णं जंबुद्दीचे २ दाहिणहे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तता णं उत्तरहेवि अट्ठारसमु दीप अनुक्रम [४२] अत्र सप्तमं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ अष्टमं प्राभृतं आरभ्यते ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति : प्रत सूर्यप्रह- प्तिवृत्तिः (मल.) उदयस्थिति सूत्राक सू२९ [२९] ॥८४॥ नाप हुत्ते दिवसे भवति, जया णं उत्तरढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं दाहिणद्वेऽवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, त(जदा णं जंबुद्दीवे २ दाहिणड्ढे सत्तरसमुहत्ते दिवसे भवति तया णं उत्तरडेवि सत्तरसमुहत्ते दिवसे भवति, जया णं उत्तरहे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं दाहिणड्डेवि सत्सरसमुहत्ते दिवसे भवति, एवं परिहावेतवं,सोलसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे चउदसमुष्टुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ते दिवसे जाव णं जंबुदीवे२ दाहिणहे वारसमुहुत्ते दिवसे तया णं उत्तरद्धेवि बारसमुहुत्ते दिवसे भवति,जता णं उत्तरद्धे यारसम् ते दिवसे भवति तता णं दाहिणहेवि बारसमुहत्ते दिवसे भवति, तता णं दाहिण बारसमुहुत्ते दिवसे? भवति तता णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पचयरस पुरच्छिमपस्थिमेणं सता पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति सदा| | पपणरसमुहुत्ता राई भवति, अवडिता णं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो!, एगे एवमाहंसु, एगे पुण| | एचमाहंसु जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिणद्धे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति तया णं उत्तरद्धेवि अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरजे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ तता णं दाहिणहृवि अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवह एवं परिहावेतवं, सत्तरसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति, सोलसमुहुत्ताणतरे०, पण्णरसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति, चोदसमुहसाणंतरे,तेरसमुहत्ताणतरे, जयाणं जंबुद्दीवे २दाहिणद्धे वारसमु-1 हुत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धेवि बारसमुष्टुत्ताणतरे दिवसे, जता णं उत्तरद्धे बारसमुहुत्ताणंतरे लादिवसे भवह तया णं दाहिणद्धेवि बारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पचयस्स अनुक्रम [४३]] ॥८४॥ wwjanatarary.om ~181 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] टीप परस्थिमपचस्थिमै णं णो सदा पपणरसमुहत्ते दिवसे भवति णो सदा पण्णरसमुहत्ता राई भवति, अणव-18 हिता णं तत्थ राइंदिया णं समणाउसो, एगे एचमाहंसु २, एगे पुण एवमासु, ता जया णं जंबुद्दीवे २ &दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति तदा णं उत्तरडे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जया णं उत्तरहे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं दाहिणड्डे यारसमुहुत्ता ( राई भवइ, जया णं दाहिणहे अट्ठारसमुहुत्ता) तरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धे वारसमुष्टुत्ता राई भवइ, जता णं उत्तरडे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं दाहिणद्धे वारसमुहुत्ता राई भवति, एवं णेतचं सगलेहि य अगंतरेहि य एकेके दो दो आलावका, सबहिं दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जाव ता जता गं जंबुद्दीवे २ दाहिणढे बारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं उत्सरद्धे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जया णं उत्तरद्धे दुचालसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं दाहिणद्धे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, तता णं जंबुद्दीवे २ मन्दस्स पच्चयस्स पुरस्थिमपचत्थिमेणं णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति वत्थि पण्णरसमुहत्ता राई भवति, वोच्छिण्णाणं तत्थ राई दिया पं० समणाउसो! एगे एवमाहंसु । वयं पुण एवं वदामो, ता जंबुद्दीचे २ सूरिया उदीणपाईणमुग्ग-18 लिच्छति पाईणदाहिणमागच्छंति, पाईणदाहिणमुग्गच्छंति दाहिणपडीणमागच्छंति दाहिणपडीणमुग्गगच्छंति पडीणउदीणमागच्छन्ति पडीणउदीणमुग्गच्छन्ति उदीणपाईणमागच्छन्ति, ता जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिणद्धे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धे दिवसे भवति, जदा णं ज० तदा णं जंबुद्दीवे२ मंदरस्स परपस्स पुरच्छि %ॐॐ अनुक्रम [४३] FhiralMAPIMIREUMORE ~182 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत उदयसं स्थितिः सुत्राक [२९] सूर्यप्रज्ञ-18 मपच्छिमेणं राई भवति, ता जया णं जंबुद्दीवे २मंदरस्स पच्चयस्स पुरस्थिमे णं दिवसे भवति तदाणं पचच्छितिवृत्तिः ८प्राभृते मेणवि दिवस भवति, जया णं पचस्थिमे गं दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे २मंदरस्स पत्यस्स उत्तरदाहिणे णं राई भवति, ता जया णं दाहिणद्धेवि उक्कोसए अट्ठारसमुहुने दिवसे भवति तया णं उत्तरद्धे उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जदा उत्तरद्धे तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पवयस्स पुरस्थिमेणं जहणिया दुवाल सू २९ समुहुत्ता राई भवति,ताजयाणं जबुद्दीवे २मन्दरस्स पञ्चतस्स पुरच्छिमेणं उफोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तताणं पचत्धिमेणषि उकोसए अट्ठारसमुहसे दिवसे भवति, जता णं पचस्थिमे णं उकोसए अट्ठारसमुहुसे सादिवसे भवति तता णं जंबुद्दीचे २ मंदरस्स पवयस्स उत्तरदाहिणे णं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति. एवं एएणं गमेणं णेतर्व, अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगदुवालसमुहत्ता राई भवति, सत्तरसमुहुसे दिबसे तेरसमुहत्ता राई, सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति सातिरेगतेरसमुहत्ता राई भवति, सोलसमुहुत्ते दिवसे भवति चोइसमुहसा राई, भवति, सोलसमुहृत्ताणंतरे दिवसे भवति सातिरेगचोदसमुहत्ता राई |भवति, पण्णरसमुहत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई, पण्णरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगपण्णरसमुहुत्ता |॥ ८५॥ राई भवइ, चाउद्दसमुहुत्ते दिवसे सोल समुहुत्ता राई, चोहसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगसोलसमुहत्ता राई, तेरसमुहुते दिवसे सत्तरसमुहुसा राई, तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगसत्तरसमुहुत्ता राई, जहणए दुवालसमूहुत्ते दिवसे भवति उक्कोसिया अट्ठारसमुहसा राई भवइ, एवं भणित वं, ता जया णं जंबुद्दीवे २ 0525 अनुक्रम [४३] ~183~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5- 6 प्रत सूत्रांक [२९] 5 दाहिण वासाणं पढमे समए पडिचजति तता णं उत्तरडेवि वासाणं पढमे समए पडिचजति, जता णं उत्तरद्धे वासाणं पढमे समए पडिवज्जति तता णं जंबुद्दीवे २ मंदस्स पवयस्स पुरच्छिमपचत्धिमे णं अर्णतरपुरक्खडकालसमयसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, ता जया णं जंबुद्दीवे २मंदरस्स पचयस्स पुरच्छिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तता णं पञ्चत्थिमेणवि वासाणं पढमे समए पडिवजह, जया णं पचत्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवजह तताणं जंबुद्दीवे २ मंदरदाहिणेणं अणंतरपच्छाकयकालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवण्णे भवति, जहा समओ एवं आवलिया आणापाणू थोवे लवे मुटुत्ते अहोरते पक्खे मासे उऊ, एवं दस आलावगा जहा चासाणं एवं हेमंताणं गिम्हाणं च भाणितबा, ता जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिणद्धे | पढमे अयणे पडिवजति तदा णं उत्तरद्धेवि पढमे अयणे पडिवजह, जता णं उत्तरढे पढमे अयणे पडिवजति तदा णं दाहिणद्धेवि पढमे अयणे पडिवज्जइ, जता गं उत्तरद्धे पढमे अयणे पडिवजति तता णं जंबुरीवे २ मंदरस्सं पवयस्स पुरथिमपञ्चस्थिमेणं अणंतर पुरक्खडकालसमयंसि पढमे अयणे पडिववति, ता जया णं जंबु-18|| दीवे २ मन्दस्स पचयस्स पुरथिमे णं पढमे अयणे पडिबजति तता णं पचत्थिमेणवि पढमे अयणे पडिवजह जया णं पञ्चस्थिमेणं पढमे अयणे पडिवजह तदा पां जंबुद्दीचे २मंदरस्स पञ्चयस्स उत्तरदाहिणे णं अणंतरपच्छाकडकालसमयंसि पढमे अयणे पडिवण्णे भवति, जहा अयणे तहा संवच्छरेजुगे वाससते, एवं वाससहस्से वाससयसहस्से पुर्वगे पुधे एवं जाव सीसपहेलिया पलितोवमे सागरोवमे, ता जया णं जंबुद्दीवे २ दाहिणहे दीप अनुक्रम [४३] % 8 ~184~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक मासू२९ + उस्सप्पिणी पडियाज्जति तता णं उत्तरद्धेवि उस्सप्पिणी पडिवजाति, जता णं उत्तरद्धे उस्सप्पिणी पडिवजतिप्रामृते तिवृत्तिः तता गं अंबुदीवे २ मंदरस्स पवयस्स पुरथिमपचत्थिमे गं वस्थि ओसपिणी व अस्थि उस्सप्पिणी अब- उदयसं(मल०) द्विते णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो, एवं उस्सप्पिणीवि । ता जया णं लवणे समुद्दे दाहिणद्धे दिवसे भवति । स्थितिः तता णं लवणसमुद्दे उत्तरद्धे दिवसे भवति, जता णं उत्तरद्धे दिवसे भवति तता लवणसमुरे पुरच्छिम-12 पञ्चधिमे णं राई भवति, जहा जंबुद्दीवे २ तहेव जाव उस्सप्पिणी, तहा धायइसंडे गं दीवे सूरिया ओदीण. तहेव, ता जता णं घायइसंडे दीवे दाहिणद्धे दिवसे भवति तता णं उत्तरद्धेवि दिवसे भवति, जता णं उत्तरद्ध दिवसे भवति तता णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पञ्चताणं पुरथिमपचत्थिमेणं राई भवति, एवं जंबुरीवे जहा तहेव जाव उस्सप्पिणी, कालोए णं जहा लवणे समुद्देतहेव, ता अम्भतरपुक्खरद्धे णं सूरिया उदीणपा-1 लाईणमुग्गच्च तहेव ता जया णं अम्भतरपुक्खरहे णं दाहिणद्धे दिवसे भवति तदा णं उत्तरडेवि दिवसे भवति, जता णं उत्तरद्धेवि दिवसे भवति तता णं अम्भितरपुक्खरद्धे मंदराणं पचताणं पुरथिमपचत्थिमेणं राई भवति सेसं जहा जंबुद्दीवे तहेव जाव उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ॥ (सूत्रं २९)॥ अट्ठमं पाहुढं समसं ॥ जा 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत, कथं-केन प्रकारेण सूर्यस्य उदयसंस्थितिस्ते--खया भगवनाख्याता इति *वदेत् ?, एवमुक्ते भगवानेतद्विषया यावत्यः प्रतिपत्तयः तावतीरुपदर्शयति-तस्थे'त्यादि, तब-तस्थामुदयसंस्थिती विषये | अतिस्रः प्रतिपत्तया-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-तत्र-तेषां त्रयाणां परतीर्थिकानां मध्ये एके-प्रथमाः परती-1 + + अनुक्रम [४३] %25% FhiraIMAPIVARAuNORN ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत BXPERIES थिका एवमाहुः-ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाः अष्टादश | मुद्दों दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि अष्टादशमुहूर्तो दिवसः, तदेवं दक्षिणा नियमनेनोत्तराईनियम ' उक्तः, सम्प्रति उसरा नियमनेन दक्षिणार्द्धनियमनमाह-ता जया णमित्यादि, तत्र यदा उत्तरार्द्ध अष्टादशमुहूतों दिवसो| भवति तदा दक्षिणार्थेऽपि अष्टादशमुदत्तॊ दिवसः, 'ता जया 'मित्यादि, यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणायें सप्तदश-18 मुहूर्तो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति, यदा चोत्तरा सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा दक्षिणा ऽपि सप्तदशमुहूर्तो दिवसः, 'एवं'इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण एकैकमुहर्तहान्या परिहातव्यं, परिहानिमेव क्रमेण दर्शयति-प्रथमत उक्तमकारेण पोडशमुहूर्तो दिवसो वक्तव्यः, तदनन्तरं पश्चदशमुहूर्तस्ततचतुर्दशमुहूर्त स्ततस्त्रयोदशमुहूर्चः, सूत्रपाठोऽपि प्रागुक्कसूत्रानुसारेण स्वयं परिभावनीयः, स चैवम्-'जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरडेवि सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं उत्तरढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ तयारी णं दाहिणहेवि सोलसमुहुत्ते दिवसे भवई'इत्यादि, द्वादशमुहूर्तदिवसप्रतिपादक सूत्रं साक्षादाह-'ता जया 'मित्यादि,४ ता इति-तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा उत्तरार्दुऽपि द्वादशमुहूर्तो दिवसो, यदा उत्तरार्दै द्वादशमुहूत्र्तो दिवसस्तदा दक्षिणाःऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, तदा च अष्टादशमुहू दिदिवसकाले जम्बूद्वीपे दीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि सदा-सर्वकालं पञ्चदशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, सदैव च पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिः, कुत इत्याह-अवस्थितानि-सकलकालमेकप्रमाणानि, णमिति वाक्यालङ्कारे, तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य ***E**********SHUS अनुक्रम [४३] ~186 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) सू२९ ॥८७॥ पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिंदिवानि प्रज्ञप्तानि, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, एतच्च प्रथमानां परतीथिकानां मूलभूत ८प्राभृते स्वशिष्यं प्रत्यामन्त्रणवाक्यं, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' १, एके पुनरेवमाहुः-यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणेऽ उदयसंस्मिन्नद्धेऽष्टादशमुहर्त्तानन्तरः-अष्टादशभ्यो मुहर्तेभ्योऽनन्तरो-मनाकू हीनो हीनतरो वा यावत्सप्तदशभ्यो मुद्दाभ्यः स्थितिः किञ्चित्समधिकप्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽप्यष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति, यदा चोत्तराद्धेऽष्टादशमुहर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा दक्षिणाऽपि अष्टादशमुहानन्तरो दिवसः, तथा यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षि-II णाढ़े सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसः, यदा उत्तरार्दै सप्तदशमुहनिन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणाःऽपि सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसः, 'एवं मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण एकैकमुहर्चहान्या परिहातव्यं, परिहानिप्रकारमेवाह-सोलसे'त्यादि, प्रथमतः पोडशमुहन्नन्तरो दिवसो वक्तव्या, ततः पश्चदशमुहत्तो-18 नन्तरस्तदनन्तरं चतुर्दशमुहत्तानन्तरः, ततः त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरः, एतेषां हि मतेन न कदाचनापि परिपूर्णमुहर्तप्रमाणो दिवसो भवति, ततः सर्वत्रानन्तरशब्दप्रयोगः, द्वादशमहूर्त्तानन्तरसूत्रं तु साक्षाद्दर्शयति,-'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा. द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसस्तदा उत्तरार्दैऽपि द्वादशमुहूत्तानन्तरो दिवसः, यदा चोत्तरा द्वादशमुहानन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणाद्धेऽपि द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसः, तदा चाष्टादशमुहूत्तानन्त-13 रादिदिवसकाले जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि नो-नैव सदा-सर्वकालं पश्चदशमहत्तों दिवसो भवति नापि सदा पञ्चदश मुहूर्ता रात्रिः, कुत इत्याह-'अणवडिया णमित्यादि, अनवस्थितानि-अनियतप्रमाणानि, अनुक्रम [४३] ॥८७॥ ~187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [८], ..................-- प्राभूतप्राभत -1,------------------- मलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] मिति वावयालंकारे रूलु तत्र-मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिंदिवानिप्रज्ञतानि, हे श्रमण हे आयुष्मन् !, अत्रोप सहारमाह-एगे एवमारंसु', एके पुनरेवमाहुः-'ता' इति पूर्ववत् ,जम्बूद्वीपे द्वीपे यदा दक्षिणाद्देऽष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा उत्तरार्दै द्वादशमुहर्ता रात्रिः, यदा चोत्तरार्द्धऽष्टादशमुत्तों दिवसो भवति तदा दक्षिणा. द्वादशमुहूत्ता रात्रिः, तथा यदा दक्षिणा. 'अट्ठारसमुहुत्ताणतरेचि अष्टादशभ्यो मुहूर्तेभ्योऽनन्तरो-मनाक् हीनो हीनतरोयावत्स|प्तदशम्यो माइतेभ्यः किशिदधिक एवंप्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तरार्दै द्वादशमहर्ता रात्रिः यदाच उत्तरार्धे अष्टादश मुहूर्ता रात्रिः तदा दक्षिणार्धे द्वादशमुहत्तों दिवसायदा चोत्तरार्थेऽष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसः तदा दक्षिणा द्वादश-k मुहूर्त्तारात्रिः, एवं मित्यादि, एवम्-उक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत्रयो दशमुहर्तानन्तरदिवसवक्तव्यता एकैकश्चि सप्तदशादिके सत्याविशेपे सकलैर्मुहत्तैरनन्तरैश्च किशिदूनद्वौ द्वावालापको वक्तव्यौ, सर्वत्र च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, तद्यथा-'जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्वे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ तयाणं उत्तरहे दुवालसमुहुत्ताराई भवति, जया णं उत्तरहे सत्तरसमुहुत्ते | दिवसे भवइ तया णं दाहिणहे दुवाल समुहत्ता राई भवति, जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिण सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे हवइ तया4 | णं उत्तरहे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जया णं उत्तरढे सत्तर समुहुत्ताणतरे दिवसे हवा तयाण दाहिणहे दुवालसमुहुत्ता राई | भवई' एवं षोडशमुहूर्तषोडशमुहानम्तरपश्चदशमुहूर्तपश्चदशमहत्तानन्तरचतुर्दशमुहूर्तचतुर्दशमुह नन्तरत्रयोदशमुहूर्त त्रयोदशमुहूर्तानन्तरद्वादशमुहूर्जगता अपि नव आलापका वक्तव्याः, द्वादशमुहूर्त्तानन्तरगतं आलापकं साक्षादाह-'जया टूणमित्यादि, यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा उत्तरार्दै द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, दीप अनुक्रम [४३] ~188~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः प्रत (मल.) उदयस सूत्रांक [२९] 5453 यदा चोत्तरार्द्धं द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति (तदा दक्षिणा द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति) यदा चोत्तराचे द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा दक्षिणा। द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तदा चाष्टादशमुहूर्त्तानन्तरादिदिवसकाले जम्बूद्वीपे बीपे मन्दरस्य भाभृते पर्वतस्य 'पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं'ति पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि नैवास्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहूनों दिवसो भवति, नाप्यस्येतत् स्थितिः यथा-पञ्चदशमुहूर्सा रात्रिर्भवतीति, कुत इत्याह-वोच्छिन्नाणमित्यादि, व्यवच्छिमानि णमिति वाक्यालेकारे खलु तत्र मन्दरस्थ पर्वतस्य पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि रात्रिन्दिवानि प्रज्ञप्तानि, हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, अत्रैवोपसंहारा एगे एवमासु एताश्च तिम्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः, भगवतोऽननुमतत्वात् , अपिच-ये तृतीया वादिनः सदैव रात्रि द्वादशमुहूर्तममाणामिच्छन्ति तेषां प्रत्यक्षविरोधः, प्रत्यक्षत एव हीनाधिकरूपाया राबेरुपलभ्यमानत्वात् । सम्पति स्वमतं | भगवानुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेव-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण बदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता जीवे दीवे इत्यादि, 'ता'इति पूर्ववत् जम्बूदीमे २ सूर्यो यथायोग मण्डलपरिभ्रम्या धमन्ती मेरोरुदकुमाया-उत्तरपूर्वस्यां दिशि उद्गच्छतः, तत्र चोद्गल्य माग्दक्षिणस्या-दक्षिणपूर्वस्यामागच्छतः, ततो भरतादिक्षेत्रापेक्षया प्रारदक्षिणखा दक्षिणपूर्व-15 स्यामुन्नत्य दक्षिणापाच्या दक्षिणापरस्यामागच्छतस्तत्रापि च दक्षिणापरस्यामपरविदेहक्षेत्रापेक्षया उद्गल्यापागुदीच्या-1 अपरोत्तरस्यामागच्छतः, तत्रापि चापरोत्तरस्यामरावतादिक्षेत्रापेक्ष या उद्गस्य उदक्माच्या-उत्तरपूर्वस्यामागच्छता, एर्षIncen तावत्सामान्यतो योरपि सूर्ययोरुदयविधिरुपदर्शितो, विशेषतः पुनरय-यदैका सूर्यः पूर्वदक्षिणत्यामुगच्छति तदा अपरोऽपरोत्तरस्यां दिशि समुद्गच्छति, दक्षिणपूर्वोन्नतश्च सूर्यो भरतादीनि क्षेत्राणि मेरुदक्षिणदिग्पतींनि मण्डवम्या अनुक्रम [४३] FridaIMAPIVAHauwone ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४३] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [२९] प्राभृत [८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः परिभ्रमन् प्रकाशयति, अपरोऽपरोत्तरस्यामुद्गतः सन् तत ऊर्ध्वं मण्डलपरिभ्रम्या परिभ्रमन् ऐरावतादीनि क्षेत्राणि मेरोरुत्तरदिग्भावीनि प्रकाशयति, भारतश्च सूर्यो दक्षिणापरस्यामागतः सन्नपरविदेहक्षेत्रापेक्षया उदयमासादयति, ऐरावतः सूर्यः पुनरुत्तरपूर्वस्थामागतः पूर्वविदेहापेक्षया समुद्गच्छति, ततो दक्षिणा परस्यामुद्गतः सन् तत ऊर्ध्वं मण्डलवम्या परिभ्रमन् अपरविदेहान् प्रकाशयति, उत्तरपूर्वस्यामुङ्गतस्तु तत ऊर्ध्व मण्डलगत्या चरन् पूर्वविदेहानवभासवति, तत एष पूर्वविदेहप्रकाशको भूयो दक्षिणपूर्वस्यां भरतादिक्षेत्रापेक्षयोदयमासादयति, अपरविदेहप्रकाशकस्तवपरीतरस्यामिति । तदेवं जम्बूद्वीपे सूर्ययोरुदयविधिरुक्तः, सम्प्रति क्षेत्रविभागेन दिवसरात्रिविभागमाह - 'ता जया णमित्वादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्थे दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धेऽपि दिवसो भवति, एकस्व सूर्यस्य दक्षिण| दिशि परिभ्रमणसम्भवे अपरस्य सूर्यस्यावश्यमुत्तरदिशि परिभ्रमणसंभवात् यदा चोत्तरार्धेऽपि दिवसस्तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमपचत्थिमे णं'ति पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि रात्रिर्भवति, तदानीमेकस्यापि सूर्यस्य तत्राभावात् 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि दिवसो भवति तदा पश्चिमायामपि दिशि दिवसो भवति, एकस्य सूर्यस्य पूर्वदिग्भावसम्भवे अपरस्य सूर्यस्यावश्यमपरस्यां दिशि भावात् एतच्च प्रागेव भावितं, यदा च पश्चिमायामपि दिशि दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणे णं' ति उत्तरतो दक्षिणतश्च रात्रिर्भवति, 'ता जया ण'मित्यादि तत्र यदा णमिति प्राग्वत्, जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा उत्क कः- उत्कृष्टोऽष्टादश मुहूर्त्त प्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धेऽपि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्त्त प्रमाणो दिवसः, उत्कृष्टो Jain Estration Intl F&P O ~ 190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) ॥८९॥ सूत्रांक * 4-% द्यष्टादशमुहर्सप्रमाणो दिवसः सर्वाभ्यन्तरमण्डल चारित्वे, तत्र च यदैकः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारी भवति तदा अप-II प्राभृते ४ारोऽप्यवश्यं तत्समया श्रेण्या सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारी भवतीति दक्षिणार्दै उत्कृष्टदिवससम्भवे उत्तराडेऽप्युत्कृष्टदिवस- उदयसं. सम्भवः, यदा उत्तरार्दै उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिम-3 स्थितिः पञ्चत्थिमे गंति पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि जघन्या द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरतोः सूर्ययोः सू २९ सर्वत्रापि रात्रेादशमहर्सप्रमाणाया एव भावात , तथा 'जया णमित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि उत्कर्षका उत्कृष्टोऽष्टादशमुह) दिवसो भवति तदा मन्दरपर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽष्टादशमहत्तों दिवसः, कारणं दक्षिणोत्तरार्द्धगतं प्रागुक्तमनुसरणीयं, यदा च मन्दरपर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽष्टा-1 दशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणे णं'ति उत्तरतो दक्षिणतश्च जघन्या द्वादशमुहर्ता रात्रिः, अत्रापि कारणं पूर्वपश्चिमार्द्धरात्रिगतं प्रागुक्तमनुसरणीय, एव'मित्यादि, एवम्-उकेन प्रकारेण पतेनानन्तरोदितेन गमेन-आलापकगमेन वक्ष्यमाणमपि नेतव्यं, किंत वक्ष्यमाणमित्याह-'अट्ठारसमुहसाणंतर'इ-12 त्यादि, यदा मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणोत्तरार्द्धयोः पूर्वपश्चिमयो; अष्टादशमुह नन्तरः-सप्तदशभ्यो मुहूर्तेभ्य ऊर्वशी किञ्चिन्यूनाष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः तदा पूर्वपश्चिमयोदक्षिणोत्तरार्द्धयोर्वा सातिरेकद्वादशमुहर्चा रात्रिर्भवतीति, एवं शेषाण्यपि पदानि भावनीयानि, सूत्रपाठोऽपि प्रागुक्तालापकगमानुसारेण स्वयं परिभावनीयः, स चैवम्-'ता जया ॥८९ जंबुद्दीवे दीवे दाहिणहे अद्वारसमुहुत्ताणतरे दिवसे हवइ तयाणं उत्तरहृवि अहारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरहे। अनुक्रम [४३] 9431%-25% ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४३] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [२९] प्राभृत [८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः अट्ठारसमुहन्ताणंतरे दिवसे हवइ तथा णं जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पवयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं सातिरेगदुवालसमुहुत्ता राई भवइ, ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पद्ययस्स पुरच्छिमेणं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे हवइ तथा णं पञ्चस्थिमे णं अहारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे हवइ, जया णं पञ्चत्थिमेणवि अहारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स उत्तरदाहिणे णं साइरेगदुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं सप्तदशमुहुर्त्तदिवसादिप्रतिपादका अपि सूत्रालापका भावनीयाः, 'तां जया ण'मित्यादि तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्थे वर्षाणां वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते भवति तदा उत्तरार्द्धेऽपि वर्षाणां प्रथमः समयो भवति, समकालनैयत्येन दक्षिणार्द्धं उत्तरार्द्ध च सूर्ययोश्चारभावात् यदा चोत्तरार्द्धे वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमपच्चत्थिमेणं' पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि 'अणंतरपुरक्खडे'त्ति अनन्तरं - अव्यवधानेन पुरष्कृतः - अग्रेकृतो यः सोऽनन्तरपुरस्कृतोऽनन्तरं द्वितीय इत्यर्थः तस्मिन् 'कालसमयंसित्ति समयः सङ्केतादिरपि भवति ततस्तदृष्यवच्छेदार्थं कालग्रहणं, कालश्वासौ समयश्च कालसमयः, तत्र वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते भवति, किमुक्तं भवति १ यस्मिन् समये दक्षिणार्द्धात्तरार्द्धयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तस्मादूर्ध्वमनन्तरे द्वितीये समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा 'ण'मिति प्राग्वत् जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति, सर्वकालनैयत्येन पूर्वपश्चिमयोरपि सूर्ययोश्चार चरणात्, यदा च पश्चिमायामपि दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा जम्बूद्वीपे Jan Eiration Intimat F&P ~ 192~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) प्रत द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणे 'ति उत्तरतो दक्षिणतश्च अनन्तर:-अव्यवधानेन पश्चात्कृतोऽनन्तरपश्चात्कृतः४८प्राभृते तस्मिन् कालसमये वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपन्नो भवति, भूत इत्यर्थः, इह यस्मिन् समये दक्षिणाः उत्तरार्द्धं च उदयसवर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदनन्तरे अग्रेतने द्वितीये समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाणां प्रथमः समयो भवतीति, एता- स्थिति ४ वन्मात्रोक्तावपि यस्मिन् समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति ततोऽनन्तरे पश्चाद्भाविनि समये दक्षिणो-I सू२९ त्तरार्द्धयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवतीति गम्यते तत्किमर्थमस्योपादान !, उच्यते, इह क्रमोत्क्रमाभ्यामभिहितोऽर्थः अपश्चितज्ञानां शिष्याणामतिसुनिश्चितो भवति ततस्तेषामनुग्रहाय तदुक्तमित्यदोषः, 'जहा समय इत्यादि, यथा समय उक्त तथा आवलिका प्राणापानी स्तोको लवो मुहूत्तोंऽहोरात्रः पक्षो मास ऋतुश्च-प्रावृडादिरूपी वकव्या, एवं च समय गतमालापकमादिं कृत्वा दश आलापका एते भवन्ति, ते च समयगतालापकरीत्या स्वयं परिभावनीयाः, तयथा-'जया शाणं जंबुद्दीवे दीवे वासाणं पढमा आवलिया पडिवजइ तया णं उत्तरद्धेवि वासाणं पढमा आवलिया पडिवजह, जया णं उत्तरहे वासाणं पढमा आवलिया पडिवजइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पबयस्स पुरच्छिमपचस्थिमे णं अणंतरपुरक्खडकालसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, ता जया णं जंबुद्दीवे मंदरस्त पबयस्स पुरछिमे गं वासाणं| पढमा आवलिया पडिवज्जइ [तया णं पञ्चस्थिमेणं पढमा आवलिया पडिवजइ२] तया णं जंबुदीवे दीवे मंदरस पवयस्स उत्तरदाहिणे णं अणंतरपच्छाकटकालसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवन्ना भवई' इदं च प्रागुक्तव्याख्यानुसारेण व्याख्येयं, नवरं 'आवलिया पडिवजईत्ति आवलिका परिपूर्णा भवति, शेष तथैव, एवं प्राणापानादिका अप्यालापका अनुक्रम [४३] ९०॥ 54%*5* ~193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [४३] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः ) प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [२९] प्राभृत [८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः Eatont भणनीया: 'एए' इत्यादि, यथा वर्षाणां वर्षाकालस्य एते अनन्तरोदिताः समयादिगता अत्र आलापका भणिताः 'एवं हेमंताणं'ति शीतकालस्य, 'गिम्हाणं'ति ग्रीष्मकालस्योष्णकालस्येत्यर्थः, प्रत्येकं समयादिगता दश दश आलापका भणितव्याः, अयनगतं खालापकं साक्षात्पठति-'ता जया ण'मित्यादि सुगमं, 'जहा अपणे' इत्यादि, यथा अयने आलापको भणितः तथा संवत्सरे युगे - वक्ष्यमाणस्वरूपे चन्द्रादिसंवत्सरपञ्चकात्मके वर्षशते वर्षसहस्रे वर्षशतसहस्रे पूर्वाङ्गे पूर्वे एवं 'जाव सीसपहेलिय'त्ति, एवं यावत्करणादमून्यपान्तराले पदानि द्रष्टव्यानि, 'तुडियंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अवचे हूहूयंगे हूये उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पडमे नलिणंगे नलिणे अस्थनिउरंगे अत्थनिउरे अडयंगे अउए नउ अंगे नए चूलियंगे चूलिए सीसपहेलियंगे' इति, अत्र चतुरशीतिर्वर्पलक्षाण्येकं पूर्वाङ्गं, चतुरशीतिः पूर्वाङ्गलक्षाणि एकं पूर्वमेवं पूर्वः पूर्वो राशिचतुरशीतिलक्षैर्गुणित उत्तरोत्तरो राशिर्भवति, यावच्चतुरशीतिशीर्षप्रहेलिकाङ्गलक्षाणि एका शीर्षप्रहेलिका, एतावान् राशिर्गणितविषयोऽत ऊर्ध्वं गणनातीतः, स च पल्योपमादि, 'पतिओवमे सागरोवमे' अनयोः स्वरूपं सङ्ग्रहणीटीकायामुक्त, आलापकास्तु स्वयं वक्तव्याः, अवसर्पिण्युत्सप्पिणीविषयमालापकं साक्षादाह-'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणार्द्धेऽवसर्पिणी प्रतिपद्यते परिपूर्णा भवति तदा उत्तरार्द्धेऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते, यदा उत्तरार्द्ध अवसर्पिणी प्रतिपद्यते परिपूर्णा भवति, तदा दक्षिणार्धेऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते प्रतिपूर्णा भवति, यदा उत्तरार्द्धेऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि नैवारत्यवसर्पिणी नाप्युत्सर्पिणी, कुत इत्याह-अवस्थितो णमिति खलु तत्र पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि कालः प्रज्ञप्तो मया F&P Use Onl ~ 194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ८प्राभृते प्रत लवणादी सुत्राक समयादि सू २९ [२९]] सूर्यप्रज्ञ-18शेषैश्च तीर्थकरैः हे श्रमणायुष्मन् ! ततस्तत्रावसर्पिण्युत्सर्पिण्यभावः, 'एवमुस्सप्पिणीवित्ति, एवमुक्तेन प्रकारेणोस्स-४ प्तिवृत्तिः पिण्यपि-उत्सर्पिण्यालापकोऽपि वक्तव्यः, स चैवम्-'ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जइ तया ४ (मल०) ण उत्तरद्धेवि पढमा उस्सप्पिणी पडिवजाइ, जया णं उत्तरद्धेवि पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे - ॥९ ॥ मंदरस्स पवयस्स पुरथिमपञ्चस्थिमेणं नेव अस्थि अवसप्पिणी णेवत्थि उस्सप्पिणी अवहिए णं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो। तदेवं जंबद्धीपवक्तव्यतोक्का, सम्पति लवणसमुद्रवक्तव्यतामाह-लवणे णं समुद्दे'इत्यादि, तहेव'त्ति यथा जम्बूद्वीपे उद्गम-15 विषये आलापक उक्का तथा लवणसमुद्रेऽपि वक्तव्यः, स चैवम्-'लवणे णं सूरिया उईणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिण-1 मागच्छंति, पाईणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपाईणमागच्छंति, दाहिणपाईणमुग्गच्छ पाईणउईणमागच्छति, पाईणउईण-1 मुग्गच्छ उईणपाईणमागच्छति' इदं च सूत्र जम्बूद्वीपगतोद्गमसूत्रवत् स्वयं परिभावनीयं, नवरमत्र सूर्याश्चत्वारो वेदि- तव्याः, 'चत्तारि य सागरे लवणे' इति वचनात्, ते च जम्बूद्वीपगतसूर्याभ्यां सह समश्रेण्या प्रतिबद्धाः, तद्यथा-बो* सूयौँ एकस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य श्रेण्या प्रतिबद्धौ द्वौ द्वितीयस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य, तत्र यदैकः सूर्यो जम्यू लाद्वीपे दक्षिणपूर्वस्थामुद्गच्छति तदा तत्समश्रेण्या प्रतिबद्धौ द्वौ सूयौं लवणसमुद्रे तस्यामेव दक्षिणपूर्वस्यामुदयमागच्छत स्तदैव जम्बूद्वीपगतेन सूर्येण सह तत्समश्रेण्या प्रतिबद्धौ द्वावपरौ लवणसमुद्रे अपरोत्तरस्यां दिशि उदयमासादयतः, तत उदयविधिरपि द्वयोर्द्वयोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपसूर्ययोरिव भावनीयः, तेन दिवसरात्रिविभागोऽपि क्षेत्रविभागेन तथैव द्रष्टव्यः, |तथा चाहता जया णमित्यादि सुगम, नवरं 'जहा जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि, यथा जम्बूद्वीपे द्वीपे 'पुरच्छिमपच अनुक्रम [४३] FitraalMAPINAMORE ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] CASSAGES5-540 टीप छिमेणं राई भवई'इत्यादिक सूत्रमुक्तं यावदुत्सपिण्यवसर्पिण्यालापकस्तथा लवणसमुद्रेऽप्यन्यूनातिरिक्त समस्तं भणिहै तव्यं, नवरं जम्बूद्वीपे द्वीपे इत्यस्य स्थाने लवणसमुद्रे इति वक्तव्यमिति शेषः । तदेवं लवणसमुद्गताऽपि वक्तव्यतोक्का, सम्प्रति धातकीखण्डविषयां तामाह-'धायइसंडे णं सूरिया'इत्यादि, अत्राप्युद्गमविधिः प्राग्वद् भावनीयः, नवरमत्र सूर्या द्वादश, 'धायइसंडे दीवे पारस चंदा य सूरा य' इति वचनात् , ततः षट् सूर्या दक्षिणदिक्चारिभिर्जम्बूद्वीपगत-४ ट्रालवणसमुद्रगतैः सूर्यैः सह समश्रेण्या प्रतिबद्धाः षट् उत्तरदिक्चारिभिः, सम्प्रत्यत्रापि क्षेत्रविभागेन दिवसरात्रिविभागमाह-IM WI'ता जया णमित्यादि, यदा धातकीखण्डे द्वीपे दक्षिणाढे दिवसो भवति तदा उत्तरार्जेऽपि दिवसो भवति, यदा उत्तरार्द्धऽपि दिवसस्तदा धातकीखण्डे मन्दरयोः पर्वतयोः पूवार्द्धपश्चिमार्द्धगतयोः प्रत्येकं पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिभवति, एव'मित्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण यथा जम्बूद्वीपे उक्त तथैवात्रापि वक्तव्यं, तच्च तावद्यावदुत्सर्पिण्यालापकः । 'कालोए'इत्यादि, कालोदे समुद्रे यथा लवणेऽभिहितं तथैवाभिधातव्यं, नवरं कालोदे सूर्या द्विचत्वारिंशत् , तत्रैकविंशतिर्दक्षिणदिकचारिभिर्जम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीखण्डगतैः सह समश्रेण्या सम्बद्धा एकविंशतिरुत्तरदिक्चारिभिः, तत | उदयविधिदिवसरात्रिविभागश्च क्षेत्रविभागेन तथैव वेदितव्यः। साम्प्रतमभ्यन्तरपुष्करवरार्द्धवक्तव्यतामाह-ता अम्भि|तरपुक्खरद्धे'इत्यादि, इदमपि सूत्रं सुगमं, 'तहेव'त्ति तथैव जम्बूद्वीप इच वक्तव्यं, नवरमत्र सूर्या द्वासप्ततिः, तत्र पत्रिंशद्दक्षिणदिक् चारिभिर्जम्बूद्वीपादिगतैः सह समश्रेण्या प्रतिवद्धाः पत्रिंशदुत्तरदिकचारिभिः, तत उदयविधिर्दिवस अनुक्रम [४३] FhiralMAPIMIREUMORE ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभूतप्राभत [-1, -------------------- मलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मज्ञ- 1 प्रत 45455 रात्रिविभागश्च क्षेत्रविभागेन प्राग्वदवसेयः, तथा चाहता जया ण'मित्यादि, सुगमम् ॥'. ९प्राभृते इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां अष्टम-प्राभूतं समाप्तं लेश्या सू३० तदेवमुक्तमष्टमं प्राभृतं, सम्प्रति नवममारभ्यते-तस्य चायमाधिकारः-कतिकाष्ठा पौरुषीच्छायेति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कतिकट्ठ ते सूरिए पोरिसीच्छायं णिवत्तेति आहितेति वदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ तिषिण पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसति ते गं पोग्गला संतप्पंति, ते णं| पोग्गला संतप्पमाणा तदर्णतराई बायराइंपोग्गलाई संतातीति एस णं से समिते तावक्खेत्ते एगे एवमा-18 हंसु, एगे पुण एवमाहंसु-ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसति तेणं पोग्गला नो संतप्पंति, ते है पोग्गला असंतप्पमाणा तदणंतराई वाहिराई पोग्गलाई णो संतावतीति एस णं से समिते तावखेसे पगे। एवमाहंसु २, एगे पुण पवमासु, ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पोग्गला अत्थेगतिया णो संतप्पंति अत्थेगतिया संतप्पंति, तत्थ अस्थगइआ संतप्पमाणा तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाई अत्थेग का॥९२॥ तियाई संतावेति अत्थेगतियाई णो संताति, एस णं से समिते तावखेसे, एगे एवमाहंसु ३ । वयं पुण एवं वदामो, ता जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेसाओ बहिसा (उच्छूडा) अभि अनुक्रम [४३] अत्र अष्टमं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ नवमं प्राभृतं आरभ्यते ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [९], --------------------प्राभृतप्राभूत -1, ------------------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] उॐॐॐॐ5*** पणिसट्टाओ पताति, एतासि णं लेसाणं अंतरेसु अण्णतरीओ छिपणलेसाओ संमुच्छति, तते गं ताओ [छिपणलेस्साओ संमुच्छियाओ समाणीओ तदर्णतराई बाहिराई पोग्गलाई संतावेंतीति एस णं से समिते शतावक्खेत्ते ॥ (सूत्रं ३०)॥ 'ता का कहूं ते'इत्यादि पूर्ववत् 'कति' किंप्रमाणा काष्ठा-प्रकों यस्याः सा कतिकाष्ठा तां कतिकाष्ठां-किंप्रमाणां । 'ते' तव मते सूर्यः 'पौरुषी' पुरुष भवा पौरुषी तां पौरुषी छायां निवर्तयति, निवर्तयन्नाख्यात इति वदेत् ?, किंप्रमाणां पौरुषीछायामुत्पादयन् सूर्यों भगवान् त्वया आख्यात इति वदेदिति सोपार्थः, एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः। प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्थेत्यादि, तत्र-तस्याः पौरुष्याः छायायाः प्रमाणचिन्तायां प्रथमतस्तावदिमास्तापक्षेत्रस्वरूपविषयाः खलु तिम्रः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्र' तेषां त्रयाणां परतीथिकानां मध्ये एके-प्रथमा एवमाहुः ताजे णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, ये णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गलाः सूर्यसालेश्यासंस्पर्शतः सन्तप्यन्ते-सन्तापमनुभवन्ति, सन्तप्यन्त इति कर्मकत्तेरि प्रयोगः, ते च पुद्गलाः सन्तप्यमानाः तद-का नन्तरान्-तेषां सन्तप्यमानानां पुद्गलानामव्यवधानेन ये स्थिताः पुद्गलास्ते तदनन्तरास्तान् बाह्यान् पुद्गलान् , सूत्रे च नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् , सन्तापयन्ति, इतिशब्दः प्रस्तुतवक्तव्यतापरिसमाप्तिसूचकः, 'एस 'मित्यादि एतत्-एवंस्वरूप 'से' तस्य सूर्यस्य समित-उपपन्नं तापक्षेत्रं, अत्रोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' १, एके पुनरेवमाहुः, 'ता इति पूर्ववत्, ये णमिति प्राग्वत् पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गला न सन्तप्यन्ते-न सन्तापमनुभव मित, % अनुक्रम [४४] % FitneralMAPINANORN ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [४४] ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [३०] प्राभृत [९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ तिवृत्तिः ( मल० ) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) -- ॥ ९३ ॥ | यश्च पीठफलकादीनां सूर्यलेदयासंस्पृष्टानां सन्ताप उपलभ्यते स तदाश्रितानां सूर्यलेश्यापुद्गलानामेव स्वरूपेण, न पीठफलकादिगतानां पुद्गलानामिति न प्रत्यक्षविरोधः, ते णमिति प्राग्वत्, पुद्गला असन्ताप्यमानास्तदनन्तरान् बाह्यान् * पुद्गलान्न सन्तापयन्ति-नोष्णीकुर्वन्ति, स्वतस्तेषामसन्ततत्वात् इतिशब्दः प्राग्वत् व्यक्तः, 'एस ण'मित्यादि, एतत्* एवंस्वरूपं 'से' तस्य सूर्यस्य तापक्षेत्रं समितं-उपपन्नमिति, अत्र उपसंहारमाह- 'एगे एवमाहंसु' २, एके पुनरेवमाहुः, 'ता' इति पूर्ववत्, णमिति प्राग्वत् ये पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गला अस्तीति प्राकृतत्वानिपातत्वाद्वा सन्ति एककाः केचन पुद्गला ये सूर्यलेश्यासंस्पर्शतः सन्तप्यन्ते - सन्तापमनुभवन्ति, तथा सन्त्येककाः केचन पुद्गला ये न सन्तप्यन्ते तत्र ये सन्त्येककाः सन्तप्यमानास्ते तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् अस्त्येतत् यत् एककान्- कांश्चित्सन्तापयन्ति, अस्त्येतद्यदेककान् कांश्चिन सन्तापयन्ति, इतिशब्दः पूर्ववत्, 'एस ण'मित्यादि, एतत् एवंस्वरूपं 'से' तस्व | सूर्यस्य समितं-उपपन्नं तापक्षेत्रं, अत्रोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु' ३ । एतास्तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपास्तथा च एता व्युदस्य भगवान् भिन्नं स्वमतमाह-- 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता जईए' (जाओ इमाओ) इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, या इमाः प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाश्चन्द्रसूर्याणां देवानां सत्केभ्यो विमानेभ्यो | लेश्या उच्छूढाः, एतदेव व्याचष्टे - अभिनिःसृतास्ताः प्रतापयन्ति-वाह्यं यथोचितमाकाशवर्त्ति प्रकाश्यं प्रकाशयन्ति, एतासां चेत्थं विमानेभ्यो निःसृतानां लेश्यानामन्तरेषु-अपान्तरालेष्वन्यतराश्छिन्नदेश्याः सम्मूर्च्छन्ति, ततस्ता मूलच्छिन्ना लेश्याः | सम्मूर्च्छिताः सत्यस्तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् संतापयन्ति, इतिशब्दः पूर्ववत्, 'एस ण'मित्यादि, एतत् एवंस्वरूप, Eration intimat F&P Uw On ~ 199~ ९ प्राभृते लेश्या सु ३० ॥ ९३ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [९], --------------------प्राभृतप्राभूत -1, ------------------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] से तस्य सूर्यस्य समितं-उपपन्नं तापक्षेत्रमिति । तदेवं तापक्षेत्रस्य स्वरूपसम्भव उक्तः, सम्प्रति किंप्रमाणां पोरुषीछायां निवर्तयतीत्येतत् बोडुकामः पृच्छन्नाह| ता कतिकडे ते सूरिए पोरिसीच्छायं णिवत्तेति आहितेति वदेज्जा, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्धेगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेइ आहितेति वदेज्जा, |एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुत्तमेव सरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेति आहितेति वदेजा, एतेणं अभिलावेणं तवं, ता जाओ चेव ओयसंठितीए पणुवीसं पडिवत्तीओ ताओ चेव णेतबाओ, जाव अणुउस्सप्पिणीमेव सूरिए पोरिसीए च्छायं णिवत्तेति आहिताति वदेजा, एगे एवमाहंसु । वयं पुण एवं वदामो-ता सूरियस्स णं उचत्तं च लेसंच पडुच छाउसे उच्चत्तं च छायंच पडुच लेसुद्देसे लेसं च छायं च पड्डुच्च उच्चत्तोदेसे, तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एचमाहंसु-ता अस्थि णं से दिवसेसि पण दिवसंसि सूरिए चउपोरिसीच्छायं निवत्तेइ, अत्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसीच्छायं ४ |णिवत्तेति एगे एवमाहंसु१,एगे पुणएवमाहंसु ता अस्थि णं से दिवसे जंसिणं दिवसंसि सरिए दुपोरिसीच्छायं |णिवत्तेति अस्थि णं से दिवसे जंसि दिवसंसि सूरिए नो किंचि पोरिसिच्छायं णिवत्तेति २, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि मृरिए चउपोरिसियं छायं णिवत्तेति, अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दोपोरिसियं छायं निवत्तेइ ते एवमाहंसु, ता जता णं सरिए सबभंतरं मंडलं 9% 84-6-964-X अनुक्रम [४४] ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [९], --------------------प्राभृतप्राभूत -1, ------------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- सिवृत्तिः (मल.) ॥९४॥ उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसिए अट्ठारसमुहुसे दिवसे भवति, जहणिया दुवा- प्राभूते लसमुहत्ता राई भवति, तेसिं च णं दिवसंसि सरिए चउपोरिसीयं छायं निबत्तेति, ता उग्गमणमुहुसंसि य४| पौरुषीछाअस्थमणमुहसंसि य लेसं अभिवढेमाणे नो चेव णं णिबुढेमाणे, ता जता णं सूरिए सबबाहिरं मंडलं उच-1 | या सू ३१ संकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहणए दुवाल-2 समुहुत्ते दिवसे भवति, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं निवत्तेइ, तं०-उग्गमणमुहुरासिम अस्थमणमुहत्तंसि य, लेसं अभिवढेमाणे नो चेव णं निवुहेमाणे १, तत्थ णं जे ते एवमासु ता अस्थि थे से दिवसे जसिणं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेइ अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए के सा, |णो किंचि पोरिसियं छायं णिवत्तेति ते एवमाहंसु, ता जता णं सरिए सबभंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं|3|| चरति तता णं उत्तमकद्वपत्ते उकोसिए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति जहणिया दुधालसमुहुत्ता राई भवति, तंसि च र्ण दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, तं०-उग्गमणमुहुरासि अत्थमणमुहुरासि यलेसं| अभिवढमाणे णो चेव पंणिब्बुहमाणे, ता जया णं मृरिए सबबाहिरं मंडलं उचसंकमिसा चारं चरति तता। र्ण उत्तमकट्ठपत्ता उफोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहले दिवसे भवति तंतिला शाच र्ण विषसंसि सूरिए णो किंचि पोरिसीए छायं णिवत्तेति, तंब-उग्गमणमुटुत्तंसि य अस्थमणमुहुरासि य Xनो येव णं लेसं अभिवहेमाणे वा निबुढेमाणे वा, ता कइकट्ठ ते सूरिए पोरिसीच्छार्य निवसह आहियत्तिक बोचा अनुक्रम SECSROS [४५] ~201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [९], ..................-- प्राभूतप्राभत [-1, -------------------- मलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] जा!, तत्थ इमाओ छण्णउह पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु, अस्थि णं ते से देसे जंसि | देसंसि सरिए एगपोरिसीयं छायं निवत्तेइ एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु, ता अस्थि णं से देसे जसि| देसंसि सरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, एवं एतेणं अभिलावणं णेतर्व, जाव छण्णउतिं पोरिसियं छायं| णिवत्तेति, तत्थ जे ते एचमाहंसु ता अत्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए एगपोरिसियं छायं णिवत्तेति ते एवमाहंसु ता सूरियस्स णं सबहेहिमातो सूरप्पडिहितो यहित्ता अभिणिसहाहि लेसाहिं ताडिवPमाणीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावतियं सरिए उई उच्चतेणं एव-13 तियाए एगाए अदाए एगणं छायाणुमाणप्पमाणेणं उमाए तस्थ से सरिए एगपोरिसीयं छायं णिवसेति, तस्थ जे ते एषमासु, ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं णिवत्तेति, ते एवमा सु-ता सूरियस्स णं सबहेडिमातो सूरियपडिधीतो बहित्ता अभिणिसहिताहिं लेसाहिं ताडिजमाणीहिं| इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातोभूमिभागातो जावतियं सूरिए उहूं उच्चत्तेणं एवतियाहिं दोहिं अद्धाहिं दोहिं छायाणुमाणप्पमाणेहिं उमाए एत्थ णं से सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, एवं याचं जाव तत्थ जे ते एवमाहंसु ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छण्णउतिं पोरिसियं छायं णिवत्तेति ते एक्मासासु-ता सूरियस्स णं सबहिडिमातो सूरप्पडिधीओ बहित्ता अभिणिसवाहिं लेसाहिं ताडिजमाणीहिं इसीसे रयणप्पभाए पुढबीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो जावतियं सूरिए उहूं उच्चत्तेणं एवतियाहिं अनुक्रम [४५] ~202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [९], --.................-- प्राभूतप्राभत [-1,-------------------- मलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यमज्ञतिवत्तिः (मल०) प्रत सुत्रांक [३१] RS छण्णवतीए छायाणुमाणुप्पमाणेहिं उमाए एस्थ णं से सूरिए छण्णउति पोरिसियं छायं णिवत्तेति एगे एव-11९प्राभृते मासु, वयं पुण एवं वदामो, सातिरेगअउणट्ठिपोरिसीणं मृरिए पोरिसीछायं णिवत्तेति, अवद्धपोरिसी पौरुषीछान लाछाया दिवसस्स किंगते वा सेसे चा?, ता तिभागे गते वा सेसे वा, ता पोरिसी णं छाया दिवसस्स किंवा गते वा सेसे वा?, ता चउम्भागे गते वा सेसे वा, ता दिवद्धपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे | वा?, ता पंचमभागे गते वा सेसे वा, एवं अद्धपोरिसिं छोई पुच्छा दिवसस्स भागं छोढुं वाकरणं जाव ता अद्धअउणासहिपोरिसीछायादिवसस्स किंगते वा सेसे वा १. ता एगणवीससतभागे गते वा सेसे वा. ता[] अषणसडिपोरिसी गं छाया दिवसस्स किंगते वा सेसे वा बावीससहस्सभागे गते वा सेसे वा, ता साति-10 रेगअउणसडिपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा?, ता णस्थि किंचि गते वा सेसे वा, तत्थ खल इमा पणचीसनिविट्ठा या पं०, तं०-खंभछाया रज्जुछाया पागारछाया पासायछाया उबग्गछाया उचत्तछाया अणुलोमछाया आरुभिता समा पडिहता खीलच्छाया पक्वच्छाया पुरतोउदया पुरिमकंठभाउवगता पच्छि-15 मकंठभाउवगता छायाणुवादिणी किटाणुवादिणाछाया छायछाया (गोलछाया तत्थ णं गोलच्छाया अट्ठ ॥९५७ विहा)पं०२०-गोलच्छाया अवहगोलच्छाया गाढलगोलछाया अबद्धगाढलगोलछाया गोलावलिच्छाया अवहुगोलावलिच्छाया गोलपुंजछाया अवद्धगोलपुंजछाया ॥ (सूत्रं ३१)॥णवमं पाहुडं समत्तं ॥ अनुक्रम [४५] ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [९], -------------------- प्राभृतप्राभूत -], -------------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] 'ता कइकट्ठ ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कतिकाष्ठां-किंप्रमाणां भगवन् ! त्वया सूर्यः पौरुषीच्छायां निवर्तयन्नाख्यात इति वदेत् , एवमुके भगवान् प्रथमतो लेश्यास्वरूपविषये यावन्त्यः परतीक्षिकानां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्व खलु'इत्यादि, तत्र-तस्यां पौरुष्यां छायायां विषये लेश्यामधिकृत्य खल्विमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-तत्र-तेषां पञ्चविंशतेः परतीर्थिकानां मध्ये एके एवमाहुः-ता इति पूर्ववत् , अनुसमयमेव-प्रतिक्षणमेव सूर्यः पौरुदिपीछायां, इह लेश्यावशतः पौरुषीछाया भवतीति ततः कारणे कार्योपचारात् पौरुषीछायेति लेश्या द्रष्टव्या. तां निर्वतयति निवर्तयन्नाख्यात इति वदेत्, किमुक्तं भवति -प्रतिक्षणमन्यामन्यां सूर्यो लेश्या निवर्तयन् आख्यात इति वदेत्, अत्रोपसंहारः-'एगे एवमाहंसु, 'एवमित्यादि, एवं-उत्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन सूर्यपाठगमेन या एव ओजःसंस्थितौ पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः उक्ताः ता एव क्रमेणात्रापि नेतन्याः, तावद्यावच्चरमप्रतिपत्तिप्रतिपादकमिदं सूत्र-एगे पुण एवमाईसु-ता अणु-ओसप्पिणिउस्सप्पिणिमेव सूरिए इत्यादि, मध्यमास्त्वालापका एवं ज्ञातव्या:एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुर्तमेव सूरिए पोरिसिच्छायं निवत्तेइ आहियत्ति वएजा 'एगे एवमाहेसु' इत्यादि, तदेवं लेश्याविषयाः परप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति तद्विषय स्वमतमाह-वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वदामः, कथमित्याह'ता सूरियस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , सूर्यस्य णमिति वाक्यालङ्कारे उच्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायोद्देशः, किमुक्त भवति?-यथा सूर्य उचैरुचैस्तरामधिरोहति यथा च मध्याह्लादूर्व नीचैस्तरामतिकामति एतदपि लौकिकव्यवहारापेक्षया उच्यते, लौकिका हि प्रथमतो दूरतरवतिनं सूर्य उदयमानमतिनीचैस्तरां पश्यन्ति, ततः प्रत्यासन्न प्रत्यासन्नतरं अनुक्रम [४५] SEX स ~204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत --------------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः प्रत RA ॥९ ॥ सूत्राक [३१] भवन्तमुच्चैरुच्चस्तरां मध्याहादूर्वं च क्रमेण दूर दूरतरं भवन्तं नीचैींचैस्तरामिति, तथा यथा लेश्याः सञ्चरन्ति, तद्यथा- माभृते अतिनीचैस्तरां वर्तमाने सूर्ये सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुन उपरि प्लवमाना वस्तुनो दूरतः परिपतन्ति, ततः प्रकाश्यस्य लापौरुषीछा या सू३१ वस्तुनो महती महत्सरा छाया भवति, उच्चैरुचस्तरां वर्द्धमाने सूर्य प्रत्यासन्नाः प्रत्यासन्नतराः परिपतन्ति, ततः प्रकाश्यस्य वस्तुनो हीना हीनतरा छाया भवति, तत एवं तथा तथा वर्तमानं सूर्यस्योच्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायाया अन्यथाभवन्त्या उद्देशो ज्ञातव्यः, इह प्रतिक्षणं तत्तत्पुद्गलोपचयेन तत्तत्पुद्गलहान्या वा यत् छायाया अन्यत्वं तत्केवल्येव जानाति छमस्थस्तूद्देशतस्तत उक्त-छायोद्देश इति, उपात्तं च छायं च पडुच्च लेसोद्देस इति, तथा तथा विवर्त्तमानं सूर्यस्योचावं छायां च हीनां हीनतरामधिकामधिकतरां च तथा तथा भवन्तीं प्रतीत्य-आश्रित्य लेश्यायाः-प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रत्यासन्नं प्रत्यासन्नतरं दूर दूरतरं वा परिपतन्त्या उद्देशो ज्ञातव्या, तथा 'लेसं च छायं च पडुच उच्चत्तोइसे' इति, लेश्या-प्रकाश्यस्य वस्तुनो दूरं दूरतरमासनमासनतरं परिपतन्ती छायां च हीनां हीनतरामधिकामधिकतरां च तथा तथा भवन्तीं प्रतीत्य सूर्यगतस्योधात्वस्य तथा तथा विवर्त्तमानस्योद्देशो ज्ञातव्यः, किमुक्तं भवति -त्रीण्यप्येतानि प्रतिक्षणमन्यथान्यथा विवर्तन्ते, तत एकस्य द्वयस्य वा तथा तथा विवर्तमानस्योदेशत उपलम्भादितरस्याप्युदेशतोऽवगमः कर्तव्य इति । तदेवं लेश्यास्वरूपमुकं, सम्पति पौरुष्याश्छायायाः परिमाणविषये परतीर्थिकमतिपत्तिसम्भवं कथ-I&I९६॥ यति-तत्धे'त्यादि, तत्र-तस्यां पौरुष्याश्छायायाः परिमाणचिन्तायां विषये खस्विमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, तद्यथा-तत्रतेषां द्वयानां परतीर्थिकानां मध्ये एके एवमाहुः अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्य उगमनमुहर्ने अस्तमयमुहर्ने च अनुक्रम [४५] ला JAINEDuraton himallant ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [४५] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [-], · मूलं [३१] प्राभृत [९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः चतुष्पौरुषी-चतुष्पुरुषप्रमाणां पुरुषग्रहणमुपलक्षणं तेन सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनश्चतुर्गुणां छायां निर्वर्त्तयति, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे उद्गमनमुहूर्त्ते अस्तमयमुहूर्त्ते च द्विपौरुषी-द्विपुरुषप्रमाणां छायां सूर्यो निर्वर्त्तयति, अत्रापि पुरुषग्रहणमुपलक्षणं ततः सर्वस्यापि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणां छायां निर्वर्त्तयतीति द्रष्टव्यं, अत्रोपसंहारः- एगे एवमासु' १, एके पुनरेवमाहुः-ता इति पूर्ववत्, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे उद्गमनमुहूर्त्ते अस्तमयमुहूर्त्ते च सूर्यो द्विपौरुष पुरुषद्वयप्रमाणां छायां निर्वर्त्तयति, पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनो द्विगुणां छायां निर्वर्त्तयतीत्यर्थः तथा अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्योऽस्तमयमुद्धर्ते उद्गमनमुहूर्त्ते च न काश्चिदपि पौरुष छायां | निर्वर्त्तयति । सम्प्रत्येते एव मते भावयति--तस्थे'त्यादि, तत्र तेषां द्वयानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः- अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे चतुष्पौरुष छायां सूर्यो निर्वर्त्तयति, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्यो द्विपौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति, एवं स्वमतविभावनार्थमाहु:- 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा यस्मिन् काले णमिति वाक्यालङ्कारे सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठा प्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे सूर्यश्चतुष्पौरुषीं चतुष्पुरुषप्रमाणां छायां निर्वर्त्तयति, तद्यथा- उद्गमनमुहूर्त्तेऽस्तमयमुहूर्त्ते च स चोहमनमुहूर्त्तेऽस्तमय मुहूर्त्ते च चतुष्पौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति लेश्यामभिवर्द्धयन् प्रकाश्यवस्तुन उपरि प्लवमानां दूरं दूरतरं परिक्षिपन् नो चैव नैव निर्वेष्टयन्- प्रकाश्य वस्तुन उपरिप्लवमानां प्रत्यासन्नं प्रत्यासन्नतरं परिक्षिपन तथा सति छायाया हीनहीनतरत्वसम्भवात्, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सर्वत्राह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठा F&P Us On ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत --------------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: अयंप्रज- माता प्रत प्तिवृत्तिः (मल०) माप्ता पत्कर्षका अष्टादशमुहर्ता रानिर्भवति, जघन्यो द्वादशमुहर्तो दिवसः, तस्मिंश्च दिवसे सूर्यो द्विपौरुषी-पुरुषद्वय-131 प्राभते प्रमाणां छायां निर्वयति, तद्यथा-उद्गमनमुहूर्ते अस्तमयमुहूतें च, स च तदा द्विपौरुषी छायां निवर्त्तयति, लेश्यामभि-लापौरुषीछावर्द्धयन नो पेष निर्वेष्टयन् , अस्य वाक्यस्य भावार्थः प्राग्वद्भावनीयः। तथा तत्र-तेषां द्वयानां मध्ये येवादिन एवमाहुः- या सू ३१ | अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे स सूर्यों द्विपीरुपी छायां निर्वर्त्तयति अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्यो न कांचिदपि। पौरुषी छायां निवर्सयति त एवं स्वमतविभावनार्थमाचक्षते-'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्ड| लमुपसङ्काम्य चार चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुद्धत्तों दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, तस्मिश्च दिवसे सूर्यो द्विपौरुषी छायां निवर्तयति, तद्यथा-उद्गमनमुहतेऽस्तमयमुहूर्ते च, स च तदानी द्विपौरुषी छायां निर्वतयति लेश्यामभिवर्द्धयन् नो चैव निवेष्टयन्, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्गम्य चार चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहतों रात्रिः, जघन्यो द्वादशमुर्तम-12 |माणो दिवसस्तस्मिंश्च दिवसे उद्गमनमुहूर्तेऽस्तमयमुह च सूर्यो न काश्चिदपि पौरुषी छायां निवर्तयति, 'नो व णमित्यादि, नच-नैव तदानीं सूर्यो लेश्यामभिवर्धयन् भवति निर्वेष्टयन् वा, अभिवर्द्ध[य] ने अधिकाधिकतराया निर्वेष्ट[य]ने || हीनहीनतराया छायायाः सम्भवप्रसङ्गात् । तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तिद्वयं श्रुत्वा भगवान् गौतमः स्वमतं पृच्छति M ॥११॥ ता कइकट्ठ'मित्यादि, यद्येवं परतीथिकानां प्रतिपत्ती 'ता' तर्हि भगवान् स्वमतेन त्वया कतिकाष्ठां-किंप्रमाणां सूर्यः|| | पौरुषी छायां निर्वर्तयन् आख्यात इति वदेत् , तत्र भगवान् स्वमतेन देशविभागतः पौरुषी छायां तथा तथा अनिय-13 अनुक्रम [४५] waliSDHRUTE ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], --------------------प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 82+%A प्रत सूत्रांक [३१] 155 5 तप्रमाणां वक्ष्यति, परतीथिकास्तु प्रतिनियतामेव प्रतिदिवस देशविभागेनेच्छति ततः प्रथमतस्तन्मताम्येषोपदर्शयति'तत्थे'त्यादि, तत्र-तस्मिन् देशविभागेन प्रतिदिवसं प्रतिनियतायाः पौरुष्याछायाया विषये षण्णवतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां षण्णवतेः परतीथिकानां मध्ये एके एवमाहुः, ता इति पूर्ववत्, अस्ति स देशो यस्मिन् देशे सूर्य आगतः सन् एकपौरुषीं-एक पुरुषप्रमाणां पुरुष ग्रहणमुपलक्षणं सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः स्वप्रमाणां छायां निर्वर्तयति, अनोपसंहार:-'एगे एवमाईसु'१, 'एके पुनरेवमाहुः-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्यों द्विपौरुषी-द्विपुरुषप्रमाणां पुरुषमणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्यापि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणामित्यर्थः, छायां निर्वर्तयति, अनोपसंहारः-एगे एचमाहंसु' २, "एवं'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन-सूत्रपाठगमेन दोपप्रतिपत्तिगतमपि सूत्रं नेतव्यं तावद्याषचरमप्रतिपत्तिगतं सूत्र, तदेव खण्डशो दर्शयति-'छन्नउ'इत्यादि, एतच्चैवं परिपूर्ण द्रष्टव्यं-'एगे पुण पषमाइंसु, अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छन्नाउइपोरसिं छायं निवत्ता आहियत्तिवएजा एगे एवमाहंसु' मध्यमप्रतिपत्तिगतास्त्वालापकाः सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयाः, सम्प्रत्येतासामेव षण्णवतिप्रतिपत्तीनां भावनिकां चिकीर्षु । राह-तत्धे'त्यादि, तत्र-तेषां षण्णवतिपरतीथिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्य एकपौरुषी-प्रकाश्यवस्तुनः स्वप्रमाणां छायां निर्वःयति त एवं स्वमतविभावनार्थमाहुः-'ता सूरियरस ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, सूर्यस्य सर्वाधस्तनात् सूर्यप्रतिधेः-सूर्यप्रतिधानात् सूर्यनिवेशादित्यर्थः बहिनिःसृता या लेश्यास्ताभिः 'ताडिजमाणाहिं'ति ताड्यमानाभिरस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागाद्यावति सूर्य +5 अनुक्रम [४५] + कर FitneralMAPINANORN ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [४५] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [-], · मूलं [३१] प्राभृत [९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः ( मल० ) सूर्यप्रज्ञ- + ऊर्ध्वमुञ्चैस्त्वेन व्यवस्थित एतावताऽध्वना, सूत्रे चाध्वशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः प्राकृतत्वात्, एकेन व छायानुमानप्र सिवृत्तिः माणेन प्रकाश्यस्य वस्तुनो यदुद्देशतः प्रमाणमनुमीयते तेन, इहाकाशदेशे सूर्यसमीपे प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रमाणं नैव साक्षात् परिग्रहीतुं शक्यते किन्तु देशतोऽनुमानेन ततछायानुमानप्रमाणेनेत्युक्तं, 'उमाए'त्ति अवमितः परिच्छिन्नो यो देशः- प्रदेशो यस्मिन् प्रदेशे आगतः सन् सूर्य एकपौरुष पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रमाणभूतां छायां निर्वर्त्तयति, इयमत्र भावना - प्रथमत उदयमाने सूर्ये या लेश्या विनिर्गत्य प्रकाशमाश्रितास्ताभिः प्रकाश्यवस्तुदेशे ऊ क्रियमाणाभिः किञ्चित्पूर्वाभिमुखमवनताभिः प्रकाश्येन च वस्तुनां यः सम्भाव्यते परिच्छिन्न | आकाशप्रदेशः तत्रागतः सूर्यः प्रकाश्यवस्तुप्रमाणां छायां निर्वर्त्तयति, एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या, 'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहु:-अस्ति स देशों यस्मिन् देशे समागतः सूर्यो द्विपीरुपीं छायां निर्वर्त्तयति त एवं स्वमतविस्फारणार्थमाहु:-'ता सूरियस्स ण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् सूर्यस्य सर्वाधस्तात् सूर्यप्रतिधेः- सूर्यनिवेशाद्वहिर्निःसृताभिर्लेश्या| भिस्ताड्यमानाभिरस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद्भूमिभागादूर्ध्वमुञ्चत्वेन व्यवस्थितः एतावद्भयां द्वाभ्यामद्वाभ्यां द्वाभ्यां छायानुमानप्रमाणाभ्यां प्रकाश्यवस्तुप्रमाणाभ्यामवमितः परिच्छिन्नो यो देशस्तत्र समागतः सूर्यो द्विपौरुष-प्रका श्ववस्तुनो द्विगुणां छायां निर्वर्त्तयति एवमेकैकप्रतिपत्तावे के कच्छायानुमानप्रमाण वृद्ध्या तावन्नेतव्यं यावत्पण्णवतितमा प्रतिपत्तिः, तद्गतानि च सूत्राणि स्वयं परिभावनीयानि, सुगमत्वात्, तदेवमुक्ताः परतीर्थिकप्रतिपत्तयः । सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'सातिरेगे'त्यादि, सूर्य ॥ ९२ ॥ ए F ~209~ ९ प्राभूते पौरुषीछा या सू ३१ Jc. ॥ ९२ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत --------------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] उदगमसमये अस्तमनसमये च सातिरेकैकोनषष्टिपुरुषप्रमाणां छायां निवर्त्तयति-एतदेव विभावयिषुराह-'ता अवहे इत्यादि, अपगतमद्धै यस्याः सा अपार्दा सा चासौ पौरुषी च अपार्द्धपौरुषी छाया पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्व-1 स्यापि वस्तुनः प्रकाश्य स्थार्द्धप्रमाणा छाया, एवमुत्तरत्राप्युपलक्षणव्याख्यानं द्रष्टव्यं, दिवसस्य किं गते-कतमे भागे गते शेषे वेति-कतितमे भागे शेपे भवति , भगवानाह-ता इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , दिवसस्य त्रिभागे गते भवति, दिव-४ सस्य त्रिभागे वा शेषे, 'ता'इत्यादि, पौरुषी पुरुषप्रमाणा, प्रकाश्यस्य वस्तुनः स्वप्रमाणा इत्यर्थः, छाया कि गते-कतितमे| भागे गते शेपे वेति-कतितमे वा भागे शेषे भवति, भगवानाह-दिवसस्य चतुर्भागे गते चतुर्भागे शेपे वा, प्रकाश्यस्य वस्तुनः स्वप्रमाणभूता छाया अन्यत्र ग्रन्थान्तरे सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमधिकृत्योक्ता, तथा च नन्दि चूर्णिग्रन्धः-"पुरिसत्ति संकू पुरिससरीरं वा, ततो पुरिसे निष्फन्ना पोरिसी, एवं सबस्स वत्थुणो यदा स्वप्रमाणा छाया भवति तदा पोरिसी हवइ, एवं पोरिसिप्रमाणं उत्तरायणस्स अंते दक्षिणायणस्स आईए इकं दिणं भवइ, अतो परं अद्धएगसहिभागा अंगुलस्स दक्षिणयणे वटुंति, उत्तरायणे हरसंति, एवं मंडले २ अन्ना पोरिसी" इति, तत इदं सकलमपि पौरुषीविभागप्र-1 माणप्रतिपादनं सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमधिकृत्यावसेयं, तथा 'ता'इति पूर्ववत् , व्यर्द्धपौरुषी-सार्द्धपुरुषप्रमाणा छाया दिष-X &सस्य किंभागे-कतितमे भागे गते भवति, किं शेषे वा-कतितमे वा भागे शेषे, भगवानाह-'ता' इति पूर्ववत्, दिवसस्य पञ्चमे भागे गते वा भवति, शेपे वा पञ्चमे भागे, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण अर्द्धपौरुषी-अर्द्धपुरुषप्रमाणां छायां |क्षित्वा २ पृच्छा-पृच्छासूत्रं द्रष्टव्यं, 'दिवसभाग'ति पूर्वपूर्वसूत्रापेक्षया एकैकमधिकं दिवसभागं क्षित्वा २ व्याकरण-उत्त SSSSSS *565555 अनुक्रम [४५] ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [४५] · मूलं [३१] प्राभृत [९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ९९ ॥ ビビ चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [-], रसूत्रं ज्ञातव्यं तच्चैवम्— 'त्रिपोरिसी णं छाया किं गए वा सेसे वा ?, ता छन्भागगए वा सेसे वा, ता अढाइजपोरिसी णं छाया किंगए वा सेसे वा ?, ता सत्तभागगए वा सेसे वा' इत्यादि, एतच्च एतावत् तावत् यावत् 'ता उगुणही त्यादिसुगमं, सातिरेकै कोनषष्टिपौरुषी तु छाया दिवसस्य प्रारम्भसमये पर्यम्तसमये वा, तत आह-'ता नत्थि किंचि गए वा सेसे वा' इति, सम्प्रति छायाभेदान् व्याचष्टे - 'तत्थे'त्यादि, तत्र तस्यां छायायां विचार्यमाणायां खल्वियं पञ्चविंशतिविधाः छायाः प्रज्ञष्ठाः ?, तद्यथा 'संभछायेत्यादि, प्रायः सुगमं, विशेषव्याख्यानं चामीषां पदानां शास्त्रान्तराद्यधासम्प्रदायं वाच्यं, गोलछायेत्युक्तं ततस्तामेव गोलछायां भेदत आह-'तत्थे'त्यादि, तत्र-तासां पञ्चविंशतिच्छायानां मध्ये | सल्वियं गोलछाया अष्टविधा प्रज्ञता, तद्यथा- 'गोलछाया' गोलमात्रस्य छाया गोल्छाया, अपार्द्धस्य - अर्द्धमात्रस्य गोलस्य छाया अपार्द्धगोलछाया, गोलाना मावलिर्गेौलावलिस्तस्या छाया गोलावलिच्छाया अपार्द्धायाः- अपार्द्धमात्राया गोलावलेछाया अपार्द्धगोलावलिच्छाया, गोलानां पुञ्जो गोलो गोलोत्कर इत्यर्थः तस्य छाया गोलपुञ्जछाया, अपार्द्धस्य - अर्द्ध| मात्रस्य गोलपुञ्जस्य छाया अपार्द्धगोल पुञ्जच्छाया॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां नवमं प्राभृतं समाप्तं तदेवमुक्तं नवमं प्राभृतं सम्प्रति दशममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकासे यथा 'योग इति किं भगवन् ! त्वया समाख्यायते' इति, ततस्तद्विपयनिर्वचन सूत्रमाह--_ ता जोगेति वत्थुस्स आंवलियाणिवाते आहितेति वदेजा, ता कहं ते जोगेति वत्थुस्स आवलियाणि अत्र नवमं प्राभृतं परिसमाप्तं F&P U One अथ दशमं प्राभृतं आरभ्यते ~211~ ९ प्राभृते पौरुषीछाया सू ३१ ल | ॥ ९२॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१०], -------------------- प्राभतप्राभत [१].-------------------- मलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक *55558 वाते आहितेति वदेज्जा !, तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पनत्ताओ, तत्थेगे एवमाइंसु ता सब्वेवि &ाणं णक्खत्ता कत्तियादिया भरणिपज्जवसाणा एगे एवमासु', एगे पुण एवमाइंसु, ता सवेवि णं णक्खत्ता |महादीया अस्सेसपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु, ता सबेवि णं णक्खत्ता घणि हादीया सवणपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमासु ३, एगे पुण एवमाइंसु, ता सब्वेवि णं णक्खत्ता अ-| & सिणीआदीया रेवतिपज्जवसाणा प०, एगे एवमाहंसु४, एगे पुण एवमाहंसु-सब्वेविणं णक्खत्ताभरणीआ दिया अस्सिणीपज्जवसाणा एगे एवमासु । वयं पुण एवं वदामो, सचेवि ण णक्खसा अमिईआदीया उत्तरा साढापजवसाणा पं० २०-अभिई सवणो जाव उत्तरासादा ।। (सूत्रं ३२) दसमस्स पढम पाहुडपाछुडं समत्तं ।।। &ा 'ता जोगेति बत्थुस्से'त्यादि, ता इति आस्तां तावदन्यत्कथनीयं सम्प्रत्येतावदेव कथ्यते-योग इति वस्तुनो नक्षत्रजातस्य 'आवलिकानिवायो'त्ति आवलिकया क्रमेण निपातः-चन्द्रसूर्यैः सह सम्पात आख्यातो मयेति वदेत् स्वशिध्येभ्यः, एवमुक्ते भगवान् गौतमः पृच्छति-ता कहते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारेण भगवान् ४ त्वया योग इति योगवस्तुनो-नक्षत्रजातस्यावलिकानिपातः स आख्यात इति वदेत् , भगवानाह-तस्थ खलु इत्यादि, तत्र-तस्मिन्नक्षत्रजातस्यावलिकानिपातविषये खल्विमाः पञ्च प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ता,तद्यथा-तत्र-तेषां पश्चानां परतीथिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एवमाहुः-ता इति पूर्ववत् सर्वाण्यपि नक्षत्राणि कृत्तिकादीनि भरणिपर्यहै वसानानि प्रज्ञप्तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, अत्रैवोपसंहारः-'एगे एवमासु' १, एवं शेषप्रतिपत्तिचतुष्टयगता अनुक्रम [४६] 299 अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- आरभ्यते ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [३२]] सूर्यप्रज्ञ न्यपि सूत्राणि परिभावनीयानि, तदेवं परमतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेवं-1१.प्राभृते शिवृत्तिः वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-ता सवेऽवि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, सर्वाण्यपि नक्षत्राणिश्माभूत. (मल०) अभिजिदादीनि उत्तराषाढापर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, कस्मादिति चेत् , उच्यते, इह सर्वेषामपि सुषमसुषमादिरूपाणां नक्षत्राव कालविशेषाणामादि युगं 'एए उ सुसमसुसमादयो अद्धाविसेसा जुगादिणा सह पवत्तंति जुगंतेण सह समपंती'ति श्रीपा- लिकासूर ॥१५॥ दलिप्तसूरिवचनप्रामाण्यात्, युगस्य चादिः प्रवर्तते श्रावणमासि बहुलपक्षे प्रतिपदि तिथौ बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमुपागच्छति, तथा चोक्तं ज्योतिष्करण्डके-"सावणबहुलपडिवए बालवकरणे अभीइनक्खत्ते । सवत्थ | पढमसमये जुगस्स आई वियाणाहि ॥१॥' अत्र सर्वत्र भरतैरवते महाविदेहे च, शेष सुगम, ततः इत्थं सर्वेषामपि कालविशेषाणामादौ चन्द्रयोगमधिकृत्याभिजिनक्षत्रस्य वर्तमानत्वादभिजिहादीनि नक्षत्राणि प्रजातानि.ताम्येव तात्यादिनोपदर्शयति-'अभिई सवणे'त्यादि, ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं-१ समाप्तं तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति द्वितीयमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो 'नक्षत्रविषय Pमुहर्तपरिमाणं वक्तव्य'मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह 1- ता कहं ते मुद्दत्ता य आहितेति वदेजा, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णवत्ताणं अस्थि णवत्रत्ते जेणं| अनुक्रम [४६] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-१ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ आरभ्यते ~213~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१०], -------------------- प्राभतप्राभत RI. -------------------- मलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] श्रीप प्रणव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तहिभागे मुहुत्तस्स चंदेणं सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णं पण्णरसहै मुहुत्ते चंदेणं सद्धिं जोयं पजोएंति, अस्थि णक्खत्ता जेणं पणतालीसे मुहुत्ते चंदेणं सद्धिं जोएंति, ता एएसि णं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं कयरे नक्षत्ते जे णं नवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभाए मुहत्तस्स चंदेणं सद्धिं जोएन्ति, कयरे नक्खत्ता जे णं पण्णरसमुहत्ते चंदेणं सद्धिं जोगं जोएंति, कतरे नक्खत्ता जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोइंति, कतरे नक्खत्ता जेणं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोइंति ?, ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्षत्साणं तत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्सट्ठिभागे मुहत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति से णं एगे अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं पण्णरस मुष्टुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति लाते णं छ, तं०-सतभिसया भरणी अद्दा अस्सेसा साति जेट्ठा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे गं तीसं मुहसं चंदेण सद्धिं जोर्य जोयति ते पष्णरस, तं०-सवणे धणिहा पुवा भद्दवता रेवति अस्सिणी कत्तिया मग्गसिर पुस्सा महा | पुवाफग्गुणी हत्थो चित्सा अणुराहा मूलो पुवआसाढा, तत्थ जे ते पक्खत्ता जे णं पणतालीस मुहत्ते चंदेण सद्धि जोगंजोएंति तेणंछ, तंजहा-उत्तराभहपद रोहिणी पुणवसू उत्तराफरगुणी विसाहा उत्तरासाढा(सूत्रं३३) | 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं भगवन् ! प्रतिनक्षत्रं मुहू ग्रं-मुहूर्तपरिमाणमाख्यातमिति वदेत् ।, एवमुक्त भगवानाह-'ता एएसि 'मित्यादि, 'ता'इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्येऽस्ति तन्नक्षत्रं यन्नव मुतान् एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशति सचषष्टिभागान यायत् चन्द्रेण साई योगं युनक्ति-उपैति, तथा अस्ति-निपात अनुक्रम 64- [४७] ~214 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभत २], -------------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] सूर्यप्रज्ञ- त्वाद् व्यत्ययाद्वा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पञ्चदश मुहूर्तान यावच्चन्द्रेण सह योगमुपयान्ति, तथा सन्ति तानि नक्ष- १० प्राभृते प्तिवृत्तिः४ बाणि यानि त्रिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगमश्नुवते, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पश्चचत्वारिंशतं मुहर्त्तान्५२ प्राभृत(मल०) यावश्चन्द्रेण सह योग युञ्जन्ति, एवं सामान्येन भगवतोक्के विशेषनिर्धारणार्थ भगवान पृच्छति गौतम:-'ता एएसिण- प्राभाते नक्षत्राणां ॥१५॥ |मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये कतरनक्षत्रं यन्नव मुहूर्त्तानेकस्य च मुहर्तस्य सप्तविंशति चन्द्रेग १. १ ४ सप्तपष्टिभागान् यावच्चन्द्रेण सह योगं युनक्ति, तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि यानि पञ्चदश मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सहयोग योगं युञ्जन्ति, तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि यानि त्रिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगमश्ववते, तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि यानि पञ्चचत्वारिंशतं मुहर्तान यावञ्चन्द्रेण सार्द्ध योगमुर्पयन्ति, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-ता एएसिण'मित्यादि, 'ता'इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यन्नक्षत्रं नव मुहर्तानेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशति सप्तपष्टिभागान् यावचन्द्रेण सह योग युनक्ति तदेकमभिजिन्नक्षत्रमवसेयं, कथमिति चेत्, उच्यते, इह अभिजिन्नक्षत्रं सप्तमापष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्यैकविंशति भागान् चन्द्रेण सह योगमुपैति, तेच एकविंशतिरपि भागा मुहूर्तगतभागकरणार्थ |त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तथा च एतावान् कालमधिकृत्य सीमाविस्तारोऽभिजिन्नक्षवस्यान्यत्राप्युक्तः “छ चेव सया तीसा भागाण अभिइ सीमविक्खंभो । दिडो सबडहरगो सोहि अणंतनाणीहि ॥१॥ तेषां सप्तपट्या भागो हियते, लब्धा नव मुहर्ता एकस्य च मुहर्त्तस्य सप्तविंशतिः सक्षषष्टिभागाः ९, कच-"अभि- Intell इस्स चंदजोगो सत्तहीखंडिओ अहोरत्तो । भोगा य एगवीसं ते पुण अहिया नव मुहत्ता ॥१॥" तथा 'तत्धे'त्यादि, श्रीप अनुक्रम [४७] १०३ Fhi ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] श्रीप तत्र-तेषामष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पश्चदश मुहूर्तान् यावञ्चन्द्रेण सह योगमश्वते तानि षट्, तद्यथाशतभिषक् इत्यादि, तथाहिएतेषां पण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कान् सार्वान् वयखिंशद्भागान् यावच्चन्द्रेण सह योगो भवति, ततो मुहूत्र्तगतसप्तपष्टिभागकरणाथै त्रयखिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव | शतानि नवत्यधिकानि ९९०, यदपि सार्द्ध तदपि त्रिंशता गुणयित्वा द्विकेन भज्यते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्तस्य सप्तषष्टि&भागास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातः पूर्वराशिः सहस्रं पञ्चोत्तरं १००५, तथा चैतेषां प्रत्येक कालमधिकृत्य सीमाविस्तारोला मुहर्तगतसप्तषष्टिभागानां पश्चोत्तरं सहनं, उक्तं च-"सयभिसयाभरणीप अद्दा अस्सेस साइ जिठाए । पंचोत्तरं सहस्सं भागाणं सीमविक्खंभो ॥१॥" अस्य पञ्चोत्तरसहस्रस्य सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्चदश मुहर्चाः, उक्कं च-"सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जिहा य । एए छन्नक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा ॥२॥" तथा तत्र-तेषामष्टाविशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि त्रिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति तानि पञ्चदश, तद्यथा-सवणों | इत्यादि, तथाहिएतेषां कालमधिकृत्य प्रत्येकं सीमाविष्कम्भो मुहर्तगतसप्तषष्टिभागानां दशोत्तरे द्वे सहस्र २०१०, | ततस्तयोः सप्तपट्या भागे इते लब्धाः त्रिंशम्मुहर्ताः, तथा तत्र यानि नक्षत्राणि पश्चचत्वारिंशतं मुहूर्तान् यावचन्द्रेण | सार्ड योर्ग युञ्जन्ति तानि षट्, तद्यथा-'उत्तरभद्रपदा'इत्यादि, तेषां हि प्रत्येक कालमधिकृत्य सीमाविष्कम्भो मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागानां त्रीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि ३०१५, ततस्तेषां सप्तपट्या भागे हते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशदेव मुहूर्त्ता लभ्यन्ते, उकंच-"तिन्नेव उत्तराई पुणवसू रोहिणी विसाहा य । एए छन्नक्खत्ता पणयालमुहुससंजोगा ॥१॥ अनुक्रम [४७] F OR ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- अवसेसा नक्खत्ता पनरस ए हुंति तीसइमुहुत्ता । चंदमि एस जोगो नक्खत्ताणं समक्खाओ ॥२॥ तदेवमुक्को नक्ष- १० प्राभते प्तिवृत्तिःलावाणां चन्द्रेण सह योगः, सम्प्रति सूर्येण सह तमभिधिरसुराह M२प्राभृत(मलता एतेसिणं अट्ठावीसाए णक्खसाणं अस्थि णवत्ते जे णं चत्तारि अहोरते छच मुटुत्ते सूरेण सद्धि प्राभृते जोयं जोएंति, अस्थि गक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते एकवीसं च मुटुत्ते सूरेण सदि जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जेणं तेरस अहोरत्ते वारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, अत्धि णक्वत्ता जे णं वीसं अहो मागासू ३४ रत्से तिपिण य मुहुत्ते सूरेण.सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खत्तेज शाचत्तारि अहोरत्ते छच मुटुत्से सूरेण सर्द्धि जोयं जोएंति, कतरे णक्खत्ते जे णं छ अहोरत्ते एकवीसमुहत्ते सूरेणं सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खत्ता जेणं तेरस अहोरत्ते वारस मुहते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति[4 कतरे णक्खत्ता जे णं वीसं अहोरत्ते सरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थ जे से णक्खत्ते जेणं चत्तारि अहोरले छच मुहत्ते सूरेण सम्जिोयं जोएंति से णं अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे पंछ अहोरत्ते एकवीसं च मुहत्ते सरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ, तं०-सतभिसया भरणी| .2 ।॥१६॥ अद्दा अस्सेसा साती जेट्ठा, तत्व जे ते तेरस अहोरत्ते दुवालस य मुहत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति ते र्ण पणरस, तंजहा-सवणो धणिट्ठा पुवाभवता रेवती अस्सिणी कतिया मग्गसिरं पूसो महा पुषाफग्गुणी हत्या चित्ता अणुराधा मूलो पुवाआसाढा, तस्थ जे ते णक्खत्ता जेणं वीसं अहोरत्ते तिपिण य मुहले सूरेण [४७] FridaIMAPIVAHauWORK ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१७) प्राभत [१०], -------------------- प्राभतप्राभत RI. -------------------- मलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] सिद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ, तंजहा-उत्तराभवता रोहिणी पुणवसू उत्तरफग्गुणी विसाहा उत्तरासादा (सूत्रं ३४) दसमस्स वितीयमिति ॥ 'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्येऽस्ति तन्नक्षनं यच्चतुरो|ऽहोरात्रान् षट् च मुहूर्तान् यावत् सूर्येण सार्द्ध योगमुपैति, तथा अस्तीति सन्ति तानि यानि षट् अहोरात्रान् एकवि-1 शतिं च मुहूर्तान् सूर्येण सार्द्ध योग युञ्जन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश मुहान यावत्सूर्येण सह योगमुपयन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि विंशतिमहोरात्रान् त्रीन् मुहूर्तान् यावत्सूर्येण समं योग युद्धन्ति, एवं भगवता सामान्येनोक्त विशेषावगमनिमित्तं भूयोऽपि भगवान् गौतमः पृच्छति-'ता एएसि ण'मित्यादि, सुगर्म, भगवान् निर्वचनमाह-ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेनेक्षत्राणां मध्ये यन्नक्षत्रं चतुरोऽहोरात्रान् षट् च मुहूर्तान सूर्येण सार्द्ध योग युनक्ति तदेकमभिजिन्नक्षत्रमवसेयं, तथाहि-सूर्ययोगविषयं पूर्वाचार्यप्रदर्शितमिदं प्रकरण-"ज रिक्खं जावइए वच्चइ चंदेण भाग सत्तड्डी । तं पणभागे राइंदियस्स सूरेण 5 तावइए ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-यत् ऋक्ष-नक्षत्रं यावतो राबिन्दिवस्य-अहोरात्रस्य सम्बन्धिनः सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण सह योग व्रजति तन्नक्षत्रं रात्रिन्दिवस्य पश्चभागान् तावतः सूर्येण समं ब्रजति, तत्राभिजिदेकविंशतिं । सप्तपष्टिभागान् चन्द्रेण समं वर्त्तते, तत एतावतः पञ्चभागानहोरात्रस्य सूर्येण समं वर्तमानमवसेयं, एकविंशतिश्च पञ्चमिर्भागे हृते लब्धाश्चत्वारोऽहोराबाः एकः पञ्चमो भागोऽवतिष्ठते, स मुह नयनाय त्रिंशता गुण्यते, जाता त्रिंशत्तस्याः अनुक्रम [४८ ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [४८] मूलं [३४] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥ १०३ ॥ Jain E चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [२], ४ प्राभृतं नक्षत्रैः सूर्य पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः षण्मुहर्त्ता इति उक्तं च- "अभिई उच्च मुहुत्ते चत्तारि य केवले अहोरते । सूरण समं वच्चइ २२० प्राभृते इत्तो सेसाण बुच्छामि ॥ १ ॥ [ ग्रंथाग्रं० ३००० ] तथा तत्र —- तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि षटू २ प्राभृतअहोरात्रानेकविंशतिं च मुहूर्त्तान् यावत् सूर्येण समं योगमुपयन्ति तानि षटू, तद्यथा - 'सयभिसया' इत्यादि, तथाहि--- एतानि नक्षत्राणि प्रत्येकं चन्द्रेण समं सार्द्धन त्रयस्त्रिंशत्समाकान् सप्तषष्टिभागानहोरात्रस्य व्रजन्ति अपार्द्धक्षेत्रस्यादे तेषां तत एतावतः पञ्चभागानहोरात्रस्य सूर्येण समं त्रजन्तीति प्रत्येयं प्रागुक्तकरणप्रामाण्यात्, त्रयस्त्रिंशतश्च पश्चभि- ४ योगःसू३४ भगे हुते लब्धाः षट् अहोरात्राः, पश्चादवतिष्ठन्ते सार्द्धास्त्रयः पञ्चभागाः, ते सवर्णनायां जाताः सप्त, मुहूर्त्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते द्वे शते दशोत्तरे २१०, एते च मुहर्त्तार्द्धगते, ततः परिपूर्णमुहूर्त्तानयनाय दशभिर्भागो हियते, लब्धा एकविंशतिर्मुहूर्त्ताः उक्तं च- “सयभिसया भरणीओ अदा अस्सेस साइ जिट्ठा य । वञ्चति मुहुत्ते इक्कीस इच्छेवऽहोरते ॥ १ ॥ तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश चे मुहर्त्तान् यावत् सूर्येण समं योगं युञ्जन्ति तानि पञ्चदश, तद्यथा - 'सवणो' इत्यादि, तथाहि अमूनि परिपूर्णान् सप्त| षष्टिभागान् चन्द्रेण समं व्रजन्ति, ततः सूर्येण सह एतानि पञ्चभागानप्यहोरात्रस्य सप्तषष्टिसङ्ख्यान् गच्छन्ति, सप्तषष्टेश्व पञ्चभिर्भागे लब्धास्त्रयोदश अहोरात्राः, शेषौ च द्वौ भागौ तिष्ठतः, तौ त्रिंशता गुण्येते, जाताः षष्टिः, तस्याः पञ्चभिर्भागे हते लब्धा द्वादश मुहर्त्ताः उक्तं च-- “अवसेसा नक्खत्ता पञ्चरसवि सूर सहगया जंति । बारस चेव मुहुत्ते तेरसय समे अहोर ते ॥ १ ॥” तथा तत्र - तेषामष्टाविंशतिर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि विंशतिमहोरात्रान् त्रीन मुहू F&P Us On ~219~ ॥१०३॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] तन् यावत्सूर्येण समं योगमश्नुवते तानि पट्, तद्यथा-'उत्तरभवया इत्यादि, एतानि हि पडपि नक्षत्राणि प्रत्येक चन्द्रेण सम सप्तषष्टिभागानां शतमेकस्य च सप्तषष्टिभागस्याई ब्रजन्ति, तत एतावतः पञ्चभागान् अहोरात्रस्य सूर्येण समं व्रजनमवगन्तव्यं, शतस्य च पश्चभिर्भागे हृते लब्धा विंशतिः अहोरात्राः, यदपि चैकस्य पञ्चभागस्यार्द्धमुद्धरति | | तदपि त्रिंशता गुण्यते, जाता त्रिंशत, तस्या दशभिभोगे हुते लब्धात्रयो महत्तों इति ॥....... .. इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- २ समाप्त उक्तं दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति तृतीयमारभ्यते, तस्य चायमाधिकार:- एवंभागानि नक्षत्राणि वक्तव्यानी'ति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते एवंभागा आहितातिवदेजा ?, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्ता एवंभागा समखेत्ता पं०, अस्थि णक्खत्ता पच्छभागा समक्खेत्ता तीसमुहुत्ता पं०, अस्थि णक्षत्ता णसंभागा अवडखेत्ता पण्णरसमुहत्ता पं०, अस्थि णवत्ता उभयंभागा दिवमुखेत्ता पणतालीसं मुहुत्ता पं०, ता एएसिणं अट्ठावीसाए णवत्ताणं कतरे णक्वत्ता पुर्वभागा समवेत्ता तीसतिमुहुत्ता पं० कतरे कतरे कतरे नक्खत्ता उभयंभागा दिवट्ठखेत्ता पणतालीसतिमुहुत्ता पं०,ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णकखत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता, पुवंभागा समखेत्ता तीसतिमुहुत्ता पं० ते णं छ, तंजहा-पुच्चापोडवता कत्तिया मघा पुवाफग्गुणी मूलो अनुक्रम [४८ JAMERIrshinintimatsinal अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ आरभ्यते ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः (मल.) सूत्राक [३५]] ॥१०॥ पुवासादा, तत्थ जे णक्खत्ता पच्छभागा समखेत्ता तीसतिमुहुत्ता पं०,ते णं दस, तंजहा-अभिई सवणो| १०प्राभृते धणिट्ठा रेवती अस्सिणी मिगसिरं पूसो हत्थो चित्सा अणुराधा, तत्थ जे ते णक्खत्ता संभागा अद्धब-18प्राभतखेत्ता पण्णरसमुहुत्ता पं० ते णं छ, तंजहा-सयभिसया भरणी अद्दा अस्सेसा साती जेट्ठा, तत्थ जे ते प्राभूत णक्वत्ता उभयंभागा दिवड्डखेत्ता पण्णतालीसं मुहत्ता पं० ते णं छ, तंजहा-उत्तरापोट्टवता रोहिणी पुण-पश्चाद्धागावसू उत्तराफरगुणी विसाहा उत्तरासादा (सूत्रं ३५) दसमस्स ततियं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ दीनि सू३५ | 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया एवंभागानि-वक्ष्यमाणप्रकारभागानि नक्षत्राणि आख्यातानि इति भगवान् वदेत् , एवमुक्त भवगानाह-ता एएसि ण'मित्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, एतेपामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पूर्वभागानि-दिवसस्य पूर्वभागश्चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य विद्यते येषां तानि पूर्वभागानि 'समक्खेत्ता' इति सम-पूर्णमहोरात्रप्रमितं क्षेत्र चन्द्रयोगमधिकृत्यास्ति येषां तानि समक्षेत्राणि अत एव त्रिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पश्चाद्भागानि-दिवसस्य पश्चात्तनो भागश्चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य विद्यते येषां तानि पश्चादूभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि नभागानि' नक्तं-रात्री चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य भाग:-अवकाशो येषां तानि तथा, 'अपार्द्धक्षेत्राणी'&ा॥१०४॥ |ति अपगतमद्धे यस्य तदपार्द्ध, अर्द्धमात्रमित्यर्थः, अपार्द्धमर्द्धमानं क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं येषां चन्द्रयोगमधिकृत्य तानि । अपार्द्धक्षेत्राणि, अत एव पश्चदशमुहर्रानि, पञ्चदश चन्द्रयोगमधिकृत्य मुहर्ता विद्यन्ते येषां तानि तथा प्रशानि, तथा अनुक्रम [४९] ~221 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५] सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि नक्षत्राणि 'उभयभागानि' उभयं-दिवसरात्री तस्य दिवसस्य रात्रेश्चेत्यर्थः, चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य भागो येषां तानि तथा, तथाहि-बर्द्धक्षेत्राणि, द्वितीयमद्धे यस्य तद् व्यर्ध सार्द्धमित्यर्थः, व्यर्द्ध-सार्द्धमहोरात्रप्रमितं क्षेत्रं येषां तानि तथा, अत एव पञ्चचत्वारिंशन्मुहूतानि प्रज्ञप्तानि, एवं भगवता सामान्येनोक्त विशेषावबोधनार्थ। भगवान् गौतमः पृच्छति-ता एएसिण'मित्यादि सुगम, भगवान् प्रतिवचनमाह-ता एएसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहर्तानि प्रज्ञप्तानि तानि षट्, तद्यथा-'पुषपुट्ठवया' इत्यादि, एतच्चानन्तरे एव प्राभृतप्राभृते योगस्यादौ चिन्त्यमाने भावयिष्यते, तथा तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पश्चाद्भागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञतानि तानि दश, तद्यथा-'अभिई' इत्यादि, तथा तत्र-तेषां अष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि नक्तंभागानि अपार्द्धक्षेत्राणि पञ्चदशमुहूर्तानि प्रज्ञधानि तानि षट् ,तद्यथा-'सयभिसया'इत्यादि,तथा तत्र-तेपामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राण्युभयभागानि तानि ब्बर्द्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्तानि तानि षट् , तद्यथा-'उत्तरापुट्ठबया इत्यादि, सर्वत्रापि च भावना अग्रेऽनन्तरमेव भावयिष्यते ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- ३ समाप्तं तदेवमुक्तं तृतीयं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति चतुर्थमारभ्यते-तस्य चायमाधिकारो 'योगस्यादिर्वकव्य' इति किञ्च-पूर्वमनन्तरमाभृतमाभृते नक्षत्राणां पूर्वभामगताधुकं,तच्च योगस्यादिपरिज्ञानमन्तरेण नावगन्तुं शक्यते ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह अनुक्रम [४९] FairaMsrivaaraswant अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ४ आरभ्यते ~222~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६]] सूर्यप्रज्ञता कहं ते जोगस्स आदी आहिताति वदेजा,ता अभियीसवणा खलु दुबे णक्खत्ता पच्छाभागा सम- १० माइते खित्ता सातिरेगऊतालीसतिमुहुत्ता तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयंजोएंति, ततो पच्छा अवरं सातिरेयं प्राभृत. (मल.) दिवसं, एवं खलु अभिईसवणा दुवे णक्खत्ता एगराई एगं च सातिरेग दिवस चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति, ॥१०५॥ जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियति जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं धणिट्ठाणं समप्पंति, ता धणिहा खलु| णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसतिमुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोगं जोएति, २सा देणं सद्धिं जोगं जोएत्ता ततो पच्छाराई अवरंच दिवसं, एवं खलु धणिहाणक्खत्ते एगं चराई एगंच दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टिति जोयं अणुपरियहित्ता सागं चंदं सतभिसयाणं समप्पेति | ता सयभिसया खलु णक्खत्ते णतंभागे अबढे खेत्ते पण्णरसमुहत्ते पढमताए सागं चंदेण सहिंजोएति णो लभति अवरं दिवस, एवं खलु संयभिसया णक्खत्ते एगं च राई चंदेण सहिं जोयं जोएति, जोयं जोएप्सा जोयं अणुपरियट्टति, जोयं अणुपरियट्टित्ता तो चंदं पुवाणं पोहवताणं समप्पेति, ता पुवापोहवता खलु नक्खत्ते | पुर्वभागे समखेत्ते तीसतिमुहत्ते तप्पढमताए पातो चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति, ततो पच्छा अवरराई, एवं खलु पुषापोट्टवता णक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राई चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोयं अणुप-1 रियति २ पातो चंदं उत्तरापोहबताणं समप्पेति, ता उत्तरपोढवता खलु नक्खत्ते उभयंभागे दिवहखेसे 31 लापणतालीसमुत्ते तप्पडमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएति अवरं च राति ततो पच्छा अवरं दिवस, TA अनुक्रम [५०] ॥१०५॥ FhiraIMAPIVARAuNORN ~223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] ॐॐॐॐॐॐ एवं खलु उत्तरापोहवताणक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएति अवरं च राति, ततोपच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु उत्सरापोहवताणक्वत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएति जोइत्ता जोयं अणुपरियति त्ता साग चंदं रेवतीणं समप्पेति, ता रेवती खलु णक्खत्ते पच्छभागे समखेत्ते तीसतिमुहुत्ते तप्पढमताए सागं चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु रेवतीणक्खत्ते एग राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोयं अणुपरियति २त्ता सागं चंदं अस्सिणीणं समप्पेति, ता अस्सिणी खलु णक्खत्ते पच्छिमभागे समखेत्ते तीसतिमुहुत्ते तप्पडमताए सागं चंदेण सद्धि जोयं जोएति, ततो पच्छा अवर दिवसं, एवं खलु अस्सिणीणक्खत्ते एर्ग च राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोगं अणुपरियइ २त्ता सागं चंदं भरणीणं समप्पेति, ता भरणी खलु णवत्से णसं भागे अवङखेत्ते पण्णरसमुहुत्ते तप्पढमताए सागं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, णो लभति अवरं दिवसं, एवं ४ खलु भरणीणक्खत्ते एग राई चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोयं अणुपरियति २त्ता पादो चंदं कत्ति&याणं समप्पेति, ता कत्तिया खलु णक्वत्ते पुर्वभागे समक्खित्ते तीसइमुहुत्ते तप्पलमताए सागं चंदेणं सद्धिं जोगं जोएति २त्ता जोयं अणुपरियड २ हित्ता पादो चंदं रोहिणीणं समप्पेति, रोहिणी जहा उत्तरभवता मगसिरं जहा धणिट्ठा अदा जहा सतभिसया पुणवसु जहा उत्तराभद्दवता पुस्सो जहा धणिट्ठा अस्सेसा जहा सतभिसया मघा जहा पुवाफग्गुणी पुवाफग्गुणी जहा पुबाभद्दवया उत्तराफग्गुणी जहा अनुक्रम [५०] E FridaIMAPIVAHauwone ~224~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [५० ] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [४], मूलं [३६] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल०) ॥१०६ ॥ उत्तराभवता हत्थो चित्ता य जहा धणिट्ठा साती जहा सतभिसया विसाहा जहा उत्तरभदवदा अणुराहा जहा धणिट्टा सयभिसया मूला पुचासादा य जहा पुर्व भद्दपदा उत्तरासाढा जहां उत्तराभद्दवता (सूत्रं ३६) ।। दसमस्स चउत्थं पाहुडपाहुडे समत्तं ॥ 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं त्वया भगवन् योगस्यादिराख्यात इति वदेत् १, इह निश्चयनयमतेन चन्द्रयोगस्यादिः सर्वेषामपि नक्षत्राणामप्रतिनियतकालप्रमाणा, ततः सा करणवशादवगन्तव्या, तच्च करणं ज्योतिष्करॐ ण्डके समस्तीति तट्टीकां कुर्वता तत्रैव सप्रपञ्चं भावितं अतस्ततोऽवधार्य, अत्र तु व्यवहारनयमधिकृत्य बाहुल्येन यस्य नक्षत्रस्य यदा चन्द्रयोगस्यादिर्भवति तमभिधित्सुराह - 'अभी इ' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् द्वे अभिजिच्छ्रवणाख्ये नक्षत्रे पश्चाद्भागे समक्षेत्रे, इहाभिजिन्नक्षत्रं न समक्षेत्रं नाप्यपार्द्धक्षेत्रं नापि यर्द्धक्षेत्रं, केवलं श्रवणनक्षत्रेण सह सम्बद्धमु पात्तमित्यभेदोपचारात् तदपि समक्षेत्रमुपकल्प्य समक्षेत्रमित्युक्तं, सातिरेके कोनचत्वारिंशन्मुहूर्त्तप्रमाणे, तथाहि —स्पतिरेका नव मुहर्त्ता अभिजितस्त्रिंशन्मुहूर्त्ताः श्रवणस्येत्युभयमीलने यथोक्तं मुहूर्त्तपरिमाणं भवति, तत्प्रथमतया - चन्द्रयो| गस्य प्रथमतया सायं-विकालवेलायां, इह दिवसस्य कतितमाच्चरमाद्भागादारभ्य यावद्रात्रेः कतितमो भागो यावन्नाद्यापि परिस्फुटनक्षत्रमण्डला लोकस्तावान् कालविशेषः सायमिति विवक्षितो द्रष्टव्यः तस्मिन् सायंसमये चन्द्रेण सार्द्धं योगं युक्तः, इहाभिजिन्नक्षत्रं यद्यपि युगस्यादौ प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति तथापि श्रवणेन सह सम्बद्धमिह तद्विवक्षितं, श्रवणनक्षत्रं च मध्याहादूर्ध्वमपसरति दिवसे चन्द्रेण सह योगमुपादत्ते ततस्तत्साहचर्यात् तदपि सायंसमये चन्द्रेण mats Fit P&P O ~225~ १० प्राभूते ४ प्राभृतप्राभृतं योगादिः सू ३६ ॥१०६ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] SEXTRESS युज्यमानं विवक्षित्वा सामान्यतः सायं चन्द्रेण 'सद्धिं जोगं जुजति' इत्युक्त, अथवा युगस्यादिमतिरिच्यान्यदार बाहुल्यमधिकृत्येदमुक्कं ततो न कश्चिद्दोषः, 'ततो पच्छा इत्यादि, पश्चात्-तत ऊर्व अपरमन्यं सातिरेक दिवसं यावत्, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति–'एवं खलु'इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण खल्षिति निश्चये अभिजिच्छ्षणे द्वे नक्षत्रे | सायंसमयादारभ्य एकां रात्रि एकं च सातिरेक दिवसं चन्द्रेण सार्द्ध योगं युङ्गः, एतावन्तं च कालं योगं युक्त्वा तद-४ नन्तरं योगमनुपरिवर्तयते, आत्मनश्यावयत इत्यर्थः, योगं चानुपरिवत्वं सायं दिवसस्य कतितमे पश्चाद्धागे चन्द्रं धनिछायाः समर्पयतस्तदेवमभिजिच्छ्रवणधनिष्ठाः सायंसमये चन्द्रेण सह प्रथमतो योगं युञ्जन्ति, तेनामूनि त्रीण्यपि पश्चाद्भागान्यवगन्तव्यानि, 'ता'इत्यादि, ततः समर्पणादनन्तरं धनिष्ठा खलु नक्षत्रं पश्चाद्भाग, सायंसमये तस्य प्रथमतश्चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् , समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायंसमये चन्द्रेण सह योगं युनक्ति, चन्द्रेण सह योगं युक्त्वा ततः सायंसमयादूचं ततः पश्चाद्वात्रिमपरं च दिवसं यावद्योगं युनक्ति, एतदेवोपसंहारच्याजेन व्याचष्टे-एवं खल्वि त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायंसमये चन्द्रं शतभिषजः समर्पयति प्रायः परिस्फुटनक्षत्रमण्डलावलोके, तत | इदं नक्षत्रं नक्तंभागं द्रष्टव्यं, तथा चाह-'ता'इत्यादि, ता इति ततः समर्पणादनन्तरं शतभिषा नक्षत्रं खलु नकभागमपार्द्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त तत्प्रथमतया चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, तच्च तथायुक्तं च सन्न लभते अपरं दिवसं, पञ्चदशमुहर्त्तप्रमाणत्वात् , किन्तु राज्यन्तरेव योगमधिकृत्य परिसमाप्तिमुपैति, तथा चाह-एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावयोगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं पूर्वयोः प्रोष्ठपदयो-भद्रपदयोः समर्पयति, इह पूर्वप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य प्रातश्चन्द्रेण सह प्रथम अनुक्रम [५०] ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सयमजप्तिवृत्तिः प्रत (मल.) ॥१०७॥ सूत्राक [३६]] तया योगः प्रवृत्त इतीदं पूर्वभागमुच्यते, तथा चाहता पुर्वेत्यादि, ततः समर्पणादनन्तरं पूर्वप्रोष्ठपदानक्षत्रं खलु १० प्राभृते पूर्वभागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातश्चन्द्रेण सह योगं युनक्ति, तच्च तथायुक्तं सत् ततः प्रातः समयादूर्व त |४ प्रामृत सकलं दिवसमपरां च रात्रिं यावद्वर्तते, एतदेवोपसंहारव्याजेनाह-एवं खल्वि'त्यादि सुगम यावद्योगमनुपरिवत्यै | प्राभृतं मातश्चन्द्रभुत्तरयोः प्रोष्ठपदयोः समर्पयति, इर्द किलोत्तराभद्रपदाख्य-नक्षत्रमुक्तप्रकारेण प्रातश्चन्द्रेण सह योगमधि योगादिः गच्छति, केवलं प्रथमान् पञ्चदश मुहर्तान् अधिकानपनीय समक्षेत्रं कल्पयित्वा यदा योगश्चिन्त्यते तदा नक्तमपि योगो-II ऽस्तीत्युभयभागमवसेयं, तथा चाह-ता'इत्यादि, ततः समर्पणादनन्तरं (उत्तर) प्रोष्ठपदानक्षत्रं खल्लूभयभार्ग ब्यक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया-योगप्रथमतया प्रातश्चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति, तच्च तथायुक्तं सत्तं सकलमपि दिवसमपरां च रात्रिं ततः पश्चादपरं दिवसं यावद् वर्तते, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति-'एवं खल्वि'त्यादि | सुगर्म, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायंसमये चन्द्र रेवत्याः समर्पयति, तत्र रेवतीनक्षत्रं सायंसमये चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति, ततस्तत्पश्चाद्भागमवसेयं, तथा चाहता रेवई' इत्यादि, 'ता' इति ततः समर्पणादनन्तरं शेष सुगम, इदं च चन्द्रेण सह युक्तं सत्सायंसमयादूई सकलां रात्रि अपरं च दिवस यावच्चन्द्रेण सह युक्तमवतिष्ठते, समक्षेत्रत्वात् , एतदेवोपसंहारत आह–एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायंसमये चन्द्रमश्विन्याः समर्पयति, तत इदमप्यश्विनीनक्षत्र सायंसमये चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् पश्चामागमवसेयं, तथा चाह-'ता'इत्यादि | सुगम, नवरमिदमपि अश्विनीनक्षत्रं समक्षेत्रत्वात् सायंसमयादारभ्य तां सकलां रात्रिमपरं च दिवसं यावचन्द्रेण सह | दीप अनुक्रम [५०] ॥१०७॥ ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] युक्तमवतिष्ठते, एतदेवोपसंहारव्याजेनाह-एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायं प्रायः परिस्फुटनक्षMत्रमण्डलालोकसमये चन्द्र भरण्याः समर्पयति, इदं च भरणीनक्षत्रमुक्तयुक्त्या रात्री चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततो नतं-18 भागमबसेयं, तथा चाहता भरणी'त्यादि, पाठसिद्धं, नवरमिदमपार्द्धक्षेत्रत्वाद्रात्रावेव योग परिसमापयति, ततो न लभते पीचन्द्रेण सह युक्तमपरं दिवस, एतदेवोपसंहारव्याजेन परिस्फुटयति-"एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य | ट्र प्रातश्चन्द्रं कृत्तिकानां समर्पयति, इदं च कृत्तिकानक्षत्रमुक्तयुक्त्या प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः पूर्वभागमवसेयं, एतदेवाह-'ता कत्तियेत्यादि सुगम, नवरमिदं समक्षेत्रत्वात् प्रातःसमयादूर्व सकलं दिवसं ततः पश्चाद्रात्रिं परिपूर्णा चन्द्रेण सह युक्तं वर्तते, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति–एवं खलु'इत्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं रोहिण्याः समर्पयति, इदं च कृत्तिकानक्षत्रं ब्यक्षेत्रं, अतः प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागं प्रतिपत्तव्यं, 'रोहिणी जहा उत्तरभद्दवय'त्ति रोहिणी यथा प्रागुत्तरभद्रपदा उक्ता तथा वक्तव्या, सा चैवम्-'ता रोहिणी खलु नक्खत्ते उभयभागे दिवड्डखेत्ते पणयालीसमुहुत्ते तप्पडमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ अवरं च राई ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु रोहिणीनक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं मिगसिरस्स समप्पेई 'मिगसिरं जहा धणिट्टत्ति मृगशिरा नक्षत्रं यथा प्राग धनि-1 ठोक्ता तथा वक्तव्या, तद्यथा-'ता मिगसिरे नक्खत्ते पच्छंभागे तीसइमुहुत्ते तपढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोग | जोएइ, सायं चंदेण सद्धिं जोर्ग जोएत्ता ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु मिगसिरे नक्खत्ते एग राई एगं च दिवस BREAK अनुक्रम [५०] Fhi ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- चन्देण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोइता जोगं अनुपरियट्टेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अदाए समप्पई' अत्र १० प्राभृते सायमिति प्रायः परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकसमये अत एवैतन्नक्तंभागं, तथा चाह-'अहा जहा सयभिसया' आर्द्रा प्राभृत(मल.) यथा प्राक् शतभिषगभिहिता तथाऽभिधातच्या, सा चैवम्-'ता अद्दा खलु नक्खत्ते नत्तंभागे अबहुखेत्ते पारसमुहुसे प्राभृतं ॥ १ त पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जो जोएइ, नो लभेइ अवरं दिवस, एवं खलु अद्दा एग राई चंदेण सद्धिं जोग जोएडायोगादिः लिलाजोयं जोएता जोय अणुपरियटेड, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं पुणवसूर्ण समप्पेई' इदं च पुनर्वसनक्षत्रं बर्बवे- ११ त्रत्वात् प्रागुक्तयुक्तः उभयभागमवसेयं, तथा चाह-पुणवसू जहा उत्तरभवया पुनर्वसुनक्षत्रं यथा प्राक् उत्तरभद्रपदानक्षत्रमुक तथा वक्तव्यं, तच्चैवम्-'ता पुणवसू खलु नक्खत्ते उभयभागे दिवडलेते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, अपरं च राई ततो पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु पुणधसू नक्खत्ते दो दिवसे एगं च राईचंदेण सर्बि जो जोपइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुस्सस्स समप्येह' इदं च पुष्यनक्षवं सायंसमये दिवसावसानरूपे चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति, ततः पश्चादागमवसेयं, तथा चाह| 'पुस्सो जहा पणिहा' पुष्यो यथा पूर्व धनिष्ठाऽभिहिता तथाऽभिधातव्या, तयथा-ता पुस्से खलु नक्खते पच्छभागे ४ समक्खे से तीसइमुहुत्ते तप्पडमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोर्य जोएइ जोयं जोएचा ततो परछा अवरं दिवस, एवं खलु पुस्से १०८। नक्खत्ते एग राई एगं च दिवस चंदेण सद्धिं जोय जोएड, जोगं जोइत्ता जोग अणुपरियट्टे जोगं अणुपरियट्टित्ता साया चेदं असिलेसाए समप्पेइ,' इदं चाश्लेपानक्षत्रं सायंसमये-परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकरूपे प्रायश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, अनुक्रम [५०] F OR ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * प्रत * सूत्रांक * [३६] * तत इदं नकभागमवसेयं, अपार्द्धक्षेत्रत्वाच तस्यामेव रात्री योग परिसमापयति, तथा चाह-'असलेसा जहा सयभिसया' यथा शतभिषक् प्रागभिहिता तथा अश्लेषापि वक्तव्या, सा चैवम्-'ता असिलेसा खलु नक्खत्ते नतंभागे अवडखेत्ते ४ पारसमुहत्ते तप्पडमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जो जोएत्ता नो लभइ अवरं दिवस, एवं खलु असिलेसान-1 क्खते एग राई चंदेण सबिंजोगं जोएह जोयं जोइता जोग अणुपरियडेह, जोग अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं मघाणं समप्पेइ,' इर्द च मधानक्षत्रमुक्तयुक्त्या पातश्चन्द्रेण सह योगमश्नुते, तत' पूर्वभागमवसातव्यं, तथा चाह-मघा यथा | पूर्वफाल्गुनी तथा द्रष्टव्या, तद्यथा-'ता मघा खलु नक्खत्ते पुषभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ ततो पच्छा अवरं राई, एवं खलु मघानक्वत्ते एग दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोइता जोगं अणुपरियदेव जोगं अणुपरियहित्ता पाओ चंदं पुवफग्गुणीणं समप्पेइ,' इदमपि पूर्वफाल्गुनीनक्षत्र प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुक्तनीत्या समधिगच्छति, ततः पूर्वभागं प्रत्येतव्यं, तथा चाह-'पुषाफग्गुणी जहा पुचभद्दवया, यथा प्राक् पूर्वभाद्रपदाऽभिहिता तथा पूर्वफाल्गुन्यष्यभिधातव्या, तद्यथा-'ता पुषफग्गुणी खलु नक्खसे पुषभागे सम-1 खित्ते तीसश्मुहुत्ते तपढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोइं जोएइ, ततो पच्छा अवरं राई, एवं खलु पुवाफग्गुणीनक्खत्ते पांच दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियडेइ जोगं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं| स्वराणं फस्गुणीणं समप्पेई एतच्चोत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं बर्बक्षेत्रमतः प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागं वेदितव्यं, तथा चाह-- चरफराणी जहा उत्तरभदयया' यथा प्रागुत्तरभद्रपदोक्का तथोत्तरफाल्गुन्यपि वक्तव्या, सा चैव-'उत्तरफग्गुणी * अनुक्रम [५०] C + ल ~230~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यमझप्तिवृत्तिः (मल.) ॥१०॥ खलु णक्खत्ते पणयालीसइमुहुसे तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं च दिवस, १. प्रामृते एवं खलु उत्तरफग्गुणीनक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ जोग प्राभृत| अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं हत्थस्स समप्पेइ,' इदं च हस्तनक्षत्रं सायं-दिवसावसानसमये चन्द्रेण सह योगमधिरोहति प्राभूत तेन पश्चामागमवसेयं, चित्रानक्षत्रं तु किश्चित्समधिके दिवसावसाने चन्द्रयोगमधिगच्छति, ततस्तदपि पश्चाद्भाग मन्तव्यं, 31 पैतदेवाह-'हत्थो चित्ता य जहा धणिट्ठा' यथा धनिष्ठा तथा हस्तं चित्रा च वक्तव्या, तद्यधा-सा हत्थे खलु णक्खत्ते. पच्छंभागे समक्खित्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु हत्थनक्खचे एग राई एगं च दिवस चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ जोगं अणुपरियहित्ता सायं चंदं चित्ताए समप्पे 'त्ति, 'ता चित्ता खलु नक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएड, ततो पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु चित्ता नक्खत्ते एग राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं. जोएइ, जोयं जोइत्ता जोगं अणुपरियडे जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं साईए समष्पेई, स्वातिश्च सायं-प्रायः परि-18 ॥१०॥ स्फुटदृश्यमाननक्षत्रमण्डलरूपे चन्द्रेण सह योगमुपैति, तत इयं नक्तंभागा प्रत्येया, तथा चाह-'साई जहां सयभिसया, यथा शतभिषक् तथा वक्तन्या, सा चैवम् – 'साई खलु नक्खत्ते नभागे अवहुखेत्ते पन्नरसमुहुत्ते तप्परमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, नो लभेइ अवरं दिवस, एवं खलु साई नक्खत्ते एग राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोग जोइत्ता जोग अणुपरियट्टे जोग अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं विसाहाणं समप्पई' इदं च विशाखानक्षत्रं व्य.क्षेत्रं, अतः अनुक्रम [५०] ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: HE प्रत सूत्रांक * [३६] * AS प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागमवगन्तव्यं, तथा चाह-'विसाहा जहा उत्सरंभदयया' यथा उत्तरभद्रपदा तथा विशाखा वक्तव्या, तद्यथा-'ता विसाहा खलु नक्खत्ते उभयंभागे दिवङखिते पणयालीसमुहत्ते तपढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं * जोएइ अवरं च राई, तओ पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु विसाहानक्खत्ते दो दिवसं एगं च राई चंदेणं सद्धिं जोग जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियडेइ जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अणुराहाए समप्पेई', तत एवमनुराधानक्षत्रं सायंसमये-दिवसावसानरूपे चन्द्रेण सह योगमुपैतीति पश्चाद्भागमवसेयं, तथा चाह-'अणुराहा जहा धणिवा' यथा धनिष्ठा तथाऽनुराधा वक्तव्या, सा चैवम्-'अणुराधा खलु नक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ हुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, तओ पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु अणुराहा नक्खत्ते एगं राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ जोइत्ता'जोगं अणुपरियट्टेइ जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं जिहाए समप्पेई' ज्येष्ठायाश्च सार्यसमये समर्पयति, प्रायः परिस्फुटं दृश्यमाने नक्षत्रमण्डले, तत इदं ज्येष्ठानक्षत्रं नक्तंभागमवसेयं, तथा चाह-'जिट्ठा जहा सयभिसया'. यथा शतभिषक् तथा ज्येष्ठा वक्तव्या, तद्यथा-'ता जेट्ठा खलु नक्खत्ते नत्तंभागे अबहुखेत्ते पन्नरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जो जोएइ, नो लभइ अवर दिवस, एवं खलु जिद्वानक्खत्ते एगं राई चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोग जोइता जोगं अणुपरियट्टेइ, जोगं अणुपरियहित्ता पातो चंदं मूलस्स समप्पेई' मूलनक्षत्रं चेदमुक्तलयुक्त्या प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपागच्छत् पूर्वभागमबसेयं, तथा चाह–'मूलो जहा पुषभहवया' यथा पूर्वभद्रपदा तथा |मूलनक्षत्रमभिधातव्यं, तश्चैवम्-ता मूले खलु नक्खत्ते पुचंभागे समक्खित्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धि *5*5 अनुक्रम [५०] ~232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- % प्रत (मल.) ॥११॥ 85% जोगं जोएइ, तओ पच्छा अवरं च राई, एवं खलु मूलनक्खत्वं एगं च दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोग १० प्राभूते जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं पुत्रासादाणं समप्पेई' इदमपि पूर्वाषाढानक्षत्रं प्रातश्चन्द्रेण प्राभृत|सह योगमुक्तयुक्त्या समुपैति इति पूर्वभागं विज्ञेयं, एतदेवाह-'पुवासादा जहा पुचभवया,' यथा पूर्वभद्रपदा तथा ४ प्राभूत सू३६ पूर्वापाढा वक्तव्या, सा चैवम्-'ता पुषासाढा खलु नक्खत्ते पुवभागे समकूखेत्ते तीसइमुहुचे तप्पडमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, अवरं च राई, एवं खलु पुवासादानक्खत्ते एगं च दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोग जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ जोग अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं उत्तरासाढाणं समप्पेई', उत्तराषाढानक्षत्रं च बर्द्धक्षेत्र-४ त्वादुभयभागमवसेयं, तथा चाह-'उत्तरासादा जहा उत्तरभद्दवया' यथा उत्तरभद्रपदा तथा उत्तराषाढा वक्तव्या, तद्यथा-'उत्तरासादा खलु नक्खत्ते उभयंभागे दिवङखेत्ते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोर्ग जोएइ अवरं च राई तओ पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु उत्तरासाढानखत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, जोगं जोइत्ता सायं चंदमभिईसवणाणं समप्पेइ, तदेवं बाहुल्यमधिकृत्योकप्रकारेण यथोक्तेषु कालेषु नक्षत्राणि |॥११०॥ चन्द्रेण सह योगमुपयन्ति, ततः कानिचित्पूर्वभागानि कानिचित्पश्चादागानि कानिचिन्नक्तंभागानि कानिचिदुभयभागान्युक्तानीति ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं-४ समाप्तं * अनुक्रम [५०] FirmaaMAPINANORN ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [५], -------------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३७]] C । । तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्थं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति पश्चममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो-यथा 'कुलानि | वक्तव्यानीति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते कुला आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमे वारस कुला वारस अवकुला चत्तारि कुलोचकुला, वारसा कुला, तंजहा-धणिहाकुलं उत्तराभवताकुलं अस्सिणीकुलं कत्तियाकुलं संठाणाकुलं पुस्साकुलं महाकुलं| उत्तराफरगुणीकुलं चित्ताकुलं विसाहाकुलं मूलाकुलं उत्तरासाढाकुलं,बारस उवकुला, तंजहा-सवणो उपकुलं पुवपट्ठवताउवकुलं रेवतीवकुलं भरणीउपकुलं पुणवसुज्वकुल अस्सेसावकुलं पुषाफग्गुणीजवकुलं हत्याउन चकुलं सातीयकुलं जेट्ठाजयकुलं पुवासाढाउचकुलं, चत्तारि कुलोवकुलातं०-अभीयीकुलोवकुलं सतभिसयाकुलोबकुलं अद्धाकुलोवकुलं अणुराधाकुलोवकुलं (सूत्रं ३७)॥दसमस्स पाहुष्टस्स पंचमं पाहुड पाहुढं समत्तं । | 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया कुलान्याख्यातानीति वदेतु , एवमुक्त भगवानाह-'तत्थे'त्यादि, इह न केवलं भगवता कुलान्येवाख्यातानि किंतूपकुलानि कुलोपकुलानि च, ततो निर्धारणार्थप्रतिपत्त्यर्थ तत्रेति, भगवान् ब्रूते-'तत्र' तेषां कुलादीनां मध्ये खल्विमानि द्वादश कुलानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , इमे इति च प्रतिपदमभिसम्बध्यते, इमानि वक्ष्यमाणस्वरूपाणि द्वादश उपकुलानि, इमानि-वक्ष्यमाणस्वरूपाणि चत्वारि कुलोपकुलानि प्रज्ञप्तानि, अथ किं कुलादीनां लक्षणम्, उच्यते, इह नक्षत्रैः प्रायः सदामासानां परिसमाप्तय उपजायन्ते माससदृशमामानि च तानि नक्षत्राणि कुलानीति प्रसिद्धानि, तद्यथा-श्राविष्ठो मासः प्रायः श्रविष्ठया धनिष्ठापरपर्यायया परिसमा अनुक्रम [५१] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ४ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ५ आरभ्यते ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [५१] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [ ५ ], प्राभृत [१०], मूलं [३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः ( मल० ) ॥ १११ ॥ तिमुपैति १ भाद्रपद उत्तरभद्रपदया २ अश्वयुक् अश्विन्या इति ३, धनिष्ठादीनि प्रायो मासपरिसमापकानि माससदशनामानि कुलानि यानि च कुलानामुपकुलानां चाधस्तनानि तानि कुलोपकुलानि अभिजिदादीनि चत्वारि नक्षत्राणि, उक्तं च - "मासाणं परिणामा हुँति कुला उबकुला उ हिडिमगा । हुंति पुण कुलोवकुला अभिईसयभद्दअणुराहा ॥ १ ॥ अत्र 'मासाणं परिणामा' इति प्रायो मासानां परिसमापकानि कचित् 'मासाण सरिसनामा' इति पाठः, तत्र मासानां सदृशनामानीति व्याख्येयं, 'सय'त्ति शतभिषक, शेषं सुगमं, सम्प्रति यानि द्वादश कुलानि यानि च द्वादश उपकुलानि यानि च चत्वारि कुलोपकुलानि तानि क्रमेण कथयति 'बारस कुला तंजहा इत्यादि सुगमं ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ५ समाप्तं तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य पश्थमं प्राभृतप्राभृर्त, सम्प्रति षष्ठमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः- यथा पाणमास्योऽमावास्यश्च वक्तव्या' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता- कहं ते पुण्णिमासिणी आहितेति वदेज्जा १, तस्थ खलु इमाओ बारस पुण्णिमासिणीओ बारस अमावासाओ पण्णत्ताओ, तंजहा- साविट्ठी पोहबती आसोया कत्तिया मग्गसिरी पोसी माही फग्गुणी देती विसाही जेट्ठामूली आसाठी, ता साविद्विष्णं पुण्णमासिं कति णक्खत्ता जोएति १, ता तिष्णि णक्खता जोइंति, तं० - अभिई सवणो घणिट्ठा, ता पुढवती, पुवतीष्णं पुष्णिमं कति णक्लसा F&PO अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ५ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ६ आरभ्यते ~235~ १० प्राभृते ५ प्राभृत प्राभृतं कुलादि सू ३७ ॥ १११ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] जोएंति, ता तिनि नक्खत्ता जोयंति, तं०-सतिभिसया पुवासाढवती उत्तरापट्टवता, ता आसोदिण्णं पुण्णिमं| कति णक्खत्सा जोएंति, ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-रेवती य अस्सिणी य, कत्तियण्णं पुण्णिम कति णक्खता जोएंति !, ता दोणि णक्खत्ता जोएंति तं०-भरणी कत्तिया य, ता मागसिरीपुन्निम कति णक्खत्ता जोएंति , ता दोणि णवत्ता जोएंति, तं०-रोहिणी मग्गसिरो य, ता पोसिपणं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति ?, ता तिणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-अहा पुणवसू पुस्सो, ता माहिण्णं पुषिणम कति णवत्ता जोएंति , ता दोणि नक्खत्ता जोयंति, सं०-अस्सेसा महा य, ता फग्गुणीण लापुषिणमं कति णक्खत्ता जोएंति , ता दुन्नि नक्खत्ता जोएंति, तं०-पुवाफग्गुणी उत्तराफरगुणी य,x ता चित्तिषणं पुषिणमं कति णक्लत्ता जोएंति , ता दोणितं०-हत्थो चित्ता य, ता विसाहिणं पुषिणम कति णक्खत्ता जोएंति ?, दोणि णक्खत्ता जोएंति तं०-साती विसाहा य, ता जेवामूलिण्णं पुण्णिमासिपणं कति णक्वत्ता जोएंति !, ता तिन्नि णक्खत्सा जोयंति, तं०-अणुराहा जेट्ठा मूलो, आसाढिपणं पुषिणमं कति णक्खता जोएंति ?, ता दो णक्खत्ता जोएंति, तं०-पुवासाढा उत्तरासादा (सूत्रं ३८)॥ 'ता कहते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं । केन प्रकारेण केन नक्षत्रेण परिसमाप्यमाना इत्यर्थः, पौर्णामास्य आख्याताः, अश्र पौर्णमासीग्रहणममावास्योपलक्षणं, तेन कथममावास्या अभ्याख्याता इति वदेत्, एवमुक्ते भगवानाह'तस्थेत्यादि, तत्र-तासां पौर्णमासीनाममावास्यानां च मध्ये जातिभेदमधिकृत्य खस्विमा द्वादश पौर्णमास्यो द्वादश टीप अनुक्रम [१२] Fhi ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [५२] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [३८] ----- प्राभूतप्राभूत] [5]. प्राभृत [10] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७], उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥११२ ॥ " चेमा अमावास्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - 'श्राविष्ठी प्रोष्ठपदी' इत्यादि, तत्र श्रविष्ठा धनिष्ठा तस्यां भवा श्राविष्ठी - श्रावण| मासभाविनी प्रोष्ठपदा-उत्तरभाद्रपदां तस्यां भवा प्रोष्ठपदी- भाद्रपदमासभाविनी, अश्वयुजि भवा आश्वयुजी अश्वयुगमास भाविनी, एवं मासक्रमेण तत्तन्नामानुरूपनक्षत्रयोगात् शेषा अपि वक्तव्याः । सम्प्रति यैर्नक्षत्रैरेकैका पूर्णमासी परिसमाप्यते तानि पिपृच्छपुराह-'ता सावहिन्न' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् श्रविष्ठ पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युअंति ? - कति नक्षत्राणि चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्ति, भगवानाह - 'ता तिन्नि' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति त्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह यर्थायोगं संयुज्य परिसमापयन्ति, तद्यथा-अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा च, इह श्रवणधनिष्ठारूपे द्वे एव नक्षत्रे श्राविष्ठीं पौर्णमासीं परिसमापयतः, केवलमभिजिन्नक्षत्रं श्रवणेन सह सम्बद्धमिति तदपि परिसमापयतीत्युक्तं कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह प्रवचन प्रसिद्धममावास्यापौर्णमासीविषयंचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थमिदं करणम् " Eration intimatin ➖➖➖➖➖➖➖ नामिह अमावासं जह इच्छसि कम्भि होइ रिक्खम्मि । अवहारं ठरविज्जा तत्चियरूवेहि संगुण ॥ १ ॥ छायट्ठी य मुहुत्ता बिसट्ठिभागा य पंच पडिपुना । बासट्टिभागसचडिगो य इको हवछ भागो ॥ २ ॥ एयमवहाररासि इच्छअमावाससंगुणं कुज्जा । नक्खताणं एतो सोहण विद्दि निसामेह ॥ ३ ॥ बाबीसं च मुहुधा छायालीसं विसट्टिभागा य एवं पुणबसुस्स य सोहेयचं हवइ बुच्छं ॥ ४ ॥ बावचरं सयं फग्गुणीणं बाणउइय वे विसाहामु । चत्तारि अ बायाला सोज्झा अह उत्तरासादा ॥ ५ ॥ एवं पुणबसुस्स य बिसट्टिभागसहियं तु सोहणगं । इत्तो अमिईआई विइयं वृच्छामि सोहणगं ॥ ६ ॥ अभिहस्स नव मुहुत्ता बिसट्टिभागा य हुति चडवीसं । छाबट्टी असमता F&P Onl --- ~237~ १० प्राभृते ६ प्राभूतप्राभृतं पूर्णिमादि नक्षत्रं सू ३८ ॥ ११२ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] भागा सहिछेअकया ॥ ७॥ उगुणहूं पोट्टवयातिसु चेव नवोत्तरं च रोहिणिया । तिसु नवनवएसु भवे पुणवसू फग्गुणीओ य ॥८॥ पंचेव उगुणपनं सयाइ उगुणुत्तराई छवेव । सोज्झाणि विसाहासुं मूले सत्तेव नोआला ॥ ९॥ अट्ठसय उगुणवीसा सोहणगं उत्तराण साढाणं । चउवीसं खल भागा छाबडी चुण्णिआओ य ॥ १०॥ एआइ सोहइत्ता जं सेसं तं हवेह नक्षत्तं । इत्थं करेइ उडुवइ सूरेण |सम अमावास ॥ ११ ॥ इच्छापुनिमगुणिओ अबहारो सोत्थ होइ काययो । तं चेव य सोहणगं अभिई आई तु कायर्व ॥ १२ ॥ सुद्धमि|5 अ सोहणगे जं सेसं तं भविज नक्खतं । तत्थ य करेइ उडुबइ पडिपुन्नो पुन्निमं विउलं ॥ १३ ॥ | एतासां गाथानां क्रमेण व्याख्या-याममावास्यामिह-युगे ज्ञातुमिच्छसि, यथा कस्मिन्नक्षत्रे वर्तमाना परिसमाता भवतीति तावद्रूपैर्यावत्योऽमावास्या अतिक्रान्तास्तावत्याः सङ्ग्याया इत्यर्थः, वक्ष्यमाणस्वरूपं अवधार्यते-प्रथमतया स्था-12 प्यते इलाधार्यो-ध्रुवराशिस्तमवधार्यराशिं पट्टिकादौ स्थापयित्वा चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सङ्गणयेत्, अथ किंप्रमा-४ णोऽसाववधार्यों राशिरिति तत्प्रमाणनिरूपणार्थमाह-'छावड्डी' गाहा, षट्पष्टिर्मुहतो एकस्य च मुहर्तस्य पञ्च परिपूर्णा द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टितमो भागः, एतावत्प्रमाणोऽवधार्यराशिः, कथमेतावत्प्रमाणस्यास्योत्पत्तिरिति चेत् !, उच्यते, इह यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१२४ । ५।२। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चलक्षणो गुण्यते, जाता दश, तेषां चतुविशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, तत्र छेद्यच्छेदकराश्योर्द्विकेनापवर्तना क्रियते, जात उपरितनश्छेद्यो राशिः पथकरूपोऽऽधस्तनो द्वापष्टिरूपः, लब्धाः पञ्च द्वापष्टिभागाः, एतेन नक्षत्राणि कर्तव्यानीति नक्षत्रकरणार्थमष्टा टीप अनुक्रम [१२] ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] सूर्यप्रज्ञ- दशभिः शतस्त्रिंशदधिकः सप्तपष्टिभागरूपैर्गुण्यन्ते, जातान्येकनवतिः शतानि पश्चाशदधिकानि ९१५०, छेदराशिरपि१० प्राभृते विवृत्तिःलाद्वापष्टिप्रमाणः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि ४१५४, उपरितनराशिर्मुहूर्त्तान-14 ६प्राभूत प्राभूत यनाय भूयखिं शता गुण्यते, जाते द्वे लक्षे चतुःसप्ततिः सहस्राणि पञ्च शतानि २७४५००, तेषां चतुष्पश्चाशदधिकैकच पूर्णिमादि ॥११॥ त्वारिंशच्छतैर्भागहरणं, लब्धाः षट्षष्टिर्मुहर्ताः ६६, शेषा अंशास्तिष्ठन्ति त्रीणि शतानि पत्रिंशदधिकानि ३३६, ततो नक्षत्रं द्वापष्टिभागानयनार्थं तानि द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि विंशतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि द्वात्रिंशदधिकानि २०८३२, सू३८ तेषामनन्तरोक्तेन छेदराशिना ४१५४ भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्च द्वापष्टिभागाः ५, शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिः, ततस्तस्या द्वापट्या अपवर्तना क्रियते, जात एककः, छेदराशेरपि द्वाषट्याऽपवर्तनायां लब्धाः सप्तपष्टिः, तत आगतं षट्पष्टिद्वों एकस्य च मुहूर्तस्य पश्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इति, तदेवमुक्तमवधायराशिप्रमाण, सम्पति शेषविधिमाह-'एयमवहारे'त्यादि, एतं-अनन्तरोदितस्वरूपमवधार्यराशिमिरछाऽमावास्यासंगुणं-याममामावास्यां ज्ञातुमिच्छसि तत्सलया गुणितं कुर्यात्, अत ऊर्च च नक्षत्राणि शोधनीयानि, ततोऽत ऊर्च नक्षत्राणां शोधनक विधि-शोधनकप्रकारं वक्ष्यमाणं निशमयत-आकर्णयत । तत्र प्रथमतः पुनर्वसुशोधनकमाह-यावीसं'चेत्यादिगाथा, द्वाविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः एतद्-एतावत्प्रमाणं पुनर्वसुनक्षत्रस्य परिपूर्ण भवति । शोद्धव्यं, कथमेवं प्रमाणस्य शोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत् १, उच्यते, इह यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पश्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदैक पर्वातिक्रम्य कतिपयास्तेनैकेन पर्वणा लभ्यन्ते !, राशित्रयस्थापना-१२४ । ५। १ । अत्रान्त्येन अनुक्रम [२] ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [५२] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) ---- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [३८] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः राशिना एक लक्षणेन मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाताः पश्चैव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् तेषां चतु विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः पश्च चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः, ततो नक्षत्रानयनार्थमेतेऽष्टादशभिः शतैस्त्रिशदधिकैः सप्तषष्टिभागरूपैः गुणयितव्या इति, गुणकारच्छेदराश्योर्द्विकेनापवर्त्तना, जातो गुणकारराशिर्नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिद्वषष्टिः ६२, ततः पश्च नवभिः पञ्चदशोत्तरैः शतैर्गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ४५७५, छेदराशिद्वषष्टिलक्षणः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि ४१५४, तथा पुष्यस्य ये त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्राक्तनयुगचरम पर्वणि सूर्येण सह योगमायान्ति ते द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि षविंशत्यधिकानि १४२६, एतानि प्राक्तनात् पञ्चसप्तत्यधिकपञ्चचत्वारिंशच्छतप्रमाणात् शोध्यन्ते, शेषं तिष्ठन्ति एकत्रिंशच्छतानि एकोनपञ्चाशदधिकानि ३१४९, तत एतानि मुहर्त्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुर्णवतिः सहस्राणि चत्वारि शतानि सप्तत्यधिकानि ९४४७०, तेषां छेदराशिना चतुष्पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छतरूपेण भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहर्त्ताः शेषं तिष्ठन्ति त्रीणि सहस्राणि व्यशीत्यधिकानि २०८२, एतानि द्वाषष्टिभागानयनार्थं द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षमेकनवतिः सहस्राणि चतुरशीत्यधिकानि १९१० - ८४, तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लब्धाः षट्चत्वारिंशन्मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागाः, एषा पुनर्वसुनक्षत्रस्य शोधनकनिष्पत्तिः । शेषनक्षत्राणां शोधनकान्याह 'बावन्तरं सय मित्यादि, द्वासप्ततं द्विसप्तत्यधिकं शतं फाल्गुनीनां - उत्तरफाल्गुनीनां शोध्यं किमुक्तं भवति ? - द्विसप्तत्यधिकेन शतेन पुनर्वसुप्रभृतीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति, Jan Eaton Intimatinal F&P On ~240~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: तिवृत्तिः प्रत (मल०) सूत्राक ॥११४॥ [३८] एवमुत्तरत्रापि भावार्थो भावनीयः, तथा विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु शोधनकं वे शते द्विनवत्यधिके २९२, अथा-IP१. प्राभूत नन्तमुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राण्यधिकृत्य शोध्यानि चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि ४४२, 'एयं पुणे'त्यादि-18 |६माभृतगाथा, एतदनन्तरोत शोधनकं सकलमपि पुनर्वसुसत्कद्वाषष्टिभागसहितमवसेयं, एतदुक्तं भवति-ये पुनर्वसुसत्का द्वाविं- प्राभृतंशतिर्मुहस्तेि सर्वेऽप्युत्तरस्मिन् शोधनकेऽन्तःप्रविष्टाः प्रवर्तन्ते, नतु द्वापष्टिभागाः, ततो यद्यच्छोधनक शोध्यते तत्र पूर्णिमादि तत्र पुनर्वसुसत्काः षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा उपरितना शोधनीया इति, एतच्च पुनर्वसुप्रभृत्युत्तराषाढापर्यन्तं प्रथम नक्षत्रं सू ३८ शोधनकं, अत ऊर्ध्वमभिजितमादिं कृत्वा द्वितीयं शोधनकं वक्ष्यामि, तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-'अभिहस्से'त्यादिगाथाचतुष्टयं, अभिजितो नक्षत्रस्य शोधनकं नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सत्काश्चतुर्विंशतिषिष्टिभागार, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिश्छेदकृताः परिपूर्णाः षट्पष्टिभागाः, तथा एकोनषष्ट-एकोनषष्ट्यधिक शतं प्रोष्ठपदानां-उत्तरभद्रपद्मनां शोधनक, किमुक्कं भवति : एकोनषष्यधिकेन शतेनाभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि गुजयन्ति, एवमुत्तरत्रापि भावना कर्तव्या, तथा त्रिषु नषोत्तरेषु शतेषु रोहिणिका-रोहिणिपर्यन्तानि शुक्ष्यन्ति, तथा त्रिषु नवनवतेषु-नवनवत्यधिकेषु शतेषु शोधितेषु पुनर्वसुपर्यन्तं नक्षत्रजातं शुद्ध्यति, तथा एकोनपश्चाशदधिकानि पञ्च शतानि प्राप्य मा॥११४॥ फाल्गुन्यश्च-उत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति, विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु एकोनसप्तत्यधिकानि | षट् शतानि ६६९ शोभ्यानि, मूलपर्यन्ते नक्षत्र जाते सप्त शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि शोभ्यानि ७४४, उत्तराषाढाना-12 उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकमष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि ८१९, सर्वेष्वपि च शोधनेषूपरि अभिजितो अनुक्रम [२] FitraalMAPINAMORE ~241~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [५२] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) ---- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [३८] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः Jan Eat In नक्षत्रस्य सम्बन्धिनो मुहर्त्तस्य द्वाषष्टिभागाश्चतुर्विंशतिः षट्षष्टिश्च चूर्णिकाभागा एकस्य द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः शोधनीयाः, 'एयाई' इत्यादि, एतान्यनन्तरोदितानि शोधनकानि यथायोगं शोधयित्वा यच्छेषमवतिष्ठते तद्भवति नक्षत्रं, एतस्मिंश्च नक्षत्रे करोति सूर्येण सममुडुपतिरमावास्यामिति । तदेवममावास्याविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थे करणमुक्तं, सम्प्रति पौर्णमासीविषय चन्द्रयोगपरिज्ञानार्थं करणमाह-- 'इच्छापुनिमे' त्यादि, यः पूर्वममावास्याचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानार्थमवधार्यराशिरुक्तः स एवात्रापि पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्र परिज्ञानविधौ ईप्सितपौर्णमासीगुणितो-यां पौर्णमासीं ज्ञातुमि|च्छति तत्साया गुणितः कर्त्तव्यः, गुणिते च सति तदेव पूर्वोक्तं शोधनं कर्त्तव्यं, केवलमभिजिदादिकं नतु पुनर्वसुप्रभृ तिकं, शुद्धे च शोधनके यत् शेषमवतिष्ठते तद्भवेनक्षत्रं पौर्णमासीयुक्त तस्मिंश्च नक्षत्रे करोति उडुपतिः- चन्द्रमाः परिपूर्णः पूर्णमासी विमलामिति । एष पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्र परिज्ञानविषय करणगाथाद्वयाक्षरार्थः, सम्प्रत्यस्यैव भावना क्रियतेकोऽपि पृच्छति-युगस्यादौ प्रथमा पौर्णमासी श्राविष्ठी कस्मिंश्चन्द्रनक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति ?, तत्र पट्षष्टिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभाग इत्येवंरूपोऽवधार्यराशिर्धियते, प्रथमायां किल पौर्णमास्यां पृष्टमित्येकेन गुण्यते, एकेन गुणितं तदेव भवति, ततस्तस्मादभिजितो नव मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा इत्येवंपरिमाणं शोधनकं शोधनीयं तत्र षट्षष्टेर्नव मुहूर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पञ्चात्सप्तपञ्चाशत्, तेभ्य एको मुहूर्त्ते गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीकृतस्ते च द्वाषष्टिरपि द्वाषष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जानाः सप्तषष्टिः द्वाषष्टिभागास्तेभ्यश्चतुर्विंशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्चानि चत्वारिंशत्, तेभ्य एकं रूपमादाय सप्तप F&P U O ~ 242~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) ---- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [३८] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञ तिवृत्तिः ( मल० ) ॥११५ ।। Eatont ष्टिभागीक्रियते, ते च सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तषष्टिभागैकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागास्तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः स्थितौ पश्चाद् द्वौ सप्तषष्टिभागौ, ततस्त्रिंशता मुहतैः श्रवणः शुद्धः स्थिताः पश्चान्मुहूर्त्ताः पविंशतिः, तत इदमागतं - धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्त्तेष्वेकस्य मुहूर्त्तस्य एकोनविंशतिसत्येषु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टिषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमाप्तिमेति । यदा तु द्वितीया श्राविष्ठी पौर्णमासी चिन्त्यते तदा सा युगस्यादित आरभ्य त्रयोदशी, ध्रुवराशिः ६६ ।। त्रयोदशभिर्गुण्यते, जाता मुहूर्त्तानामष्टौ शतानि अष्टापञ्चाशदधिकानि ८५८, एकस्य च मुहर्त्तस्य पञ्चषष्टिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः ८५८ । ई तत्राष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकैर्मुहर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कैः षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरेको नक्षत्रपर्यायः शुद्धः, ततः स्थिताः पश्चादेकोनचत्वारिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः ३९ । ततो नवभिर्मुहूर्त्तेरेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्रं शुद्धयति, स्थिताः पश्चात्रिंशन्मुहूर्त्ताः पञ्चदश मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्चदश सप्तषष्टिभागाः ३० । तेभ्यस्त्रिंशता श्रवणः शुद्धः आगतं एकोनत्रिंशतिमुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु धनिष्ठायां द्वितीया श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमाप्तिमेति । यदा तु तृतीया श्रविष्ठी पौर्णमासी चिन्त्यते तदा सा युगस्यादितः पञ्चविंशतितमेति पूर्वोक्तो ध्रुवराशिः ६६ । रे । उ पञ्चविंशत्या गुण्यते, जातानि षोडश शतानि पञ्चाशदधिकानि F&P U O ~243~ १० प्राभृते ६ प्राभृत प्राभृतं पूर्णिमादि नक्षत्रं सू ३८ ॥ ११५ ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] १६५०, एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चविंशं शतं द्वाषष्टिभागानां १२५ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तपष्टिभागाः| २५. तत्र षोडशभिः शतैरष्टात्रिंशदधिक १६२८ मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्याष्टाचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैः ४८ एकस्य है च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिकेन शतेन १३२ द्वौ नक्षत्रपर्यायौ शुन्यतः, स्थिताः पश्चाद् द्वादश मुहूर्ताः १२ एकस्य च टै मुहर्तस्य पश्चसप्ततिषिष्टिभागाः ७५ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २७, ततो नवभिर्मुहरेकस्य |च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्रं शुक्ष्यति, स्थिताः पश्चाप्रयोदश मुहूर्ताः १३ एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चाशद् द्वापष्टिभागाः १६ एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २४, आगतं श्रवणनक्षत्रं षड्रिंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनचस्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयां श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयति, एवं चतुर्थी श्राविष्ठी पौर्णमासी धनिष्ठानक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च सुमुहूर्त्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, पञ्चमी श्राविष्ठी पौर्णमासी श्रवणनक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च सुमुहूर्तस्य षष्टिसक्येषु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य द्वापष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमाप्तिं नयतीति । तदेवं यानि नक्षत्राणि श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयन्ति तान्युक्तानि, सम्पति यानि प्रोष्ठपदी समापयन्ति तान्याह-ता पोढवइपण'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, प्रोष्ठपदर्दी-भाद्रपदी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति-कति नक्षत्राणि यथायोग चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्तीत्यर्थः, एवं सर्वत्रापि युञ्जन्तीत्यस्य पदस्य भावना कर्तव्या, भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'ता'इति पूर्व टीप अनुक्रम [१२] *SH ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यमज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक ॥११६॥ वत् , त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-शतभिषकू पूर्वप्रोष्ठपदा उत्तरप्रोष्ठपदा च, तत्र प्रथमा प्रोष्ठपदी पौर्णमासीमुत्तर १०प्राभूते भद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेषु चतुःषष्टी सप्तपष्टिभागेदु शेषेषु परिस-भाभतमाप्ति नयति, द्वितीयां प्रौष्ठपदी पौर्णमास पूर्वभद्रपदानक्षत्रमष्टसु मुहुर्तेषु शेषेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्यैकचत्वारिंशति द्वाप- प्राभृतं |ष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकपश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति, तृतीयां प्रौष्ठपदी पौर्णमासीं शतभिषक् पूर्णिमादि पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य पट्सु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु,श नक्षत्र चतुर्थी प्रौष्ठपदी पौर्णमासी उत्तरभाद्रपदानक्षत्रं चत्वारिंशति मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य सू ३८ |च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी प्रौष्ठपदी पौर्णमासी पूर्वभद्रपदानक्षत्रमेकविंशती मुहतें बेकस्य च मुहूर्तस्य पश्चपश्चााति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकादशसु सप्तपष्टिभागेषु शेपेषु परिणमयसि, 'ता आसोई 'मित्यादि, आश्वयुजी णमिति वाक्यलङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति १, भगवानाह'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-रेवती अश्विनी च, इहोत्तरभद्रपदानक्षत्रमपि कांचिदाश्वयुजी पोणेमासी परिसमापयति, परं तत्पौष्ठपदीमपि पौर्णमासी परिसमापयति, तत्रैव च लोके तस्य प्राधाम्ब, तनाना तस्याः पौर्णमास्याः अभिधानादतस्तदिह न विवक्षितमित्यदोषः, तथाहि-प्रथमामाश्वयुजी पौर्णमासीमश्विनी-1| ॥११६॥ | नक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, द्वितीयामाश्वयुजी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं सप्तवासु मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्त अनुक्रम [२] ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] पष्टिभागेषु शेपेषु, तृतीयामाश्वयुजी पौर्णमासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्रं चर्तुदशमु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकस्मिन् बायटिभागे एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थीमाश्वयुजी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं चतुर्ष मुहसंध्येकस्य च मुहर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयोविंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमीमाश्वयुजी पौर्ण मासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चायति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य दशसु सप्तपष्टिभागेषु शेपेषु लापरिसमापयति । कतियपण'मित्यादि, कात्तिकी पौर्णमासी कतिनक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह-वे नक्षत्रे युद्ध, तयथा भरणी कृत्तिका वा, इहायश्विनीनक्षत्रमपि काश्चित् कार्तिकी पौर्णमासी परिसमापयति परं तदाश्वयुज्यां पौर्णमास्यां प्रधानमितीह तन्न विवक्षितं, तत्र प्रथमां कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्यु द्वापष्टिभागेध्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वापष्टौ सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं पत्रिंशती मुहूर्तेधकस्य च मुहूर्तस्यैकत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां कार्तिकी पौर्णमासीमश्विनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं षोडशसु मुहर्नेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाविंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी कार्तिकी पौर्णमासी भरणीनक्षत्रं नव मुहब्बेकस्य च मुहूर्तस्य पश्चचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य नवसु.सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । 'ता मग्गसिरं णं पुषिणमं कह णक्वत्ता जोईतित्ति ता इति पूर्ववत्, कति नक्षत्राणि मार्गशीर्षी पौर्णमासी युञ्जन्तिी, टीप अनुक्रम [२] ~246 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूयमज्ञ प्रत सुत्राक | नक्षत्र [३८] भगवानाह-ता दोण्णी त्यादि, ता इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे युङ्गः, तद्यथा-रोहिणिका मृगशिरश्च, तत्र प्रथमा मार्गशीर्षी क्षिवृत्तिः प्राभूत हापौर्णमासी मृगशिरोऽष्टसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सम्बन्धिनो द्वापष्टिभागस्य सत्केष्वेकपष्टौ सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, प्राभृतं (मल०) द्वितीयां मार्गशीषी पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पद्मिशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टि-IX पूर्णिमादि ॥११॥ |भागस्याष्टाचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां मार्गशीष पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी मार्गशीर्षी Xसू ३८ पौर्णमासी मृगशिरोनक्षत्रं द्वाविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यकर्षि-I शती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी मार्गशीर्षी पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रं अष्टादशसु मुहूत्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति, 'ता पोसीं ण'मित्यादि, ता इति: पूर्ववत्, पौषीं णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, भगवानाह-ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, ४त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यश्च, तत्र प्रथमा पौषी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं द्वयोर्मुहर्त्तयोरेकस्य |च मुहत्तस्य पदपथाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टौ सप्तपष्टिभागेषु, द्वितीयां पौषी पौर्णमासी एकोन- त्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्यैकविंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु ॥११७॥ शेषेषु, तृतीयां पौषी पौर्णमासीमधिकमासादतिनीमा नक्षत्रं दशसु मुहर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टाचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, अधिकमासभाषिनी पुनस्तामेव तृतीयां पौर्णमासी अनुक्रम [१२] FridaIMAPIVAHauWORK ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] टीप पुष्यनक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी पौषीं पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी पौषी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं द्विचत्वारिंशति मुहवेकस्य च मुहूर्चस्य पश्चत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तसु सप्तपष्ठिभागेषु शेषेषु परिसमाप्तिं नयति। 'तामाहीपण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , माघी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह-'ता दोण्णी'त्यादि, दे| नक्षत्रे युङ्कः, तद्यथा-अश्लेषा मघा च, चशब्दात्काश्चिन्माधीं पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं काचित्युष्यनक्षत्रं च, तद्यथाप्रथमा माघी पौर्णमांसी मघानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकपश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां माघी पौर्णमासीमश्लेषानक्षत्रमष्टमु मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां माघी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रमष्टाविंशती मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टात्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी मापी पौर्णमासी मघानक्षत्रं पश्चविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिषु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेपेषु, पञ्चमी माघी पौर्णमासी पुष्यनक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्सु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, 'ता फग्गुणीण्ण मित्यादि, ता इति पूर्ववत् फाल्गुनी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति , भगवानाह–ता दोणी त्यादि, अनुक्रम [२] ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [५२] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) ---- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [३८] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ ( मल० ) ॥ ११८ ॥ ता इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-- पूर्वफाल्गुनी उत्तरफाल्गुनी च तत्र प्रथमां फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनी१० प्राभृते सिवृत्तिः * नक्षत्रं विंशती मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य पट्ट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टापञ्चाशति सप्तषष्टि- ४६ प्राभृत * भागेषु शेषेषु, द्वितीयां फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं द्वयोर्मुहर्त्तयोरेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकादशसु द्वाषष्टिभागेक च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां फाल्गुन पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुहर्त्तेध्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तरफाल्गुनी नक्षत्रं त्रयस्त्रिंशति मुहर्त्तेषु एकस्य च मुहर्त्तस्य षष्टों द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टादशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु पञ्चमी फाल्गुन पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चविंशती द्वाषष्टियेषु भागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । 'ता चित्तिष्णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, चैत्री पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति १, भगवानाह 'ता' इत्यादि, द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा - हस्तः चित्रा च तत्र प्रथमां चैत्र पौर्णमासीं चित्रानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेध्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तपञ्चायति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां चैत्री पौर्णमासी हस्तनक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्सु द्वाषष्टिभतोषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयां चैत्री पौर्णमासीं चित्रानक्षत्रमेकस्मिन् मुहूर्त्ते एकस्य च मुहूर्त्तस्य अष्टाविंशतौ द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्त्तेषु पकस्य च मुहर्त्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु Eatont F&P Uw One ~249~ पूर्णिमादि नक्षत्रं सू ३८ ॥११८॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [५२] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) ---- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [३८] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः Eatont एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु पञ्चमी चैत्री पौर्णमासीं हस्तनक्षत्रं चतुर्विंशती मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्षु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति । 'ता वहसाहिश'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, वैशाखी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासीं कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति १, भगवानाह - 'ता दोण्णी'त्यादि, ता इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-स्वातिः विशाखा च चशब्दादनुराधा च इदं हि अनुराधा नक्षत्रं विशाखातः परं, विशाखा चास्यां पौर्णमास्यां प्रधाना, ततः परस्यामेव पौर्णमास्यां तत्साक्षादुपात्तं नेहेति, तत्र प्रथमां वैशाख पौर्णमासीं विशाखा नक्षत्रमष्टसु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षटूपशाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां वैशाखी पौर्णमासीं विशाखानक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्यैकस्मिन् द्वाषष्टि| भागे एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां वैशाखीं पौर्णमासी अनुराधा नक्षत्रं पञ्चविं शतौ मुहत्तेष्वेकस्य च मुहर्त्तस्य त्रयोविंशती द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टि भागस्यैकोनत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी वैशाखी पौर्णमासी विशाखा नक्षत्रमेकविंशती मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप| ष्टिभागस्य षोडशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पश्चमी वैशाखी पौर्णमासीं स्वातिनक्षत्रं त्रिषु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य पश्च| दशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति । 'ता जेट्टामूलिंण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत, ज्येष्ठामौली णमिति वाक्यभूषणे पौर्णमासीं कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति १, भगवानाह - 'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-अनुराधा ज्येष्ठा मूलं च तत्र प्रथमां ज्येष्ठामौलीं पौर्णमासीं मूलनक्षत्रं सप्तद F&P Uw On ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः (मल.) सुत्रांक ॥११९॥ [३८] दीप शसु महर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्चपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां १० प्राभृते ज्येष्ठामौली पौर्णमासी ज्येष्ठानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य अष्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप ६प्राभृत Pा प्राभूत ष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां ज्येष्ठामौली पौर्णमासी मूलनक्षत्रं चतुएं मुहत्तेष्वेकस्य च मुहूर्त-II स्याष्टादशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी ज्येष्ठामौली पौर्णमासी ज्येष्ठान पूर्णिमादि नक्षत्रं त्रमेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पश्चदशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी ज्येष्ठा- सू३८ मूली पौर्णमासी अनुराधानक्षत्रं द्वादशसु मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य । द्वयोः सप्तषष्टिभागयोः परिसमाप्तिमुपनयति । 'आसाढिन'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , आषाढी णमिति वाक्यालङ्कारे | पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युजन्ति !, भगवानाह-'ता दो इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, द्वे नक्षत्रे युङ्गः, तद्यथा-पूर्वाषाढा|४|| उत्तराषाढा च, तत्र प्रथमामाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रं षड्विंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्सस्य षड्विंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुष्पश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयामाषाढी पौर्णमासी पूर्वाषाढानक्षत्र सप्तसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयामाषाढी पौर्णमासी उत्तरापाढानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य त्रयोदशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च। द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तरापाढानक्षत्रमेकोनचत्वारिंशति मुहूर्तेषु || |एकस्य च मुहर्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, अनुक्रम [२] FitraalMAPINANORN ~251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: X प्रत सूत्रांक [३८] टीप पश्चमीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रं स्वयं परिसमाप्नुवन परिसमापयति, किमुक्तं भवति ?-एकत्र पञ्चमी आषाढी पौर्णदमासी समाप्तिमेति अन्यत्र चन्द्रयोगमधिकृत्योत्तराषाढानक्षत्रमिति । इह सूत्रकृत एव शैलीयं यद् यद् नक्षत्रं पौर्णमासीममा वास्यां वा परिसमापयति तद्यावशेषे परिसमापयति तावत्तस्य शेष कथयति, ततस्तदनुरोधेनास्माभिरप्यत्र तथैवोक्तम् , यावता पुनर्यावत्यतिक्रान्ते परिसमापयति तावदेव प्रागुक्तकरणवशात् कथनीयं, चन्द्रप्रज्ञप्तावपि तथैव वक्ष्यामि, अमावास्याधिकारमपि अनन्तरं तथैव वक्ष्यामः, तदेवं यानि नक्षत्राणि यो पौर्णमासी युञ्जन्ति तान्युक्तानि, सम्प्रति गतार्थामपि मन्दमतिविबोधनार्थ कुलादियोजनामाह ता साविहिषणं पुषिणमासिं णं किं कुलं जोएति उवकुलं जो कुलोवकुलं जोएति ?, ता कुलं चा जोएति उबकुलं वा जोएति कुलोवकुलं वा जोएति, कुलं जोएमाणे धणिहाणकखतेउवकुलं जोएमाणो सवणे णक्खत्ते जोएति, कुलोवकुलं जोएमाणे अभिईणक्वत्ते जोएति, साविहिं पुण्णिमं कुलं वा जोएति उचकुलं वा जोएति. कुलोववकुलं वा जोएति, कुलेण वा (उचकुलेण वा कुलोवकुलेण वा) जुत्ता साविट्ठी पुषिणमा जुत्तातिवित्त सिया, ता पोहवलिण्णं पुषिणमं किं कुल जोएति उवकुलं जोएति कुलोवकुलं वा जोएति?, ता कुल वा जोएति उवकुलं वा जोएति कुलोचकुलं वा जोएति, कुलं जोएमाणे उत्तरापोहवया णक्खत्ते जोएति, डाउवकुलं जोएमाणे पुषापुढचता णक्खत्ते जोएति, कुलोवकुलं जोएमाणे सतभिसया णक्खत्ते जोएति, पोट्ठ-15 वतिपणं पुण्णमासिं णं कुलं वा जोएति उचकुलं वा जोएति कुलोवकुलं वा जोएति, कुलेण वा जुत्ता ३ पुट्ट | 45555 अनुक्रम [२] FridaIMAPIVARANORN ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] सूर्यप्रज्ञ- वता पुषिणमा जुत्ताति वत्तवं सिया, ता आसोई णं पुण्णिमासिणं किं कुलं जोएति उचकुलं जोएति १० प्राभृत प्तिवृत्तिः कुलोवकुलं जोएति, णो लभति कुलोचकुलं, कुलं जोएमाणे अस्सिणीणक्खत्ते जोएति, उपकुलं जोएमाणे मात (मल.) रवतीणक्खत्ते जोएति, आसोई णं पुषिणमं च कुलं वा जोएति उवकुलं वा जोएति, कुलेण वा जुत्ता उब प्राभृतं ॥१२०॥ कुलेण वा जुत्ता अस्सादिणं पुण्णिमा जुत्तति वत्तई सिया, एवं तबाउ, पोस पुषिणमं जेट्टामूलं पुषिणमं चामि ३९ ट्रकुलोचकुलंपि जोएति, अवसेसासु णत्थि कुलोचकुलं, ता साविढि ण अमावासं कति णक्खासा जोएंति दुन्नि नक्खत्ता जोएंति, तं०-अस्सेसा य महा य, एवं एतेणं अभिलावेणं तवं, पोहवतं दो णवत्ता जोएंति, मातं०-पुत्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी, अस्सोई हत्थो चित्ता य, कत्तिय साती विसाहा य, मग्गसिरं अणुराधा जेट्टामूलो, पोसिं पुवासाढा उत्तरासाढा, माहिं अभीयी सवणो धणिवा, फग्गुणी सतभिसया पुवपोट्टयता उत्तरापोट्टयता, चेत्ति रवती अस्सिणी, विसाहिं भरणी कत्तिया य, जेट्ठामूलं रोहिणी मगसिरं च, ता आसाहिं णं अमावासिं कति णक्खत्ता जोएंति ?, ता तिषिण णक्खत्ता जोएंति, तं०-,अदा पुणवस पुस्सो, ता साविtिणं ॥१२०॥ अमावासं किं कुलं जोएति उवकुलं वा जोएति कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ नो लम्मइ कुलोचकुलं, कुलंजोएमाणे महाणक्खत्ते जोएति, उबकुलं वा जोएमाणे असिलसाजोएइ, कुलेण वा जुसा| उचकुलेण वा जुत्ता'साविट्ठी अमावासा जुत्ताति वसई सिया?,एवं णेतर्ष, णवरं मग्गसिराएमाहीए आसाठीए| ट्रीय अमावासाए कुलोवकुलंपि जोएति, सेसेसु णस्थि (सू० ३९) । दसमस्स पाहुडस्स गई पाहुडपाहुकम। अनुक्रम [५३] FitneraMAPINAHINORN ~253~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधितः सूर्यप्राप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) |ता साविहिपण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, श्राविष्ठी पौर्णमासी किं कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति, भगवानाह-'ता कुलं वा' इत्यादि, कुलं वा युनक्ति, वाशब्दः समुच्चये, ततः कुलमपि युनक्कीत्यर्थः, एवं उप-18 कुलमपि कुलोपकुलमपि, तत्र कुलं युञ्जन् धनिष्ठानक्षत्रं युनक्ति, तस्यैव कुलं (लतया) प्रसिद्धस्य सतः श्राविष्ट्या पौर्णमास्यांव भावात् , उपकुलं युजन् श्रवणनक्षत्रं युनक्ति, कुलोपकुलं युञ्जन् अभिजिन्नक्षत्रं युनक्ति, तद्धि तृतीयायां श्राविष्ठयां | पौर्णमास्यां द्वादशसु मुहूर्तेषु किञ्चित्समषिकेषु शेषेषु चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः श्रवणेन सह सहचरत्वात् स्वयमपि तस्याः पौर्णमास्याः पर्यन्तवर्तित्वात् तदपि तां परिसमापयतीति विवक्षितत्वाद् युनकीत्युक्त, सम्प्रति उपसंहारमाह-ल 'साविद्विन्न'मित्यादि, यत एवं त्रिभिरपि कुलादिभिः श्राविछ्याः पौर्णमास्या योजनाऽस्ति ततः श्राविष्ठी पौर्णमासी कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनतीति वक्तव्यं स्यात्-इति स्थशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात्, यदिवा कुलेन वा युक्ता सती श्राविष्ठी पौर्णमासी उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता युक्तेति वक्तव्यं स्यात् , एवं शेषमपि सूत्रं निगमनीयं, यावत् "एवं नेयवाओ'इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण शेषा अपि पौर्णमास्यो नेतव्याः-पाठक्रमेण वक्तव्याः, नवरं पौषर्षी पौर्णमासी ज्येष्ठामूली च पौर्णमासी कुलोपकुलमपि युनक्ति, अवशेषासु च पौर्णमासीषु कुलोपकुलं नास्तीति परिभाव्य वक्तव्याः, ताश्चैवम्-'ता कत्तियण्णं पुन्निमासिणी किं कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ, ता कुलंपि जोएइ उवकुलंपि जोएइ, नो लभेइ कुलोबकुलं, कुठं जोएमाणे कत्तिआणक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे भरणीनक्खत्ते जोपड, ता कत्तिअन्नं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उबकुलेण वा जुत्ता कत्तियपु अनुक्रम [५३] ~254~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत टूपिणमा जुत्तत्ति वत्तवं सिआइत्यादि, ताबद्धक्तव्यं यावदापाढीपौर्णमासीसूत्रपर्यन्तः, तथा चाह-'जाव आसाढीपुन्निमा ४१० प्रामृत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः जुत्तत्तिवत्तवं सिया' । तदेवं पौर्णमासीवक्तव्यतोक्ता, सम्प्रति अमावास्यावक्तव्यतामाह-'दुवालसे'त्यादि, द्वादश अमा- ६प्राभृत. (मल.) वास्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-श्राविष्ठी प्रौष्ठपदी इत्यादि, तत्र मासपरिसमापकेन अविष्ठानक्षत्रेणोपलक्षितो यः श्रावणो मासः प्राभृतं | सोऽत्युपचारात् श्राविष्ठा तत्र भवा श्राविष्ठी, किमुक्तं भवति ?-श्रविष्ठानक्षत्रपरिसमाप्यमानश्रावणमासभाविनीति, सालापकला ॥१२॥ मोष्ठपदी प्रोष्ठपदानक्षत्रपरिसमाप्यमानभाद्रपदमासभाषिनी, एवं सर्वत्रापि वाक्यार्थो भावनीयः, 'ता साबिहिष्ण मि धि सू ३९ त्यादि, ता इति पूर्ववत् , श्राविष्ठीममावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? कति नक्षत्राणि यथायोगं चन्द्रेण सह संयुज्य धाविष्ठीं अमावास्यां परिसमापयन्ति, भगवानाह-'ता दोणी'त्यादि, ता इति पूर्वत्, दे नक्षत्र युतः, तद्यथा-अश्लेषा || मघा च, इह व्यवहारनयमते यस्मिन्नक्षत्रे पौर्णमासी भवति तत आरभ्याक्तिने पञ्चदशे नक्षत्रे अमावास्या भवति, यस्मिंश्च नक्षत्रे अमावास्या तत आरभ्य परतः पञ्चदशे नक्षत्रे पौर्णमासी, तत्र श्राविष्ठी पौर्णमासी किल श्रवणे धनिष्ठायां वोक्का ततोऽमावास्यायामप्यस्यां श्राविष्ट्यां अश्लेषा मघाश्चोक्का, लोके च तिथिगणितानुसारतो गतायामप्यमावास्यायां: वर्तमानायामपि च प्रतिपदि यस्मिन्नहोरात्रे प्रथमतोऽमावास्याऽभूत् स सकलोऽप्यहोरात्रो अमावास्येति व्यवहियते, ततो मघानक्षत्रमप्येवं व्यवहारतोऽमावास्यायां प्राप्यत इति न कश्चिद्विरोधः, परमार्थत: पुनरिमाममावास्यां श्राविष्ठीमिमानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा-पुनर्वसुः पुष्योऽश्लेषा च, तथाहि-अमावास्याचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणं ॥१२॥ प्रागेवोकं, तत्र तद्भावना क्रियते-कोऽपि पृच्छति-युगस्यादौ प्रथमा श्राविठयमावास्या केन चन्द्रयुक्तेन नक्षत्रेणोपेता सती अनुक्रम [५३] SANSAR ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [43] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [ ३९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः समाप्तिमुपयाति ?, तत्र पूर्वोदितस्वरूपोऽवधार्यराशिः षट्षष्टिर्मुहर्त्ता एकस्य च मुहर्त्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभाग इति प्रमाणो ध्रियते, धृत्वा चैकेन गुण्यते, प्रथमाया अमावास्यायाः पृष्टत्वात्, एकेन गुणितं तदेव भवतीति राशिस्तावानेव जातः, ततस्तस्माद् द्वाविंशतिर्मुहर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा इत्येवंपरिमाणं पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते, तत्र षट्षष्टेर्मुहूर्त्तेभ्यो द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चाच्चतुश्चत्वारिंशत् ४४, तेभ्य एक मुहूर्त्तमपकृष्य तस्या द्वापष्टिर्भागाः क्रियन्ते, कृत्वा च ते द्वाषष्टिभागराशिंमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिः, तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः, शेषास्तिष्ठन्त्येकविंशतिः, त्रिचत्वारिंशतो मुहूर्त्तेभ्यस्त्रिंशता मुहूत्तैः पुष्यः शुद्धः, स्थिताः पश्चात् त्रयोदश मुहूर्त्ताः, अश्लेषानक्षत्रं च द्विक्षेत्रमिति पञ्चदश मुहूर्तप्रमाणं तत इदमागतं - अश्लेषा नक्षत्रमेकस्मिन् मुहूर्त्ते एकस्य च मुहर्त्तस्य चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिघाछिन्नस्य षट्षष्टिसङ्ख्येषु भागेषु शेषेषु प्रथमाSमावास्या समाप्तिमुपगच्छति, तथा च वक्ष्यति 'ता एएसिं पंचहे संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ १, ता असिलेसाहि, असिलेसाणं एको मुहुत्तो चत्तालीसं बावडिभागा मुहुत्तस्स बावट्टिभागं च | सत्तट्ठिहा छेत्ता छावडी चुण्णिआभागा सेसा' इति, यदा तु द्वितीयामावास्या चिन्त्यते तदा सा युगस्यादित आरभ्य त्रयोदशीति स ध्रुवराशिः ६६ ।। । त्रयोदशभिर्गुण्यते, जातानि मुहूर्त्तानामष्टौ शतान्यष्टापञ्चाशदधिकानि ८५८ एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चषष्टिर्द्वाषष्टिभागा ६५ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः १३, तत्र 'चचारि य चायाला अह सोझा उत्तरासादा' इति वचनात् चतुर्भिर्द्विचत्वारिंशदधिकैर्मुह शतैः षट्चत्वारिंशता च द्वापष्टिभागे F&PO ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [ ५३ ] मूलं [ ३९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति : ( मल० ) ॥१२२॥ चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [६], Jan Eaton I ६ प्राभृतप्राभृतं कुलोपकुला रुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थितानि पञ्चान्मुहूर्त्तानां चत्वारि शतानि पोडशोत्तराणि एकस्य च मुहूर्त्तस्य १० प्राभृते एकोनविंशतिर्द्धापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः । ४१६ । है । है । तत एतस्मात् त्रीणि शतानि नवनवत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षटू- ५ षष्टिः सप्तषष्टिभागाः ३९९ इति शोधनीयं तत्र षोडशोत्तरेभ्यश्चतुःशतेभ्यः त्रीणि शतानि नवनवत्यधिकानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूर्त्ताः, तेभ्यः एकं मुहूर्त्त गृहीत्वा तस्य द्वाषष्टिर्भागाः क्रियन्ते, कृत्वा च द्वाषष्टिभाग- २धि सू ३९ राशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता एकाशीतिः, तस्याश्चतुर्विंशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत्, तस्या रूपमेकमादाय सप्तपष्टिर्भागाः क्रियन्ते, तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः, पञ्चादेकोऽवतिष्ठते, स सप्तषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यते, जाताश्चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः आगतं पुष्यनक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य पट्पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य व द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दसु सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु द्वितीयां श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयति, यदा तु तृतीया श्राविश्यमावास्या चिन्त्यते सा युगादित आरभ्य पञ्चविंशतितमेति स ध्रुवराशिः ६६ । ६३ । ६ । पञ्चविंशत्या गुण्यते, जातानि षोडश शतानि पञ्चाशदधिकानि मुहर्त्तानां १६५० एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चविंशं द्वाषष्टिभागशतं । । एकस्य द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ३७ । तत्र चतुर्भिर्द्विचत्वारिंशदधिकैर्मुहूर्त्तश तैरेकस्यप मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैः प्रथममुतराषाढा पर्यन्तं शोधनकं शुद्धं स्थितानि पश्चान्मुहूर्त्तानां द्वादश शतान्यष्टोत्तराणि १२०८ द्वाषष्टिभागाश्च मुहूर्त्तस्य एकोनाशीतिः ७१ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २५, ततोऽष्टभिः शतैरे कोनविंशत्यधिकैः ८१९ F&P ~257~ ॥ १२२ ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) महानामेकस्य मुर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्ट्या सप्तषष्टिभागैरेको नक्षत्रपर्यायः शपति, स्थितानि पश्चात्रीणि शतानि नवाशीत्यधिकानि मुहूर्तानां ३८९ एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःपञ्चाशत् द्वापष्टिभागाः ५४ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पविंशतिः सप्तपष्टिभागाः २६, ततो भूयविभिनवोत्तरैर्मुहर्त्तशतैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुविंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षया सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि रोहिणिकापर्यन्तानि शोध्यन्ते, स्थिताः जापश्चान्मुहर्ता अशीतिः एकस्य च मुहर्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टि भागाः, ८018।। ततत्रिंशता मुहूतैर्मृगशिरः शुद्ध, स्थिताः पश्चात्पञ्चाशन्मुहूर्ताः ५०, ततः पञ्चदशभिराा शुद्धा, स्थिताः पञ्चत्रिंशत् ३५, आगतं पुनर्वसुनक्षत्रं पञ्चत्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनविंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशती सप्तपष्टिभागेषु गतेषु तृतीयां श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयति, एवं चतुर्थी श्राविष्ठीममावास्यामश्लेषानक्षत्रं प्रथमस्म मुहूर्तस्य सप्तसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु परिसमापयति पञ्चमी श्राविष्ठीममावास्यां पुष्यनक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेष्वेकस्य मुहर्तस्य द्विचत्वारिंशति द्वापष्टिभा-12 गेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ३।। परिणमयति, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन ४ प्रकारेण एतेन-अनन्तरोदितेन अभिलापेन-आलापकेन शेषमप्यमावास्याजातं नेतन्यं, विशेषमाह-पोहवयं दो नक्सत्ता जोएति, अत्र चैवं सूत्रपाठ:-'सा पोहवइण्णं अमावासं का नक्खत्ता जोएंति ?, ता दोन्नि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा| पुषफरगुणी उत्तरफग्गुणी य' इदमपि व्यवहारत उच्यते, परमार्थतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि प्रोष्ठपदीममावास्यां परिसमाप अनुक्रम [५३] ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः मल.) ॥१२३॥ सूत्रांक [३९] यन्ति, तद्यथा-मघा पूर्वफाल्गुनी उत्तरफाल्गुनी च, तत्र प्रथमा प्रोष्ठपदीममावास्याभुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं चतर्प महर्तेषु ||१० प्राभृते एकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वयोः सप्तपष्टिभागयोः ४ । २६ । २ अतिक्रान्तयोः, प्राभूत द्वितीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकषष्टी द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टि का प्राभूत भागस्य पञ्चदशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ७।६१ । १५ । तृतीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां मधानक्षत्रमेकादशसु मुहर्तेष्वेकस्य:HP कुलोपकुला &च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ११ । ३४ । २८, चतुर्थी प्रोष्ठपदीममावास्यां पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य द्वादशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २१ ॥ १२॥ ४२ । पञ्चमी प्रोष्ठपदीममावास्यां मघानक्षत्रं चतुर्विशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेम्वतिक्रान्तेषु २४ । ४७।५५ । परिसमापयति, 'आसोई दोण्णी'त्यादि, अत्राप्येवं पाठ:-'ता आसोइण्णं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति !, ता दोणि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा-हत्थो चित्ता य एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनराश्वयुजीममावास्यां |त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा-उत्तरफाल्गुनी हस्तः चित्रा च, तत्र प्रथमामाश्वयुजीममावास्या हस्तनक्षत्रं पञ्चविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषु सप्तपष्टिभागेषु २५।३१।३ गतेषु, ॥१२॥ |द्वितीयामाश्वयुजीममावास्यामुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं चतुश्चत्वारिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुएं द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षोडशसु सप्तपष्टिभागेषु ४४।४।१६ गतेषु, तृतीयामाश्वयुजीममावास्या उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तद अनुक्रम [५३] ॐॐॐ ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) शसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु १७॥ ३९२९ गतेषु, चतुर्थीमाश्वयुजीममावास्यां हस्तनक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तदशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु १२३ गतेषु, पञ्चमीमाश्वयुजीममावास्यां उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं त्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहुर्तस्य द्विपश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु ३०। ५२।५४ गतेषु परिसमापयति, 'कत्तियण्णं साई विसाहा यत्ति, अत्राप्येवं सूत्रपाठः-'ता कत्तियणं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता दोषिण नक्खत्ता जोइंति, तंजहा- 'साईविसाहा यत्ति, एतदपि व्यवहारनयमते, निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि कार्तिकीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा-स्वातिपिशाखा चित्रा च, तत्र प्रथमां कार्तिकीममावास्यां विशाखानक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु १६ ॥३६॥ ४ गतेषु, द्वितीयां कार्तिकीममावास्यां स्वातिनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशती द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तपष्टिभागेषु ५ । २२ । १७ गतेषु, तृतीयां कार्तिकीममावास्यां चित्रानक्षत्रमष्टसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु ८१४४।३० गतेषु, चतुर्थी कार्तिकीममावास्यां विशाखानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु १३ ॥ २२॥ ४४ गतेषु, पञ्चमी * कार्तिकीममावास्यां चित्रानक्षत्रं एकविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अनुक्रम [५३] 45-45-45+% X ~260 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [ ५३ ] मूलं [ ३९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥ १२४ ॥ चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [६], सप्तपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु २१ । ५७ । ५७ । गतेषु समाप्तिमुपनयति, 'मग्गसिरं तिष्णि, तंजहा- अणुराहा जिट्ठा मूलो' इति, अत्रापि सूत्रालापक एवम् -'ता मग्गसिरं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता तिन्नि नक्खत्ता जोपंति, तंजहाअनुराहा जिट्ठा मूलो य' इति, एतदपि व्यवहारतो निश्चयतः पुनरिमानि त्रीणि नक्षत्राणि मार्गशीषममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा - विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा च तत्र प्रथमां मार्गशीषममावास्यां ज्येष्ठानक्षत्रं सप्तसु मुहर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्ञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु ७।४१।५, द्वितीयां मार्गशीषममावास्यामनुराधा नक्षत्रमेकादशसु मुहत्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्दशसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टादशसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ११ । १४ । १८, तृतीयां मार्गशीर्षी ममावस्यां विशाखा नक्षत्र मे कोनत्रिंशति मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु २९ । ४९ । ११, चतुर्थी || मार्गशीर्षीममावास्यामनुराधा नक्षत्रं चतुर्विंशतो मुहर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतौ द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभा गस्य पशचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २४ । २७ । ४५, पञ्चमीं मार्गशीषममावास्यां विशाखानक्षत्रं त्रिचत्वारिंशति | मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सम्बन्धिनो द्वाषष्टिभागस्त्याष्टापश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ४३ । ० । ५८ । परिसमापयति । 'पोसिं च दोन्नि - पुद्दा साढा उत्तरासादा यत्ति, अत्रैवं सूत्रालापकः 'ता पोसिं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता दोन्नि नक्खत्ता जोएंति, संजहा- पुबासादाय उत्तरासादा य'त्ति, एतदपि व्यवहारत उकं, निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति तद्यथा-मूलं पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, तथाहि प्रथमां पौषीममावास्यां पूर्वाषाढा नक्षत्र मष्टाविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च Jain Eration Intanal F&Pr ~261~ १० प्राभृते ६ प्राभृतप्राभृतं कुलोपकुला धि सू ३९ ॥ १२४ ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) मुहर्सस्य पट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पसु समपष्टिभागेषु गतेषु २८।२६।। द्वितीयां पौषीममावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्र बयोर्मुहूर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्यैकोनविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनविंशतौ सतषष्टिभागेष्वप्तिकान्तेषु २१९॥ १९तृतीयामधिकमासभाविनी पौषीममावास्थामुत्तराषाढानक्षत्रमेकादशसुर | मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनषष्टौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ११॥ ५९।३३, |चतुर्थी पौपीममावास्यां पूर्वापाढानक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप-13 Pाष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सक्षपष्टिभागेषु गतेषु १५॥५६॥ ४६, पञ्चमी पौषीममावास्यां मूलनक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्त-12 वेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनषष्टौ सप्तषष्टिभागेवंतिकान्तेषु १९ । ५।५९ परिसमापयति । 'माहिं तिणि अभीई सवणो घणिहा' इति, अत्राप्येवं सूत्रालापका-'ता माहिणं अमावासं कह न खत्ता जोएंति , ता तिणि नक्खत्ता जोएंति, संजहा-अभिई सवणो धणिहा य एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि माधीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा-उत्तराषाढा अभिजित् श्रवणश्व, तथाहि-प्रथमां माधीममावास्यां श्रवणनक्षत्रं दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पइविंशतो द्वापष्टिभागेष्वेकस्य द्वाषष्टिभागस्याष्टसु सप्तपटिभागेषु गतेषु । १०।२६। ८, द्वितीयां माघीममावास्यामभिजिन्नक्षत्रं त्रिषु मुहतेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य षडूविंशती द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशतौ सप्तपष्टिभागेषु गतेषु । ३।२६।२०, तृतीयां माधीममावास्यां श्रवणनक्षत्र वयोविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशति सप्तपष्टिभागेषु FACIAL अनुक्रम [५३] FhiraIMAPIVAHauwORE ~262 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [43] मूलं [ ३९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्ति: ( मल० ) ॥१२५॥ चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [६], गतेषु २३ । ३९ । ३५, चतुर्थी माघीममावास्यां अभिजिन्नक्षत्रं षट्सु मुहर्त्तेप्येकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तत्रिंशति द्वाषष्टिभागेच्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु व्यतिक्रान्तेषु ६ । ३७।४७, पञ्चमी माघीममावास्यामुत्तराषाढानक्षत्रं पञ्चविंशती मुहूत्र्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य दशसु द्वाषष्टिभागेष्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २५ । १० । ६० परिसमापयति । 'फरगुण दोन्नि तंजहा सयभिसया पुत्रमद्दवयत्ति, अत्राप्येवं सूत्रालापक:'ता फग्गुणीं णं अमावासं कइ नक्खत्ता जोति १, ता दोण्णि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा सयभिसया पुबभद्दवया य, एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनरमूनि श्रीणि नक्षत्राणि फाल्गुनीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा च तत्र प्रथम फाल्गुनी ममावास्यां पूर्वभद्रपदानक्षत्रं षट्सु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्यैकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य नवसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु । ६ । ३१ ।९, द्वितीयां फाल्गुनीममावास्यां धनिष्ठानक्षत्रं विंशतौ मुहूर्त्तेध्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्षु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशती सप्तषष्टिभागेषु व्यतिक्रान्तेषु २०।४ । २२, तृतीया फाल्गुनी ममावास्यां पूर्वाषाढा नक्षत्रं चतुर्द्दशसु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुश्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु १४ । ४४ । ३६, चतुर्थी फाल्गुनीममावास्यां शतभिषक् नक्षत्रं त्रिषु मुहर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तदशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ३ । १७ । ४९, पञ्चमी फाल्गुनीममावास्यां घनिष्ठानक्षत्रं षट्सु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्विपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्केषु द्वाषष्टी सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ६ । ५२ । ६२ । परिणमयति । 'चित्तिं तिनि, तंजा - उत्तर भदवया रेवती Jan Eiration Intl F&P U One ~263~ १० प्राभृते ६ प्राभृतप्राभृतं कुलोपकुला धि सु ३९ ॥ १२५ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) अस्सिणी य'त्ति अत्राप्येवं सूत्रालापकः-'ता चित्तिन्न अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता तिणि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा-उत्तरभद्दवया रेवई अस्सिणी य एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि चैत्रीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा-पूर्षभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती च, तत्र प्रथा चैत्रीममावास्यामुत्तरभद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती | मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य दशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ३७ ॥ ३६॥ १०, द्वितीयां चैत्रीममावास्यामुत्तरभद्रपदानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोविंशती सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ११।९।२३, तृतीयां चैत्रीममावास्यां रेवतीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनपश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशति सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु ५॥ ४२ ॥ ३७, चतुर्थी चैत्रीममावास्यामुत्तरभद्रपदानक्षत्रं त्रयोविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य द्वाविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु २३ ॥ २२ ॥५०, पञ्चमी चैत्रीममावास्यां पूर्वभद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सक्षपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषष्टी सप्तषष्टिभागेष्वतिकान्तेषु २७ । ५७ । ६३ परिसमापयति । 'वइसाही भरणी कत्तिया यत्ति, अत्राप्येवं सूत्रपाठः-ता वइसाहिणं अमावासं कई नक्वता जोएन्ति , ता दोणि नक्षत्ता जोएंति, तंजहा-'भरणी कत्तिया यत्ति, एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि वैशाखीममावास्यां परिसमापयन्ति, तानि चामूनि-तद्यथा-रेवती अश्विनी भरणी च, तत्र प्रथमां वैशाखी& ममावास्यामश्विनीनक्षत्रमष्टाविंशता मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यै अनुक्रम [५३] ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) सूर्यप्रज्ञ कादशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु २८॥४१॥ ११, द्वितीयां वैशाखीममावास्यां अश्विनीनक्षत्रं द्वयोर्मुहर्त्तयोरेकस्य च मुहूर्त-४१० प्राभृते प्तिवृत्तिः स्यैकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोविंशती सप्तपष्टिभागेषु व्यतिक्रान्तेषु २।२९।२३, ६प्राभृत(मल.) तृतीयां वैशाखीममावास्यां भरणीनक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःपश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च माभृतं ॥१२॥ीद्वापष्टिभागस्याष्टाविंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु । ११॥ ५४ । ३८, चतुर्थी वैशाखीममावास्यामन्विनीनक्षत्रं पञ्चदशसुमाकूलापकुला धि सू३९ लामुर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य व द्वापष्टिभागस्यैकपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु गते " १५ । २७१५१, पश्चमी वैशाखीममावास्यां रेवतीनक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सम्बन्धिनो द्वापष्टिभागस्य सत्केषु चतुःषष्टी सप्तषष्टिभागेषु १९।०।१४। परिणमयति, 'जिह्वामूलि रोहिणी मिगसिरं चत्ति, अत्राप्येवं सूत्रालापक:-'ता जेवामूलिण्णं अमावासं कइ णक्खत्ता जोएंति , ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-रोहिणी मिगसि-1 रो य'त्ति, एतदपि व्यवहारतः, निश्चयतः पुनढे नक्षत्रे ज्येष्ठामूलीममावास्यां परिसमापयतः, तद्यथा-रोहिणी कृत्तिका च, तन्त्र प्रथमा ज्येषामूलीममावास्यां रोहिणीनक्षत्रमेकोनविंशतौ मुहूर्तेष्वेकस्य मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु १९।४६।१२, द्वितीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां कृत्तिकानक्षत्रं त्रयोविंशती ला॥१२६॥ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशती द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशती सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु २३ ॥१९॥२५, तृतीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां रोहिणीनक्षत्रं द्वात्रिंशति मुहब्वेकस्य मुहूर्तस्यैकोनषष्टी द्वापष्टिभागेष्वेलोकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु समतिक्रान्तेषु ३२।५९। ३९, चतुर्थी ज्येष्ठामूलीममावास्यां | +-8 अनुक्रम [५३] % % ~265 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [५३] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [ ३९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः रोहिणी नक्षत्रं षट्सु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वात्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु ६ । ३२ । ५२ । पश्चमी ज्येष्ठामूलीममावास्यां कृत्तिका नक्षत्रं दशसु मुहूर्त्तेषु एकस्य मुहूर्त्तस्य पश्चसु द्वाषष्टिभागेष्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चपष्टौ सप्तषष्टिभागेषु गतेषु १० । ५ । ६५ परिसमापयति । 'ता आसाडीण मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, आसाढ णमिति वाक्यालङ्कारे, कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, भगवानाह - 'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा - आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यश्च, एतदपि व्यवहारत उक्तं, परमार्थतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि आषाढीममावास्यां परिणमयन्ति तद्यथा - मृगशिर आर्द्रा पुनर्वसुश्च तत्र प्रथमामापाडी ममावास्यामार्द्रा नक्षत्रं द्वादशसु मुहर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २ । ५१ । १३ । द्वितीयामाषाढीममावास्यां मृगशिरो नक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशती द्वाषष्टिभाष्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षड्विंशती सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु १४ । २४ । २६ । तृतीयामापाढीममावास्यां पुनर्वसुन नवसु मुहर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वयोर्द्वाषष्टिभागयोरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ९।२।४०। चतुर्थीमापाढीममावास्यां मृगशिरोनक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्त्तेध्येकस्य च मुहर्त्तस्य सप्तत्रिंशति द्वाषष्टिभागध्ये कस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २७। १७ । ५३ । पञ्चमीमाषाढीममावास्यां पुनर्वसुनक्षत्रं द्वाविंशती मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य पोडशसु द्वापष्टिभागेषु समतिक्रान्तेषु २२ । १६ ।। परिसमापयतीति । तदेवं द्वादशानामध्यमावास्यानां चन्द्रयोगोपेतनक्षत्र विधिरुक्तः । सम्प्रत्येतासामेव कुलादियोजनामाह-- 'ता साविहिन' मित्यादि, ता इति Jain Eration intimatin F&PO ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [३९] सूर्यप्रज्ञ- पूर्ववत् , अाविष्ठी-श्रावणमासभाविनीममावास्यां किं कुलं युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा वुनक्ति !, भग-ISL प्तिवृत्तिः दिवानाह-कुलं त्यादि, कुलमपि युनक्ति, वाशब्दोऽपिशब्दार्थः, उपकुलं वा युनक्ति, न लभते योगमधिकृत्य कुलो ६प्राभृत(मल.) पकुलं, तत्र कुलं-कुलसंज्ञं नक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां युञ्जत् मघानक्षत्रं युनक्ति, एतद् व्यवहारत उच्यते, व्यवहारतो प्राभूत हि गतायामप्यमावास्यायां वर्तमानायामपि च प्रतिपदि योऽहोरात्रो मूलेऽमावस्यया सम्बद्धा स सकलोऽप्यहोरात्रो- ॥१२७॥ अमावस्या अमावास्येति व्यवहियते, तत एवं व्यवहारतः श्राविष्ट्यामप्यमावास्थायां मधानक्षत्रसम्भवादुक्तं कुलं मुझन्मयानक्षत्र युन-4 नक्षत्रं कीति. परमार्थतः पुनः कुल युअत्पुष्यनक्षत्र युनक्कीति प्रतिपत्तव्यं, तस्यैव कुलपसिया प्रसिद्धस्य श्राविठयाममावास्वायां सम्भवात् , एतच्च प्रागेवोक्तम् ,उत्तरसूत्रमपि व्यवहारनयमधिकृत्य यथायोगं परिभावनीयमिति, उपकुलं युञ्जत् अश्लेषानक्षत्रं युनकि, सम्प्रत्युपसंहारमाह-ता साविहिन्न'मित्यादि, यत उक्तप्रकारेण द्वाभ्यां कुलोपकुलाभ्यां शाविष्ठ्याममावास्यायां चन्द्रयोगः समस्ति नतु कुलोपकुलेन ततः श्रापिष्ठीममावास्यां कुलमपि वाशब्दोऽपिशब्दार्थः युनकि उपकुलं वा युनक्ति इति वक्तव्यं स्यात् , यदि कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता सती श्राविष्ट्यमावास्या युकेति वक्तव्य स्यात् , 'एवं नेय'मिति एवमुक्तप्रकारेण शेषमप्यमावास्याजातं नेतव्यं, नवरं मार्गशीर्षी माघी फाल्गुनीमाषाढीममा-14 वास्यां कुलोपकुलमपि युनतीति वक्तव्यं, शेषासुस्वमावास्यासु कुलोपकुलं नास्ति,सम्पति पाठकानुग्रहाय सूत्रालापका दयेन्ते-1॥१२७॥ 'ता पुढवइण्णं अमावास किं कुल जोएड उवकुलं ओएइ कुलोवकुलं जोएइ', ता कुलं वा जोएइ ज्वकुलं वा जोएड,नोए लब्भइ कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे उत्तराफग्गुणी जोएइ, उवकुल जोएमाणे पुवाफग्गुणी जोएइ, ता पुट्ठवइण्णं अमावास अनुक्रम [५३] ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१०], -------------------- प्राभतप्राभत [६]. -------------------- मलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत कुलं या जीएइ उपकुलं याजोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता पोलवया अमावासा जुत्तत्तिपत्त सिया । ता आसा-18 इण्ण अमावासं किं कुल जोएइ उपकुलं जोएइ कुलोचकुलं जीएइ, ता कुलं वा जोएइ, उवकुल वा जोएर, नो लम्भइ कुलोबकुलं, कुल जोएमाणे चित्तानक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे हत्थनक्षत्ते जोपर, ता आसाइण्णं अमावासं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता आसाई अमावासा जुत्तत्ति वत्त सिया । ता कत्तियणं अमावासं किं कुलं वा जोपा उवकुलं वा जोएइ कुलोबकुलं वा जोएड, ता कुल बा जोपड बकुलं वा जोएडा नो लब्भइ कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे विसाहानक्खत्ते जोएइ, उवकुलं वा जोएमाणे साइनक्खत्ते जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उबकुलेण वा जुत्ता कत्तिई अमावासा जुत्तत्ति वत्त सिया । ता मग्गसिरिण अमावास किं कुलं जोएइ उवकुल जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ ?, ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं जोएमाणे मूलनक्खत्ते जोएइ, उपकुलं जोएमाणे जेवानक्खत्ते जोएइ, कुलोवकुलं जोएमाणे अणुराहानक्खत्ते जोएइ, कुलेण वा जुना उबकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता मागसिरिण अमावासा जुत्तत्ति वित्त सिया । पोसिणं अमावास किं कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, नो लन्भइ कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे पुधासाढा णक्खत्ते जोपा उपकुलं जोएमाणे उत्तरासाढा णक्सत्ते जोएइ, ता कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता पीसी जे अमावासा जुत्तत्ति वत्त MAKASSASASAGASASAGAN अनुक्रम [५३] ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यमज्ञप्तिवृत्तिः (मल. प्रत सूत्रांक [३९] ॥१२८॥ दीप | सिया'इत्यादि, निक्षयतः पुनः कुलादियोजना प्रागुतं चन्द्रयोगमधिकृत्य स्वयं परिभावनीया ॥ १०प्राभृवे ७ प्राभृतइति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- ६ समाप्तं प्राभृतं तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति सक्षममारभ्यते, तस्य चायमथाधिकारः-पाणेमास्यमावा पूर्णिमामा वास्या सन्नि स्यानां चन्द्रयोगमधिकृत्य सन्निपातो वक्तव्यः' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह पातः सू४० ता कहं ते सपिणचाते आहितेति वदेजा, ता जया णं साचिट्ठीपुषिणमा भवति तता णं माही अमावासा भवति, जया णं माही पुण्णिमा भवति तता णं साविट्ठी अमावासा भवति, जता णं पुट्ठवती पुषिणमा भवति तता णं फग्गुणी अमावासा भवति, जया णं फग्गुणी पुषिणमा भवति तता णं पुढबती अमावासा भवति, जया णं आसाई पुषिणमा भवति तता णं चेत्ती अमावासा भवति, जया णं चित्ती पुण्णिमा भवति तया णं आसोइ अमावासा भवति, जया णं कत्तियी पुषिणमा भवति तता णं वेसाही| अमावासा भवति, जता णं वेसाही पुषिणमा भवति तता णं कत्तिया अमावासा भवति, जया णं मग्गसिरी पुषिणमा भवति तता ण जेट्ठांमूले अमावासा भवति, जता णं जेट्टामूले पुषिणमा भवति तता णं मग्ग M ॥१२८॥ |सिरी अमावासा भवति, जता गं पोसी पुषिणमा भवति तता णं आसाढी अमावासा भवति, जता णं आ-II साढी पुषिणमा भवति तता णं पोसी अमावासा भवति (सूत्र ४०)दसमस्स पाहुडस्स सत्तमं पाहुडपाहु समता अनुक्रम [५३] 5 अथ दशमे प्राभृते प्राभूतप्राभृतं- ६ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभूतप्राभूतं- आरभ्यते ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [ ५४ ] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [७], मूलं [४०] प्राभृत [१०], ----------- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१७], उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं ? - केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया चन्द्रयोगमधिकृत्य पौर्णमास्वमावास्यानां सन्निपात आख्यात इति वदेत् ?, एवमुक्ते भगवानाह --- 'ता जया ण' मित्यादि, इह व्यवहारनयमतेन यस्मिन्नक्षत्रे पौर्णमासी भवति तत आरभ्यार्वाक्तने पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रे नियमतोऽमावास्या, ततो यदा श्राविष्ठी- श्रविष्ठा नक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा तस्यामर्वाक्तनी अमावास्या माघी - मघानक्षत्रयुक्ता भवति, मघानक्षत्रादारभ्य श्रविष्ठानक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् एतच्च श्रावणमासमधिकृत्य भावनीयं, यदा तु णमिति वाक्यालङ्कारे माघी - मघानक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या अमावास्या श्राविष्ठी - श्रविष्ठायुक्ता भवति, मघात आरभ्य पूर्व श्रविष्ठानक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् एतच्च माघमासमधिकृत्य वेदितव्यं तथा 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे प्रोष्ठपदी-उत्त रभद्रपदायुक्ता पौर्णमासी भवति तदा णमिति प्राग्वत् पाश्चात्या अमावास्या फाल्गुनी - उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रयुक्ता भवति, उत्तरभद्रपदात आरभ्य पूर्वमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात्, यत्त्वपान्तराले अभिन्निक्षत्रं तत्स्तोककालत्वात् प्रायो न व्यवहारपथमवतरति, तथा च समवायाङ्गसूत्रम् — 'जंबुद्दीवे दीवे अभिईवज्जेहिं सत्तावीसाए नक्खत्तेहिं संववहारो वट्टत्ति, ततः सदपि तन्न गण्यते इति पञ्चदशमेवोत्तरभद्रपदात आरभ्य पूर्वमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रमिति, एतश्च भाद्रपदमा समधिकृत्यो कमवसेयं, 'जया ण'मित्यादि, यदा च फाल्गुनी-उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा पा वात्या अमावास्या प्रोष्ठपदी - उत्तरभद्रपदोपेता भवति, उत्तरफाल्गुन्या आरभ्य पूर्वमुत्तर भद्रपदानक्षत्रस्य चतुर्द्दशत्वात् इदं च फाल्गुनमासमधिकृत्योक्तं, 'जया ण'मित्यादि, यदा च आश्वयुजी - अश्वयुनक्षत्रोपेता पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या For P&Ft Use Only ----- ~270~ www.tancibrary org Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [ ५४ ] चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [७], मूलं [४०] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः मल०) ॥१२९॥ नन्तरामावास्या चैत्री - चित्रानक्षत्रसमन्विता भवति, अश्विन्या आरभ्य पूर्व चित्रानक्षत्रस्य पश्चदशत्वात्, एतच्च व्यवहारनयमधिकृत्योतमवसेयं निश्चयत एकस्यामप्यश्व युग्मास भाविन्याममावास्यायां चित्रानक्षत्रासम्भवाद्, एतच्च प्रागेव दर्शितं, यदा च चैत्री - चित्रानक्षत्रोपेता पौर्णमासी जायते तदा ततः पाश्चात्यानन्तरामावास्या आश्वयुजी- अश्वयुनक्षत्रोपेता भवति, एतदपि व्यवहारतो, निश्चयत एकस्यामपि चैत्रमासभाविन्याममावास्यायामश्विनी नक्षत्रस्यासम्भवात्, एतच्च सूत्रमश्वयुक्चैत्रमासमधिकृत्य प्रवृत्तं वेदितव्यं, 'जया णमित्यादि, यदा च कार्त्तिकी - कृत्तिकानक्षत्रोपेता पौर्णमासी भवति तदा वैशाखी - विशाखा नक्षत्रोपेता अमावास्या भवति, कृत्तिकातोऽर्वाग्विशाखायाः पञ्चदशत्वात् यदा वैशाखी - विशाखानक्षत्रोपेता पौर्णमासी भवति तदा ततोऽनन्तरा-पाश्चात्या अभावास्या कार्त्तिकी कृत्तिका नक्षत्रोपेता भवति, विशाखातः पूर्व कृतिकायाश्चतुर्दशत्वात्, एतच्च कार्त्तिकवैशाखमा सावधिकृत्योक्तं, एयमुत्तरसूत्रमपि भावनीयम् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ७ समाप्तं तदेवमुक्ते दशमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतप्राभृतं साम्प्रतमष्टममारभ्यते, तस्य चायमथोधिकारः --- 'नक्षत्राणां संस्थानं वक्तव्य' मिलि, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं से मक्खसंठिती आहितेति वदेज्जाई, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीयी णं णक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते १, गो० ! गोसीसाचलिसंठिते पण्णत्ते, सवणे णक्खसे किंसंठिते पण्णसे ?, काहारसं F&Un अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ७ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ८ आरभ्यते ~271~ १० प्राभृते ४८ प्राभृत. प्राभृतं पूर्णिमामावास्या सन्नि पातः सू४० ॥१२९॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] विते प०, धणिहाणक्खत्ते सिंठिते प० १, सउणिपलीणगसंठिते पं०, सयभिसयाणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते, पुष्फोवयारसंहिते पण्णसे, पुवापोट्टयताणवखत्ते किंसंठिते पण्णसे?, अवहुषाविसंठिते पण्णते, एवं उचरावि, रेवतीणक्खत्ते किंसंठिते पण्णते, णावासंठिते पं०, अस्सिणीणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते, आसक्खंघसंठिते पण्णत्ते, भरणीणक्खत्ते किंसंठिते पं०१, भगसंठिए पं०, कत्तियाणक्खत्ते किंसंठिते पण्णते?, छुरघरगसंठिते पं०, रोहिणीणक्खत्ते किंसंठिते पं०१, सगडडिसंठिते पण्णत्ते, मिगसिराणक्खत्ते [किंसंठिते पण्णत्ते, मगसीसावलिसंठिते पं०, अहाणक्खत्ते किंसंठिते पं० १, रुधिरबिंदुसंठिए पण्णत्ते, पुणवम् णक्खत्ते किंसंठिते पं०१, तुलासंठिए पं०, पुप्फे णक्खत्ते किंसंठितेपण्णते?, वद्धमाणसंठिए पण्णत्ते, अस्सेसाणक्खत्ते किंसंठिए पण्णते?, पहागसंठिए पण्णत्ते, महाणक्खसे सिंठिए पण्णत्ते, पागारसंठिते पण्णत्ते, पुषाफग्गुणीणवखत्ते किंसंठिए पं०, अद्धपलियंकसंठिते पं०, एवं उत्सरावि, हत्थे णकखत्ते किंसंठिते पं०१, हत्थसंठिते पं०, ता चित्ताणक्खत्ते किंसंठिते पं०, मुहफुल्लसंठिते पण्णत्ते, सातीणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते , खीलगसंठिते पन्नत्ते, विसाहाणक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते?, दामणिसंठिते प०, अणुराधाणक्खत्ते किंसंठिते पं०१, एगावलि संठिते पं०, जेट्टानक्खत्ते किंसंठिते पं०१, गयदंतसंठिते पण्णत्ते, मूले णक्खत्ते किंसंठिए पं०१, विच्छुयलंगोलसंठिते पं०, पुवासादाणक्खत्ते किंसंठिए पण्णते?, गयविकमसंठिते पं०, उत्तरासाढाणक्खसे सिंठिए पपणत्ते, साइयसंठिते पं०(सूत्र४१) दसमस्स अट्ठमं पाहुडपाहुदं समत्तं॥ अनुक्रम [५] ~272~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [ ५५ ] मूलं [४१] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल०) ॥१३०॥ चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [८], Eatont 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं १ – केन प्रकारेण भगवन् ! नक्षत्राणां संस्थितिः - संस्थानमाख्यातेति वदेत् ?, एवमुक्त्वा भूयः प्रत्येकं प्रश्नं विदधाति -'ता' इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यदभिजिन्नक्षत्रं तत् 'किंसंठितं'ति कस्येव संस्थितं संस्थानं यस्य तत्किसंस्थितं प्रज्ञप्तं १, भगवानाह - 'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, एतेषाममन्त रोदितानामष्टाविंश तेर्नक्षत्राणां मध्येऽभिजिन्नक्षत्रं गोशीर्षावलि - संस्थितं प्रज्ञसं, गोः शीर्ष गोशीर्ष तस्यावली- तत्पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिः तत्समं संस्थानं प्रज्ञतं, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं दामनी-पशुबन्धनं, शेषं प्रायः सुगमं, संस्थानसङ्ग्राहिकाश्चेमा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्कास्तिस्रो गाथाः'गोसीसावलि १ काहार २ सउणि ३ पुप्फोवयार ४ यावी ५ य [ उत्तराद्वयं ] । णावा ६ आसक्खंधग ७ भग ८ छुर घरए ९ य सगडुद्धी १० ॥ १ ॥ मिगसीसावलि ११ रुधिरबिंदु १२ तुल १३ वद्धमाणग १४ पडागा १५ । पागारे १६ पईके १७ [ फाल्गुनीद्वयं ] हत्थे १८ मुहफुलए १९ चैव ॥ २ ॥ खीलग २० दामणि २१ एगावली २२ य गयदंत २३ विच्छुयअले २४ य । गयविक्रमे २५ य तत्तो सीहनिसाई २६ य संठाणा ॥ ३ ॥ " . इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ८ समाप्तं तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्याष्टमं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति नवममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:- 'प्रतिनक्षत्रं ताराप्रमाणं वक्तव्य मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह F&P On अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ८ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ९ आरभ्यते ~273~ १० प्राभूते ८ प्राभूतप्राभृतं नक्षत्रसंस्था नं सू ४१ ॥१३०॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१०], -------------------- प्राभतप्राभूत [९], -------------------- मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२] - ता कहं ते तारग्गे आहितेति वदेजा, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्ख ताणं अभीईणक्खसे कतितारे पं.१, तितारे पण्णत्ते, सवणेणखत्ते कतितारे पं०१, तितारे पण्णत्ते, धनिहाणक्खत्ते कतितारे ५०१, पण तारे पण्णत्ते, सतभिसयाणक्वते कतितारे पं०१, सततारे पण्णत्ते, पुवापोट्टवता कतितारे पं०१, दुतारे पपणत्ते, एवं उत्तरावि, रेवतीणक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते, बत्तीसतितारे पण्णत्ते, अस्सिणीणक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते, तितारे पण्णत्ते, एवं सन्के पुच्छिज्जंति, भरणी तितारे पं०, कत्तिया छतारे पण्णत्ते, रोहिणी पंचतारे पण्णत्ते, सवणे तितारे पं०, अद्दा एगतारे पं०, पुणवसू पंचतारे पण्णत्ते, पुस्से णक्खत्ते तितारे प, अस्सेसा छत्तारे पन्नत्ते, महा सत्ततारे पण्णत्ते, पुवाफग्गुणी दुतारे पन्नत्ते, एवं उत्तरावि, हत्थे पंचतारे, पण्णत्ते, चित्ता एकतारे पण्णते, साती एकतारे पण्णत्ते, विसाहा पंचतारे पं०, अणुराहा पंचतारे पं०, जेट्ठा तितारे पं०, मूले एगतारे पण्णत्ते, पुवासाढा चउतारे पण्णत्ते, उत्तरासाढाणक्खत्ते चउतारे पं०॥ (सूत्रं ४२) दसमस्स पाहुडस्स नवम पाहुडपाहुडं समतं । 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण ते-त्वया भगवन् । नक्षत्राणां 'ताराग्रं ताराप्रमाणमाख्यातं इति वदेत, एवं सामान्यतः प्रश्नं कृत्वा सम्प्रति प्रतिनक्षत्रं पृच्छति–ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणामभिजिन्नक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्त, एवं शेषाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि, ताराप्र-14 माणसङ्क्राहिके चेमे जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसत्के गाथे-“तिग १ तिग २ पंचग ३ सय ४ दुग ५ दुग ६ बत्तीस ७ तिर्ग ८ ASSESHI प अनुक्रम [५६] ~274~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१०], -------------------- प्राभतप्राभूत [९], -------------------- मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सुत्राक ॥१३॥ [४२] दीप तह तिगं९च । छ १० पंचग ११ तिग १२ इकग १३ पंचग १४ तिग १५ इकग १६ चेव ॥१॥ ससग १७ दुग १० प्राभृते १८ दुग १९ पंचग २०इकि २१ कग २२ पंच २३ चउ २४ तिगं २५ चेव । इकारसग २६ चउकं २७ चउकगं २८९ प्राभृतचेव तारग्गं ॥२॥ &ा प्राभृते "| इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- ९ समाप्तं | नक्षत्रतारा लाग्रं सू ४२ तदेवमुक्त दशमस्य प्राभूतस्य नवमं प्राभृतमाभृतं, सम्प्रति दशममारभ्यते-तस्य चायमर्थाधिकार: यथा 'कति १०मा० नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया के मासं नयन्तीति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-. १० प्रा० | ता कहं ते णेता आहितेति बदेज्जा, तावासाणं पढ़मं मासं कतिणक्खत्ता ऐति?, ता चत्तारि णखसा मासनेतृ० णिति, तंजहा-उत्तरासादा अभिई सवणो धणिहा, उत्तरासाढा चोइस अहोरत्ते णेति, अभिई सत्स अहोरते नक्षत्रं णेति,सवणे अट्ठ अहोरत्ते णेति घणिट्ठा एग अहोरतं नेह, तंसिणं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दोपादाइं चत्सारियअंगुलाणि पोरिसी भवति। ता वासाणं दो मासं कति णक्खत्ता गति, ता चत्तारिणक्खत्ता ऐति, तं०-धणिहा सतभिसया पुवपुट्टवता उत्तरपोहवया, धणिट्ठा चोएस अहोरसे णेति, सयभिसया सत्स अहोरसे णेति, पुषाभदवया अह अहोरत्ते णेइ, उत्तरापो-II हवता एग अहोरत्तं णेति, तसि णं मासंसि अटुंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियति, सस्सणं मासस्स 'चरिमे दिवसे दो पदाई अह अंगुलाई पोरिसी भवति । ता वासाणं ततियं मासं कति गक्खसा सू४३ अनुक्रम [५६] AR अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ९ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १० आरभ्यते ~275 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभूत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: । चन्द्रनाल [४] प्रत सूत्रांक [४३] ति ?, ता तिण्णि णक्खत्ता णिति, तं-उत्तरपोट्टवता रेवती अस्सिणी, उत्तरापोट्टवता चोइस अहोरते णेति, रेवती पण्णरस अहोरत्ते णेति, अस्सिणी एग अहोरतं इ, तंसिं च णं मासंसि दुवालसंगुलाए पोरि-14 सीए छायाए सूरिए अणुपरियदृति, तस्स णं मासस्स चरिमदिवसे लेहत्थाई तिणि पदाई पोरिसी भवति, तावासाणं चउत्थं मासं कतिणक्खत्ता णेंति', ता तिनि नक्षत्सा ऐति, तं०-अस्सिणी भरणी कत्तिया, अस्सिणी चउद्दस अहोरते णेइ, भरणी पन्नरस अहोरत्ते णेइ, कत्तिया एगं अहोरत्तं णेइ, तसिं च णं मासंसिसो-|४|| *लसंगुला पोरिसी छायाए सरिए अपरियहर, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिमि पयाई चत्तारि अंगलाई पोरिसी भवइ । ताहेमंताणं पढममासं कई णक्खत्ता ऐति,ता तिणि णक्खत्ता णेंति, तं०-कत्तिया रोहिणी |संठाणा, कत्तिया चोइस अहोरते णेति, रोहिणी पन्नरस अहोरत्ते णेति, संठाणा एगं अहोरणेति, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिपिण पदाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवति । ता हेमंताणं दोचं मासं कति णक्खत्ता ऐति?, चत्तारिणक्खत्ताणेंति, तं०-संठाणा अद्दा पुणवस पुस्सो, संठाणा चोदस अहोरते णेति अद्दा सत्त अहोरते णेति पुणवस अट्ट अहोरत्तेणेति पुस्से| एग अहोरत्तं णेति, तंसि च णं मासंसि चउधीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्सणं मासस्स चरिमे दिवसे लेहडाणि चत्तारि पदाइं पोरिसी भवति । ता हेमंताणं ततियं मासं कति णक्वत्ता णति , ता तिषिण णक्खत्ता ऐति, तं०-पुस्से' अस्सेसा महा, पुस्से चोइस अहोरत्ते णेति, अस्सेसा पंचदस अहोरत्तेणेति, दीप 15* 5555 अनुक्रम [१७] ASS + ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [ ५७ ] मूलं [४३] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल०) ॥ १३२॥ “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [१०], Eatont महा एगं अहोरतं णेति, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियइति, तस्स णंमा सस्स चरिमे दिवसे तिष्णि पदाई अहंगुलाई पोरिसी भवति। ता हेमंताणं चलत्थं मासं कति णक्खत्ता ति १, ता तिण्णि नक्खता ति तं०-महा पुढफग्गुणी उत्तराफग्गुणी, महा चोदस अहोर ते णेति, पुत्राफग्गुणी पनरस अहोरते णेति, उत्तरा फग्गुणी एगं अहोरतं णेति, तंसि च णं मासंसि सोलस अंगुलाई पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियइति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिष्णि पदाई बतारि अंगुलाई पोरिसी भवति । ता गिम्हाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता र्णेति ?, ता तिनि णक्खत्ता जेंति, तं०-उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता, उत्तराफग्गुणी घोस अहोरते णेति हत्थो पण्णरस अहोर ते णेति, चित्ता एवं अहोरतं णेह, तंसि च णं मासं सि दुवाल अंगुलपोरिसीए छापाए सरिए अणुपरियइति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहडाइ य तिष्णि पदाई पोरिसी भवति । ता गिम्हाणं वितियं मासं कति णक्खता ति?, ता तिष्णि णक्खन्ता ति तं०- चिता साई विसाहा, चित्ता बोट्स अहोरते णेति, साती पण्णरस अहोरन्ते णेति, विसाहा एवं अहोरत्तं णेति, तंसि च णं मासंसि अहंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियइति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पदाई अट्ट अंगुलाई पोरिसी भवति । गिम्हाणं ततियं मासं कति णक्खत्ता ति?, ता ति णक्खत्ता ति, तं०-विसाहा अणुराधा जेट्ठामूलो, विसाहा चोइस अहोरते णेति, अणुराधा सत्त (पणरस), जेठ्ठा मूलं एवं अहोरतं णेति, तंसि च णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियइति, तस्स णं मासस्स F&P UW On ~277~ ४१० प्राभृते ९ प्राभूतप्राभृते नक्षत्रतारा४२ मंसू हूँ ४ १० प्रा० १०० मासनेतृ० नक्षत्रं सू ४३ ॥१३२॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभूत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत SCHES सूत्रांक [४३] दीप चरिमे दिवसे दो पादाणि य चत्तारि अंगुलाणि पोरिसी भवति, ता गिम्हाणं चउत्थं मास कति कापता गति ?, ता तिणि णक्खत्ता गति, तं०-मूलो पुवासाढा उत्तरासाढा, मूलो चोइस अहोरत्तेणेति, पुषासादा पण्णरस अहोरत्ते णेति, उत्तरासाढा एग अहोरत्तं गेड, तंसि च णं मासंसि चट्टाए समचउरंससंठिताए णग्गोधपरिमंडलाए सकायमणुरंगिणीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहवाई दो पदाई पोरिसीए भवति (सूर्व ४३) दसमस्स पाहुडस्स दसमं पाहुडपाहुई समतं ॥१०-१० ॥ 'ता कहं ते नेता आहियत्ति वएजा''ता' इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण भगवंस्ते-स्वया स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापको नक्षत्ररूपो नेता आख्यात इति वदेत्, एतदेव प्रतिमासं पिच्छिपुराह-ता वासाण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् वर्षाणां-वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य प्रथम मासं श्रावणलक्षणं कति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयन्ति-गमयन्ति १, भगवानाह-ता चत्तारी'त्यादि, ता इति पूर्ववत्, चत्वारि नक्षत्राणि स्वयमस्तगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया क्रमेण नयन्ति, तद्यथा-उत्तरासाढा अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा च, तत्रोत्तराषाढा प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयति, तदनन्तरमभिजिन्नक्षत्रं सप्ताहोरात्रान्नयति, ततः परं श्रवणनक्षत्रमष्टी अहोरात्रान्नयति, एवं च सर्वसङ्कलनया श्रावणमासस्यैकोनत्रिंशदहोरात्रा गताः, ततः परं श्रावणमासस्य सम्बन्धिनं चरममेकमहोरात्रं धनिष्ठानक्षत्र स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयति, एवं चत्वारि नक्षत्राणि श्रावणं मासं नयन्ति, 'तस्सि च णमित्यादि, तस्मिंश्च श्रावणे मासे चतुरङ्गुलपौरुष्या-चतुरङ्गुलाधिकपारुष्या छायया र अनुक्रम [१७] ~278 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [१०], -------------------- मलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ज्ञ- प्रत मल.) सूत्रांक ॥१३३॥ [४३] १० प्रा० दीप सूर्योऽनु-प्रतिदिवस परावर्तते, किमुक्तं भवति । श्रावणमासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिनमन्यान्यमण्डलसङ्कान्त्या १० प्राभूते तथा कथञ्चनापि परावर्तते यथा तस्य श्रावणमासस्य पर्यन्ते चतुरझुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति, तदेवाह-'तस्स ण-IT९प्राभत|मित्यादि, तस्य श्रावणमासस्य चरमे दिवसे दे पदे चत्वारि चाङ्गुलानि पौरुषी भवति, 'ता वासाण'मित्यादि, ता इति प्राभूते पूर्ववत् वर्षाणां-वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य द्वितीयं भाद्रपदलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति , अस्य वाक्यस्य नक्षत्रताराभावार्थः प्राग्वद्भावनीयः, भगवानाह-'ता इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-धनिष्ठा शत- सू ४२ भिषक् पूर्वप्रोष्ठपदा उत्तरप्रोष्ठपदा च, तत्र धनिष्ठा तस्मिन् भाद्रपदे मासे प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमने १०मा० नाहोरात्रपरिसमापकतया नयति, तदनन्तरं शतभिषक्नक्षत्रं सक्षाहोरात्रान् ततः परमष्टावहोरात्रान पूर्वप्रोष्ठपदा तदन-12 मासनेतृ० न्तरमेकमहोरात्रमुत्तरप्रोष्ठपदा, एवमेनं भाद्रपदं मासं चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च णमिति वाक्यालङ्कारे, मासे भाद्रपदे अष्टाङ्गलपौरुष्या-अष्टाङ्गलाधिकपौरुध्या छायया सूर्योऽनु-प्रतिदिवसं परावर्चते, अत्राप्यय भावार्थ:-भाद्रपदे मासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसङ्क्रान्त्या तथा कथमपि परावर्त्तते यथा तस्य भाद्रपदस्य मासस्यान्ते अष्टाङ्गलिका पौरुषो भवति, एतदेवाह-तस्स ण'मित्यादि सुगम, एवं शेषमासगता भ्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं 'लेहत्थाई तिनि पयाइ'न्ति रेखा-पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा तत्स्थानि त्रीणि पदानि | कापीरुपी भवति, किमुक्त भवति -परिपूर्णानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति, एषा चतुरङ्गला प्रतिमासं वृद्धिस्तावदवसेया 2 ॥१३॥ यावत्पौषो मासः, तदनन्तरं प्रतिमासं चतुरला हानिर्वक्तव्या, सा च तावत् यावदापाढो मासः, तेनापाढपर्यन्ते द्विपदा अनुक्रम [१७] BBS ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभूत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] पौरुषी भवति, इदं च पौरुषीपरिमाणं व्यवहारत उक्त, निश्चयतः सा.विंशता अहोरात्रैश्चतुराला वृद्धिर्हानिर्वा वेदि-131 तन्या, तथा च निश्चयतः पौरुषीपरिमाणप्रतिपादनार्थमिमाः पूर्वाचार्यप्रदर्शिताः करणगाथा:-"पवे पन्नरसगुणे तिहित सहिए पोरिसी' आणयणे । छलसीयसयविभत्ते जं लद्धं तं वियाणाहि ॥१॥ जइ होइ विसमलद्धं दक्षिणमयणं ठविज नायवं । अह हवइ समं लद्धं नायब उत्तरं अयणं ॥ २ ॥ अयणगए तिहिरासी चतुग्गुणे पक्षपाय भइयवं । जं लद्धम-13 गुलाणि खयबुड्डी पोरुसीए उ ॥३॥ दक्खिणबुद्दी दुपया अंगुलयाणं तु होइ नायबा। उत्तर अयणे हाणी कायषा चउहि पाएहिं ॥४॥ सावणबहुलपडिवया दुपया पुण पोरिसी धुवा होइ । चत्तारि अंगुलाई मासेणं बडए तत्तो ॥५॥इक-17 चीसइ भागा तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तारि । दक्षिणअयणे वुड्डी जाव उ चत्तारि उ पयाई ॥६॥ उत्तर अयणे हाणी चउहिं पायाहि जाव दो पाया । एवं तु पोरिसीए बुहिखया हुँति नायथा ॥७॥ वुड्डी वा हाणी वा जावइया पोरिसीए दिहा उ।तत्तो दिवसगएणं जं लद्धं तं खु अयणगय ॥८॥" एतासां क्रमेण व्याख्या-युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्यां तिथी ४ पौरुषीपरिमाणं ज्ञातुमिष्यते ततः पूर्व युगादित आरभ्य यानि पर्वाण्यतिक्रान्तानि तानि प्रियन्ते, धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, गुणयित्वा च विवक्षितायास्तिथेोः प्रागतिक्रान्तास्तिथयस्ताभिः सहितानि क्रियन्ते, कृत्वा च षडशीत्यधिकेन शतेन तेषां भागो हियते, इह एकस्मिन्नयने ज्यशीत्यधिकमण्डलशतपरिमाणे चन्द्रनिष्पादितानां तिथीनां पडशीत्यधिक शतं भवति, ४ ततस्तेन भागहरणं भागे च हते यल्लब्धं तद्विजानीहि सम्यगवधारयेत्यर्थः । तत्र यदि लब्धं विषमं भवति यथा एकत्रिका पञ्चकः सप्तको नवको वा तदा तत्पर्यन्तवर्ति दक्षिणमयनं ज्ञातव्यं, अथ भवति लम्ध सम तद्यथा-द्विकश्चतुष्का षट्ठोड दीप अनुक्रम [१७] SHRESS FridaIMAPIVAHauWORK ~280 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [१०], -------------------- मलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक ॥१३४॥ [४३] दीप टको दशको वा तदा तत्पर्यन्तवत्ति उत्तरायणमवसेयं, तदेवमुक्तो दक्षिणायनोत्तरायणपरिज्ञानोपायः। सम्पति षडशील्यधिकेन शतेन भागे हृते यच्छेषमवतिष्ठते यदिवा भागासम्भवेन यच्छेषं तिष्ठति तद्गतविधिमाह-'अयणगए इत्यादि, प्राभूतयः पूर्व भागे हते भागासम्भवे वा शेषीभूतोऽयनगतस्तिथिराशिर्वर्तते से चतुर्भिर्गुण्यते, गुणयित्वा च पर्वपादेन-II युगमध्ये यानि सर्वसम्बया (ग्रंथाम्र० ४०००) पर्याणि चतुर्विशत्यधिकशतसक्यानि तेषां पादेन-चतुर्थेनांशेन एकत्रि- पौरुष्याधिशता इत्यर्थः, तया भागे हृते यल्लब्धं तान्यकुलानि चकारादनुलांशाश्च पौरुष्याः क्षयवृद्ध्या ज्ञातव्यानि, दक्षिणायने कारः सू४३ पदववराशेरुपरि वृद्धी ज्ञातव्यानि, उत्तरायणे पदवराशेः क्षये ज्ञातव्यानीत्यर्थः, अथैवंभूतस्य गुणकारस्य भागहारस्य । या कथमुत्पत्तिः, उच्यते, यदि पडशीत्यधिकेन तिथिशतेन चतुर्विंशतिरकुलानि क्षये वृद्धी वा प्राप्यन्ते, तत एकस्या तिथी का वृद्धिः क्षयो वा, राशित्रयस्थापना १८६।२४।१ अत्रान्त्येन राशिना एकलक्षणेन मध्यमो राशिश्चतुर्विंशतिरूपो गुण्यते, जातः स तावानेष, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात्, तत आयेन राशिना पडशीत्यधिकशतरूपेण भागो प्रियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद्भागो न लभ्यते, ततः छेद्यच्छेदकराश्योः पढ़ेनापवर्तना, जात उपरितनो | राशिश्चतुष्करूपोऽधस्तन एकत्रिंशत् , लब्धमेकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशद्भागाः क्षये वृद्धौ वेति चतुष्को गुणकार उक्त एकत्रिंशदू भागहार इति, इह यलब्धं तान्यङ्गलानि क्षये वृद्धी वा ज्ञातव्यानि इत्युक्तं, तत्र कस्मिन्नयने कियत्प्रमाणं ॥१४॥ ध्रुवराशेरुपरि वृद्धी कस्मिन् वा अयने किंप्रमाणे ध्रुवराशेः क्षये इत्येतन्निरूपणार्थमाह-"दक्षिणबुही' इत्यादि, दक्षिणा|यने द्विपदात्-पदद्वयस्योपरि अङ्गुलानां वृद्धिर्शातव्या, उत्तरायणे चतुर्यः पादेभ्यः सकाशादङ्गलानां हानि, तत्र युग अनुक्रम [१७] माकड ~281~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [१०], -------------------- मलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] IPI . मध्ये प्रथमे संवत्सरे दक्षिणायने यतो दिवसादारभ्य वृद्धिस्तनिरूपयति-'सावणे'त्यादि गाथाद्वयं, युगस्य प्रथम संवत्सरे श्रावणे मासि बहुलपक्षे प्रतिपदि पौरुषी द्विपदा-पदद्वयप्रमाणा धुवा भवति, ततस्तस्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथिक्रमेण तावदू धर्द्धते यावत् मासेन-सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन चन्द्रमासापेक्षया एकत्रिंशत्तिथिभि रित्यर्थः, चत्वारि अगलानि वर्द्धन्ते, कथमेतदवसीयते यथा मासेन-सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन एकत्रिंशत्ति-IN बाध्यात्मकेनेत्यत आह-'एकतीसे त्यादि, यत एकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशदागा वर्धन्ते, एतच प्रागेव भावितं, परि पूर्णे तु दक्षिणायने वृद्धिः परिपूर्णानि चत्वारि पदानि, ततो मासेन सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन एकत्रिंशत्तिथ्यात्मकेनेत्युक्तं, तदेवमुक्ता वृद्धिः। सम्पति हानिमाह-'उसरे त्यादि, युगस्य प्रथमे संवत्सरे माघमासे बहुलपक्षे सप्तम्या ४ आरभ्य चतुर्थ्यः पादेभ्यः सकाशात् प्रतितिथि एकत्रिंशद्भागचतुष्टयहानिस्तावदवसेया यावदुत्तरायणपर्यन्ते ही पादौ पौरुषीति, एष प्रथमसंवत्सरगतो विधिः, द्वितीये संवत्सरे श्रावणे मासि बहुलपक्षे त्रयोदशीमादी कृत्वा वृद्धिा, माघमासे ४ शुक्लपक्षे चतुर्थीमादिं कृत्वा क्षयः, तृतीयसंवरसरे श्रावणे मासे शुक्ले पक्षे दशमी वृद्धेरादिः, माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपत् क्षयस्यादिः, चतुर्थे संवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तमी वृद्धेरादिः, माघमासे बहुलपक्षे त्रयोदशी क्षयस्यादिः, पञ्चमे संव-I त्सरे श्रावणे मासे शुक्लपक्षे चतुर्थी वृद्धेरादिः, माघमासे शुक्लपक्षे दशमी क्षयस्यादिः, एतच्च करणगाथानुपात्तमपि पूर्वा-12 चार्यप्रदर्शितव्याख्यानादवसितं, सम्प्रत्युपसंहारमाह-एवं तु इत्यादि, एवम्-उकेन प्रकारेण पौरुष्या-पौरुषीविषये वृद्धिक्षयौ यथाक्रमं दक्षिणायनेपूत्तरायणेषु वेदितव्यौ, तदेवमक्षरार्धमधिकृत्य व्याख्याताः करणगाथा, सम्प्रत्यस्य करणस्य दीप अनुक्रम [१७] ~282 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [१०], -------------------- मलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः मल०) १० माभूत प्रत ॥१३५॥ सूत्रांक [४३] S साभावना क्रियते-कोऽपि पृच्छति-युगे आदित आरभ्य पश्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति , सत्र १० माभूत चतुरशीतिर्धियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्चम्यां तिथौ पृष्टमिति पञ्च, चतुरशीतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि द्वादश शतानि पश्यधिकानि १२६०, एतेषु मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्वादश शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि १२६५, तेषां षडशीत्यधिकेन शतेन भागो झियते, लब्धाः षट्, आगतं षट् अयनान्यतिक्रान्तानि सप्तममयनं वत्तेते, तद्गतं च शेषमे-कास४३ कोनपश्चाशदधिकं शतं तिष्ठति १४९, ततश्चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पञ्च शतानि षण्णवत्यधिकानि ५९६, तेषामेकत्रिंशता भागहरणे लब्धा एकोनविंशतिः, शेषास्तिष्ठन्ति सप्त, तत्र द्वादशाङ्कलानि पाद इत्येकोनविंशतेोदशभिः पदं लब्धं, शेषाणि तिष्ठन्ति सप्त अङ्गुलानि, षष्ठं चायनमुत्तरायणं तद् गतं सप्तमं तु दक्षिणायनं वर्त्तते, ततः पदमेकं सत अङ्गलानि पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशी प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि पदानि सप्त अकुलानि, ये च सप्त एकत्रिंशदागाः शेषीभूता वसन्ते तान् यवान् कुम्मैः, तत्राष्टौ यवा अङ्गले इति ते सप्त अष्टभिर्गुण्यन्ते, जाताः षट्पञ्चाशत् ५६, तस्या एकत्रिंशता भागे हृते लग्ध एको यवः, शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, आगतं पश्चाशीतितमे पर्वणि पश्चम्यां त्रीणि पदानि सप्त अकुलानि एको यव एकस्य च ययस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इत्येतावती पौरुषीति । तथाऽपरः कोऽपि पृच्छति-सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथी कतिपदा पौरुषी, तत्र पण्णवतिर्धियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्च, षण्णवतिश्च ॥१३५॥ पञ्चदशभिगुण्यते, जातानि चतुर्दश शतानि चत्वारिंशदधिकानि १४४०, तेषां मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते, जातानि | चतुर्दश शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि १४४५, तेषां पडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त अयनानि, टीप अनुक्रम [५७] ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१०], -----------------प्राभूतप्राभत [१०], --------...-..-.---- मलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४३] शेष तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिकं शतं १४३, तत् चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पञ्च शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ५७२, तेषामेकत्रिंशता भागो हियते, लब्धान्यष्टादशाङ्कलानि १८, तेषां मध्ये द्वादशभिरजुलैः पदमिति लब्धमेकं पदं षट् अङ्गलानि, उपरि चांशा उद्धरन्ति चतुर्दश १४, ते यवानयनार्थमष्टभिर्गुण्यन्ते, जातं द्वादशोत्तर शतं ११२, तस्यैकत्रिंशता भागे हते लम्धाखयो यवाः, शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, सप्त चायनान्यतिक्रान्तानि अष्टमं वर्तते, अष्टम चायनमुत्तरायणं, उत्तरायणे च पदचतुष्टयरूपात् ध्रुवराशेहानिर्वक्तच्या तत एक पदं सप्त अङ्गलानि त्रयो यवा एकस्य च यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इति पदचतुष्टयात्पात्यते, शेषं तिष्ठति दे पदे पश्चाङ्गलानि चत्वारो यवा एकस्य च यवस्य द्वादश एकत्रिंशदागा, एतावती युगे आदित आरभ्य सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथी पौरुषीति, एवं सर्वत्र भावनीयं । सम्प्रति पौरुषीपरिमाणतोऽयनगतपरिमाणज्ञापनार्थमियं करणगाथा-बुद्दी 'त्यादि, पौरुष्यां यावती वृद्धिहानिर्वा दृष्टा ततः सकाशाद् दिवसगतेन प्रवर्तमानेन वा त्रैराशिककर्मानुसारणतो यत् लब्धं तत् अयनगतं-अयनस्य तावरममाणं गतं वेदितव्यं, एष करणगाथाशरार्थः। भावना त्वियम्-तत्र दक्षिणायने पदद्वयस्योपरि चत्वारि अङ्गलानि वृद्धौ दृष्टानि, ततः कोऽपि पृच्छति-कियद् गतं दक्षिणायनस्य ?, अत्र त्रैराशिककवितारो-यदि चतुर्भिरङ्गलस्य एकत्रिंशद्भागैरेका तिथिर्लभ्यते ततश्चतुर्भिरङ्गलैः कति तिथीर्लभामहे ?, राशित्रयस्थापना ४,१,४ । अवान्त्यो राशिरगलरूप एकत्रिंशदागकरणार्थमेकत्रिंशता गुण्यते जातं चतुर्विंशत्यधिकं शतं १२४, तेन मध्यो राशिर्गुण्यते, जातं तदेव चतुर्विशत्यधिकं शतं १२४, 'एकगुणने तदेव भवतीति वचनात् , तस्य चतुष्करूपेणादिराशिना भागो हियते, लब्धा एकत्रि दीप अनुक्रम [१७] ~284~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: का प्रत सूत्रांक [४३] दीप सूर्यप्रज्ञ- शत्तिधयः, आगतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ चतुरङ्गाला पौरुष्यां वृद्धिरिति । तथा उत्तरायणे पदचतुष्टयाद- १० प्राभूते विवृत्तिः Mङ्गलाष्टकं हीनं पौरुष्यामुपलभ्य कोऽपि पृच्छति-किं गतमुत्तरायणस्थ', अत्रापि त्रैराशिक-यदि चतुर्भिरङ्गलस्य एकत्रि- प्रान्त का प्राभृते (मल०) शागरेका तिथिर्लभ्यते ततोऽष्टभिरालैहीनः कति तिथयो लभ्यन्ते !, राशित्रयस्थापना ४।१।८। अत्रान्त्यो राशि-INMENT रेकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिंशता गुप्यते, जाते द्वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके २४८, ताभ्यां मध्यो राशिरेककरूपो गुण्यते, कारस ॥१३६॥ जाते ते एव द्वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके २४८, तयोराधेन राशिना चतुष्करूपेण भागहरणं, लब्धा द्वापष्टिः ६२,४ आगतमुत्तरायणे द्वापष्टितमाया तिथी अष्टावालानि पौरुष्यां हीनानीति । 'तस्सि च णं मासंसि वहाए' इत्यादि। तस्मिक्षापाढे मासे प्रकाश्यस्य वस्तुनो वृत्तस्य वृत्तया समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितस्य समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितया न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानस्य न्यग्रोधपरिमण्डलया उपलक्षणमेतत् शेषसंस्थानसंस्थितस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः शेषसंस्थानसंस्थितया, आषाढे हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिकान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भवति, निश्चयतः पुनरापाढमासस्य चरमदिवसे, तत्रापि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये, ततो यत्प्रकाश्य वस्तु यत्संस्थान भवति तस्य छायाऽपि तथासंस्थानोपजायते, सत उक्त-वत्तस्य वत्सयाए'इत्यादि, एतदेवाह-खकायमनुरङ्गिन्या'। स्वस्थ-स्वकीयस्य छायानिबन्धनस्य वस्तुनः काय:-शरीरं वकायस्तं अनुरज्यते-अनुकारं विदधातीत्येवंशीलाऽनुरङ्गिनी|MI ॥१३६॥ 'द्विषद्गृहे'त्यादिना घिनश्प्रत्ययः, तया स्वकायमनुरजिन्या छायया सूर्योऽनु-प्रतिदिवसं परायत्ते, एतदुकं भवतिआषाढस्य प्रथमावहोराबादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसङ्क्रान्त्या तथा कथनापि सूर्यः परावत्तेते यथा सर्वस्यापि अनुक्रम [१७] CCASNUGADGAON JAINElimintimalsina ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [१०], -------------------- मलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 44%%*48 सूत्रांक [४३] दीप प्रकाश्यवस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिकान्ते शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवतीति, शेष सुगमम् ॥ इति| इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- १० समाप्तं तदेवमुक्तं वशमस्य प्राभूतस्य दशमं प्राभृतमाभृतं, साम्प्रतमेकादशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा 'नक्षत्रा-1 ण्यधिकृल्य चन्द्रमार्गा वक्तव्या' इति, ततस्तद्विषयं प्रभसूत्रमाह|ता कहं ते चंदमग्गा अहितेति वदेजा, ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खशाणं अस्थि णवत्ता जे गं सता चंदस्स दाहिणेणं जोअं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णं सता चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोयंति, अत्धि ४ णक्रवत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणवि पमइंपि जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जेणं चंदस्स दाहि-| भणवि पमईपि जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ते जे णं चंदस्स सदा पमई जोअंजोएंति, ता एएसिणं अट्ठावीसाए। नक्खत्साणं कतरे नक्षत्ता जे णं सता चंदस्स दाहिजेणं जोयं जोएंति, तहेव जाच कतरे नक्खत्ता जेणं सदा चंदस्स पमई जोयं जोएंति ?, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं जे णं नक्खत्ता सया चंदस्स दाहि-8 पण जोयं जोएंति ते णं छ, तं०-संठाणा अद्दा पुस्सो अस्सेसा हत्थो मूलो, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं सदा दस्स उत्तरेणं जोयं जोएंति,ते णं यारस, तंजहा-अभिई सवणो धणिट्ठा सतभिसया पुषभदवया उत्तरा-1 पोट्टवता रेवती अस्सिणी भरणी पुक्षाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी साती १२, तस्थ जे ते णक्खत्ता जेणं अनुक्रम [१७] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १० परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ११ आरभ्यते ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभूत [११], ------------------- मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूयमजतिवृतिः (मल.) ॥१३७॥ II प्राभृते सूत्रांक [४४] टीप चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणवि पमईपि जोयं जोएंति ते णं सत्त, तंजहा-कत्तिया रोहिणी पुणवसू महा १० प्राभूते चित्ता विसाहा अणुराहा, तत्थ जे ते नक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणवि पमपि जोयं जोएंति ताओ णं ११प्राभूतदो आसाढाओ सबबाहिरे मंडले जोयं जोएंमु वा जोएंति वा जोएस्संति वा, तत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं सदा चंदस्स पमई जोयं जोएंति, साणं एगा जेट्टा (सूत्रं ४४)॥ चन्द्रभूम णमार्गः I ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं १-केन प्रकारेण नक्षत्राणां दक्षिणत उत्तरतः प्रमईतो यदिवा सूर्यनक्षत्रै-12 मंसू ४४ विरहिततया अविरहिततया चन्द्रस्य मार्गा:-चन्द्रस्य मण्डलगत्या परिभ्रमणरूपा मण्डलरूपा वा मार्गा आख्याता इति वदेत , भगवानाह-'ता एएसिण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्येऽस्तीति निपातत्वादाप-| स्वाद्वा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि णमिति वाक्यालङ्कारे सदा चन्द्रस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि व्यवस्थितानि योग युञ्जन्ति-कुर्वन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्य उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि दिशि स्थितानि उत्तरस्यामपि दिशि स्थितानि योग युञ्जन्ति, प्रमईमपि-प्रमईरूपमपि योगं कुर्वन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि दिशि व्यवस्थितानि M ॥१३७॥ योग युआन्ति प्रमईरूपमपि योग युअन्ति, अस्ति तन्नक्षत्रं यत्सदा चन्द्रस्य प्रमईरूपं योग युनक्ति, एवं सामान्येन भग-1 बतोके भगवान् गौतमो विशेषावगमनिमित्तं भूयः प्रश्नयति-ता एएसि णमित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता एएसिण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि सदा चन्द्रस्य दक्षिणस्यां। अनुक्रम [५८] ~287 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभूत [११], ------------------- मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] दिशि व्यवस्थितानि योगं कुर्वन्ति तानि षट्, तद्यथा-मृगशिर आर्द्रा पुष्योऽश्लेषा हस्तो मूलच, एतानि हि सर्वाण्यपि पञ्चदशस्य चन्द्रमण्डलस्य बहिश्चारं चरन्ति, तथा चोक्त करणविभावनाया-पन्नरसमस चंदमंडलस्स बाहिरओ मिगहै सिर अद्दा पुस्सो असिलेहा हत्थ मूलो य" जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तावप्युक्तम्-"संठाण अद्द पुस्सोऽसिलेस हत्थो तहेव मूलो य । बाहिरओ बाहिरमंडलस्स छप्पे य नक्खत्ता ॥१॥ ततः सदैव दक्षिणदिग्व्यवस्थितान्येव तानि चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्युपपद्यन्ते नान्यथेति, तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि यानि सदा-सर्वकालं चन्द्रस्योत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि व्यवस्थितानि योग युजन्ति-कुर्वन्ति तानि द्वादश, तद्यथा-'अभिई'इत्यादि, एतानि हि द्वादशापि नक्षत्राणि सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रमण्डले चार चरन्ति, तथा चोक्तं करणविभावनायां-"से पढमे सबभंतरे चंदमंडले नक्खत्ता इमे, तंजहा-अभिई सवणो धणिहा सयभिसया पुषभद्दवया उत्तरभद्दवया रेवई अस्सिणी भरणी पुषफग्गुणी उत्तरफग्गुणी साई" इति, यदा चैतैः सह चन्द्रस्य योगस्तदा स्वभावाच्चन्द्रः शेषेष्वेव मण्डलेषु वर्तते, ततः सदैवैतान्युत्तरदिग्व्यवस्थितान्येव चन्द्रमसा सह योगमुपयन्तीति, तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि दिशि व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति उत्तरस्यामपि दिशि व्यवस्थितानि योग युञ्जन्ति प्रमईरूपमपि योगं युञ्जन्ति तानि सप्त, तद्यथा-कृत्तिका रोहिणी पुनर्वसु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा, केचित् पुनज्येछानक्षत्रमपि दक्षिणोत्तरप्रमईयोगि मन्यन्ते, तथा चोक्तं लोकश्रियाम्-'पुणवसु रोहिणिचित्तामहजेडणुराह कत्तिय विसाहा । चंदस्स उभयजोगी'त्ति, अन 'उभयजोगित्ति व्याख्यानयता टीकाकृतोतं-एतानि नक्षत्राणि उभययो अनुक्रम [१८] ~288~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४४] दीप अनुक्रम [५८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४४] प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [११], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥ १३८॥ सूर्य प्रज्ञ- गीनि-चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते, कदाचिद् भेदमप्युपयान्तीति तच्च वक्ष्यमाण ज्येष्ठासूत्रेण सह विरोधीति न सिवृत्तिः प्रमाणं, तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये ये ते नक्षत्रे ये णमिति वाक्यालङ्कारे सदा चन्द्रस्य दक्षिणेनापि दक्षि ( मल०) २ णस्यामपि दिशि व्यवस्थिते योगं युङ्कः, प्रमर्दे च प्रमर्द्दरूपं च योगं युक्तः, ते णमिति वाक्यालङ्कारे, द्वे आषाढ पूर्वाषाढीतरापाढारूपे, ते हि प्रत्येकं चतुस्तारे, तथा च प्रागेवोक्तम्- 'पुधासाढे चत्तारे पण्णत्ते' इति, तत्र द्वे द्वे तारे सर्वबाह्यस्य | पञ्चदशस्य मण्डलस्याभ्यन्तरतो द्वे द्वे बहिः, तथा चोक्तं करणविभावनायाम् - "पुम्वुत्तराण आसाढाणं दो दो ताराओ अभितरओ दो दो बाहिरओ सबबाहिरस्स मंडलस्स” इति, ततो ये द्वे द्वे तारे अभ्यन्तरतस्तयोर्मध्येन चन्द्रो गच्छतीति तदपेक्षया प्रमर्द्द योगं युद्ध इत्युच्यते, ये तु द्वे द्वे तारे वहिस्ते चन्द्रस्य पञ्चदशेऽपि मण्डले चारं चरतः सदा दक्षिणदिगुव्यवस्थिते ततस्तदपेक्षया दक्षिणेन योगं युक्त इत्युक्तं, सम्प्रत्येतयोरेव प्रमर्द्दयोगभावनार्थ किञ्चिदाह- 'ताओ य सबबाहिरे' त्यादि, ते च पूर्वाषाढोत्तराषाढारूपे नक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमयुङ्कां युक्ती योक्ष्येते वा सदा सर्वबाह्ये मण्डले व्यवस्थिते, ततो यदा पूर्वाषाढोत्तराषाढाभ्यां सह चन्द्रो योगमुपैति तदा नियमतोऽभ्यन्तरतारकाणां मध्येन गच्छतीति तदपेक्षया प्रमर्द्दमपि योगं युद्ध इत्युक्तं, तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यत्तन्नक्षत्रं यत्सदा चन्द्रस्य प्रमईप्रमर्द्दरूपं योगं युनक्ति सा एका ज्येष्ठा । तदेवं मण्डलगत्या परिभ्रमणरूपाश्चन्द्रमार्गा उक्ताः, सम्प्रति मण्डलरूपान् चन्द्रमार्गानभिधित्सुः प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कति ते चंदमंडला पण्णत्ता १, ता पण्णरस चंदमंडला पं० ता एएसि णं पण्णरसण्डं चंदमंडलाणं Eaton mana Fuse One ~289~ १० प्राभृते ११ प्राभृतप्राभृते चन्द्रभ्रम णमार्गः सू ४४ ॥१३८॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [११], ------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] अस्थि चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं विरहिया, अस्थि चंदमंडला जे णं रविससिणक्खत्ताणं सामण्णा MIभवति, अस्थि मंडला जे णं सया आदिचेहिं विरहिया, ता एतेसि णं पण्णरसह चंदमंडलाणं कयरे चंदमंडला जे णं सता णक्खत्तेहिं अविरहिया, जाव कयरे चंदमंडला जे णं सदा आदिवविर|हिता ?, ता एतेसि णं पण्णरसण्हं चंदमंडलाणं तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सदा णक्खत्तेहिं अविरहिला। Mते णं अह, तं०-पढमे चंदमंडले ततिए चंदमंडले छट्टे चंदमहले सत्तमे चंदमंडले अट्ठमे चंदमंडले दसमे चंद-1 मंडले एकादसे चंदमंडले पण्णरसमे चंदमंडले, तत्थ जे ते चंदमंडला जे गं सदा णक्खत्तेहिं विरहिया तेणं सत्त, तं०-बितिए चंदमंडले “चउत्थे चंदमंडले पंचमे चंदमंडले नवमे चंदमंडले बारसमे चंदमंडले| तेरसमे चंदमंडले चउद्दसमे चंदमंडले, तत्थ जे ते चंदमंडले जे णं ससिरविनक्खत्तार्ण समाणा भवंति, ते पंचत्तारि, तंजहा-पढमे चंदमंडले बीए चंदमंडले इक्कारसमे चंदमंडले पन्नरसमे चंदमंडले, तत्थ जेते चंदमंडला जे णं सदा आदिवविरहिता ते णं पंच, तं०-छठे चंदमंडले सत्तमे चंदमंडले अट्ठमे चंदमंडले नवमे चंदमंडले दसमे चंदमंडले, (सूत्र ४५) दसमस्स एकारसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ "ता कइ णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , कतिसङ्ख्यानि णमिति वाक्यालङ्कारे, चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह–ता पण्णरसे'त्यादि, ता इति प्राग्वत् , पश्चदश चन्द्रमण्डलानि प्रजातानि, तत्र पश चन्द्रमण्डलानि जम्बूद्वीपे। शेषाणि च दश मण्डलानि लवणसमुद्रे, तथा चोक्तं "जंबूदीपप्रज्ञप्ती-'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयं ओगाहित्ता केव %95 प अनुक्रम [५९]] % Fhi ~290 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४५] दीप अनुक्रम [ ५९ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [११], प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः मूलं [४५] ( मल० ) ॥१३९॥ सूर्यप्रश- ४ इया चंदमंडला पत्ता १, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे असीर्य जोयणसर्य ओगाहित्ता एत्थ णं पंच चंदमंडला पण्णत्ता, शिवृत्तिः लवणे णं भंते! समुद्दे केवइयं ओगाहिता केवइया चंदमंडला पण्णत्ता १, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिण्णि तीसाई जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दस चंदमंडला पण्णत्ता, एवामेव सपुधावरेणं जंबुद्दीवे लवणे य पन्नरस चंदमंडला भवन्तीति अक्खायं" 'ता' इत्यादि, 'ता' इति तत्र एतेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये 'अस्थि' ति सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा नक्षत्रैरविरहितानि तथा सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा नक्षत्रैर्विरहितानि तथा सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि रविशशिनक्षत्राणां सामान्यानि - साधारणानि, किमुक्तं भवति ?-रविरपि तेषु मण्डलेषु गच्छति शश्यपि नक्षत्राण्यपीति, तथा सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा आदित्याभ्यां सूत्रे द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् विरहितानि येषु न कदाचिदपि द्वयोः सूर्ययोर्मध्ये एकोऽपि सूर्यो गच्छतीति भावः, एवं भगवता सामान्येनोके भगवान् गौतमो विशेषावगमननिमित्तं भूयः प्रश्नयति-'ता एएसिणमित्यादि सुगर्म, भगवानाह - 'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् एतेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि णमिति प्राग्वत् सदा नक्षत्रैरविरहितानि तान्यष्टौ तद्यथा-'पढमे चंदमंडले' इत्यादि, तत्र प्रथमे चन्द्रमण्डले अभिजिदादीनि द्वादश नक्षत्राणि, तथा च तत्सङ्ग्रहणिगाथा - 'अभिई सवण घणिट्टा सयभिसया दो य होंति भहवया । रेवइ अस्सिणी भरणी दो फग्गुणि साइ पढमंमि ॥ १ ॥' तृतीये चन्द्रमण्डले पुनर्वसुमधे षष्ठे चन्द्रमण्डले कृत्तिका सप्तमे रोहिणीचित्रे अष्टमे विशाखा दशमे अनुराधा एकादशे ज्येष्ठा पश्चदशे मृगशिर आर्द्रापुष्यो अश्लेषा हस्तो मूलः पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, Jan Eiration Intimat FP Use Onl ~291~ १० प्राभृते ११ प्राभृतप्राभूते चन्द्रमण्डउमागेः सू ४५ ॥१३९॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [११], -------------------- मलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] तित्राद्यानि षटू नक्षत्राणि यद्यपि पञ्चदशस्य मण्डलस्य बहिश्चारं चरन्ति तथापि तानि तस्य प्रत्यासन्नानीति तत्र गण्यन्ते, ततो न कश्चिद्विरोधः, तथा तत्र-तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा नक्ष-18 विरहितानि तानि सप्त, तद्यथा-द्वितीयं चन्द्रमण्डलमित्यादि, तथा तत्र-तेषां पश्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि रविशशिनक्षत्राणां सामान्यानि भवन्ति तानि णमिति प्राग्बत् चत्वारि, तद्यथा-पढमे चंदमंडले इत्यादि, तथा तत्र-तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा आदित्याभ्यां विरहितानि तानि पञ्च, तद्यथा-'छठे चंदमंडले'इत्यादि सुगम, एतगणनाञ्च यान्यभ्यन्तराणि पश्च चन्द्रमण्डलानि, तद्यथाप्रथम द्वितीयं तृतीयं चतुर्थं पञ्चम, यानि च सर्वबाह्यानि चन्द्रमण्डलानि, तद्यथा-एकादशं द्वादशं त्रयोदशं चतुर्दश पञ्चदशमित्येतानि दश सूर्यस्यापि साधारणानीति गम्यते, तथा चोक्तमन्यत्र-'दस चेच मंडलाई अभितरबाहिरा रविस-| सीणं । सामन्नाणि उ नियमा पत्तया होंति सेसाणि ॥१॥" अस्याक्षरगमनिका-पश्चाभ्यन्तराणि पञ्च बाह्यानि सर्वसत्यया दश मण्डलानि नियमाद्रविशशिनो सामान्यानि-साधारणानि, शेषाणि तु यानि चन्द्रमण्डलानि पडादीनि दशपर्यन्तानि तानि प्रत्येकानि-असाधारणानि चन्द्रस्य, तेषु चन्द्र एवं गच्छति नतु जातुचिदपि सूर्य इति भावः, इह किं चन्द्रमण्डलं कियता भागेन सूर्यमण्डलेन न स्पृश्यते कियन्ति वा चन्द्रमण्डल स्थापान्तराले सूर्यमण्डलानि कथं वा षडादीनि दशपर्यन्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्येण न स्पृश्यन्ते इति चिन्तायां विभागोपदर्शनं पूर्वाचायः कृतं, ततस्तद्विनेयजनानुग्रहायोपदर्यते-तत्र प्रथमत एतद्विभावनार्थ विकम्पक्षेत्रकाष्ठा निरूप्यते, इह सूर्यस्य, विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च प अनुक्रम [१९] FhiraIMAPIVARAuNORN ~292~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [११], -------------------- मलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] सू४५ सूर्यप्रज्ञ- योजनशतानि दशोत्तराणि, तथाहि-यदि सूर्यस्यैकेनाहोरात्रेण विकम्पो वे योजने एकस्य च योजनस्याष्टाचत्वारिंशप्तिवृत्तिःदेकपष्टिभागा लभ्यन्ते, ततख्यशीत्यधिकेनाहोरात्रशतेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-२,१६३ अत्र सवर्णनार्थ १०प्राभूत (मल.) योजने एकपल्या गुण्यते, गुणयित्वा चोपरितना अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, १ ततो जातं सप्तत्यधिक ११प्राभृत प्राभूते शतं १७०, एतब्यशीत्यधिकेन शतेनान्त्यराशिना गुण्यते, जातान्येकत्रिंशत् सहस्राणि शतमेकं दशोत्तरं ३१११०, तत ॥१४॥ चन्द्रमण्डएतस्य राशेयोजनानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धानि पश्च योजनशतानि दशोत्तराणि ५१०, एतावती सूर्यस्य लमागे विकम्पक्षेत्रकाष्ठा, चन्द्रमसः पुनर्विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि एकस्य च योजनस्य त्रिपश्चाशदेकपष्टिभागाः, तथाहि-यदि चन्द्रमस एकेनाहोरात्रेण विकम्पः षत्रिंशद्योजनानि एकस्य च योजनस्य पञ्चविंशतिरेकष-12 ष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागा लभ्यन्ते ततश्चतुर्दशभिरहोरात्रैः किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना1/2 अब सवर्णनार्थं प्रथमतः पत्रिंशतं एकषध्या गुण्यते गुणयित्वा चोपरितनाः पचविंशतिरेकषष्टिभागास्तत्र प्रशि | प्यन्ते, जातानि द्वाविंशतिः शतानि एकविंशत्यधिकानि २२२१, एतानि सप्तभिर्गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरिसतनाश्चत्वारः सप्तभागास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातानि पञ्चदश सहस्राणि पश्च शतान्येकपश्चाशदधिकानि १५५५१,४ ॥१४॥ ततो योजनानयनाथ छेदराशिरप्येकषष्टिलक्षणः सप्तभिर्गुण्यते, जातानि चत्वारि शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ४२७, तत उपरितनो राशिश्चतुर्दशभिरन्त्यराशिरूपैर्गुण्यते, ततो जातो वे लक्षे सप्तदश सहस्राणि सप्तद्रशानि चतुर्दशाधिकानि |२१७७१५, ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः सप्तभिरपवर्तना, जात उपरितनो राशिरेकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं व्युत्तरं २११०२ श्रीप अनुक्रम [५९]] ~293 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * * प्रत सूत्रांक [४५] ** ॐॐॐॐॐॐॐॐ प छेदराशिरेकषष्टिस्ततस्तया भागे हते लब्धानि पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि एकस्य च योजनस्य त्रिपश्चाशदेकषष्टि-18 भागाः एतावती चन्द्रमसो विकम्पक्षेत्रकाष्ठा, सूर्यमण्डलस्य २ च परस्परमन्तरं द्वे द्वे योजने चन्द्रमण्डलस्य | चन्द्रमण्डलस्य च परस्परं अन्तरं पञ्चत्रिंशद् योजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागाः, उक्तंच जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती-"सूरमंडलस्स ण भंते ! सूरमंडलस्स एस णं केवाइयं अबाहाए। अंतरे पण्णते ?, गोअमा! दो जोयणाई सूरमंडलस्स सूरमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णते" तथा "चंदमंडलस्स णं भंते ! चंदमंडलस्स एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते, गोयमा ! पन्नत्तीसं जोयणाई तीसं च एगठिभागा जोअणशास्स एगं च एगहिभागं सत्तहा छित्ता चत्तारि अ चुण्णिा भागा सेसा चंदमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णते" इति, एत| देव च सूर्यमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य च स्वस्वमण्डलविष्कम्भपरिमाणयुक्तं सूर्यस्य चन्द्रममश्च विकम्पपरिमाणमवसेयं, तथा चोक्तम्-"सूरविकंपो एको समंडला होइ मंडळंतरिया। चंदविकंपो य तहा समंडला मंडलंतरिया ॥१॥" अस्या गाधाया अक्षरगमनिका-एकः सूर्यविकम्पो भवति 'मंडलंतरिय'त्ति अन्तरमेव आन्तय, भेषजादित्वात् स्वार्थे यण, ततः स्त्रीत्वविवक्षायां डीप्रत्यये आन्तरी आम्तर्येच आन्तरिका मण्डलस्य मण्डलस्यान्तरिका मण्डलान्तरिका 'समंडल'त्ति इह मण्डलशब्देन मण्डलविष्कम्भ उच्यते, परिमाणे परिमाणवत उपचारात् , ततः सह मण्डलेन-मण्डलविष्कम्भपरिमाणेन | परिमाणेन वर्त्तते इति समण्डला, किमुक्तं भवति?-एकस्य सूर्यमण्डलान्तरस्य यत्परिमाणं योजनद्वयलक्षणं तदेकसूर्यमण्डलविष्कम्भपरिमाणेन अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागलक्षणेन सहितमेकस्य सूर्यमण्डलस्यविकम्पपरिमाणमिति, तथा मण्डलान्त * * अनुक्रम [१९] ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [११], ------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः मल०) प्रत सूत्राक [४५] ॥१४॥ - टीप --- रिकाचन्द्रमण्डलान्तरपरिमाणं पञ्चत्रिंशत् योजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकषष्टिभागा एकस्य चैकषष्टिभागस्य चत्वारः१० प्राभृते | सप्तभागा इत्येवंरूपं 'समंडल'त्ति मण्डलविष्कम्भपरिमाणेन सहिता एकश्चन्द्रविकम्पो भवति, यस्तु विकम्पक्षेत्रकाष्ठा-18 मा- ११माभृतदर्शनतो विकम्पपरिमाणं ज्ञातुमिच्छति तं प्रतीयं पूर्वाचार्योपदर्शिता करणगाधा-"सगमंडलेहिं लद्धं सगकठाओ हवंति प्राभृते सविकंपा । जे सगविक्खंभजुया हवंति सगमंडलंतरिया ॥१॥" अस्या अक्षरमात्रगमनिका-ये चन्द्रमसः सूर्यस्य वा लमागे विकम्पाः, कथम्भूतास्ते इत्याह-'स्वकविष्कम्भयुताः स्वकमण्डलान्तरिकाः' स्वस्वमण्डलविष्कम्भपरिमाणसहितस्वस्वमण्डलान्तरिकारूपा इत्यर्थः, भवन्ति स्वकाष्ठातः-स्वस्वविकम्पयोग्यक्षेत्रपरिमाणस्य स्वकमण्डलैः-स्वस्वमण्डलसङ्ख्यया भागे हुते यलब्धं तावत्परिमाणास्ते स्वविकम्पा:-स्वस्वविकम्पा भवन्ति, तथाहि-सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च योजनशतानि दशोत्तराणि ५१०, तान्येकषष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या' गुण्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं देशोत्तरं । ३१११०, सूर्यस्य मण्डलानि विकम्पक्षेत्रे व्यशीत्यधिकं शतं १८३, ततो योजनानयनार्थ व्यशीत्यधिक मण्डलशतमेकषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकादश सहस्राणि शतमेकं त्रिषष्ट्यधिक १११६३, एतेन पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धे द्वे योजने, शेषमुपरिष्टादुद्धरति सप्ताशीतिः शतानि चतुरशीत्यधिकानि ८७८४, ततः सम्प्रत्येकषष्टिभागा आनेतव्या इत्यधस्तात् छेदराशिः यशीत्यधिक शतं १८३, तेन भागे हृते लब्धा अष्टाचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः ४८, एतावदेकैकस्य सूर्यविकम्पस्य परि- ॥१४१॥ माणं, तथा चन्द्रस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि त्रिपञ्चाशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य ५०९१२ तत्र योजनान्येकषष्टिभागकरणार्थ एकपट्या गुण्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि एकोनपञ्चाशदधिकानि ३१०४९, तत - अनुक्रम [५९]] ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [११], -------------------- मलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] ४ उपरितनास्त्रिपश्चाशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं धुत्तरं ३११०२, चन्द्रस्य तु विकम्प-16 क्षेत्रमध्ये मण्डलानि चतुर्दश १४, ततो योजनानयनार्धं चतुर्दश एकषया गुण्यन्ते, जातान्यष्टौ शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि ८५४, तैः पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धानि षट्त्रिंशद् योजनानि ३६, शेषाणि तिष्ठन्ति त्रीणि शतान्यष्टापञ्चाशदधिकानि ३५८, अत ऊर्व एकषष्टिभागा आनेतव्याः, ततश्चतुर्दशरूपोऽधस्तात छेदराशिः १४, तेन भागे हृते लब्धाः पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागाः २५, शेषास्तिष्ठन्ति अष्टौ, सप्तभागकरणाथै सप्तभिर्गुण्यन्ते जाताः षट्पञ्चाशत् ५६, तस्याश्च| तुर्दशभिर्भागे लब्धाश्चत्वारः सप्तभागा, एतावत्परिमाण एकैकश्चन्द्रविकम्प इति । तदेवं चन्द्रस्य सूर्यस्य च विकम्पक्षेत्र काष्ठा चन्द्रमण्डलानां सूर्यमण्डलानां च परस्परंमन्तरमुक्त, सम्प्रति प्रस्तुतमभिधीयते-तत्र सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रमण्डलेॐ | सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं सर्वात्मना प्रविष्टं, केवल मष्टावेकषष्टिभागाश्चन्द्रमण्डलस्य बहिः शेषा वर्तन्ते, चन्द्रमण्डलात् | सूर्यमण्डलस्याष्टाभिरेकपष्टिभागहीनत्वात् , ततो द्वितीयाचन्द्रमण्डलादर्वागपान्तराले द्वादश सूर्यमार्गाः, तथाहिद्वयोश्चन्द्रमण्डलयोरन्तरं पश्चत्रिंशत् योजनानि त्रिंशकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः | सप्तभागाः, तत्र योजनान्येकषष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनाखिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, |जातान्येकविंशतिः शतानि पञ्चषध्यधिकानि २१६५, सूर्यस्य विकम्पो वे योजने अष्टाचत्वारिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य, तत्र द्वे योजने एकपल्या गुण्येते, जातं द्वाविंशं शतं १२२, तत उपरितना अष्टाचत्वारिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य प्रक्षिप्यन्ते जातं सप्तत्यधिक शतं १७०, तेन पूर्वराशेर्भागो ह्रियते, लब्धा द्वादश, एतावन्तोऽपान्तराले सूर्यमार्गा भवन्ति, प COLORCAMPANCHANG अनुक्रम [१९] FhiraIMAPIVAHauwORE ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] आसू ४५ सूर्यप्रज्ञ 18 शेष तिष्ठति पञ्चविंशं शतं १२५, तत्र द्वाविंशेन शतेन द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने लब्धे शेषास्तिष्ठन्ति त्रय /१० प्राभूत तिवृत्तिः एकपष्टिभागाः, येऽपि च प्रथमे चन्द्रमण्डले रविमण्डलात् शेषा अष्टावेकषष्टिभागास्तेऽप्यत्र प्रक्षिप्यन्ते इति जाता११माभूत(मल०) एकादश एकषष्टिभागाः, तत इदमागतं द्वादशात्सूर्यमार्गात् परतो द्वितीयाचन्द्रमण्डलादाक् द्वे योजने एकादश च प्राभूते एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र योजनद्वयानन्तरं सूर्यमण्डलमतो द्वि चन्द्रमण्ड॥१४॥ लमागे |तीयाचन्द्रमण्डलादवोगभ्यन्तरं प्रविष्ट सूर्यमण्डलं एकादश एकषष्टिभागस्य सरकान् चतुरः सप्तभागान् , ततः परं - षशिंत्रदेकपष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काखयः सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं सूर्यमण्डलं चन्द्रमण्डलसम्मिश्र, ततः सूर्यमण्डलात्परतो बहिर्विनिर्गतं चन्द्रमण्डलमेकोनविंशतिमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान , ततः परं भूयस्तृतीय[स्य चन्द्रमण्डलादर्वाग् यथोक्तपरिमाणमन्तरं, तद्यथा-पञ्चत्रिंशद् योजनानि त्रिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, एतावति चान्तरे द्वादश सूर्येमागों लभ्यन्ते, उपरि च द्वे योजने त्रयबैकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागास्ततोऽत्र प्रागुक्ता लाद्वितीयस्य चन्द्रमण्डलस्य सत्काः सूर्यमण्डलाद बहिर्विनिर्गता एकोनविंशतिरेकपष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य | चत्वारः सप्तभागाः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जाताखयोविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सरक एकः सप्तभागा,* ॥१४२॥ तत इदमायात-द्वितीयाचन्द्रमण्डलारपरतो द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच सूर्यमार्गात् परतो योजनद्वयातिक्रमेण सूर्य-15 मण्डलं, तब तृतीयायन्द्रमण्डलादर्वागभ्यन्तरं प्रविष्टं त्रयोविंशतिमेकषष्टिभागान् एकं च एकपष्टिभागसत्कं सप्तभागं, ततः|| अनुक्रम [१९] FhiralMAPIMIREUMORE ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] प शेषाश्चतुर्विशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य षट् सप्तभागाः सूर्यमण्डलस्य तृतीयचन्द्रमण्डलसम्मिश्राः ततस्तूतीयं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलाद् बहिर्विनिर्गतमेकत्रिंशतमेकषष्टिभागान् एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कमेक सप्तभार्ग, ततो भूयोऽपि यथोकं चन्द्रमण्डलान्तरं तस्मिंश्च द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने त्रय एक& षष्टिभागा योजनस एकस्य च एकषष्टिभागस्य सरकाश्चत्वारः सप्तभागास्ततो येऽत्र तृतीयमण्डलसत्काः सूर्यमण्डलादहि-I विनिर्गता एकत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्क एकः सप्तभागस्तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो जाता. श्चतुर्विंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागास्तत इदं वस्तुतत्त्वं जातं-तृतीयाञ्चन्द्रमण्डलात्परतो द्वादश सूर्यमार्गा द्वादशाच्च सूर्यमार्गात् परतो योजनद्वयमतिक्रम्य सूर्यमण्डलं तच्चतुर्थाच्चन्द्रमण्डलादक अभ्यन्तरं प्रविष्टं चतुस्त्रिंशतमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् पश्च सप्तभागान, ततः शेष सूर्यमण्डलस्य । त्रयोदश एकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्को द्वौ भागौ इति, एतावच्चतुर्थचन्द्रमण्डलसम्मिश्र, चतुर्थस्य च चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलादू बहिर्विनिर्गतं द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः पश्च सप्तभागा, ततः पुनरपि यथोदितपरिमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, द्वादशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि दे योजने त्रय एकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र चायचतुर्थेचन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलादू बहिर्विनिर्गता वाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागास्ते अत्र राशी प्रक्षिप्यन्ते, ततो जाताः षट्चत्वारिंशदेकषष्टिभागा द्वौ च एकषष्टिभागस्य सत्को सप्तभागा, तत एवं वस्तुस्वरूपमवग अनुक्रम [५९]] ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ४५ ] दीप अनुक्रम [ ५९ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [११], प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मूलं [४५] सूर्यप्रश न्तव्यं चतुर्थाच्चन्द्रमण्डलात् परतो द्वादश सूर्यमार्गा द्वादशाच्च सूर्यमार्गात्परतो योजनद्वयातिक्रमे सूर्यमण्डलं तच्च तिवृत्तिः ५ पञ्चमाञ्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अभ्यन्तरं प्रविष्टं षट्चत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् द्वौ च एकस्यैकपष्टिभागस्य सरकौ सप्तभागौ, ( मल०) शेषं सूर्य मण्डलस्य एक एकषष्टिभाग एकस्य च एकषष्टिभागस्य पश्च सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं पञ्चम चन्द्रमण्डलसम्मिश्रं, ॥ १४३ ॥ तस्य पञ्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलाद्वहिर्विनिर्गतं चतुःपञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य द्वौं सह४ भागी, तदेवं पञ्च सर्वाभ्यन्तराणि चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि चतुर्षु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश द्वादश सूर्यमार्गा इति जातं, सम्प्रति पष्ठादीनि दशमपर्यन्तानि पश्च चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलासंस्पृष्टानि भाव्यन्ते तत्र पश्च|माच्चन्द्रमण्डलात्परतो भूयः षष्ठं चन्द्रमण्डलमधिकृत्यान्तरं [तच] पञ्चत्रिंशद् योजनानि त्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्थ एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्ञ्चत्वारः सहभागाः, तत्र च पञ्चत्रिंशद्यो जनान्येक षष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनात्रिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातान्येकविंशतिः शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि २१६५, येऽपि च पञ्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलाद् बहिर्विनिर्गताश्चतुःपञ्चाशदेकपष्टिभागा द्वौ च एकषष्टिभागस्य सत्कौ सप्तभागी तेऽत्र प्रक्षिष्यन्ते, जातानि द्वाविंशतिः शतान्येकोनविंशत्यधिकानि २२१९, सूर्यस्य विकम्पो द्वे योजने अष्टाच स्वारिंशदेकपष्टिभागाधिके, तत्र द्वे योजने एकपट्या गुण्येते जातं द्वाविंशं शतमेकपष्टिभागानां तत उपरितना अष्टाच त्वारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिष्यन्ते, जातं सप्तत्यधिकं शतं १७०, तेन पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश, शेषास्तिष्ठन्ति नव एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तभागास्तत इदमागतं पश्चमाञ्चन्द्रमण्डलात्परतस्त्रयोदश सूर्यमार्गास्त्र Jain Estration intumatal F&P On ~299~ १० प्राभूते ११ प्राभूतप्राभृते चन्द्रमण्ड मार्गः सू ४५ ॥१४३॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ४५ ] दीप अनुक्रम [ ५९ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [११], प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः मूलं [४५] Eatont योदशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि षष्ठाञ्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं नव एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तभागाः, ततः परतः पष्ठं चन्द्रमण्डलं, तच्च पट्पञ्चाशदेकषष्टिभागात्मकं ततः परतः सूर्यमण्डलादर्वा - गन्तरं षट्पञ्चाशदेकपष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य एकः सप्तभागस्तदनन्तरं सूर्यमण्डलं तस्माच्च परत एकषष्टिभागानां चतुरुत्तरेण शतेन एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्केनैकेन सप्तभागेन हीनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं प्राप्यते इति तस्मात्सूर्यमण्डलात्परतोऽन्ये द्वादशसूर्यमार्गा लभ्यन्ते ततः सर्वसङ्कलनया तस्मिन्नप्यन्तरे त्रयोदश सूर्यमार्गाः, तस्य च त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि सप्तमाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरमेकविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रयः सप्तभागाः, ततः सप्तमं चन्द्रमण्डलं, तस्माच्च सप्तमाच्चन्द्रमण्डलात्परतः चतुश्चत्वारिंशता एकषष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैश्चतुर्भिः सप्तभागैः सूर्यमण्डलं ततो द्विनवतिसरेक पष्टिभागैश्चतुर्भिश्च एकस्य एकषष्टिभागस्य सत्कैः सप्तभागैः न्यूनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं ततः परमस्तीत्यन्येऽपि द्वादश सूर्यमार्गा - भ्यन्ते ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गास्त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्य बहिरष्टमाचन्द्र मण्डलादर्वाक् अन्तरं त्रयस्त्रिंशदे कषष्टिभागाः, ततोऽष्टमं चन्द्रमण्डलं, तस्माच्चाष्टमाचन्द्रमण्डलात्परतस्त्रयस्त्रिंशता एकषष्टिभागः सूर्यमण्डलं ततः एकाशीतिसरे कषष्टिभागरूनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं पुरतो विद्यते इति ततः पुरतोऽन्येऽपि द्वादश सूर्यमार्गास्ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गास्त्रयोदशाच्च सूर्यमार्गात् पुरतो नवमाच्चन्द्रमण्डलादगन्तरं चतुश्चत्वारिंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागाः, ततः परं नवमं चन्द्रमण्डलं, F&PO ~300~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ४५ ] दीप अनुक्रम [ ५९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः मूलं [४५] सूर्यप्रज्ञ प्तिवृत्तिः ( मल० ॥१४४॥ “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [११], तस्माच्च नवमाच्चन्द्रमण्डलात् परत एकविंशत्या एकषष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रिभिः सप्तभागैः सूर्यमण्डले तत एकोनसप्ततिसङ्घीरे कषष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रिभिः सप्तभागैः परिहीणं यथोक्तप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं तत्र - चान्ये द्वादश सूर्यमार्गाः एवं चास्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः, तस्य च त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि दशमाच्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं षट्पञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य एकः सप्तभागः, ततो दशमं चन्द्रमण्डलं, तस्माच्च दशमाच्चन्द्रमण्डलात्परतो नवभिरेकषष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैः पतिः सप्तभागैः सूर्य मण्डलं ततः सप्तपञ्चाशता एकपष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैः षद्धिः सप्तभागैरुनं प्रागुक्तपरिमाणं चन्द्रमण्डठान्तरं ततो भूयोऽपि द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते इति तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः, ततस्त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि एकादशाच्चन्द्रमण्डलादगन्तरं सप्तषष्टिः एकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागाः, तदेवं पञ्च चन्द्रमण्डलानि षष्ठादीनि दशमपर्यन्तानि सूर्यासम्मिश्राणि षट्सु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु त्रयोदश सूर्यमार्गा इति जातं । सम्प्रत्येतदनन्तरमुच्यते तत्र एकादशे चन्द्रमण्डले चतुष्पञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागौ इत्येतावत् सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टं एक एकषष्टिभाग एकस्य च एकषष्टिभागस्य पश सप्तभागाः इत्येतावन्मात्रं सूर्यमण्डलसम्मिश्रं एकादशाश्चन्द्रमण्डलाद्वहिर्विनिर्गतं सूर्यमण्डलं, षट्चत्वारिंशदेकपष्टिभागा | एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागौ तत् एतावता हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरमस्तीति द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, ततः परमेकोनाशीत्या एकषष्टिभागेरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां सप्तभागाभ्यां द्वादशं चन्द्रमण्डलं, तच्च matsind F&P O ~301~ १० प्राभृते ११ प्राभृतप्राभृते चन्द्रमुण्डमार्गः सू ४५ ॥ १४४॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] प द्वादशं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टं द्वाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कान् पश | सप्तभागान , शेषं च त्रयोदश एकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्को द्वौ सतभागी इत्येतावन्मानं सूर्यमण्डलसम्मिश्र, तस्माच्च द्वादशाचन्द्रमण्डलाहिर्विनिगतं सूर्यमण्डलं चतुर्विंशतमेकपष्टिभागान् योजनस्य एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कान् पश सप्तभागान् , तत एतावन्मात्रेण हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं, सत्र प द्वादश सूर्यमार्गा| लभ्यन्ते, द्वादशाच सूर्यमार्गात्परतो नवतिसापेरेकषष्टिभागैरेकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कैः पद्भिः सप्तभागैखयोदर्श चन्द्रमण्डलं, तब त्रयोदशं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्ट, एकत्रिंशतमेकषष्टिभागान् एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागं, शेष चतुर्विंशतिरेकषष्टिभागाः एकस्य एकपष्टिभागस्य सरकाः षट् सप्तभागा इत्येतावन्मानं सूर्यमण्ड-31 लसम्मिश्र, तस्साच त्रयोदशामचन्द्रमण्डला बहिः सूर्यमण्डलं विनिर्गतं त्रयोविंशतिमेकपष्टिभागान् एकस्य एकषष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागं, तत एतावता हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमार्गात् परत एक-1 पष्टिभागानां व्युत्तरेण शतेन एकस्य च एकषष्टिभागस्य सस्कैत्रिभिः सप्तभागैश्चतुर्दशं चन्द्रमण्डलं, तच्च चतुर्दशं चन्द्रम-13 Mण्डलं सूर्यमण्डादभ्यन्तरं प्रविष्टमेकोनविंशतिमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् चतुरः सप्तभागान , शेष षटूनि शदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयः सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं सूर्यमण्डलसम्मिनं, तस्माचतुर्दशाच्चन्द्र मण्डलाद बहिर्विनिर्गतं सूर्यमण्डलमेकादश एकपष्टिभागान् एकस्य च एकषष्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान्, तत एतावता हीनं पायथोक्तपरिमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गा, द्वादशाच्च सूर्यमार्गात् परतः एकपष्टिभागानां चतुर्दशोत्तरेण अनुक्रम [५९] *-56--% %% ~302~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [४५] दीप अनुक्रम [ ५९ ]] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], • प्राभृतप्राभृत [११], मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रशसिवृत्तिः ( मल० ) ॥१४५॥ शतेन पञ्चदशं चन्द्रमण्डलं तच पञ्चदशं चन्द्रमण्डलं सर्वान्तिमात्सूर्यमण्डलादर्वागभ्यन्तरं प्रविष्टमष्टावेकपष्टिभागान् शेषा अष्टाचत्वारिंशदेक षष्टिभागाः सूर्यमण्ड सम्मिश्राः, तदेवमेतान्येकादशादीनि पञ्चदशपर्यन्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि भवन्ति, चतुर्षु च चरमेषु चन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश द्वादश सूर्यमार्गाः, एवं तु यदन्यत्र चन्द्रमण्ड लान्तरेषु सूर्यमार्गप्रतिप्रादनमकारि यथा-'चंदंतरेसु असु अभिंतर बाहिरेस सूरस्स । बारस वारस भग्गा छस तेरस तेरस भवंति ॥ १ ॥' तदपि संवादि द्रष्टव्यम् । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमंप्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं ११ समाप्तं तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य एकादशं प्राभृतप्राभृतं, सम्मति द्वादशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः – 'देवतानाम'ध्ययनानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते देवताणं अज्झयणा आहिताति वदेजा ?, ता एएणं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किदेवताएं पण्णत्ते ?, गंभदेवयाए पं०, सवणे णक्खसे किंदेवयाए पनते ?, ता विण्णुदेवयाए पण्णत्ते, धणिट्ठाणक्खसे किंदेवताए पं०१, ता वसुदेवयाए पण्णत्ते, संयभिसयानक्खते किंदेवयाए पण्णत्ते १, ता वरु णदेवयाए पण्णत्ते, (पुषपोह० अजदे०) उत्तरापोह्वयानक्खते किंदेवयाए पण्णसे, ता अहिवह्निदेवताए पण्णसे, एवं सबेवि पुच्छिति, रैवती पुस्स देवतर स्सिणी अस्सदेवता भरणी जमदेवता कत्तिया अग्गिदेवता रोहिणी nation Intima For अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं १९ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं १२ आरभ्यते ~303~ १० प्राभूते १२ प्राभृतप्राभृते नक्षत्रदेवाः सू ४६ ॥ १४५॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ४६ ] दीप अनुक्रम [६०] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [१२], मूलं [४६ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः पयावहदेव या सट्टाणा सोमदेवयाए अद्दा रुद्ददेवयाए पुणञ्चस् अदितिदेवयाए पुस्सो वहस्सहदेवयाए अस्सेसा सम्पदेवयाए महा पितिदेवताएपं० वाफग्गुणी भगदेवयाए उत्तराफग्गुणी अज्जमदेवताए हत्थे सवियादेबताए चित्ता तहृदेवताए साती वायुदेवताए बिसाहा इंदग्गीदेवचाए अथुराहा मित्तदेवताए जेडा इंददेबताए मूले णिरितिदेवताए पुवासाढा आउदेवताए उत्तरासादा विस्सदेवयाए पण्णत्ते ॥ ( सूत्रं ४६ दसमस्स बारसमं पाहुटपाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहं ते देवयाण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?- केन प्रकारेण भगवन् । त्वया नक्षत्राधिपतीनां देवतानामध्ययनानि - अधीयन्ते ज्ञायन्ते यैस्तान्यध्ययनानि नामानीत्यर्थः, आख्यातानीति वदेत् एवं प्रश्ने कृते भगवानाह - 'ता एएसि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषां अनन्त रोदितानामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्येऽभिजिनक्षत्रं किंदेवताकंकिंनामधेय देवताकं प्रज्ञप्तम् १, भगवानाह - 'ता' इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, ब्रह्मदेवताकं ब्रह्माभिधदेवताकं प्रज्ञतं, श्रवणनक्षत्रं किंदेवताकं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह - 'ता' इत्यादि, विष्णुनामदेवताकं प्रज्ञप्तं, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, देवताभिधानसङ्ग्राहिकाश्चेमास्तिस्रः प्रवचन सिद्धाः सग्रहणिगाथा: - " बम्हा विष्हू य वसू वरुणो तह जो अणंतरं होई । अभिवह्नि पूस गंधव चैव परतो जमो होइ ॥ १ ॥ अग्गि पयावइ सोमे रुद्दे अदिई बहस्सई चेव । नागे पिइ भग अज्जम सविया तहाय बाऊ य ॥ २ ॥ इंदग्गी मित्तोविय इंदे निरई य आउविस्सो य । नामाणि देवयाणं हवंति रिक्खाण जहकमसो ॥ ३ ॥” इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं १२ समाप्तं Jain Estration intimanal F&P One ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१३], -------------------- मूलं [४७] + गाथा:(१-३) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] मानि ||१-३|| सूर्यप्रज्ञ तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्राभृतप्राभृत, सम्प्रति त्रयोदशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः-'मुहूर्तानां 21१० प्राभूते तिवृत्तिः नामधेयानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह १३ प्राभृत(मल०) ता कहं ते मुटुत्ताणं नामधेजा आहिताति वदेजा, ता एगमेगस्स णं अहोरत्तस्स तीसं मुहुत्ता तं०-18 |"रोदे सेते मित्ते, वायु सुगीए (पी)त अभिचंदे । महिंद् बलवं बंभो, यहुसचे चेव ईसाणे ॥१॥तहे य| | मुहर्चना॥१४६॥ भावियप्पा वेसमणे वरुणे य आणंदे । विजएं (प) वीससेणे पयावई चेव पचसमे य ॥२॥ गंधव अग्गिवेसे सयरिसहे आयवं च अममे य । अणवं च भोग रिसहे सबढे रक्खसे चेव ॥३॥ (सत्रं ४७) दसमस्स. पाहुडस्स तेरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ | 'ता कहं ते मुटुत्ताणमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं !-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया मुहूर्तानां नामधेयानि-13 नामान्येच नामधेयानि, 'नामरूपभागाद्धेय' इति स्वार्थे धेयप्रत्ययः, आख्यातानीति वदेत् , भगवानाह–'ता एगमेग स्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत, एकैकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्ता वक्ष्यमाणनामधेययुक्ता इति शेषः, तान्येव नाम18यान्याह-तंजहा-रोद्देत्यादि गाथात्रयं, तत्र प्रथमो मुहूर्तों रुद्रो द्वितीयः श्रेयान् तृतीयो मित्रश्चतुर्थो वायुः पञ्चमः||॥१४६॥ सुपीतः षष्ठोऽभिचन्द्रः सप्तमः 'माहेन्द्रोऽष्टमः बलवान् नवमः ब्रह्मा दशमः बहुसत्यः एकादश ईशानो द्वादशः त्वष्टा त्रयोदशः भावितात्मा चतुर्दशः वैश्रमणः पञ्चदशः वारुणः षोडशः आनन्दः सप्तदशो विजयः अष्टादशो विश्वसेनः एकोनविंशतितमः प्राजापत्यः विंशतितमः उपशमः एकविंशतितमो गन्धर्वः द्वाविंशतितमोऽग्निवेश्यः त्रयोविंशतितमः | दीप अनुक्रम [६१-६४] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १२ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १३ आरभ्यते ~305 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१३], -------------------- मूलं [४७] + गाथा:(१-३) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: H प्रत सूत्रांक [४७] ||१-३|| शतवृषभः चतुर्विंशतितमः आतपवान् पश्चविंशतितमोऽममः पर्विशतितमः ऋणवान् सप्तविंशतितमो भौमः अष्टाविंशतितमो वृषभः एकोनत्रिंशत्तमः सर्वार्थः त्रिंशत्तमो राक्षसः निलगिनिनिनित तमा राक्षसः इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां near- दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- १३ समाप्त तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदर्श ग्राभृतप्राभृत, सम्पति चतुर्दशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः-दिवसराविप्ररूपणा कर्तव्या, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह8 ता कहं ते दिवसा आहियत्तिवइजा ?, ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पनरस दिवसा पं० सं०-पटियादिवसे वितियदिवसे जाव पण्णरसे दिवसे, ता एतेसि णं पण्णरसण्हं दिवसाणं पन्नरस नामधेजा पं० त०-पुवंगे सिद्धमणोरमे य तत्सो मणोरहो (हरो)चेव । जसभ य जसोधर सबकामसमिद्धेति य॥१॥इंद मुद्धा|भिसिप्ते य सोमणस धणंजए य योद्धच्चे । अत्थसिडे अभिजाते अचासणे य सतंजए ॥२॥ अग्गिवेसे उवसमे दिवसाणं नामजाई। ता कहते रातीओ आहिताति बदेजा, ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस है राईओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पडिवाराई बिदियाराई जाव पण्णरसा राई, ता एतासि णं पण्णरसण्हं राईणं पण्णरस नामधेजा पण्णता, तं०-उत्तमा य सुणक्खत्ता, एलावचा जसोधरा । सोमणसा चेच तथा सिरिसंभूता य योद्धधा ॥१॥ विजया य विजयंता जयंति अपराजिया य गच्छा य । समाहारा चेव तधा तेया दीप EROINEXANEWS अनुक्रम [६१-६४] Fit अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १३ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १४ आरभ्यते ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभूत [१४], -------------------- मलं [४८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] गाथा: सूर्यमज्ञशीय तहा य अतितेया ॥१॥ देवाणंदा निरती रयणीणं णामधेजाई ॥ (सूत्रं ४८) दसमस्स पाहुस्सा ४१० प्राभृते प्तिवृत्तिः चउद्दसमं पाहुपाटुडं समत्तं ॥ १४ माभूतमल.) प्राभृते II सा कहं तेइत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः, भगवन् ! त्वया दिवसा आख्याता ॥१४७॥ इति वदेत् , भगवानाह-ता एगमेगस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकस्य अत्रापान्तरालवत्ती मकारोऽलाक्ष- त्रिनामानि |णिका, णमिति वाक्यालङ्कारे, पक्षस्य पञ्चदश पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः वक्ष्यमाणक्रमयुक्ताः, तमेव क्रममाह-'तंजहे-18 सू ४८ *त्यादि, तद्यथा-प्रतिपत्प्रथमो दिवसो द्वितीया द्वितीयो दिवसः तृतीया तृतीयो दिवसः एवं यावत्पश्चदशी पञ्चदशोली दिवसः, 'ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र एतेषां पञ्चदशानां दिवसानां क्रमेण पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाप्रथमः प्रतिपलक्षण पूर्वाङ्गनामा द्वितीयः सिद्धमनोरमः तृतीयो मनोहरः चतुर्थों यशोभद्रः पञ्चमो यशोधरः षष्ठः सर्वकामसमृद्धः सप्तम इन्द्रमूर्द्धाभिषिक्तः अष्टमः सौमनसः नवमो धनञ्जयः दशमोऽर्थसिद्धः एकादशोऽभिजातः द्वादशोत्यशनः त्रयोदशः शतञ्जयः चतुर्दशोऽग्निवेश्मा (श्यः) पञ्चदश उपशमः, एतानि दिवसानां क्रमेण नामधेयानि, 'ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कर्थ-केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः रात्रय आख्याता इति वदेत् ।, भगवानाह&ाता एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् , एकैकस्य पक्षस्य पञ्चदश पञ्चदश रात्रयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रतिपत् प्रतिपत्सम्बन्धिनी प्रथमा रात्रिः द्वितीयदिवससम्बन्धिनी द्वितीया रात्रिः, एवं पञ्चदशदिवससम्बन्धिनी पञ्चदशी ॥१४७॥ रात्रिः, एतच कर्ममासापेक्षया द्रष्टव्यं, तत्रैव पक्षे पक्षे परिपूर्णानां पञ्चदशानामहोरात्राणां सम्भवात्, 'ता एएसि - दीप अनुक्रम [६५-७१]] FridaIMAPIVAHauWORK अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १३ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १४ आरभ्यते ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཙྪཱ + ཛལླཱསྶ [६५-७१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], - प्राभृतप्राभृत [१४], मूलं [४८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मित्यादि, तत्र एतासां पञ्चदशानां रात्रीणां यथाक्रमममूनि पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - प्रथमा प्रतिपत्सम्बन्धिनी रात्रिरुत्तमा- उत्तमनामा द्वितीया सुनक्षत्रा तृतीया एलापत्या चतुर्थी यशोधरा पञ्चमी सौमनसी षष्ठी श्रीसम्भूता सप्तमी विजया अष्टमी वैजयन्ती नवमी जयन्ती दशमी अपराजिता एकादशी इच्छा द्वादशी समाहारा त्रयोदशी तेजा चतुर्दशी अतितेजा पञ्चदशी देवानन्दा, अमूनि क्रमेण रात्रीणां नामधेयानि भवन्ति ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं १४ समाप्तं तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्दशं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति पञ्चदशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः - "तिथयो वक्तव्या' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहते तिही आहितेति वदेजा ?, तस्थ खलु इमा दुबिहा तिही पण्णत्ता, तंजा-दिवसतिही राईतिही य, ता कहं ते दिवसतिही आहितेति वदेजा?, ता एगमेगस्स णं पण्णरस २ दिवसतिही पण्णत्ता, सं०-णंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पंचमी पुणरवि गंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स दसमी पुणरवि णंदे भद्दे जये तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पण्णरस, एवं ते तिगुणा तिहीओ सधेसिं दिवसाणं, कहं ते राईतिघी आहितेति वदेज्जा १, एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस रातितिधी पं० तं०-उग्गवती भोगवती जसवती सबसिद्धा सुहणामा पुणरवि उग्गवती भोगवती जसवती सबसिद्धा सुहणामा पुणरवि उग्गवती भोगवती Jain Eration intumatal F&PO अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं १४ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं १५ आरभ्यते ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१०],-------------------प्राभूतप्राभत [१५], --...-..........---- मलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्राप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ------ मूल [४] मलयागिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४९] सूर्यप्रज्ञ जसवती सबसिद्धा सुहणामा, एते तिगुणा तिहीओ सवासिं रातीणं ॥ (सूत्रं ४९) दसमस्स पाहुडस्स .प्राभते विवृत्तिः लापण्णरसमं पाहुडपाष्टुडं समत्तं ॥ ला१५ग्राभृत(मल०) | 'ता कहं ते तिही त्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, कथं:-केन प्रकारेण केन क्रमेण तिथय आख्याता इति वदेत्, ननु र प्राभृते दिवसेभ्यस्तिथीनां का प्रतिविशेषः येन एताः पृथक् पृछयन्ते ?, उच्यते, इह सूर्यनिष्पादिता अहोरात्राः चन्द्रनिष्पा-दिवसरात्रि ॥१४८॥ तिविनामा |दिताः तिथयः, तत्र चन्द्रमसा तिथयो निष्पाद्यन्ते वृद्धिहानियां, तथा चोक्तम्-"तं रयय कुमुयसिरिसप्पभस्स चंदस्सल दरतानि सू ४९ राइसुरुगरस । लोए तिहित्ति निययं भण्णइ बुट्टीएँ हाणी ॥१॥"[त्वं रचय (पूजा) कुमुदश्रीसत्प्रभस्य चन्द्रस्य रात्रिसुरुचेः । लोके तिथिरिति नियतं भण्यते (यस्य) वृद्ध्या हान्या ॥१॥] तत्र वृद्धिहानी चन्द्रमण्डलस्य न स्वरूपतः किन्तु राहुषिमानावरणानावरणकृते, तथाहि-इह द्विविधो राहु, तद्यथा-पर्वराहुः ध्रुवराहुश्च, तत्र यः पवेराहुः तत्गता चिन्ताऽत्रानुपयोगिनीत्यने वक्ष्यते क्षेत्रसमासटीकायां वा कृतेति ततोऽवधार्या, यस्तु ध्रुवराहुस्तस्य विमान कृष्णं, तच चन्द्रमण्डलस्याधस्साचतुरङ्गलमसम्प्राप्तं सत् चारं चरति, तत्र चन्द्रमण्डलं बुज्या द्वापष्टिसशीभोंगैः परिकरूप्यते, परिकल्प्य च तेषां भागानां पश्चदशभिर्भागो हियते, लब्धाश्चत्वारो द्वापष्टिभागाः शेषौ द्वौ भागी तिष्ठता, तो च सदा ता वृद्धी (सदानावृती) एषा किल चन्द्रमसः षोडशी कलेति प्रसिद्धिः, तत्र कृष्णपक्षे प्रतिपदि ध्रुवराहुवि-17 Kामानं कृष्णं, तच्च चन्द्रमण्डलस्यास्तापातुरङ्गलमसंप्राप्तं सत् चार चरत् आत्मीयेन पश्चदशेन भागेन द्वी द्वापष्टिभागी| सदाऽभावार्यस्वभावी मुक्त्वा शेषषष्टिसत्कपष्टिभागात्मकस्य चन्द्रमण्डलस्य एक चतुर्भागात्मकं पञ्चदशभागमावृणोति, अनुक्रम [७२] FitneralMAPINANORN ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [१५], -------------------- मलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ASSESEXSTS द्वितीयस्यामात्मीयाभ्यां द्वाभ्यां पञ्चदशभागाभ्यां द्वौ पञ्चदशभागौ, तृतीयस्यामात्मीयैखिभिः पञ्चदशभागैस्त्रीन् पञ्चदशभागान, एवं यावदमावास्थायां पञ्चदश भागानावृणोति, ततः शुक्लपक्षे प्रतिपदि एकं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, द्वितीयस्यां दी पश्चदशभागी तृतीयस्यां त्रीन पञ्चदशभागान एवं यावत् पञ्चदश्यां पश्चदशापि भागाननावृतान् करोति, तदा च सर्वात्मना परिपूर्ण चन्द्रमण्डलं लोके प्रकटं भवति, वक्ष्यति चामुमर्थमग्रेऽपि सूत्रकृत्-'तत्थ णं जे से धुवराहू से बहुलपक्खस्स पडिवए पण्णरसभागेण' मित्यादिना ग्रन्थेन, तत्र यावता कालेन कृष्णपक्षे पोडशो भागो द्वापटिभागसत्कचतुर्भागात्मको हानिमुपगच्छति स तावान् कालविशेषस्तिथिरित्युच्युते, तथा यावता कालेन शुक्लपक्षे षोड-13 शभागो द्वापष्टिभागसत्कभागचतुष्टयप्रमाणः परिवर्द्धते तावत्प्रमाणः कालविशेषस्तिधिर्भवति, उक्तं च-"सोलसभागा काऊण उडुबई हायएस्थ पन्नरस । तित्तियमित्ते भागे पुणोऽवि परिवहुए जोण्हे ॥१॥ कालेण जेण हायइ सोलस भागो | उ सा तिही होइ । तह चेव य वुड्डीएएवं तिहिणो समुप्पत्ती ॥२॥" अत्र 'जोण्हे' इति जोत्स्ने शुक्लपक्षे इत्यर्थः, शेषं सुगम, | अयं च पूर्वाचार्यपरम्परायात उपनिषदुपदेशः-अहोरात्रस्य द्वापष्टिभागप्रविभक्तस्य ये एकषष्टिभागास्तावत्प्रमाणा तिथिरिति, अथाहोरात्रस्त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणः सुप्रतीतः, प्रागेव सूत्रकृता तस्य तावत्प्रमाणतयाऽभिधानात्, तिथिस्तु किंमुहूर्तप्रमाणेति !, उच्यते, परिपूर्णा एकोनत्रिंशन्मुहुर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागाः, उक्तं च"अउणत्तीसं पुन्ना उ मुहुत्ता सोमओ तिही होइ । भागावि य बत्तीसं बाव(दुस)हिकाएण छेएणं ॥१॥" कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह अहोरात्रस्य द्वापष्टिभागीकृतस्य सत्का ये एकषष्टिभागास्तावत्प्रमाणा तिथिरित्युच्यते, तत्रैकषष्टि अनुक्रम [७२] ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], ------------------- प्राभृतप्राभूत [१५], -------------------- मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप- प्रत (मल.) सुत्राक ॥१४९॥ [४९] त्रिंशता गुण्यते आतानि अष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एते च किल द्वापष्टिभागीकृतसकलतिथिगतमुहूर्त-14]१. प्राभूते सत्का अंशाः, ततो मुहूर्तानयनार्थं तेषां द्वापश्या भागो ह्रियते, लम्धा एकोनत्रिंशन्मुहूत्तों द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा मुहू-१५प्रामतलास्य, एतावन्मुहूर्तप्रमाणा तिथिः, एतावता हि कालेन चन्द्रमण्डलगतः पूर्वोदितप्रमाणः षोडशो भागो हानि वोपगच्छति प्राभृते वर्द्धते वा, तत एतावानेव तिथेः परिमाणकालः, तदेवमहोराबादस्ति तिथेः प्रतिविशेष इत्युपपन्नस्तिथिविषये पृथक्मनःदिवसरात्रि एवं गीतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र-तिथिविचारविषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा-सातिथिनामा स्तिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दिवसतिथयो रात्रितिथयश्च, तत्र तिथेयः पूर्वार्द्धभागःस दिवसतिथिरित्युच्यते, यस्तु पश्चाई-14 नि सू ४९ भागः स रात्रितिथिरिति, 'ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं -केन प्रकारेण कया नानां परिपाव्या इत्यर्थः, दिवसतिथय आख्याता इति वदेत् , भगवानाह-'एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकस्य णमिति वाक्यालङ्कारे पक्षस्य मध्ये पादश दिवसतिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमा नन्दा द्वितीया भद्रा तृतीया जया चतुर्थी तुच्छा पञ्चमी पक्षस्य पूर्णा, ततः पुनरपि षष्ठी तिथिर्नन्दा सप्तमी भद्रा अष्टमी जया नवमी तुच्छा दशमी पक्षस्य पूणों, ततः पुनरप्येकादशी तिधिर्नन्दा द्वादशी भद्रा त्रयोदशी जया चतुर्दशी तुच्छा पक्षस्य पञ्चदशी पूर्णा, एवं'मित्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण, एते इति खीत्वेऽपि प्राप्ते पुंस्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , एता अनन्तरोदितास्तिधयो नन्दाद्या, नन्दादीन्यनन्तरो ||१४९॥ |दितानि तिथिनामानीत्यर्थः, त्रिगुणाः, त्रिगुणितानीति भावः, सर्वेषां पक्षान्तर्वर्तिनां दिवसाना, सर्वासा पक्षान्तर्वतिनीनां दिवसतिथीनामित्यर्थः, 'ता कहते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं -केन प्रकारेण, कया नानां परिपाच्या ला अनुक्रम [७२] F OR ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०],.................---प्राभूतप्राभत [१५], -------------------- मलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 54555555555 इत्यर्थः, भगवन् ! ते त्वया रात्रितिथय आख्याता इति वदेत् , भगवानाह–ता एगमेगस्स 'मित्यादि, ता इति । प्राग्वत्, एकैकस्य पक्षस्य पञ्चदश पञ्चदश रात्रितिधयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-प्रथमा उग्रवती द्वितीया भोगवती तृतीया || यशोमती चतुर्थी सर्वसिद्धा पश्चमी शुभनामा ततः पुनरपि षष्ठी उग्रवती सप्तमी भोगवती अष्टमी यशोमती नवमी है सर्वसिद्धादशमी शुभनामा ततः पुनरप्येकादशी उग्रवती द्वादशी भोगवती त्रयोदशी यशोमती चतुर्दशी सर्वसिद्धा पश्चदशी शुभनामा, एवमेतात्रिगुणास्तिथया, एवमेतानि त्रिगुणानि तिथिनामानीत्यर्थः, सर्वासां रात्रीणां रात्रितिथीनां वाचकानीति शेषः॥ | इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- १५ समाप्तं । तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य पशदर्श प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति षोडशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:-यथा 'गोत्राणि वक्तव्यानी'ति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहं ते गोत्ता आहिताति वदेजा?, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्वत्ताणं अभियी णक्खत्ते किंगोत्ते, |ता मोग्गल्लायणसगोते पण्णत्ते, सवणे णक्खत्ते किंगोते पण्णते?, संखायणसगोते पण्णत्ते, धणिहाणक्खते। |किंगोत्ते पं०१, अग्गतावसगोत्ते पं०, सतभिसयाणक्वत्ते किंगोते पण्णते?, कण्णलोयणसगोत्ते पं०, पुवापोट्टयताणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णसे ?, जोउकपिणयसगोते पण्णत्ते, उत्सरापोडवताणक्खत्ते किंगोते पणते ? धणंजयसगोसे पण्णसे, रेवतीणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते ? पुस्सायणसगोते पण्णत्ते, अस्सिणीनक्खसे किंगोसे अनुक्रम [७२] JAIMEastanimamatianal Fit अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १५ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १६ आरभ्यते ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१६], ------------------- मूलं [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक + [१०] + सर्या- पण्णते, अस्सादणसगोते पण्णते, भरणीणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते?, भग्गवेससगोते पं०, कत्तियाणक्खसे||१०माभृते प्तिवृत्तिः किंगोते पण्णते ?, अग्गिवेससगोत्ते पं०, रोहिणीणक्षत्ते किंगोसे पं०१, गोतमगोत्ते पण्णत्ते, संठाणाण-१६माभृत(मल०) क्खत्ते किंगोसे पं.१, भारहायसगोते पणते, अहाणक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, लोहिचायणसगोत्ते पं०, पुण- प्राभृते वसूणक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते ?, वासिहसगोत्ते पं०, पुस्से णक्खत्ते किंगोत्ते पं०, उमज्जायणसगोत्ते पं०8 नक्षत्रगो. ॥१५॥ अस्सेसाणक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, मंडवायणसगोत्ते पं०, महाणक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, पिंगायणसगोत्ते पं०, ब्राणि सू५० पुषाफग्गुणीणक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, गोवल्लायणसगोत्ते पं०, उत्तराफग्गुणीणक्खते किंगोते पं०१, कासव-12 गोते पण्णत्ते, हत्थेणक्वत्ते किंगोत्ते पं०१, कोसियगोत्ते पण्णते, चिसाणक्खत्ते किंगोत्ते पं०, दभियाणस्सगोसे पपणत्ते, साईणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते?, चामरछगोत्ते पं०, विसाहाणक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, सुंगायणसगोते पं०, अणुराधाणक्खते किंगोसे पं०१, गोलचायणसगोते पं०, जेट्टानक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, तिगिकछायणसगोसे पं०, मूलेणखत्ते किंगोत्ते पं०?, कच्चायणसगोते पपणत्ते, पुवासाढानक्षत्ते किंगोत्ते पण्णते?, वझियायणसगोते पण्णत्ते, उत्तरासाढाणक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते , वग्यावच्चसगोत्ते पण्णत्ते ॥ का(सूत्रं ५०) दसमस्स पाहुडस्स सोलसमं पाहुडपाहुडं समतं ।' मा॥१५॥ 1-'ता कहते'इत्यादि, इति (अत्र ) नक्षत्राणां स्वरूपतो न गोत्रसम्भवः, यत इदं गोत्रस्य स्वरूपं लोकप्रसिनिमुपागमत्-प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानतस्तदपत्यसन्तानो गोत्रं, यथा गर्गस्थापत्यं सन्तानो गर्गाभिधानो गोत्रमिति, न चैवस्वरूप +S अनुक्रम [७३] FACh ॐक ~313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [५० ] दीप अनुक्रम [७३] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [५० ] प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [१६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः Jain Estratio नक्षत्राणां गोत्रं सम्भवति तेषामपिपातिकत्वात् तत इत्थं गोत्रसम्भवो द्रष्टव्यः - यस्मिन्नक्षत्रे शुभैरशुभैर्वा प्रहैः समानं यस्य गोत्रस्य यथाक्रमं शुभमशुभं वा भवति तत्तस्य गोत्रं ततः प्रश्नोपपत्तिः, 'ता' इति पूर्ववत् कथं त्वया नक्षत्राणां गोत्राणि आख्यातानीति वदेत् १, भगवानाह - 'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये अभिजिन्नक्षत्रं मोद्गल्यायनसगोत्रं - मोगल्यायनेन सह गोत्रेण वर्त्तते यत्तत्तथा, श्रवणनक्षत्रं शाङ्खायनसगोत्रं, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, क्रमेण गोत्रसङ्ग्राहिकाचेमा जम्बूद्वीपप्रज्ञसिसत्काश्चतस्रः सग्रहणिगाथा: - “मोग्गलायण २ संखायणे २ य तह अग्गभाव ३ कण्णले ४ । ततो य जोउकण्णे ५ घणजए ६ चैव बोद्धवे ॥ १ ॥ पुस्सायण ७ अस्सायण ८ भग्गवेसे ९ य अगिवेसे १० य । गोयम ११' भारद्दाए १२ ठोहिचे १३ चैव वासि १४ ॥ २ ॥ उज्जायण १५ मंडवायणे १६ य पिंगायणे १७ य गोवले १८ । कासव १९ कोसिय २० दब्भिय २१ भाग ( चाम) रच्छा य २२ मुंगाए २३ ॥३॥ गोलायण २४ तिमिंदायणे य २५ कक्षायणे २६ हवड मले । तत्तो य वच्मियायण २७ वग्यावचे २८ व गुप्ताई ॥४॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभृतस्य प्राभृतप्राभूतं समाप्तम् ॥ प्राभतप्राभतं १६ समाप्तं तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य षोडशं प्राभृतमाभृतं सम्प्रति सप्तदशमारभ्यते, तस्य चायमधिकारः -- भोजनानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते भोषणा आहिताति वदेखा ?, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णं णक्खत्ताणं, कशियाहिं Fi & Pr अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं १६ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं १७ आरभ्यते ~314~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१७], -------------------- मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत १० प्राभृते १७प्राभूतप्राभूत्ते नक्षत्र सू ५१ सूर्यप्रज्ञ- दधिणा भोचा कजं साधिंति, रोहिणीहिं चसम (मस) मंसं भोचा कजं साधेति, संठाणाहिं मिगमंसं तिवृत्तिः |भोचा कजं साधिति, अदाहिं णवणीतेण भोचा कज्जं साधेति, पुणवमुणाऽथ घतेण भोचा कर्ज साधेति, (मल.) पुस्सेणं खीरेण भोचा कर्ज साधेति, अस्सेसाए दीवगमंसं भोचा कज्ज साधेति, महाहिं कसोति भोचा कर्ज ॥१५॥ साधेति, पुवाहिं फग्गुणीहिं मेढकमंसं भोचा कजं साधेति, उत्तराहिं फग्गुणीहिं णक्खीमंसं भोचा कज्वं साधेति, हत्थेण वत्थाणीएण भोचा कजं साति, चित्ताहि मग्गसूवेणं भोचा कजं साधेति, सादिणा फलाई भोचा कर्ज साधेति, विसाहाहिं आसित्तियाओ भोचा कज्जं साधेति, अणुराहाहिं मिस्साकूरं भोचा कलं साधति, जेहाहि लट्ठिएणं भोचा कज्वं साधेति, पुचाहिं आसाढाहिं आमलगसरीरे भोचा कज्जं साधेति, उत्तराहिं। आसाढाहिं बलेहिं भोचा कजं साधेति, अभीयिणा पुप्फेहि भोचा कजं साति, सवणेणं खीरेणं भोचा कर्ज साधेति, सयभिसयाए तुवराउ भोचा कजं साधेति, पुवाहिं पुट्टवयाहिं कारिल्लएहिं भुच्चा कल्लं साधेति, उत्स राहिं पुट्टवताहिं वराहमंसं भोचा कर्ज साधेति, रवेतीहिं जलयरमसं भोचा कर्ज साधेति, अस्सिणीहिं तित्तिपरमंसं भोचा कर्ज साधेति वहकमंसं वा, भरणीहिं तलं तंदुलकं भोचा कर्ज साधेति (सूत्रं ५१) वसमस्स पाहुडस्स सत्तरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ का ता कहतेभोयणे त्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण नक्षत्रविषयाणि भोजनानि आख्यातानीति वदेत्, भगवानाह–ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये कृत्तिकाभिः *5555 अनुक्रम [७४] ॥१५॥ ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१७], -------------------- मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] 5 5 पुमान कार्य साधयति, दमा सम्मिश्नमोदनं भुक्त्वा, किमुक्तं भवति ।-कृत्तिकास प्रारब्धं कार्य दभि भुक्ते प्रायो निर्विघ्नं ४ सिद्धिमासादयतीति, एवं शेषेष्वपि सूत्रेषु भावना द्रष्टव्या ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं प्राभतस्य प्राभतप्राभतं- १७ समाप्तं तदेवमुक्त दशमस्य प्राभूतस्य सप्तदर्श प्राभृतप्राभृत, सम्प्रत्यष्टादशमारभ्यते, तस्य चायमथाधिकार:-चन्द्रादि-गर त्यचारा वक्तव्या' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते चारा आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमा दुविहा चारा पं०, तं०-आदिचचारा य चन्द्रधारा य, ता कहं ते चंदचारा आहितेति बदेजा , ता पंचसंवच्छरिएणं जुगे, अभीइणक्खत्ते सत्तसद्विचारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, सवणे ण णक्खत्ते सत्तर्हि चारे चंदेण सर्द्धि जोयं जोएति, एवं जाव उत्तरासादाणक्खत्ते सत्तहिचारे चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति । ता कहं ते आइचचारा आहितेति वदेजा,ता पंचसंवच्छरिए णं जुगे, अभीयीणक्खत्ते पंचचारे सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, एवं जाव उत्तरासादाणक्खते पंचचारे सरेण सद्धिं जोयं जोएति (सूत्रं ५२) दसमस्स पाहुहस्स अट्ठारसमं पाहुडपाहुहं समतं ॥ | 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं १-केन प्रकारेण किंप्रमाणया सषया इत्यर्थः, चारा आख्याता इति वदेत्, भगवानाह-तत्थे त्यादि, तत्र-चारविचारविषये सल्विमे वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा-द्विप्रकाराचाराः प्रज्ञप्ता, द्विविध्यमेवाह-तद्यथा-आदित्यचाराश्चन्द्रचाराश्च, चशब्दौ परस्परसमुच्चये, तत्र प्रथमतश्चन्द्रचारपरिज्ञानार्थं तद्विषयं अनुक्रम [७४] +5+5 SAKESE +SS अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १७ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १८ आरभ्यते ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१८], ------------------- मूलं [५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक प्रश्नसूत्रमाह-'ता कहं ते इत्यादि, ता इति प्राग्वत् , कथं ?-केन प्रकारेण, कया सल्ल्यया इत्यर्थः, त्वया भगवन् !12 मावचा १०प्राभृते तिवृत्तिःचन्द्रचारा आख्याता इति वदेत् , भगवानाह-'तापंचे'त्यादि, ता इति पूर्ववत्, पञ्चसांवत्सरिके-चन्द्रचन्द्राभिचर्द्धितचन्द्रा- १८प्राभूत(मल०) भिवतिरूपपश्वसंवत्सरप्रमाणे णमिति वाक्यालङ्कारे युगे अभिजिन्नक्षत्रं सप्तपष्टिं चारान यावत् चन्द्रेण सार्द्ध योगं प्राभूते | युनक्ति-योगमुपपद्यते, किमुक्तं भवति :-चन्द्रोऽभिजिन्नक्षत्रेण सह संयुक्तो युगमध्ये सप्तपष्टिसङ्ग्यान चारान् चरतीति, चाराःसू५२ ॥१५२॥ कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह योगमधिकृत्य सकलनक्षत्रमण्डलीपरिसमाप्तिरेकेन नक्षत्रमासेन भवति, नक्षब्रमासाश्च युगमध्ये सप्तपष्टिरेसचामे भावयिष्यते ततः प्रतिनक्षत्रपर्यायमेकैकं चारमभिजिता नक्षत्रेण सह चन्द्रस्य योग-15 सम्भवादुपपद्यते चन्द्रोऽभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तो युगमध्ये सप्तषष्टिसवान् चारान् चरतीति, एवं प्रतिनक्षत्रं भावनीयं । सम्पति आदित्यचारविषयं प्रश्नसूत्रमाह-ता कहं ते इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, कर्थ-किंप्रमाणया समया भगवन् ! त्वया आदित्यचारा आख्याता इति वदेत , भगवानाह-पंचसंवफछरिए 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, पश्चसांवत्सरिके-चन्द्रादिपश्चसंवत्सरप्रमाणे युगे-युगमध्येऽभिजिन्नक्षत्रं पञ्च चारान् यावत् सूर्येण सह योग युनकि, अत्राप्ययं भावार्थ:-अभिजिता नक्षत्रेण संयुक्ता सूर्यो युगमध्ये पञ्चसयान् चारान् चरति, कथमेतदवगम्यते इति चेत्, ॥१५॥ उच्यते, इह योगमधिकृत्य सूर्यस्य सकलनक्षत्रमण्डलीपरिसमाप्तिरेकेन सूर्यसंवत्सरेण, सूर्यसंवत्सराश्च युगे भवन्ति पञ्च, | ततः प्रतिनक्षत्रपोयमेकैक वारमभिजिता नक्षत्रेण सह योगस्य सम्भवात् घटतेऽभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तः सूर्यो। अनुक्रम [७१] BHABHI ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], ................---- प्राभूतप्राभत [१८], -------------------- मलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] टीप युगे पश्च चारान् चरति, एवं शेषनक्षत्रेष्यपि भावना भावनीया ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभूतस्य प्राभूतप्राभृतं- १८ समाप्त तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्याष्टादशं प्राभृतप्राभृतं, साम्प्रतमेकोनविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमाधिकार:-17 'मासमरूपणा कर्तव्ये ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते मासा आहिताति वदेजा, ता एगमेगस्स गं संवच्छस्स वारस मासा पण्णत्ता, तेसिं च दुबिहा नामघेजा पण्णत्ता, सं०-लोइया लोउत्तरिया य, तत्थ लोइया णामा सावणे भद्दवते आसोए जाय आसावे, लोउत्तरियाणामा-अभिणंदे सुपाडेय, विजये पीतिवद्धणे। सेजसे य सिवे यावि, सिसिरेविय हेमवं| १॥ नवमे वसंतमासे, दसमे कुसुमसंभवे । एकादसमे णिदाहो, वणविरोही य बारसे ॥२॥ (सूत्रं ५३) *दसमस्स पाहडस्स एगणवीशतितमं पाहुडपाहुडं समतं ॥ ___ 'ता कहं 'इत्यादि, पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण कया नानां परिपाट्या इत्यर्थः भगवन् ! त्वया मासानां नामधेयानि आख्यातानीति वदेत, भगवानाह-'एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकस्य संवत्सरस्य द्वादश मासाः प्रज्ञयाः, तेषां च द्वादशानामपि मासानां नामधेयानि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि-लौकिकानि लोकोत्तराणि च, तत्र लोके प्रसिद्धानि लौकिकानि, लोकादुत्तराणि यानि न लोके प्रसिद्धानि किन्तु प्रवचन एव तानि लोकोत्तराणि, तत्र जालौकिकलोकोत्तराणां मध्ये लौकिकानि नामान्यमूनि, तद्यथा-'श्रावणो भाद्रपद' इत्यादि, लोकोत्तराणि नामान्यमूनि, अनुक्रम [७५] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १८ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १९ आरभ्यते ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभूत [१०], ---.-.-..........--- प्राभूतप्राभूत [१९], -------------------- मलं [३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत + सुत्रांक -+ [५३] -+ % ||१-२|| तयथा-प्रथमः भावणरूपो मासोऽभिनन्दः द्वितीयः सुप्रतिष्ठः तृतीयो विजयः चतुर्थः प्रीतिवर्द्धनः पञ्चमः श्रेयान। NIR०माभूते विवृत्तिः षष्ठः शिवः सप्तमः शिशिरः अष्टमो हैमवान् नवमो वसन्तमासः दशमः कुसुमसम्भवः एकादशो निदाघः द्वादशो वन- ११ प्राभृत प्राभूते |विरोधी ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभतस्य प्राभतप्राभतं- १९ समाप्तं माता ३१५३॥ तदेवमुक्त दशमस्य प्राभूतस्य एकोनविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति विशतितममारभ्यते, तस्य चायमोंधि-II |सू ५३ कारा-'यथा पञ्च संवत्सराः प्रतिपाद्या' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह २.प्राभूते - ता कति णं भंते ! संवच्छरे आहिताति वदेजा, ता पंच संवच्छरा आहितेतिवदेजा, तं०-क्वससं-18 | प्राभृत &वच्छरे जुगसंवकछरे पमाणसंवच्छरे लक्खणसंवच्छरे सणिच्छरसंवच्छरे (सूत्रं ५४)।ता णक्खत्तसंवच्छरे । | संवत्सरा ण दुवालसविहे पण्णत्ते, सावणे भद्दवए जाव आसाटे, जं वा वहस्सतीमहग्गहे दुवालसहि संवच्छरेहिं सषं 21 सू५४ णक्खत्तमंडलं समाणेति (सूत्रं ५५)॥ नक्षत्रसंव० 'ता कइ ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति-किंसङ्ख्याः णमिति वाक्यालङ्कारे संवत्सरा आख्याता इति वदेत् । भगवानाह-'ता' इत्यादि, ता इति प्राग्वत् , पश्च संवत्सरा आख्याता इति वदेत् , तद्यथा-नक्षत्रसंवत्सर इत्यादि, तत्र यावता कालेनाष्टाविंशत्यापि नक्षत्रैः सह क्रमेण योगपरिसमाप्तिस्तावान् कालविशेषो द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सर, ॥१५॥ उक्त च-"नक्सत्तचंदजोगो बारसगुणिओ य नक्खत्तो" अत्र पुनरेकोनितनक्षवपर्याययोग एको नक्षत्रमासः सप्तर्षि-12 शतिरहोरात्रा एकविंशतिश्च सप्तपष्टिभागा अहोरात्रस्य, एष राशिर्यदा द्वादशभिर्गुण्यते तदा त्रीण्यहोरात्रशतानि सप्त दीप अनुक्रम [७६-७८] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १९ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २० आरभ्यते ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१४-५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४-५५] दीप अनुक्रम [७९-८०] [विंशत्यधिकानि एकपश्चाशच सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य एतावत्प्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः । युगं पश्चवर्षात्मकं तत्पूरकः संवत्सरो युगसंवत्सरः । युगस्य प्रमाणहेतुः संवत्सरः प्रमाणसंवत्सरः लक्षणेन यथावस्थितेनोपेतः संवत्सरो लक्षणसंवत्सरः। शनैश्चरनिष्पादितः संवत्सरः शनैश्चरसंवत्सरः शनैश्चर सम्भवः । तदेवं पश्चापि शनैश्चर संवत्सरान् नामतः प्रतिपाद्य सम्प्रत्येतेपामेव संवत्सराणां यथाक्रर्म भेदानाह-ता नक्खत्ते त्यादि, ता इति प्राग्वत् नक्षत्रसंवत्सरो द्वादशविधो-द्वादशप्रकारः, तद्यथा-'श्रावणो भाद्रपद'इत्यादि, इह एकः समस्तनक्षत्रयोगपर्यायो द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः, ततो ये नक्षत्रसंवत्सरस्य पूरका द्वादश समस्तनक्षत्रयोगपर्यायाः श्रावणभाद्रपदादिनामानस्तेऽध्यवयवे समुदायोपचारात् नक्षत्रसंवत्सरः, ततः श्रावणादिभेदात् द्वादशविधो नक्षत्रसंवत्सरः, 'जं वे'त्यादि, वाशब्दः पक्षान्तरसूचने, अथवा यत् सर्व-समस्त नक्षत्रमण्डलं बृहस्पतिर्महामहो योगमधिकृत्य द्वादशभिः संवत्सरैः समानयति-परिचमन् समापयति एष नक्षत्रसंवत्सरः, किमुक्त भवति ?-यायता कालेन बृहस्पतिनामा महामहो योगमधिकृत्याभिजिदादीन्यष्टाविंशतिमपि नक्षत्राणि परिसमापयति | तावान् कालविशेषो द्वादशवर्षप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः। ता जुगसंवच्छरे णं पंचविहे पण्णते, तं०-चंदे चंदे अभिवहिए चंदे अभिवहिए चेव, ता पढमस्स णं चंदस्स संवच्छरस्स चउवीसं पचा पं०, दोचस्स णं चंदसंवच्छरस्स चवीसं पचा पं०, तच्चस्स णं अभिवहित-14 संवच्छरस्स छंबीस पचा पं०, चउत्थरस णं चंदसंवच्छरस्स चवीसं पवा पं०, पंचमस्स णं अभिवडियसंव Fhi ~320~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूल [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१६]] सूर्यप्रज्ञ च्छरस्स छचीस पचा पण्णता, एवामेव सपुषावरेणं पंचसंवच्छरिए जुगे एगे चउवीसे पवसते भवतीति ४१० प्राभृते तिवृत्तिःमक्खातं (सूत्रं ५६)॥' २०प्राभृत(मल०) 'ता जुगसंवच्छरे ण'मित्यादि, युगसंवत्सरो-युगपूरकः संवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-चान्द्रश्चान्द्रोऽभिवार्द्ध- | प्राभृते. मातश्चान्द्रोऽभिवतिश्चैव, उक्तं च-"चंदो चंदो अभिवडिओ यचंदोऽभिवडिओ चेष । पंचसहियं जुगमिणं दिसे युगसंवत्सतेलोकदंसीहि ॥१॥ पढमविइया उ चंदा तइयं अभिवडियं वियाणाहि । चंदं चेव चउरथं पंचममभिवहियं जाण रा:सू५६ ॥२॥" तत्र द्वादशपूर्णमासीपरावर्त्ता यावता कालेन परिसमाप्तिमुपयान्ति तावान् कालविशेषश्चान्द्रः संवत्सरः, उक्त च-'पुष्णिमपरियट्टा पुण बारस संबच्छरो हवइ चंदो।' एकच पूर्णमासीपरावर्त एकश्चान्द्रमासः, तस्मिंश्च चान्द्रमासे रात्रिन्दिवपरिमाणचिम्तायामेकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य, एतत् द्वादशभिर्गुण्यते, जाता-1 नि त्रीणि शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादश च द्वापष्टिभागा रानिन्दिवस्य, एवं परिमाणधान्द्रः संच-12 |त्सरः, तथा यस्मिन् संवत्सरेऽधिकमाससम्भवेन त्रयोदश चन्द्रमासा भवन्ति सोऽभिवतिसंवत्सरः, उक्तं च-"तेरस य चंदमासा एसो अभिवहिमो र नायषो।' एकस्मिंश्चन्द्रमासे अहोरात्रा एकोनत्रिंशद्भवति द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा अहो-131 का॥१५४॥ रात्रय, एतच्यानन्तरमेवोतं, तत एष राशिस्त्रयोदशभिर्गुण्यते, जातानि त्रीण्यहोरात्रशतानि ज्यशीत्यधिकानि चतु-| चत्वारिंशव द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य, एतावदहोरात्रप्रमाणोऽभिवतिसंवत्सर उपजायते । कथमधिकमाससम्भवो ४ येनाभिवतिसंवत्सर उपजायते ।, कियता वा कालेन सम्भवतीति !, उच्यते, इह युगं चन्द्रचन्द्राभिषतिचन्द्राभि टीप अनुक्रम SHREE [८१] ~321~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत % सूत्रांक [१६] % % दीप वद्धितरूपपञ्चसंवत्सरं सूर्यसंवत्सरापेक्षया परिभाव्यमानमन्यूनातिरिक्तानि पञ्च वर्षाणि भवन्ति, सूर्यमासश्च सात्रिंशदहोरात्रप्रमाणश्चन्द्रमास एकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा दिनस्य, ततो गणितसम्भावनया सूर्यसंवत्सरसरकत्रिंशन्मासातिक्रमे एकश्चन्द्रमासोऽधिको लभ्यते, स च यथा लभ्यते तथा ( ज्ञापनाय) पूर्वाचार्यप्रदर्शितेयं करणगाथा-14 'चंदस्स जो विसेसो आइच्चस्स य हविज मासस्स । तीसइगुणिओ संतो हवइ हु अहिमासगो एको ॥१॥ अस्या है। अक्षरगमनिका-आदित्यसंवत्सरसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात चन्द्रस्य-चन्द्रमासस्य यो भवति विश्लेषः, इह विश्लेषे कृते 2 सति यदवशिष्यते तदप्युपचाराद्विश्लेषः, स त्रिंशता गुणितः सन् भवत्येकोऽधिकमासः, तत्र सूर्यमासपरिमाणात् सार्च-13 |त्रिंशदहोरात्ररूपाचन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशच्च द्वापष्टिभागा दिनस्येत्येवंरूपं शोध्यते, ततः स्थितं | पश्चादिनमेकमे केन द्वापष्टिभागेन न्यूनं, तच्च दिनं त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रिंशदिनानि, एकश्च द्वापष्टिभागस्त्रिंशता गुणितो जातात्रिंशद् द्वापष्टिभागास्ते शिदिनेभ्यः शोध्यन्ते, ततः स्थितानि शेषाणि एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशाच द्वापष्टिभागा दिनस्य, एतावत्परिमाणवान्द्रो मास इति भवति.सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे एकोऽधिकमासो, युगे |च सूर्यमासाः षष्टिस्ततो भूयोऽपि सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति, उक्त च-"सडीए अइयाए हवा हु अहिमासगो जुगढूमि । बावीसे पबसए हवाइ य बीओ जुग मि ॥१॥" अस्याप्यक्षरगमनिकाछाएकस्मिन् युगेऽनन्तरोदितस्वरूपे पर्वणी-पक्षाणां पष्टौ अतीतायां, षष्टिसायेषु पक्षेष्वतिक्रान्तेषु इत्यर्थः, एतस्मिन्नवसरेल युगाढेषु-युगाईप्रमाणे एकोऽधिकमासो भवति, द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वाविंशे-द्वाविंशत्यधिके पर्वशते-पक्षशतेऽति % अनुक्रम % [८१] F OR ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यमश(मत.) प्तिवृत्तिः प्रत सूत्रांक [१६] ॥१५॥ क्रान्ते युगस्यान्ते-युगस्य पर्यवसाने भवति, तेन युगमध्ये तृतीये संवत्सरेऽधिकमासः पञ्चमे वेति द्वौ युगेऽभिवर्शितस-II वत्सरी । सम्पति युगे सर्वसङ्ख्यया यान्ति पर्वाणि भवन्ति तावन्ति निर्दिदिक्षुः प्रतिवर्ष पर्वसङ्ख्यामाह-'ता पढमस्सा २.प्राभृतण'मित्यादि, 'ता' इति तत्र युगे प्रथमस्य णमिति वाक्याल ती चान्द्रस्य संवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि, | माभूते द्वादशमासात्मको हि चान्द्रः संवत्सरः, एकैकस्मिंश्च मासे हे द्वे पर्वणी, ततः सर्वसामया चान्द्रे संवत्सरे चतुर्विंशतिःगसंवत्स पर्वाणि भवन्ति, द्वितीयस्यापि चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति, अभिवतिसंवत्सरस्य पडूविंशतिः पर्वाणि, रासू ५६ ट्रातस्य त्रयोदशमासात्मकत्वात् , चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्षाणि, पञ्चमस्य अभिवतिसंवत्सरस्य पडर्वि- पर्वकरणानि शतिः पर्वाणि, कारणमनन्तरमेवोतं, तत एवमेव-उक्तेनैव प्रकारेण 'सपुत्वावरेण ति पूर्वापरगणितमीलनेन पश्चसावत्सरिके युगे चतुविशत्यधिक पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकृनिर्मया च । इह कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले| [किं पर्व समाप्तिमुपयातीति चिन्तायां पूर्वाचार्यैः पर्वकरणगाथा अभिहिताः, ततस्ता विनेयजमानुग्रहार्थमुपदिश्यम्ते"इच्छापधेहि गुणि अयणं याहि तु कायर्व । सोझं च हवइ एसो अयणक्खेत्तं उडुवइस्स ॥१॥ जइ अयणा सुझंती तइपबजुया उ रूवसंजुत्ता । तावइयं तं अयणं नथि निरसंमि रूवजुयं ॥२॥ कसिणमि होइ रूवं पक्खेवो दोय होति भिन्नंमि । जावइया तावइया एते ससिमंडला होति ॥३॥ ओयम्मि उगुणकारे अम्भितरमंडले हवइ आई । जुग्गमि | य गुणकारे बाहिरगे मंडले आई॥४॥" एषां क्रमेण व्याख्या-यस्मिन् पर्वणि अयनमण्डलादिविषया ज्ञातुमिच्छा तेन ॥१५॥ |ध्रुवराशिगुण्यते, अथ कोऽसौ ध्रुवराशिः ?, उच्यते, इह ध्रुवराशिप्रतिपादिकेयं पूर्वाचार्योपदर्शिता गाथा-"एगं च मंडल दीप अनुक्रम [८] ~323~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] मंडलस्स सत्तहभाग चत्तारि / नव चेव चुणियाओ इगतीसकएण छेएण // 1 // " अस्या अक्षरयोजना-एक मण्डलमेकस्य च मण्डलस्य सप्तषष्टिभागाश्चत्वारः च नव चूर्णिकाभागा एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशत्कृतेन छेदेन ये चूर्णिका भागास्तेन च, एतावत्प्रमाणो ध्रुवराशिः, अयं च पर्वगतक्षेत्रादयनगतक्षेत्रापगमे शेषीभूतः, एतस्य चोत्पत्तिमात्रं भावयिष्यामः, तत एवंभूतं ध्रुवराशिमीप्सितपर्वभिर्गुणयित्वा तदनन्तरमयनं रूपाधिक कर्त्तव्यं, तथागुणितस्य मण्डलराशेः यदि चन्द्रमसोऽयनक्षेत्र | परिपूर्णमधिक या सम्भाव्यते तत एतस्मादीप्सितपर्षसवागुणितात् मण्डलराशेरुडपतेः-चन्द्रमसोऽयनक्षेत्रं भवति शोध्यं.18 है यति च-यावत्सलमानि चायनानि शुद्ध्यन्ति ततिभिर्युक्तानि पर्वाणि अयनानि क्रियन्ते, कृत्वा च भूयो रूपसंयुक्तानि विधेयानि, यदि पुनः परिपूर्णानि मण्डलानि शुद्ध्यन्ति राशिश्च पश्चानिलेपो जायते तदा तदयनसङ्ख्यानै निरंशं सद्प४ युक्तं नास्ति, न तत्रायनराशौ रूपं प्रक्षिप्यते इति भावः, तथा कृत्स्ने-परिपूर्णे राशौ भवत्येकं रूपं मण्डल राशौ प्रक्षेपणीय, |भिन्ने-खण्डे अंशसहिते राशावित्यर्थः, द्विरूपे मण्डलराशौ प्रक्षेपणीये प्रक्षेपे च कृते सति यावान् मण्डलराशिर्भवति तावन्ति मण्डलानि तावतिथे ईप्सिते पर्वणि भवन्ति / तथा यदि ईप्सितेन पर्वणा ओजोरूपेण-विषमलक्षणेन गुणकारों 4 भवति तत आदिरभ्यन्तरे मण्डले द्रष्टव्यः, युग्मे तु-समे तु गुणकारे आदिबाह्ये मण्डलेऽवसेयः, एष करणगाधासमू-४ हाक्षरार्थः, भावना त्वियम्-कोऽपि पृच्छति-युगादौ प्रथम पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमुपयाति , तत्र है। प्रथमं पर्व पृष्ट मिति घामपार्षे पर्वसूचक एककः स्थाप्यते, ततस्तस्यानुश्रेणि दक्षिणपार्षे एकमयनं, तस्य चानुश्रेणि एक मण्डलं, तस्य च मडलस्याधस्ताच्चत्वारः सप्तपष्टिभागास्तेषामप्यधस्तान्नव एकत्रिंशद्भागाः, एष सर्वोऽपि राशिर्धवराशिः, दीप अनुक्रम [81] FitneralMAPINANORN ~324 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], ------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत तिवृत्तिः (मल) // 156 // G+ सूत्रांक [16] + + दीप सच ईप्सितेन एकेन पर्वणा गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव राशिः, ततः-'अयनं रूपाधिकं च १०याभृते कर्त्तव्यमिति वचनादेकं रूपमयने प्रक्षिप्यते, मण्डलराशी चायनं न शुद्ध्यति, ततो 'दो य होति भिन्नमि' इति वचनातू प्राभूतमण्डलराशी द्वे रूपे प्रक्षिष्येते, तत भागतमिदं प्रथम पर्व द्वितीयेऽयने तृतीयस्य मण्डलस्य, 'ओयंमि य गुणकारे अभितर- प्राभूत मंडले हथइ आई' इति वचनात् , अभ्यन्तरवर्तिनश्चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नवस्वेकत्रिंशद्भागेषु लायुग गतेषु समाप्तिमुपयातीति, अयन चेह चन्द्रायणमवसेयं, चन्द्रायणं च युगस्यादी प्रथममुत्तरापणं द्वितीयं दक्षिणायन-पकरणानि मिति द्वितीयेऽयनेऽभ्यन्तरवर्तिनस्तृतीयस्य मण्डलस्येत्युक्तं, तथा कोऽपि पृच्छति-द्वितीयं पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमधिगच्छतीति, तत्र द्वितीय पर्व पृष्टमिति स एव प्रागुक्तो ध्रुवराशिः समस्तोऽपि द्वाभ्यां गुण्यते, ततो जाते वे अयने द्वे मण्डले अष्टौ सप्तपष्टिभागा अष्टादश एकत्रिंशद्भागास्ततः 'अयनं रूपाधिक कर्त्तव्य'मिति वचनात् / अयने रूपं प्रक्षिप्यते, मण्डलराशी चायनं न शुद्ध्यति, सतो 'दो य होंति भिन्नमि' इति वचनान्मण्डलराशी वे प्रक्षिप्येते, तत आगतं द्वितीयं पर्व तृतीयेऽयने चतुर्थस्य मण्डलस्य 'जुग्गमि व गुणकारे बाहिरगे मंडले हवाइ आई' इति वचनात् बाह्यमण्डलादर्वाग्वचिनः अष्टसु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्याष्टादशस्वेकत्रिंशद्भागेष्वतिक्रान्तेषु परिसमाप्तिमुपैति, तथा कोऽपि प्रश्नयति-चतुर्दशं पर्व कतिसवेष्वयनेषु मण्डलेषु वा समाप्तिं गच्छतीति, स एव प्रागुक्तोमा // 156 // ध्रुवराशिः समस्तोऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यते, जातानि अयनानि चतुर्दश मण्डलान्यपि चतुर्दश, चत्वारः सप्तपष्टिभागाश्चतु-1 देशभिगुणिताः षट्पञ्चाशत् 56, नव एकत्रिंशद्भागाश्चतुर्दशभिर्गुणिता जातं पट्टविंशत्यधिकं शतं 126, तत्र पविशत्य G अनुक्रम G [81] ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], --------------------प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [56] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] दीप AE%ESCRI धिकस्य शतस्य एकत्रिंशता भागो हियते, लब्धाः चत्वारः सप्तपष्टिभागाः, द्वौ चूर्णिकाभागी तिष्ठतः, चस्वारथ सप्तप-13 ष्टिभागा उपरितने सप्तपष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाताः षष्टिः सप्तपष्टिभागाः चतुर्दशभ्यश्च मण्डलेभ्यस्त्रयोदशभिमण्डलैत्रयोदशभिश्च सप्तपष्टिभागैरयनं शुद्ध, सेन पूर्वाण्ययनानि चतुर्दशसल्यानि युतानि क्रियन्ते, ततः 'अयनं रूपा-1 धिक कर्तव्य'मिति वचनायोऽपि तत्रैक रूपं प्रक्षिप्यते, जातानि षोडश अयनानि, सप्तपष्टिभागाश्च चतुष्पश्चाशत्सया मण्डलराशावुद्धरितास्तिष्ठन्ति, ते सप्तषष्टिभागराशौ षष्टिरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जातं चतुर्दशोत्तरं शतं 114, तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धमेकं मण्डलं, पश्चादवतिष्ठन्ते सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः, ततो 'दो य होति भिन्नमि'इति वचनान्मण्डलराशौ द्वे रूपे प्रक्षिष्येते, जातानि त्रीणि मण्डलानि, चतुर्दशभिश्चात्र गुणितं कृतं, चतुई शराशिश्च यद्यपि | युग्मरूपस्तथाऽप्यत्र मण्डलराशेरेकमयनमधिकं प्रविष्टमिति त्रीणि मण्डलान्यभ्यन्तरमण्डलादारभ्य द्रष्टव्यानि, तत आगतं चतुर्दशं पर्व पोडशेऽयनेऽभ्यन्तरमण्डलादारभ्य तृतीये मण्डले सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य द्वयोरेकत्रिंशद्भागयोर्गतयोः परिसमामोतीति / तथा द्वापष्टितमपर्वजिज्ञासायां स पूर्वोक्तो ध्रुवराशिषिष्ट्या गुण्यते, जातानि द्वापष्टिरयनानि द्वापष्टिमण्डलानि वे शते भष्टाचत्वारिंशदधिके सप्तषष्टिभागाना 248 पश्च शतानि अष्टापञ्चाशदधिकानि एकत्रिंशद्भागानां 558, तेषामेकत्रिंशता भागे हुते लब्धाः परिपूर्णाः अष्टादश सप्तषष्टिभागास्ते उपरितने सप्तपष्टिभागरांशी प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते षषष्ट्यधिके 266, उपरि च द्वापष्टिमण्डलानि, तेभ्यो द्विपश्चाशता मण्डलैपिचाशता च एकस्य मण्डलस्य सप्तपष्टिभागैश्चत्वारि अयनानि लब्धानि, तान्ययनराशी प्रक्षिष्यन्ते, जातानि अनुक्रम [81] ~326 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभूतप्राभत [20], -------------------- मलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत I प्राभृते सूत्रांक [16]] दीप सूर्यप्रज्ञ- पटूपष्टिरयनानि 66, पश्चादवतिष्ठन्ते नव मण्डलानि पञ्चदश च सप्तषष्टिभागा मण्डलस्य, तत्र पञ्चदश सप्तपष्टिभागाः||१० प्राभूते शिवृत्तिः सप्तपष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाते वे शते एकाशीत्यधिके 281, तयोः सप्तषष्टया भागे हते लब्धानि चत्वारि मण्ड- 20 प्राभूत (मल लानि, शेषा अवतिष्ठन्ते त्रयोदश सप्तषष्टिभागा मण्डलस्य, ते च मण्डलाराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रयोदश मण्डलानि, त्रयोदशभिर्मण्डलैखयोदशभिश्च सप्तषष्टिभागैः परिपूर्णमेकमयनं लब्धमिति तदयनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि सप्तषष्टि-1 युगसंवत्सः // 157 // Xरयनानि, 'नथि निरंसंमि रूबजुय मिति वचनादयनराशौ रूपं न प्रक्षिप्यते, केवलं 'कसिणंमि होइ रुवं पक्खेको' इति| करणात वचनान्मण्डलस्थाने एकं रूपं न्यस्यते, द्वापट्या चात्र गुणकारः कृतो द्वापष्टिरूपक्ष राशियुग्मो यान्यपि च चत्वायेंयनानि प्रविष्टानि तान्यपि युग्मरूपाणि रूपं चात्राधिकमेकं न प्रक्षिप्तमिति पश्चममयनं तत्स्थाने द्रष्टव्यमिति बाह्यमण्डलमादिष्टव्यं, तत आगतं द्वापष्टितम पर्व सप्तषष्टावयनेषु परिपूर्णेषु जातेषु बाह्यमण्डले प्रथमरूपे परिसमाप्ते परिसमाप्तिं गतमिति, एवं सर्वाण्यपि पर्वाणि भावनीयानि, केवलं विनेयजनानुग्रहाय पर्वायनप्रस्तारो लेशतोऽक्षरताडित उपदयेते, तत्र प्रथम पर्व द्वितीयेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य नवस्वेकत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्तमिति ध्रुवराशिं कृत्वा पर्वायनमण्डलेषु प्रत्येकमेकैकं रूपं प्रक्षेप्तव्यं, भागे | तावत्सलवाका भागाः, मण्डले चायनक्षेत्रे परिपूर्णे त्रयोदश मण्डलानि एकस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा // 157 // इत्येतावत्प्रमाणमयनक्षेत्रं शोधयित्वाऽयनमयनराशौ' प्रक्षेप्तव्यं, अनेन क्रमेण वक्ष्यमाणः प्रस्तारः सम्यक् परिभावनीयः, स च प्रस्तारोऽयं-प्रथमं पर्व द्वितीयेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभा-18 अनुक्रम [81] FitraalMAPINAMORE ~327~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] दीप गस्य नवस्वेकत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्त, द्वितीयं पर्व तृतीयेऽयने चतुर्थे मण्डले चतुर्थस्य मण्डलस्य अष्टसु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशद्भागेषु अष्टादशसु, तृतीय पर्व चतुर्थेऽयने पश्चमे मण्डले पञ्चमस्य मण्डलस्य द्वादशसु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य सप्तविंशतौ एकत्रिंशदागेषु, चतुर्थं पर्व पञ्चमेऽयने षष्ठे मण्डले षष्ठस्य मण्डलस्य सप्त| दशसु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य पञ्चस्वेकत्रिंशद्भागेषु, पञ्चमं पर्व षष्ठेऽयने सप्तमे मण्डले सप्तमस्य मण्डलस्य एकविंशती सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य चतुर्दशस्वेकत्रिंशद्भागेषु,षष्ठं पर्व सप्तमेऽयनेऽष्टमे मण्डलेऽष्टमस्य मण्डलस्य पञ्चविंशती सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य त्रयोविंशताकत्रिंशद्भागेषु, सप्तमं पर्व अष्टमेऽयने नवमे मण्डले नवमस्य मण्डलस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकस्मिन्नेकत्रिंशद्भागे अष्टम पर्व नवमेऽयने दशमे | मण्डले दशमस्य मण्डलस्य चतुखिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य दशस्वेकत्रिंशद्भागेषु, नवमं पर्व दशमेऽयने एकादशे मण्डले एकादशस्य मण्डलस्याष्टात्रिंशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकोनविंशतावेकत्रिंशदागेषु, दशमं पर्व एकादशेऽयने द्वादशे मण्डले द्वादशस्य च मण्डलस्य द्वाचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्याष्टाविंशती एकत्रिंशद्भागेषु, एकादशं पर्व द्वादशेऽयने त्रयोदशे मण्डले त्रयोदशस्य मण्डलस्य सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य षट्सु एकत्रिंशद्भागेषु, द्वादशं पर्व चतुर्दशेऽयने प्रथमे मण्डले प्रथमस्य मण्डलस्याष्टात्रिंशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य पञ्चदशस्वेकत्रिंशद्भागेषु, त्रयोदशं पर्व पञ्चदशेऽयने द्वितीये मण्डले द्वितीयस्य मण्डलस्य द्वाचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य चतुर्विशतौ एकत्रिंशद्भागेषु, चतु-ल MEENA अनुक्रम [81] ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], ------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ ज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) प्रत सुत्राक // 158 // [16]] श शं पर्व षोडशेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य द्वयो- प्रामा रेकत्रिंशद्भागयोः, पश्चदशं पर्व सप्तदशेऽयने चतुर्थे मण्डले चतुर्थस्य मण्डलस्य एकपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च 40 प्रामृतसप्तपष्टिभागस्य एकादशवेकत्रिंशद्भागेषु, एवं शेषेष्वपि पर्वस्वयनमण्डलप्रस्तारोभावनीयो, अन्धगौरवभयात्तु न लिख्यते। प्राभृते अथ किं पर्व कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे परिसमाप्तिमुपयातीति चिन्तायां पूर्वाचायः करणमुपदर्शित, सम्पति तदप्युपद- युगसंवत्स यते-चवीससयं काऊण पमाणं सत्तसहिमेव फलं / इच्छापबेहिं गुणं काऊणं पज्जया लद्धा // 1 // अहारसहिाराः सू५६ |सएहिं तीसहिं सेसगम्मि गुणियम्मि / तेरस विउत्तरेहि सएहिं अभिइम्मि सुद्धम्मि // 2 // सत्तहिबिसठ्ठीणं सबग्गेणं पर्वकरणानि तओ उजं सेसं / तं रिक्खं नायव जत्थ समत्तं हवइ पचं // 3 // ' त्रैराशिकविधौ चतुर्विशत्यधिक शतं प्रमाण-प्रमाणराशिं कृत्वा सप्तषष्टिरूपं फलं-फलराशिं कुर्यात्, कृत्वा च ईप्सितैः पर्षभिर्गुण-गुणकारं विदध्यात्, विधाय चायेन, |राशिना चतुर्विंशत्यधिकशतेन भागे हते यल्लब्धं ते पर्याया ज्ञातव्याः, यत्पुनः शेषमवतिष्ठते तदष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकः सडण्यते, सङ्गणिते च तस्मिन् ततस्त्रयोदशभिः शतैर्युत्तरैरभिजित् शोधनीयः, अभिजितो भोग्यानामेकविंशतेः सप्तपष्टिभागानां द्वाषष्ट्या गुणने एतावतः शोधनकस्य लभ्यमानत्वात् , ततस्तस्मिन् शोधने सप्तषष्टिसझ्या या द्वाषष्टय-| |स्तासां सर्वाग्रेण यद्भवति, किमुक्तं भवति, सप्तपट्या द्वाषष्टौ गुणितायां यद् भवति तेन भागे हते यल्लब्ध तावन्ति PIनक्षत्राणि शुद्धानि, यत्पुनस्ततोऽपि भागहरणादपि-शेषमवतिष्ठते तादृशं नक्षत्र ज्ञातव्यं यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तमिति, mun एष करणगाथाक्षरार्थः, भावना वियम्-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तपष्टिः पर्याया लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा कि दीप अनुक्रम [81] ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] दीप लभामहे 1, राशित्रयस्थापना-१२४ / 67 / 1 / अत्र चतुर्विशत्यधिकशतरूपो राशिः प्रमाणभूतः, सप्तषष्टिरूपः फल, तत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, जातस्तावानेव, तस्यायेन राशिना चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, स च स्तोकत्वाद् भागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैखिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागरूपैर्गुणयिष्याम इति गुणकाररछेदराश्योरद्धेनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 915, छेदराशिषिष्टिः 62, तत्र सप्तषष्टिर्नविशतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यते, जाताम्येकषष्टिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि 61305, एतस्मादभिजितस्त्रयोदश शतानि है | अधुत्तराणि शुद्धानि, स्थितानि शेषाणि षष्टिसहस्राणि व्युत्तराणि 60003, तत्र छेदराशिषिष्टिरूपः सप्तपथ्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि 4154, भौगो हियते, लब्धाश्चतुर्दश 14, तेन श्रवणादीनि पुष्य-18 पर्यन्तानि चतुर्दश नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषाणि तिष्ठन्ति अष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि 1847, एतानि मुह-1 नियनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि दशोत्तराणि 55410, तेषां भागे हृते लब्धास्त्रयोदश मुहूर्ताः, शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दश शतानि अष्टोत्तराणि 1408, एतानि द्वापष्टिभागानयनार्थं द्वाषष्ट्या &|गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योषियाऽपवर्त्तना क्रियते, तत्र गुणकारराशिर्जात एककश्छेदराशिः सप्तषष्टिः, एकेन च गुणित उपरितनो राशिर्जातस्तावानेव, तस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धा एकविंशतिः 21, पश्चादवतिष्ठते एकः सप्तषष्टिभागः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य, आगतं प्रथमपर्व अश्लेषायाखयोदश मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतिषिष्टिभागान् एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकं सप्तपष्टिभागं भुक्त्वा समाप्तमिति, तथा यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तषष्टिः। अनुक्रम SANSAR [81] FridaIMAPIVARANORN ~330~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) सुत्रांक // 15 // [16] टीप पर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे , राशित्रयस्थापना-१२४ / 67 / 2 / अत्रान्त्येन राशिना मध्य 10 प्राभृते राशिगुण्यते, जातं चतुर्विंशदधिक शतं 134, तस्यायेन राशिना चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण भागो ह्रियते, लब्ध एको, 20 ग्राभूत प्राभृते नक्षत्रपर्यायः, स्थिताः शेषा दश, तत एतान् नक्षत्रानयनायाष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति युगसंवत्स गुणकारच्छेदराश्योरनापवर्तना, जातो गुणकारराशिर्नव शतानि पश्चदशोत्तराणि 915, छेदराशिद्वषष्टिः 62, तत्र दश नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यन्ते, जातान्ये कैनवतिः शतानि पञ्चाशदधिकानि 9150, तेभ्यस्त्रयोदश शतानि पर्वकरणानि वत्तराव्यभिजितः शुद्धानि, स्थितानि पश्चादष्टसप्ततिः शतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि 7858, तत्र द्वापष्टिरूप छदराशिः सप्तपध्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि 4154, तैर्भागो हियते, लग्धमेकं श्रवण-14 रूपं नक्षत्र, शेषाणि तिष्ठन्ति षट्त्रिंशच्छतानि चतुर्नवत्यधिकानि 3694, एतानि मुहानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं रक्षं दश सहस्राणि अष्टौ शतानि विंशत्युत्तराणि 110820, तेषां छेदराशिना भागे हते लब्धाः षड्विंशतिर्मुइत्तोः 26, शेषाणि तिष्ठन्ति षोडशोत्तराणि अष्टाविंशतिः शतानि 2816, एतानि द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वापट्या गुण| यितव्यानि, तत्र गुणकारच्छेद्यराश्योषिष्ट्याऽपवर्तना, तत्र गुणकारराशिरेककरूपो जात छेदराशिः सप्तषष्टिः, तत्रैकेन उपरितनो राशिगुणितो जातस्तावानेव तस्य सप्तपध्या भागे हृते लब्धा द्वाचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागी, आगतं द्वितीयं पर्व धनिष्ठानक्षत्रस्य पट्टविंशतिं मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाचत्वारिंशतं | द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागी भुक्त्वा समाप्तिमुपगच्छति, एवं शेषेष्वपि पर्वसु सोणि नक्ष अनुक्रम [81] // 159 // F OR ~331~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], ------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] दीप त्राणि भावनीयानि, तत्साहिकाश्चमाः पूर्वाचार्यप्रदर्शिताः पञ्च गाथा:-"सप्प धाणडा अजम अभिवुही चित्त आस | इंदगि / रोहिणि जिहा मिगसिर विस्साऽदिति सवण पिउदेवा // 1 // अज अज्जम अभिवुही चित्ता आसो तहा विसाहाओ। रोहिणि मूलो अद्दा वीस पुस्सो धणिहा य // 2 // भग अज अजम पूसो साई अग्गी य मित्तदेवा य / रोहिणि पुषासाहा पुणवसू वीसदेवा य // 3 // अहिवसु भगाभिबुही हत्थस्स विसाह कत्तिया जेहा / सोमाउ रवी सवणो पिउ वरुण भगाभिवुही य // 4 // चित्तास विसाहग्गी मूलो अद्दा य विस्स पुस्सोज / एए जुगपुवढे बिसद्विपचेसु नक्खत्ता // 5 // " एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सर्पः-सप्पदेवतोपलक्षितं नक्षत्रं ( अश्लेषा) 1 द्वितीयस्य धनिष्ठा 2 तृतीयस्यार्यमा-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः 2 चतुर्थस्याभिवृद्धि:--अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा 4 पञ्चः मस्य चित्रा 5 षष्ठस्याश्वः-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी 6 सप्तमस्य इंद्राग्निः-इन्द्राग्निदेवतोपलक्षिता विशाखा 7 अष्टमस्य रोहिणी 8 नवमस्य ज्येष्ठा 9 दशमस्य मृगशिरः 10 एकादशस्य विश्वदेवतोपलक्षिता उत्तराषाढा 11 द्वादशस्यादितिःअदितिदेवतोपलक्षितः पुनर्वसुः 12 प्रयोदशस्य श्रवणः 13 चतुर्दशस्य पितृदेवा-मघाः 14 पञ्चदशस्याजः-अजदेवतो. पलक्षिताः पूर्वभद्रपदाः 15 षोडशस्यार्यमा-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः 16 सप्तदशस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धि-| देवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा 17 अष्टादशस्य चित्रा 18 एकोनविंशतितमस्याश्वः-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी 19 विंशतितमस्य विशाखा 20 एकविंशतितमस्य रोहिणी 21 द्वाविंशतितमस्य मूलः 22 अयोधिशतितमस्य आद्रो 23 | चतुर्विंशतितमस्य विष्वक्-विष्यग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढा 24 पञ्चविंशतितमस्य पुष्पः 25 पडूविंशतितमम्य धनिष्ठा अनुक्रम [81] F OR ~332 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [10], ----------------- प्राभृतप्राभूत 20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यमज प्रत क प्राभृते युगसंवत्स सूत्रांक [16] दीप 26 सप्तविंशतितमस्य भगो-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः 27 अष्टाविंशतितमस्याजः-अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभ- 10 प्राभृते तिवृत्तिःद्रपदाः 28 एकोनत्रिंशत्तमस्यार्यमा-अर्यमदेवता उत्तरफाल्गुन्यः 29 त्रिंशत्तमस्य पुष्या-पुष्यदेवताका रेवती 30 एकत्रि- २०प्राभृत(मल.) शत्तमस्य स्वातिः 31 द्वात्रिंशत्तमस्याग्नि:-अग्निदेवतोपलक्षिताः कृत्तिकाः 32 त्रयस्त्रिंशत्तमस्य मित्रदेवा-मित्रनामा देवो| यस्याः सा तथा अनुराधा इत्यर्थः 33 चतुर्विंशत्तमस्य रोहिणी 34 पश्चत्रिंशत्तमस्य पूर्वाषाढा 35 षट्त्रिंशत्तमस्य | // 16 // पुनर्वसुः 36 सप्तत्रिंशत्तमस्य विष्वग्देवाः उत्तराषाढा इत्यर्थः 37, अष्टात्रिंशत्तमस्याहिः-अहिदेवतोपलक्षिता अश्लेषाला पाहता पर्षकरणानि |38 एकोनचत्वारिंशत्तमस्य वसुः वसुदेवोपलक्षिताः धनिष्ठा 39 चत्वारिंशत्तमस्य भगो-भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः 40 एक-* चत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा 41 द्वाचत्वारिंशत्तमस्य हस्तः 42, त्रिचत्वारिंशत्तमस्याश्वः-अश्वदेवा अश्विनी 43 चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य विशाखा 44 पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य कृत्तिका 45 षट्चत्वारिंशत्तमस्य 4 ज्येष्ठा 46 सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः-सोमदेवोपलक्षितं मृगशिरोनक्षत्रं 47 अष्टाचत्वारिंशत्तमस्यायु:-आयुर्देवाः पूर्वापाहाः 48 एकोनपञ्चाशत्तमस्य रविः-रविनामकदेवोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्रं 49 पञ्चाशत्तमस्य श्रवणः 50 एकपञ्चाशत्तमस्य पिता-पितृदेवा मघाः 51 द्विपञ्चाशत्तमस्य वरुणो वरुणदेवोपलक्षितं शतभिषा नक्षत्रं 52 त्रिपश्चाशत्तमस्य भगो|भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः५३ चतुःपञ्चाशत्तमस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवा उत्तरभद्रपदा 54 पञ्चपञ्चाशत्तमस्य चित्रा 55 पर्दू-I // 15 // पश्चाशत्तमस्याश्वः-अश्वदेवा अश्विनी 56 सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा 57 अष्टपश्चाशत्तमस्यानिः-अग्निदेवोपलक्षिताः - त्तिका:५८ एकोनषष्टितमस्य मूलः 59 षष्टितमस्य आर्द्रा 60 एकषष्टितमस्य विष्वक्-विष्वग्देवा उत्तरापाढाः ६१वाषष्टितमस्य | अनुक्रम + [81] C FhiralMAPIMIREUMORE ~333~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], ------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] दीप पुष्यः 62, एतदुपसंहारमाह-एतानि नक्षत्राणि युगस्य पूर्वार्द्ध यानि द्वाषष्टिसङ्ख्यानि पर्वाणि तेषु क्रमेण वेदितव्यानि:31 एवं प्रागुक्तकरणवशादुत्तराद्देऽपि द्वाषष्टिसलयेषु पर्वस्ववगन्तव्यानि / सम्पति कस्मिन् सूर्यमण्डले किं पर्व समाप्ति यातीति चिन्तायां यत्पूर्वाचार्यैरुपदर्शितं करणं तदभिधीयते-"सूरस्सवि नायवो सगेण अयण मंडलविभागो / अयणमिन जे दिवसा स्वहिए मंडले हवइ // 1 // " अस्या व्याख्या--सूर्यस्यापि पर्वविषयो मण्डलविभागो ज्ञातव्यः स्वकीयेनाय नेन, किमुक्तं भवति -सूर्यस्य स्वकीयमयनमपेक्ष्य तस्मिन् तस्मिन् मण्डले तस्य तस्य पर्वणः परिसमाप्तिरवधारणीयेति, सातत्र अयने शोधिते सति ये दिवसा उद्धरिता वर्तन्ते तत्सचे रूपाधिके मण्डले सदीप्सितं पर्व परिसमाप्तं भवतीति वेदितव्यं, एषा करणगाथाऽक्षरघटना, भावार्थस्त्वयम्-इह यत्पर्व कस्मिन् मण्डले समाप्तमिति ज्ञातुमिष्यते तत्सङ्ख्या ध्रियते, धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यते, गुणयित्वा च रूपाधिका क्रियते, ततः सम्भवन्तोऽवमरात्राः पात्यन्ते, ततो यदि त्र्यशी-1 त्यधिकेन शतेन भागः पतति तर्हि भागे हते यलब्धं तान्ययनानि ज्ञातव्यानि, केवलं या पश्चादिवससमयाऽवतिष्ठते तदन्तिमे मण्डले विवक्षितं पर्व समाप्तमित्यवसेयं, उत्तरायणे वर्तमाने बाह्यं मण्डलमादिः कर्त्तव्यं दक्षिणायने च सर्वाभ्यन्तरमिति / सम्प्रति भावना क्रियते-ततः कोऽपि पृच्छति-कस्मिन् मण्डले स्थितः सूर्यो युगे प्रथमं पर्व समापयतीति, इह प्रथम पर्व पृष्टमित्येकको ध्रियते, स पश्चदशभिर्गुण्यते, जाताः पञ्चदश, अत्रैकोऽप्यवमरात्री न सम्भवतीति न किमपि पात्यते, ते च पश्चदश रूपाधिकाः क्रियन्ते, जाता षोडश, युगादौ च प्रथमं पर्व दक्षिणायने, तत आगतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादिं कृत्वा षोडशे मण्डले प्रथम पर्व परिसमाप्तमिति / तथाऽपरः पृच्छति-चतुर्थ पर्च कस्मिन् मण्डले परिसमामो अनुक्रम [8] ~334~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], ------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] दीप सूर्यप्रज्ञ तीति !, तत्र चतुष्को ध्रियते, धृत्वा च पश्चदशभिर्गुण्यते, जाता षष्टिः, अत्रैकोऽयमरात्रः सम्भवतीत्येकः पात्यते, जाता 1. प्राभृते प्तिवृत्तिः एकोनषष्टिः 59, सा भूयोऽध्येकरूपयुता क्रियते, जाता षष्टिः, आगतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादिं कृत्वा षष्टितमे मण्डले चतुर्थ 20 प्राभूत(मल०) पर्व समाप्तमिति / तथा पञ्चविंशतितमपर्वजिज्ञासायां पञ्चविंशतिः स्थाप्यते, सा पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि प्राभृते | पञ्चसप्तत्यधिकानि 375, अत्र षडवमरात्रा जाता इति षट् शोध्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि एकोनसप्तत्यधिकानि 369, युगसंवत्स॥१६॥ तेषां ज्यशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धी द्वौ, पश्चात्तिष्ठन्ति त्रीणि, तानि रूपयुतानि क्रियन्ते, जातानि चत्वारि यौासारासू" दीच द्वौ लब्धी ताभ्यां वे अयने दक्षिणायनोत्तरायणरूपे शुद्धे, तत आगतं तृतीये दक्षिणायनरूपे सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादि पर्वकरणानि कृत्वा चतुर्थे मण्डले पञ्चविंशतितम पर्व परिसमाप्तमिति / चतुर्विशत्यधिकशततमपर्वजिज्ञासायां चतुर्विशत्यधिक शतं | स्थाप्यते, तत्पश्चदशभिर्गुण्यते, जातान्यष्टादश शतानि षष्ट्यधिकानि 1860, चतुर्विशत्यधिकपर्वशते च त्रिंशदमवरात्रा। भूता इति त्रिंशत्पात्यते, जातानि पश्चादष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि 1830, तानि रूपयुतानि क्रियन्ते, जातानि अष्टादश शतान्येकत्रिंशदधिकानि 1831, तेषां व्यशीत्यधिकेन शतेन भागे हृते लब्धानि दशायनानि पश्चादवतिष्ठते एकः, दशमं च अयनं युगपर्यन्ते उत्तरायणं, तत आगतमुत्तरायणपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चतुर्विशत्यधिकं शततमं पर्व समाप्तमिति / सम्प्रति किं पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे समाप्तिमधिगच्छति एतन्निरूपणार्थ यत्पूर्वाचायः करणमुक्तं का॥१६॥ तदुपदश्यते-'चउवीससयं काऊण पमाणं पजए य पंच फलं / इच्छापबेहिं गुणं काऊणं पजया लद्धा // 1 // अट्ठारस साय सएहिं तीसहिं सेसगंमि गुणियम्मि / सत्तावीससएसुं अट्ठावीसेसु पूसंमि / / 2 / / सत्तहबिसहीणं सबग्गेणं तओ उ HARROWS*xxxkot अनुक्रम [81] FridaIMAPIVARANORN ~335 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] जे सेसं / तं रिक्खं सूरस्स उ जत्थ समत्तं हवाइ पर्व // 3 // एतासां तिहणां गाथानां क्रमेण ब्याख्या-त्रैराशिकविधौ |चतुर्विंशत्यधिकशतप्रमाणं प्रमाणराशिं कृत्वा पा पर्यायान् फलं कुर्यात, कृत्वा च ईप्सितैः पर्वभिर्गुण-गुणकारं विद-18 ध्यात्, विधाय चायेन राशिना-चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण भागो हर्त्तव्यो, भागे हुते यलब्धं ते पर्यायाः शुद्धा ज्ञातव्याः, यत्पुनः शेषमवतिष्ठते तदष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैगुण्यते, गुणिते च तस्मिन् सप्तविंशतिशतेषु अष्टाविंशत्यधिकेषु | शुद्धेषु पुष्यः शुक्यति, तस्मिन् शुद्धे सप्तषष्टिसङ्ख्या या द्वाषष्टयस्तासां सांग्रेण यद्भवति, किमुक्तं भवति :-सप्तपथा| द्वाषष्टौ गुणितायां यद् भवति तेन भागे हते यल्लब्धं तावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि द्रष्टव्यानि, यत्पुनस्ततोऽपि-भागहरगादपि शेषमवतिष्ठते तदृक्षं सूर्यस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तमिति, एष करणगाथात्रयाक्षरार्थः / भावना वियम्-यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पश्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा किं लभामहे 1, राशित्रयस्थापना-१२४ / 5 / 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, जातस्तावानेव पञ्चकरूपः, तस्यायेन राशिना चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, स च स्तोकस्वादागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्रानयनार्थ अष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरट्टेनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 915 छेदराशिषिष्टिः 52, तत्र पश्च नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यन्ते, जातानि पचचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि | 4575, पुष्यस्य चतुश्चत्वारिंशद् भागा द्वाषष्ठया गुण्यन्ते, जातानि सप्तविंशतिः शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि | 52728, एतानि पूर्वराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चादष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि 1847, तत्र छेदरा-R दीप 556555- 55-25 अनुक्रम [81] kkck ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) आगम (17) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 0 सुत्राक . .. रायगसंवत्स [16]] दीप सूर्यप्रज्ञ शिषिष्टिरूपः सप्तषट्या गुण्यते, जातानि एकचत्वारिंशत् शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि 4154, तैर्भागो हियते, ४१०याभृते प्तिवृत्तिः तत्र राशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते, ततो दिवसा आनेतव्याः, तत्र च छेदराशिषिष्टिरूपा, परिपूर्णनक्षत्रानयनाथै २०प्राभूत(मल. हि द्वापष्टिः सप्तषष्ट्या गुणिताः, परिपूर्ण च नक्षत्रमिदानीं नायाति, ततो मूल एव द्वाषष्टिरूपश्छेदराशिः, केवलं पञ्चभिः प्रामृत सप्तपष्टिभागैरहोरात्रो भवति, ततो दिवसानयनाय द्वाषष्टिः पञ्चभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि दशोत्तराणि 310, // 16 // तैर्भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्च दिवसाः, शेषं तिष्ठति द्वे शते सप्तनवत्यधिके 297, ते मुहूर्तानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, तत्र रासू 56 पर्वकरणानि गुणकारच्छेदराश्योः शून्येनावपर्तना जातो गुणकारराशिस्निकरूपश्छेदराशिरेकत्रिंशत् , तत्र त्रिकेनोपरितनो राशिगुण्यते[. जातान्यष्टौ शतान्येकनवत्यधिकानि८९१, तेषामेकत्रिंशता भागो हियते, लब्धा अष्टाविंशतिर्मुहूत्तोः 28 एकस्य च मुहत्तेस्य त्रयोविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः आगतं प्रथमं पर्व अश्लेपानक्षत्रस्य पञ्च दिवसानेकस्य च दिवसस्याष्टाविंशतिं मुहर्तानेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागान् भुक्त्वा समाप्तं, अथवा पुष्ये शुद्धे यानि स्थितानि पश्चादष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि 1847, तानि सूर्यमुहर्सानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि दशोत्तराणि 55410, तेषां प्रागुक्तेन छेदराशिना 4154 भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश मुहूत्तोः 13, दोषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दश शतान्यष्टोत्तराणि 1408, ततोऽमूनि द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्यो-II 162 // ४षियाऽपवर्त्तना, तत्र गुणकारराशिरेककरूपश्छेदराशिः सप्तपष्टिरूपस्तत्र एकेन गुणितो राशिस्तावानेव जातः 1408, तस्य सप्तपध्या भागो हियते, लब्धा एकविंशतिः 21 द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टि अनुक्रम [81] ~337~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4- प्रत सूत्रांक [16] भाग तत आगतं युगस्यादी प्रथम पर्व अमावास्यालक्षणमश्लेषानक्षत्रस्य त्रयोदश महर्त्तानेकस्य च मुहर्तस्य एकविंशतिर। द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एक सप्तपष्टिभागं भुक्त्वा सूर्यः समापयति, तथा च वक्ष्यति–ता एएसि हूँ पंचहं संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे केण नक्खत्तेणं जोएड, ता असिलेसाहि, असिलेसाणं एकमुहुत्ते चत्तालीस वावडिभागा मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तहिहा छित्ता छावहि चुण्णिआ सेसा / तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जो-13 एइ ?, ता असिलेसाहिं चेव, असिलेसाणं एको मुहृत्तो चत्तालीसं बावडिभागा मुहुत्तस्स बावहिभागं च सत्तष्ठिहा छेत्ता छावही चुणिया सेसा' इति, तथा यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्षशतेन पञ्च सूर्यनक्षन्नपर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां / किं लभामहे !, राशिवयस्थापना-१२४।५।२। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाता दश 10, तेषामायेन राशिना भागहरणं, ते च स्तोकत्वाद् भागं न प्रयच्छन्ति, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैर्गुणयितव्या इति, गुणकारच्छेदराश्योरट्टेनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 915 छेदराशिोषष्टिः 62, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः दश गुण्यन्ते, जातानि एकनवतिः शतानि पञ्चाशदुत्त-18 राणि 9150, तेभ्यः सप्तविंशतिः शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि पुष्यसत्कानि शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चाच्चतुःषष्टिः शतानि द्वाविंशत्यधिकानि 6422, छेदराशिषष्टिरूपः सप्तपट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि 4154, तैर्भागो हियते, लब्धमेकं नक्षत्रं, तच्चाश्लेषारूपमश्लेषानक्षत्रं चार्द्धक्षेत्रं अत एतद्गताः पञ्चदश सूर्यमुहूर्ता अधिका वेदितव्याः, शेषाणि तिष्ठन्ति द्वाविंशतिः शतान्यष्टपश्यधिकानि 2268, ततो मुहूर्त्तानयनार्थमेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जाता दीप अनुक्रम [8] RECENGA Fhi ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] दीप सूर्यप्रज्ञ-18 न्यष्टषष्टिः सहस्राणि चत्वारिंशदधिकानि 68040, तेषां छेदराशिना 4154 भागो हियते, लब्धाः षोडश मुहूर्ताः 16, 10 प्राभृते तिवृत्तिः शेषाण्यवतिष्ठन्ते पञ्चदश शतानि षट्सप्तत्यधिकानि 1576, तानि द्वापष्टिभागानयनाथू द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुण-18२० प्राभृत. (मल.) कारच्छेदराश्योपट्याऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपः छेदराशिः सप्तषष्टिः 67, तत्रोपरितनो राशिरेकेन गुणितस्ता- प्राभृते // 16 // वानेव जातः, तस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धास्त्रयोविंशतिषिष्टिभागाः 23 एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तपष्टि युगसंवत्स भागाः 35, तत्र ये लब्धाः षोडश मुहूर्ता ये चोद्धरिताः पाश्चात्याः पञ्चदश मुहूर्तास्ते एकत्र मील्यन्ते, जाता एकत्रिंशत् 31,REAM पर्वकरणानि तत्र त्रिंशता मघा शुद्धा, पश्चादुद्धरत्येकः सूर्य मुहूर्तः, तत आगतं द्वितीय पर्व श्रावणमासभावि पौर्णमासीरूपं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्यैक मुहूर्तमेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तषष्टिभागान् भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयतीति, तथा च वक्ष्यति-"ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम पुण्णमासिं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएड 14 ताधणिडाहिं, धणिहाणं तिन्नि मुहुत्ता एगूणवीसं च बावहिभागा मुहुत्तस्स बावडिभागं च सत्तहिहा छेत्ता पण्णही चुण्णिया | भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केण नक्खत्तेणं जोएइ, ता पुषाहि फगुणीहिं पुषाणं फागुणीणं अट्ठावीस व मुहुत्ता अठ्ठावी(ती)संच बावद्विभागा मुहुत्तस्स बावडिभागं च सत्तहिहा छेत्ता बत्तीस चुणिया भागा सेसा" इति, तथा यदि चतु-18 विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततनिभिः किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-१२४।५।३। / / 163 // अत्रान्त्येन राशिना निकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाताः पञ्चदश 15, तेषामायेन राशिना भागहरणं, तत्र राशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सतषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति अनुक्रम [8] 45-45 FhiralMAPIMIREUMORE ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [16] दीप गुणकारच्छेदराश्योरःनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 915, छेदराशिपिष्टिः 62, तत्र नवभिः शतैः पश्चदशोत्तरैः पशदश गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि 13725, | तेभ्यः सप्तविंशतिः शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि पुष्यसत्कानि शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चाद्दश सहस्राणि नव शतानि सप्तनवत्यधिकानि 10997, छेदराशि षष्टिरूपः सप्तपट्या गुणितो जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि 4154, तैर्भागो हियते, लब्धे द्वे नक्षत्रे 2, ते चाश्लेषामधारूपे, अश्लेपानक्षत्रं चार्द्ध क्षेत्रमित्येतद्गताः पञ्चदश सूर्यमुहूत्तो उद्धरिता वेदितव्याः, शेषाणि तिष्ठन्ति षविंशतिः शतानि नवाशीत्यधिकानि 2689, एतानि मुहूर्तानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यशीतिः सहस्राणि षट् शतानि सप्तत्यधिकानि 80670, तेषां छेदराशिना 4154 भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहर्ताः 19, शेषाण्यवतिष्ठन्ते सप्तदश शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि 1744, एतानि द्वापष्टिभागानयनार्थं द्वापध्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योपट्याऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपः छेदराशिः सप्तषष्टिः 67, तत्रोपरितनो राशिरेकेन गुणितस्तावानेव जातः 1444, तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः पविंशतिषिष्टि-18 * भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ / 26 / , तत्र ये लब्धा एकोनविंशतिर्महाः ये चोद्धरिताः पा-15 श्चात्याः पश्चदश मुहस्तेि एकत्र मील्यन्ते, जाताश्चतुस्त्रिंशन्मुहूर्ताः, तत्र विंशता पूर्वकाल्गुनी शुद्धा, शेपास्तिष्ठन्ति / प्रचत्वारो मुक्ताः , तत आगतं तृतीयं पर्व भाद्रपदगतामावास्यारूपं उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य चतुरो मुहानेकस्य च मुहूहास्य पविंशतिं द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयति, तथा च वक्ष्यति अनुक्रम [81] JAMEraton intamanimal ~340~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [16] मता एएसिणं पंचण्ह संवच्छराणं दो अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ, ता उत्तराहिं फग्गुणीहि, उत्तरफग्गु- 10 ग्राभृते तिवाणीणं चत्तालीसं मुहुत्ता पण्णत्तीसं बावठिभागा मुहुत्तस्स बावडिभागं च सत्तढिहा छेत्ता पपणही चुणिया भागा सेसा, 20 प्राभूत(मल०) IM समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएइ, ता उत्तराहिं चेव फग्गुणीहि, उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहत्ता पणतीस। प्राभृते च बावहिभागा मुहुत्तरस बावडिभागं च सत्तडिहा छेत्ता पण्णवी चुणिया भागा सेसा" इति, एवं शेषपर्वसमापकान्यपि युगसंवत्स॥१६४॥ | सूर्यनक्षत्राण्यानेतन्यानि / अथवेदं पर्वसु सूर्यनक्षत्रपरिज्ञानार्थ पूर्वाचार्योपदर्शितं करणं-'तित्तीसं च मुहत्ता विसहि भागोरा सू५६ पर्वकरणानि य दो मुहुत्तस्स / चुत्ती चुण्णियभागा पवीकया रिक्खधुवरासी // 1 // इच्छापत्रगुणाओ धुवरासीओ य सोहणं कुणसु / पूसाईणं कमसो जह दिहमणतनाणीहिं // 2 // उगवीसं च मुहुत्ता तेयालीसं बिसहिभागा य / तेचीस चुण्णियाओ पूसस्स य सोहणं एवं // 3 // उगुयालसयं उत्तरफग्गु उगुणह दो विसाहासु / चत्तारि नवोत्तर उत्तराण साढाण सोझाणि / (05000) // 4 // सबस्थ पुस्ससेसं सोझं अभिइस्स चउरखगवीसा / बावट्ठी सम्भागा बत्तीस चुणिया भागा॥ 5 // उगुणत्तरपंचसया उत्तरभद्दवय सत्त उगुवीसा। रोहिणि अहनवोत्तर पुणबसंतम्मि सोझाणि // 6 // अट्ठसया उगुवीसा बिसविभागा य होति चवीसं / छावही सत्तद्विभागा पुसस्स सोहणगं // 7 // एतासां क्रमेण व्याख्यात्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वौ द्वाषष्टिभागावेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशर्णिकाभागाः 33 / 2 / 34, एष सर्वेष्वपि पर्वसु पर्वीकृत-एकेन पर्वणा निष्पादित ऋक्षध्रुवराशि:-सूर्यनक्षत्रविषयो ध्रुवराशिः, कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेत् // 14 // उच्यते, बैराशिकात्, तबेदं त्रैराशिक-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पश्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, तत एकेन। दीप BREASEXX अनुक्रम [81] SXS ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रशप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्राप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत सूत्रांक SBIHAR [16] दीप पर्वणा किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-१२४ / 5 / 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, जातः स तावानेव. एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , ततः चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन भागो हियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद् |भागो न लभ्यते, लब्धा एकस्य सूर्यनक्षत्रपर्यायस्य पञ्च चतुर्विशत्यधिकशतभागाः, तत्र नक्षत्राणि कुर्म इत्यष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागैः पञ्च गुणयिध्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरनापवर्तना, जातो गुणकारराशिर्नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 915, छेदराशिौषष्टिः 62, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः पश्च गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 4575, एतानि मुहानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं लक्ष सप्तत्रिंशत्सहस्राणि द्वे शते पञ्चाशदधिके 137250, छेदराशिश्च द्वापष्टिरूपः सप्तपट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशद-4 धिकानि 4154, तैर्भागो हियते लब्धास्त्रयखिंशन्मुहूर्ताः 33, शेष तिष्ठत्यष्टषष्ट्याधिकं शतं 168, एतद् द्वापष्टिभागानयनार्थं द्वाषष्ट्या गुणयितव्यमिति गुणकारच्छेदराश्योषध्याऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपश्छेदराशिः सप्तपष्टिरूपः, एकेन च गुणितं तदेव भवति, ततोऽष्टषष्ट्यधिकमेव शतं जातं, तस्य सप्तपट्या भागो हियते, लब्धौ द्वौ द्वापष्टिभागौ, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागा इति / 'इच्छापो'त्यादि, इच्छाविषयं यत्पर्व-पर्वसङ्ख्यानं तदिच्छापर्व तद्गुणो-गुणकारो यस्य ध्रुवराशेस्तस्मात्, किमुक्तं भवति-ईप्सितं यत्पर्व तत्सलाया गुणितात् ध्रुवराशेः पुष्यादीनां नक्षत्राणां क्रमशः-क्रमेण शोधनं कुर्याद्यथा दिष्ट-यथा कथितमनन्त ज्ञानिभिः, कथं कथितमित्याह-'उगवीसं चेत्यादि गाथा, एकोनविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशर्णिका अनुक्रम [81] JABERatinintamational wwjanatarary.om ~342~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], -------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल.) SAS प्रत सुत्राक [16] टीप माभागाः 19 // 43 / 33 / एतद्-एतावत्प्रमाणं पुष्यशोधनक, कथमेतावतः पुष्यशोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत्, उच्यते, इह 10 प्राभृते पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तौ पुष्यस्य त्रयोविंशतिः सतषष्टिभागा गताश्चतुश्चत्वारिंशदवतिष्ठन्ते, ततस्ते मुहू नयनार्थे त्रिंशता 20 प्राभूत प्राभूते गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि 1320, तेषां सप्तपट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहाः। युगसंवत्स(१९, शेषास्तिष्ठति सप्तचत्वारिंशत् 47, सा द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वापश्या गुण्यते, जातान्येकोनत्रिंशत् शतानि चतुई-12 राः सू 56 शोत्तराणि 2914, तत एतेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धानिचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य उपकरणानि यविंशत् सप्तपष्टिभागा इति / 'उगुयालसय मित्यादि, एकोनचत्वारिंश-एकोनचत्वारिंशदधिक मुहशतमुत्तराफा-13 ल्गुनीनां-उत्तराफाल्गुनीपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यम् 139, द्वे शते एकोनपष्टे-एकोनषष्ट्यधिके विशाखासु-विशाखारापर्यन्तेषु शोध्ये 259, चत्वारि मुहर्त्तशतानि नबोत्तराणि उत्तराषाढाना-उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि 409, 'सबत्थे'त्यादि, एतेषु सर्वेष्वपि शोधनेषु यत्पुष्यस्य मुहूर्तेभ्यः शेष-त्रिचत्वारिंशन्मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाप-10 प्राष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागा इति तत्प्रत्येक शोधनीयं, तथा अभिजितश्चत्वारि मुहर्तशतानि एकोनविंशानि-एको-12 नविंशत्यधिकानि षटू द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्यैकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशचूर्णिकाभागा-सप्तपष्टिभागा इति शोध्यम् , एतावता पुष्यादीन्यभिजिदन्तानि नक्षत्राणि शुभयन्तीतिभावार्थः / तथा 'उगुणत्तरे'त्यादि, एकोनसप्ततानि-एकोनसप्त-M॥१५॥ | त्यधिकानि पश्च मुहूत्तशतानि उत्तरभाद्रपदानां-उत्तरभाद्रपदान्तानां शोध्यानि 569, तथा सप्तशतान्येकोनविंशानि-| एकोनविंशत्यधिकानि 719 रोहिणीपर्यन्तानां शोध्यानि, पुनर्वस्वन्ते-पुनर्वसुपर्यन्ते अष्टी शतानि नवोत्तराणि 809 अनुक्रम [81] अवललक ~343~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (17) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [10], -------------------- प्राभृतप्राभृत [20], ------------------- मूलं [16] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत CASEASE+ सूत्रांक [16] शोध्यानि / 'अट्ठसए'त्यादि, अष्टौ शतान्येकोनविंशानि-एकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति - पष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागा इति पुष्यस्य शोधनकं, एतावता परिपूर्ण एको नक्षत्रपर्यायः शुक्ष्यतीति तात्पर्यार्थः, एष करणगाथाक्षरार्थः / सम्प्रतिकरणभावना क्रियते-तत्र कोऽपि पृच्छति प्रथम पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति !, तत्र ध्रुवराशिस्त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वौ द्विषष्टिभागावेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागा इत्येवंरूपो ध्रियते 33 // 2 ॥३४॥धृत्वा चैकेन गुण्यते, एकेन गुणितं तदेव भवति, ततः पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिर्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयविंशसप्तपष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, तत स्थितास्त्रयोदश मुहूर्ता एकस्य च मुहर्तस्य एकविंशति-पष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एका सप्तषष्टिभागः / 13 / 21 / 1, तत आगतमेतावदश्लेपानक्षत्रस्य सूर्यों भुक्त्वा प्रथमं पवें श्रावणमासभाव्यमावास्यालक्षणं परिसमापयतीति / द्वितीयपर्वचिन्तायां स एव ध्रुवराशिः 23 / 2 / 34 द्वाभ्यां गुण्यते, जाता षट्पष्टिमुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः। 66 / 5 / 1, एतस्माद् यथोदितप्रमाण 19 / 43 / 33 पुष्यशोधनकं शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् षट्चत्वारिंशन्मुहूर्ताः त्रयोविंशति षष्टिभागाः मुहर्तस्य एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः 46 / 23 / 35 / ततः पञ्चदशभिर्मुहूर्तरश्लेषा | शुद्धा त्रिंशता मघा, स्थितः पश्चादेको मुहर्तः तत आगतं द्वितीय पर्व पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्यैकं मुहूर्तमेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिं द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तषष्टिभागान् भुक्त्या सूर्यः परिसमाप्तिं नयति / तृतीय दीप अनुक्रम [81] FitneralMAPINANORN ~344~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सिवृत्तिः (मल.) सूत्रांक [१६]] ॥१६६॥ पर्वचिन्तायां स एव ध्रुवराशिः । ३३।२।३४ त्रिभिर्गुण्यते जाता नवनवतिर्मुहतोः एकस्य च मुहूत्र्तस्य सप्त द्वाषष्टि-131.प्राभते भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः ९९ । ७ । ३५, एतस्मात्पुण्यशोधनं १९ । ४३ ॥ ३३॥ शोध्यन्ते, ०प्राभूतस्थिताः पश्चादेकोनसप्ततिर्मुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पड्विंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागी प्राभृते |६९ । २६ । २, ततः पञ्चदंशभिर्मुहरलेषा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी, स्थिताः पश्चात् चत्वारो मुहूर्ताः, आगतंयुगसंवत्सतृतीयं पर्व भाद्रपदामावास्यारूपमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य चतुरो मुहूर्त्तानेकस्य च मुहर्तस्य पनिंशति द्वापष्टिभागान् एकस्यारा सू५५ च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयति, एवं शेषपर्ववपि सूर्यनक्षत्राणि वेदितव्यानि । तत्र पर्वकरणानि युगपूर्वार्द्धभाविद्वापष्टिपर्वगतसूर्यनक्षत्रसूचिका इमाः पूर्वाचार्योपदर्शिता गाथा:-"सप्पभग अजमदुर्ग हत्थो चित्ता विसाह मित्तो य । जेट्टाइगं च छकं अजाभिवुढीदु पूसासा ॥१॥ छकं च कत्तियाई पिइभग अज्जमदुर्ग च चित्ता य। वाउ विसाहा अणुराह जे आउं च वीसुदुर्ग ॥ २॥ सवण धनिहा अजदेव अभिही दु अस्स जमबहुला । रोहिणि | सोमदिइदुगं पुरसो पिइ भगज्जमा हत्थो ॥ ३॥ चित्ता य जिवज्जा अभिईअंताणि अह रिक्साणि । एए जुगपुवढे । |बिसहिपधेसु रिक्खाणि ॥४॥" एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सूर्यनक्षत्रं सर्प-सप्पदेवतोपलक्षिता | अश्लेषा १, द्वितीयस्य भगो-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २ ततोऽयमद्विकमिति तृतीयस्य पर्वणोऽर्थेमदेवतोपखक्षिता | ॥१६॥ उत्तरफाल्गुन्यः ३ चतुर्थस्याप्युत्तरफाल्गुन्यः ४ पश्चमस्य हस्तः ५ षष्ठस्य चित्रा ६ सप्तमस्य विशाखा ७ अष्टमस्य मित्रो|मित्रदेवतोपलक्षिता अनुराधा ८ ततो ज्येष्ठादिक षटू क्रमेण वक्तव्यम् , तद्यथा-वमस्य ज्येष्ठा ९ दशमस्य मूलं १० अनुक्रम [८१] ~345~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: + प्रत सूत्रांक [१६] एकादशस्य पूर्वापाढा ११ द्वादशस्योत्तराषाढा १२ त्रयोदशस्य श्रवणः १३ चतुर्दशस्य धनिष्ठा १४ पञ्चदशस्य अजा-3 अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभाद्रपदाः १५ पोडशस्याभिवृद्धि:-अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा १६ सप्तदशस्योत्तरभद्रपदा १७ अष्टादशस्य पुष्यः-पुष्यदेवतोपलक्षिता रेवती १८ एकोनविंशतितमस्याश्वा-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी १९० पर्दू च कृत्तिकादिकमिति, विंशतितमस्य कृत्तिकाः २० एकविंशतितमस्य रोहिणी २१ द्वाविंशतितमस्य मृगशिरः २२ त्रयोविंशतितमस्या २३ चतुर्विंशतितमस्य पुनर्वसुः २४ पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः २५ षडूविंशतितमस्य पितरः-पितृदेबतोपलक्षिता मघाः २६ सप्तविंशतितमस्य भगो-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २७ अष्टाविंशतितमस्यार्यमा-अर्यमदेवा उत्तरफाल्गुन्यः २८ एकोनत्रिंशत्तमस्याप्युत्तरफाल्गुन्यः २९ त्रिंशत्तमस्य चित्रा ३० एकत्रिंशत्तमस्य वायु:-वायुदेवतोपलक्षिता स्वातिः ३१ द्वात्रिंशत्तमस्य विशाखा ३२ त्रयस्त्रिंशत्तमस्यानुराधा ३३ चतुर्विंशत्तमस्य ज्येष्ठा ३४ पश्चत्रिंशत्तमस्य पुनरायु:-आयुर्देवतोपलक्षिताः पूर्वाषाढाः ३५ पत्रिंशत्तमस्य विष्वग्देवा उत्तराषाढा ३६ सप्तत्रिंशत्तमस्थाप्युत्तराषाढा ३७ अष्टात्रिंशत्तमस्य श्रवणः ३८ एकोनचत्वारिंशत्तमस्य धनिष्ठा ३९ चत्वारिंशत्तमस्याज:-अजदेवतोपलक्षिता पूर्वभद्रपदा ४० एकचत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवा उत्तरभद्रपदा: ४१ द्वाचत्वारिंशत्तमस्याप्युत्तरभद्रपदा ४२ चत्वारिंशत्तमस्याश्या-अश्वदेवा अश्विनी ४३ चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य यमो यमदेवा भरणी ४४ पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य बहुला:-कृत्तिकाः ४५ षट्चत्वारिंशत्तमस्य रोहिणी ४६ सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः-सोमदेवोपलक्षितं मृगशिरः ४७ अदितिद्धिकमिति अष्टचत्वारिंशत्तमस्यादितिः-अदितिदेवोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्रं ४८ एकोनपञ्चाशत्तमस्यापि दीप अनुक्रम [८१] ~346~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] रासू ५६ पीप सूर्यप्रज्ञ- पुनर्वसुनक्षत्र ४९ पञ्चाशत्तमस्य पुष्यः ५० एकपञ्चाशत्तमस्य पिता-पितृदेवा मघाः ५१ द्वापञ्चाशत्तमस्य मनो-भगदे- १. प्राभृते प्तिवृत्तिः वतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः ५२ त्रिपश्चाशत्तमस्यार्यमा अर्थमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः ५३ चतुःपञ्चाशत्तमस्य ४२० प्राभूत (मल०) हस्तः ५४ अत अझै चित्रादीनि अभिजित्पर्यन्तानि ज्येष्ठावर्जान्यष्टौ नक्षत्राणि क्रमेण वक्तव्यानि, तद्यथा-पचपश्चाशत्त- प्राभृते ॥१६७॥ मस्य चित्रा ५५ षट्पश्चाशत्तमस्य स्वात्तिः ५६ सप्तपश्चात्तमस्य विशाखा ५७ अष्टपशाशत्तमस्य अनुराधा ५८ एकॉनष- युगसंवत्सष्टितमस्य मूलः ५९ षष्टितमस्य पूर्वाषाढाः ६० एकषष्टितमस्योत्तराषाढाः ६१ द्वापष्टितमस्याभिजिदिति ६२, एतानि पर्वकरणानि नक्षत्रांणि युगस्य पूवार्दो द्वापष्टिसोयु पर्वसु यथाक्रम युक्तानि । एवं करणवशेन युगस्योत्तराद्धेऽपि द्वापष्टिसोयु पर्वसु ज्ञातव्यानि । किं पर्व चरमदिवसे कियत्सु मुहूर्तेषु गतेषु समाप्तिमियत्तीत्येतद्विषयं यत्करणमभिहितं पूर्वाचार्येस्तदभिधीयते-चसहिं हियम्मि पणे एके सेसंमि होइ कलिओगो । बेसु य दावर जुम्मो तिसु तेया चउसु कडजुम्मो ॥१॥कलि-13 ओगे तेणाई पक्सेवो दावरम्मि बावही । तेऊए एकतीसा कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो ॥२॥ सेसद्धे तीसगुणे बावहीं माइ-ट्रा यमि जं ली । जाणे तइसु मुहुत्तेसु अहोरत्तरस तं पर्व ॥३॥" एतासां क्रमेण व्याख्या-पर्वणि-पर्वराशी चतुभिभा सति योका शेषो भवति तदा स राशिः कल्योजो भण्यते द्वयोः शेषयोर्वापरयुग्म खिषु शेषेषु वेतीजक्षतुएं शेपेषु कृत-15 युग्मः, 'कलिओये'त्यादि, तब कल्योजोरूपराशी बिनवतिः प्रक्षेप:-प्रक्षेपणीयो राशिः, द्वापरयुग्मे द्वाषष्टिः तीजसि | एकत्रिंशत् कृतयुग्मे नास्ति प्रक्षेपः, एवं प्रक्षिप्तप्रक्षेपाणां पर्वराशीनां सतां चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन भागो हियते। बाहते च भागे यच्छेपमवतिष्ठते तस्यायं विधिः-'सेसद्धे'इत्यादि, शेषश्चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागे हते अवशिष्ट-18 5-45% अनुक्रम [८१] 8 ॥१६७ FitraalMAPINAMORE ~347~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] 45555555* स्थाई क्रियते, कृत्वा च त्रिंशता गुण्यते, गुणयित्वा च द्वापया भव्यते, भक्ते सति थलब्धं तान् मुहूर्तान जानीहि, लब्धशेष मुहर्तभागान् , तत एवं स्वशिष्येभ्यः प्ररूपय, तद्विवक्षित पर्व चरमे अहोरात्रे सूर्योदयात्तावत्सु मुहूर्येषु तावत्सु च मुहर्तभागेषु अतिक्रान्तेषु परिसमाप्तमिति, एष करणगाथाक्षरार्थः। भावना त्वियम्-प्रथमं पर्व परमेऽहोरात्रे कति | मुहानतिक्रम्य समाप्तमिति जिज्ञासायामेको ध्रियते, अयं किल कल्योजो राशिरित्यत्र त्रिनवतिः प्रक्षिप्यते, जाता चतुनवतिः, अस्य चतुर्विशत्यधिकेन तेन भागो हर्त्तव्यः, स च भागो न लभ्यते राशेः स्तोकत्वात् , ततो यथासम्भवं कर-13 णलक्षणं कर्त्तव्यं, तत्र चतुर्नवतेरई क्रियते, जाता सप्तचत्वारिंशत् ४७, सा त्रिंशता गुण्यते, जातानि चतुर्दश शतानि दशोत्तराणि १४१०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहर्ता २२, शेषा तिष्ठति षट्चत्वारिंशत् ४६, ततश्छेद्यच्छेदकराश्योरर्द्धनापवर्तना, लब्धाखयोविंशतिरेकत्रिंशदागाः आगतं प्रथमं पर्व चरमे अहोरात्रे द्वाविंशति मुहर्त्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं गतमिति । द्वितीयपर्वजिज्ञासायां द्विको |प्रियते, स किल द्वापरयुग्मराशिरिति द्वापष्टिः प्रक्षिप्यते, जाता चतुःषष्टिः, सा च चतुर्विशत्यधिकस्य शतस्य भार्ग न प्रयच्छति ततस्तस्याई क्रियते, जासा द्वात्रिंशत् , सा त्रिंशता गुण्यते, जातानि नष शतानि पश्यधिकानि ९६०, तेषां द्वाषया भागो हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः १५, पश्चादवतिष्ठते त्रिंशत्, ततश्छेद्यच्छेदकराश्योरङेनापवर्तना, लब्धाः पञ्चदश एकत्रिंशदागाः आगतं द्वितीय पर्व चरमेऽहोरात्रे पञ्चदश मुहूर्त्तानेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चदश एकत्रिंशदा-19 गानतिक्रम्य [द्वितीय पर्व ] समाप्तमिति । तृतीयपर्वजिज्ञासायां त्रिको प्रियते, स किल त्रेतोजोराशिरिति तत्रैकत्रिंशत् दीप अनुक्रम [८१] - ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [4] दीप अनुक्रम [८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [२०], मूलं [ ५६ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥१६८॥ Eatont प्रक्षिप्यते, जाता चतुस्त्रिंशत् २४, सा चतुर्विंशत्यधिकस्य शतस्य भागं न प्रयच्छति ततस्तस्यार्द्धं क्रियते, जाताः सप्तदश, ते त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतानि दशोत्तराणि ५१०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा अष्टौ ८, शेषास्तिष्ठन्ति चतुर्दश १४, ततच्छेद्यच्छेदकरा श्योर नापवर्त्तना, लब्धाः सप्त एकत्रिंशद्भागाः ॐ आगतं तृतीयं पर्व चरमे|ऽहोरात्रे अष्टौ मुहर्त्तानेकस्य सप्त एकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं गतमिति । चतुर्थपर्वजिज्ञासायां चतुष्को प्रियते, स किल कृतयुग्मराशिरिति न किमपि तत्र प्रक्षिप्यते, चत्वारश्चतुर्विंशत्यधिकस्य शतस्य भागं न प्रयच्छति, ततस्तेऽर्द्ध क्रियन्ते, जातौ द्वौ तौ त्रिंशता गुण्येते, जाता पष्टिः ६०, तस्या द्वापष्ट्या भागो हियते, भागश्च न लभ्यते इति छेद्यच्छेदक राज्योरर्द्धनापवर्त्तना, जातास्त्रिंशदेक त्रिंशद्भागाः आगतं चतुर्थ पर्व चरमेऽहोरात्रे मुहर्त्तस्य त्रिंशतमेकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्ति गच्छतीत्येवं शेषेष्वपि पर्वसु भावनीयं । चतुर्विंशत्यधिकशततमपर्वजिज्ञासायां चतुर्विंशत्यधिकं शतं प्रियते, तस्य किल चतु |र्भिर्भागे हृते न किमपि शेषमवतिष्ठते इति कृतयुग्मोऽयं राशिः, ततोऽत्र न किमपि प्रक्षिप्यते, ततश्चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, जातो राशिर्निर्लेपः आगतं परिपूर्ण चरममहोरात्रं भुक्त्वा चतुर्विंशतितमं पर्व समाप्तिं गतमिति । तदेवं यथा पूर्वाचार्यैरिदमेव पर्वसूत्रमवलम्ब्य पर्वविषयं व्याख्यानं कृतं तथा मया विनेयजनानुग्रहाय स्वमत्यनुसारेणोपदर्शितं, सम्मति प्रस्तुतमनुश्रियते तत्र युगसंवत्सरोऽभिहितः, साम्प्रतं प्रमाणसंवत्सरमाह तापमाणसंवच्छ पंचविहे पं० तं०-नक्खते चंदे उडू आइचे अभिवद्दिए (सूत्रं ५७ ) ॥ -- 'पमाणे 'त्यादि, प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नक्षत्र संवत्सर ऋतुसंवत्सरश्चन्द्रसंवत्सरः आदित्य संव F ~349~ १० प्राभृते २० प्राभृतप्राभृते युगसंवत्स राः सू ५६ पर्वकरणाि ॥१६८॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] सरोऽभिवतिसंवत्सरश्च, तत्र नक्षत्रचन्द्राभिवतिसंवत्सराणां स्वरूपं प्रागेवोक्तमिदानी ऋतुसंवत्सरादित्यसंवत्सरयो स्वरूपमुच्यते-तत्र द्वे घटिके एको मुहूर्त्तत्रिंशन्मुहूर्ता अहोरात्रः पञ्चदश परिपूर्णा अहोरात्राः पक्षः द्वौ पक्षी मासो द्वादश मासाः संवत्सरो, यस्मिंश्च संवत्सरे त्रीणि शतानि पठाधिकानि परिपूर्णान्यहोरात्राणां भवति एष ऋतुसंवत्सर, ऋतवो लोकप्रसिद्धाः वसन्तादयः तत्प्रधानः संवत्सर ऋतुसंवत्सरः, अस्य चापरमपि नामदयमस्ति, तद्यथा-कर्मसंव-14 त्सरः सवनसंवत्सरः, तत्र कर्म-लौकिको व्यवहारस्तत्प्रधानः संवत्सरः कर्मसंवत्सरः, लोको हि प्रायः सर्वोऽप्यनेनैवल संवत्सरेण व्यवहरति, तथा चैतद्गतं मासमधिकृत्यान्यत्रोकमू-"कम्मो निरंसयाए मासो वषहारकारगी लोए । सेसाओ संसयाए ववहारे दुक्करो पितुं ॥१॥" तथा सवनं-कर्मसु प्रेरणं 'घू प्रेरणे' इति वचनात् तत्प्रधानः संवत्सरा सबनसंवत्सर इत्यप्यस्य नाम, तथा चोक-“बे नालिया मुहत्तो सही उण नालिया अहोरत्तो । पारस अहोरता पक्लो तीसं दिणा मासो ॥१॥ संवच्छरो उ बारस मासा पक्खा य ते चवीस । तिनेच सया सट्ठा हवंति राइंदियाणं तु ॥२॥ एसो उ कमो भणिओ निअमा संवच्छरस्स कम्मरस । कम्मोसि सावणोत्ति य उउइत्तिय तस्स नामाणि ॥३॥" तथा यावता कालेन पडपि माडादयः ऋतवः परिपूर्णाःमावृत्ता भवन्ति तावान् कालविशेष आदित्यसंवत्सर। उकं च"छप्पि उकपरियहा एसो संवच्छरो उ आइयो" सत्र यद्यपि लोके पयहोरात्रप्रमाणः प्राकृडादिक मतुः मसिद्धः तथापित | परमार्थतः स एकषष्यहोरात्रप्रमाणो वेदितव्यः, तथैवोत्तरकालमव्यभिचारदर्शनात् , मस एव चास्मिन् संवत्सरे श्रीगिक शतामि पट्पट्याधिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरं भवति, तथा चान्यत्रापि पश्चस्वपि संवत्सरेणु यथोक अनुक्रम [८२] ~350 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ-8 मेव रानिन्दिवानां परिमाणमुकं, "तिन्नि अहोरत्तसया छावहा भक्खरो हवइ वासो । तिन्नि सया पुण सहा कम्मो संव-४१. प्राभृते तिवृत्तिः च्छरो होइ ॥१॥ तिन्नि अहोरत्तसया चउपन्ना नियमसो हवइ चंदो । भागो य बारसेव य बावडिकएण छेएण ॥२॥ २० प्राभृत(मल.) तिन्नि अहोरत्तसया सत्तावीसा य होंति नक्खत्ता । एक्कावन्नं भागा सत्तविकएण छेएण॥३॥ तिन्नि अहोरत्तसया तेसी- प्राभृते ई चेव होइ अभिवडी । चोयालीसं भागा बावद्विकएण छेएण ॥४॥ एताश्चतस्रोऽपि गाथाः सुगमाः, इदं च प्रतिस- युगसंवत्स ॥१६९॥ है वत्सरं रात्रिन्दिवपरिमाणमग्रेऽपि वक्ष्यति परमिह प्रस्तावादुक्तं । सम्पति विनेयजनानुग्रहाय संवत्सरसङ्ख्यातो माससङ्गया पर्वकरणानि प्रदश्यते-तत्र सूर्यसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि षटूषयधिकानि रानिन्दिवानां द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरस्तत्र त्रयाणां शतानां षट्पट्याधिकानां द्वादशभिर्भागो हियते, लन्धाः त्रिंशत् ३०, शेषाणि तिष्ठन्ति षट्, ते अर्द्ध क्रियते, जाता द्वादश, ततो लब्धमेकं दिवसस्या मेतावत्परिमाणः सूर्यमासः, तथा कर्मसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि षष्ठ्यधिकानि रात्रिन्दिवानां तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धात्रिंशदहोरात्रा एतावत्कर्ममासपरिमाणं, तथा चन्द्रसंवत्स-| रस्य परिमाणं श्रीण्यहोरात्रशतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि द्वादश च द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य, तत्र त्रयाणां शतानां चतुष्पश्चाशदधिकानां द्वादशभिर्भागे हते लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्रा, शेषाः तिष्ठन्ति षट् अहोरात्राः, ते द्वाषष्टिभा- गकरणार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ३७२, येऽपि द्वादश द्वापष्टिभागा उपरितना-IP॥१६९।। |स्तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि चतुरशीत्यधिकानि, तेषां द्वादशभिर्भागे हते लब्धा द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः, |एतावञ्चन्द्रमासपरिमाणं । तथा नक्षत्रसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि सप्तविंशत्यधिकानि रात्रिन्दिवानामेकस्य च रात्रि [८२] FridaIMAPIVAHauWORK ~351~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - मूल रि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [१७] &ान्दिवस्य एकपञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः, तत्र त्रयाणां शतानां सप्तविंशत्यधिकानां द्वादशभिभागो हियते, लब्धाः सप्तविंशति-12 रहोरात्राः, शेपास्त्रयस्तिष्ठन्ति, ततस्तेऽपि सप्तषष्टिभागकरणार्थ सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, येऽपि च उपरितना एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागास्तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते द्विपश्चाशदधि २५२, तेषां द्वादशभिर्भागे हते लब्धा एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, एतावन्नक्षत्रमासपरिमाणं, तथा अभिवतिसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि व्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य, तत्र त्रयाणां शतानां ध्यशीत्यधिकानां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्त्यहोरात्रा एकादश, ते च चतुर्विशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुविशत्युत्तरशतेन १२४ गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि चतुःषष्ट्यधिकानि १३६४, येऽपि चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागास्तेऽपि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थ द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जाताऽष्टाशीतिः, साऽनन्तरराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि चतुर्दश शतानि द्विपश्चाशदधिकानि १४५२, तेषां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धमेकविंशत्युत्तर शतं चतुर्विंश-12 प्रत्युत्तरशतभागानां, एतावदभिवद्धितमासपरिमाणं, तथा चोक्तम्-"आइचो खलु मासो तीस अद्धं च सावणो तीसं । चंदो एगुणतीसं बिसहिभागा य बत्तीस ॥१॥ नक्खत्तो खलु मासो सत्तावीसं भवे अहोरत्ता । अंसा य एकवीसा सत्तविकएण छेएण ॥२॥ अभिवहिओ य मासो एकतीसं भवे अहोरता। भागसयमेगवीस चवीससएण छेएणं ॥शा" सम्प्रति एतैरेव पञ्चभिः संवत्सरैः प्रागुक्तस्वरूपं युग-पञ्चसंवत्सरात्मक मासानधिकृत्य प्रमीयते, तत्र युग-प्रागुदितस्वरूपं यदि सूर्यमासर्विभज्यते ततः षष्टिः सूर्यमासा युगं भवन्ति, तथाहि-सूर्यमासे सा खिंशदहोरात्रा युगे चाहोरात्रा अनुक्रम +354 [८२ Fhi ~352~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: यमज प्रत तिवृत्तिः (मल.) ॥१७॥ सुत्रांक [५७] राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि भवन्ति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह युगे अयश्चन्द्रसंवत्सरा द्वी चाभि-18 १० प्राभूते पावतिसंवत्सरी, एककस्मिंश चन्द्रसंवत्सरेऽहोरात्राणां वीणि शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि भवन्ति, द्वादश च द्वापष्टि- २० प्राभृत भागा अहोरात्रस्य ३५४ १३. तत एतत् त्रिभिर्गुण्यते, जातान्यहोरात्राणां दश शतानि द्वाषष्ट्यधिकानि १०६२ षट्त्रिंशच्च प्राभूते द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य अभिवतिसंवत्सरे च एकैकस्मिन् अहोरात्राणां त्रीणि शतानि व्यशीत्यधिकानि चतुश्च- युगसंवत्सBात्वारिंशच द्वापष्टिभागा आहोरात्रस्य, (तत एतए द्वाभ्यां गुण्यते जातानि सप्तपश्यधिकानि सप्त शतान्यहोरात्राणां सारा सू५६ पविंशतिच द्विषष्टिभागा अहोरानस्य, तदेवं चन्द्रसंवत्सरत्रयाभिवतिसंवत्सरदयाहोरात्रमीलने प्रिंशदधिकान्य-II पर्वकरणानि होरात्राणामष्टादश शतानि, सूर्यमासस्य च पूर्वोकरीच्या सात्रिंशदहोरात्रमानतेति तेन भागे कृते स्पष्टमेव पटेर्खाभा,, तथाहि-अष्टादशशत्याविंशदधिकाया अर्धीकरणाय द्वाभ्यां गुणने पट्यधिका पद्मिशच्छती त्रिंशतवाधीकरणाय द्वाभ्यां गुणने षष्टिः एकप्रक्षेपे एकषष्टिस्तेन पूर्वोत्तराशेः भागे कृते लभ्यते षष्टिः, तथा च युगमध्ये सूर्यमासाः षष्टिरिति स्थित सावनस्य तु मासा एकषष्टिः, त्रिंशदिनमानत्वा तस्य त्रिंशदधिकाया अष्टादशशत्याविंशता भागे एकपटेलोंभात् । चन्द्र-IH मासा द्विषष्टिर्यत एकोनविंशत्या अहोरात्रैरेकोनत्रिंशता द्विषष्टिभागैरधिकर्मासः, युगदिनानां तैर्भागे च द्वाषष्टेलाभात् , क शा लात्रिंशदधिकाया अष्टादशशल्या द्विषष्टिभागकरणार्थं गुणकारे एक लक्ष त्रयोदशा सहमाणि पश्यधिकमेकं शतं १९२१६९ चन्द्रमासस्यापि भागकरणाय द्विषघ्या एकोनविंशत्ति गुणिते प्रक्षिप्ते च द्वात्रिंशति त्रिंशदधिकाया अष्टादशशत्या भाषः तया भक्के पूर्वोत्कराशी द्वाषष्टे वात् चन्द्रमासा द्वापष्टिरिति । नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिः, कथमिति चेत्, मक्षत्रमासस्ताव अनुक्रम [८२ SSC ~353~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ॐ% सूत्रांक [१७] 55 सप्तविंशत्या अहोरात्रैरेकविंशत्या च सप्तपष्टिभागः,) तत्र सप्तविंशतिरहोरात्राः सप्तषष्टिभागकरणार्थ सप्तपट्या गुण्यन्त जातान्यष्टादश शतानि नवोत्तराणि १८०९, तत उपरितना एकविंशतिः सप्तपष्टिभागास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, आतान्यष्टादश न शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, युगस्यापि सम्बन्धिनस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणा अहोरात्राःसप्तषट्या गुण्यन्ते, जात एको लक्ष द्वाविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि दशोत्तराणि १२२६१०, एतेषामष्टादशशतैत्रिंशदधिकैर्नक्षत्रमाससस्कसप्तपष्टिभागरूपैर्भागो हियते, लब्धाः सप्तपष्टिर्भागाः ६७ । तथा यदि युगमभिवद्धितमासैः परिभग्यते तदा अभिवर्द्धितमासा युगे भवन्ति सप्तपञ्चाशत् सप्त रात्रिन्दिवानि एकादश मुहतो एकस्य च मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागाखयोविंशतिः, तथाहि-अभिवर्द्धितमासपरिमाणमेकत्रिंशदहोराना एकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विशत्यधिकशतभागानामहोरात्रस्य, तत एकत्रिंशदहोरात्राचतुर्विशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुर्विंशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते, जातान्यष्टात्रिंशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ३८४४, तत उपरितनमेकविंशत्युत्तरं शतं भागानां तत्र प्रक्षिप्यते, जातान्येकोनचत्वारिंशच्छतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि ३९६५, यानि ठाच युगे अहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० तानि चतुर्विंशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते, जाते द्वेलने पडबि शतिः सहस्राणि नव शतानि विंशत्यधिकानि २२६९२०, तत एतेषामेकोनचत्वारिंशच्छतैः पञ्चषष्ट्यधिकैरभिवद्धितमाससत्कचतुर्विशत्युत्तरशतभागरूपैर्भागो हियते, लब्धाः सप्तपञ्चाशन्मासाः, शेषाणि तिष्ठन्ति नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, तेषामहोरात्रानयनाय चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त रात्रिन्दिवानि, शेषास्तिष्ठन्तिः चतुर्विंशत्युत्तरशतभागाः सप्तचत्वारिंशत्, तत्र चतुर्भािगैरेकस्य च भागस्य चतुर्भिस्त्रिंशद्भागैर्मुहूर्तो भवति, स्थाहि अनुक्रम [८२] BBS ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक युगसंवत्स ल महत्तस्य चतुर्विंश- [१७] सूर्यप्रज्ञ-Bएकस्मिन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता अहोराने च चतुर्विशत्युत्तरं शतं भागानां कल्पितमास्ते, ततस्तस्य चतुर्विंशत्युत्तरशतस्य १० प्राभृते प्तिवृत्तिः त्रिंशता भागे हते लब्धाश्चत्वारो भागाः एकस्य च भागस्य सत्काश्चत्वारस्त्रिंशद्भागास्तत्र पञ्चचत्वारिंशद्भागैरेकस्य च २० प्राभृत(मल०) |भागस्य सस्कैश्चतुर्दशभिखिंशदूभागैरेकादश मुहूर्त्ता लब्धाः, शेषस्तिष्ठत्येको भाग एकस्य च भागस्य सत्काः षोडश विंश- II पाभूते ॥१७॥ भागाः, किमुक्तं भवति ?-षट्चत्वारिंशत्रिंशद्भागा एकस्य भागस्य सत्काः शेषास्तिष्ठन्ति, ते च किल मुहर्तस्य चतुर्विश|त्युत्तर शतभागरूपास्ततः षट्चत्वारिंशतश्चतुर्विंशत्युत्तरशतस्य च द्विकेनापवर्तना क्रियते, लब्धा मुहुर्तस्य द्वापष्टिभागाखयोविंशतिः, उक्तं चैतदन्यत्रापि-"तत्थ पडिमिजमाणे पंचहि माणेहिं सबगणिएहिं । मासेहि विभजता जइ मासा पर्वकरणानि होति ते वोच्छं ॥१॥" अत्र 'तत्थेति तत्र, 'पंचहि माणेहिति पंचभिर्मान:-मानसंवत्सरैः-प्रमाणसंवत्सरैरादित्यचन्द्रादिभिरित्यर्थः, पूर्वगणितैः-माप्रतिसङ्ख्यातस्वरूपैः प्रतिमीयमाने-प्रतिगण्यमाने मासै:-सूर्यादिमासैः, शेष सुगमम्। "आइञ्चेण उ सट्ठी मासा उउणो उ होंति एगही। चंदेण उ बाबही सत्तट्ठी होति नक्षत्ते॥१॥ सत्तावपणं मासा सत्त य राईदियाई अभिवढे । इकारस य मुहुत्ता बिसद्विभागा य तेवीसं ॥२॥" सम्प्रति लक्षणसंवत्सरमाह ता लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पं०-नक्खत्ति चंदे उडु, आइचे अभिवुहिए। ता णक्खत्ते णं संवच्छरेणं पंचविहे पं०-समग णक्खता जोयं जोएंति, समगं उदू परिणमंति । नचुण्हं नाइसीए बहुउदए होड नक्खत्ते ॥१॥ ससि समग पुनिमासिं जोईता विसमचारिनक्खत्ता । कडुओ बहुउदओ य तमाहु संवच्छर चंदं ॥१७॥ ॥२॥ विसमं पचालिणो परिणमंति अणुऊसु दिति पुप्फफलं । वासं न सम्म वासइ तमाहु संवच्छर कम्म अनुक्रम [८२ ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [५८] + गाथा(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राजक (मन पनि ०१ • गाण्या(.) प्रत सूत्रांक [५८] X॥३॥ पुढविदगाणं च रसं पुप्फफलाणं च देइ आइथे । अप्पेणवि वासेणं समं निष्फजए सस्सं ॥४॥ आइ-17 चतेयतविया खणलवदिवसा उऊ परिणमन्ति । पूरेति निणय (पण) थलये तमाहु अभिवहितं जाण ॥५॥ ता सणिकछरसंवच्छरे णं अट्ठावीसतिविहे पं०, तं०-अभियी सबणे जाव उत्तरासादा, जं वा सणिच्छरे महग्गहे तीसाए संवकछरेहिं सवं गक्खत्तमंडलं समाणेति (सूत्रं ५८) ॥दसमस्स पाहुडस्स वीसतिम पाहुडपाहुर्ड समत्तं ॥ 'लक्खणे संवच्छरेत्यादि, लक्षणसंवत्सरः पञ्चविधः-पश्चप्रकारःप्रज्ञप्तः, तश्च पञ्चविधत्वं प्रागुक्तमेव द्रष्टव्यं, तद्यथानक्षत्रसंवत्सरः चन्द्रसंवत्सरः ऋतुसंवत्सरः आदित्यसंवत्सरोऽभिवर्द्धितश्च, किमुक्तं भवति- केवलमेते नक्षत्रादिसंवत्सरा यथोक्तराबिन्दिवपरिमाणा भवन्ति किन्तु तेभ्यः पृथग्भूता अन्येऽपि वक्ष्यमाणलक्षणोपेताः, ततो लक्षणोपपन्नः संवत्सरः पृथक् पञ्चविधो भवतीति, तत्र प्रथमतो नक्षत्रसंवत्सरलक्षणमाह-'ता नक्खत्ते'त्यादि, 'ता' इति तत्र नक्षत्रसंवत्सरो लक्षणमधिकृत्य पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, किमुक्तं भवति-नक्षत्रसंवत्सरस्य पञ्चविध लक्षणं प्रज्ञप्तमिति,131 है तदेवाह-"समर्ग नक्खत्ता जोगं जोएंति समग उऊ परिणमंति । नचुण्ड नातिसीतो बहुउदओ होइ नक्खत्तो ॥१॥" यस्मिन् संवत्सरे समक-समकमेव एककालमेव ऋतुभिः सहेति गम्यते नक्षत्राणि-उत्तराषाढाप्रभृ४तीनि योग युञ्जन्ति-चन्द्रेण सह योग युञ्जन्ति सन्ति तां पौर्णमासी परिसमापयन्ति, तथा समकमेव-एकका लमेव तया तया परिसमाप्यमानया पौर्णमास्या सह ऋतवो निदाघाद्याः परिणमन्ति-परिसमाप्तिमुपयन्ति, इय दीप अनुक्रम [८३-८९] ~356~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [५८] + गाथा(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] सूर्यप्रज्ञ- मत्र भावना-यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्रैर्माससदृशनामकैस्तस्य तस्य ऋतोः पर्यन्तवत्ती मासः परिसमाप्यते, तेषु च तां ।१०। तिवृत्तिःता पौर्णमासी परिसमापयत्सु तया तया पौर्णमास्या सह ऋतवोऽपि निदाघादिकाः परिसमाप्तिमुपयन्ति, यथा २०प्राभूत(मल) उत्तराषाढानक्षत्रं आषाढी पौर्णमासी परिसमापपति, तया आषाढपौर्णमास्या सह निदाघोऽपि ऋतुः परिसमाप्तिमुपैत्ति, माभूते भास नक्षत्रसंवत्सर, नक्षत्रानुरोधेन तस्य तथा तथा परिणममानत्वात् , एतेन च लक्षणद्वयमभिहितं द्रष्टव्यं, तथा न विध-12 लक्षणशन॥१७२॥ हैश्चरसंवत्स| तेऽतिशयेन उष्णं-उष्णरूपः परितापो यस्मिन् स नात्युष्णः तथा न विद्यतेऽतिशयेन शीतं यत्र स नातिशीतो बहु उदक रीसू ५८ यत्र स बहूदकः एवंरूपैः पश्चभिः समप्रैर्लक्षणैरुपेतो भवति नक्षत्रसंवत्सरः। सम्प्रति चन्द्रसंवत्सरलक्षणमाह-"ससिसम-* गपुण्णमासिं जोएंता विसमचारिनक्खत्ता। कडुओ बहुउदओया तमाहु संक्च्छरं चंदं ॥१॥ यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्राणि 18 विषमचारीणि मासविसरशनामानीत्यर्थः, शशिना समकं योगमुपगतानि तां तां पौर्णमासी युधान्ति-परिसमापयन्ति, यश्च कटुका-वीतातपरोगादिदोषबहुलतया परिणामदारुणो बहूदकश्च तमाहुर्महर्षयः संवत्सरं चान्द्र-चन्द्रसम्बन्धिनः । मचन्द्रानुरोधतस्तत्र मासानां परिसमाप्तिभावान माससहशनामनक्षत्रानुरोधतः। सम्पति कर्मसंवत्सरलक्षणमाह--"विसम पवालिणो परिणमंति अणुऊसु दिति पुष्फफलं । चास न सम्म वासह तमाहु संवच्छर कम्मं ॥१॥" यस्मिन् संवत्सरे वनस्पतयो विषम-विषमकालं 'प्रवालिनः परिणमन्ति' प्रवाल:-पहलवाथरस्तद्युततया परिणमन्ति, तथा अनूतुष्वपि-ICI स्वस्वऋत्वभावेऽपि पुष्पं फलं च ददति-प्रयच्छन्ति, तथा वर्ष-पानीयं न सम्यक् यस्मिन् संवत्सरे मेपो वर्षेति तमाहुमें-17 सहर्षयः संवत्सरं कम्म-कर्मसंवत्सरमित्यर्थः । अधुना सूर्यसंवत्सरलक्षणमाइ-"पुढविदगाणं च रसं पुष्फफलाणं च देश दीप अनुक्रम [८३-८९] ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [५८] + गाथा(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] आइयो । अप्पेणवि वासेणं सम्म निष्फजए सस्सं ॥१॥"पृथिव्या उदकस्य तथा पुष्पानां फलानां च रसमादित्यसंवत्सरो ददाति तथा अल्पेनापि-स्तोकेनापि वर्षेण-वृष्ट्या सस्य निष्पद्यते-अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् सस्य निष्पादयति, किमुक्त भवति ?-यस्मिन् संवत्सरे पृथिवी तथाविधोदकसम्पर्कादतीव सरसा भवति उदकमपि परिणामसुन्दररसोपेतं परिणमते पुष्पानां च-मधूकादिसम्बन्धिनां फलानां च-चूतफलादीनां रसः प्रचुर सम्भवति स्तोकेनापि वर्षेषण धान्यं सर्वत्र सम्यक् निष्पद्यते तमादित्यसंवत्सरं पूर्वर्षयः उपदिशन्ति । अभिवतिसंवत्सरलक्षणमाह-"आइयतेयततिया खणलवदिवसा उज परिणमंति । पूरेइ निण्णथलए तमाहु अभिवहियं जाण ॥१॥" यस्मिन् संवत्सरे क्षणलवदिवसा ऋतव आदित्यतेजसा कृत्वा । लाअतीव तप्ताः परिणमन्ते यश्च सर्वाण्यपि निम्नस्थानानि स्थलानि च जलेन पूरयति तं संवत्सरं जानीहि यथा तं संवत्सरमभि वतिमाहुः पूर्वय इति । तदेवं लक्षणसंवत्सर उक्तः, सम्पति शनैश्चरसंवत्सरमाह-'तासणिच्छरे ख्यादि, तन्त्र शनैश्चरसं वत्सरोऽष्टाविंशतिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अभिजित्-अभिजित्शनैश्चरसंवत्सरः अवणः-श्रवणशनैश्वरसंवत्सरः, एवं यावदुहात्तराषाढा-उत्तरापाढाशनैश्चरसंवत्सरः, तन यस्मिन् संवत्सरे अभिजिता नक्षत्रेण सह पानवरो योगमुपादत्ते सोऽभिजित शनैश्चरसंवत्सरः, श्रवणेन सह यस्मिन् संवत्सरे योगमुपादत्ते स श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः, एवं सर्वत्र भावनीयं- वे त्यादि, वाशब्दः प्रकारान्तरताद्योतनाय तत्सर्व-समस्त नक्षत्रमण्डलं शनैश्चरो महाग्रहविंशता संवत्सरेः समानयति एता-1 हैवान कालविशेषत्रिंशद्वर्षप्रमाणः शनैश्चरसंवत्सरः विंशतितम प्राभृतप्राभूतं समाप्तं ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमं-प्राभृतस्य प्राभूतप्राभृतं- २० समाप्त ॐॐॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [८३-८९] Fhi ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२१], -------------------- मूल [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सर्वप्रज्ञतिवृत्तिः प्रत (मल०) सूत्राक ॥१७॥ (५९ तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य विंशतितम प्राभृतप्राभृत, साम्प्रतं एकविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो १० प्राभृते यथा 'नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि वक्तव्यानि,' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह २१प्राभूत प्राभूते ता कहते जोतिसस्स दारा आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ पंच पडियत्सीओ पण्णसाओ,नक्षत्रद्वारातत्थेगे एवमाहंसु ता कत्तियादी णं सत्त नक्खत्ता पुवादारिया पण्णत्ता एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसुणि सू ५९ |ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुषदारिया पण्णत्ता एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमासु ता घणिवादीया सत्त णक्वत्ता पुषदारिआ पण्णत्ता एगे एवमासु ३, एगे पुण एवमाहंसु अस्सिणीयादीया णं सत्स णक्खत्ता पुषादारिया पं० एगे एचमाइंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु ता भरणीयादीआ णं सत्त णक्खत्ता पुखदारिआ पण्णता । तत्थ जे ते पचमासु ता कत्तियादी णं सत्त णक्वत्ता पुवदारिया पं० ते एवमाहंसु-सं०-1 कतिया रोहिणी संठाणा अदा पुणवसू पुस्सो असिलेसा, सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पं०२०-महा पुषफ-1 ग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता साई विसाहा, अणुराधादीया सत्स णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० सं०-1 अणुराधा जेट्ठा मूलो पुवासाढा उत्तरासाढा अभियी सवणो, धणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पं० २०-धणिट्ठा सतभिसया पुवापोहचता उत्सरापोहवता रेवती अस्सिणी भरणी ॥ तत्थ जेते एवमाहंसु ता । ॥१७॥ महादीया सत्त णक्खत्ता पुखदारिया पं० ते एवमासु तं०-महा पुवाफग्गुणी हत्थो चित्ता साती विसाहा, अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पं० तं०-अणुराधा जेट्ठा मूले पुवासाढा उत्तरासाढा अभियी अनुक्रम [९०] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २० परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २१ आरभ्यते ~359 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत २१], ------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % प्रत %A5% E 5 सवणे, धणिहादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० सं०-धणिवा सतभिसया पुधापोट्टवता उत्तरापोट्टबता रेवती अस्सिणी भरणी, कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पं०, तंजहा कत्तिया रोहिणी संठाणा अहा पुणवम् पुस्सो अस्सेसा । तत्थ ण जे ते एवमाहंमु, ता धणिहादीया सस णक्खत्ता पुच्चदारिया पं० ते एवमाहंसु, तंजहा-धणिहा सत्तरिसया पुबाभदवया उत्तराभहवता रेवती अस्सिणी भरणी, कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पं० संजहा-कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवसू पुस्सो अस्सेसा, महादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० तंजहा-महा पुषाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्यो चित्ता साती विसाहा, अणुराधादीया सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया पं० सं०-अणुराधा जेट्ठा मूलो पुवासाढा उत्तरासाढा अभीयी सवणो ॥ तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता अस्सिणीआदीया सत्त णक्खत्ता पुषदारिया पण्णत्ता, एते एवमाहंसु, तंजहा-अस्सिणी भरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अहा पुणवस , पुस्सादिया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता तं०-पुस्सा अस्सेसा महा पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता, सादीयादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० तंजहा-साती विसाहा अणुराहा जेड्डा मूलो पुवासादा उत्तरासाढा, अभीपीआदि सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पं०, तं०-अभिई सवणो धणिट्ठा सतभिसया पुषभद्दवया उत्तरभवया रेवती॥ तत्थ जे ते एवमाहंसु ता भरणिआदीया सत्तणक्खत्ता पुषदारिया पं० ते एवमाहंसु, तंजहाभरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवस पुस्सो, अस्सेसादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, अनुक्रम %95%25 [९०] 25% FitraalMAPINAMORE ~360~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत २१], -------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] सूर्यप्रज्ञ- तंजहा-अस्सेसा महा पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्यो चित्ता साई, विसाहादीया सत्त णक्खत्ता प्रच्छि-४१०माभृते प्तिवृत्तिःमदारिया पं० तं-विसाहा अणुराहा जेट्टा मूलो पुषासाढा उत्तरासाढा अभिई, सवणादीया सस णक्खन्ता २१माभूत(मल) उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं०-सवणो धणिहासतभिसया पुवापोहवया उत्तरपोट्टवया रेवती अस्सिणी, एते एव- | प्राभूते ॥१७॥ |माईसु, वयं पुण एवं वदामो ता अभिईयादि सत्त णक्खता पुखदारिया पणत्ता, तं०-अभियी सवणो नक्षत्रद्वारा: धणिट्ठा सतभिसया पुवापोहवता उत्सरापोडक्या रेवती, अस्सिणीभादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया Mणि सू ५९ पं०२०-अस्सिणी भरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अहा पुणवसू, पुस्सादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदा-II रिया पं०२०-पुस्सो अस्सेसा महा पुत्वाफग्गुणी उत्तरफग्गुणी हस्थो चित्ता, सातिआदीया सत्त णखत्ता उत्तरदारिया पं०, तं०-साती विसाहा अणुराहा जेट्ठा मूले पुषासाटा पसरासादा (सूत्रं ५९) दसमस्सटी पाहुडस्स एकवीसतितमं पाहुडपाहुई समत्तं ॥ "ता कहते जोइसदारा इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः ज्योतिपो-नक्षनचास्य द्वाराणि आख्यातानीति वदेत् 1, एवमुक्के भगवानेतद्विषये यावत्यः परतीथिकानां प्रतिपसयस्तावतीरुपदर्शयत्ति'तत्थेत्यादि, तत्र-द्वारविचारविषये खस्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च परतीथिकानां प्रतिपत्तयः प्रज्ञसार, ता एवं कमे-म ॥१७४॥ णाह-'तत्थेगे'त्यादि, तत्र-तेषां पञ्चानां परतीर्थिकसाताना मध्ये एके एवमाहुर-कृत्तिकादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि, इह येषु नक्षत्रेषु पूर्वस्यां दिशि गच्छतः प्रायः शुभमुपजायते तानि पूर्वद्वारकाणि, एवं दक्षिणाद्वा अनुक्रम [९०] ~361~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत २१], -------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ॐॐॐ |रकादीन्यपि वक्ष्यमाणानि भावनीयानि, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु', एके पुनरेवमाहुः-अनुराधादीनि सप्तन-1 वाणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि, अत्राप्युपसंहारः-'एगे एवमाहंसु', एवं शेषाण्यप्युपसंहारवाक्यानि योजनीयानि, पके पुनरेवमाहुः-धनिष्ठादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, एके पुनरेवमाहुः-अश्विन्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञधानि, एके पुनरेवमाहुर्भरण्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, सम्प्रत्येतेषामेव पश्चानामपि मताना भावनिकामाहर 'तत्थ जे ते एकमाईसु' इत्यादि सुगर्म, भगवान् स्वमतमाह-'वयं पुण'इत्यादि पाठसिद्धम् ॥ ५.. ........... इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभतस्य प्राभतप्राभतं- २१ समाप्त तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभूतस्य एकविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं, सम्पति द्वाविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमाधिकारो यथा 'नक्षत्राणां विचयो वक्तव्यः' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| "ता कहं ते णक्वत्तविजये आहित्तेति वदेजा ?, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवणं, ता जंबुरीवेणं दीवे दो चंदा पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा दो सूरिया तर्विसु वा तवेति वा तविस्संति वाका छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं जोएंसु वा ३, तंजहा-दो अभीयी दो सवणा दो धणिहा दो सतभिसया दो पुछापोहवता दो उत्सरापोवता दो रेवती दो अस्सिणी दो भरणी दो कत्तिया दो रोहिणी दो संठाणा दो अहा दो पुणवसू दो पुस्सा दो अस्सेसाओदो महा दो पुवाफग्गुणी दो उत्तराफरगुणी दो हत्या दो चित्ता दो साई दो। अणुराधा दो जेट्ठा दो मूला दो पुवासाढा दो उत्तरासाढा,ता एएसिणं छप्पण्णाए नक्वत्ताणं अस्थि णक्खना। EXPRASARAN अनुक्रम [९०] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २१ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २२ आरभ्यते ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६०]] दीप जेणं णव मुहले सत्तावीसं च सत्तविभागे मुहुप्सस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि नक्खत्ता जे णं पण्णरस १० प्राभृते तिवृत्तिः है मुहले चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, अत्धि णक्खत्ता जे णं तीसमुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता २२ प्राभृत. (मल.) जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि गं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खसे प्राभुते ४ नक्षत्रयोगा॥१७५॥ जे णं णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्ससहिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खत्ता जे णं पन्न-121 दिसू६० रसमुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खसा जे णं तीसं मुहत्ते चंदेणं सर्दि जोयं जोएंति, कतरे ५ मणक्खत्ता जे णं पणतालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्तार्ण तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तहिभागे मुहुत्तस्स चंदण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं दो अभीपी, तत्थ जे ते णवत्ता जे गं पण्णरस मुहत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ते ण वारस, तंजहा-दो सत-15 भिसया दो भरणी दो अद्दा दो अस्सेसा दो साती दो जेट्ठा, तत्थ जे तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं * जोएंति ते णं तीसं, तंजहा-दो सवणा दो धणिट्ठा दो पुषभदवता दो रेवती दो अस्सिणी दो कत्सिया दो। संठाणा दो पुस्सा दो महा दो पुवाफग्गुणी दो हत्था दो चित्ता दो अणुराधा दो मूला दो पुवासादा, तत्थ जे तेणखत्ता जे णं पणतालीसं मुहसे चंदेण सद्धिं जोएंति ते णं बारस, तंजहा-दो उत्तरापोहचता दोरोहिणी ॥१७॥ दो पुणवसू दो उत्तराफग्गुणी दो विसाहा दो उत्तरासाढा, ता एएसि गं छप्पण्णाएणक्खत्ताणं अत्थि णक्खत्ते जेणं चत्तारि अहोरत्ते छच मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयंजोएंति, अस्थि णक्खत्ता जेणं छ अहोरत्ते एकवीसं च अनुक्रम EXA%ASH4555555 [९१] ~363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६०] प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे गंवीसं अहोरते तिनिय मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं तं चैव उचारेयवं, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं चत्तारि अहोरते छच मुहत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोपंति, ते णं दो अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं छ अहोरत्ते एकवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं वारस, तंजा-दो सतभिसया दो अदा दो अस्सेसा दो साती दो विसाहा दो जेठा, तत्थ जे ते णवत्ता जेणं तेरस अहोरते बारस मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं तीसं, तंजहा- दो सवणा जाब दो पुष्वासाढा, तत्थ जे ते णक्खसा जेणं बीसं अहोरसे निष्णिय मुहते सूरेण जोयं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा- दो उत्तरापोट्ठवता जाब उत्तरासाढा (सूत्रं ३० ) । 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं !-केन 'नक्खसविजय'ति विपूर्वश्चिड् स्वभावात् स्वरूपनिर्णये वर्त्तते, तथा चोक्तमन्यंत्र "आप्तवचनं प्रवचनं ज्ञात्वा विश्वयस्तदर्थनिर्णयनम् ।" तत्र विचयनं विश्वयो नक्षत्राणां विचयो नक्षत्रविचयः- नक्षत्राणां स्वरूपनिर्णय आख्यात इति वदेत् ? भगवानाह 'ता अयण्ण' मित्यादि, इदं जम्बूद्धीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं कृत्वा परिभावनीयं, 'ता जंबुद्दीचे ण'मित्यादि, तत्र जम्बूद्वीपे णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रभासितवन्तौ प्रभासेते प्रभासिष्येते, द्वौ सूर्यो तापितवन्तौ तापयतस्तापयिष्यतः, षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि चन्द्रादिभिः सह योगमयुञ्जन् युञ्जन्ति योक्ष्यन्ति तत्र तान्येव षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि दर्शयति- 'तंज' त्यादि Jan Eaton intimatinal F&P ~364~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [१] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६०] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ सुगमं, इह भरतक्षेत्रे प्रतिदिवसमष्टाविंशतिरेव नक्षत्राणि चारं चरन्ति ततः पूर्वमस्य दशमस्य प्राभृतस्व द्वितीये प्राभृसिवृत्तिः ४ तप्राभृतेऽष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां चन्द्रमसा सूर्येण च सह योगपरिमाणं चिन्तितं, सम्प्रति पुनः सकलमेव जम्बूद्वीपमधिकृत्य ४ ( मल०) नक्षत्राणि चिन्त्यमानानि वर्त्तन्ते तानि च सर्वसङ्ख्यया षट्पञ्चाशत्, ततस्तेषां सर्वेषामपि चन्द्रसूर्याभ्यां सह योगमधिकृत्य मुहूर्त्तपरिमाणं चिचिन्तयिषुरिदमाह-'ता एएसि णमित्यादि, एतच्च प्रागुक्तद्वितीयप्राभृतमा भृतवत्परिभावनीयम् । तदेवं कालमधिकृत्य चन्द्रमसा सूर्येण च सह योगपरिमाणं चिन्तितं, सम्प्रति क्षेत्रमधिकृत्य तच्चिचिन्तयिषुः प्रथमतः सीमाविष्कम्भविषयं प्रश्नसूत्रमाह १० प्राभृते २२ प्राभूतप्राभृते नक्षत्रसीमाविष्कंभावि ॥१७६॥ सू. ६१-६२ ता कह ते सीमाविक्खंभे आहितेति वदेजा?, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्ता जेसि णं छसया तीसा सत्तट्टिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो, अस्थि णक्वत्ता जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तसट्टिभागती सतिभागाणं सीमाविक्खंभो, अत्थि णक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तद्विभाग तीसतिभागाणं सीमाविक्वंभो, अस्थि णक्खन्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदमुत्तरं सत्तसट्टिभागती सतीभागाणं सीमाविक्खंभो, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्वत्ताणं कतरे णक्खत्ता जेसिणं छसया तीसा तं चैव उच्चारत, ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदसुत्तरं सससहिभागतीसहभागाणं सीमाविक्खंभो ?, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं छ सला तीसा सत्तट्टिभागतीसतिभागेणं सीमाविक्खंभो ते णंदो अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं सहस्सं पंचु Eaton matinal F&PO ~365~ ॥ १७६ ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 50 प्रत सूत्रांक [६१-६२ दीप अनुक्रम [९२-९३] दाता सप्तसहिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो ते णं वारस, तंजहा-दो सतभिसया जाय दो जेट्ठा, तत्थ जे ते णक्वत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तहिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो ते णं तीसं, तं०-दो सवणा जाव दो पुवासाढा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं तिण्णि सहस्सा पण्णरसुत्तरा सत्तहिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो ते णं बारस, तं०-दो उत्तरा पोट्टवता जाब उत्तरासाढा वा (सूत्रं ६१) पतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सता पादो चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्ख ताणं किं सया सायं चंदेण सदि जोयं जोएंति?, एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सया दुहा पषिसिय लाचंदण सद्धिं जोयं जोएंति?, ता एएसिणं छप्पणाए णक्खत्ताण न किंपितं जं सया पादो चंदेण सद्धिं जोपं: जोएंति, नो सया सागं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, नो सया दुहओ पविसित्ता २ चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, णण्णत्व दोहिं अभीयीहि, ता एतेणं दो अभीयी पायंचिय २ चोत्तालीसं २ अमावासं जोएंति, णो चेव णं ४ पुषिणमासिणिं (सूत्रं ६२) 'ता कहते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं ! केन प्रकारेण कियत्या विभागसङ्ख्यया इत्यर्थः, भगवन् ! त्वया सीमाविकम्भ आख्यात इति वदेत् , भगवानाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, इहाष्टाविंशत्या नक्षत्रैः स्वगत्या स्वस्वकालपरिमाणेन ४ क्रमशो यावत् क्षेत्र वुझ्या व्याप्यमान सम्भाव्यते तावदेकमर्द्धमण्डलमुपकल्प्यते, एतावत्प्रमाणमेव द्वितीयमर्धमण्डलमित्येवंप्रमाणे बुद्धिपरिकल्पितमेकं परिपूर्णमण्डलं, तस्य मण्डलस्य 'मण्डलं सयसहस्सेण अहाणउए सरहिं छित्ता इस ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ FridaIMAPIVARANORN ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ क्षितिः (मल०) प्रत सूत्रांक [६१-६२] ॥१७७॥ II नक्खत्ते खेचपरिभागे नक्सत्तविजए पाहुडे आहियत्तिबेमि' इति वक्ष्यमाणवचनात् अष्टानवतिशताधिकशतसहनवि- २०प्राभूते भागैर्विभज्यते, किमेवंसयानां भागानां कल्पने निबन्धनमिति चेत् , उच्यते, इह विविधानि नक्षत्राणि, तद्यथा-समझेत्राणि अर्द्धक्षेत्राणि पद्धक्षेत्राणि च, तत्र यावत्प्रमाणं क्षेत्रमहोरात्रेण गम्यते नक्षत्रैस्तावत्क्षेत्रप्रमाणं चन्द्रेण सह योग यानि , गच्छति तानि समक्षेत्राणि, तानि च पश्चदश, तद्यथा-श्रवणो धनिष्ठा पूर्वभाद्रपदा रेवती अश्विनी कृत्तिका मृगशिरःIPTara पुष्यो मघा पूर्वफाल्गुनी हस्तः चित्राऽनुराधा मूलः पूर्वाषाढा इति, तथा यानि अहोरात्रममितस्य क्षेत्रस्याई चन्द्रेण सह -६२ योगमश्नुवते तान्यर्द्धक्षेत्राणि, तानि च षट् , तद्यथा-शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वातियेष्ठति, तथा द्वितीयमधैं| यस्य तत् यई, मार्थमित्यर्थः, बर्द्धमर्दाधिक क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं चन्द्रयोगयोग्यं येषां तानि व्यक्षेत्राणि, तान्यपि षद्, तद्यथा-उत्तरभद्रपदा उत्तरफाल्गुनी उत्तराषाढा रोहिणी पुनर्वसु विशाखा चेति, तत्र सीमापरिमाणचिन्तायामहोरात्रः। | सप्तषष्टिभागीक्रियते इति समक्षेत्राणां क्षेत्रं प्रत्येक सप्तपष्टिभागाः परिकल्प्यन्ते, अर्द्धक्षेत्राणां त्रयस्त्रिंशत् अर्द्ध च, व्यर्द्धक्षेत्राणां शतमेकम च, अभिजिन्नक्षत्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, समक्षेत्राणि च नक्षत्राणि पश्चदशेति सप्तषष्टिः पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातं सहस्रं पश्चोत्तरं १००५, अर्द्धक्षेत्राणि पडिति ततः सार्दा त्रयस्त्रिंशत् षनिर्गुण्यते, जाते द्वे शते |एकोत्तरे २०१, व्यर्द्धक्षेत्राण्यपि पटू , ततः शतमेकमर्द्धं च पनिस्ताब्यते, जातानि षट् शतानि युत्तराणि ६०३, अभि जिन्नक्षत्रस्य एकविंशतिः, सर्वसञ्जयया जातानि अष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, पतावद्भागपरिमाणमेकमर्ज-12॥१७७॥ ४ मण्डलमेतावभागमेव द्वितीयमिति त्रिंशदधिकाम्यष्टादश शतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते आतानि पत्रिंशच्छतानि पश्यधि दीप अनुक्रम [९२-९३] %25659-2016 ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२ दीप अनुक्रम [९२-९३] कानि ३६६०, एकैकस्मिन्नहोरात्रे किल त्रिंशन्मुहर्चा इति प्रत्येकमेतेषु पथ्यधिकषट्त्रिंशच्छतसङ्ग्येषु भागेषु त्रिंशदागकल्पनायां त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि १०९८००, तत इत्थं मण्डलस्य भागान् परिकल्प्य | भगवान् प्रतिवचनं ददाति-'ता'इति तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्येऽस्तीति निपातत्वादापत्वाद्वा स्तस्ते नक्षत्रे ययोः प्रत्येक षट् शतानि त्रिंशानि-त्रिंशदधिकानि सप्तपष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः-सीमापरिमाणं, तथाऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येक पश्चोत्तर सहस्रं सप्तषष्टित्रिंशदागानां सीमाविष्कम्भा, सन्ति तानि नक्षत्राणि येषांला प्रत्येकं द्वे सहने दशोत्तरे सप्तपष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः, सन्ति तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येक बीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः, एवं भगवता सामान्येनोके भगवान् गौतमो विशेषावगमनिमित्त भूयः प्रश्नयति-ता एएसिमित्यादि, तत्र एतेषां षट्पश्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये कतराणि तानि नक्षत्राणि येषां षट् शतानि त्रिंशानि सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः, 'तं चेव उच्चारेय'ति तदेवानन्तरोक्तमुक्तप्रकारेणोच्चारयि-IN मतव्यं, तद्यथा-'कयरे नक्खत्ता जेसि सहस्सं पंचोत्तरं सत्तविभागतीसहभागाणं सीमाविक्खंभो, कयरे नक्खत्ता जेसिं दो सहस्सा दमुत्तरा सत्तविभागातीसहभागाणं सीमाचिक्खंभो'इति, चरमं तु सूत्रं साक्षादाह'कयरे नक्खत्ता इत्यादि, एतानि त्रीण्यपि सूत्राणि सुगमानि (च), भगवानाह-'ता एएसि 'मित्यादि, तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां षट् शतानि त्रिंशानि सप्तपष्टिभागत्रिंशदागानां सीमाविष्कम्भः ते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, इह एकैकस्याभिजितो नक्षत्रस्य सप्तपष्टि ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [६१-६२ ॥१७८॥ 34 खण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्का एकविंशतिर्भागाश्चन्द्रयोगयोग्याः, एकैकस्मिंश्च भागे त्रिंशद्भागपरिकल्पनादे-४१० प्राभृते कविंशतिस्त्रिंशता गुण्यते, जातानि पटू शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तथा तत्र तेषां षट्पश्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि M२२प्राभूततानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येकं पञ्चोचरं सहस्र सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः तानि द्वादश, तद्यथा-वे शतभिषजी |'जाव दो जेहाउ'त्ति यावच्छब्दकरणादेवं द्रष्टव्यं-'दो भरणीओ दो अदाओ दो अस्सेसाओ दो साईओ दो जेवाओं'नक्षत्रसीमा इति, तथाहि-एतेषां द्वादशानामपि नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काः सास्त्रिया विष्कंभादि सू११-१२ खिंशदागाश्चन्द्रयोगे योग्यास्ततस्त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यते जातानि नव शताति नवत्यधिकानि.९९०, अर्द्धस्थापि च त्रिंशता गुणयित्वा द्वाभ्यां भागे हते लब्धाः पञ्चदश १५, सर्वसङ्ख्यया जातं पश्चोत्तरं सहसं १००५, तथा तत्र तेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां वे सहने दशोचरे सप्तषष्टिभागत्रिंशदुभागानां सीमाविष्कम्भस्तानि त्रिंशत्, तद्यथा-द्वी श्रवणी 'जाय दो पुवासाढाइति यावच्छब्दादेवं पाठो द्रष्टव्य:-दो घणिवा दो पुषभरावया दो रेवई। दो अस्सिणी दो कत्तिया दो मिगसिरा दो पुस्सा दो मघा दो पुवफग्गुणीओ दो हत्था दो चित्ता दो अणुराहा दो मूला दो। पुषासादा'इति, तथाहि-एतानि नक्षत्राणि समक्षेत्राणि, तत एतेषां सतषष्टिखण्डीकृतस्थाहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काः परि-14 ID॥१७८॥ पूर्णाः सप्तपष्टिभागाः प्रत्येकं चन्द्रयोगयोग्याः, तेन सप्तपष्टित्रिंशता गुण्यते, जाते द्वे सहने दशोत्तरे इति, तथा तत्रतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येक त्रीणि सहस्राणि पश्चदशोत्तराणि सप्तपष्टित्रिंशमागानां सीमाविष्कम्भस्तानि द्वादशा, तद्यथा-वे उचरे प्रोष्ठपदे 'जाव दो उत्तरासाबा' इति यावच्छन्दकरणादेव + दीप अनुक्रम [९२-९३] + + + ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२ व्यं दो रोहिणी दो पुणपसू दो उत्तरफग्गुणी दो बिसाहा दो उत्तरासादा' इति, एतामि. हि नक्षत्राणि प्रवर्द्धक्षेत्राणि ततः सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काश्चन्द्रयोगयोग्या भागाः शतमेकमर्थं च प्रत्येकमवगन्तव्याः, तत्र शतं त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रीणि सहस्राणि, अर्द्धमपि त्रिंशता गुणयित्वा द्वाभ्यां विभज्यते लब्धाः पञ्चदशेति । 'ना एएसि ण'मित्यादि, ता इति तत्र तेषां पट्पश्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये किं नक्षत्रं यत् सदा प्रातरेव चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, किं नक्षत्रं यत्सदा सायं-दिवसावसानसमये चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति, किं तन्नक्षत्रं यत्सदा द्विधा-प्रातः सायं च समये प्रविश्य २ चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति, भगवानाइ-ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये न किमपि तनक्षत्रमस्ति यत्सदा प्रातरेव चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, किं सर्वथा नेत्याह-नक्षत्धेत्यादि, नेति प्रतिषेधोऽन्यत्र द्वाभ्यामभिजिभ्यामवसेयः, कस्मादित्याह-'ता एएसि ण'मित्यादि ता इति तत्र-तेषां पटूपयाशतो नक्षत्राणां मध्ये एते-अनन्तरोदिते द्वे अभिजिती-अभिजिन्नक्षत्रे युगे युगे प्रातरेव प्रातरेव चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यां चन्द्रेण सह योगमुपगम्य युक:-परिसमापयतः, नो चैव पौर्णमासी, अथ कथमेतदवसीयते, यथा युगे युगे चतुश्चत्वारिंशत्तमा २ ममावास्यां सदैव प्रातः समये अभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रेण साई योगमुपागम्य परिसमापयतीति , उच्यते, * पूर्वाचार्योपदर्शितकरणवशात् , तथाहि-तिथ्यानयनार्थ तावत्करणमिदं-'तिहिरासिमेव बावहिभाझ्या सेसमेगसहिशुणणं | च । बावडीऍ विभत्तं सेसा असा तिहिसमती॥१॥"अस्या अक्षरगमनिका-ये युगमध्ये चन्द्रमासा अतिक्रान्तास्ते तिथिराश्यानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तस्य राशेर्भागो द्वापण्या हियते, हते च भागे यदवतिष्ठते तस्मिन्नेकपथ्या दीप अनुक्रम [९२-९३] SAX ~370 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२ सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मळ०) ॥१७॥ दीप अनुक्रम [९२-९३] गुणयित्वा द्वाषध्या विभक्के ये अंशा उद्धरन्ति सा विवक्षिते दिने विवक्षिततिधिपरिसमाप्तिः, ततश्चतुश्चत्वारिंशत्तमाया ततचतुश्चत्वारिशचमा १० प्राभृते ममावास्यायां चिन्त्यमानायां विचत्वारिंशचन्द्रमासा एकं च चन्द्रमासस्य पर्वावाप्यते, ततखिचत्वारिंशत्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि द्वादश शतानि नवत्यधिकानि १२९०, तत उपरितनाः पर्वगताः पश्चदश प्रक्षिष्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि 3 प्राभृते पश्चोत्तराणि १३०५, तेषां द्वापट्या भागो हियते लब्धा एकविंशतिः, सा त्यज्यते, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः, ते एकपष्ध्या गुण्य-नक्षत्रसीमा४ान्ते, जातं ज्यशीत्यधिक शतं १८३, तस्य द्वाषष्ट्या भागे हते लब्धौ द्वौ. तो त्यक्ती. शेषा तिष्ठत्येकोनषष्टिः ५९, आग-1 विष्कंभादि तमेकोनषष्टिषष्टिभागास्तस्मिन् दिनेऽमावास्या । अमावास्यासु पौर्णमासीषु च नक्षत्रानयनाथै प्रागुक्तमेव करणं, तत्र सू६१-६२ ध्रुवराशिः, षट्षष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च दापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः ६६ial तत्र चतुश्चत्वारिंशतमा अमावास्था चिन्तयितुमारब्धा, ततश्चतुश्चत्वारिंशता स गुण्यते, जातानि मुहूर्तानामेकोनत्रिंशपछतानि चतुरुत्तराणि २९०४ एकस्य च मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागानां दे शते विंशत्यधिके २२० एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः। तत्र पुनर्वसुप्रभृतिकमुत्तराषाढापर्यन्तं चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि मुबा-1 नामेकस्य च मुहर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः ४४२४३ इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विशतिः शतानि द्वाषष्ट्याधिकानि २४६२ एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःसप्तत्यधिकं शतं द्वापष्टिभागानां १७४, ततोऽभिजिदादिसकलनक्षत्रमण्डलशोधनकमष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापटिभागख पदपष्टिः सप्तपष्टिभागाः ८१९ । २४ । ६६ इत्येवंप्रमाणं यावत्सम्भवं शोधनीयं, तत्र त्रिगुणमपि शुद्धिमासा-8॥१७९।। Fhi ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२ दयतीति त्रिगुणं कृत्वा शोध्यते, स्थिताः पश्चात् षण्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः ६।३७ । ४७ । आगतं चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यायामभिजिन्नक्षत्रं षट्सु मुहूतेषु सप्तमस्य च मुहूर्तस्य सक्षत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु परि| समापयति । सम्प्रत्यमावास्यापौर्णमासीप्रक्रमादेव तत्परूपणां चिकीर्षुरिदमाह| तत्थ खलु इमाओ यावद्धिं पुषिणमासिणीओ पावहिं अमावासाओ पण्णत्ताओ, ता एएसिणं पंचण्ड संवच्छराणं पढम पुण्णिमासिणि चंद किंसि देसंसि जोएइ ?, ता जंसिणं देसंसि चंदे चरिमं वावहिं पुण्णिमासिणिं जोएति ताए तेणं पुण्णिमासिणिहाणातो मंडलं चउच्चीसेणं सतेणं छेत्ता दुषत्तीसं भागे उवातिणावित्ता एत्थ णं से चंदे पढमं पुण्णिमासिणि जोएति, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोचं पुण्णिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएति, ता जंसिणं देसंसि चंदे पढम पुण्णिमासिणि जोएति, ता तेणंपुषिणमासिणिहाणातो मंडलं चउवीसेणं सतेणं छत्ता दुबत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दोचं पुण्णिमासिणि जोएति, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएति ?, ता जंसिणं देसंसि चंदो दोचं पुण्णिमासिणिं जोएति, ताते पुण्णिमासिणीठाणातो मंडलं चउचीसेणं सतेणं छेत्ता दुबत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं तचं चंदे पुण्णिमासिणि जोएति, ता एतेणं पंचहं संवच्छराणं दुवालसमं पुषिणमासिणि चंदे कसि देसंसि जोएंति ?, ता जसिणं देसंसि चंदे तचं पुषिणमासिणिं जोएति, ताते पुण्णिमा दीप अनुक्रम [९२-९३] ~372~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभूत [२२], -------------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ-. प्तिवृत्तिः (मल०) सूत्राक ॥१८॥ [६३] दीप सिणिट्ठाणाते मंडलं चउबीसेणं सतेणं छेत्ता दोषिण अहासीते भागसते उवायिणावेत्ता एत्य णं से चंदे दुषा-18 १०याभृते. लसमं पुण्णिमासिणि जोएति, एवं खलु एतेणुवाएर्ण ताते २ पुण्णिमासिणिहाणाते मंडलं चवीसेणं स- २२प्राभूत तेणं छेत्ता दुपत्तीसंभागे उपातिणावेत्ता तंसि २ देसंसि तं तं पुणिमासिणि चंदे जोएति, ता एतेसिणं प्राभूते पंचण्हं संवच्छराणं चरमं वावडिं पुणिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएति ?, ता जंयुद्धीवस्स २ पाईण- पूर्णिमामा वास्याः पडिणायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चपीसेणं सतेणं छेत्ता दाहिणिल्लंसि चजन्भागमंडलंसि सू६३ सत्तावीसं चउभागे उपायणावेत्ता अट्ठावीसतिभागे बीसहा छेत्ता अट्ठारसभागे उवातिणावेसा तिहिं भागेहिं दोहि य कलाहिं पञ्चस्थिमिलं चउभागमंडलं असंपत्ते एत्थ णं चंदे चरिमं चावहि पुणिमासिणि जोएति (सूत्रं ६३) । 'तत्थ खल्लु'इत्यादि, तब युगे खलु इमा-वक्ष्यमाणस्वरूपा द्वाषष्टिः पौर्णमास्यो द्वापष्टिरमावास्याः प्रज्ञप्ता, एवमुक्त भगवान गौतमः पृच्छति-'ता'इति तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पोणे-18 मासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति-परिसमापयति !, भगवानाह-'ता जंसिण' मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे चन्द्रश्च- M रमां पाश्चात्ययुगपर्यन्तवर्तिनी द्वापष्टितमा पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति तस्मात् पूर्णमासीस्थानात्-चरमद्वाषष्टित- I con मपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागांच उपादाय-गृहीत्वा अत्र द्वात्रिंशदागरूपे देशे चन्द्रः प्रथमा पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति, भूयः प्रश्नं करोति, 'ता अनुक्रम [९४] JAINERUnintimalsina ~373~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 545 कृत प्रत सूत्रांक [६३] दीप एएसि 'मित्यादि, ता इति-तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पश्चानां संवत्सराणां मध्ये या द्वितीया पौर्णमासी त चन्द्रः कस्मिन् देशे परिसमापयति ?, भगवानाह--'ता जंसि ण'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे चन्द्रः प्रथा पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति तस्मात्पूर्णमासीस्थानात्-प्रथमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागानुपादायात्र प्रदेशे चन्द्रो द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति, एवं तृतीयपौर्ण-3 दमासीविषयमपि सूत्रं व्याख्येयम्, एवं द्वादशपौर्णमासीविषयमपि, नवरं 'दोषिण अट्ठासीए भागसए'त्ति तृती यस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी भवति, ततो नवनिर्वात्रिंशतो गुणने द्वे शते अष्टाशीत्यधिक भवतः २८८, सम्प्रत्यतिदेशमाह-'एवं खलु' इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन यां यां पौर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्ततोऽनन्तरां पौर्णमासी तस्मात्पाश्चात्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा परतस्तद्गतान् द्वात्रिंशतं द्वात्रिंशतं भागानुपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे चन्द्रः परिसमापयति, स चैवं परिसमापयन् तावद्वेदितव्यो यावद् भूयोऽपि चरमां द्वापष्टिं पौर्णमासी तस्मिन् देशे परिसमापयति यस्मिन् देशे पाश्चात्ये युगे चरमां द्वाषष्टिं पौर्णमासी परिसमापितवान्, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, गणितक्रमवशात, तथाहि-पाश्चात्ययुगचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतप्रविभक्तस्य सत्कानां द्वात्रिंशतो भागानामतिक्रमे तस्यास्तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, द्वापष्टिश्च सर्वसङ्ख्यया युगे पौर्णमास्यः, ततो द्वात्रिंशत् द्वाषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकोनविंशत्यधिकानि चतुरशीत्यधिकानि अनुक्रम CAREER544 । [९४] Fhi ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्राभृते सूत्रांक [६३] सूर्यप्रज्ञ-18|१९८४, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः षोडश सकलमण्डलपरावर्ताः, समस्तस्यापि च रानिले- १० प्राभृते दापीभवनादागतं यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसम्बन्धिचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिः, परमद्वापष्टितमपरिसमाप्ति-5२२प्राभृत(मल०) देशं पृच्छति-'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति-तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चानी संवत्सराणां मध्ये चरमां बाप॥१८॥ [ष्टितमा पौर्णमासी पन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति-परिसमापयति ?, भगवानाह-'जंबुद्दीवरसण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, पूर्णिमामा' । वास्याः जम्बूद्वीपस्य णमिति वाक्यालगरे द्वीपस्योपरि प्राचीनापाचीनायतया, इह प्राचीनग्रहणेनोत्तरपूर्वी गृह्यते, अपाचीन-15) सू६३ |ग्रहणेन दक्षिणापरा, ततोऽयमर्थः-पूर्वोत्तरदक्षिणापरायतया, एवमुदीचिदक्षिणायतया-पूर्वदक्षिणोत्तरापरायतया जीवया प्रत्यश्चया दवरिकया इत्यर्थः, मण्डलं चतुर्विशेन-चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य भूयश्चतुभिर्विभज्यते, ततो दाक्षि|णात्ये चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भार्ग विंशतिधा छित्त्वा तवगता नष्टादश भागानुपादाय शेपैसिभिर्भागैश्चतुर्थस्य भागस्य द्वाभ्यां कलाभ्यां पाश्चात्यं चतुभांगमण्डलमसम्प्राप्तः, अस्मिन् | ४प्रदेशे चन्द्रो द्वापष्टितमा घरमा पौर्णमासी परिसमापयति ॥ तदेवं चन्द्रस्य पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेश उक्तः, सम्प्रति सूर्यस्य | पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेशं प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-1 | ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पदम पुण्णिमासिणि सूरे कसि देसंसि जोएति ?, ता जसिणं देससि सरे चरिम वावडिं पुण्णिमासिणि जोएति ताते पुणिमासिणिढाणातो मंडलं चउचीसेर्ण सतेणं ऐसा चडण-| लावति भागे उवातिणावेत्ता एत्थ णं से सुरिए पढम पुणिमासिणि जोएड. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छ-12 CADCASSES दीप अनुक्रम 15 [९४] ॥१८॥ FridaIMAPIVAHauWORK ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] 6+ 3 राणं वोचं पुषिणमासिणि सूरे कसि देसंसिजोएति ?,ता जसिणं देसंसि मुरे पढमं पुण्णिमासिणि जोएइ ताए पुण्णिमासिणीठाणाओ मंडलं' चउवीसं सएण छेत्ता दो चउणवइभागे उबाइणावित्ता एत्थ णं से सूरे दोचं पुण्णमासिणि जोएइ, ता एएसिणं पंचण्हं संबच्छराणं तच्चं पुषिणमासिणि सूरे कंसि देसंसि जोएइ,ता जसिणं देसंसि सूरे दोचं पुषिणमासिणि जोएति ताते पुषिणमासिणिहाणाते मंडलं चउच्चीसं सतेणं छेत्सा चउ kणउतिभागे स्वातिणावेत्ता एत्थ णं से सूरे तच्च पुण्णिमासिणि जोएति, ता एतेसि णं पंचण्डं संवच्छराणं दुवालसं पुपिणमासिणिक जोएति, ताते पुषिणमासिणिहाणाते मंडलं चउदीसेणं सतेणं छेत्ता अवछत्ताले भागसते ज्वाइणावेत्ता, एस्थ णं से सूरे दुवालसमं पुषिणमासिणि जोएति, एवं खलु एतेणुवाएणं ताते २ पुणिमासिणिवाणाते मंडलं चवीसेणं सतेण छेत्ता चउणउति २ भागे उवातिणावेत्ता तसिणं २ देसंसि तं तं पुषिणमासिणि सूरे जोएति, ता एतेसि णं पंचहं संबच्छराणं चरिमं बावद्धिं पुषिणमासिणि सूरे कंसि देसंसि जोएतिता जंबहीवस्सणं पाईणपडिणीयताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउचीसेकसएणं| दत्ता पुरच्छिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि सत्साधीसं भागे उवातिणावेत्ता अट्ठावीसतिभागं वीसधा छेत्ता अट्ठार सभागेउवादिणावेत्ता तिहिं भागेहि दोहि य कलाहिं दाहिणिल्लं चउभागमंडलं असंपत्ते एत्थर्ण सूरे चरिमं बावहि || पुषिणमं जोएति (सूत्रं ६४)।ता एएसिणं पंचण्हं संबच्छराणं पढमं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएति , ता जंसिणं देसंसि चंदे चरिमयावहिं अमावासं जोएति ताते अमावासट्ठाणाते मंडलं चउबीसेणं सतेणं| दीप अनुक्रम [९५-९७] 5 % Fhi ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत सूत्रांक [६४-६६] छत्सा दुषत्तीसं भागे उवादिणावेत्ता एत्थणं से चंदे पढम अमावासं जोएति, एवं जेणेव अभिलावेणं चंदस्स १.प्राभृते तिवृत्तिः पुणिमासिणिओ तेणेव अभिलावणं अमावासाओ भणितचाओ बीइया ततिया दुवालसमी, एवं खलु २२ प्राभृत(मल.)ीएतेणुवाएणं ताते २ अमावासाठाणाते मंडलं चउचीसेणं सतेणं छत्ता दुवीसं २ भागे उवादिणावेत्ता तसि। प्राभृते देसंसि तं तं अमावासं चंदेण जोएति, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरम अमावासं चंदे कंसि STI पूर्णिमामा॥१८॥ देसंसि जोएति ?, ता जंसिणं देसंसि चंदे चरिमं बावहिं पुण्णिमासिणि जोएति, ताते पुषिणमासिणिहाणाए| वास्याः मंडलं चउधीसेणं सतेणं छत्तीसोलसभागे उक्कोवइत्ता एस्थ णं से चंदे चरिमं वावहि अमावासं जोएति ६५-६६ (सूत्रं ६५)ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं सूरे कंसि देसंसि जोएति ?, ता जंसिणं देसंसि सूरे चरिमं बावढि अमावासं जोएति ता ते अमावासट्ठाणाते मंडलं चउचीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउतिभागे उवायिणावेत्ता एत्थ णं से सूरे पढम अमावासं जोएति, एवं जेणेव अभिलावेणं सूरियस्स पुण्णिमासिणीओ तेणेव अमावासाओवि, तंजहा-विदिया तइया दुवालसमी, एवं खलु एतेणुवाएणं ताते अमावासहाणाते मंडलं चउरीसेणं सतेणं छेत्ता चजणउति २ भागे ख्वायिणावेत्ता ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बावहि अमावास|४| जोएति ताते पुण्णिमासिणिहाणाते मंडलं चचीसेणं सतेणं छेत्ता सत्तालीसं भागे उक्कोवइत्ता एत्थ णं से सूरे ॥१८२॥ चरिमंबावढि अमावासं जोएति (सूत्रं १६) 'ता एएसिणे'मित्यादि, ता इति-तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् | दीप अनुक्रम [९५-९७] ~377~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] दीप अनुक्रम [९५-९७] देशे स्थितः सन् युनक्ति-परिसमापयति , भगवानाह-'ता जंसि ण'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यब- है रमां-पाश्चात्ययुगवत्तिनी द्वाषष्टितमां पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात्-चरमद्वाषष्टितमपी र्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विश त्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य तद्गतान् चतुर्नवति भागान् उपादाय सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति, किमत्र कारणमिति चेत्, उच्यते, इह परिपूर्णेषु त्रिंशदहोरात्रेषु परिसमाप्तेषु सत्सु स एव सूर्यस्तस्मिन्नेव देशे वर्तमान प्राप्यते, न कतिपयभागन्यूनेषु, पौर्णमासी च चन्द्रमास-12 पर्यन्ते परिसमाप्तिमुपैति, चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागास्तत विंशत्तमेऽहोरात्रे द्वात्रिंशति द्वापष्टिभागेषु गतेषु सूर्यश्चरमद्वापष्टितमात् पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात् स्थानात बचतुर्नवती चतुर्विंशत्यधिकशतभागेष्यतिक्रान्तेषु प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयन्नवाप्यते, किमुक्तं भवति-त्रिंशता भाग स्तमेव देशमप्राप्तः सन्नवाप्यते इति, त्रिंशतो द्वापष्टिभागानामहोरात्रसत्कानामद्यापि स्थितत्वात् , भूयः प्रश्नयति-ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति तत्र युगे एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये द्वितीयां पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देशे स्थितः सन् &ायुनति-परिसमापयति ।, भगवानाह–ता जंसि णमित्यादि, ता इति तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यः प्रथमा पौर्णमासी परिसमापयति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात्-प्रथमात् पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् परतो मण्डल चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान् चतुर्नवतिभागान उपादाय अत्र देशे स्थितः सन् सूर्यो द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति एवं तृतीयपौर्णमासीविषयमपि सूत्रं कर्त्तव्यं, एवं द्वादशपौर्णमासीविषयमपि, नवरं 'अट्ठछत्ताले भाग ~378 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक [६४-६६] ॥१८शा दीप अनुक्रम [९५-९७] सए'त्ति तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी, ततश्चतुर्नवतिर्नवभिर्गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि १० माभूते षट्चत्वारिंशदधिकानि ८४६, सम्प्रति शेषपौर्णमासीविषयमतिदेशमाह-एवं खलु'इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण खलु-IX|२२ प्राभूत kIनिश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन यां यां पौर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्तां तामनन्तरा-IMI प्राभृते मनन्तरां पौर्णमासी तस्मात् तस्मात् पाश्चात्यपाश्चात्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात् स्थानात् मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन | | शतेन छित्त्वा परतस्तद्गतान् चतुर्नवतिभागानुपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यः परिसमापयति, स चैवं, मावास्याः |परिसमापयन तावद् वेदितव्यों यावत् भूयोऽपि चरमा द्वापष्टि-द्वापष्टितमा पौर्णमासी तस्मिन् देशे परिसमापयति | यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसम्बन्धिनी चरमां द्वाषष्टितमा पौर्णमासी परिसमापितवान्, एतच्चावसीयते गणितक्रमवशात्, तथाहि पाश्चात्ययुगचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतप्रविभक्तस्य सत्कानां चतुर्नवतिचतुर्नवतिभागानामतिक्रमे तस्याः तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, ततश्चतुर्नवतिद्वाषया | गुण्यते, जातान्यष्टापश्चाशच्छतानि अष्टाविंशत्यधिकानि ५८२८, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः। सप्तचत्वारिंशत्सकलमण्डलपरावर्ताः, न च तैः प्रयोजनं, केवलं राशेनिलपीभवनादागतं यस्मिन् देशे स्थितः सन् पाश्चात्ययुगसम्बन्धिचरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमापकस्तस्मिन्नेव देशे विवक्षितस्यापि युगस्य चरमा द्वाषष्टितमा पौर्णमासी ॥१८॥ परिसमापयतीति, सम्प्रति चरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पृच्छति-ता एएसि 'मित्यादि, मगर्म, भगवानाह-'ता जंबुदीवस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीनापाचीनायतया ~379~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] दीप अनुक्रम [९५-९७] अत्रापि प्राचीनग्रहणेनोत्तरपूर्वा दिक् गृह्यते अपाचीनग्रहणेन दक्षिणापरा, ततोऽयमर्थः-उत्तरपूर्वदक्षिणापरायतया एवमुदीच्यदक्षिणायतया-उत्तरापरदक्षिणपूर्वायतया जीवया-दवरिकया मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य भूयश्चतुभिर्भक्त्वा 'पुरस्थिमिल्लसित्ति पूर्व दिग्वर्तिनि चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भागं विंशतिधा छित्त्वा तद्गतानष्टादश भागानुपादाय शेषेखिभिर्भागश्चतुर्थस्य च भागस्य द्वाभ्यां कलाभ्यां विंशतितमाभ्यामित्यर्थः दाक्षिणात्यं च चतुर्भागमण्डलमसंप्राप्तः सन् तत्र प्रदेशे स सूर्यश्चरमां द्वाषष्टिं-द्वाषष्टितमां पौर्णमासी परिसमापयति । तदेवं सूर्याचन्द्रमसोः पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेश उक्तः, सम्प्रति तयोरेवामावास्यापरिसमाप्तिदेशं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः चन्द्रविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमाममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे स्थितः परिसमापयति , भगवानाह-ता जंसिण'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् चन्द्रश्चरमा द्वापष्टि-द्वापष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, ततोऽमावास्यास्थानाद्-अमावास्यापरिसमाप्तिस्थानात्परतो मण्डल चतुविशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागान् उपादायात्र प्रदेशे स चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति एवं'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण येनैवाभिलपिन चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणितास्ते|नैवामिलापेनामावास्या अपि भणितच्याः, तद्यथा-द्वितीया तृतीया द्वादशी च, ताश्चैवम्-'ता एएसि णं पंचण्हं संवमच्छराणं दो अमावासं चंदे कसि देसंमि जोएइ, ता जसिणं देसंसि चंदे पदम अमावासं जोएइ ताओ णं अमावा सहाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएक छेत्ता दुबत्तीसभागे उवायिणावेत्ता एत्थणं से चंदे दोघं अमावासं जोपद, ता एएसि FhiraMAPIVARAuNORE ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत * सूत्रांक [६४-६६] दीप अनुक्रम [९५-९७] सूर्यप्रज्ञ-४ाणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ,ता जंसिणं देसंसि चंदे दोच्चं अमावासं जोएइ ताओ0प्राभूते प्तिवृत्तिः अमावासद्वाणाओ मंडलं चउधीसएणं सएणं छित्ता दुबत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से चंदे तच्चं अमावासं जोएइ, २२ प्राभृत(मल०) ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ, ता जंसि णं देसंसि चंदे तच्चं अमा- माभृते ॥१८४॥ वासं जोएइ ताओ णं अमावासहाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता दोन्नि अहासीए भागसए उबाइणावेचा एस्थ णं पूर | चंदे दुवालसमं अमावासं जोएई सम्प्रति शेषासु अमावास्यास्वतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एतत् प्रागवड्या वास्या सू पंचख्येयं, सम्प्रति चरमद्वापष्टितमामावास्यापरिसमाप्तिनिवन्धनं देशं पृच्छति-ता एएसि ॥'मित्यादि, सुगम, भगवानाह'ता जसि 'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् चन्द्रो द्वापष्टिं-द्वापष्टितमा चरमा पौर्णमासी युनक्ति-परिसमा-1 पयति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात्-पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य पूर्व पोडशभागानववष्क्य चरमद्वापष्टितमामावास्यायाः चरमद्वापष्टितमपौर्णमास्याः पक्षण-पश्चात्पक्षेण च विवक्षितप्रदेशात् चन्द्रः षोडशभिश्चतुर्विशत्यधिकशतभागैः परतः प्ररूप्यते, मासेन द्वात्रिंशता भागः परतो वर्तमानस्य लभ्यमानत्वात् , ततः षोडश भागान् पूर्वमवष्वक्येत्युक्तं अत्र-अस्मिन् प्रदेशे स्थितः सन् चन्द्रश्चरमा द्वापष्टितमाममावास्यां परिसमापयति । सम्पति सूर्यस्थामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धनं देश पिपृच्छिषुराह–ता एएसि ण'मित्यादि, पतत्माग्व-1 ॥१८४॥ व्याख्येयं, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण येनैवामिलापेन सूर्यस्य पौर्णमास्य उकास्तेनैवाभिलापेनामावास्या अपि वक्तव्याः, तद्यथा-द्वितीया तृतीया द्वादशी च, ताश्चैवम्-'एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं दोच्चं अमावासं सूरे कंसि ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] 645454645645% संसि जोएड, ता जसिणं देसंसि सूरे पढम अमावासं जोएइ ताओ अमावासढाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ताला चउणउई भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरे दोचं अमावासं जोएइ, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमावासं सूरे कसि देसंसि जोएइ ?, ता जंसि णं देससि दोच्च अमावासं जोएइ ताओ अमावासहाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएक छेत्ता चणउइभागे उवाइणावेत्ता तयं अमावासं जोएइ, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसं अमावासं सूरे कसि देससि जोएइ, ता जंसि णं देसंसि सूरे तच्चं अमावासं जोएइ, ताओ अमावासहाणाओ मंडलं चउवीसेर्ण सएणं छेत्ता अहछत्ताले भागसए उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरे दुवालसमं अमावासं जोएई' सम्प्रति शेषास्वमावास्यासु अतिदेशमाह'एवं खल्वि'त्यादि, एतत् प्राग्वव्याख्येयं, सम्प्रति चरमद्वापष्टितमामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पृच्छति-ता एएसिण मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-ता जंसि 'मित्यादि, यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यश्चरमां-द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति तस्मात्पौर्णमासीस्थानात्-पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् देशात् मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्यार्वाक् सप्तचत्वारिंशतं भागान् अवघ्वष्क्य अत्र प्रदेशे स्थितः सन् सूर्यश्वरमा द्वापष्टितमाममावास्यां युनक्ति-परिसमापयति । अथ का पौर्णमासी केन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रः सूर्यो वा परिसमापयतीति प्रष्टुकाम आह ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुण्णमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणंजोएति ?, ता धणिवाहि, धणिलाहाणं तिणि मुहुसा एकूणवीसं च बावविभागा मुहुत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा सा पण्णट्टि चुपिण याभागा सेसा, तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुवाफग्गुणीणं अट्ठावीस मुहुत्ता अट्ठ दीप अनुक्रम [९५-९७] Fhi ~382 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभूत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सर्यप्रज- तीसं च चावट्ठिभागा मुहत्तस्स बावट्टिभागं च सत्तद्विधा मुत्ता दुबत्तीसं चुपिणया भागा सेसा, ता. एएसि १० प्राभूते विवृत्तिः पंचण्हं संवकछराणं दोचं पुण्णमासिणि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता उत्तराहिं पोहवताहिं, उत्त- २२प्राभूत(मल.) राणं पोहचताणं सत्तावीसं मुहुत्ता चोदस य बावहिभागे मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता बावहि- प्राभृते चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं मूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता उत्तराहिं फग्गुणीहिं उत्तराफग्गु-| ॥१८५॥ पूर्णिमामाभणीणं सत्स मुहत्ता तेत्तीसं च वाचट्ठिभागा मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता एकवीसं चुपिणया भागा वास्याः सू६७ &ासेसा, ता एतेसिणं पंचण्हं संबच्छराणं तचं पुण्णिमासिणी चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति?, ता अस्सिणीहिं अस्सिणीणं एकवीसं मुहुत्ता णव य एगट्टिभागा मुहुत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेवहि चुणिया |भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केण णक्खत्तेणं जोएति ?, ता चित्ताहिं, चित्ताणं एको मुहत्तो अट्ठावीस &च बावहि भागा मुहत्तस्स बाबविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तीसं चुणिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचाह संवच्छराणं दुवालसमं पुणिमासिणि चंदे केणं णवत्तेणं जोएति ?, ता उत्तराहिं आसादाहिं, उत्तराणं च आसाढाणं छदुवीसं मुहुत्ता छदुवीसं च बावहिभागा मुहुत्तरस बावहिं भागं च सत्तद्विधा छेत्ता चउपण्णं 4 चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता उत्तराहिं आसाहार्हि, उत्तराणं च ॥१८५॥ आसाढाणं छदुधीसं च यायहि भागा मुहत्तस्स पावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चउपपणं चुपिणया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता पुणवसुणा पुणवसुस्स सोलस मुहुत्ता अट्ठ यवावहि [९८] ~383~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ६७ ] दीप अनुक्रम [८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६७] प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः भागा मुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तट्टिया छेत्ता वीसं चुण्णिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचमहं संवच्छरणं चरमं बावट्ठि पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, उत्तराहि आसादाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुस्सेणं, पुस्सस्स एकूणवीस मुहुत्ता तेतालीसं च | बावट्टि भागा मुहत्तस्स बायद्विभागं च सतद्विधा छत्ता तेत्तीसं चुण्णिया भागा सेसा (सूत्रं ६७ ) ॥ 'ता एएसि ण'मित्यादि, 'ता' इति तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां पौर्णमासीं चन्द्र उपलक्षणमेतत् सूर्यो वा केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् युनक्ति-परिसमापयति ?, भगवानाह - 'ता घणिद्वाहिं' इत्यादि, ता इति-तत्र तेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां पौर्णमासीं चन्द्रः परिसमापयति घनिष्ठाभिः, धनिष्ठानक्षत्रस्य पश्चतारत्यात्तदपेक्षया बहुवचनं अन्यथा त्वेकवचनं द्रष्टव्यं तासां च धनिष्ठानां त्रयो मुहर्त्ताः एकस्य च मुहर्त्तस्य एकोनविंशतिद्वषष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा हिस्वा पञ्चषष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि - पौर्णमा - सीविषयस्य चन्द्रनक्षत्रयोगस्य परिज्ञानार्थं करणं प्रागेवोक्तं, तत्र पद्पष्टिर्मुहर्त्ता एकस्य च मुहर्त्तस्य पक्ष द्वाषष्टिभागा एकः सप्तषष्टिभागः ६६ । । ६७ । इत्येवंरूपो ध्रुवराशिप्रियते, धृत्वा च प्रथमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगो ज्ञातुमिष्ट इत्येकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति तावानेव जातः, तस्मादभिजितो नव' मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिर्द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागत्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोधनकं शोध्यते, तत्र पट्षष्टेर्नव मुहूर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत्, तेभ्य एको मुहत्तों गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीकृतस्ते च द्वापष्टिरपि भागा Jain Estration intumatal F&P On ~384~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभूत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - मूल मामला सूर्यप्रज्ञ- प्रत प्तिवृत्तिः (मल.) ॥१८६॥ ध्येकस्य चद्वापाष्टमी द्वापारमागराता वापष्टिभागराशी पश्वकरूपे प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिषष्टिभागास्तेभ्यश्चतुर्विशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्रिचत्वारिं.४१०प्राभूते शत, एक रूपमादाय सप्तपष्टिभागीक्रियते, ते च सप्तपष्टिरपि भागाः सप्तपष्टिर्भागमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाताः अष्टषष्टिः२२माभूतसप्तषष्टिभागास्तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः स्थिती द्वौ पश्चात्सप्तषष्टिभागौ, ततख्रिशता मुहत्तैः श्रवणः शुद्धः स्थिताः पश्चान्मु- प्राभृते हत्तों षडूविंशतिः, तत इदमागत-धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशतिसमेषु द्वाषष्टिभागे- पूणिमामाबेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पश्चषष्टिसक्येषु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा पौर्णमासी परिसमाप्तिमुपयाति, सम्पति सूर्यनक्ष वास्याः सू६७ त्रयोगं पृच्छन्नाह-'तं समयं च ण'मित्यादि तं समयमित्यत्र 'कालाध्वनोळसा'वित्यधिकरणत्वेऽपि द्वितीया, ततो|ऽयमर्थः तस्मिन् समये यस्मिन् समये धनिष्ठानक्षत्र चन्द्रेण युक्तं यथोक्तशेष परिसमापयति तस्मिन् क्षणे इत्यर्थः, सूर्यः केन नक्षत्रेण युक्तः सन् तां प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति, भगवानाह-'ता पुपाहिं'इत्यादि, ता इति तदा पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्यां, पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वितारत्वात्तदपेक्षया द्विवचनं, द्विवचने च प्राप्ते प्राकृते बहुवचनं, तयोश्च पूर्वफाल्गुन्योस्तदानीमष्टाविंशतिर्मुहुर्ता अष्टात्रिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का द्वात्रिंशधूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि स एव षट्पष्टिमुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इत्येवंप्रमाणो धूवराशिधियते ६९।५ ।। धृत्वा च एकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं | ॥१८६॥ तदेव भवतीति तावानेव जातः, ततस्तस्मात् पुष्यशोधन एकोनविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाप|ष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः १९ । ४३ । ३३ । इत्येवंप्रमाणे शोभ्यते, अर्थतावत्प्रमाणस्य अनुक्रम [९८ ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [६७] दीप अनुक्रम [८] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [२२], प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मूलं [६७] | पुष्यशोधनकस्य कथमुत्पत्तिरिति, उच्यते, इह पूर्वयुगपरिसमाप्तिवेलायां पुष्यस्य त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः परिसमासाचत्वारिंशदवतिष्ठन्ति ततस्ते चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागा मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि १३२०, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः, शेपास्तिष्ठन्ति सप्तचत्वारिंशत् ४७, ते (च) द्वाषष्टिभागानयनाथै द्वापष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि एकोनत्रिंशच्छतानि चतुर्दशोत्तराणि २९१४, तेषां सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धास्त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः । एतद् ध्रुवराशेः शोध्यते, तद्यथा-पट्रपष्टेर्मुहूर्त्तेभ्यः एकोनविंशतिर्मुहर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्सप्तचत्वारिंशत्तेभ्य एको मुहूर्ती गृह्यते स्थिताः षट्चत्वारिंशद्, गृहीतस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागाः कृत्वा द्वाषष्टिभागराशौ पश्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्वाष - | ष्टिभागाः सप्तषष्टिस्तेभ्यस्त्रिचत्वारिंशत् शोध्यन्ते स्थिताः पञ्चाच्चतुर्विंशतिस्तेभ्यः एकरूपमुपादीयते जाता त्रयोविंशतिः गृहीतस्य च रूपस्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते कृत्वा च सप्तषष्टिभागेकमध्ये प्रक्षिष्यन्ते जाता अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागास्तेभ्यस्त्रयस्त्रिंशत् शुद्धाः स्थिताः पञ्चत्रिंशत्, ततः पञ्चदशमुहूर्त्तेरश्लेषा त्रिंशता च मुहूर्त्तेर्मेघा शुद्धा स्थितः पश्चादेको मुहूर्त्त एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोविंशतिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः । १ । २३ । ३५ । तत आगतं - पूर्व फाल्गुनी नक्षत्रस्याष्टाविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु सूर्यः प्रथमां पौर्णमासीं परिसमापयति, एते च सूर्यमुहर्त्ताः एवंभूतैश्च सूर्यमुहस्त्रिंशता त्रयोदश रात्रिन्दिवानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वादश व्यावहारिका मुहर्त्ता भवन्ति, तत एतदनुसारेण गते Fi P&P Us On ~386~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], ------------------ प्राभृतप्राभूत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सत्राक [६७] प्रिज्ञ-18 कदिवसभागगणना शेपस्थितदिवसगणना च पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य स्वयं कर्तव्या, एवमुत्तरसूत्रेष्वपि सूर्यनक्षत्रयोगे परि- १० प्राभृते दभावनीयं । 'ता एएसि 'मित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, उत्त-1४२३ IM२२प्राभृत. (मल०) राभ्यां प्रोष्ठपदाभ्यामत्रापि द्विवचनं उत्तरप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य द्वितारकत्वात् , बहुवचनं च सूत्रे प्राकृतत्वात् , तयोश्च प्रोष्ठ-Ita प्राभृते पूर्णिमामा॥१८७॥ पदयोः सप्तविंशतिर्मुहूर्ताश्चतुर्दश च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एक च द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सस्काश्च वास्याः तुःषष्टिः चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। द्वितीयपौर्णमासीचिन्तायां द्वाभ्यां गुण्यते, मुहूर्तानां जातं द्वात्रिंशतं शतं १३२, एकस्य च मुहूर्तस्य दश द्वापष्टिभागाः १० एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टि|भागी २, ततः पूर्वरीत्या अभिजितो नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्काः पट्पष्टिः सप्तषष्टिभागाः शोध्यन्नो जातं द्वाविंशं शतं मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशताषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य | बयः सप्तपष्टिभागाः १२२ । ४७ । ३ ततविंशता मुहूतैः श्रवणस्त्रिंशता धनिष्ठा पश्चदशभिः शतभिषक् त्रिंशता पूर्वभद्रपदा शुद्धति स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूर्ताः शेषं तथैव १७ । ४७।३ । तत आगतं उत्तरभद्रपदानक्षत्रस्य समषिशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःषष्टौ सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु बिसीया पौर्णमासी परिसमाप्तिमुपैति, सम्प्रत्यस्यामेव पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोग पृच्छति-तं समयं च ण'मित्यादि, सुगम, ॥१८७॥ भगवामाह-ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , उत्तराभ्यां फाल्गुनीभ्यो, तयोश्च उत्तरयोः फाल्गुन्योस्तदानीं द्वितीयपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायां सप्त मुहूर्तात्रयस्त्रिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागं च एक सप्तप अनुक्रम [९८ FitraalMAPINANORN ~387~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [२२], -------------------- मलं [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७] ष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का एकत्रिंशशूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एष ध्रुवराशियिते ६५।५।१ धृत्वा च द्वितीयस्याः पौर्णमास्याः सम्प्रति चिन्तेति द्वाभ्यां गुण्यते जातं द्वात्रिंशं शतं मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य दश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ १३२ । १०।२। तत एतस्मात् पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिर्मुहत्तों एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः १९ । ४३ । ३३ । इत्येवंपरिमाणं पूर्वरीत्या शोध्यते, स्थितं पश्चाद् द्वादशोत्तरं शतं मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्चस्याष्टाविंशतिषिष्टिभागा |एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः ११२ । २८ । ३६ । तता पश्चदशभिर्मुहूत्रश्लेषा त्रिंशता मघा |त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी शुद्धा, स्थिताः पश्चान्मुहर्ताः सप्तत्रिंशच्छेषं तथैव, तत भागतं सूर्येण युक्तमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्र || | सप्तसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयविंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकत्रिंशति सतषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति, अधुना तृतीयपौर्णमासीविषयं चन्द्रनक्षत्रयोगं पृच्छति-ता एएसि 'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह–'अस्सिणीहिं'इत्यादि, अश्विनीनक्षत्रं त्रितारमिति तदपेक्षया बहुवचनं, तदानीं च-तृतीयपोर्णमा|सीपरिसमाप्तिवेलायां अश्विनीनक्षत्रस्य एकविंशतिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य नव द्वापष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभार्ग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काविषष्टिर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि स एव धुवराशिः १० ।५।१ तृतीयपौर्णमासी चिन्त्यमाना वर्तत इति त्रिभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिकं शतं मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चदश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयः सप्तपष्टिभागाः १९८ । १५। ३ तत 'उगुणटुं पोट्टवया' इति वचनात् एकोनपष्ठ्यधिकेन मुह अनुक्रम [९८ ~388~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [२२], -------------------- मलं [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७] ॥१८॥ संशतेन चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पट्या सतषष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानिने षट् नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्ते अष्टात्रिंशन्मुहूर्ता 'एकस्य च मुहूत्र्तस्य द्विपञ्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टि- प्रामतभागस्य चत्वारः सप्तषष्टिभागाः ३८ ॥ ५२।४, ततत्रिंशता मुहूत्रौं रेवतीनक्षत्रं शुद्धं तिष्ठत्यष्टौ मुहूर्तास्तत आगतं चन्द्र- प्राभूते युक्तमश्विनीनक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषष्टी सप्तपष्टि- पूर्णिमामाभागेषु शेषेषु परिसमापयति । सम्प्रत्यस्यामेव तृतीयस्यां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोग पृच्छति-'तं समयं च ण'मित्यादि वास्याः सुगर्म, भगवानाह-'ता चित्ताहिं'इत्यादि, चित्रया युक्तः सूर्यः परिसमापयति, तदानीं च-तृतीय पौर्णमासीपरिसमा- सू६७ सिवेलायां चित्रायामेको मुहर्त एकस्वं च मुहूर्तस्य अष्टाविंशतिषष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का त्रिंशत् चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६५।५।१। सम्पति तृतीयपौर्णमासी चिन्तितेति त्रिभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिक शतं मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चदश द्वापष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य चयः सप्तपष्टिभागाः १९८ । १५ । ३ तत एतस्मात्पुष्यशोधनकं १९ । ४३ । ३३ । पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यते, स्थित | पश्चादष्टसप्तत्यधिकं मुहूर्तानां शतमेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत्सप्तप& टिभागाः १७८ ॥ ३३ ॥ ३७॥ ततः पञ्चाशदधिकेन मुहर्तशतेनाश्लेषादीनि हस्तपर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति, शेषास्तिष्ठन्ति अष्टाविंशतिर्मुहर्चाः शेषं तथैव २८ । ३३ । ३७ । तत आगतं सूर्येण सह सम्प्रयुकं चित्रानक्षत्रमेकस्मिन् । मुर्ते एकस्य च मुहर्चस्याष्टाविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयां पौर्ण-1X अनुक्रम [९८ FitneralMAPINANORN ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [२२], -------------------- मलं [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७] SASANSAR ट्रामासी परिसमापयति । सम्पति द्वादश्यां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगं पृच्छति 'ता एएसि ॥'मित्यादि सुगम, भगवा-1 नाह-'ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, उत्तराभ्यामाषाढाभ्यां द्वादशी पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति, तदानी। च तयोरुत्तरयोराषाढयोः षड्विंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य षडूविंशतिर्दापष्टिभागा एकच द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिया छित्त्वा तस्य सत्काश्चतुःपश्चाशर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१।द्वादशी किल पौर्णमासी चिन्त्यते इति द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य षष्टिष|ष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तपष्टिभागाः ७९२।१०।१२। तत एतस्मात् 'मूले सत्तेव बायाला इत्यादिवचनात्, सप्तभिश्च विचत्वारिंशदधिकमुहर्तानां शतैरेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ततत्रिंशता मुहूर्तेः पूर्वाषाढा, |शेष तिष्ठन्ति अष्टादश मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चत्रिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तपष्टि|भागाः १८॥ ३५१३ तत आगतं चन्द्रेण युक्तमुत्तराषाढानक्षत्रं द्वादशी पौर्णमासी पडूविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुडतस्य पइविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । सम्पत्यस्यामेव द्वादश्यां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोग पृच्छति-तं समयं च ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता पुणवसुणा इत्यादि, |ता इति पूर्ववत्, पुनर्वसुना युक्तः सूर्यः परिसमापयति, तदानीं च-द्वादशीपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायां पुनर्वसुनक्षत्रस्य षोडश मुहूर्चा अष्टी च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एक च द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का विंशतिभूर्णिका भागाः अनुक्रम [९८ 44149 क FitneralMAPINANORN ~390~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सयमम सिवृत्तिः (मल.) प्रत प्राभूते सूत्रांक ॥१८९॥ [६७] शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। द्वादशभिर्गुण्यंते, जातानि सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्साना- १० प्राभृतेमेकस्य च मुहूर्तस्य षष्टिषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ७९३ । ६० । १२, तत पतमा-४२२प्राभूतपुष्यशोधनकं १९ । ४३ ॥१३ पूर्वोक्तप्रकारेण शोभ्यते, स्थितानि पश्चात्सप्त शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहानामेकस्य चा मुहूर्तस्य षोडश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ७७३ । १६॥ ४६, ततः एतस्मा पूर्णिमामासप्तभिः शतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुह नामेकस्य च मुहर्सस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पट्या वास्याः सप्तपष्टिभागैरश्लेषादीनि आापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्ते अष्टाविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुर्तस्या विपश्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः२८ । ५३ । ४७ । तत आगतं पुन-1 सुनक्षत्रं सूर्येण सह योगमुपागतं पोडशसु मुहर्चेषु शेषेषु एकख च मुहूर्तस्याष्टसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु द्वादशी पौर्णमासी परिसमापयति, ( साम्प्रतमस्यामेव द्वापष्टितमायां पौर्णमास्यां चन्दनक्षत्रयोगं पृच्छति)-'ता एएसि ण'मित्यादि सुगर्म, भगवानाह-ता उत्सराहिं'इत्यादि, ता (इति प्राग्वत् ) उत्तराभ्यामापाढाभ्यां युक्तश्चन्द्रवारमा द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिणमयति, तदानीं च-चरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायामुत्तरयोराषाढयोश्वरमसमयः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः६६।५।१। चरमा द्वापष्टितमा पौर्णमासी सम्मति चिन्त्यमाना १ ॥१८॥ वर्तते इति द्वापल्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्व द्वापष्टिभागामा त्रीणि शतानि दशोत्तराणि एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तपष्टिभागाः ४०९२।११०। ५२ तत एतस्माद्, 'असथजगु अनुक्रम + [९८ ॐ Fhi ~391 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत णवीसा सोहणगं उत्तराण साढाणं । चउवीसं खलु भागा छावही चुणियाओ य॥१॥इत्येवंप्रमाणमेकं सकलनक्षत्रपर्यायशोधनकं पश्चभिर्गुणयित्वामोध्यते, तच्च पूर्वोक्किन प्रकारेण शोध्यमान परिपूर्णी शुद्धिमासादयतीति न किश्चित्पश्चादवतिष्ठते, तत आगतं उत्तराषाढानक्षत्रं चन्द्रेण सह युक्तं चरमसमये चरमा द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति । सम्पत्यस्यामेव द्वापष्टितमायां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति-तं समयं चण'मित्यादि सुगमम्, भगवानाह-सा पुस्सेण मित्यादि, पुष्येण युक्त सूर्यश्वरमां द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति, तदानीं च-द्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायामेकोनविंशतिर्मुहर्रास्त्रिचत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुर्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छिस्वा तस्य सत्काखयस्त्रिंशत् चूर्णिकाभागाःशेषाः, तथाहि-1 स एव ध्रुवराशि:६६।५।श द्वाषष्ट्या गुण्यते,जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि एकस्य च मुर्तस्य द्वापष्टिXभागानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तपष्टिभागाः४०९२ । ११ । १२ । इह पुष्यस्य दशमुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशति सप्तपष्टिभागेष्वतिकान्तेषु पाश्चात्य युग परिसमाप्तिमुपैति, तदनन्तरमन्यत् युगं प्रवर्तते, पुष्यस्यापि च तावन्मात्रादतिक्रान्तात् परतो यावद्भः योऽपि तावन्मात्रस्य पुष्यस्वातिक्रम एतावत्प्रमाणः एकः परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायः, तस्य च प्रमाणमष्टौ शतान्येकोनविंश त्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिर्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिभागाः का८१९ । २४ । १५'तत एतत्पञ्चभिर्गुणयित्वा प्रागुक्तात् ध्रुवराशेषिष्टिगुणितात् शोध्यते, तथ परिपूर्ण शुख्यति, |पश्चाच्च राशिनिलेपो जायते, तत आगतं पुष्यस्य सूर्येण युक्तस्य दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागे-| अनुक्रम [९८ ~392~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [२२], -------------------- मलं [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) ॥१९ ॥ अमावास्या सू६८ वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशति सप्तपष्टिभागेष्वतिकान्तेषु एकोनविंशती च मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिच- १.प्राभृते स्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयविंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु चरमा द्वापष्टितमा पार्णमासी परि- २२ प्राभृत| समाप्तिमगमदिति । तदेवं पौर्णमासीविषयश्चन्द्रनक्षत्रयोगः सूर्यनक्षत्रयोगश्चोक्तः, सम्प्रत्यमावास्याविषयं सूर्यनक्षत्रयोग | प्राभूत चन्द्रनक्षत्रयोगं च प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः प्रथमामावास्याविपर्य प्रश्नसूत्रमाह एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति?,ता अस्सेसाहि, अस्सेसार्ण एके || मुलुत्ते चत्तालीसं च याचट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता बावढि चुणिया सेसा, तं समयं । चणं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति?,ता अस्सेसाहिं चेव,अस्सेसाणं एको मुहुत्तो चत्तालीसंच वावहिभागामुहुत्तस्स यावद्विभागं सत्तद्विधा छेत्ता बावधि चुणिया भागा सेसा, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोचं अमावासंx चंदे केणं णक्वत्तेणं जोएति?, ता उत्सराहिं फग्गुणीहि, उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीसं बावद्विभागा मुटुत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पपणहिचुपिणयाभागा सेसा,तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति?, ता उत्तराहि व फग्गुणीहि, उत्तराणं फरगुणीणं जहेब चंदस्स।ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तचं अमावासं चंदे केणं नकखत्तेणं जोएति?,ता हत्थेणं, हत्थस्स चत्तारि मुहुत्ता तीसं च बावडिभागा मुहुत्तस्स ॥१९ ॥ बावहिभागंच सत्तद्विधा छेत्ता वावट्टि चुपिणया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति , |ता हत्थेणं चेव, हत्थस्स जहा चंदस्स, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं चंदे केणं णक्ख [९८ ~393~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: + प्रत सूत्रांक [६८] ॐ45-45645- 5 दीप सणं जोएति ?, अदाहिं, अहाणं चत्तारि मुहत्ता दस य बावहिभागा मुहुत्तस्स पावहिं च सत्तविया ऐसा चउपण्णं चुणिया भागा सेसा । तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएति ?, ता अबाहिं चेव, अदाणं जहा चंदस्स । ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं बावढि अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेर्ण जोएति , ता पुणवसुणा, पुणषसुस्स बावीसं मुहत्ता बायालीसं च यासहिभागा मुहुत्तस्स सेसा । तं समय च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता पुणधसुणा चेव, पुणवसुस्स णं जहा चंदस्स (सूत्रं १८)॥ 'ता एएसि ण'मित्यादि सुगर्म, भगवानाह–ता असिलेसाहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , अश्लेषाभिः सह युक्तश्चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति, अश्लेषानक्षत्रस्य षट्तारत्वात्तदपेक्षया बहुवचनं, तदानी च-प्रथमामावास्थापरिस-1 माप्तिबेलायामश्लेषानक्षत्रस्य एको मुहूर्तश्चत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागं च सक्षषष्टिधा छित्त्वा षट्षष्टिश्यू-I णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। प्रथमामावास्या किल सम्प्रति चिन्त्यमाना वर्तते इत्येकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति तावानेव जातः, तत एतस्मात् "बावीसं च मुहुत्ता छायालीसं विसहि भागा य । एवं पुणषसुस्स य सोहेयवं हवह पुण्णं ॥१॥” इति वचनात् द्वाविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते, तत्र षट्पष्टेमुहूर्तेभ्यो द्वाविंशतिर्मुहतो शुद्धाः, स्थिताः पश्चाच्चतुश्चत्वारिंशत् ४४, तेभ्य एकमुहूर्तमपेक्ष्य तस्य द्वापष्टिभागाः कृताः, ते द्वापष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता सप्तषष्टिः, तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः, शेषास्तिष्ठन्ति एकविंशतिः, त्रिचत्वारिंशतो मुहूर्तेभ्यस्त्रिंशता पुष्यः शुद्ध, +5 अनुक्रम 45% +5 [९९] +5 % 8456 % FhiralMAPIMIREUMORE ~394~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ६८ ] दीप अनुक्रम [९] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [ ६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥१९१॥ स्थिताः पश्चात्रयोदश मुहूर्त्ता, अश्लेषानक्षत्रं वार्द्धक्षेत्रमिति पञ्चदशमुहूर्त्तप्रमाणं तत इदमागतं - अश्लेषा नक्षत्रस्य एकस्मिन् मुहूर्त्ते चत्वारिंशति मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य षट्षष्टिभागेषु शेषेषु प्रख| मामावास्या समाप्तिमुपगच्छति । सम्प्रत्यस्यामेव प्रथमायाममावास्यायां सूर्यनक्षत्रं पृच्छति -- 'तं समयं च णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता असिलेसाहिं चेवेत्यादि, इह य एवास्याममावास्यायां चन्द्रनक्षत्रयोगे ध्रुवराशिर्यदेव शोधनकं स एव सूर्यनक्षत्रयोगविषयेऽपि ध्रुवराशिस्तदेव च शोधनकमिति तदेव सूर्यनक्षत्रयोगेऽपि नक्षत्रं तावदेव च 'तस्य नक्षत्रस्य शेषमिति, तदेवाह – अश्लेषाभिर्युक्तः सूर्यः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति, तस्यां च परिसमाप्तिवेलायामश्लेषाणामेको मुहूर्त्त एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः शेषाः । द्वितीयामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह- 'ता एएसि ण'मित्यादि सुगमं, भगवानाह - 'ता उत्तराहिं' इत्यादि, उत्तराभ्यां फाल्गुनीभ्यां युक्तः चन्द्रो द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति, तदानीं च-अमावास्यापरिसमाप्तिवेलायामुत्तरायाः फाल्गु न्याश्चत्वारिंशन्मुहूर्त्ताः पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः मुहर्त्तस्य द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः पञ्चषष्टिश्भूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-- स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । द्वाभ्यां गुण्यते, जातं द्वात्रिंशदधिकं मुहूर्त्तानो शर्त, एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागा दश एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य द्वौ चूर्णिकाभागी । १३२ । १०।२ । तत्र प्रथमं पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते, द्वात्रिंशदधिकमुहूर्त्तशतात् द्वाविंशतिर्मुहर्त्ताः शुद्धाः स्थितं पश्चादशोत्तरं शतं, तेभ्योऽप्येको मुहर्त्ते गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीक्रियते, कृत्वा च ते द्वाषष्टिभागा द्वाषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्विसप्तति ation Intimational F&P On ~395~ 4 १० प्राभृते २२ प्राभृत प्राभृते अमावास्यानक्षत्राणि सू ६८ ॥१९१॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - मूल शरि-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [६८] कर दीप भाषष्टिभागास्तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः स्थिताः पश्चात् षड्विंशतिः, नवोत्तराच्च मुहूर्तशतात् त्रिंशता पुष्यः शुद्धः, स्थिताः पश्चादेकोनाशीतिः, ततोऽपि पश्चदशभिर्महरश्लेषा शुद्धा, स्थित पश्चाच्चतुःषष्टिः, ततोऽपि विंशता मघाः शुद्धाः || स्थिता चतुस्त्रिंशत्, ततोऽपि त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी शुद्धा, स्थिताः पश्चात् चत्वारः, उत्तरफाल्गुनीनक्षत्र व्यर्द्धक्षेत्रमिति भापश्चचत्वारिंशन्मुहूर्तप्रमाण, तत इदमागत-उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य चन्द्रयोगमुपागतस्य चत्वारिंशक्ति मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहू स्य पञ्चत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिधा छिन्नस्य पञ्चपष्टौ चूर्णिकाभागेषु शेषेषु द्वितीयामावास्या समाप्तिं याति । सम्प्रति अस्यामेव द्वितीयस्याममावास्थायां सूर्यनक्षत्रं पृच्छति-तं समयं च ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , उत्सराभ्यामेव फाल्गुनीभ्यां युक्तः सूर्यों द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति, तदानीं च-द्वितीयामावास्यापरिसमाप्तिवेलायामुत्तरायाः फाल्गुन्याः 'तहेव जहा चंदस्स'त्ति यथा चन्द्रस्य विषये उक्तं तथैवात्रापि विपये वक्तव्यं, तद्यथा-'चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बावहिभागा मुहुत्तस्स पावहिभागं च सत्तहिहा छित्ता पण्णवि चुण्णिाभागा सेसा' इति, पतञ्चोभयोरपि चन्द्रसूर्ययोर्नक्षत्रयो परिज्ञानहेतोः करणस्य समानत्वादवसेयम् । तृतीयामावास्याविषयं प्रभसूत्रमाह–ता एएसि 'मित्यादि, सुगम, भगवामाह-ता इत्येण'इत्यादि, हस्तेन युक्तश्चन्द्रस्तृतीयामावास्यां परिसमापयति, तदानी हस्तस्य चत्वारो मुहूर्ताविंशच द्वापष्टिभागा मुर्तस्य द्वापष्टिभागं चैक सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सस्काश्चतुःषष्टिश्चर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि स एव धुवराशिः ५५।५।१तृतीयस्था अमावास्यायाः सम्प्रति चिन्तेति त्रिभिर्गुप्यते, जातमष्टानवत्यधिकं शतं मुहूर्तानामेकस्य च मुहस्य पश्चदश द्वापष्टि अनुक्रम [९९] ~396~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཊཡྻཱ ཡྻ [ ६८ ] अनुक्रम “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६८] प्राभृत [१०], • प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः ॥१९२॥ सूर्यप्रज्ञ- ४ भागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः १९८ । १५ । ३ तत एतस्माद् द्विसप्तत्यधिकेन मुहूर्त्तशतेन षट्च ४ १० प्राभृते सिवृत्तिः । त्वारिंशता च मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागैरश्लेषादीनि उत्तराफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि पञ्चादवतिष्ठन्ते पञ्चविंश( मल०) २ तिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकत्रिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः २५ । ३१ । ३ । तत आगतं हस्तनक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योगमुपागतस्य चतुर्षु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःषष्टी सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयाममावास्यां परिसमापयति । अत्रैव सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'तं समयं च णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता हत्थेणं चेव'ति हस्तेनैव नक्षत्रेण युक्तः सूर्योऽप्यमावास्यां तृतीयां परिसमापयति, एतच्चोभयोरपि करणस्य समानार्थत्यादवसेयं एवमुत्तरसूत्रयोरपि द्रष्टव्यं शेषपाठविषयेऽतिदेशमाह- ४ 'हत्थस्स जं चैव चंदस्स' यथा चन्द्रस्य विषये हस्तस्य शेष उक्तः तथा सूर्यस्यापि विषये वक्तव्यः, स चैवम्- 'हत्थस्स चत्तारि मुहुत्ता तीसं चेव चावद्विभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सप्तsिहा छित्ता बावट्ठी चुण्णिया भागा सेसा' इति, सम्प्रति द्वादशामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह- 'ता एएसि णमित्यादि सुगमं, भगवानाह - 'ता अद्दाहिं' इत्यादि, आईया युतश्चन्द्रो द्वादशीममावास्यां परिसमापयति, तदानीं चार्द्रायाश्चत्वारो मुहर्त्ता दश मुहर्त्तस्य द्वाषष्टिभागा द्वाष|ष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा चतुःपञ्चाशचूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-- स एव ध्रुवराशि:- ६६ । ५ । १ । द्वाद| श्यमावास्या चिन्त्यमाना वर्त्तते इति द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य पष्टिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ७९२ । ६० । १२ । एतस्माञ्चतुर्भिः शतैः । Jan Eaton intimatinal F&P Onl ~397~ २२ प्राभृत प्राभृते अमावास्या नक्षत्राणि सू ६८ ॥१९२॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत द्विचत्वारिंशदधिकर्मुहुर्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य पट्चत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरश्लेषादीनि उत्तराषाढापर्यन्तानि नामाणि हैद्धानि स्थितानि पश्चात्रीणि शतानि पश्चाशदधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्दश द्वापष्टिभागा पकस्य चदापछि भागस्य द्वादश सप्तपष्टिभागाः ३५०११४॥ १२ ततखिभिः शतेनेवोत्तरेहानामेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्थ षट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि रोहिणीपर्यन्तानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाचत्वारिंशन्मुहर्चाः एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्प त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः ४० । ५९ ॥ १३॥ तक ख्रिशता मुहूर्तमंगशिरः शुद्धः, स्थिताः पश्चाद्दश मुहूर्ताः, शेषं तथैव १०। ५१।१३। तत आगतं आनिक्षत्रस्य चन्द्रेण | सह संयुक्तस्य चतुर्पु मुरःषु एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुष्पश्चाशति सप्तपछिमागेष्टा ४।१०।५४ । शेषेषु द्वादशी अमावास्या परिसमाप्तिमियर्ति, सम्प्रति सूर्यविषये प्रश्नमाह-तं समयं चाणमित्यादि, सुगम, भगवानाह–ता अहाए चेव आर्द्रयैव युक्ता सूर्योऽपि द्वादशीममावास्यां परिसमापयति, शेषपाठविषयेऽतिदेशमाह-अदाए जहा चन्दस्स' यथा चन्द्रविषये आोयाः शेष उक्तस्तथा सूर्यविषयेऽपि वक्तव्यः, स चैवम्-अहाए। चतारि मुहत्ता दस य वावविभागा मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता चप्पण्णं चुणिया भागा सेसा' इति । परमद्वाषष्टितमामावास्याविषयं प्रश्नमाह-'ता एएसि 'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-ता पुणवसुणा इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, पुनर्वसुना युक्तश्चन्द्रश्चरमा द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, तदानीं च-चरमद्वाषष्टितमामावास्थापरिसमाप्तिवेलायां पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वाविंशतिर्मुहर्ताः षट्चत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य शेषाः, तथाहि-सा एक ESSESSIES अनुक्रम [९९] ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६८] सूर्यप्रज्ञ-18ध्रुवराशिः ६६ । ५1१। द्वापट्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि एकस्य च मुहर्चस्य १० प्राभृते विवृत्तिःलाद्वापष्टिभागानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वापष्टिः सप्तपष्टिभागाः ४०९२ । ३१ । १२२२ प्राभृत(मल) तत एतस्मात् चतुर्भिः शतैर्द्विचत्वारिंशदधिकैर्मुहानामेकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वापष्टिभागैः प्रथम शोधनका प्राभृते शुद्ध, जातानि पत्रिंशच्छतानि पञ्चाशदधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य देशाते चतुःषष्यधिके द्वाषष्टिभागानामे-12 अमावास्याकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वापष्टिः सप्तषष्टिभागाः ३६५० । २६४ । ६२ । ततोऽभिजिदाद्युत्तराषाढापर्यन्तसकलनक्षत्रप नक्षत्राणि पर्यायविषयं शोधनकमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिभागाः ८१९ । २४ । ६६ । इत्येवंप्रमाणं चतुर्भिर्गुणयित्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चापात्रीणि शतानि चतुःसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुःषध्यधिक तं द्वापष्टिभागानामेकस्य च द्वापष्टि भागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागाः ३७४ । १६४ । ६६ । ततो भूयस्त्रिभिः शतैर्मुहुर्तानां नवोत्तरैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुविशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य द्वाषष्टिभागस्य च षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैः ३०९।२४ । ६६ । अभिजिदादीनि रोहिणीपर्यन्ताति शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तपष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः ६७ । १६ । ततत्रिंशता मुहूतैर्मृगशिरः पञ्चदशभिरार्दा शुद्धा, स्थिताः शेषा द्वाविंशतिर्मुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पोडश द्वापष्टिभागाः २२, ॥१९३॥ तत आगते चंद्रेण सह संयुक्तं पुनर्वसुनक्षत्र द्वाविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु शेषेषु । लाचरमा द्वापष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, सूर्यविषयं प्रश्नमाह-तं. समयं च ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह ACAN सू६८ दीप अनुक्रम [९९] ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६८] दीप 'ता पुणवसुणा चेव' सूर्योऽपि पुनर्वसुना चैव सह योगमुपागतः चरमा द्वाषष्टितमाममावास्यां परिणमयति, शेषविषये-18 ऽतिदेशमाह-'पुणवसुस्स णं' यथा चन्द्रस्य विषये पुनर्वसोः शेष उक्त तथा सूर्यस्यापि विषये वक्तव्यः, स चैवम्DI'पुणवसुस्स बावीस मुहुत्ता छायालीसं च बावहिभागा मुहत्तस्स सेसा' इति । ता जेणं अज्ज णक्खतेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि से णे इमाणि अट्ठ एकूणवीसाणि मुहत्तसताई चवीसं च बावट्ठिभागे मुटुत्तस्स बावडिभागं च सत्ताहिया छेत्ता बावहिं धुपिणयाभागे उवायिणावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं सरिसएणं चेव णक्खत्तेणं जोयं जोएति अण्णंसि देसंसि, ताजेणं अज्जणखत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि से णं इमाई सोलस अट्टतीसे मुहुत्तसताई अणापण्णं च यावडिभागे मुहत्तस्स यावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पण्णहि चुणियाभागे उवायिणावेत्ता पुणरवि से णं चंदे तेणं चेव णक्खतेणं जोयं जोएति अण्णंसि देसंसि, ता जेणं अजणक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देससि से णं इमाई चउप्पण्णमुहुत्तसहस्साई णव य मुहुत्तसताई उवादिणावित्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं तारिसएक जोयंजोएति तंसि देसंसि, ताजेणं अजणक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसिरदेसंसि (से णं इमाइं एग लक्ख नव य सहस्से अह य मुहुत्तसए उचायिणा वित्ता पुणरवि से चंदे तेण णक्खत्तेणं जोयं जोएइ तंसि देसंसि )। ता जेणं अजणक्खत्तेणं सूरे जोयं जोएति जसिं देसंसि से णं इमाई तिणि छावट्ठाईराईदियसताई उवादिणावेत्ता पुणरवि से सूरिए अण्णेणं तारिसएणं चैव नक्खंत्तेण जोयं जोएति तंसि देसंसि, ताजेणं अज्जनक्खत्तेणं अनुक्रम [९९] % SS Fhi ~400~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ६९ ] दीप अनुक्रम [१०० ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ६९ ] प्राभृत [१०], • प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥१९४॥ Eatont सूरे जो जोएति तंसि देसंसि से णं इमाई सत्तदुबीसं राईदियसलाई उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरे तेणं २१० प्राभृते चैिव नक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि देसंसि, ता जेणं अजणक्खसेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि से णं ४ २२ प्राभूतप्राभते इमाई अट्ठारस बीसाई राईदिवसताई उबादिणावेत्ता पुणरवि सूरे अण्णेणं चेव णक्ख सेणं जोयं जोएति तादृगन्यतंसि देसंसि, ता जेणं अणक्खसेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि तेण इमाई छत्तीसं सद्वाई राईदियस नक्षत्रयोगः याई उवाइणाविता पुणरवि से सूरे तेणं चेच णक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि देसंसि ( सूत्रं ६९ ) ।।। सू ६९ सम्प्रति यन्नक्षत्रं तादृशनामकं तदेव वा तस्मिन्नेव देशेऽन्यस्मिन् वा यावता कालेन भूयश्चन्द्रेण सह योगमुपागच्छति तावन्तं कालं निर्द्दिदिक्षुराह--'ता जेणं अज्ज नक्खत्तेणं' इत्यादि, ता. इति पूर्ववत्, येन नक्षत्रेण सह चन्द्रो य-विवक्षिते दिने योगं युनक्ति-करोति यस्मिन् देशे स चन्द्रो णमिति वाक्यालङ्कारे इमानि वक्ष्यमाणसज्ञाकानि तान्येवाद-अष्टौ मुहूर्त्तशतानि एकोनविंशानि - एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिं द्वाषष्टिभागान् एकस्थ च द्वाषष्टिभागस्य षट्रपछि सप्तषष्टिभागानुपादाय गृहीत्वा अतिक्रम्येत्यर्थः पुनरपि स चन्द्रोऽन्येन द्वितीयेन सहनाना नक्षत्रेण योगं युनक्ति अन्यस्मिन् देशे, इयमत्र भावना-इह चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां मध्ये नक्षत्राणि सर्वशीम्राणि तेभ्यो मन्दगतयः सूर्यास्तेभ्योऽपि मन्दगतयश्चन्द्रमसः, एतच्चाग्रे स्वयमेव प्रपञ्चयिष्यति, पट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि प्रतिनियतापाअन्तरालदेशानि चक्रवालमण्डलतया व्यवस्थितानि सदैव एकरूपतया परिभ्रमन्ति, तत्र किल युगस्यादावभिजिता नक्षत्रेण सह योगमधिगच्छति चन्द्रमाः, स च योगमुपागतः सन्ः शनैः शनैः पश्चादवष्वष्कते तस्य नक्षत्रेभ्योऽतीव मन्द F&P Us On ~ 401 ~ ॥ १९४ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ६९ ] दीप अनुक्रम [१०० ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [ ६९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Eatont गतित्वात्, ततो नवानां मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहर्त्तस्य चतुर्विंशतेर्द्वाषष्टिभागानामेकस्य च द्वाष्टिभागस्व पटूप स ष्टिभागानामतिक्रमे पुरतः श्रवणेन सह योगमायाति, ततस्ततोऽपि शनैः शनैः पश्चादवष्वष्कमानस्त्रिंशता मुहूः अदणेन सह योगं समाप्य पुरतो घनिष्ठया संह योगमुपगच्छति, एवं स्वं स्वं कालमाचक्ष्य सर्वैरपि नक्षत्रैः सह योगस्ताच वक्तव्यो यावदुत्तराषाढा नक्षत्रयोगपर्यन्तः, एतावता च कालेनाष्टी मुहूर्त्तशतानि एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा अभवन्, तथाहि--- पडू नक्षत्राणि पश्चचत्वारिंशम्मुहूर्त्तानीति षट् पञ्चचत्वारिंशता गुण्यंते, जाते द्वे शते सप्तत्यधिके २७०, पट् च नक्षत्राणि पञ्चदशमुहूर्त्तनीति भूयः षण्णां प दशभिर्गुणने जाता नवतिः ९०, पञ्चदश त्रिंशन्मुहूर्त्तानीति पञ्चदश त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि पञ्चाशदधिकानि ४५०, अभिजितो नव मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिर्द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ठिः सप्तषष्टिभागा इति भवति सर्वेषामेकत्र मीलने यथोक्ता मुहूर्त्तसङ्ख्या, एष एतावान्, नक्षत्रमासः, ततस्तदनन्तरं यदभिजिनक्षत्रं अतिक्रान्तं तदपरेण द्वितीयेनाभिजिता नक्षत्रेण सह नव मुहूर्त्तादिकालं योगमुपागच्छति, ततः परमपरेण द्वितीयाष्टाविंशतिसम्बन्धिना श्रवणेन सह योगमनुते, एवं पूर्ववत् तावद्वाच्यं यावदुत्तराषाढा, तदनन्तरं भूयः प्रथमेनैवाभिजिता नक्षत्रेण सह योगं याति, ततः प्रागुक्तक्रमेण श्रवणादिभिः, एवं सकलकालमपि ततो विवक्षिते दिने यस्मिन् देशे येन नक्षत्रेणे योगमममञ्चन्द्रमाः स यथोकमुहूर्तमयातिक्रमे भूयः तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे योगमादत्ते न तेनैव नापि तस्मिन् देशे इति, तथा 'ता जेण'मित्यादि, अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह F&PO ~ 402~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ६९ ] दीप अनुक्रम [१०० ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) • प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [ ६९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञठिवृत्तिः ( मल० ) ॥ १९५॥ योगं युनक्ति यस्मिन् यस्मिन् देशे चन्द्रमाः स इमानि वक्ष्यमाणसङ्ख्याकानि तान्येवाह--- षोडश मुहूर्त्तशतानि अष्टात्रिंशदधिकानि एकोनपञ्चाशतं द्वाषष्टिभागान् मुहूर्त्तस्य एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा हित्वा तस्य सत्कान् पञ्चषष्टिं चूर्णिकाभागानुपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि स चन्द्रस्तेनैव नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति, परमन्यस्मिन् देशे, न तु तस्मिन्नेव, कुत इति चेत्, उच्यते, इह भूयस्तस्मिन्नेव देशे तेनैव नक्षत्रेण सह योगो युगद्वयकालातिक्रमे यथार्थः) केवल वेदसा ज्योतिश्चक्रगतेरुपलब्धः, जम्बूद्वीपे च षट्पञ्चाशदेव नक्षत्राणि, ततो विवक्षितनक्षत्रयोगे सति तत आरभ्य पट्पञ्चाशनक्षत्रा- ४ तिक्रमे तेन नक्षत्रेण सह योगमादत्ते, षट्पञ्चाशन्नक्षत्रातिक्रमश्च प्रागुक्ताष्टाविंशतिनक्षत्र मुहूर्त्तसङ्ख्याद्विगुणसाया, तत उक्तं- 'सोलस अडतीस मुहुत्ससया' इत्यादि । तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे यावता कालेन भूयोऽपि योग उपजायते तावान् कालविशेष उक्तः, सम्प्रति तस्मिन्नेव देशे तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह भूयोऽपि ४ योगो यावता कालेन भवति तावन्तं कालविशेषमाह-'ता जेणं अज्ज नक्खन्तेणं' इत्यादि, अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह योगं चन्द्रो युनक्ति यस्मिन् देशे सः- चन्द्रमा इमानि वक्ष्यमाणसङ्ख्याकानि तान्येवाह-चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्त्त सहस्राणि नव मुहूर्त्तशताम्युपादाय - अतिक्रम्य पुनरपि स चन्द्रोऽन्येन तादृशेनैव नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति तस्मिन्नेव देशे, इयमंत्र भावना-विवक्षिते युगे विवक्षितानामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये येन नक्षत्रेण सह यस्मिन् देशे यदा चन्द्रमसो योगो जातो भूयस्तस्मिन्नेव देशे तदैव तेनैव नक्षत्रेण सह योगो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे, न तु द्वितीये, कुत इति चेत्, उच्यते, इह युगादित आरभ्य प्रथमे नक्षत्रमासे यान्येकान्यष्टाविंशर्ति नक्षत्राणि समतिक्रामति द्वितीयेन नक्षत्रमासेन Jan Eatoninamaal F&P On ~ 403~ १० प्राभृते २२ प्राभृतप्राभृते ताइगन्यनक्षत्रयोगः सू. ६९ ॥ १९५॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 575 प्रत तेभ्योऽपराणि द्वितीयानि ततो भूयस्तृतीयेन नक्षत्रमासेन तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि चतुर्थेन भूयस्तान्येव द्वितीयानि एवं सकलकालं, युगे च नक्षत्रमासाः सप्तपष्टिः, सा च सप्तषष्टिसङ्ख्या विषमेति विवक्षितयुगपरिसमाक्षावन्यस्य युगस्य प्रारम्भे यानि विवक्षितयुगस्यादौ भुक्तानि नक्षत्राणि तेभ्योऽपराण्येव द्वितीयानि भोगमायान्ति, न तु तान्येव, युगद्वये च चतुस्त्रिंशन्नक्षत्रमासशतं भवति, सा च चतुस्त्रिंशन्नक्षत्रमासशतसङ्ग्या समेति द्वितीययुगपरिसमाप्तौ षट्पञ्चाशदपि नक्षत्राणि समाप्तिमुपयान्ति, ततो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे तेनैव नक्षत्रेण तस्मिन्नेव देशे तदा चन्द्रमसो योगः, युगे चाहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि एकैकस्मिंश्चाहोरात्रे मुहू स्त्रिंशत्ततोऽष्टादशानां शतानां त्रिंशदधिकानां त्रिंशता गुणने भवति यथोक्ता मुहूर्तसङ्ख्या, यथोक्तमुहूर्तसङ्ख्यातिक्रमे च ताशेनैव नक्षत्रेण सह योगः चन्द्रमसस्तस्मिन्नेव देशे न तु तेन नक्षत्रेणान्यस्मिन् वा देशे इति, 'ता जेण'मित्यादि, इदं सूत्रमक्षरार्थमधिकृत्य सुगम, भावना तु प्रागेव कृता, नवरं युगद्वयकालः पत्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि अहोरात्राण्यामेकैकस्मिंश्चाहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता माइति पत्रिंशच्छतानां पश्यधिकानां विंशता गुणने यथोक्ता मुहूर्तसक्या भवति । तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सहा न्यस्मिन् तस्मिन् [अन्यस्मिन् वा देशे चन्द्रमसो योगकालप्रमाणमुक्तम् , सम्पति सूर्यविषये तदाह-'ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह सूर्यो यस्मिन् देशे योगं युनक्ति स इमानि त्रीणि षट्पट्याधिकानि रात्रिन्दिवशतानि उपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि स सूर्यस्तस्मिन्नेव देशे तादृशेनैवान्येन नक्षत्रेण योगं युनक्ति न तु तेनैव, कुत इति चेत्, उच्यते, इह चन्द्रो नक्षत्रमासेनैकेनाष्टाविंशति नक्षत्राणि भुले, सूर्यस्तु विभिरहोरात्रशतैः षट्पध्यधिक, अनुक्रम [१००] S Fhi ~404~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [६९]] सू६९ दीप सूर्यप्रज्ञ- त्रीणि चाहोरात्रशतानि षट्पट्यधिकानि एकः सूर्यसंवत्सरः, ततोऽन्यस्त्रिभिरहोरात्रशतैः षषष्ट्यधिकैरन्यानि द्वितीया- प्राभूते तिवृत्तिःल न्यष्टाविंशतिं नक्षत्राणि परिभुते, तदनन्तरं भूयस्तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशतिं नक्षत्राणि तावत्याहोरात्रसजाया क्रमेण २२ प्राभूत(मल.) युनक्ति, ततः षषष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयातिक्रमेण सूर्यस्य तस्मिन्नेव देशे तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह योगो न तु प्राभृते ॥१९६॥ तेनैव, 'ता जेण'मित्यादि, इदं सूत्रमक्षरार्धं प्रतीत्य सुगम, भावना तु प्रागेव कृता,ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, ताहगन्यअद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह सूर्यो यस्मिन् देशे योगं युनक्ति स इमानि अष्टादश रानिन्दिवशतानि त्रिंशतानि-1 नक्षत्रयोग: त्रिंशदधिकानि उपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि तस्मिन्नेव देशेऽन्येनैव तादृशेन सह योगं युनक्ति, न तु तेनैव, कस्मादिति चेत् , उच्यते, इह राबिन्दियानामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि युगे भवन्ति, तत्र सूर्यो विवक्षिताद्दिनादारभ्य तस्मिनेव देशे तदैव दिने तेनैव नक्षत्रेण सह योगमागच्छति तृतीयसंवत्सरे, युगे च सूर्यवर्षाणि पश्च, ततस्तृतीये पश्चमे वाला सूर्यसंवत्सरे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण तस्मिन्नेव काले योगमादत्ते न तु युगातिक्रमे षष्ठे वर्षे इति, 'सा जेण'मित्यादि, सुगम, नवरं पत्रिंशद्रात्रिन्दिवशतानि पश्यधिकानि युगद्वये भवन्ति, युगद्वये च दश सूर्यनक्षत्राणि (प्रथा ६०००) ततो युगद्वयातिकमे एकादशे वर्षे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण सह तस्मिन्नेव देशे योग उत्पद्यते इति । इह जम्बूलीपे हो। चन्द्रमसी द्वौ सूर्यो, एकैकस्य चन्द्रमसो भिन्नो ग्रहादिकः परिवार इति श्रुत्वा कश्चिदेवमपि मन्येत यथा भिन्नकाल मण्ड G ॥१९६॥ लेषु चन्द्रादीनां गतिर्भिन्नकालं च तेषां नक्षत्रादिभिः सह योग इति, ततस्तदाशङ्कापनोदार्थमाहM ता जया णं इमे चं.गतिसमावण्णए भवति तताणं इतरेवि चंदे गतिसमावपणए भवति, जताणे इतरेवि-13 अनुक्रम [१००] Fhi ~405 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप चंदे गतिसमावपणए भवति तता गं इमेवि चंदे गतिसमावण्णए भवति, ता जया णं इमे सूरिए गहसमावणे भवति तया णं इतरे सूरिए गइसमावणे भवति जता णं इतरे सूरिए गतिसमावण्णे भवति तया णं इमेवि सूरिए गइसमावण्णे भवति, एवं गहेवि णक्खत्तेवि, ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं भवति तता लणं इतरेवि चंदे जुत्ते जोगेणं भवति, जया णं इयरे चंदे जुत्ते जोगेणं भवइ तताणं इमेवि चंदे जुत्ते जोगे गं भवति, एवं सूरेवि गहेवि णक्वत्तेवि, सताविणं चंदा जुत्ता जोएहिं सतावि णं सूरा जुत्ता जोगेहिं सयावि णं गहा जुत्ता जोगेहिं सयावि णं नक्खत्ता जुसा जोगेहिं दुहतोवि णं चंदा जुत्ता जोगेहिं दुहतोविणं सूरा जुत्ता जोगेहिं दुहतोवि णं गहा जुत्ता जोगेहिं दुहतोविणं णक्खत्ता जुत्ता जोगेहिं । मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउताए सतेहिं ऐत्ता इस णवखत्ते खेत्तपरिभागे णक्वत्तविजए पाहुति आहितेत्तियेमि (सर्व ७०) दसमस्स पाहुडस्स बावीसतिमं पाहुडपाहर्ड समत्तं ॥ दसमं च पाहढं समतं। 'ता जया णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , यस्मिन् कालेऽयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो भरतक्षेत्र प्रकाशयन् विवक्षितश्चन्द्रो विवक्षिते मण्डले इति गम्यते गतिसमापन्नो-गतियुक्तो भवति तदा-तस्मिन् काले इतरोऽपि-ऐरावतक्षेत्र प्रकाशयन् विवक्षितश्चन्द्रः तस्मिन्नेव विवक्षिते मंडले गतिसमापन्नो भवति, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं एवं गहेवि एवं नक्खत्तेवित्ति एवं-उक्तप्रकारेण ग्रहेऽपि द्वावालापको वक्तव्यौ नक्षत्रेऽपि च, तद्यथा-'जया इमे गहे गह| समावन्ने हवइ तया ण इतरेविगहे गइसमावन्ने भवइ, ताजयाणं इयरेगहे गइसमावन्ने भवइ तयाणं इमेविगहे गतिसमावण्णे अनुक्रम [१०१] JAINERatinintimalsina F OR ~406~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूयमजतिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक [७०] १०प्राभृते २२ प्राभृतप्राभृते चन्द्रादे: सर्वत्र समयोगिता सू७० ॥१९७॥ दीप अनुक्रम [१०१] भवई' एवं नक्षत्रेऽपि वाच्यं, 'ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेण'मित्यादि, सुगम, नवरं 'दुहतोवित्ति उभयतोऽपि दक्षिणो- चरयोः पूर्वपश्चिमयो, 'मण्डलं सयसहस्सेण'मित्यादि, अस्मिन्नक्षत्रविचये-नक्षत्रविचयनाम्नि द्वाविंशतितमे प्राभृतमाभृते इत्येष नक्षत्रक्षेत्रपरिभाग आख्यातो मण्डलं स्वेन स्वेन कालेन षट्पञ्चाशता नक्षत्रैर्यावन्मात्रं क्षेत्र व्याप्यमानं सम्भाव्यते ताव- न्मानं बुद्धिपरिकस्पितं शतसहस्रेण-लक्षेण अष्टनवत्या च शतैछित्त्वा-विभज्य ब्याख्यातः,एतच्च प्रागेव भावितं, इतिवेमि- त्ति' इति-एतत् अनन्तरोक्तं भगवदुपदेशेन ब्रवीमीति अन्धकारवचनमेतत् , यद्वा भगवद्धचनमिदं शिष्याणां प्रत्ययदायोत्पादनार्थ यथा इति-एतत् अनन्तरोक्तमहं ब्रवीमीति, ततः सर्वे सत्यमिति प्रत्येतव्यमिति ।..... इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशम-प्राभृतस्य प्राभृतप्राभृतं- २२ समाप्तं तदेवमुक्त दशम प्राभृतं साम्प्रतमेकादशमारभ्यते, तस्य चायमथोधिकारो यथा 'संवत्सराणामादिवक्तव्यः इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते संवच्छराणादी आहितेति वदेजा, तत्थ खलु इमे पंच संबच्छरे पं००-चंदे २ अभिवहिते चंदे अभिवहिते, ता एतेसि णं पंचण्ह संवच्छराणं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स के आदी आहितेति वदेज्जा?, ता जेणं पंचमस्स अभिवहितसंवच्छरस्स पज्जवसाणं से णं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स आदी अर्णतरपुरक्खडे समए तीसेणं किंपज्जवसिते आहितेति वदेखा?, ताजेणं दोचस्स आदी चंदसंवच्छरस्स सेणं पढमस्स चंदसंब +4G ॥१९॥ Fitwe अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २२ परिसमाप्तं तत्समाप्ते दशमं प्राभृतं अपि परिसमाप्तं • अथ एकादशं प्राभतं आरभ्यते . ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत सूत्रांक [७१] च्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता उत्तराहिं आसादाहिं, उत्तराणं आसाढाणं छदुवीसं मुहुत्ता छवीसं च बावडिभागा मुहुत्तस्स वावहिभागं च सत्तद्विधा छित्ता चउप्पण्णं चुण्णियाभागा सेसा, तं समयं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता पुणवसुणा, पुणवसुस्स सोलस मुलुत्ता अह य वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावहिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता वीसं चुण्णियाभागा सेसा । ता एएसिणं पंचण्हं संचच्छराणं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स के आदी आहितेति वदेजा?, ता जेणं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं दोचस्स णं चंदसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समये, ता से णं किंपज्जवसिते आहितेति वदेजा ?, ता जे णं तच्चस्स अभिवडियसंवच्छरस्स आदी से णं दोचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुचाहिं आसाढाहिं, पुवाणं आसाहाणं सत्त मुहुत्ता तेवण्णं च बावडिभागा मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता इगतालीसं चुण्णियाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता पुणवसुणा, पुणसुस्स णं यायालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सत्त चुणिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचण्हं संबच्छराणं तच्चस्स अभिवहितसंवच्छरस्स के आदी आहिताति वदेजा, ता जे दोबस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं तबस्स अभिवहितसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समए, ता से णं किंपज्जवसिते आहितति वदेज्जा ?, ता जे णं चजस्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी टीप ॐॐॐॐ75453 अनुक्रम [१०२] ~408~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत [F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१] A से गं तच्चस्स अभिवद्वितसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए । तं समयं च णं चंदे केणं णक्ख-४१० प्राभृते प्तिवृत्तिःत्तेणं जोएति , ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं तेरस मुहुत्ता तेरस य वावहिभागामुहत्तस्स २२माभृत(मल०) बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सत्तावीसं चुपिणया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोपाभृते युग एति , ता पुणवसुणा, पुणपसुस्स दो मुहत्ता छप्पण्णं बावट्ठिभागा मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेसा सवत्सराणा ॥१९८॥ सट्ठी चुपिणया भागा सेसा, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चस्थस्स चंदसंवच्छरस्स के आदी आहितेति माद्यान्तौ सू७१ वदेजा?, ता जेणं तच्चस्स अभिवहितसंवच्छरस्स पज्जबसाणे से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समये, ता से णं किंपञ्जवसिते आहितेति वदेजा ?, ता जेणं चरिमस्स अभिवहियसंवच्छरस्स आदी से णं चउत्थस्स चंदसंबच्छरस्स पज्जवसाणे अर्णतरपच्छाकडे समये, तं समयं च णं चंदे केणं णक्खतेर्ण जोएति !, ता उत्तराहि आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढणं चत्तालीसं मुहुत्ता चत्तालीसं च बासविभागा मुहत्तस्स वावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चसट्टी चुणियाभागा सेसा, तं समयं च ण सूरे केणं णक्यतेणं जोएति , ता पुणवसुणा, पुणवसुस्स अउणतीसं मुहुत्ता एकवीसं बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स वावहिभाग च सत्तद्विधा ऐत्ता सीतालीसं चुणिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचण्डं संवच्छराणं पंचमस्स अभिव-IF१९८॥ द्वितसंवच्छरस्स के आदी आहिताति वदेजा?, ताजेणं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से पंचमस्सा अभिवहितसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समये, ता से णं पिज्जवसिते आहितेति वदेजा , साईं ॐ495 दीप अनुक्रम [१०२] ~409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CONNN [७१] टीप जेणे पढमस्स चंदसंबच्छरस्स आदी से णं पंचमस्स अभिवहितसंवच्छरस्स पजवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये, तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता उत्सराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं चरमसमये, |तं समयं च णं सूरे केण णक्खत्तेणं जोएति ,ता पुस्सेणं, पुस्सस्स गं एकवीसं मुहत्ता तेतालीसं च बावट्टिभागे महत्तस्स बावहिभागं ससहिधा छेत्ता तेत्तीसं चुणिया भागा सेसा (सूत्र ७१) एकारसमा पाहुडं समत्तं ॥ | 'ता कहं ते इत्यादि, सा इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया संवत्सराणामादिराख्यात इति वदेत , भगवानाह-तत्थ खलु इत्यादि, तत्र-संवत्सरविचारविषये खल्विमे पञ्च संवत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवद्धितः चन्द्रोऽभिवर्जितः, एतेषां च स्वरूप प्रागेवोपदर्शितं, भूयः प्रश्नयति–ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषां| पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमस्य चान्द्रस्य संवत्सरस्य क आदिराख्यात इति वदेत् , भगवानाह-'ताजे ण'मित्यादि, यत् पाश्चात्ययुगवर्तिनः पञ्चमस्याभिवतिसंवत्सरस्य पर्यवसानं-पर्यवसानसमयः तस्मादनन्तरं पुरस्कृतो-भावी य:18 समयः स प्रथमस्य चन्द्रसंवत्सरस्थादिः, सदेवं प्रथमसंवत्सरस्यादिज्ञातः, सम्पति पर्यवसानसमयं पृच्छति–ता से ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, स प्रथमश्चान्द्रसंवत्सरः किंपर्यवसितः-किंपर्यवसान आख्यात इति वदेत् !, भगवानाह'ता जेण'मित्यादि, यो द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्यादि:-आदिसमयस्तस्मादनन्तरो यः पुरस्कृतः-अतीतसमयः स प्रथमचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानं-पर्यवसानसमयः, 'तं समयं च ण'मित्यादि, तस्मिंश्चान्द्रसंवत्सरपर्यवसानभूते समये चन्द्रः अनुक्रम [१०२] ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सयमश- न प्रत सुत्राक [७१] 18 केन नक्षत्रेण सह योग युनक्ति-करोति !, भगवानाह–ता उत्तराहि'इत्यादि, इह द्वादशभिः पौर्णमासीभिश्चान्द्रः११ प्राभते तिवृत्तिः संवत्सरो भवति, ततो यदेव प्राक् द्वादश्यां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाण सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं चोक्तं तदेवान्यू- २२प्राभृत(मल) नातिरिक्तमत्रापि द्रष्टव्यं, तथैव गणितभावना कर्त्तव्या, एवं शेषसंवत्सरगतान्यादिपर्यवसानसूत्राणि भावनीयानि याव-| प्राभृते ॥१९॥ त्याभूतपरिसमाप्तिः, नवरं गणितभावना क्रियते तत्र द्वितीयसंवत्सरपरिसमाप्तिश्चतुर्विंशतितमपौर्णमासीपरिसमाप्ती,कायुगसंवत्सदतत्र ध्रुवराशिः पटूपष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूत्र्तस्य पश्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः ६६ लाराणामाद्ि ५।१ । इत्येवंप्रमाणश्चतुर्विशत्या गुण्यते, जातानि पञ्चदश शतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहूर्त्तानां मुहूर्तगतानां च द्वाप पर्यवसाने सू७१ ष्टिभागानां विंशत्युत्तरं शतमेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तपष्टिभागाः १५८४ । १२० । २४ । तत एतस्मादटभिः मुहूर्तशतैरेकोनविंशत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टया सप्तप-| टिभागैरेकः परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायः शुद्ध्यति, ततः स्थितानि पश्चात्सप्त मुहर्त्तशतानि पश्चषष्ठयधिकानि मुहत्तंगतानां च* द्वाषष्टिभागानां पञ्चनवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ७६५। ९५। २५ । ततो 'मूले सत्तेव चोयाला' इत्यादि वचनात् सप्तभिश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुहर्त्तशतैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पष्टया सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ततः स्थिताः पश्चात् द्वाविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च महतस्याष्टी द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पइविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २२।८।२६ । ॥१९॥ सतत आगतं द्वितीयचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये पूर्वाषाढानक्षत्रस्य सप्त मुहर्ता एकस्य च मुहत्तेय त्रिपश्चाशद् द्वाप अनुक्रम [१०२] JAMEairsain tntainatsinal ~411 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभत [११], ..................-- प्राभतप्राभत ---------------- मल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत [७१] दीप ष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः शेषार, तदानी च सूर्येण युक्तस्य पुनर्वसोचत्वारिंशत्र मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य पश्चत्रिंशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः शेषाः, तथाहि-स एवं ध्रुवराशिः। ६६।५।१। चतुर्विंशत्या गुणितो जातानि पञ्चदश शतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्त्तगतानां च द्वापष्टिभागानां विंशत्युत्तरं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तपष्टिभागाः १५८४ । १२० । २४ । तत एत-18 स्मादष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकर्मुहुर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तपष्टिभागैः ८१९ । २४ । ६६ एकः परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायः शुद्धः, स्थितानि पश्चात् सप्त मुहर्तशतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि मुहूर्तानामेकमुहूर्तगताश्च द्वाषष्टिभागाः पञ्चनवतिः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तपष्टिभागाः ७६५ ।। ९५ । २५ । तत एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहरेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य शत्रयस्त्रिंशता सप्तपष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूतानां सप्त शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि एकस्य च मुहर्सस्य एकपञ्चाशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनषष्टिः सप्तषष्टिभागाः ७४६।५१ । ५९ । ततो भूयोऽप्येतस्मात सप्तभिर्मुहूर्तशतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तष|ष्टिभागैरश्लेषादीनि आर्द्रापर्यन्तानि शुद्धानि, स्थितौ पश्चाद् द्वौ मुहूर्तावेकस्य च मुहर्तस्य षड्विंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टिः सप्तपष्टिभागाः २ । २६ । ६०। आगतं द्वितीयचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये पुनर्वसुनक्षत्रस्य | वाचत्वारिंशन्मुहूता एकस्य च मुहर्तस्य पश्चत्रिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः शेषाः, अनुक्रम [१०२] % 9 ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७१] टीप सूर्यप्रज्ञ- तथा तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसंवत्सरपरिसमाप्तिः सप्तत्रिंशता पौर्णमासीभिस्ततो ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । सप्तत्रिंशता ११प्राभृते विवृत्तिःगुण्यते, जातानि मुहूर्चानां चतुर्विंशतिः शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि द्वाषष्टिभागानां च पञ्चाशीत्यधिक शतं सप्तषष्टि(मल०) भागाः सप्तत्रिंशत् २४४२ । १८५ । ३७ । तत एतेभ्योऽष्टी मुहूर्त शतानि एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्या प्राभृते चतुर्विंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिभागा इत्येकनक्षत्रपर्यायपरिमाणं द्वाभ्यां गुणयित्वा युगसंवत्स॥२०॥ शोध्यते, ततः स्थितानि पश्चादष्टौ मुहर्तशतानि चतुरुत्तराणि मुहर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां पञ्चत्रिंशदधिकं शता राणामादिएकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः ८०४।१३५ । ३९। तत एतेभ्यः सप्तभिमुहूर्तशतैश्चतुःसप्तत्यधि-बाखू ७१ कैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि पूर्वाषाढा-10 पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चादेकत्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्याष्टचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशत्सतषष्टिभागाः ३१ । ४८१४० । तत आगतं तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसंवत्सरपर्यवसानसमये उत्तरापाढानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदश द्वापष्ठिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सतपष्टिभागाः शेषाः, तदानीं च सूर्येण सम्प्रयुक्तस्य पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वौ मुहूत्तौ एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः एकच झापष्ठिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः पष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एव ध्रुवराशिः ६६५ ॥२०॥ १. सप्तत्रिंशता गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विंशतिः शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां पश्चाशीत्यधिक शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः २४४२ । १८५ । ३७। तत एतेभ्यः अनुक्रम [१०२] F OR ~413~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१] टीप 5515615% पूर्ववत सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाण द्विगुणं कृत्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चादष्टौ मुहूर्त्तशतानि चतुरुत्तराणि मुहूर्तसत्कानां द्वापप्टिभागानां पचत्रिंशदधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः ८०४ । १३५ । ३९॥ ततो। भूय एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहरेकस्य च मुहूत्र्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वापष्टिभागरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य प्रयस्त्रिंशता सप्त-12 पष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि मुहूर्त्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां दिनवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट् सप्तषष्टिभागाः ७८५ । ९२।६। ततो भूयोऽप्येतेभ्यः सप्तभिर्मुहर्तशतैश्चतुश्चत्वाकारिंशदधिकैरेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पध्या सप्तपष्टिभागैरश्लेषादीनि आ पर्यन्तानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाम्मुहर्ता द्वाचत्वारिंशत्, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभा-1 गस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः ४२।५।७। तत आगतं तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसंवत्सरपर्यवसानसमये सूर्येण सह संयुक्तस्य पुनर्वसोही मुहूर्तावेकस्य च मुहूर्तस्य पट्पश्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पष्टिश्शूर्णिका भागाः शेषाः, तथा चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानमेकोनपश्चाशत्तमपौर्णमासीपरिसमाप्ती सतः स एव ध्रवराशिः६५।५।१। एको-12 नपश्चाशता गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां द्वात्रिंशच्छतानि चतुस्विंशदधिकानि मुहर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ३२३४ । २४५ । ४९ । तत एतस्मात् | मागुक्तं सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं त्रिभिर्गुणयित्वा शोध्यते, ततः स्थितानि सप्त शतानि सप्तसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां सप्तत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ७७७ । १७० । ** 555 अनुक्रम [१०२] JIMEDuratim intamational ~414~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत % सूत्राक (मल.) ॥२०१॥ [७१] टीप ५२ । ततः सप्तभिः शतैः चतुःसप्तत्यधिकैर्मुहूर्चानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य ११प्राभृतेपषष्ट्या सप्तपष्टिभागैर्भूयोऽभिजिदादीनि पूर्वाषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात्पञ्च मुहूर्ता एकस्य प २२प्राभूत१ मुहूर्तस्य एकविंशति षष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः ५।२११५३ । तत आगतं चतुर्थ- प्रामृत चान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये उत्तराषाढानक्षत्रस्य चन्द्रयुक्तस्य एकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहर्चस्य चत्वारिंशद् युगसंवत्स राणामादि४ द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः शेषाः, तदानीं च सूर्येण सह युक्तस्य पुनर्वसुनक्षत्रस्य एकोन-४ पर्यवसाने &ात्रिंशन्मुहर्ता एकविंशतिषष्टिभागा मुहूर्तस्य एक चद्वापष्टिभागसप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का सप्तचत्वारिंशञ्चूर्णिकाभागाः सू ७१ शेषाः, तथाहि-स एव भुवराशिरेकोनपञ्चाशता गुण्यते, गुणयित्वा च ततः प्रागुक्तं सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं त्रिभिर्गप्रणयित्वा शोध्यते, स्थितानि सप्त मुहूर्त शतानि सप्तसप्तत्यधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां सप्तत्यधिक शतमेकस्य WIच द्वापष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः ७७७ । १७०। ५२, तत एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहरेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशता सप्तषष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्ताना |सप्त शतानि अष्टापञ्चाशदधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां सप्तविंशत्यधिक शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनविंशतिः सप्तपष्टिभागाः ७५८ । १२७॥ १९॥ ततः सप्तभिः शतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकमुहर्तानामेकस्य च मुहत्तेस्य चतु|विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तपष्टिभागैरश्लेषादीन्याापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः |पश्चात् पञ्चदश मुहूत्तों एकस्य च मुहर्त्तख चत्वारिंश द्वापष्टिभागाएकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशतिः सतषष्टिभागाः१५/४० अनुक्रम [१०२] % ॥२०१॥ % ~415~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१] २०,तत आगतं चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये पुनर्वसुनक्षत्रस्य एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः शेषा इति, पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरपर्यवसानं च द्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमये,ततो यदेव प्राक् द्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमये चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाणं सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं चोक्तं तदेवान्यूनातिरिक्तमत्रापि द्रष्टव्यम् ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां एकादशम-प्राभूतं समाप्तं तदेवमुक्तमेकादशं प्राभूतम् , सम्पति द्वादशमुच्यते-तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा 'कति संवत्सरा भवन्ति' तद्विषय प्रश्नसूत्रमाह ता कति णं संवच्छरा आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमे पंच संवाछरा पं० सं०-णक्खत्ते चंदे उडू। आदिचे अभिवहिते, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स नक्वत्तसंवच्छरस्स णक्खत्तमासे तीसतिमुहुत्तेणं २ अहोरत्तेणं मिजमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा ?, ता सत्ताधीसं राइंदिदाई एक्क चीसं च सत्तहिभागा राइंदियस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति विदेजा, ता अट्ठसए एकूणवीसे मुहुत्ताणं सत्तावीसं च' सत्तट्ठिभागे मुहत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिते तिवदेजा, ता एएसि णं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा णक्खत्ते संबच्छरे, ता से णं केवतिए राईदियग्गेणं आहितातिवदेजा, ता तिणि सत्तावीसे राइंदियसते एकावन्नं च ससहिभागे राईदियस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा, ता से णं केवतिए मुहत्तगण आहितेति वदेजा, ता णव मुहुत्तसहस्सा टीप अनुक्रम [१०२] अत्र एकादशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ द्वादशं प्राभृतं आरभ्यते ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] दीप सूर्यप्रज्ञ- अह य बत्तीसे मुलुत्तसए छप्पन्नं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेण आहितेतिवदेज्जा । ता एएसि णं १२ प्राभृते विवृत्तिः पंचण्हं संवच्छराणं दोचस्स चंदसंवच्छरस्स चंदे मासे तीसतिमुहुत्तेणं २ अहोरत्तेणं गणिजमाणे केवतिए राई- २२ प्राभृत(मल०) दियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एगणतीसं राइंदियाई बत्तीसं बावट्ठिभागा राइंदियस्स राइंदियग्गेणं प्राभूते ॥२०॥ आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेवा, ता अट्ठपंचासते मुहत्ते तेत्तीसंचनक्षत्रादिवछावहिभागे मुहुत्तग्गेणं आहितेतिवदेजा, ता एस णं अद्धा दुचालसखुत्तकडा चंदे संवच्छरे, ता से णं राविन्दि: विमुहूर्त्तमान केवतिए राइदियग्गेणं आहितेति बदेजा ?, ता तिन्नि चउत्पन्ने राईदियसते दुवालस य बावट्ठिभागा पासू७२ राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा?, तीसे णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता दस मुहुत्तसहस्साई छच्च पणुवीसे मुहुत्तसए पण्णासं च चावविभागे मुहुत्तेणं आहितेति वदेज्जा । ता एएसि पंचण्हं संवच्छराणं तच्चस्स उडुसंवच्छरस्स उडमासे तीसतीसमुहुत्तेणं गणिज्जमाणे केवतिए राईदियग्गेणं आहियाति व-1 देजा, ता तीसं राईदियाणं राइंदियग्गेणं आहितेतिवदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति ट्रवदेजा , ता णव मुहत्तसताई मुहत्सग्गेणं आहितेति वदेवा, ता एस णं अद्धा बुवालसखुत्तकडा उडू संवच्छरे, २०२॥ मता से णं केवतिए राइंदियम्गेणं आहितेति वदेजा, ता तिणि सढे राइंदियसते राइंदियग्गेणं आहितेति व देजा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहिएतिवदेजा, ता दस मुहुत्तसहस्साई अट्ठय सयाई मुहुत्सग्गेणं आहितेति चदेजा। ता एएसिणं पंचण्हं संबच्छराणं चउत्थस्स आदिचसंवच्छरस्स आइये मासे तीसतिमुहुत्तेणंटू अनुक्रम [१०३] F OR ~417~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] अहोरसेणं गणिजमाणे केवइए राइंदियग्गेण आहितेति वदेजा ?, ता तीसं राईदियाई अवद्धभागं च राई दियस्स राइदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा , ता णव पण-| रस मुहत्तसए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा आदिचे संवच्छरे, ता से णं केवतिए राइदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता तिनि छाबडे राइंदियसए राइदियग्गेणं आहियत्तिवइज्जा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहियत्ति धइजा ?, ता दस मुहुत्तस्स सहस्साई णव असीते मुहत्तसते मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवडियसंवच्छरस्स अभिवहिते मासे तीसतिमुहुत्तेणं गणिज्जमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति वदेवा, ता एकतीस राईदियाई एगणतीसं च मुहुत्ता सत्तरस बावहिभागे मुहुत्तस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा ?, ता णव एगूणसट्टे मुहुत्तसते सत्तरस यावद्विभागे मुहुत्सस्स मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा अभिवहितसंवच्छरे, ता से णं केवतिए राइंदियग्गेणं| आहितेति वदेजा ?, तिणि तेसीते राइंदियसते एकवीसं च मुहत्ता अट्ठारस बावहिभागे मुहुत्तस्स राइंदिकायग्गेणं आहितेतिवदेजा, तिपिण तेसीते राइंदियसते एकवीसं च मुहुत्ता अट्ठारस वायट्ठिभागे मुहुत्तस्स राईदियग्गेणं आहितेति चदेज्जा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेण आहितेति वदेजा ?, ता एकारस मुहत्तसहस्साई| पंच य एकारस मुहत्तसते अट्ठारस बावहिभागे मुहुत्तस्स मुहृत्तग्गेणं आहितेतिवदेजा (सूत्रं ७२)॥ 825E दीप अनुक्रम [१०३] JAINEDuratima ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] पिराविन्दि दीप अनुक्रम [१०३] सूर्यप्रज्ञ-II ता कह संबच्छरा इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति संवत्सरा भगवन् ! त्वया आख्याता इति वदेत् !, भगवानाह- १२प्राभृते विवृत्तिः 'तत्रे'त्यादि, तन-संवत्सरविचारविषये खल्विमे पञ्च संवत्सरा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'नक्वत्ते'त्यादि, पदैकदेशे पदसमु- २२ प्राभूत(मला दायोपचारात् नक्षत्रसंवत्सरश्चन्द्रसंवत्सर ऋतुसंवत्सर आदित्यसंवत्सरोऽभिवतिसंवत्सरः, एतेषां च पश्चानामपि संव- प्राभृते त्सराणां स्वरूप प्रागेवोपवर्णितं, 'ता एएसि ण'मित्यादि प्रश्नसूत्रं, 'ता' इति पूर्ववत्, एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये नक्षत्रादिव॥२०३|| प्रथमस्य नक्षत्रसंवत्सरस्य सत्को यो नक्षत्रमासः स त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणेनाहोरात्रेण गण्यमानः कियान् रात्रिन्दिवाण- जन्द वमुहूर्तमान रात्रिन्दिवपरिमाणेनाख्यात इति वदेत्!, भगवानाह-'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , सप्तविंशतिः रात्रिन्दिवानि एक-13 विंशतिश्च सप्तपष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-युगे नक्षत्रमासाः सप्तपष्टिरेतच्च प्रागेव भावितं, युगे चाहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, ततस्तेषां सप्तपट्या भागे हुते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः २७।३'ता से ण'मित्यादि, स नक्षत्रमासः कियान् मुहर्ताओण-मुहूर्तपरिमाणेनाख्यात इति वदेत् !, भगवानाह-ता अट्ठसए'इत्यादि, अष्टोत्तरशतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः ८१९ ।। मुहर्ताओणाख्यात इति वदेत् , तथाहि नक्षत्रमासपरिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, ततः सवर्णनार्थ सप्तविंशतिशरप्यहोरात्राः सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि सप्तषष्टिभागा- ॥२० ॥ नामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, तानि मुहूर्त्तानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पश्चाशत्सहस्राणि FhiralMAPIMIREUMORE ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] नव शतानि मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागानां ५४९००, तत एतेषां सप्तषश्या भागो हियते, लब्धानि अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति ८१९ । ३७,'ता एस 'मित्यादि, एषाअनन्तरमुक्ता नक्षत्रमासरूपा अद्धा द्वादशकृत्वः कृता, द्वादशभिवारेगुणिता इत्यर्थः, नक्षत्रसंवत्सरो भवति, सम्प्रति सकलनक्षत्रसंवत्सरगतरात्रिन्दिवपरिमाणमुहूर्तपरिमाणविषयप्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह-ता से 'मित्यादि, सुगम, नवरं रात्रिन्दिवचिन्तायां नक्षत्रमासरात्रिन्दिवपरिमाणं मुहूर्त्तचिन्तायां नक्षत्रमासमुहूर्तपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितव्य ततो यथोक्का रात्रिन्दिवसङ्ख्या मुहूर्तसङ्ख्या च भवति, 'ता एएसि 'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता एगूणतीसमित्यादि, एकोनत्रिंशत् रात्रिन्दिवानि द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य एतावत्परिमाणश्चन्द्रमासो रात्रिन्दिवायेणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-युगे द्वापष्टिश्चन्द्रमासाः, एतच्च प्रागपि भावितं, ततो युगसत्कानामष्टादशानामहोरात्रशतानां त्रिंशदधिकानां द्वाषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः |२९३३'ता से णमित्यादि, प्रश्नसून सुगर्म, भगवानाह–ता अढे'त्यादि, अष्टौ मुहर्चशतानि पञ्चाशीत्यधिकानि| एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशत् द्वापष्टिभागाः, एतावत्परिमाणश्चन्द्रमासो मुहूर्ताओणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-चन्द्रमा-18 सपरिमाणमेकोनत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः, तत्र सवर्णनार्थमेकोनत्रिंशदप्यहोरात्रा द्वापध्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च उपरितना द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि द्वापष्टिभागानां १८३०, तत एतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पश्चाशत्सहस्राणि नव शतानि मुहूर्तगतद्वापष्टि REC%ACASSESCRok दीप अनुक्रम [१०३] JAMEaianimational FitraalMAPINANORN ~420~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] SCSC माजाभागानां ५४९००, तत एतेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धानि अष्टौ शतानि पशाशीत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च १२ प्रामृते मुहर्तस्य त्रिंशद् द्वापष्टिभागाः ८८५ । 'ता एस णं अद्धा इत्यादि, प्राग्वद् भावनीयं, 'ता एएसि 'मित्यादि, रमाभृततृतीयऋतुसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवान प्रतिवचनमाह-ता तीसे ण'मित्यादि ता इति पूर्ववत् त्रिंशता प्राभूते रात्रिन्दिवाग्रेण ऋतुमास आख्यात इति वदेत्, तथाहि-ऋतुमासाः युगे एकषष्टिः, ततो युगसत्कानामष्टादशशतस- ॥२०४॥ नवाना यानां त्रिंशदधिकानामहोरात्राणामेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धात्रिंशदहोरात्राः ३०, 'ता से ण'मित्यादि, मुहर्त्तविषयंस प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'ता नव मुहत्तसया'इत्यादि, नव मुहर्तशतानि मुहूर्ताओणाख्यात इति वदेत् , तथाहि वमुहर्तमान सू ७२ [त्रिंशद्राबिन्दिवानि ऋतुमासपरिमाणमेकैकस्मिंश्च रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्तास्ततखिंशतत्रिंशता गुणने नव शतानि भवन्तीति, 'ता एएसि ण'मित्यादि, प्राग्वद् भावनीयं, 'ता एएसि णमित्यादि चतुर्थसूर्यसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्रं, तच सुगर्म, भगवानाह–ता तीस'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकस्य रात्रिन्दिवरय एकमपार्बभाग, एकममित्यर्थः, एतावत्प्रमाणः सूर्यमासो रात्रिन्दिवानेण आख्यात इति वदेत् , तथाहि-सूर्यमासा युगे पष्टिस्ततो युगसरकानामहोरात्राणां त्रिंशदधिकाष्टादशशतसङ्ख्यानां पध्या भागो हियते, लग्धाः सा स्त्रिंशदहोरात्राः, 'ता से ण'-1 मित्यादि, मुहर्त्तविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् , भगवानाह-'नवपण्णरे' इत्यादि नव मुहशतानि पञ्चदशाधिकानि मुहूर्त-1 A ॥२०४॥ परिमाणेनाण्यात इति वदेत्, तथाहि-सूर्यमासपरिमाणं त्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकस्य च राबिन्दिवस्थाई, तब त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि, रात्रिन्दिवाः च पञ्चदश मुहर्ता इति, 'ता एएसि ण'मित्यादि, प्राग्वद् भाव-13 दीप अनुक्रम [१०३] ~421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] मनीयं । 'ता एएसिण'मित्यादि, पञ्चमाभिवतिसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'ता एकतीस'मित्यादि, आता इति पूर्ववत्, एकत्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकोनविंशच्च मुहूर्त्ता एकस्य न मुहूर्तस्य सप्तदश द्वापष्टिभागा रात्रिन्दि बाणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-त्रयोदशभिश्चन्द्रमासैरभिवर्द्धितसंवत्सरः, चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिंशत् रात्रिPIन्दिवानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः २९ । ३, एतत्रयोदशभिर्गुण्यते, ततो यथासम्भव द्वापष्टि भागै राबिन्दिवेषु जातेषु जातमिदं त्रीण्यहोरात्रशतानि ज्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशश्च द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य २८३ ॥ एतदभिवद्धितसंवत्सरपरिमाणं, तत एतस्य द्वादशभिर्भागो हियते, तत्र त्रयाणामहोरात्रशतानां त्र्यशीत्य|धिकानां द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्ति एकादश, ते च मुहर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि ३२०, येऽपि च चतुश्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि १३२०, तेषां द्वाषष्ठया भागो हियते, लब्धा एकविंशति हाः, शेषास्तिष्ठन्त्यष्टादश, तत्रैकविंशतिर्मुहर्ता मुहूर्चराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानां त्रीणि शतान्येकपश्चाशदXधिकानि १५१, तेषां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः, ते द्वापष्टिभागकरणाथै ८ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातं पडशीत्यधिक शतं १८६, ततः प्रागुताः शेषीभूता मुहूर्तस्याष्टादश द्वापष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते चतुरुत्तरे २०४, तयोदिशभिर्भागो हियते, लब्धा मुहूर्तस्य सप्तदश द्वापष्टिभागाः, 'ता से णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , सोऽभिवतिमासः कियान मुहूर्तामेणाख्यात इति वदेव, भगवानाह-नवे'त्यादि, नव मुर्त्तश दीप अनुक्रम [१०३] JAINEDuratim intima ~422 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: तिवृत्तिः प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम [१०३] सूर्यप्रज्ञ-तान्येकोनपाठ्यधिकानि ९५९ सप्तदश च मुहद्वापष्टिभागाः, तथाहि-एकत्रिंशदप्यहोरात्रास्त्रिंशता गुण्यन्ते. जातानि४१२ प्रामृत नव शतानि त्रिंशदधिकानि मुहूर्तानां, तत उपरितना एकोनत्रिंशन्मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानामेकोनषाय- २२ प्राभृत राम (मल०) धिकानि नव शतानि । 'ता एस णमित्यादि, प्राग्वद् व्याख्येयं, 'ता से ण'मित्यादि, रात्रिन्दिवविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, Killed मनक्षत्रादिव II भगवानार-ता तिपणी त्यादि, त्रीणि रानिन्दियधातानि व्यशीत्यधिकानि एकविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहत्तेस्पा- ॥२०५॥ भगवानाह-ता तिपणा त्यादि, त्रा पित टादश द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवाणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-एकत्रिंशदहोरात्रा द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जातानि श्रीणि शतानि द्विसप्तत्यधिकानि अहोरात्राणां ३७२, तत एकोनत्रिंशन्मुहूर्ता द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतान्यष्टा- सू७२ चत्वारिंशदधिकानि ३८५, तेषामहोरात्रकरणार्थ त्रिंशता भागो हियते, लब्धा एकादश अहोरात्राः, अष्टादश तिष्ठन्ति, IMI येऽपि च सप्तदश द्वापष्टिभागाः मुहूर्तस्य तेऽपि द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जाते द्वे शते चतुरुत्तरे २०४, तयोषिष्ट्या भागो AIहियते, लब्धास्त्रयो मुद्दास्ते प्राक्तनेष्वष्टादशसु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता एकविंशतिर्मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्त्यष्टादश द्वापप्रष्टिभागा मुहूर्तस्य, 'ता से णमित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह–'एक्कारसे'त्यादि, एकादश मुहूर्तसहस्राणि पश्च मुहर्तशतान्येकादशाधिकानि अष्टादश च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्येति मुहू ग्रेणाभिवतिसंवत्सर आख्यात इति वदेत , तथाहि-अभिवतिसंवत्सरपरिमाणं त्रीण्यहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि एकविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्या | ॥२०॥ अष्टादश द्वापष्टिभागाः, तत्रैकस्मिन् रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ता इति वीण्यहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिर्मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो यथोक्ता मुहूर्तसङ्ख्या भवतीति । सम्पत्येते पश्च-1|| ~423~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम [१०३] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७२] प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः tumatoind संवत्सरा एकत्र मीलिता यावत्प्रमाणा रात्रिन्दिवपरिमाणेन भवन्ति तावतो निर्दिदिक्षुः प्रथमतः प्रश्नसूत्रमाहता केवतियं ते नोजुगे राईदियग्गेणं आहितेति वदेजा ?, ता सत्तरस एकाणउते राईदियसते एगूणवीसं च मुहुतं च सत्तावण्णे बावद्विभागे मुहुत्तस्स पावट्टिभागं च सत्तद्विधा ऐसा पणपण्णं चुण्णियाभागे रादियग्गेणं आहितेति यदेखा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा ?, ता तेपण्ण मुहुत्तसहस्साई सत्त य उणापत्रे मुहतसते सत्तावण्णं यावद्विभागे मुहुस्स बावट्टिभागं च सप्तद्विधा छता पणपण्णं चुणिया भागा मुग्गेणं आहितेति बदेखा, ता केवतिए णं ते जुगप्पत्ते राइंद्रियग्गेणं आहितेति वदेजा?, ता अट्टतीसं राईदियाई दस य मुहुत्ता चारि य यावद्विभागे मुहुस्स बावद्विभागं च सत्तद्विधा ऐसा दुबालस चुण्णिया भागे राईदियगेणं आहिताति वदेला, ता से णं केवतिए मुहुसग्गेणं आहितेति वदेला ?, ता एकारस पण्णासे मुहत्तसए चत्तारि य यावद्विभागे यावद्विभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता दुवालस चुण्णिया भागे मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेखा, ता केवतियं जुगे राइंदियागेणं आहितेति वदेवा, ता अट्ठा| रसतीसे राइंद्रियसते राईदियग्गेणं आहियाति वदेखा, ता से णं केवलिए मुहुत्सग्गेणं आहियाति वदेजा ?, ता चउप्पणं मुहुत्तसहस्साई णव य मुहुत्तमताई मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेखा, ता से णं केवलिए यावहिभागमुहुत्तम्गेणं आहितेति वदेजा ?, ता चउन्तीसं सतसहस्साई अडतीसं च यावट्टिभागमुहुत्तसते यावद्विभागमुहुत्तग्गे आहितेति वदेवा (सूत्रं ७३) ॥ F&P Us On ~424~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [63] दीप अनुक्रम [१०४] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-], प्राभृत [१२], मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यज्ञ १२ प्राभूते तच प्राभृते ॥२०६ ॥ नोयुगयुग मुहूर्त्तमानं सू ७३ ता इति पूर्ववत् कियत्- किंप्रमाणं ते वया भगवन् ! 'नोयुगं' नोशब्दो देशनिषेधवचनः किञ्चिदूनं युगमित्यर्थः, ष्ठिवृत्तिः ४ रात्रिन्दिवाप्रेण - रात्रिन्दिवपरिमाणेनाख्यात इति वदेत् ?, भगवानाह - 'ता सत्तरसे त्यादि, नोयुगं हि किशिदूनं युगं, ४२२ प्राभृत. ( मल० ) नक्षत्रादिपञ्चसंवत्सरपरिमाणमतो नक्षत्रादिपश्चसंवत्सरपरिमाणानामेकत्र मीलने भवति यथोक्ता रात्रिन्दिवसङ्ख्या, तथाहि नक्षत्रसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि सप्तविंशत्यधिकानि एकस्य व रात्रिन्दिवस्य एकपञ्चाशत्सतषष्टिभागाः, चन्द्रसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि द्वादश च द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य, १२ रात्रिन्दिवऋतुसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि षष्यधिकानि, सूर्यसंवत्सरस्य त्रीणि शतानि षट्षष्यधिकानि रात्रिन्दिवानां, अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि त्र्यशीत्यधिकानि एकविंशतिश्च मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टादश द्वापष्टिभागाः, तत्र सर्वेषां रात्रिन्दिवानामेकत्र मीलने जातानि सप्तदश शतानि नवत्यधिकानि ये च एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्चदश शतानि त्रिंशदधिकानि १५३०, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्पञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः २२ । मुहर्त्ताश्च लब्धा एकविंशती मुद्दत्र्त्तेषु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाताखिश्चत्वारिंशन्मुहूर्त्तास्तत्र त्रिंशता अहोरात्रो लन्ध इति जातान्यहोरात्राणां सप्तदश शतान्येकनवत्यधिकानि १७९१, शेषास्तिष्ठन्ति मुहूर्त्तास्त्रयोदश १३, येऽपि च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य द्वादश | तेऽपि मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि पश्यधिकानि ३६०, तेषां द्वापट्या भागो हियते, लब्धाः पञ्च मुहूर्त्तास्ते प्रागुक्तेषु त्रयोदशसु मुहूर्त्तेषु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टादश, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चाशत् द्वाषष्टिभागा F&P ~425~ ॥२०६॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [63] दीप अनुक्रम [१०४] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७३] प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Jan Eiration Intimanal मुहूर्त्तस्य, येऽपि च षट्पञ्चाशत्सप्तषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य ते त्रैराशिकेन द्वाषष्टिभागा एवं क्रियन्ते – यदि सप्तषष्ट्या द्वाष्टिभागा लभ्यन्ते ततः षट्पञ्चाशता सप्तषष्टिभागैः कियन्तो द्वाषष्टिभागा लभ्यन्ते, राशित्रयस्थापना ६७ । ६२ । ५६ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातानि चतुस्त्रिंशच्छतानि द्वासप्तत्यधिकानि २४७२, तेषामादिराशिना सप्पया भागो हियते, लब्धा एकपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, ते च प्रागुकेषु पश्चाशति द्वाषष्टिभागेष्यन्तः प्रक्षिप्यन्ते, जातमेकोत्तरं शतं १०१, ततस्तन्मध्येऽभिवर्द्धितसंवत्सरसत्का उपरितना अष्टादश द्वाषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातमेकोनविंशत्यधिकं शतं द्वाषष्टिभागानां ११९, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चपञ्चाशत् द्वारष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः पणे द्वाषष्ट्या च द्वाषष्टिभागैरेको मुद्दतों लब्धः, स प्रागुकेष्वष्टादशसु मुहर्त्तेषु मध्ये प्रक्षिप्यते, जाता एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः १९, शेषाः सप्तपञ्चाशत् द्वाषष्टिभागा अवतिष्ठन्ते इति, 'ता से णमित्यादि, मुहूर्त्तपरिमाणविषयप्रश्वसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगमं, रात्रिन्दिवपरिमाणस्य त्रिंशता गुणने तदुपरि शेषमुहूर्त्तप्रक्षेपे च यथोक्त मुहूर्त्तपरिमाणसमागमात् ता केवइए णं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कियता रात्रिन्दिवपरिमाणेन तदेव नोयुगं युगप्राप्तमाख्यातमिति यदेत् । कियत्सु रात्रिन्दिवेषु प्रक्षिष्ठेषु तदेव नोयुगं परिपूर्ण युगं भवतीति भावः, भगवानाह - 'ता अट्ठत्तीसमित्यादि, अष्टात्रिंशद् रात्रिन्दिवानि दश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारो द्वापष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छिपया तस्य सरका द्वादश चूर्णिका भागा इत्येतावता रात्रिन्दिवपरिमाणेन युगप्राप्तमाख्यातमिति वदेद, एतावत्सु रात्रिन्दिवादिषु प्रक्षिप्तेषु तद् नोयुगं परिपूर्ण युगं भवति इति भावः । सम्प्रति तदेव नोयुगं मुहूर्त्तपरिमाणात्मकं यावता मुहूर्त्तपरिमाणेन प्रक्षिशेन परिपूर्ण युगं भवति तद्वि F ~426~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [63] दीप अनुक्रम [१०४] मूलं [७३] प्राभृत [१२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रशतिवृत्तिः ( मल०) ॥२०७॥ “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-], Jan Eiration Intimatin पर्य प्रश्नसूत्रमाह- 'ता से णमित्यादि सुगमं, भगवानाह 'ता इकारसेत्यादि, इदं चाष्टात्रिंशतो रात्रिन्दिवानां त्रिंशता गुणने शेषमुहर्त्तादिप्रक्षेपे च यथोक्तं भवति, भावार्थश्चायं एतावति मुहूर्त्तपरिमाणे प्रक्षिष्ठे प्रागुक्तं नोयुगमुहूर्त्तपरि. ४ माणं परिपूर्णयुगमुहूर्तपरिमाणं भवतीति । सम्प्रति युगस्यैव रात्रिन्दिवपरिमाणं मुहर्त्तपरिमाणं च प्रतिपिपादयिषुः प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह- 'ता केवइयं ते इत्यादि सुगर्म, अधुना समस्तयुगविषये एव मुहूर्त्तगतद्वाषष्टिभागपरिज्ञानार्थ प्रश्नसूत्रमाह-'ता से ण'मित्यादि सुगमं, भगवानाह 'ता चोत्तीस मित्यादि, इदमक्षरार्थमधिकृत्य सुगमं, भावार्थ स्वयम् चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्त्तसहस्राणां नवशताधिकानां द्वापष्ट्या गुणनं क्रियते ततो यथोक्ता द्वाषष्टिभागसङ्ख्या भवतीति॥स[प्रति कदाऽसौ चन्द्र (द्रादि) संवत्सरः सूर्य (र्यादि) संवत्सरेण सह समादिः समपर्थवसानो भवतीति जिज्ञासिषुः प्रश्नं करोति ताकता णं एते आदिवचंदसंबच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहितेति वदेखा ?, ता सहि एए आदिवमासा बावट्ठि एतेए चंदमासा, एस णं अद्धा छखुत्तकडा दुबालसभयिता तीसं एते आदिश्वसंव च्छरा एकतीसं एते चंदसंवच्छरा तता णं एते आदिचचंदसंबच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहिताति बदेखा । ता कता णं एते आदिवउडुदणक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपनवसिया आहितेति वदेना ?, ता सट्ठि एते आदिया मासा एगहिं एते उडुमासा बावहिं एते चंदमासा सतहि एते नक्खत्ता मासा एस अद्धा दुबालस खुत्तकडा दुबालसभयिता सद्धिं एते आदिवा संवच्छरा एमट्टि एते उडवच्छ. बावहिं एते चंदा संघच्छरा सत्तर्हि एते नक्खत्ता संवच्छरा तता णं एते आदिचउटुचंदणक्खत्ता संवच्छरा समा F&P UW O ~427~ १२ प्राभृते २२ प्राभूतप्राभृत सूर्यादीना माचनूसाम्यं सू ७४ ॥२०७॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४] दीया समपजवसिया आहितेति बदेला । ता कता पं. एते अभिवहिआदिच्चउडुचंदाक्खत्ता संवफछरा Mसमादीया समपञ्जवसिता आहितेति वदेजा, ता सत्तावणं मासा सत्त य अहोरत्ता एकारस य मुहत्ता || तेवीसं वाचट्ठिभागा मुहत्तस्स एते अभिवहिता मासा सहि एते आदिच मासा एगट्टि एते उडूमासा वावट्ठी एते चंदमासा सत्सवी एते नकखत्तमासा एस णं अद्धा उप्पण्णसत्तखुत्तकडा दुवालसभपिता सत्त सता दाचोत्ताला एते णं अभिवहिता संवच्छरा, सत्त सता असीता एते णं आदिवा संवच्छरा, सरा सता तेणउता एत णं उडूसंवरुछारा, अट्ठसत्ता छलुत्तरा एते णं चंदा संवच्छरा, एकसत्तरी अट्ठसया एए नक्खत्ता संव छरा,तता णं एते अभिवहितआदिवउडचंदनक्खत्ता संवरहरा समादीया समपजवसिया आहितेति बावदेखा, ता णयकृताए णं चंदे संवच्छरे तिषिण चउप्पण्णे राइंदियसते दुवालस यथावविभागे राइंदियस्स आहितेति वदेखा, ता अहातचेणं चंदे संवच्छरे तिणि घउप्पपणे राईदियसते पंच य मुहुसे पण्णासं च वावविभागे मुहुन्सस्स आहितेति वदेजा (सूत्रं ७४) । 'ता कया णमित्यादि, सुगम, भगवानाह–ता सद्विमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एते-एकयुगवर्तिनः षष्टिः सूर्यमासाः एते च एकयुगान्तर्सिन एव द्वाषष्टिश्चन्द्रमासा, एतावती अद्धा पटुकृत्वः क्रियते-पहिर्गुण्यते, ततो द्वाददाभिर्भग्यते, द्वादशभिश्च भागे हते त्रिंशदेते सूर्यसंवत्सरा भवन्ति एकत्रिंशदेते चन्द्रसंवत्सराः, तदा एतावति कालेऽति | & कान्ते एते आदित्य चन्द्रसवत्सराः समादयः-समप्रारम्भा समपर्यवसिताः-समपर्यवसाना आख्याता इति वदेत, समपर्य-1 दीप अनुक्रम [१०५] Fhi ~428~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४] सूर्यप्रश-1वसाने किमुक्त भवति?-एते चन्द्रसूर्यसंवत्सरा विवक्षितस्यादी समा:-समप्रारम्भप्रारब्धाः सन्तस्तत आरभ्य पष्टियुगपर्यवसाने/१२ प्राभृते प्तिवृत्तिः समपर्यवसाना भवन्ति, तथाहि एकस्मिन् युगे प्रयश्चन्द्रसंवत्सरा द्वौ चाभिवतिसंवत्सरी, तौ च प्रत्येक त्रयोदश-M२२मामृत (मल.) चन्द्रमासात्मको, ततः प्रथमयुगे पञ्च चन्द्रसंवत्सरा द्वौ च चन्द्रमासी, द्वितीये युगे दश चन्द्रसंवत्सराश्चत्वारश्चन्द्रमासाः nा एवं प्रतियुग मासद्धिकवृद्ध्या षष्ठयुगपर्यन्ते परिपूर्णा एकत्रिंशचन्द्रसंवत्सरा भवन्ति, 'ता कया ण'मित्यादि, ता इति | MAT लापूर्ववत्, कदा णमिति वाक्यालकारे आदित्यऋतुचन्द्रनक्षम संवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याता इति वदेव यंस ७४ भगवानाह-ता सट्ठी'इत्यादि, षष्टिरेते एकयुगान्तवर्तिनः आदित्यमासा एकषष्टिरेते ऋतुमासाः द्वापष्टिरेते चन्द्रमासाः सप्तषष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती प्रत्येकमद्धा द्वादशकृत्वः कृता द्वादशभिगुणिता इत्यर्थः तदनन्तरं संवत्सरा-2 नयनाय द्वादशभिर्भक्ता तत एवमेते पष्टिरादित्यसंवत्सरा एकपष्टिरेते ऋतुसंवत्सराः द्वापष्टिरेते चन्द्रसंवत्सरा सप्तपष्टि-ट्रा रेते नक्षत्रसंवत्सरासदा-द्वादशयुगातिकमे इत्यर्थः, एते आदित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता| आण्याता इति वदेत् , एतदुक्तं भवति-विवक्षितयुगस्यादावते चत्वारोऽपि समाः समारब्धप्रारम्भाः सन्तस्तत आरभ्य। द्वादशयुगपर्यन्ते समपर्यवसाना भवन्ति, अर्वाद चतुर्णामन्यतमस्यावश्यंभावेन कतिपयमासानामधिकतया युगपत् सर्वेषां & समपर्यवसानत्वासम्भवाद, 'ता कयांण'मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'ता सत्तावपण'मित्यादि, सप्तपश्चाशन्मासा: ॥२०॥ सप्त अहोरात्रा एकादश मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य प्रयोविंशतिषिष्टिभागा एतावत्प्रमाणा एते एकयुगान्तवेर्तिनोऽभि-II पतिमासाः पष्टिरेते सूर्यमासाः एकषष्टिरेते ऋतुमासा द्वाषष्टिरेते चन्द्रमासाः सप्तषष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती प्रत्ये-15 दीप अनुक्रम [१०५] SEN ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5 प्रत सूत्रांक [७४] *5* * दीप लकमद्धा षट्पश्चाशदधिकशतकृत्वः क्रियते, कृत्वा च द्वादशभिर्भग्यते, द्वादशभिश्च भागे हते चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तश- तसङ्ख्याः ७४४ एतेऽभिवतिसंवत्सराः, अशीत्यधिकसप्तशतसङ्ख्याः ७८० एते आदित्यसंवत्सराः, त्रिनवत्यधिकसप्तशतसक्ष्याः ७९३ एते ऋतुसंवत्सरा, पदुत्तराष्टशतसङ्ख्या ८०६ एते चन्द्रसंवत्सराः, एकसप्तत्यधिकाष्टशतसङ्ख्या ८७१ नक्ष-15 वसंवत्सराः, तदा णमिति वाक्यालङ्कारे एतेऽभिवर्द्धितादित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आ-MI ख्याता इति वदेत् , अर्वाक् कस्यापि कतिपयमासाधिकत्वेन युगपत्सर्वेषां समपर्यवसानत्वासम्भवात् । सम्प्रति यथो-1 कमेव चन्द्रसंवत्सरपरिमाणं गणितभेदमधिकृत्य प्रकारद्वयेनाह-ता नयट्ठमाए इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , नयार्धतया-12 | परतीथिकानामपि सम्मतस्य नयस्य चिन्तया चन्द्रसंवत्सरखीण्यहोरात्रशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि द्वादश च द्वाषष्टि-18 |भागा अहोरात्रस्येत्यादिराख्यात इति वदेत् , याथातथ्येन पुनश्चिन्त्यमानश्चन्द्रसंवत्सरस्त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि चतुष्प-14 शाशदधिकानि पञ्च च मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चाशद् द्वापष्टिभागा इत्येवंप्रमाण आख्यात इति वदेत्, तत्राहोरात्र-12 परिमाणमुभयत्रापि तावदेकरूपं, ये तूपरितना द्वादश द्वाषष्ट्रिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, Kजातानि त्रीणि शतानि षष्पधिकानि ३६०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो नियते, लग्धाः पक्ष मुहर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति पश्चाशन्मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागा इति । तदेवं संवत्सरवकन्यता सप्रपञ्चमुक्ता, साम्प्रतं ऋतुवक्तव्यतामाह तत्थ खलु इमे छ खडू पं० त०-पाउसे वरिसारत्ते सरते हेमंते वसंते गिम्हे, ता सवेवि णं एते चंदउडू दुये मासाति चप्पण्णेणं २ आदाणेणं गणिजमाणा सातिरेगाई एगूणसहि र राईदियाई राइंदियग्गेणं आहि ** अनुक्रम [१०५] * FridaIMAPIVARANORN marwaTNEDHNOrg ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ུདྡྷཝོཝཱ ཡྻཱ , ཊྛཡྻཱ ཡྻ अनुक्रम -१०७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], ---- प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः सूर्यज्ञशिवृत्तिः ( मल०) ॥२०९॥ तेति वदेजा, तत्थ खलु इमे छ ओमरता पं० तं ततिए पढे सप्तमे पछे एकारसमे पत्रे पन्नरसमे पत्रे एगणवीसतिमे पदे तेवीसति मे पधे, तत्थ खलु इमे छ अतिरता पं० तं०-उत्थे पत्रे अट्ठमे पढे वारसमे पवे सोलसमे पत्रे वीसतिमे पधे चडवीसतिमे पदे । छचेव य अइरत्ता आइचाओ हवंति माणाई । छचेव ओमरता चंदाहि हवंति माणाहिं ॥ १ ॥ सूत्रं ७५ ) 'तत्थ खलु' इत्यादि, तत्रास्मिन् मनुष्यलोके प्रतिसूर्यायनं प्रतिचन्द्रायनं च खल्विमे षट् ऋतवः प्रज्ञताः, तद्यथाप्रावृट् वर्षारात्रः शरत् हेमन्तो वसन्तो ग्रीष्मः इह लोकेऽन्यथाभिधाना ऋतवः प्रसिद्धास्तद्यथा- प्रावृद्र शरद् हेमन्तः 8 शिशिरो वसन्तो ग्रीष्मश्चेति, जिनमते तु यथोक्ताभिघाना एव ऋतवः, तथा चोकम् - "पाउस वासारतो सरओ हेमंत वसंत गिम्हो य एए खलु छप्पि उऊ जिणवरदिट्ठा भए सिठ्ठा ॥ १ ॥ इह ऋतवो द्विधा, तद्यथा-सूर्यर्त्तवश्चन्द्र विश्व, तत्र प्रथमतः सूर्यसुवक्तव्यता प्रस्तूयते, तत्रैकैकस्य सूर्यतः परिमाणं द्वौ सूर्यमासावेकषष्टिरहोरात्रा इत्यर्थः, एकै कस्य सूर्यमासस्य सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणत्वात् उक्तं चैतदन्यत्रापि "वे आइचा मासा एगst ते भवंतहोरता । एवं उउपरिमाणं अवगयमाणा जिणा भिंति ॥ १ ॥ इह पूर्वाचार्यैरीप्सित सूर्यस्वनयने करणमुक्कं तद्विनेयजनानुग्रहायोपद|र्श्यते--सूरउउस्साणयणे पवं पद्मरससंगुणं नियमा। तहिं संखितं संत बावडी भागपरिहीणं ॥ १ ॥ दुगुणेकडीह जुयं बाबीससएण भाइए नियमा । जं लद्धं तस्स पुणो हि हिवसेस उऊ होइ ॥ २ ॥ सेसाणं असाणं वेहि उ भागेहि तेसिं जं लद्धं । ते दिवसा नायवा होंति पवत्तस्स अयणस्स” ॥ १॥ आसां व्याख्या -- सूर्यस्य - सूर्यसम्बन्धिन ऋतोरानयने F&P Us On ~ 431~ १२ प्राभृते २२ प्राभृतप्राभूते ऋतुभ्यूना धिकराज्य धिकारः सू ७५ ॥२०९॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा पर्व-पर्वसङ्ख्यानं नियमात् पञ्चदशसंगुणं कर्त्तव्यं, पर्वणी पश्चदशतिथ्यात्मकत्वात् , इयमत्र भावना-यद्यपि ऋतवः आषादादिप्रभवास्तथापि युग प्रवर्तते श्रावणबहुलपक्षप्रतिपद आरभ्य, ततो युगादितः प्रवृत्तानि यानि पर्वाणि तत्सया पशदागुणा क्रियते, कृत्वा च पर्वणामुपरि या विवक्षितं दिनमभिव्याप्य तिथयस्तास्तत्र सतिप्यन्ते इत्यर्थः, ततो 'पावट्ठी-|| |भागपरिहीण'ति प्रत्यहोरात्रमेकैकेन द्वापष्टिभागेन परिहीयमाणेन ये निष्पन्ना अवमरात्रास्तेऽप्युपचारात् मापष्टिभागास्तैः | |परिहीन पर्वसमानं कर्त्तव्यं, ततो 'दुगुणे ति द्वाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा च एकषष्ट्या युतं क्रियते, ततो द्वाविंशेन शतेन | |भाजिते सति यलग्धं तस्य पङ्गिर्भागे हते यच्छेषं स ऋतुरनन्तरातीतों भवति, येऽपि चांशा शेषा उद्धरितास्तेषां द्वाभ्यां Cil भागे हते यलम्य ते दिवसाः प्रवर्त्तमानस्य ऋतोतिव्याः, एष करणगाथाक्षरार्थः । सम्पति करणभावना क्रियते, तब युगे| प्रधमे दीपोत्सवे केनापि पृष्ट-का सूर्य रनन्तरमतीतः ।, को वा सम्प्रति वर्त्तते ।, तत्र युगादितः सप्त पण्यिभिकातानीति सप्त भियंते, तानि पशदश भिर्गुण्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं शत, एतावति र काले द्वाववमरात्रावभूतामिति द्वीट ततः पात्येते, स्थितं पश्चाभ्युत्तरं शतं १०३, तत् द्वाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे शते षडुत्तरे २०५, तत्रैकषष्टिः प्रक्षिप्यते, जाते| प्रदेशते सप्तषष्ट्यधिके २६७, तयोविंशेन शतेन भागो हियते, लब्धौ द्वौ, तौ पनि ग न सहेते इति न तयोः पशिMभांगहारः, शेपास्वंशा उद्धरन्ति त्रयोविंशतिः, तेषामड़े जाता एकादश अर्द्ध च, सूर्यषुश्वाषाढादिकस्ततः आगतIPादातू अतिक्रान्तौ तृतीयश्च ऋतुः सम्प्रति वर्तते, तस्य च प्रवर्त्तमानस्य एकादश दिवसा अतिक्रान्ता द्वादशो वर्तते । इति, तथा युगे प्रथमायामक्षयतृतीयायां केनापि पृष्टं के ऋतवः पूर्वमतिक्रान्ताः १ को वा सम्प्रति वर्तते , तत्र प्रथ २ दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] JAINEDuratim intimalsina FridaIMAPIVARANORN ~432~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཎྞཾདྡྷཝོལཱ ཡྻཱ , ཊྛཡྻཱ ཡྻ अनुक्रम -१०७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः मल० ) ॥२१०॥ Education intimating १२ प्राभूत प्राभृते माया अक्षयतृतीयायाः प्राकू युगस्यादित आरभ्य पर्वाण्यतिक्रान्तानि एकोनविंशतिः, ततः एकोनविंशतिर्धृत्वा पञ्चद- ४ १२ प्राभृते शभिर्गुण्यते, जाते द्वे शते पञ्चाशीत्यधिके २८५, अक्षयतृतीयायां किल पृष्टमिति पर्वणामुपरि तिस्रस्तिथयः प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते अष्टाशीत्यधिके २८८, तावति च काले अवमरात्राः पञ्च भवन्ति, ततः पञ्च पात्यन्ते, जाते द्वे शते व्यशीत्यधिके २८१, ते द्वाभ्यां गुण्येते, जातानि पञ्च शतानि षट्षष्ठयधिकानि ५६६, ताम्येकषष्टिसहितानि क्रियन्ते, : | जातानि षट् शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ६२७, तेषां द्वाविंशेन शतेन भागहरणं, लब्धाः पञ्च, ते च पह्निर्भागं न सहन्ते इति न तेषां षचिर्भागहारः, शेषास्त्वंशा उद्धरन्ति सप्तदश, तेषामर्द्धे जाताः सार्डी अष्टौ आगतं पञ्च ऋतवोऽतिक्रान्ताः षष्ठस्य च ऋतोः प्रवर्त्तमानस्याष्टौ दिवसा गता नवमो वर्त्तते, तथा युगे द्वितीये दीपोत्सवे केनापि पृष्टंकियन्त ऋतवोऽतिक्रान्ताः को वा सम्प्रति वर्त्तते १ तत्रैतावति काले पर्वाप्यतिक्रान्तान्येकत्रिंशत्, तानि पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि पञ्चपयधिकानि ४६५, अवमात्राश्चैतावति काले व्यत्यक्रामन्नष्टों, ततोऽष्टौ पात्यन्ते, स्थितानि शेषाणि चत्वारि शतानि सचपञ्चाशदधिकानि ४५७, तानि द्विगुणीक्रियन्ते, जातानि नव शतानि चतुर्दशोत्तराणि ९१४, तेष्वेकषष्टिभागप्रक्षेपे जातानि पञ्चतत्यधिकानि नव शतानि ९७५, तेषां द्वाविंशेन शतेन भागो हियते, लब्धाः सप्त, उपरिष्टादंशा उद्धरन्ति एकविंशं शतं १२१, तस्य द्वाभ्यां भागे हृते लब्धाः षष्टिः सार्द्धाः सप्तानां च ऋतूनां पद्धिर्भागे हते लब्ध एक एकः उपरिष्टात्तिष्ठति, आगतं- एकः संवत्सरोऽतिक्रान्त एकस्य च संवत्सरस्योपरि प्रथम ऋतुः प्रावृड्रामाऽतिगतो, द्वितीयस्य च पष्टिर्दिनान्यतिक्रान्तानि, एकषष्टितमं वर्त्तते इति, एव F Use On ~433~ ऋतुन्यूनाधिकराज्य : सू ७५ ॥२१०॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा मन्यत्रापि भावना कार्या । अथैतेषां ऋतूनां मध्ये क ऋतुः कस्यां तिथी समाप्तिमुपयातीति परस्य प्रश्नावकाशमाशय तत्परिज्ञानाय पूर्वाचार्यरिद करणमभाणि-"इच्छाउऊ बिगुणिओ रूयूणो विगुणिओ उपवाणि । तस्सद्ध होइ तिही जत्थ समत्ता उऊ तीसं ॥१॥" अस्या गाथाया व्याख्या यस्मिन् ऋतौ ज्ञातुमिच्छा (स इच्छत्तः)स ऋतुधियते इत्यर्थः, ततः स द्विगुणितः क्रियते, द्वाभ्यां गुण्यते इति भावः, द्विगुणितः सन् रूपोनः क्रियते, ततः पुनरपि स द्वाभ्यां गुण्यते, गुण-121 यित्वा च प्रतिराश्यते, द्विगुणितश्च सन् यावान् भवति तावन्ति पर्वाणि द्रष्टव्यानि, तस्य च द्विगुणीकृतस्य प्रतिरा-1 [शितस्याई क्रियते, तथा यावद्भवति तावत्यस्तिथयः प्रतिपत्तच्याः, यामु युगभाविनखिंचदपि ऋतवः समाप्ताः, समा-1 माप्तिमैयरुरिति करणगाथाक्षरार्थः । सम्पत्ति भावना क्रियते-किल प्रथम ऋतु तुमिष्टो यथा युगे कस्यां तिथी प्रथमः | पाइलक्षण ऋतुः समाप्तिमुपयातीति !, तत्र एको प्रियते, स द्वाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे रूपे, ते रूपोने क्रियेते, जात एकका, स एव च भूयोऽपि द्वाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे रूपे, ते प्रतिराश्येते, नयोरखें जातमेकं रूपं, आगतं-युगादी | पर्वणी अतिक्रम्य प्रथमायां तिथौ प्रतिपदि प्रथमऋतुः प्रावृहनामा समाप्तिमगमत् , तथा द्वितीये ऋतौ ज्ञातुमिच्छति / सादी स्थाप्येते तयोर्वाभ्यां गुणने जाताश्चत्वारस्ते रूपोनाः क्रियन्ते जाताखयस्ते भूयो द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः षट् ते तिराध्यन्ते प्रतिराशितानां चा क्रियते जातात्रयः, आगत-युगादितः पटू पर्वाण्यतिक्रम्य तृतीयायां तिथी द्वितीय ऋतुः समाप्तिमुपायात्, तथा तृतीये ऋतौ ज्ञातुमिच्छेति त्रयो भियन्ते ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः पटू ते रूपोनाः क्रियन्ते जाताः पश्च ते भूयो द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता दश ते प्रतिराश्यन्ते प्रतिराशितानां चा लब्धाः पश्च, आगत-युगादित दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] JAINEDuratim intimalsina FhipraanMAPIMHAUMORE ~434~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा सूर्यम- आरभ्य दशानां पर्वणामतिक्रमे पञ्चम्यां तिथौ तृतीय ऋतुः समाप्तिमियाय, तथा षष्ठे ऋतौ ज्ञातुमिष्यमाणे षट् स्थाप्य-४१२ माभृते निवृत्तिन्ते ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता द्वादश ते रूपोनाः क्रियन्ते जाता एकादश ते द्विगुण्यन्ते जाता द्वाविंशतिः सा पति-ऋतुसमाधि राश्यते प्रतिराशिताया अर्द्ध क्रियते जाता एकादश, आगतं-युगादित आरभ्य द्वाविंशतिपर्वणामतिक्रमे एकादश्यां तिधिकरणं ॥२१॥ तिथौ पष्ठ ऋतुः समाप्तिमियाय, तथा युगे नवमे ऋतौ ज्ञातुमिच्छति ततो नव स्थाप्यन्ते ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता अष्टा दश ते रूपोनाः क्रियन्ते जाताः सप्तदश ते भूयो द्विगुण्यन्ते जाता चतुस्त्रिंशत् सा प्रतिराश्यते प्रतिराश्य च तस्या क्रियते जाताः सप्तदश, आगतं-युगादितः चतुस्त्रिंशत् पर्वाण्यतिक्रम्य द्वितीये संवत्सरे पौषमासे शुक्लपक्षे द्वितीयस्यां तिया नवम ऋतुः परिसमाप्तिं गच्छति, तथा त्रिंशत्तमे ऋतौ जिज्ञासिते त्रिंशद् धियते सा द्विगुणीक्रियते जाता षष्टिः सा रूपोना क्रियते जाता एकोनषष्टिः सा भूयो द्वाभ्यां गुण्यते जातमष्टादशोत्तर शतं तत् प्रतिराश्यते प्रतिराश्य च तस्या | क्रियते जाता एकोनषष्टिः, आगतं-युगादितोऽष्टादशोत्तरं पर्वशतमतिक्रम्य एकोनषष्टितमायां तिथी, किमुक्तं भवति । पामे संवत्सरे प्रथमे आषाढमासे शुक्लपक्षे चतुर्दश्यां त्रिंशत्तम ऋतुः समाप्तिमुपायासीत् , व्यवहारतः प्रथमाषाढपर्यन्ते | - इत्यर्थः, एतस्यैवार्थस्य सुखप्रतिपत्यर्थमियं पूर्वाचार्योपदर्शिता गाथा-"एकत्तरिया मासा तिही य जासु ता उऊ सम-18 पंति । आसाढाई मासा भइवयाई तिही नेया ॥१॥" अस्या व्याख्या-दह सूर्यचिन्तायां मासा आषाढादयो द्रष्टव्याः, ४२११॥ आषाढमासादारभ्य ऋतूनां प्रथमतः प्रवर्त्तमानत्वात्, तिथयः सर्वा अपि भाद्रपदाधाः, भाद्रपदादिषु मासेषु प्रथमादी-IA Mनामृतूनां परिसमाप्तत्वात् , तत्र येषु मासेषु यासु च तिथिषु तवः प्राडादय सूर्यसत्काः परिसमाप्नुवन्ति ते आषा-1M दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] Fhi ~435 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा दादयो मासास्ताश्च तिथयो भाद्रपदाचा-भाद्रपदादिमासानुगताः सर्वा अप्येकान्तरिता वेदितव्याः, तथाहि-प्रथम ऋतुर्भाद्रपदमासे समाप्तिमुपयाति, तत एक मासमश्वयुग्लक्षणमपान्तराले मुक्त्या कार्तिक मासे द्वितीय ऋतुः परिसमाधिमियर्ति, एवं तृतीयः पौषमासे चतुर्थः फाल्गुने मासे पञ्चमो वैशाखे मासे षष्ठ आपादे, एवं शेषा अपि ऋतव एष्वेव षट्सुमा-12 | सेषु एकान्तरितेषु व्यवहारतः परिसमाप्तिमाप्नुवन्ति, न शेषेषु मासेषु, तथा प्रथम ऋतुः प्रतिपदि समाप्तिमेति द्वितीयस्तृती-13 Mयायां तृतीयः पञ्चम्यां चतुर्थः सप्तम्यां पश्चमोनषम्यां षष्ठ एकादश्यां सप्तमखयोदश्या अष्टमः पञ्चदश्यां, एते सर्वेऽपि तवो | बहुलपक्षे, ततो नवम ऋतुः शुक्लपक्षे द्वितीयायां दशमश्चतुमेिकादशः पठ्यां द्वादशोऽष्टम्यां त्रयोदशो दशम्यां चतुर्दशी द्वादश्यां पञ्चदशश्चतुर्दश्चा, एते सप्त ऋतवः शुक्लपक्षे, एते कृष्णशुक्लपक्षभाविनः पञ्चदशापि ऋतवो युगस्याः भवन्ति, तत उक्तकमेणैव शेषा अपि पञ्चदश ऋतवो युगस्याङ्के भवन्ति, तद्यथा-पोडश ऋतुर्षहुलपक्षे प्रतिपदि सप्तदशः तृती-11 यायामष्टादशः एवम्यामेकोनविंशतितमः सप्तम्यां विंशतितमो नवम्यामेकविंशतितमः एकादश्यां द्वाविंशतितमः प्रयोIM दश्यां योविंशतितमः पादश्यां एते षोडशादयत्रयोविंशतिपर्यन्ता अष्टौ बहुलपक्षे, ततः शुक्लपक्षे द्वितीयायां चतुर्विंश-II तितमः पञ्चविंशतितमश्चतुर्थ्यां षट्विंशतितमः षष्ठ्यां सप्तविंशतितमोऽष्टम्यां अष्टाविंशतितमो दशम्या एकोनत्रिंशत्तमो| द्वादश्यां त्रिंशत्तमश्चतुईश्या, तदेवमेते सर्वेऽपि ऋतयो युगे मासेष्वेकान्तरितेषु तिथिष्वपि चैकान्तरितासु भवन्ति, लाएतेषां च ऋतूनां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ सूर्यनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ च पूर्वाचार्यैः करणमुक्तं, ततस्तदपि विनेयजनानु ग्रहाय दर्श्यते-"तिनि सया पंचहिगा असा छेओ सयं च चोत्तीस । एगाइबिउत्तरगुणो धुवरासी होइ नाययो ॥१॥ दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] ~436~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཡྻཱ , ཊྛཡྻཱཡྻ अनुक्रम -१०७] प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ॥२१२ ॥ “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -६ (मूलं + वृत्ति:) Janitamatis सत्तट्ठि अद्धखित्ते दुगतिगगुणिया समे बिदढखेत्ते । अट्ठासी ई पुस्सो सोझा अभिइम्मि बायाला ॥ २ ॥ एवाणि सोह- ११२ प्राभूते इत्ता जं सेसं तं तु होइ नक्खतं । रविसोमाणं नियमा सीसाइ उऊसमन्तीसु ॥ ३ ॥" आसां व्याख्या- त्रीणि शतानि ७२ कतुषु चन्द्र पश्चोत्तराणि अंशा-विभागाः, किंरूपच्छेदकृता इति चेत्, अत आह—छेदश्वतुस्त्रिंशं शतं किमुक्तं भवति चतुस्त्रिंशदधिकशतच्छेदेन छिन्नं यदहोरात्रं तस्य सत्कानि त्रीणि शतानि पञ्चोचराणि अंशानामिति, अयं ध्रुवराशिबोद्धव्यः, एष च ध्रुवराशिः 'एकादियुत्तरगुण' इति ईप्सितेन ऋतुना एकादिना त्रिंशत्पर्यन्तेन द्व्युत्तरेण एकस्मादारभ्य तत ऊर्ध्व द्व्युत्तरवृद्धेन गुण्यते स्मेति गुणो-गुणितः क्रियते, तत एतस्माच्छोधनकानि शोधयितव्यानि तत्र शोधनकप्रतिपादनार्थे द्वितीया गाथा- 'सत्सट्ठी' त्यादि, इह यन्नक्षत्रमर्द्धक्षेत्रं तत् सतपष्ठ्या शोध्यते, यच्च नक्षत्रं समक्षेत्रं तत् द्विगुणया सप्तषष्ट्या चतुखिंशेन शतेनेत्यर्थः शोध्यते, यत्पुनर्नक्षत्रं द्र्यर्द्ध क्षेत्रं तत् त्रिगुणया सप्तषट्या एकोत्तराभ्यां द्वाभ्यां शताभ्यां शोध्यत इत्यर्थः इह सूर्यस्य पुष्यादीनि नक्षत्राणि शोध्यानि चन्द्रस्याभिजिदादीनि, तत्र सूर्यनक्षत्रयोगचिन्तायां पुष्ये| पुण्य विषयाऽष्टाशीतिः शोध्या, चन्द्रनक्षत्रयोगचिन्तायामभिजिति द्वाचत्वारिंशत् । 'एयाणीत्यादि, एतानि अर्द्धक्षेत्रसमक्षेत्र यर्द्धक्षेत्र विषयाणि शोधनकानि शोधयित्वा यदुक्तप्रकारेण नक्षत्रशेषं भवति-न सर्वात्मना शुद्धिमश्रुते तत् नक्षत्रं रविसोमयोः सूर्यस्य चन्द्रमसश्च नियमात् ज्ञातव्यं, क्व इत्याह- त्रिंशत्यपि ऋतुसमाप्तिषु । एष करणगाथात्रयाक्षरार्थः, सम्प्रति करणभावना क्रियते तत्र प्रथम ऋतुः कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे समाप्तिमुपैति इति जिज्ञासायामनन्तरोदितः पञ्चोतरत्रिशतीप्रमाणो ध्रुवराशिर्धियते, स 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति तावानेव ध्रुवराशिः जातः, तत्राभिजितो द्वाचत्या F&P On ~437~ सूर्यनक्षत्रयोगः सू ७५ ॥२१२॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा रिंशत् शुद्धा, स्थिते पश्चाद् द्वे शते त्रिषष्ट्यधिके २६३, ततश्चतुस्त्रिंशेन शतेन श्रवणः शुद्धः, शेष जातमेकोनत्रिंशं शतं | १२९, तेभ्यश्च धनिष्ठा न शुद्ध्यति, तत आगतं-एकोनत्रिंशं शतं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां धनिष्ठासत्कमवगाह्य चन्द्रः प्रथमं सूर्यर्तुं परिसमापयति, यदि द्वितीयसूर्य जिज्ञासा तदा स ध्रुवराशिः पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणखिभिर्गुण्यते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशच्छुद्धा, स्थितानि शेषाण्यष्टौ शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि | |८७३, ततश्चतुर्विंशेन शतेन श्रवणः शुद्धिमुपगतः, स्थितानि शेषाणि सप्त शतान्येकोनचत्वारिंशदधिकानि ७३९, ४ राततोऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन धनिष्ठा शुद्धा, जातानि षट् शतानि पञ्चोनराणि ६०५, ततोऽपि सप्तषष्ट्या शतभिषक् | 2 शुद्धा, स्थितानि पञ्च शतान्यष्टात्रिंशदधिकानि ५३८, तेभ्योऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन पूर्वभद्रपदा शुद्धा, स्थितानि चत्वारि शतानि चतुरधिकानि ४०४, तेभ्योऽपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरभद्रपदा शुद्धा, स्थिते शेषे व्युत्तरे द्वे शते । २०३, ताभ्यामपि चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन रेवती शुद्धा, स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः १९, आगतमश्विनीनक्षत्रस्यैकोन-121 सप्ततिं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानामवगाह्य द्वितीयं सूर्यषु चन्द्रः परिसमापयति, एवं शेषेष्वपि ऋतुषु भाषनीय, त्रिंशतमसूर्यजिज्ञासायां स एव भुवराशिः पश्चोत्तरशतत्रयसव एकोनपथ्या गुण्यते, जातानि सप्तदश सहस्राणि नवा | शतानि पञ्चनवत्यधिकानि १७९९५, तत्र पत्रिंशता शतैः पश्यधिकैरेको नक्षत्रपर्यायः शुवति, ततः षट्त्रिंशच्छतानि पट्यधिकानि चतुर्भिर्गुणयित्वा ततः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात्रयस्त्रिंशच्छतानि पञ्चपश्चाशदधिकानि ३३५५ ताभ्यां । द्वात्रिंशता शतैः पञ्चविंशत्यधिकैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि शुद्धानि स्थितं पश्चात्रिंशदधिक शतं १३० तेन च पूर्वो- दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] JAINEDuratim intimational ForRIMARrIaLMORE ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा पाढा न शुपति, तत आगतं त्रिंशदधिक शतं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां पूर्वाषाढासत्कमवगाय पन्द्रस्त्रिंशत्तमं सूर्यन १२माभृतेनिवृत्तिः। परिसमापयति । सम्प्रति सूर्यनक्षत्रयोगभावना क्रियते, स एष पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिः प्रथमसूर्य जिज्ञासा- अनुष चन्द्र (मल.) थामेकेन गुण्यते 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव ततः पुष्यसत्का अष्टाशीतिः शुद्धा स्थिते शेषे द्वे शते सूप योगः ॥२१॥ सप्तदशोत्तरे २१७ ततः सप्तषश्या अश्लेषा शुद्धा स्थितं शेषं सार्द्ध शतं १५० ततोऽपि चतुर्विंशच्छतेन मघा शुद्धा स्थिताः|| पश्चात् पोडश, आगतं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य षोडश चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानवगाह्य सूर्यः प्रथम स्वमृत परिसमापयति, तथा द्वितीयसूर्यसुजिज्ञासायां स ध्रुवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणस्त्रिभिर्गुण्यते जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि & ४९१५ ततोऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धिमगमत, स्थितानि पश्चादष्टौ शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ८२७ तेभ्यः सप्तपट्या अश्लेषा | शुद्धा स्थितानि शेषाणि सप्त शतानि षट्यधिकानि ७६० तेभ्यश्चतुर्विंशदधिकेन शतेन मधा शुद्धा स्थितानि शेषाणि षट् । शतानि षविंशत्यधिकानि १२६ तेभ्यश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन पूर्वफाल्गुनी शुद्धा स्थितानि पश्चाञ्चत्वारि शतानि द्विन- मावत्यधिकानि ४९२ ततोऽपि द्वाभ्यां शतान्यामेकोतराम्यामत्तरफाल्गनी शबा स्थिते देशते एकनवत्यधिक २९१1। ततोऽपि चतुर्विंशेन शतेन हस्तः शुद्धः स्थितं पश्चात् सप्तपश्चाशदधिक शतं १५७ ततोऽपि चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन चित्रा शुद्धा स्थिता शेषास्त्रयोविंशतिः २३, आगतं स्वातेस्त्रयोविंशति सप्तषष्टिभागानवगाह्य सूर्यों द्वितीय स्वतुं परि-C am समापयति, एवं शेषेष्वपि ऋतुषु भावनीय, त्रिंशत्तमसूर्य जिज्ञासायर्या स एव ध्रुवराशिः, पञ्चोत्तरशतत्रयपरिमाण एकोनपाच्या गुण्यते जातानि सप्तदश सहस्राणि नव शतानि पञ्चनवत्यधिकानि १७९९५ तत्र चतुर्दशभिः सहस्त्रैः पशिः * दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] * ~439~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत * सुत्रांक [७५]] * * * गाथा शतैश्चत्वारिंशदधिकैः १४६४० चत्वारः परिपूर्णा नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः स्थितानि शेषाणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि पञ्च पञ्चाशद | धिकानि ३३५५ तेभ्योऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धः स्थितानि पश्चात् द्वात्रिंशच्छतानि सप्तपश्चभ्यधिकानि ३२६७ तेभ्यो द्वात्रिंशता शतैरष्टापश्चाशदधिकै ३२५८ अश्लेषादीनि मृगशिरापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थिताः शेषा नव ९ तेन चा। न शुक्पति, तत आगतं नव चतुर्विंशदधिकशतभागान आसत्कानवगाह्य सूर्यस्त्रिंशत्तमं स्वमूतुं परिसमापयति । तदेवमुक्ताः सूर्यर्तवः, सम्पति चन्द्रर्पूनां चत्वारि शतानि व्युत्तराणि ४०२, तथाहि-एकस्मिन्नक्षत्रपर्याये चन्द्रस्य षट् ऋतको भवन्ति चन्द्रस्य च नक्षत्रपया युगे भवन्ति सप्तषष्टिसबास्ततः सप्तर्षष्टिः पतिर्गण्यते जातानि चत्वारि शतानि | साव्युत्तराणि ४०२ एतावन्तो युगे चन्द्रस्य ऋतवः, उक्तं च-"चत्तारि उउसयाई विउत्तराई जुगंमि चंदस्स ।' एकैकस्य । चंद्रोंः परिमाणं परिपूर्णाश्चत्वारोऽहोरात्राः पञ्चमस्य चाहोरात्रस्य सप्तत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः, तथा चोक्तम्-"चंदस्सुख परिमाणं चत्तारि अ केवला अहोरसा । सप्तत्तीस अंसा सत्तहिक एण छएणं ॥१॥" कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, सहकस्मिन्नक्षत्रपर्याय षट् ऋतव इति प्रागेवानन्तरमुक्तम् , नक्षत्रपर्यायस्य चन्द्रविषयस्य परिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्राः एकस्य KIचाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः तत्राहोरात्राणां षनिभागो दियते लब्धाश्चत्वारोऽहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्ति अयस्ते AI सप्तषष्टिभागकरणार्य सप्तपध्या गुण्यन्ते जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१ तत उपरितना एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते द्वाविंशत्यधिक २२२ तेषां षनिर्भागे हते लब्धाः सप्तत्रिंशत् ३७ सप्तषष्टिभागाइति, तेषां च चन्द्रनामानयनाय ICI पूर्वाचायरिदं करणमुक्त-"चंदऊऊआणयणे पर्ष पन्नरससंगुण नियमा। तिहिसखित्त संत वावट्ठीभागपरिहीणं ॥१॥ चोत्तीस-1 * * दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] ~440~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] (मल०) गाथा सूर्यप्रज्ञ- सयाभिहय पंचुत्तरतिसयसंजुयं विभए । छहिं उ दसुत्तरेहि य सएहि लद्धा उऊ होइ॥२॥" अनयोक्ख्या -विवक्षितस्यमिवृत्तिः चन्द्रौरानयने कर्तव्ये युगादितो यत् पर्व-पर्वसङ्ख्यानमतिसङ्क्रान्तं तत्पञ्चदशगुणं नियमात् कर्त्तव्यम्, ततस्तिथिसलिप्त-चन्द्रान मिति-यास्तिथयः पर्वणामुपरि विवक्षितात् दिनात् प्रागतिक्रान्तास्तास्तत्र सजिष्यन्ते, ततो द्वापष्टिभागः-द्वापष्टिभाग-1 यनकरणं ॥२१॥ निष्पन्नैरवमरात्रः परिहीनं विधेयम् , तत एवंभूतं सञ्चतुस्त्रिंशेन शतेनाभिहतं-गुणितं कर्त्तव्यम् , तदनन्तरं च पञ्चो तरैत्रिभिः शतैः संयुक्तं सत् पनिर्दशोत्तरः शतैर्विभजेत् , विभक्ते सति ये लब्धा अवास्ते ऋतवो विज्ञातव्याः । एष करण-13/ गाधाद्वयाक्षरार्थः, सम्पति करणभावना क्रियते, कोऽपि पृच्छति-युगादितः प्रथमे पर्वणि पञ्चम्यां कश्चन्द्रवर्तते इति, तत्रैकमपि पर्व परिपूर्णमत्र नाद्याप्यभूदिति युगादितो दिवसा रूपोना प्रियन्ते, से च चत्वारस्सतस्ते चतुस्त्रिंशदधिकेन KI शतेन गुण्यन्ते जातानि पश्श दातानि षटूत्रिंशदधिकानि ५३६ ततः भूयस्त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि ३०५ प्रक्षिप्यन्ते जातान्यष्टौ शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि ८४१ तेषां षभिः शतैर्दशोत्तरैर्भागो हियते लब्धः प्रथम ऋतुः अंशा उद्धरन्ति | दे शते एकत्रिंशदधिके २३१ तेषां चतुस्त्रिंशेन शतेन भागहरणं लब्ध एकः, अंशानां चतुस्त्रिंशेन शतेन भागो ह्रियते | Kायालभ्यते ते दिवसा ज्ञातव्याः, शेषास्त्वंशा उद्धरन्ति सप्तनवतिः तेषां द्विकेनापवर्त्तनायां लब्धाः साद्धों अष्टाचत्वा- I n रिंशत्सप्तपष्टिभागाः, आगतं युगादितः पञ्चम्यां प्रथमः प्रावृद्धलक्षणः ऋतरतिक्रान्तो द्वितीयस्य ऋतोः एको दिवसो गतो। प्रद्वितीयस्य च दिवसस्य सार्दा अष्टाचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः, तथा कोऽपि पृच्छति युगादितो द्वितीये पर्वणि एकादश्यां | दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] * marwaTNEDHNOrg ~441~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा कश्चन्द्र रिति, तत्रैक पर्व अतिक्रान्तमित्येको प्रियते, स पञ्चदशभिर्गुण्यते जाताः पञ्चदश एकादश्यां किल पृष्टमिति तस्याः पाश्चात्या दश ये दिवसास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाताः पञ्चविंशतिः २५ सा चतुर्विंशेन शतेन गुण्यते जातानि श्रयस्त्रि-II शच्छतानि पञ्चाशदधिकानि ३३५० तेषु त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते जातानि षट्त्रिंशच्छतानि पञ्चपञ्चाश-11 दधिकानि ३६५५ तेषां पद्भिः शतैर्दशोत्तरैर्भागो ह्रियते लब्धाः पञ्च अंशा अवतिष्ठन्ते षट् शतानि पश्चोत्तराणि ६०५ तेषां चतुस्त्रिंशेन शतेन भागे हते लम्धाश्चत्यारो दिवसाः ४ शेषास्त्वंशा उद्धरन्ति एकोनसप्ततिः ६९ तस्या द्विकेनामापवर्तनायां लब्धाः सार्दाश्चितुर्विंशत्सप्तपष्टिभागाः, आगतं पञ्च ऋतवोऽतिकान्ताः षष्ठस्य च ऋतोश्चत्वारो दिवसाः पञ्च-15 मस्य दिवसस्य सार्दाश्चतुर्विंशत्सप्तपष्टिभागाः, एवमन्यस्मिन्नपि दिवसे चन्द्ररवगन्तव्यः। सम्पति चन्द्र परिसमाप्तिदिवसानयनाय यत्पूर्वाचायः करणमुक्तं तदभिधीयते-"पुर्वपिव धुवरासी गुणिए भइए सगेण छेएणं । जं लद्धं सो दिवसो | सोमस्स उऊ समत्तीए॥१॥ अस्या व्याख्या-इह यः पूर्व सूर्यप्रतिपादने ध्रुवराशिरभिहितः पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां तस्मिन् पूर्वमिव गुणिते, किमुक्तं भवति-ईप्सितेन एकादिना व्युत्तरचतुःशततमप-13 |र्यन्तेन-युत्तरवृद्धेन एकस्मादारभ्य तत ऊर्ध्वं व्युत्तरवृया प्रवर्द्धमानेन गुणिते स्वकेन-आत्मीयेन छेदेन चतुस्त्रिंशदधिक| शतरूपेण भक्ते सति यहब्धं स सोमस्य-चन्द्रस्य ऋतोः समाप्तौ वेदितव्यः, यथा केनापि पृष्टं चन्द्रस्य ऋतुः प्रथमः | कस्यां तिथी परिसमाप्तिं गत इप्ति, तत्र धूवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो धियते ३०५ स एकेन गुण्यते जातस्तावा-14 नेय ध्रुवराशिः तस्य स्खकीयेन चतुर्विंशदधिकशतप्रमाणेन छेदेन भागो हियते, लब्धी द्वी शेषास्तिष्ठति सप्तत्रिंशत् । दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] A JAINEDuratim intimalsina FhipuraaNMSPIRIUMORE ~442~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत %* सुत्रांक [७५]] *ॐ*% गाथा तस्या द्विकेनापवर्तना जाताः सा ष्टादश सप्तषष्टिभागाः, आगतं युगादितो द्वौ दिवसौ तृतीयस्य च दिवसस्य सार्द्धान र माभते ४ अष्टादश सप्तषष्टिभागानतिक्रम्य प्रथमश्चन्द्रर्तुः परिसमाप्तिमुपयाति, द्वितीयश्चन्द्रवुजिज्ञासायां स ध्रुवराशिः पञ्चोत्तर- चन्द्रस शतत्रयप्रमाणसिभिर्गुण्यते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागो हियते लब्धाःमाधितिथषट् शेषमुद्धरति एकादशोचरक शतं १११ तस्य द्विकेनापवर्तनायां लब्धाः सााः पञ्चपञ्चाशत् ५५ सप्तपष्टिभागा: यासू ७५ आगतं युगादितः पटुसु दिवसेष्वतिकान्तेषु सप्तमस्य च दिवसस्य साढ़ेंषु पञ्चपश्चाशत्सयेषु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु द्विती-18 यश्चन्द्रर्तुः परिसमाप्तिं गछति, शुत्तरचतुःशततम जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणोऽष्टभिः शतैल्युसरैगुण्यते-युत्तरगया युत्तरच्या हि व्युत्तरचतुःशततमस्य व्युत्तराष्टशतप्रमाण पर राशिर्भवति, तथाहि-यस्य । एकस्मादू युत्तरपण्या राशिश्चिन्त्यते तस्य द्विगुणो रूपोनो भवति यथा द्विवस्य त्रीणि त्रिकस्य पश चतुष्कस्य सप्त, | अत्रापि युत्तरचतु शतप्रमाणस्य राशेर्युतरख्या राशिश्चिन्त्यते ततोऽष्टौ शतानि व्युत्तराणि भवन्ति, पर्वभूतेन च राशिना गुणने जाते वे लक्षे चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि २४४९१५ तेषां चतुर्विंशेन शतेन | सभागो द्रियते लब्धान्यष्टादश शतानि सप्तविंशत्यधिकानि १८२७ अंशाश्बोद्धरन्ति सप्तनवतिः तस्या विकेनापवर्तना लग्धाः सार्दा अष्टाचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः आगतं युगादितोऽष्टादशमु दिवसशतेषु सप्तविंशत्यधिकेष्वतिकान्तेषु २१५॥ ततः परस्य च दिवसस्य सार्द्धप्वष्टाचत्वारिंशत्सङ्ख्येषु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु युत्तरचतु शततमस्य चन्द्रोः परिसमाप्तिरिति । एतेषु च चन्द्र षु चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ एष पूर्वाचार्योपदेशः, सो घेव धुवो रासी गुणरासीवि म हर्वति | % दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] % का % % JAINEDuratim intimational FitraalMAPINANORN ~443 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा ते चेव । नक्खत्तसोहणाणि अपरिजाणसु पुषभणियाणि ॥१॥" अस्या गाथाया व्याख्या-चन्द्रप्नां चन्द्रनक्षत्रयो-12 गार्थं स एष पश्चोत्तरवातत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिर्वेदितव्यः, गुणराशयोऽपि-गुणकारराशयोऽपि एकादिका युत्तरपद्धास्त एव | भवन्ति ज्ञातव्या ये पूर्वमुपदिष्टा नक्षत्रशोधनान्यपि च परिजानीहि तान्येव यानि पूर्वभणितानि द्वाचत्वारिंशत्प्रभृतीनि, ततः पूर्वप्रकारेण विवक्षिते पन्द्रतौं नियतो नक्षत्रयोग आगच्छति. तत्र प्रथमे चन्द्रप्तौं कश्चन्द्रनक्षत्रयोग इति जिज्ञासायां स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणोध्रुवराशिर्धियते ३०५ स एकेन गुण्यते एकेन च गुणितः सन् तावानेव भवति ततोऽभिजितो दाचत्वारिंशत् शुद्धा शेषेतिष्ठते द्वे शते त्रिपक्ष्यधिकरश्ततश्चतुस्त्रिंशेन शतेन श्रवणः शुद्धः स्थितं पश्चादेकोनत्रिंशतं शतं १२९ तस्य द्विकेनापवर्तना जाता सार्दाश्चतुःषष्टिः ससपष्टिभागाः, आगतं धनिष्ठायाः सार्नी चतुःषष्टिं सप्तषष्टिभागानवगाह्य चन्द्रः प्रथम स्वमूतुं परिसमापयति, द्वितीयचन्द्र जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणनिभिर्गुण्यते जातानि | नव शतानि पचदशोत्तराणि ९१५ तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा स्थितानि शेषाणि भष्टी हातानि त्रिसप्तत्यधि-11 कानि ८७३ ततश्चतुखिंशदधिकेन शतेन श्रवणः शुद्धिमुपगतः स्थितानि शेषाणि सप्त शतान्येकोनचत्वारिंशदधिकानि 181७३९ ततोऽपि चतुर्विंशेन शतेन धनिष्ठा शुद्धा जातानि षट् शतानि पश्चोत्तराणि ६०५ ततोऽपि सप्तपश्या शतभिषक् शुद्धा स्थितानि पश्चारपञ्च शतान्यष्टात्रिंशदधिकानि ५३८ एतेभ्योऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन पूर्वभद्रपदा शुद्धा स्थित्तानि चतुरधिकानि शाचत्वारि शतानि ४०४ तेभ्योऽपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराम्यामुत्तरभद्रपदा शुद्धा स्थिते शेषे द्वेशते युत्तरे २०३ ताभ्या-1 मपि चतुस्त्रिंशेन शतेन रेवती शुद्धा स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः ६९ आगतमश्विनीनक्षत्रस्यैकोनसप्ततिं चतुस्विंशदधिका दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] FP ~444~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रशप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्राप्ति" मूल एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] सू ७५ गाथा सूर्यप्रज तभागानामवगाह्य द्वितीय स्वमृतु चन्द्रः परिसमापयति, तथा ट्युत्तरचतुःशततमचन्द्रििजज्ञासायां स ध्रुवराशिः पञ्चो-१२माभूते प्तिवृत्तिः सरशतवयप्रमाणो धियते, धृत्वा चाष्टभिः शतैः व्युत्तरैर्गुण्यते, जाते द्वे लक्षे चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि (मल०) पञ्चदशोत्तराणि २४४९१५, तत्र सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं षट्त्रिंशच्छतानि षट्यधिकानि, तथाहि-पट्स अर्द्धक्षेत्रेषु । | चन्द्रनक्षत्र नक्षत्रेषु प्रत्येक सप्तपष्टिरंशा ब्यक्षेत्रेषु नक्षत्रेषु प्रत्येक वे शते एकोत्तरे अंशानां पञ्चदशसु समक्षेत्रेषु प्रत्येकं चतुस्विंश || करणं ||२१६॥ & शतमिति षट् सप्तपध्या गुण्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि श्रुत्तराणि ४०२ तथा षट् एकोत्तरेण शतद्वयन गुण्यन्ते जातानि द्वादश शतानि पडत्तराणि १२०६ तथा पतुर्विंशं शतं पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि विंशतिः शतानि दशोत्तराणि २०१०| एते च त्रयोऽपि राशयः एकत्र मील्यन्ते मीलयित्वा च तेष्वभिजितो द्वाचत्वारिंशत्प्रक्षिप्यन्ते, जातानि षट्त्रिंशच्छ-14 तानि षष्ट्यधिकानि, एतावता एकनक्षत्रपर्यायपरिमाणेन पूर्वराशेः २४४९१५ भागो हियते, लब्धाः षट्षष्टिर्नक्षत्रपपर्यायाः पश्चादवतिष्ठन्ते पञ्चपञ्चाशदधिकानि यखिंशच्छतानि ३३५५, तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशच्छुद्धा स्थितानि शेषाणि प्रयखिंशरछतानि त्रयोदशाधिकानि २३१३ एतेभ्य त्रिभिः सहस्रदयशीत्यधिकैरनुराधान्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि |४|| शेषे तिष्ठतों द्वे शते एकत्रिंशदधिके २३१ ततः सप्तषष्ट्या ज्येष्ठा शुद्धा स्थितं चतुःषष्ट्यधिक शतं १६४ ततोऽपि चतुविंशेन शतेन मूलनक्षत्र शुद्ध स्थिता पश्चात् त्रिंशत् ३०, आगतं पूर्वाषाढानक्षत्रस्य त्रिंशतं चतुर्विंशदधिकशतभागाना- II 13॥१६॥ मवगाह्य चन्द्रो व्युत्तरचतुःशततमं स्वमूतुं परिनिष्ठापयति। तदेवमुक्तं सूर्य परिमाण चन्द्र परिमाणं च, सम्पति लोक-४ ट्या यावदेकैकस्य चन्दौः परिमाणं तावदाह-ता सवेवि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, सर्वेऽप्येते षट्सङ्ख्याः दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] marwaTNEDHNOrg ~445~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा प्राडादय ऋतषः प्रत्येकं चन्द्रवः सन्तो द्वौ द्वौ मासी वेदितव्यो, तौ च किंप्रमाणावित्याह-'तिचउप्पण्ण'मित्यादि. बीणि शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि रात्रिंदिवाना द्वादशं च द्वापष्टिभागा रात्रिंदिवस्येति शेषः, इत्येवंरूपेणादानेना। है इत्येवंरूपं संवत्सरप्रमाणमादायेत्यर्थः गण्यमानौ द्वौ मासौ सातिरेकाणि-मनागधिकानि द्वाभ्यां रात्रिंदिवस्य द्वापष्टिभा गाभ्यामधिकानीति भावः एकोनषष्टिरेकोनषष्टिः रात्रिंदिवानि रात्रिंदिवाण-रात्रिदिवपरिमाणेनाख्यातापिति वदेत् । तथाहि-द्विद्विमासप्रमाणाः पट् ऋतव इति त्रयाणां चतुःपश्चाशदधिकानां रात्रिंदिवशतानां पडूभिर्भागे हते लब्धा एकोनषष्टिरहोरात्रा द्वादशानां च द्वाषष्टिभागानां षभिर्भागहारे द्वौ द्वाषष्टिभागी इति, एवं च सति कर्ममासापेक्षया एकैकस्मिन् ऋतौ लौकिकमेकैकं चन्द्र मधिकृत्य व्यवहारत एकैकोऽयमरात्रो भवति, सकले तु कर्मसंवत्सरे | षट् अवमरात्राः, तथा चाह-'तत्थे"त्यादि, तत्र-कर्मसंवत्सरे चन्द्रसंवत्सरमधिकृत्य व्यवहारतः खल्विम यक्ष्यमाMणक्रमाः षट् अवमरात्राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तइए पवे'इत्यादि सुगमम् , इयमत्र भावना-दह कालस्य सूर्यादिमियो पलक्षितस्थानादिप्रवाहपतितप्रतिनियतस्वभावस्य न स्वरूपतः कापि हानिर्नापि कश्चिदपि स्वरूपोपचयो यत्त्विदमयम-18 रात्रातिरात्रप्रतिपादनं तत्परस्परं मासचिन्तापेक्षया, तबाहि-कर्ममासमपेक्ष्य चन्द्रमासस्य चिन्तायामबमरात्रसम्भवः कर्ममासमपेक्ष्य सूर्यमासचिन्तायामतिरावकल्पना, तथा चोक्तम्-"कालस्स नेव हाणी नवियुही या अवडिओ कालो। जायइ बहोवढी मासाणे एकमेकाओ ॥१॥" तबावमरात्रभाषनाकरणार्थमिदं पूर्वाचार्योपदर्शितं गाथाद्वयं-"चंदऊमासाणं भंसा जे दिस्सए बिसेसमि । ते भोमरत्तभागा भवंति मासस्स नायबा ॥ १ ॥ बावद्विभागमेग दिवसे | दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] RECE FridaIMAPIVAHauWORK ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཡྻཱ , ཊྛཡྻཱཡྻ अनुक्रम -१०७] प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) ॥२१७॥ चन्द्रषु संजाइ ओमरत्तस्स । बावद्वीप दिवसेहिं ओमरतं तभ हवः ॥ २ ॥" अनयोर्व्याख्या कर्म्ममासः परिपूर्णत्रिंशदहो- ४ १२ प्राभृते रात्रप्रमाणश्चन्द्रमास एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशश्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य ततश्चन्द्रमासस्य चन्द्रमासपरिमा पणस्य ऋतुमासस्य च कर्म्ममासपरिमाणस्य च इत्यर्थः परस्परविश्लेषः क्रियते, विश्लेषे च कृते सति ये अंशा उद्धरिता दृश्यन्ते त्रिंशत् द्वाषष्टिभागरूपाः ते अवमरात्रस्य भागाः तद्व्यवमरात्रस्य परिपूर्ण मासद्वयपर्यन्ते भवति, ततस्तस्य सरकारले भागा मासस्यावसाने द्रष्टव्याः, यदि त्रिंशति दिवसेषु त्रिंशद् द्वाषष्टिभागा अवमरात्रस्य प्राप्यन्ते तत एकस्मिन् दिवसे कतिभागाः प्राप्यन्ते, राशित्रयस्थापना - ३० । ३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमस्य राशेस्त्रिंशद्रूपस्य गुणनं, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातास्त्रिंशदेव, तस्था आदिराशिना त्रिंशता भागे हृते लब्ध एकः आगतं प्रतिदिवसमेकैको द्वाषष्टिभागो लभ्यते, तथा चाह- 'यावट्ठित्यादि, द्वापष्टिभाग एकैको दिवसे दिवसे संजायते अवमरात्रस्य, गाथायामेकशब्दो दिवसशब्दश्चागृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्याद्वीप्सां गमयति नपुंसकनिर्देशश्च प्राकृतलक्षणवशात् तदेवं यत एकैकस्मिन् दिवसे एकैको द्वाषष्टिभागोऽवमरात्रस्य सम्बन्धी प्राप्यते ततो द्वापट्या दिवसेरेकोडबमरात्रो भवति, किमुक्तं भवति ? - दिवसे दिवसे अघमरात्रसत्कैकैकद्वापष्टिभागवृद्ध्या द्वाषष्टितमो भागः सञ्जायमानो द्वापष्टितमदिवसे मूलत एवं त्रिषष्टितमा तिथिः प्रवर्त्तते इति, एवं च सति य एकषष्टितमोऽहोरात्रस्तस्मिन्नकपष्टितमा द्वाषष्टितमा च तिथिनिंधनमुपगतेति द्वापष्टितमा तिथिलोंके पतितेति व्यवहियते, उक्तं च- "एक्कसि अहोर ते दोवि तिही जत्थ निहणमेजासु । सोत्थ तिही परिहायइ" इति वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य श्रावणादेः तृतीये पर्वणि सति प्रथमोऽ F&P On ~447~ चन्द्रन क्षेत्र करणं सू ७५ अवमरात्रिकरण ॥२१७॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ུདྡྷཝོཝཱ ཡྻཱ , ཊྛཡྻཱ ཡྻ अनुक्रम -१०७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ (मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि -प्रणीता वृत्तिः प्राभृत [१२], मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) Eatont वमरात्रः, तस्यैव वर्षाकालस्य सम्बन्धिनि सप्तमे पर्वणि सति द्वितीयोऽवमरात्रस्तदनन्तरं शीतकालस्य तृतीये पर्वणि मूलापेक्षया एकादशे तृतीयोऽवमरात्रः तस्यैव शीतकालस्य सप्तमे पर्वणि मूलापेक्षया पञ्चदशे चतुर्थः तदनन्तरं ग्रीष्मकालस्य तृतीये पर्वणि मूलापेक्षया एकोनविंशतितमे पञ्चमस्तस्यैव ग्रीष्मकालस्य सप्तमे पर्वणि मूलापेक्षया त्रयोविंशतितमे पठः, तथा चोक्तम्"तइयम्मि ओमरतं कायर्व सत्तमंमि पर्वमि । वासहिमगिरहकाले चाम्मासे विधीयते ॥ १ ॥ इह आषाढाचा ऋतवो लोके प्रसिद्धिमैयरुः, ततो लौकिकव्यवहारमपेक्ष्यापादादारभ्य प्रतिदिवसमेकैकद्वापष्टिभागहान्या वर्षाकालादिगतेषु तृतीयादिषु पर्वसु यथोक्ता अवमरात्राः प्रतिपाद्यन्ते, परमार्थतः पुनः श्रावण बहुलपक्षप्रतिपलक्षणात् युगादित आरभ्य चतुचतुःपर्वातिक्रमे वेदितव्याः, अथ युगादितः कतिपर्वातिक्रमे कस्यां तिथाववमरात्रीभूतायां तया सह का तिथिः परि | समाप्तिं यास्यतीति चिन्तायामिमाः पूर्वाचार्योपदर्शिताः प्रश्ननिर्वचनरूपा गाथा: - "पाडिवयओमरते कइया बिइया समप्पिहीइ तिही । बिझ्याए वा तुझ्या तझ्याए वा चउत्थी उ ॥ १ ॥ सेसासु चैव काहिइ तिहीसु बवहारगणियदिद्वासु । सुहुमेण परिलतिही संजायइ कमि पर्वमि१ ॥ २ ॥ ख्वाहिगा ऊऊया बिगुणा पवा हवंति कायद्या । एमेव हवइ जुम्मे एकतीसा जुया पद्या ॥ ३ ॥ एतासां व्याख्या-इह प्रतिपद आरभ्य यावत्पञ्चदशी एतावत्यस्तिथयस्तासां च मध्ये प्रति|पद्यवमरात्रीभूतायां सत्यां कस्मिन् पर्वणि पक्षे द्वितीया तिथिः समाप्स्यति प्रतिपदा सह एकस्मिन्नहोरात्रे समाप्तिमुपयास्यतीति ?, द्वितीयायां वा तिथाववमरात्रीभूतायां कस्मिन् पर्वणि तृतीया समाप्तिमेष्यति, तृतीयायां वा तिथाववम रात्रीसम्पन्नायां कस्मिन् पर्वणि चतुर्थी निधनमुपयास्यति ? एवं शेषास्वपि तिथिषु व्यवहारगणितदृष्टासु छोकप्रसिद्ध F&PO ~ 448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ཡྻཱ , ཊྛཡྻཱཡྻ अनुक्रम -१०७] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः) प्राभृत [१२], ---- प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञ तिवृत्तिः ( मल० ) ॥२१८॥ Jan Eaton intamatta व्यवहारगणितपरिभावितासु पञ्चमी पष्ठी सप्तम्यष्टमी नवमी दशमी एकादशी द्वादशी त्रयोदशी चतुर्दशी पञ्चदशीरूपासु शिष्यः प्रक्षं करिष्यति, यथा-सूक्ष्मेण प्रतिदिवस में कैकेन द्वापष्टिभागरूपेण लक्ष्णेन भागेन परिहीयमानायां तिथौ पूर्वस्याः पूर्वस्या अमवमरात्रीभूतायास्तिथेरानन्तर्येण परापरा तिथिः कस्मिन् पर्वणि सञ्जायते समाप्तिः १ एतदुक्तं भवति चतुर्थ्या तिथाववमरात्रीभूतायां कस्मिन् पर्वणि पञ्चमी समाप्तिमुपैति पञ्चम्यांचा षष्ठी एवं यावत्पञ्चदश्यां तिधायवमरात्रीभूतायां कस्मिन् पर्वणि प्रतिपद्धपा तिथिः समानोतीति शिष्यस्य प्रश्नमवधार्य निर्वचनमाचार्य आह-'स्वाहिगाउ' इत्यादि इह याः शिष्येण प्रश्नं कुर्वता तिथय उद्दिष्टास्ता द्विविधास्तद्यथा-ओजोरूपा युग्मरूपाश्च, ओजो विषमं युग्मं समं, तत्र या ओजोरूपास्ताः प्रथमतो रूपाधिकाः क्रियन्ते ततो द्विगुणास्तथा च सति तस्यास्तस्यास्तिथेर्युग्मपर्वाणि निर्वाचनरूपाणि समागतानि भवन्ति, 'एमेव हवइ जुम्भे' इति या अपि युग्मरूपास्तिथयस्तास्वपि एवमेव पूर्वोक्तेनैव प्रकारण करणं प्रवर्त्तनीयम् नवरं द्विगुणीकरणानन्तरं एकत्रिंशद्युताः सत्यः पर्वाणि निर्वचनरूपाणि भवन्ति, इयमत्र भावना - यदाऽयं प्रश्नः कस्मिन् पर्वणि प्रतिपदि अवमरात्रीभूतायां द्वितीया समापयतीति तदा प्रतिपत् किलोद्दिष्टा, सा च प्रथमा तिथिरित्येको धियते, स रूपाधिकः क्रियते, जाते द्वे रूपे ते अपि द्विगुणीक्रियेते जाताश्चत्वार आगतानि चत्वारि पर्वाणि ततोऽयमर्थः- युगादितश्चतुर्थे पर्वणि प्रतिपद्यवम रात्रीभूतायां द्वितीयासमाप्तिमुपयातीति, युक्तं चैतत् तथाहि प्रतिपद्युद्दिष्टायां चत्वारि पर्याणि समागतानि पर्व च पश्चदशतिध्यात्मकं ततः पञ्चदश चतुर्भिर्गुण्यन्ते जाता पष्टिः ६०, प्रतिपदि द्वितीया समापयतीति द्विरूपे तत्राधि के प्रक्षिसे जाता द्वाषष्टिः, सा च द्वापट्या भज्यमाना निरंशं भागं प्रयच्छति, लब्ध एकक इत्यागतः प्रथमोऽवमरात्र F&PO ~449~ १२ प्राभूते अवमराधि करणं सु ७५ ॥ २९८ ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा इत्यविसंवादिकरणं, यदा तु कस्मिन् पर्वणि द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीया समाप्नोतीति प्रश्नस्तदा द्वितीया किल || परेणोद्दिष्टेति द्विको धियते, सरूपाधिकः कृतो जातानि त्रीणि रूपाणि तानि द्विगुणीक्रियन्ते जाताः षट् द्वितीया च तिथिः समेति षटू एकत्रिंशद्युताः क्रियन्ते जाताः सप्तत्रिंशत् आगतानि निर्वचनरूपाणि सप्तत्रिंशत् पर्वाणि, किमुक्त भवति ?-युगा-121 दितः सप्तत्रिंशत्तमे पर्वणि गते द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीया समामोति, इदमपि करणं समीचीनं, तथाहि-द्वितीयाया| मुद्दिष्टायां सप्तत्रिंशत्पर्वाणि समागतानि, ततः पञ्चदश सप्तत्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतानि पापश्चाशदधिकानि ५५५ द्वितीया नष्टा तृतीया जातेति त्रीणि रूपाणि तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातानि पञ्च शतानि अष्टापश्चाशदधिकानि ५५८, एषोऽपि राशिषिष्या भग्यमानो निरंशं भागं प्रयच्छति, लब्धाच नवेत्यागतो नवमोऽवमरात्र इति समीचीनं करणं, एवं सर्वास्वपि तिथिषु करणभावना करणसमीचीनत्वभावना अवमरात्रसतया च स्वयं भावनीया, पर्वनिर्देश-| मात्रं तु क्रियते, तत्र तृतीयायां चतुर्थी समापयतत्यष्टमे पर्वणि गते चतुर्थ्यां पञ्चमी एकचत्वारिंशत्तमे पर्वणि पञ्चम्यां षष्ठी द्वादशे पर्वणि पश्यां सप्तमी पञ्चचत्वारिंशत्तमे सप्तम्यामष्टमी षोडशे अष्टम्यां नवमी एकोनपञ्चाशत्तमे | नवम्यां दशमी विंशतितमे दशम्यामेकादशी त्रिपञ्चाशत्तमे एकादश्यां द्वादशी चतुर्विंशतितमे द्वादश्यां त्रयोदशी सप्त-18 पञ्चाशत्तमे त्रयोदश्यां चतुर्दशी अष्टाविंशतितमे चतुर्दश्यां पञ्चदशी एकषष्टितमे पञ्चदश्यां प्रतिपत् द्वात्रिंशत्तमे इति, एवमेता युगपूर्वा, एवं युगोत्तराद्धेऽपि द्रष्टव्याः । तदेवमुक्ता अवमरात्राः, सम्बत्यतिरात्रप्रतिपादनार्थमाह-तत्धे'त्यादि, तत्रैकस्मिन् संवत्सरे खल्बिमे पट् अतिरात्राः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-'चउत्थे पवे' इत्यादि, इह कर्ममासमपेक्ष्य सूर्यमासचिन्ता 456 दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] ~450 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] गाथा सूर्यप्रज्ञ- यामेकैकसूर्य परिसमाप्तावेकैकोऽधिकोऽहोरात्र प्राप्यते, तथाहि-त्रिंशताऽहोरात्रैरेकः कर्ममासः सार्द्धत्रिंशताऽहोरात्रैरेकः॥१२मामृतराप्तवृत्तिःसूर्यमासो मासद्वयात्मकच ऋतुस्तत एकसूर्य परिसमाप्ती कर्ममासद्धयमपेक्ष्यैकोऽधिकोहोरात्र प्राप्यते. सर्यर्तश्चाषाढा- 1मातरात्राः (मल०) | दिकस्मत आषाढादारभ्य चतुर्थे पर्वणि गते एकोऽधिकोऽहोरात्रो भवत्यष्टमे पर्वणि गते द्वितीयस्तुतीयो द्वादशे पर्वणि सू ७५ चतुर्थः पोडशे पञ्चमो विंशतितमे पष्ठश्चतुर्विंशतितमे इति, अवमरात्रश्च कर्ममासद्वयमपेक्ष्य चन्द्रमासचिन्तायां, चन्द्र-121 आवृत्तयः ॥२१९॥ सू ७६ मासाश्च श्रावणाद्यास्ततो वर्षाकालस्य श्रावणादेरित्युक्तं प्राग, सम्प्रति यमपेक्ष्यातिरात्रो यं चापेक्ष्यावमरात्रा भवन्ति तदे-1 तत्प्रतिपादयति-"छच्चेव च अइरत्ता आइच्चाउ हवंति माणाहि । छच्चेव ओमरत्ता चंदाउ हवंति माणाहि ॥१॥" अतिसाराचा भवन्त्यादित्यात-आदित्यमपेक्ष्य, किमुक्तं भवति !-आदित्यमपेक्ष्य कर्ममासचिन्तायां प्रतिवर्ष पट अतिरात्रा भवंति ||2| लाइति माणाहि-जानीहि, तथा षट् अवमरात्रा भवन्ति चन्द्रात्-चन्द्रमपेक्ष्य चन्द्रमासानधिकृत्य कर्ममासचिन्तायां प्रतिस-13/ वत्सरं षट् अवमरात्रा भवन्तीत्यर्थः,इति माणाहि-जानीहि । तदेवमुक्ता अवमरात्रा अतिरात्राच, संप्रत्यावृत्तीविवक्षुरिदमाह तत्य खलु इमाओ पंच वासिकीओ पंच हेमंताओ आउट्टिओ पण्णत्ताओ, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं वासिकी आउहि चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएति !, ता अभीयिणा, अभी|यिस्स पदमसमएणं, तं समयं च गं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति , ता सेणं, पूसस्स एगूणवीस ॥२१९॥ मुहुत्ता तेत्तालीसं च यावद्विभागा मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीस चुपिणया भागा। |सेसा, ता एएसि पंचण्हं संवच्छराणं दोचं वासिकिं आउहि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? तामा दीप अनुक्रम [१०६-१०७]] RSSNESS FitraalMAPINANORN ~451~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०८] संठाणाहिं संठाणाणं एकारस मुहत्ते ऊतालीसंच वाचट्ठिभागा मुहुत्तस्स वावविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेपण्णं] चुणिया भागा सेसा, तं समय सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता पूसेणं, पूसस्स णं तं यज पढ़मया, | एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तचं वासिक्किं आउटिं चंदे केणं णक्खसेणं जोएइ, ता विसाहाहिं विसा| हाणं तेरस मुहुत्ता चउप्पणं च यावद्विभागा मुहुत्तस्स चावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चत्तालीसं चुणिया | भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति , ता पूसेणं, पूसस्स तं चेब, ता एतेसि णं पंचहं | संबच्छराणं चउत्धं वासिक आउहि चंदे केणं णक्णत्तेणं जोएति , ता रेवतीहिं, रेवतीणं पणवीसं मुह सायासहिभागा मुहत्तस्स चावहि भागं च सत्तट्टिधा ऐसा बत्तीस चुपिणया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे INण णक्खत्तेणं जोएति , ता पूसेणं पूसस्स तं चेव, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पंचम वासिफि आउला चंदे केणं णक्यत्तेणं जोएति !, ता पुचाहिं फग्गुणीहिं पुवाफग्गुणीणं यारस मुहत्ता सत्तालीसं च पावहिभागा मुहत्तस्स यावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेरस चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्ख-18 तेणं जोएति ?, ता पूसेणं, पूसस्स तं चेव (सूत्रं ७६) RI तत्र-युगे खल्विमाः-वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च वार्पिक्यः-वर्षाकालभाविन्यः पञ्च हेमन्त्यः-शीतकालभाविन्यः सर्वसयया । दश आवृत्तयः सूर्यस्य प्रज्ञप्ताः,इयमत्र भावना-आवृत्तयो नाम भूयो भूयो दक्षिणोत्तरगमनरूपास्ताश्च द्विविधाः, तद्यथा-एका सूर्यस्यावृत्तयोऽपराश्चन्द्रमसः, तत्र युगे सूर्यस्यावृत्तयो दश भवन्ति, चतुस्त्रिंशं च शतमावृत्तीनां चन्द्रमसः, उक्त च-"सूर-1 FridaIMAPIVARANORN ~452 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०८] सूर्यप्रज्ञ-18सय अयणसमा आउडीओ जुगंभि दस होति। चंदस्स य आउट्टी सयं च चोत्तीसयं चेव ॥१॥" अथ कथमवसीयते सूर्यस्या-11१२ प्राभूतेनिवृत्तिः वृत्यो युगे दश भवन्ति चन्द्रमसश्चावृत्तीनां चतुस्त्रिंशं शतमिति, उच्यते, उक्त नाम आवृत्तयो भूयो भूयो दक्षिणोत्तर- आवृत्त्या (मल०) गमनरूपास्ततः सूर्यस्य चन्द्रमसो वा यावन्त्ययनानि तावत्य आवृत्तयः, सूर्यस्य चायनानि दश, एतच्चावसीयते त्रैराशि- सू ७६ ॥२२०॥ कबलात् , तथाहि-यदि व्यशीत्यधिकेन शतेन दिवसानामेकमयनं भवति ततोऽष्टादशभिः शतस्त्रिंशदधिकः कति भय|नानि लभ्यन्ते, राशित्रयस्थापना १८३ । १ । १८३० । अत्रान्त्येन राशिना मध्यमस्य राशेर्गुणनं एकस्य च गुणने | तदेव भवतीति जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० तेषामायेन राशिना त्र्यशीत्यधिकशतप्रमाणेन भागहरणं जालब्धा दश, आगतं युगमध्ये सूर्यस्य दश अयनानि भवन्तीत्यावृत्तयोऽपि दश तथा यदि त्रयोदशभिदिवसैश्चतचत्वारिंशता च सप्तपष्टिभागैरेकं चन्द्रस्यायनं भवति ततोऽष्टादशभिर्दिवसशतैत्रिंशदधिकैः कति चन्द्राययनानि भवन्ति, 10 १८३० । तत्राचे राशौ सवर्णनाकरणाथै त्रयोदशापि दिनानि सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशमत्सप्तपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, यानि चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि तान्यपि सवर्णनार्थ सप्तपथ्षा गुण्यन्ते, जातानि द्वादश लक्षाणि द्वे सहने षट् शतानि दशोत्तराणि १२०२६१० ॥२०॥ तवंरूपेणान्त्येन राशिना मध्यमस्य राशेरेककरूपस्य गुणनं, एकस्य च गुणने तदेव भवतीत्येतावानेव राशिजों-14 तस्तस्य नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्भागो हियते लब्धं चतुस्त्रिंशं शतं १३४ एतापन्ति चन्द्रायणानि युगमध्ये भव-13 |न्तीत्येतावत्यश्चन्द्रमस आवृत्तयः । सम्पति का सूर्यस्यावृत्तिः कस्यां तिथी भवतीति चिन्तायां यत्पूर्वाचार्यरुपदर्शित Fhi ~453~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०८ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [७६] प्राभृत [१२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१७], उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः करणं तदुपदर्श्यते "आउट्टीहिं एगूणियाहिं गुणियं सयं तु तेस्रीयं । जेण गुणं तं तिगुणं रूवहियं पक्खिवे तत्थ ॥ १ ॥ पण्णरस भाइयंमि उ जं लद्धं तं तइसु होइ पवेसु । जे अंसा ते दिवसा आउट्टी तत्थ बोद्धया ॥ २ ॥” अनयोर्व्याख्या- आवृत्तिभिरेकोनकाभिर्गुणितं शतं व्यशीत्यधिकं किमुतं भवति । -या आवृत्तिर्विशिष्टतिथियुक्ता ज्ञातुमिष्यते तत्सङ्ख्या एकोना क्रियते तत्तस्तया व्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, गुणयित्वा च येनाङ्केन गुणितं व्यशीत्यधिकं शतं तदङ्कस्थानं त्रिगुणं कृत्वा रूपाधिकं सत् तत्र पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते ततः पञ्चदशभिर्भागो हियते, हृते च भागे यल्लब्धं ततिषु तावत्सङ्ख्याकेषु पर्वस्वतिक्रान्तेषु सा विवक्षिता आवृत्तिर्भवति, ये त्वंशाः पश्चादुद्धरितास्ते दिवसा ज्ञातव्याः, तत्रतेषु दिवसेषु मध्ये चरमदिवसे आवृत्तिर्भवतीति भावः इहावृत्तीनामेवं क्रमो युगे प्रथमा आवृत्तिः श्रावणे मासे द्वितीया माघमासे तृतीया भूयः श्रावणे मासे चतुर्थी माघमासे पुनरपि पञ्चमी श्रावणे षष्ठी माघमासे भूयः सप्तमी श्रावणे अष्टमी माघे नवमी श्रावणे दशमी माघमासे इति, तत्र प्रथमा किल आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति यदि जिज्ञासा तदा प्रथमावृत्तिस्थाने एकको धियते स रूपोनः क्रियते इति न किमपि पश्चाद्रूपं प्राप्यते, ततः पाश्चात्ययुगभाविनी या द | शमी आवृत्तिस्तत्सङ्ख्या दशकरूपा प्रियते तथा व्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, दशकेन किल गुणितं व्यशीत्यधिकं शतमिति ते दश त्रिगुणाः क्रियन्ते जाता त्रिंशत् सा रूपाधिका विधेया जाता एकत्रिंशत् सा पूर्वराशौ प्रक्षिष्यते जातान्यष्टादश शतान्येकषष्ट्यधिकानि १८६१ तेषां पञ्चदशभिर्भागो हियते लब्धं चतुर्विंशत्यधिकं शतं शेषं तिष्ठति एकं रूपं, आगतं चतुर्विंशत्यधिकपर्वशतात्मके पाश्चात्ये युगेऽतिक्रान्ते अभिनवे युगे प्रवर्त्तमाने प्रथमा F&P One ~454~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सयम तिवात्तः आवृत्तयः (मल.) प्रत सूत्रांक [७६] दीप आवृत्तिः प्रथमायां तिथौ प्रतिपदि भवतीति, तथा कस्यां तिथौ द्वितीया माघमासभाविन्यावृत्तिर्भवतीति यदि जिज्ञासा ||१२प्राभते ततो द्विको प्रियते, स रूपोनः कृत इति जात एककस्तेन त्र्यशीत्यधिक शतं गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति 21 जातं ध्यशीत्यधिकमेव शतं, एकेन गुणितं किल त्र्यशीत्यधिक शतमिति एकत्रिगुणीक्रियते, जातस्त्रिकः स रूपाधिको सू७६ ॥२२॥1 विधीयते, जाताश्चत्वारः ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातं सप्ताशीत्यधिक शतं १८७, तस्य पश्चदशभिर्भागो हियते, लब्धा द्वादश शेषास्तिष्ठन्ति सप्त, आगतं युगे द्वादशसु पर्वस्वतिक्रान्तेषु माघमासे बहुलपक्षे सप्तम्यां तिथौ द्वितीया माघमासIM भाविनीनां तु मध्ये प्रथमा आवृत्तिरिति, तथा तृतीया आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति जिज्ञासायां त्रिको प्रियते, स रूपोनः कर्तव्य इति जातो द्विकः तेन त्र्यशीत्यधिक शतं गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि षट्पट्याधिकानि २१६, द्विकेन । किल गुणितं त्र्यशीत्यधिकं शतं ततो द्विकस्त्रिगुणीक्रियते जाताः षट् ते रूपाधिकाः क्रियन्ते जाताः सप्त ते पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि ३७३ तेषां पञ्चदशभिर्भागो हियते लब्धा चतुर्विंशतिः २४ शेषा-1 मस्तिष्ठन्ति त्रयोदशांशाः, आगतं युगे तृतीया आवृत्तिः श्रावणमासभाविनीनां तु मध्ये द्वितीया चतुर्विंशतिपर्वात्मके प्रथम संवत्सरेऽतिकान्ते श्रावणमासे बहुलपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ भवतीति, एवमन्यास्वप्यावृत्तिषु करणवशाद्विवक्षितास्तिथयः। Mआनेतन्याः, ताश्चेमा युगे चतुर्था माघमासभाविनीनां तु मध्ये द्वितीया शुक्लपक्षे चतुथ्यों पञ्चमी श्रावणमासभाविनीनां तु II ॥२२१॥ मध्ये तृतीया शकुपक्षे दशम्या षष्ठी माघमासभाविनीनां तु मध्ये तृतीया माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपदि सप्तमी श्रावण-IN Bमासभाविनीनां तु मध्ये चतुर्थी श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तम्यां अष्टमी माघमासभाविनीनां तु मध्ये चतुर्थी माघमासे बहु अनुक्रम [१०८] JAINEDuratim intimatsunt ~455 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप लपक्षे त्रयोदश्यां नवमी श्रावणमासभाविनीनां तु मध्ये पञ्चमी श्रावणमासे शुक्लपक्षे चतुर्थ्यां दशमी माघमासभावनीनां तु मध्ये पञ्चमी माघमासे शुक्लपक्षे दशम्यां, तथा चैता एव पञ्चानां श्रावणमासभाविनीनां पञ्चानां तु माघमासभाविनीनां |तिथयोऽन्यत्राप्युक्ताः-"पढमा बहुलपडिवए विइया बहुलप्स तेरसीदिवसे । सुद्धस्स य दसमीए बहुलस्स य सचमीए उ ॥१॥ सुद्धस्स चउत्थीए पयत्तए पंचमी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सबाओ साधणे मासे ॥२॥ बहुलस्स सत्तमीए| IX पढमा सुद्धस्स तो चउत्थीए । बालरस य पाडिवए बहुलस्स य तेरसीदिवसे ॥३॥ सुद्धस्स य दसमीए पवत्तए पंच-18 मी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सबाओ भाहमासंमि ॥ ४॥" एतासु सूर्यावृत्तिषु च चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थमिदं करण-"पंच सया पडिपुष्णा तिसत्तरा नियमसो मुहुत्ताण । छत्तीस बिसद्विभागा छच्चेव य चुणिया भागा ॥१॥ | आउद्दीहिं एगूणियाहि गुणिओ हविज धुवरासी । एयं मुहुत्तगणियं एत्तो वोच्छामि सोहणगं ॥ २ ॥ अभिइस्स नय NIमुहुत्ता विसहि भागा य होति चउवीसं । छावट्ठी य समग्गा भागा सत्तहिछेयकया ॥ ३ ॥ उगुणई पोइवया तिसु चेव न-1 योत्तरेसु रोहिणिया । तिसु नवनउइएसु भवे पुणवसू उत्तरा फग्गू ॥ ४ ॥ पंचेव अउणपन्ना समाई उगुणत्तराई छच्चेव ।। सोझाहि बिसाहासु मूले सत्तेव वायाला ॥ ५॥ अहसय मुगुणवीसा सोहणगं उत्तरा असाढाणं । चउवीस खलु भागा छावट्ठी चुणिया भागा॥६॥ एयाई सोहइत्ता सेस तं हवेज नक्खत्तं । चंदेण समाउत्तं आउट्टीए उ बोद्धयं ॥७॥ एतासां व्याख्या-पञ्च शतानि त्रिसप्ततानि-त्रिसप्तत्यधिकानि परिपूर्णानि मुहतानां भवन्ति पत्रिंशच्च द्वापष्टिभागाः पटू चैव चूर्णिका भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तषष्टिभागाः एतावान् विवक्षितकरणे ध्रुवराशिः, कथम-12 C अनुक्रम [१०८] - - - JANElaimstom intimational Fhi waliSDHRUTH ~456~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०८] सूर्यप्रज्ञ- स्योत्पत्तिरिति चेत् , उच्यते, इह यदि दशभिः सूर्यायनैः सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकेन सूर्यायनेन किं १२माभृते लभामहे 1, राशित्रयस्थापना-१० । ६७।१। अत्रान्त्येन राशिना एककेन मध्यस्य राशेः सप्तपष्टिलक्षणस्य गुणना आवृत्तयः (मल.DIPएकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाता सप्तपष्टिः ६७ तस्य दशभिर्भागहारे लब्धाः षट् पर्यायाः एकस्य च पर्यायस्य सू७६ सप्त दशभागास्तद्गतमुहर्तपरिमाणमधिकृतगाधायामुपन्यस्तं, कथमेतदवसीयते अथैतावन्तस्तत्र मुहर्ता इति चेत् | उच्यते, औराशिककर्मावतारबलात्, तथाहि-यदि दशभिर्भागः सप्तविंशतिदिनानि एकस्य च दिनस्य एकविंशतिः सप्तसापष्टिभागा लभ्यन्ते ततः सप्तभिर्भागः किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१० ॥ २७-२८-७ । अत्रान्त्येन राशिना सप्त-11 कलक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तविंशतिर्दिनानि गुण्यन्ते, जातं नवाशीत्यधिक शतं १८९, तस्यायेन राशिना दशकलक्ष-181 Aणेन भागे हते लब्धाः अष्टादश दिवसाः, ते च मह नयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चत्वारिंशदधिकानि पण शतानि | मुहूर्तानां ५४०, शेषा उपरि तिष्ठन्ति नय, ते मुहूर्तकरणार्धं त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते द्वे दाते सप्तत्यधिके २७०, ततो दशभिर्भागे लब्धाः सप्तविंशतिर्मुहर्ताः २७, ते पूर्वस्मिन् मुहूर्तराशी प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पश शतानि सप्तषष्ठयधि-X कानि ५६७, येऽपि च एकविंशतिः सप्तपष्टिभागा दिनस्य तेऽपि महतभागकरणा) त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंशदधि- २२२॥ कानि पटू शतानि ६३०, तानि सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि दशोत्तराणि चतुश्चत्वारिंशच्छतानि ४४१०, तेषां दशभिर्भागे | रहते लब्धानि चत्वारि शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि ४४१, तेषां सप्तपष्ट्या भागे हते लब्धाः षट् मुहूत्तास्ते पूर्वमुत्राशी | &प्रक्षिप्यन्ते जातानि सर्वसमयया मुहर्तानां पश्च शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि ५७३, शेषा चोद्धरति एकोनचत्वारिंशत् सा JaiMENiratouminumatsunaTRI ~457~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०८] द्वाषष्ट्या गुण्यते जातानि चतुर्विंशतिः शतानि अष्टादशाधिकानि २४१८ तेषां सप्तषष्ट्या भागो दियते लब्धाः पत्रिंशत् । द्वापष्टिभागाः शेषासिष्ठन्ति पट् ते च एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्काः सप्तपष्टिभागाः एते चातिश्लक्ष्णरूपा भागा इति चूर्णिका भागा व्यपदिश्यन्ते, तदेवमुक्तो ध्रुवराशिः, सम्प्रति करणमाह-'आउद्दीहि'इत्यादि, यस्यां यस्यामावृत्ती नक्षयोगो ज्ञातुमिष्यते तया तया आवृत्त्या एकोनिकया-एकरूपहीनया गुणितोऽनन्तरोक्तस्वरूपो भवेत् यावान् एतमुहूगुणित-मुहूर्तपरिमाणं, अत ऊध्य वक्ष्यामि शोधनक, अत्र प्रथमतोऽभिजितो नक्षत्रस्य शोधनकमाह-'अभिहस्से-12 त्यादि, अभिजितः-अभिजिन्नक्षत्रस्य शोधनकं नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिापष्टिभागाः एकस्य च द्धप-४ प्टिभागस्य सत्काः सप्तपष्टिच्छेदकृताः समग्राः-परिपूर्णाः षट्पष्टिभागाः, कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेत् , उच्यते, इहाभिजिलासोऽहोरात्रसरका एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः चन्द्रेण योगः, ततोऽहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता इति मुहर्तभागकरणा सा एक विंशतिः त्रिंशता गुण्यत्ते, जातानि पटू शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा नव मुहत:। शेषास्तिष्ठन्ति सप्तविंशतिः, ते द्वापष्टिभागकरणार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि पोडश शतानि चतुःसप्तत्यधिकानि M६७४, तेषां सप्तपठया भागे हते लब्धाश्चतुर्विंशतिषिष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति पट्पष्टिः, ते च एकस्य द्वापष्टिभागस्य । सरकाः सप्तपष्टिभागाः, सम्पति होपनक्षत्राणां शोधनकान्युच्यन्ते-'उगुणमित्यादि गाथात्रयं, एकोनषष्यधिक शन प्रोष्ठपदा--उत्तरभवपदा, किमुकं भवति :-एकोनषष्ट्यधिकेन शतेनाभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदान्तानि नक्षत्र.गि शुद्धयन्ति, तथाहि-नय मुहर्ता अभिजितो नक्षत्रस्य त्रिंशत् श्रवणस्य त्रिंशत् धनिष्ठायाः पश्चदश शतभिषजः त्रिंशत् पूर्वभद्रपदाया| JANETamistimalth FitraalMAPINANORN ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०८ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [७६] प्राभृत [१२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥२२३॥ पञ्चचत्वारिंशत् उत्तरभद्रपदाया इति शुध्यन्त्येकोनषष्ट्यधिकेन शतेनोत्तरभद्रपदान्तानि नक्षत्राणि, तथा त्रिषु नवोत्तरेषु शतेषु रोहिणिका - रोहिणिकान्तानि शुद्ध्यन्ति, तथाहि एकोनषष्ट्यधिकेन शतेनोत्तरभाद्रपदान्तानि शुद्धयन्ति, ततस्त्रिंशता मुहूर्त्ते रेवती त्रिंशताऽश्विनी पञ्चदशभिर्भरणी त्रिंशता कृत्तिका पञ्चचत्वारिंशता रोहिणिकेति, तथा त्रिषु नवनवत्यधिकेषु शतेषु पुनर्वसुः - पुनर्वस्वन्तानि शुद्धयन्ति, तत्र त्रिभिः शतैर्नवोत्तरै रोहिणिका - रोहिणिकांतानि शुद्धयन्ति ततस्त्रिंशता मुहमृगशिरः पञ्चदशभिरार्द्रा पंचचत्वारिंशता पुनर्वसुरिति, तथा पञ्च शतान्ये कोनपञ्चाशानि - एकोनपञ्चाशदधिकानि उत्तरफाल्गुनी पर्यन्तानि, किमुक्तं भवति ? - पञ्चभिः शतैरेकोनपञ्चाशदधिकेरुत्तरफाल्गुन्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति, तथाहि - त्रिभिः शतैर्नवनवत्यधिकैः पुनर्वस्वन्तानि शुद्ध्यन्ति, ततस्त्रिंशता मुहूतैः पुष्यः पञ्चदशभिरश्लेषा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्व फाल्गुनी पञ्चचत्वारिंशता उत्तरफाल्गुनीति, तथा पट् शतान्ये कोन सप्तानि - एकोनसप्तत्यधिकानि विशाखानां विशाखापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि, तथाहि - उत्तरफाल्गुन्यन्तानां पञ्च शतान्येकोनपञ्चाशदधिकानि शोध्यानि, ततस्त्रिंशन्मुहूर्त्ता हस्तस्य त्रिंशत् चित्रायाः पञ्चदश स्वातेः पञ्चचत्वारिंशद्विशाखाया इति, तथा मूले-मूलनक्षत्रे शोध्यानि सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ७४४, तत्र पट् शतान्येकोनसप्तत्यधिकानि ६६९ विशाखान्तानां नक्षत्राणां शोधयानि, ततः त्रिंशम्मुहूर्त्ता अनुराधायाः पञ्चदश ज्येष्ठायास्त्रिंशन्मूलस्येति, तथा अष्टौ शतानि समाहृतानि अष्टशतमेकोनविंशअत्यधिकं किमुक्तं भवति-अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि उत्तराषाढानां - उत्तराषाढान्तानां नक्षत्राणां शोधनकं, तथाहि| मूलान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि सप्त शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ७४४ तत्र त्रिंशन्मुहूर्त्ताः पूर्वाषाढा नक्षत्रस्य F&PO ~459~ १२ प्राभृते आवृत्तयः सू ७६ ॥२२३॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०८] पश्चचत्वारिंशदुत्तरापादानामिति, तथा सर्वेषामपि चामूनां शोधनकानामुपरि अभिजितः सम्बन्धिनश्चतुर्विंशतिद्वाषष्टिभागाः शोध्याः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्काः षट्पष्टिश्चर्णिका भागाः । 'एयाई' इत्यादि, एतानि-अनन्तरोदितानि शोधनकानि यथासम्भवं शोधयित्वा यत् शेषमुद्धरति तत्र यथायोगमपान्तरालवर्तिषु नक्षत्रेषु शोधितेषु यन्नक्षत्र न शुद्धयति तन्नक्षत्रं चन्द्रेग समायुक्त विवक्षितायामावृत्ती वेदितव्यं, तत्र प्रथमायामावृत्ती प्रथमतः प्रवत्त-| IMमानायां केन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्र इति यदि जिज्ञासा ततः प्रथमावृत्तिस्थाने एकको भियते, स रूपोनः क्रियता इति न किमपि पश्चादूपमवतिष्ठते, ततः पाश्चात्ययुगभाविनीनामावृत्तीनां मध्ये या दशमी आवृत्तिस्तत्सङ्ख्या । दशकरूपा प्रियते, तया प्राचीनः समस्तोऽपि ध्रुवराशिः पञ्च शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च । *मुहर्तस्य च पत्रिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट् सप्तषष्टिभागाः । ५७३ । ३६। इत्येवंप्रमाणे दशभिर्गुण्यते, तत्र मुहूर्तराशौ दशभिर्गुणिते जातानि सप्तपश्चाशच्छतानि त्रिंशदधिकानि ५७३०, येऽपि च षट्त्रिंशत् द्वापष्टिभागाः तेऽपि दशभिर्गुणिता जातानि त्रीणि शतानि पश्यधिकानि ३६० तेषां द्वाषया भागो हियते लब्धाः पश्च मुहूर्तास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातः पूर्वराशिः सप्तपञ्चाशच्छतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि ५७३५, शेषाणि तिष्ठन्ति द्वापष्टि-I | भागाः पञ्चाशत् ५०, येऽपि षट् चूर्णिका भागास्तेऽपि दशभिर्गुणिता जाता षष्टिस्तत एतस्माच्छोधनकानि शोध्यन्ते, तत्रोत्तराषाढान्तानां नक्षत्राणां शोधनकमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि ८१९, तानि किल यथोदितराशौ सप्तकृत्यः । शुद्धिमाप्नुवन्तीति सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि सप्तपञ्चाशच्छतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि ५७३३, तानि सप्तपञ्चाशच्छतेभ्यः Fit ~460~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप सूर्य- पञ्चत्रिंशदधिकेभ्यः पात्यन्ते, स्थितौ पश्चात् द्वौ मुहूत्तौं, तो द्वापष्टिभागीकरणाथै द्वापट्या गुण्येते, जातं चतुर्विशं शतं द्वाप-11 तिवृत्तिः १२माभृते प्टिभागानां १२४ तस्यासने पश्चाशल्लक्षणे द्वापष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यते जातं चतुःसप्तत्यधिक शतं द्वापष्टिभागानां आवृत्तया ( मल ||१७४, तथा येऽभिजितः सम्बन्धिनः चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागाः शोध्याः ते सप्तभिर्गुण्यन्ते जातमपट्यधिक शातं १५८,। सत् चतुःसप्तत्यधिकात् शतात् शोभ्यते, स्थिताः शेषाः षट् द्वापष्टिभागाः, ते चूर्णिकाभागकरणार्धं सप्तपट्या गुण्यन्ते । गुणधित्वा च ये प्राक्तनाः पष्टिः सप्तपष्टिभागास्ते तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि द्वापषधिकानि ४६२, ततो येऽभिजितः सम्बन्धिनः पट्पष्टिणिका भागाः शोध्याः ते सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि द्वाषष्यधिकानि ४६२ ताम्यनन्तरोदितराशेः शोध्यन्ते, स्थितं पश्चात् शून्यं, तत आगतं साकल्येनोत्तराषाढानक्षत्रे चन्द्रण भुक्ते सति तदनन्तरस्याभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये युगे प्रथमा आवृत्तिः प्रवर्तते, एतदेव प्रश्ननिर्वचनरीत्या प्रतिपादयति एएसिण'मित्यादि, एतेषां अनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां वार्षिकी-वर्षाकालसम्ब-| PIधिनी श्रावणमासभाविनीमित्यर्धः आवृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति !-केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रवत्त-131 यति !, एवं गीतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता अभिइणा'इत्यादि, अभिजिता नक्षत्रेण युनक्ति, एतदेव विशेषतः आचष्टे-अभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये युनक्ति, तदेवं चन्द्रनक्षत्रमवबुध्य सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नमाह-'तं समयं च -15/॥ २२४॥ मित्यादि, तस्मिंच समये गमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति-केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् तां प्रधमाऽऽवृत्ति प्रयतैयतीति !, भगवानाह-'ता पूसेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , पुष्येण युक्तस्तां प्रथमामावृत्ति युनकि, अनुक्रम [१०८] FhiralMAPIMIREUMORE maratTEDTUNorg ~461~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०८] एतदेव सविशेषमाचष्टे-तदानीं पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुह स्त्रिचत्वारिंशश्च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभाग 1 सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कायविंशर्णिका भागाः शेषाः, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, त्रैराशिकबलात्, तथाहि-यदि दशभिरयनैः पञ्च सूर्यकृतान्नक्षत्रपर्यायान् लभामहे तत एकेनायनेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना |४|१०।५।१ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेः पञ्चकरूपस्य गुणनं जाताः पञ्चैव तेषां दशभिर्भागे| &ाहते लब्धमर्द्ध पर्यायस्य, तत्र नक्षत्रपर्यायः सप्तषष्टिभागरूपोऽष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, तथाहि-पद नक्षत्राणि शतभिषकप्रभृतीनि अर्द्धनक्षत्राणि ततस्तेषां प्रत्येक सास्त्रियस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः, ते सास्त्रियस्त्रिंशत् पनिगुण्यन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, पद नक्षत्राणि उत्तरभाद्रपदादीनि बर्द्धक्षेत्राणि, ततस्तेषां प्रत्येकमेकं शतं सप्तपष्टि-18 भागानामेकस्य च सप्तपष्टिभागस्याई, एतत् पनिगुण्यते, जातानि पटू शतानि व्युत्तराणि ६०३, शेषाणि पशदश नक्षबाणि समक्षेत्राणि तेषां प्रत्येक सप्तपष्टिभागाः ततः सप्तषष्टिः पञ्चदशभिगुप्यते, जातं पश्चोत्तरं सहने १००५, एकविंशतिश्चाभिजितः सप्तपष्टिभागाः, सर्वसङ्ख्यया सप्तषष्टिभागानामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एष परिपूर्ण सप्तपष्टिभागात्मको नक्षत्रपर्यायः, एतस्यार्धे नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, तेभ्य एकविंशतिरभिजितः सम्बन्धिनी शक्षा शेषाणि तिष्ठन्ति अष्टौ शतानि चतुर्नवत्यधिकानि ८९४, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, सम्धात्रयोदश १३, शेपास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशतिः, त्रयोदशभिश्च पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ये च शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशतिर्भागास्ते 41 मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पट् शतानि नवत्यधिकानि ६९०, तेषां सप्तपष्टया भागो हियते (मं०७०००) ~462 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सू७६ प्रत सूत्रांक [७६] C-A दीप सूर्यप्रज्ञ- लब्धा दश मुहूर्ताः १०, शेपास्तिष्ठन्ति विंशतिः, सा द्वापष्टिभागकरणार्थ द्वापट्या गुण्यते, जातानि द्वादश शतानि चत्वारिं- Mआवृत्तयः १२मामृत शिवृत्तिःशदधिकानि १२४०, तेषां सप्तषठ्या भागो हियते, लब्धा अष्टादश द्वाषष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति चतुर्विंशत् द्वापष्टिभागस्य ४|| (मल०) सप्तपष्टिभागाः, तत आगतं पुष्यस्य दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागेष्येकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतु॥२२५॥ स्विंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु एकोनविंशतोच मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेप्येकस्य च द्वापष्टिभा गस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमाश्रावणमासभाविन्याऽऽवृत्तिः प्रवर्तते इति । (अथ द्वितीयश्रावणमासभाब्या वृत्तिविषये प्रश्नसूत्रमाह) ता एएसिण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एतेषा-अनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां । सामध्ये द्वितीयां वार्षिकी श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति-केन नक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रो द्वितीयामा|वृत्ति प्रारम्भयति?, एवं प्रश्ने कृते सति भगवानाह-ता संठाणाहिं' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , संस्थानाभिः-संस्थानाशब्देन मृगशिरोनक्षत्रमभिधीयते, तथा प्रवचने प्रसिद्धेः, ततो मृगशिरोनक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रमा द्वितीयां श्रावणमासभाविनी-| मावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानीं च मृगशिरोनक्षत्रस्य एकादश मुहूत्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य । च द्वापष्टिभागस्य त्रिपश्चाशत् सप्तपष्टिभागाः शेषाः, तथाहि-इह या द्वितीया श्रावणमासभाविन्यावृत्तिः सा प्राक्प्रद-13 | शितकमापेक्षया तृतीया ततस्तरस्थाने त्रिको प्रियते, स रूपोनः कार्य इति जातो द्विकस्तेन प्राक्तनो भुवराशिः पञ्च श-11॥२२५॥ तानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहानामेकस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट् सप्तपष्टिभागाः ५७३ ।। इत्येवंप्रमाणो गुण्यते, जातान्येकादश शतामि षट्चत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तानां ११४६ द्वासप्तति अनुक्रम [१०८] JainEairatominumatural maratTEDTUNorg ~463 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०८] रेकस्य मुहूर्त्तस्य सत्का द्वापष्टिभागाः ७२ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ।। तत एतेभ्यो मुहूर्तानामष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तष-1M ष्टिभागैरेकः परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां शतानि त्रीणि सप्तविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहू-11 स्य सप्तचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः ३२७ । । तत एतेभ्यखिभिर्महशतनवोत्तरैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पदृषष्ट्या सप्तषष्टिभाग-1 रभिजिदादीनि रोहिणिकापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, 'तेसु चेव नवोत्तरेसु रोहिणिया' इत्यादिप्रागुक्तवचनात् , ततः स्थिताः पश्चादष्टादश मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तपष्टिभागाः12 १८॥ ३।४। एतापता मृगशिरो न शुद्ध्यति, तत आगतं मृगशिरा नक्षत्रं एकादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति ( संप्रति सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्रं चाह-) 'तं समयं 5 च णमित्यादि, तस्मिंश्च समये सूर्यः केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः तां द्वितीयां वार्षिकीमावृत्तिं युनक्ति, भगवानाह-'ता पूसेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, पुष्येण युक्तः, 'तं चेच'त्ति वचनसामादिदं द्रष्टव्यमापुस्सस्स एगूणवीस मुहत्ता तेयालीसं च चावहिभागा मुहत्तस्स वावद्विभागं च सत्तद्विहा छेत्ता तेत्तीस युणिया भागा-11 | ससा' इति, यह सूर्यस्य दशभिरयनैः पक्ष सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, द्वाभ्यां चायनाभ्यामेकः, तत्रोत्तरायणं कुर्षन सर्प-12 FitneralMAPINAHINORN marwaTNEDHNOrg ~4644 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [७६] सूर्यमज्ञ- देवाभिजिता नक्षत्रेण सह वोगमुपागच्छति, दक्षिणायनं कुर्वन पुष्येण, तस्य च पुष्यस्य एकोनविंशती मुहूत्र्तेषु एकस्य । १२प्राभूते विवृत्तिःच मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तथा चोक्तम्- आवृत्तयः "अभितराहिं नितो आइचो पुस्सजोगमुवगयरस । सबा आउट्टीओ करेइ से साधणे मासे ॥ १॥" इत्यादि, ततः सू ७६ ॥२२६॥1'पुस्सेण' मित्यादि उक्त, सम्प्रति तृतीयश्रावणमासभाब्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि णमित्यादि, सुगर्म, भग- वानाह-'ता विसाहाहिं'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , विशाखाभिः-विशाखानक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रमास्तृतीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्तयति, तदानीं च-तृतीयावृत्तिप्रवर्तनसमये विशाखाना-विशाखानक्षत्रस्य त्रयोदश महर्ता एकस्य च मुहर्तस्य चतुःपञ्चाशद् द्वापष्टिभागा एक च द्वापष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सरकाश्चत्वारिंशचूर्णिका|| ट्राभागाः शेषाः, तथाहि-तृतीया श्रावणमासभायिन्यावृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया पश्चमी, ततस्तत्स्थाने पचको भियते, स रूपोनः कार्य इति जातश्चतुष्कस्तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । गुण्यते, जातानि द्वाविंशतिः शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तानां चतुश्चत्वारिंशं शतं मुहूर्त्तगतानां द्वाषष्टिभागानामेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तष-11 प्टिभागाः २२९२ । १४४ ॥ २४॥ तत एतेभ्यः षोडशभिर्मुहूर्तशतैरष्टात्रिंशदधिकरष्टाचत्वारिंशता च द्वापष्टिभा-18/ ॥२२॥ गर्मुहुर्तस्य द्वापष्टिभागगतानां च सप्तपष्टिभागानां द्वात्रिंशेन शतेन द्वौ परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायौ शुद्धी, स्थितानि पश्चात् बापटू शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि मुहानां महूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां चतुर्नवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षड्विंशतिः सप्तषष्टिभागाः ६५४।९४।२६, तत एतेभ्यः पञ्चभिः शतैरेकोनपञ्चाशदधिकैर्मुह नामेकस्य च मुहूर्तस्य चतु-1४॥ %A5%A5%-56-56 दीप अनुक्रम [१०८] %A5% FirmwMAPINIUMORE ~465 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पटवा सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितं पश्चात्पञ्चोत्तरं मुहूर्त्तशतं मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानामेकोनसप्ततिरेक स्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः। सप्तपष्टिभागाः, तत्र द्वाषष्ट्या द्वापष्टिभागैरेको मुहूत्तों लब्धः, स्थिताः पश्चात् सप्त द्वापष्टिभागाः, लब्धश्च मुहूत्तों मुहूर्तराशी प्रक्षिप्यते, जातं पदुत्तरं मुहर्तशतं १०६४१, ततः पञ्चसप्तत्या मुहूर्तहस्तादीनि स्वातिपर्यन्तानि श्रीणि नक्ष-IM त्राणि शुद्धानि, स्थिताः शेषा एकत्रिंशत् महर्ताः, आगतं विशाखानक्षत्रस्य त्रयोदशसु मुहतेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतु: पञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तष्टिभागेषु शेषेषु चन्द्रस्तृतीयां श्रावणमासभाविनी-15 Mमावृत्ति प्रवर्तयति । सम्पति सूर्यनक्षत्रविषय प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्रं चाह-तं समयं च णमित्यादि, सुगम । अधुना | चतुर्थ्यावृत्तिविषये प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि णमित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता रेवइहिं'इत्यादि, रेवत्या युक्तश्चन्द्रश्चिती श्रावणमासभापिनीमावृत्ति प्रवर्तयति, सदानी च रेवतीनक्षत्रस्य पञ्चविंशतिर्मुह द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागा मुहू-11 तस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का पविशतिणिका भागाः शेषाः, तथाहि-प्रागुपदर्शितक्रमापे-14 क्षया श्रावणमासभाविनी चतुर्थ्यावृत्तिः सप्तमी ततः सप्तको प्रियते, स रूपोनः कार्य इति जातः पटुः तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । १६ । ६ । गुण्यते, जातानि चतुर्विंशच्छतानि अष्टात्रिंशदधिकानि ३४३८ मुहर्रानो, मुहूर्तगतानां पिच द्वापष्टिभागानां द्वे शते पोडशोत्तरे २१६, एकस्य च द्वापष्टि भागस्य पत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः ३६, तत एतेभ्यो दा-1 त्रिंशता हातैः षट्सप्तत्यधिकमहर्रानां मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां पपणवत्या द्वापष्टिभागसत्कानां च सप्तपष्टिभा अनुक्रम [१०८] Coc-CAPACK JIMEAiration intima FhiraMAPIVARAuNORE ~466~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: विवृत्तिः प्रत सूत्रांक [७६] सूर्यप्रज्ञ-Iगानां द्वाभ्यां शताभ्यां चतुःषष्टिसहिताभ्यां चत्वारो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थितं पश्चादेक द्वाषष्ट्यधिक मुहर्तशतं १२ प्राभृते मुहर्त्तगतानां च द्वापष्टिभागानां पोडशोत्तरं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः १६२ । ११५ आवृत्तयः (मल०) |४० । तत एकोनषष्ट्यधिकेन मुहूर्तशतेन एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पटूषष्ट्या सू७६ ॥२२७॥ सप्तपष्टिभागः १५९ ॥ २४ । ६६ । अभिजिदादीनि उत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि भूयः शुद्धानि, स्थिताः पश्चाप्रयो मुहूर्ताः मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानामेकनवतिरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः द्वापाया च द्वापष्टिभागैरेको मुहत्तों लब्धः, स मुहूर्चराशौ प्रक्षिप्यते, जाताश्चत्वारो महूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वापष्टिभागाः (एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ) ४ । २९ ।। ४४१ । सत आगत-रेवतीनक्षत्रं पञ्चविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य द्वात्रिंशति द्वापष्टिभागेष्येकस्य च दापष्टिभागस्य पडूविंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु चतुभी श्रावणमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्त्तयति, 'तं समयं च 'मित्यादि सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्रं च प्राग्वद् भावनीय, साम्प्रतं पञ्चमं श्रावणमासभाव्यावृत्तिविषयं प्रश्न-11 सूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाहता पुघाहि फग्गुणीहि इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्यां युक्तश्चन्द्रः पञ्चमी श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं प्रवयति, तदानी च तस्य पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वादश ॥२२७॥ | मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सरकारत्रयोदश चूर्णिका भागाः झोपास्तथाहि-पनामी श्रावणमासभाविन्यावृत्तिः प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया नयमी ततस्तरस्थाने नवको प्रियते RRC-SCRICA दीप अनुक्रम [१०८] ५%-52- marwaTNEDHNOrg ~467~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] - दीप स रूपोनः कार्य इति जाता अष्टौ, तैः प्रागुक्तो ध्रुवराशिः ५७३। गुण्यते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि चतु-12 पारशीत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां द्वेझते अष्टाशीत्यधिके एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाचत्वारिंशत्:! सप्तपष्टिभागाः ४५८४ । २८८ । ४८॥ तत एतेभ्यश्चत्वारिंशता मुहूर्तशतैः पञ्चनवत्यधिकैर्मुहुर्तगतानां च द्वापष्टि भागानां विंशत्यधिकेन शतेन एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सरकानां सप्तपष्टिभागानां त्रिंशदधिकैखिभिः शतैः पश्च नक्षट्रवपर्यायाः शुद्धाः, स्थितानि पश्चान्मुहानां चत्वारि शतानि एकोननवत्यधिकानि मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां शतं || त्रिपश्यधिकं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ४८९ । १६३ ५३॥ तत एतेभ्यो भूयखिभिः शतमानवत्यधिकमह नामेकस्य च महतस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजि-12 दादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिता पश्चान्मुहूर्तानां नवतिः मुहूर्तगतानां द्वापष्टिभागानामष्टात्रिंशद[धिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः ९० । १३८ । ५४ । तत्र चतुर्विंशत्यधिकेन द्वापष्टिभामगशतेन द्वौ मुहूत्तौ लब्धौ पश्चात् स्थिता द्वापष्टिभागाः चतुर्दश, लब्धौ च मुहूत्ती मुहूर्तराशी प्रक्षिप्येते, जाता मुह नां द्विनवतिः ९२ ॥ १४ ॥ ५४ । तत्र पञ्चसप्तत्या मुहूत्तैः पुष्यादीनि मघापर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहर्ताः १७ । १४ । ५४ । न चैतावता पूर्वफाल्गुनी शुद्ध्यति, तत आगत-पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वादशसु। मामहतेष्वेकस्य च मुहर्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु पश्चमी श्रावणमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्तते, सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्रं च प्राग्वदू भावनीयं, तदेवं चन्द्रनक्षत्रयोग - अनुक्रम [१०८] 1- Oct F OR ~468~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [७६] ॥२२८॥ दीप अनुक्रम [१०८] CC-4HERS विषये सूर्यनक्षत्रयोगविषये च पश्चापि वार्षिकीरावृत्तीः प्रतिपाद्य सम्प्रति हेमन्तीः प्रतिपिपादयिपुस्तद्गतप्रथमावृत्ति-१२पाभूते विषयं प्रश्नसूत्रमाह हेमन्त्य आवृत्तयः ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं हेमंत आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता हत्थेणं, हत्य सू ७७ रस पां पंच मुहता पण्णासं च पावट्ठिभागा मुहत्तस्स पावहिभागं च सत्तद्विधा छत्ता सहि चुणिया भागा| सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णखत्तेणं जोएति ?, उत्तराहिं आसादाहिं, उत्सराणं आसाडाणं चरिम-14 समए, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोचं हेमंतिं आउदि चंदे केणं णवत्तेणं जोएति !, ता सतभिसपाहि, सतभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता अट्ठावीसं च वाचट्ठिभागा मुहत्तस्स चावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता उत्सालीसं चुपिणपा भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्वतेणं जोएति , ता उत्तराहिं आसादाहि. | उत्तराणं आसाहाणं चरिमसमए, तेसि णं पंचण्ह संवच्छराणं तचं हेमंति आउहि चंदे केणं पाक्खत्तेणं जोएति , ता पूसेणं, पूसस्स एकूणवीसं मुहुत्ता तेतालीमं च बाबविभागा मुहत्तस्स यावहिभागं च सत्त-14 द्विधा छेत्ता तेत्तीसं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णवत्तेणं जोएति , ता उत्तराहि आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए, ताएतेसि णं पंचण्ई संबच्छराणं चउत्थि हेमति आउहि चंदे ॥२२८॥ कणं णक्खसेणं जोएति ?, ता मूलेणं, भूलस्स छ मुहुत्ता अट्ठावन्नं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता वीसं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खतेणं जोएति , ता उत्त C JHNEDuratimintimattin FitraalMAPINANORN ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] -500 दीप CO --- राहिं आसाहाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए, ता पतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमं हेमंत आउहि | चंदे केणं णक्यसेणं जोएति ?, कत्तिपाहि, कत्तियाणं अट्ठारस मुहुत्ता छत्तीसं च वावविभागा मुहत्सस्स पाव-II विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता छ चुण्णिपा भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्वत्तेणं जोएति !, ता |उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए । ( सूत्रं ७७) | 'ता एएसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एतेषा-अनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पश्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमांसा हमन्तीमावृत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रवर्त्तयतीति भावः, भगवानाह-'ता| हत्धेणं'इल्यादि, ता इति पूर्ववत् , हस्तेन-हस्तनक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रः प्रवर्तयति, तदानीं च हस्तनक्षत्रस्य पञ्च मुरता | एकस्य च मुहर्तस्य पश्चाशत् द्वापष्टिभागाः एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः षष्टियर्णिका भागाः | शेषाः, तथाहि-हेमन्ती प्रथमा आवृत्तिः प्रागुक्तकमापेक्षया द्वितीया ततस्तत्स्थाने द्विको ध्रियते, स रूपोनः कार्य इति । जात एककस्तेन प्रागुक्तो धुवराशिः ५७३ । । । गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव ध्रुवराशिः,18 | तत एतस्मात् पञ्चभिः शतैरेकोनपञ्चाशदधिकैर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभा-1 | गस्य पदूषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाचतुर्विंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकादश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तषष्टिभागाः २४ ॥ ११॥ ७ ॥ तत आगतंहस्तनक्षत्रस्य पञ्चसु मुहुर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पष्टौ सप्तपष्टिभागेषु Fit अनुक्रम [१०९] ~470~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सू७७ [७७] दीप सूर्यप्रज्ञ-18ोपेषु प्रथमा हेमन्तीमावृत्तिं चन्द्रः प्रययतीति । सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रमाह-तं समयं च णमित्यादि, तस्मिंश्च समये १२ प्राभृते सूर्यः केन नक्षत्रेण युक्तस्तां प्रथमा हेमन्तीमावृत्तिं युनक्ति-प्रवर्त्तयति ?, भगवानाह-'ता उत्तराहिं'इत्यादि, उत्तराभ्या- हेमन्त्य (मल०) भाषाढाभ्यां, तदानीं चोत्तराषाढायाश्चरमसमयः, समकालमुत्तराषाढानक्षत्रमुपभुज्याभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये प्रथम आवृत्तयः ॥२२९॥ हमन्तीमावृत्तिं सूर्यः प्रवर्तयतीति भावः, तथाहि-यदि दशभिरयनैः पश्च सूर्यकृतान्नक्षत्रपर्यायान् लभामहे तत एकेनायनेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना १० ।५।१ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमस्य पक्षकरूपस्य राशे-IX गुणनं जाताः पश्चैव तेषां दशभिर्भागे हते लब्धमेकमबै पर्यायस्य, अर्द्ध च पर्यायस्य सप्तषष्टिभागरूपं नव शतानि पञ्चद-11 शोत्तराणि ९१५, तत्र ये विंशतिः सप्तपष्टिभागाः पाश्चात्ये अयने पुष्यस्य गताः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः स्थिताः ते साम्प्रतमितो राशेः शोध्यन्ते स्थितानि शेषाण्यष्टौ शतान्येकसप्तत्यधिकानि ८७१ तेषां सप्तषश्या भागे हते लवधास्त्र-II योदश पश्चान्न किमपि तिष्ठति, त्रयोदशभिश्चाश्लेषादीन्युत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, तत आगत-अभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये माघमासभाविनी प्रधमा आवृत्तिः प्रवर्तते, एवं सर्वा अपि माघमासभाविन्य आवृत्तयः सूर्यनक्षत्र-12 योगमधिकृत्य वेदितव्याः, उक्तं च-"बाहिरओ पविसंतो आइचो अभिइजोगमुवगम्म । सबा आउडीओ करेइ सो माप-18|| मासंमि ॥१॥" द्वितीयहेमन्तावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसिण'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता सयभिसपाहि इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, शतभिषजा युक्तश्चन्द्रो द्वितीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्तयति, तदानीं च शतभिषजो नक्षत्रस्य लादी मुहतविकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाविंशतिपष्टिभागा एक च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः षट्चत्वारिंदा-| अनुक्रम [१०९] FhiralMAPIMIREUMORE marwaTNEDHNOrg ~471 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] दीप चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया द्वितीया माघमासभाविन्यावृत्तिश्चतुर्थी ततस्तस्याः स्थाने चतुष्को |ध्रियते स रूपोनः कार्य इति जातस्विकः तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ ॥ ३६॥ ६ । गुण्यते जातानि सप्तदश शतान्थेकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्तंगतानां च द्वापष्टिभागानामष्टोत्तर शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाददा सप्तपष्टिभागाः १७१९ । १०८ । १८ । तत एतेभ्यः षोडशभिः शतैरष्टात्रिंशदधिकैर्मुहानामेकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरेकदापष्टिभागसत्कानां च सप्तपष्टिभागानां द्वात्रिंशदधिकेन शतेन द्वौ नक्षत्रपायौ शुद्धौ, स्थिताः पश्चादेकाशीतिर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्याष्टापञ्चाशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विद्यातिः सप्तषष्टिभागाः ८१॥ ५८ । २० । ततो भूयो नवभिर्मुहूत्रेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिनक्षत्रं शुद्ध, स्थिताः पश्चाद् द्वासप्ततिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयविंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्यै कविंशतिः सप्तपष्टिभागाः ७२ । ३३ । २१ । ततस्त्रिंशता मुरत्तैः श्रवणः शुद्धतिशता धनिष्ठा पश्चादव-120 तिष्ठन्ते द्वादश मुहूर्ताः, शतभिषक्नक्षत्रं चार्द्धनक्षत्रं, तत आगतं शतभिषजो नक्षत्रस्य द्वयोर्मुहूर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्या साविंशती द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीया हैमन्ती आवृत्तिः प्रवर्तगते । सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगम, मागेव भावितत्वात् । अधुना तृतीयमाघमासभाव्यावृत्तिविषय है प्रश्नसूत्रमाह-'ता पएसि ण'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता पूसेण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् पुष्येण युक्तश्चन्द्रस्तृतीयां माघमासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानीं च पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् । अनुक्रम [१०९] स-455 % FhiraIMAPIVARAuNORN ~472 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [66] दीप अनुक्रम [१०९ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [७७] प्राभृत [१२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ विवृत्तिः ( मल० ॥२३०|| हमन्त्य आवृत्तयः सू ७७ द्वाषष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयस्त्रिंशचूर्णिका भागाः शेषाः तथाहि प्रागुपदर्शित- १२ प्राभू क्रमापेक्षया तृतीया माघमासभाविन्यावृत्तिः षष्ठी ततस्तस्याः स्थाने पङ्को धियते स रूपोनः कार्य इति जातः पश्चकस्तेन स प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । ३६ । ६ । गुण्यते जातान्यष्टाविंशतिः शतानि पञ्चषश्यधिकानि मुहूर्त्तानां मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानामशीत्यधिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः २८६५ । १८० । ३० । तत एतेभ्यः सप्तपञ्चाशदधिकैः चतुर्विंशतिशतैर्मुहूर्त्तानामेकमुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्विसप्तत्या एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कानां सप्तषष्टिभागानामष्टानवत्यधिकेन शतेन २४५७ । ७२ । १९८ । त्रयो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः स्थितानि पश्चात् चत्वारि मुहूर्त्त शतान्यष्टोत्तराणि मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां पश्चोत्तरं शतमेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः ४०८ । १०५ । ३४ । तत एतेभ्यस्त्रिभिः शतैर्नवनवत्यधिकैर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थिताः पश्चान्नव मुहूर्ता मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानामशीतिः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः द्वापष्ट्या च द्वाषष्टिभागैरेको | मुहूर्तो लब्धः स मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्यते जाता दश मुहर्त्ताः शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिभागा अष्टादश १० । १८ । ३४ । तत आगतं पुष्यस्य एकोनविंशती मुहूर्त्तेयेकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीया माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्त्तते । सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्र च सुगमं । चतुर्थमाघमासभाव्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता मूले 'मित्यादि, ता F&PO ~473~ ॥ २३० ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [66] दीप अनुक्रम [१०९ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [७७] प्राभृत [१२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Eaton intamat इति प्राग्वत् मूलेन युक्तञ्चन्द्रः चतुर्थी हेमन्तीमावृत्तिं प्रयर्त्तयति, तदानीं च मूलस्य मूलनक्षत्रस्य पट् मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टापश्चात् द्वापष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का विंशतिचूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि चतुर्थी माघमास भाविन्यावृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया अष्टमी तस्याः स्थानेऽष्टको प्रियते स रूपोनः कार्य इति जातः सप्तकस्तेन स प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ ।। गुण्यते जातान्येकादशोत्तराणि चत्वारिंशम्मुहूर्त्तशतानि मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ४०११२५२॥४२॥ तत एतेभ्यः पट्सप्तत्यधिकैर्द्वात्रिंशच्छतेमुंहर्त्तानां मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां षण्णवत्या द्वाषष्टिभाग सरकानां च सप्तषष्टिभागानां द्वाभ्यां शताभ्यामष्टषष्ट्यधिकाभ्यां चत्वारो नक्षत्रपर्यायाः शृद्धाः स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मुहूर्त्तीनां मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां द्विपञ्चाशदधिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशसप्तष्टिभागाः ७३५ | १५२ । ४६ । तत एतेभ्यो भूयः षङ्गिः शतैः मुहूर्त्तानामेकोनसप्तत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि विशाखापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थिताः पश्चात् षट्षष्टिर्मुहूर्त्ता मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां सप्तविंशत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सतपष्टिभागाः, चतुर्विंशत्यधिकेन च द्वापष्टिभागशतेन द्वौ मुहत्तौं लब्धी तो मुहूर्त्तराशी प्रक्षिप्येते जाताः अष्टषष्टिर्मुइर्त्ताः शेपास्तिष्ठन्ति द्वापष्टिभागास्त्रयः ६८ । ३ । ४७ । ततः पञ्चचत्वारिंशता मुहूतैरनुराधाज्येष्ठे शुद्धे शेषाः स्थिता - स्त्रयोविंशतिर्मुहूर्त्ताः २३ । ३ । ४७ । चत आगतं मूलस्य षट्सु मुझर्त्तेप्येकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टापश्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य F&P Us On ~474~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: IN प्रत सूत्रांक [७७] दीप सूर्यप्रज्ञा द्वापष्टिभागस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु चतुर्थी माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्तते सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्र १२ प्राभृते. वृत्तिः निर्वचनसूत्र च सुगम, पञ्चममाघमासभाब्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-18 हेमन्त्य (मल.) ता कत्तिपाहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कृत्तिकाभियुक्तश्चन्द्रः पश्चमी हेमन्ती (माघ) मासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति, आवृत्तयः ॥२३॥ तदानीं च कृत्तिकानक्षत्रस्य अष्टादश मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशद् द्वापष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभार्ग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का पट् चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि-पञ्चमी माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया दशमी ततस्तस्याः स्थाने दशको धियते, स रूपोनः कार्य इति जातो नवका, तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । १६ । । । गुण्यते, जातान्येकपणाशच्छतानि सप्तपञ्चाशदधिकानि मुहर्तानां मुहर्जगतानां च द्वापष्टिभागानां त्रीणि शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः । ५१५७ । ३२४ । ५४ । तत एतेभ्य एकोनपश्चाशच्छतैमहत्तैः४ चतर्दशाधिक महतंगतानां च द्वापष्टिभागानां चतुश्चत्वारिंशदधिकेन शतेन द्वापष्टिभागगतानां च सप्तपष्टिभागानां त्रिभिः दाः षण्णवत्यधिकैः पट् नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थिते पश्चान्मुहूर्त्तानां द्वे शते त्रिचत्वारिंशदधिके मुहूर्तगतानां च द्वापटिभागानां चतुःसप्तत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टिः सप्तषष्टिभागाः २४३ । १७४ । ६० । तत एकोनषषधिकैन मुहूर्तशतेन एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापविभागस्य षषष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां चतुरशीतिमुहगतानां च द्वापष्टिभागानां 11 शतमेकोनपञ्चाशदधिक एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकषष्टिः सप्तपष्टिभागाः । ८५ । १४९ । ६१ । ततो द्वापष्टिभागानां अनुक्रम [१०९] ~475 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [66] दीप अनुक्रम [१०९ ] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७७] प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः Jan Eiration intamate चतुर्विशत्यधिकेन शतेन द्वौ मुहत्तों लब्धी पश्चात् स्थिताः पञ्चविंशतिद्वषष्टिभागाः, लब्धौ च मुहत्तौं मुहर्त्तराशी प्रक्षिप्येते, जाता पडशीतिर्मुहूर्त्तानां ततः पश्चसप्तत्या मुहूर्त्तानां रेवत्यश्विनीभरण्यः शुद्धाः स्थिताः पश्चादेकादश मुहूर्त्ताः, | शेषं तथैव ११ । २५ | ६१ तत आगतं - कृतिका नक्षत्रस्याष्टादशसु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहर्त्तस्य पत्रिंशति द्वाषष्टिभागेध्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्सु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु पञ्चमी हैमन्ती आवृत्तिः प्रवर्त्तते, सूर्यनक्षत्रयोगविषये च प्रश्ननिर्वचनसूत्रे सुगमे । तदेवमुक्ता दशापि नक्षत्रयोगमधिकृत्य सूर्यस्यावृत्तयः सम्प्रति चन्द्रस्य वक्तव्यास्तत्र यस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्तमानः सूर्यो दक्षिणा उत्तरा या आवृत्तीः करोति तस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्त्तमानश्चन्द्रोऽपि दक्षिणा उत्तराश्चावृतीः कुरुते, ततो या उत्तराभिमुखा आवृत्तयो युगे चन्द्रस्य दृष्टास्ताः सर्वा अपि नियतमभिजिता नक्षत्रेण सह योगे द्रष्टव्याः यास्तु दक्षिणाभिमुखास्ताः पुष्येण योगे, उक्तं च- "चंदस्सवि नायबा आउट्टीओ जुगंमि जा दिट्ठा। अभिएणं पुस्सेण य नियमं नक्त्त सेसेणं ॥ १ ॥” अत्र 'नक्खससे सेणं'ति नक्षत्रार्द्धमासेन, शेषं सुगमं तत्राभिजित्युत्तराभिमुखा आवृत्तयो भाव्यन्ते, यदि चतुखिंशदधिकेनायनशतेन चन्द्रस्य सप्तषष्टिर्नक्षत्र पर्याया लभ्यन्ते ततः प्रथमेऽयने किं लभ्यते १, राशित्रयस्थापना - १३४ । ६७ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तषष्टिरूपस्य गुणनं जाता सप्तषष्टिरेव 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् तस्याश्च सप्तषष्टेश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागे हुते लब्धमेकमर्थं पर्यायस्थ, तस्मिंश्चाद्धे नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि सप्तषष्टिभागानां भवन्ति, तत्र त्रयोविंशती सप्तषष्टिभागेषु पुष्यनक्षत्रस्य भुक्तेषु | दक्षिणायनं चन्द्रः कृतवान् ततः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा अनन्तरोदितराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि शेषाणि F&P U One ~476~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- विवृत्तिः (मला) प्रत सूत्रांक ॥२३२ [७७] दीप REACCCCX अष्टौ शतान्येकसप्तत्यधिकानि ८७१, तेषां सप्तपट्या भागो हियते, इह कानिचिन्नक्षत्राणि अर्द्धक्षेत्राणि तानि च सार्द्धन- १२ माभृते यस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागप्रमाणानि कानिचित्समक्षेत्राणि तानि परिपूर्णसप्तषष्टिभागप्रमाणानि कानिचिच्च पर्द्धक्षेत्राणिमन्त्य तान्यर्द्धभागाधिकशतसयसप्तपष्टिभागप्रमाणानि, गात्रं स्वधिकृत्य सप्तषष्ट्या शुभयन्तीति सप्तपथ्षा भागहरणं, लब्धास्त्र- आवृत्तयः योदश, राशिचोपरितनो निलेपतः शुद्धः, तैश्च त्रयोदशभिरश्लेषादीनि उत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, तत। सू७७ आगतमभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये चन्द्र उत्तरायणं करोति, एवं सर्वाण्यपि चन्द्रस्योत्तरायणानि बेदितव्यानि, उक्तं च-पन्नरसे उ मुहुत्ते जोइत्ता उत्तरा असाढाओ । एकच अहोर पविसइ अभितरे चंदो ॥१॥" अधुना पुष्ये दक्षिणा आवृत्तयो भाब्यन्ते, यदि चतुस्विंशदधिकेनायनशतेन सप्तपष्टिश्चन्द्रस्य पर्याया लभ्यन्ते तत एकेनायनेन किं| लभामहे , राशित्रयस्थापना-१३५ । ६७।१ । अवान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तपष्टिरूपस्य गुणनं जाताः सप्तपष्टिरेव तस्याश्चतुर्विंशदधिकेन शतेन भागहरणं लब्धमेकमर्द्ध पर्यायस्य, तच्च सप्तपष्टिभागरूपाणि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, तत एकविंशतिरभिजितः सम्बन्धिनः सप्तपष्टिभागाः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चादष्टौ शतानि | चतुर्नवत्यधिकानि ८९४, तेषां सप्तपच्या भागो हियते, लब्धासघोदश, तैश्च त्रयोदशभिः पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि |शुद्धानि, शेषा तिष्ठति त्रयोविंशतिः, एते च किल सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य ततो मुहूर्तभागकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, २३२॥ जातानि षट् शतानि नवत्यधिकानि ६९०, तेषां सतपष्पा भागे हृते लब्धा दश मुहूचोः, शेपास्तिष्ठन्ति विंशतिः सप्तप-| टिभागाः, तत इदमागत-पुनर्वसुनक्षत्रे सर्वात्ममा भुक्ते पुष्यस्य च दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्सस्य विंशती सप्तपष्टि अनुक्रम [१०९] JaiMENiratom inhuma l ~477~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5-56 प्रत सूत्रांक [७७] दीप भागेषु भुक्तेषु सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाहिर्निष्कामति चन्द्रः, एवं सर्वाण्यपि दक्षिणायनानि भावनीयानि, उक्तं च-"दस | राय मुहुत्ते सगले मुहुत्तभागे य वीसई चेव । पुस्सविसयमभिगओ बहिया अभिनिक्खमइ चंदो ॥१॥” तदेवमुक्का नक्षत्रयोगमधिकृत्य चन्द्रस्याप्यावृत्तयः, सम्पति योगमेव सामान्यतः प्ररूपयति तस्थ खलु इमे दसविधे जोए पं०, तं०-वसभाणुजोए वेणुयाणुजोते मंचे मंचाइमंचे छत्ते छत्तातिच्छते || जुअणद्वे घणसंमहे पीणिते मंडकप्पुते णामं दुसमे, एतासि णं पंचण्हं संवच्छराणं छत्तातिकछसं जोयं चंदे || | कंसि देसंसि जोएति ?, ता जंयुद्दीवस्स २ पाईणपडिणीआयताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चची-1 Xसेणं सतेणं छित्ता दाहिणपुरच्छिमिल्लसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं भागे उवादिणावेत्ता अट्ठावीसति-15 भागं वीसधा छेत्ता अट्ठारसभागे उवादिणावेत्ता तिहि भागेहिं दोहि कलाहिं दाहिणपुरच्छिमिल्लं चउब्भाग मंडलं असंपत्ते एत्य णं से चंदे छत्सातिच्छत्तं जोय जोएति, उप्पि चंदो मझे णक्खत्ते हेट्टा आदिचे, तं समय लाच णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता चित्ताहिं चरमसमए ॥ (सूत्रं ७८) बारसमं पाहुई समत्तं ॥ 'तस्थ खलु'इत्यादि, तत्र युगे खस्वयं वक्ष्यमाणो दाविधो योगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वृषभानुजातः, अत्र अनुजातशब्दः सदृशवचनो, वृषभस्यानुजातः-सदृशो वृषभानुजातः, वृषभाकारेण चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि यस्मिन् योगेऽवतिष्ठन्ते स वृषभानुजात इति भावना, एवं सर्वत्रापि भावयितव्यं, वेणु:-वंशस्तदनजातः-तत्सरशो घेणुकानुजातो मञ्चो-मश्वसदृशः। मश्चात्-व्यवहारप्रसिद्धात् द्वित्रादिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चो मञ्चातिमञ्चस्तत्सदृशो योगोऽपि मञ्चातिमञ्चः, छत्र अनुक्रम [१०९] ~478~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७८] ॥२३॥ दीप अनुक्रम [११०] सूर्यप्रज्ञ- प्रसिद्धं तदाकारो योगोऽपि छत्र, छत्रात्-सामान्यरूपात् उपर्यन्यान्यच्छत्रभावतोऽतिशायि छत्रं छत्रातिच्छत्रं तदा- १२माभूते तिवृत्तिःकारो योगोऽपि छत्रातिच्छत्रं, युगमिव नद्धो युगनद्धः, यथा युगं वृषभस्कन्धयोरारोपितं वत्तते तद्वत् योगोऽपि यः प्रति- वृषभानुजा लाभाति स युगनद्ध इत्युच्यते, घनसम्मदरूपः यत्र चन्द्रः सूर्यो वा ग्रहस्य नक्षत्रस्य वा मध्ये गच्छति, प्रीणितः-उपचयाताद्या यो नीतः यः प्रथमतश्चन्द्रमसः सूर्यस्य वा एकतरस्य ग्रहेण नक्षत्रेण वा एकतरेण जातस्तदनन्तरं द्वितीयेन सूर्यादिना सहो- गाःसू ७८ पचयं गतः स प्रीणित इति भावः, माण्डूकप्लुतो नाम दशमः, तत्र माण्डूकप्लुत्या यो जातो योगः स माण्डूकप्लुतः, स पाच ग्रहेण सह वेदितव्यः, अन्यस्य माण्डूकप्टुतिगमनासम्भवात् , उक्तं च-"चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि प्रतिनियतगतानि प्रहा-1 स्यनियतगतय"इति, तदित्थं यथावबोध दशानामपि योगानां स्वरूपमात्रभावना कृता यथासम्प्रदायमन्यथा वा I वाच्या, तत्र युगे छत्रातिच्छत्रवर्जाः शेपा नवापि योगाः प्रायो बहुशो बहुषु च देशेषु भवन्ति, छत्रातिच्छत्रयोगस्तु कदाचित् कस्मिंश्चिदेव देशे ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामनन्तरोदितानां | चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये छत्रातिच्छत्रं योगं चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति-करोति ?, भगवानाह-'ता' इत्यादि, पता इति पूर्ववत् जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्योपरि प्राचीनापाचीनायतया उदग्दक्षिणायतया अत्र चशब्दोऽनुक्को द्रष्टव्यः यदिवा चित्रविभक्तिनिर्देशादेव समुच्चयो लब्ध इति चशब्दो नोक्तः, यथा 'अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुष पशु-वैवश्वतो न तृष्यति | |सुराया इव दुर्मदी' इत्यत्र, चादयो हि पदान्तराभिहितमेवार्थ स्पष्टयति न पुनः स्वातन्त्र्येण कमप्यर्थमभिदधति इति ॥२३॥ निणींतमेतत् स्वशब्दानुशासने, जीवया-प्रत्यश्चयादवरिकया इत्यर्थः, मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छिया-विभज्य, SC ~479~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) प्रत सूत्रांक [ ७८ ] दीप अनुक्रम [११०] “चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [ ७८ ] प्राभृत [१२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१७],उपांगसूत्र- [६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education inteman इयमत्र भावना - एकया दवरिकया बुद्ध्या कल्पितया पूर्वापरायतया एकया च दक्षिणोत्तरायतया मंडल समकालं विभ व्यते, विभक्तं च सच्चतुर्भागतया जातं, तद्यथा-एको भाग उत्तरपूर्वस्थामेको दक्षिणपूर्वस्यामेको दक्षिणापरस्यामेकोऽपरोतरस्यामिति, तत्र दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्वे चतुर्भागमण्डले - चतुर्भागमात्रे मण्डले मण्डलचतुर्भाग इत्यर्थः, एकत्रिंशद्धा|गप्रमाणे सप्तविंशतिं भागानुपादाय गृहीत्वा आक्रम्येत्यर्थः, अष्टाविंशतितमं च भागं विंशतिधा छित्त्वा तस्य सत्कानष्टादश भागानुपादाय आक्रम्य शेपत्रिभिरेक त्रिंशत्सत्कै भगिर्द्वाभ्यां च कलाभ्यामेकस्य एकत्रिंशत्सत्कस्य भागस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां विंशतितमाभ्यां भागाभ्यां दक्षिणपश्चिमं चतुर्भागमण्डलं मण्डलचतुर्भागमसम्प्राप्तोऽस्मिन् प्रदेशे स चन्द्र छत्रातिच्छत्ररूपं योगं युनक्ति-करोति, एनमेव 'तयथेत्यादिना भावयति, उपरि चन्द्रो मध्ये नक्षत्रमधस्ताच्चादित्य इति, इह मध्ये नक्षत्रमित्युक्तं ततो नक्षत्रविशेषप्रतिपत्त्यर्थं प्रश्नं करोति-'तं समयं च ण'मित्यादि, तस्मिन् समये चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति योगं करोति १, भगवानाह - 'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, तस्मिन् समये चित्रया सह योगं करोति, तदानीं च चित्रायाश्वरमसमयः इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां द्वादशमं प्राभृतं समाप्तं तदेवमुक्तं द्वादशं प्राभृतं सम्प्रति त्रयोदशमारभ्यते तस्य चायमर्थाधिकारो यथा- 'चन्द्रमसो वृद्ध्यपवृद्धी वक्तव्ये' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहते चंदमसो बोवही आहितेति वदेजा ?, ता अट्ठ पंचासीते मुहुत्तसते तीसं च बावद्विभागे मुहू अत्र द्वादशं प्राभृतं परिसमाप्तं For Personal & Private Use Only) अथ त्रयोदशं प्राभृतं आरभ्यते ~480~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 56 दीप अनुक्रम [१११] सूर्यमज त्तिस, ता दोसिणापक्खाओ अन्धगारपक्खमग्रमाणे चंदे चत्तारि बायालसते छत्तालीसं च वावविभागे मु. १३प्राभृते प्तिवृत्तिः सरस जाई चंदे रज्जति तं०-पढ़माए पढमं भाग थितिपाए मितियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भाग, चन्द्रमसो (मल) चरिमसमए चंदे रत्ते भवति, अबसेसे समए चंदे रत्ते य विरत्ते य भवति, इयपणं अमावासा, एस्थ ण पढमे पपवृद्धी पवे अमावासे, ता अंधारपक्खो, तो णं दोसिणापक्वं अयमाणे चंदे चत्तारे याताले मुहत्तसते छातालीसंसू ७९ 1॥२३४॥ च बाबविभागा मुहुत्तस्स जाई चंदे विरजति, तं०-पढमाए पढम भार्ग यितियाए बितियं भार्ग जाप पपणारसीए पण्णरसमं भागं चरिमे समये चंदे विरत्ते भवति, अवसेससमए चंदे रत्ते य विरत्ते च भवति, इयण्णं | पुणिमासिणी, एत्थ णं दोचे पवे पुणिमासिणी ( सूत्रं ७९) &l. 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेण त्वया भगवन् । चन्द्रमसो वृद्धयपवृद्धी आख्याते इति | विदेत, किमुक्तं भवति ।-कियन्तं कालं यावत चन्द्रमसो वृद्धिः कियन्तं च कालं यावदपवृद्धिस्त्वया भगवन्नाख्याता इति वदेत् , एवमुक्त भगवानाह'ता अट्टे'त्यादि, ता इति पूर्वषत् अष्टौ मुहर्चशतानि पञ्चाशीतानि-पशाशीत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्सस्य त्रिंशतं द्वापष्टिभागान् यावत् वृद्ध्यपवृद्धी समुदायेनाख्याते इति वदेत् , यथा एकस्य चन्द्रमासस्य मध्ये एकस्मिन् पक्षे चन्द्रमासो वृद्धिरेकस्मिन् पक्षे चापवृद्धिः, चन्द्रमासस्य व परिमाणमेकोनत्रिंशत् राबिन्दिवानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः,रात्रिन्दिवं च त्रिंशन्मुहर्तकरणार्थमेकोनविंशत् (त्रिंश)ता गुण्यते जातान्यष्टौ शतानि ॥२३४॥ सप्तत्यधिकानि ८७० महानां येऽपि च द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागारात्रिंदिवस्य ते मुहर्तसत्कभागकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, FhiralMAPIMIREUMORE ~481~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७९]] दीप अनुक्रम [१११] जातानि नव शतानि पप्ठ्यधिकानि ९६०, तेषां द्वापष्ट्या भागो हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहर्ताः १५, ते मुहर्तराशी प्रक्षि-18 लाप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानामष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि ८८५, शेषाश्चोद्धरन्ति त्रिंशत् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एतदेव ।। प्रतिविशेषावबोधार्थ वैविक्त्येन स्पष्टयति-'ता दोसिणाओ'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , ज्योत्स्नाप्रधानः पक्षो ज्योत्स्ना पक्षः शुक्लपक्ष इत्यर्थः तस्मात् अन्धकारपक्षमयमानो गच्छन् चन्द्रः चत्वारि मुहूर्तशतानि द्विचत्वारिंशानि-द्विचत्वादारिंशदधिकानि पट्चत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान मुहूर्तस्य वावदपवृद्धि गच्छतीति वाक्यशेषः, यानि यथोक्तसङ्ख्याकानि मुहूर्त्तशतानि यावचन्द्रो राहुषिमानप्रभया रज्यते, कथं रयते ? इति तमेव रागप्रकारं तद्यथेत्यादिना प्रकटयति, प्रध-IA PIमाया-प्रतिपक्षणायां तिथी परिसमानुषत्या प्रथम-परिपूर्ण पञ्चदशं भाग यायव्यते, द्वितीयायां परिसमाप्तवत्या तिथी परिपूर्ण द्वितीयं पञ्चदशं भागं यावत् , एवं यावत्पञ्चदश्यां तिथौ परिसमाप्तवत्यां परिपूर्ण पञ्चदश भार्ग यावद्ग्यते. तस्याश्च पश्चदश्यास्तिधेश्वरमसमये चन्द्रः सर्वात्मना राहुविमानप्रभया रक्तो भवति, तिरोहितो भवतीति तात्पर्याधः, यस्तु पोडशो भागो द्वापष्टिभागद्वयात्मकोऽनावृतस्तिष्ठति स स्तोकत्वाददृश्यत्वाच्च न गण्यते, 'अबसेसे इत्यादि, तं च पञ्चदश्यास्तिथेश्चरमसमयं मुक्त्वा अन्धकारपक्षप्रथमसमयादारभ्य शेषेषु सर्वेष्वपि समयेषु चन्द्रो रको भवति विरक्तश्च, कियानंशस्तस्य राहुणा आवृतो भवति कियांश्चानावृत इति भावः, अन्धकारपक्षवक्तव्यतोपसंहारमाह-'इयाण'मित्यादि, इयमन्धकारपक्षे पञ्चदशी तिथिः णमिति वाक्यालङ्कारे अमावास्या-अमावास्या नानी अत्र युगे प्रथम पर्व अमावास्या, | इह मुख्यवृत्त्या पर्वशब्दस्याभिधेयममावास्या पौर्णमासी च, उपचारात् पक्षे पर्वशब्दस्य प्रवृत्तिस्तत उक्तम्-"एस्थ णं Ft.PraMAPINEMORE ~482 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७९]] सूर्यप्रज्ञ- पढमे पवे अमावासे” इति । अथ कथं चत्वारि मुहूर्त्तशतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि षट्चत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुहू- १३माभृते प्तिवृत्तिःस्य !, उच्यते, इह शुक्लपक्षः कृष्णपक्षो वा चन्द्रमासस्याई, ततः पक्षस्य प्रमाणं चतुर्दश रात्रिन्दिवं सप्तचत्वारिंशत् चन्द्रमसो (मल०) द्वापष्टिभागाः, रात्रिन्दिवस्य परिमाणं त्रिंशन्मुहूर्ता इति चतुर्दशा त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारि शतानि ख्यपवृद्धा ४ विंशत्यधिकानि ४२०, येऽपि च सप्तचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य तेऽपि मुहूर्तभागकरणा) त्रिंशता गुण्यन्ते, ॥२३५।। जातानि चतुर्दश शतानि दशोत्तराणि १४१० सेपो द्वापट्या भागो हियते लब्धा द्वाविंशतिर्मुहर्ताः ते मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातानि पत्यारि मुहर्तानां दातानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि ४४२, शेषास्तिष्ठन्ति षट्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा। मुहर्तस्य, तदेवं यावन्तं कालं चन्द्रमसोऽपवृद्धिस्तावत्कालप्रतिपादनं कृतं अध यावन्त कालं वृद्धिस्तावन्तमभिधिरसुराहता अंधकारपक्खातो णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् अन्धकारपक्षात् णमिति वाक्यालङ्कारे ज्योत्स्नापक्ष-शुक्लपक्षमयमानश्चन्द्रश्चत्वारि द्वाचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तशतानि षट्चत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान मुहूर्तस्य यावद्धिमुप गच्छतीति वाक्यशेषः, यानि-यथोक्तसङ्ख्याकानि मुहूर्त शतानि यावचन्द्रः शनैः शनैर्विरको-राहुविमानेनानापतो भव-12 &ातीति, विरागप्रकारमेवाह-तंजहे'त्यादि, तपथेति विरागप्रकारोपदर्शने प्रथमायां प्रतिपलक्षणायां तिथौ प्रथम पञ्चदश भाग यावत् चन्द्रो विरज्यते, द्वितीयायां द्वितीयं पञ्चदर्श भागं यावत् एवं पञ्चदश्यां पश्चदर्श भार्ग यावत्, तस्याश्च पशदश्याः पौर्णमासीरूपायास्तिधेश्चरमसमये चन्द्रो विरक्तो भवति, सर्वात्मना राहुविमानेनानावृतो भवतीति भावः, च पञ्चदश्याश्चरमसमयं मुक्त्वा शुक्लपक्षप्रथमसमयादारभ्य शेपेषु समयेषु चन्द्रो रक्तश्च भवति विरक्तश्च, देशतो रक्तो| दीप अनुक्रम [१११] S FitneraMAPINAHINORN ~4834 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७९]] दीप अनुक्रम [१११] भवति देशतो विरक्तश्चेति भावः, मुहूर्तसङ्ख्या भावना च प्राग्वत्कर्त्तव्या, शुक्लपक्षवक्तव्यतोपसंहारमाह-इयण्ण'मित्यादि। इयमनन्तरोदिता पञ्चदशी तिथिः पौर्णमासीनामा अत्र च युगे णमिति पूर्ववत् द्वितीय पर्व पौर्णमासी ।। अथैवरूपा युगेला कियत्यो अमावास्याः कियन्त्यश्च पौर्णमास्य इति तद्गतां सर्वसमामाह- . | तस्थ खलु इमाओयावढि पुषिणमासिणीओ पावढि अमावासाओ पण्णताओ, वायढि एते कसिणारागा पावढि एते कसिणा विरागा, एते चउग्रीसे पचसते एते चाउदीसे कसिणरागविरागसते, जावतियाणं पंचण्डं | संवच्छराणं समया एगेणं चवीसेणं समयसतेणूणका एवतिया परित्ता असंखेजा देसरागविरागसता भवंतीतिमक्खाता, अमावासातो गं पुषिणमासिणी चत्तारि पाताले मुहत्तसते छत्तालीसं वावविभागे मुहूत्तस्स आहिसेति वदेजा, ता पुणिमासिणीतो णं अमावासा पत्तारि वायाले मुहत्तसते छत्तालीसं पावविभागे मामुटुत्तस्स आहितेति वदेजा, ता अमावासातोणं अमावासा अट्ठपंचासीते मुहत्तसते तीसं च चावहिभागे मुहूसस्स आहितेति यदेजा, ता पुणिमासिणीतो णं पुषिणमासिणी अट्ठपंचासीते मुहुत्तसेत तीसं बावहि| भागे मुहत्तस्स आहितेति वदेजा, एस णं एवतिए चंदे मासे एस णं एवतिए सगले जुगे ॥ (सूत्रं ८०) M 'तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र युगे खल्विमा:-एवंस्वरूपा द्वाषष्टिः पौर्णमास्यो द्वाषष्टिश्चामावास्याः प्रज्ञप्ताः, तथा युगे। चन्द्रमस एते-अनन्तरोदितस्वरूपाः कृत्वाः परिपूर्णा रागा द्वापष्टिरमावास्यानां युगे द्वापटिसयाप्रमाणत्वात् तास्वेव च चन्द्रमसः परिपूर्णरागसम्भवात् , एते-अनन्तरोदितस्वरूपा युगे चन्द्रमसः कृत्स्ना विरागा: सस्मिना रागाभावा द्वापष्टिः JAINEDuratim intimats FridaIMAPIVARANORN waliSDHRUTH ~484~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १३ माभृते प्रत सूत्रांक [८०] दीप अनुक्रम [११२] जायगे पौर्णमासीनां द्वापष्टिसझ्याकत्वात् तास्वेव च चन्द्रमसः परिपूर्णविरागभावात् , तथा युगे सर्वसङ्ख्यया एक चतुर्विंशत्य-१३ प्रिवृत्तिःप्राधिक पर्वशतं अमावास्यापीर्णमासीनामेव पर्वशब्दवाच्यत्वात् तासां च पृथक् पृथक् द्वापष्टिसखानामेकत्र मीलने चतुर्वि-पर्णिमावा(मल.) शत्यधिकशतभावात् , एवमेव च युगमध्ये सर्वसङ्कलनया चतुर्विशत्यधिक कृत्स्नरागविरागतं, 'जावइयाण'मित्यादि, स्थान्तर यावन्तः पद्यानां चन्द्रचन्द्राभिवद्धितचन्द्राभिवर्धितरूपाणां समया एकेन चतुर्विशत्यधिकेन समयशतेनोना एतावन्तः12 सू८. ॥२३६॥ परीता-परिमिताः असङ्ख्याता देशरागविरागसमया भवन्ति, एतेषु सर्वेष्यपि चन्द्रमसो देशतो रागविरागभावात् , यत्तु चतुविशत्यधिक समयशतं तत्र द्वापष्टिसमयेषु कृत्स्नो रागो द्वापष्टौ च समयेषु कृत्स्नो विरागस्तेन तद्वर्जनं इत्याख्यातं, मयेति गम्यते, एतच भगवाचनमतः सम्यकू श्रद्धेयमिति, सम्प्रति कियत्सु मुहूतेषु गतेष्वमावास्यातोऽनन्तरं पौर्णमासी कियत्सु वा मुहत्तेपु गतेषु पौर्णमास्या अनन्तरममावास्या इत्यादि निरूपयति-ता अमावासातो ण'मित्यादि, सुगम, नवरं | अमावास्याया अनन्तरं चन्द्रमासस्याःन पोर्णमासी पौर्णमास्या अनन्तरमर्द्ध मासेन चन्द्रमासस्थामावास्या अमावास्यायाथामावास्या परिपूर्णेन चन्द्रमासेन पौर्णमास्या अपि पौर्णमासी परिपूर्णेन चन्द्रमासेनेति भवति यथोका मुहूर्तसया, उपसंहारमाह-'एस ण'मित्यादि, एषः-अष्टी मुहूत्तेशतानि पश्चाशीत्यधिकानि द्वात्रिंशच द्वापटिभागा मुहूर्तस्येत्येतावान-एतावत्प्रमाणश्चन्द्रमासः, एतत्-एतावत्प्रमाणं शकलं-खण्डरूपं युगं चन्द्रमासप्रमितं युगशकलमेतदित्यर्थः । सम्पति |चन्द्रो यावन्ति मण्डलानि चन्द्रार्द्धमासेन चरति तन्निरूपणार्थ प्रश्नसूत्रमाह ||२३६॥ ता चंदेणं अदमासेणं चंदे कति मंडलाई चरति !, ता चोइस चम्भागमंडलाई चरति एमं च चउचीस-1 FitraalMAPINAMORE marwaTNEDHNOrg ~485 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: %*5 प्रत सूत्रांक [८१] दीप *ॐॐॐ25-356 |सतभाग मंडलस्स, (ता) आइच्चेणं अद्धमासेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?,(ता) सोलस मंडलाइं चरति सोलस-18 &ामंडलचारी तदाअवराई खल दवे अट्टकाई जाई चंदे केणइ असामण्णकाई सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति.. कतराई खलु दुबे अट्ठकाई जाई चंदे केणइ असामण्णकाई सयमेव पविट्टित्तार चारं चरति ?, इमाई खलु ते थे| अट्ठगाई जाई चंदे केणइ असामपणगाई सयमेव पविहित्ता २ चारं चरति, तंजहा-निक्खममाणे व अमावासंतेणं पविसमाणे चेव पुण्णिमासिंतेणं, एताई खलु दुवे अट्ठगाई जाई चंदे केणइ असामणगाई सयमेव पविद्वित्ता २ चार चरह, ता पढमायणगते चंदे दाहिणाते भागाते पविसमाणे सत्स अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते भागाए पविसमाणे चारं चरति, कतराई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाइं चंदे दाहिणाते 8 ल भागाते पविसमाणे चारं चरति !, इमाई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते भागाते पवि समाणे चारं चरति, तं०-विदिए अद्धमंडले चउत्थे अमंडले छटे अद्धमंडले अट्ठमे अद्धमंडले दसमे अडम-1 डले यारसमे अहमंडले चउदसमे अद्धमंडले एताई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते भागाते लापविसमाणे चार घरति, ता पदमायणगते चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे छ अजमंडलाई तेरस य सत्तदि-| | भागाई अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाए पविसमाणे चारं चरति, कतराई खलु ताई छ अरमंड-| |लाई तेरस य सत्तविभागाई अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे चारं चरति !, इमाई| | खलु ताई छ अहमंडलाई तेरस य सत्तद्विभागाई अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराए भागाते पविसमाणे चार अनुक्रम [११३] FriaTMEPIVARuwant ~486~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] दीप सूर्यप्रज्ञ- चरति, तंजहा-तईए अद्धमंहले पंचमे अद्धमंहले सत्तमे अद्धमंडले नवमे अद्धमंडले एकारसमे अद्धमंडले ||१३प्राभूतेप्तिवृत्तिः। तेरसमे अद्धमंडले पन्नरसमंडलस्स तेरस सत्तविभागाई, एताई स्खलु ताई छ अद्धमंडलाई तेरस य सत्तहि- चन्द्रायनम (मल) भागाइं अहमंडलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे चारं चरति, एतावया च पढमे चंदायणे समत्ते (ण्डलचारः भवति, ता पाक्खसे अदमासे नो चंदे अदमासे नो चन्दे अदमासे पक्खत्ते अडमासे, ता नक्खत्ताओ अद्धमासातो ते चंदे चंदेणं अदमासेणं किमधियं चरति ?, एगं अडमंडलं चरति चत्तारि य सत्तहिभागाई अडमडलस्स सत्तविभागं एकतीसाए छेत्ता णव भागाई, ता दोचायणगते चंदे पुरच्छिमाते भागाते णिक्खममाणे सचउप्पण्णाई जाई चंदे परस्स चिन्नं पडिचरति सत्त तेरसकाई जाई चंदे अप्पणा चिण्णं चरति, ता दोच्चारायणगते चंदे पचत्थिमाए भागाए निक्खममाणे चउप्पपणाईजाई चंदे परस्स चिपणं पडिचरति छ तेरसगाई चंदे अप्पणो चिषणं पहिचरति अवरगाई खलु दुबे तेरसगाईजाई चंदे केणइ असमन्नगाई सयमेव पविद्वित्ता २|| पारं चरति, कतराई खलु ताई दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविट्टित्ता २ चार चरति !, इमाई खलु ताई दुवे तेरसगाई जाई चंदो केणह असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता २ चार चरति । सबभंसरे चेव मंडले सववाहिरे चेव मंडले, एपाणि खलु ताणि दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ जाव चारा ॥ चरह, एतावता दोचे चंदायणे समत्ते भवति, ता णक्खत्ते मासे नो चंदे मासे चंदे मासे णो णक्खते मासे, Mता पक्खताते मासाए चंदेणं मासेणं किमधियं चरति !, ता दो अद्धमंडलाई चरति अङ्क प सत्तविभागाई अनुक्रम [११३] JINESiratimiminate FirmaanMAPINARuwane ~487 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] EXERC दीप अद्धमंडलस्स सत्तविभागं च एकतीसधा छेत्ता अट्ठारस भागाई, ता तचायणगते चंदे पञ्चस्थिमाते भागाए पविसमाणे बाहिराणतरस्स पचत्धिमिल्लरस असमंडलस्स ईतालीसं सत्सद्विभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्सी पचिपणं पहिचरति, तेरस सप्तट्टिभागाइं जाई चंदे परस्स चिपर्ण पटिचरति, तेरस सत्सद्विभागाइं चंदे अप्पणो परस्स चिपणं परिचरति, एतावपाव बाहिराणंतरे पचस्थिमिल्ले अद्धमंडले सम्मत्ते भवति, तचायणगते चंदे पुरच्छिमाए भागाए पचिसमाणे बाहिरतच्चस्स पुरच्छिमिल्लस्स अमंडलस्स ईतालीसं सत्तविभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स चिणं पडियरति, तेरस सत्तविभागाई जाई चंदे परस्स चिपणं पढिचरति, तेरस सत्तद्विभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स प चिपणं पडियरति, एतायताव पाहिरतच्चे पुरच्छिमिल्ले अद्धमंडले। सम्मत्ते भवति, ता तचायणगते चंदे पञ्चत्थिमाते भागाते पविसमाणे माहिरचउत्थस्स पचस्थिमिल्लस्स अद्धर्मलस्स अपससट्ठिभागाई सत्तविभागं च एकतीसधा छेत्सा अट्ठारस भागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिपणं पहियरति, एतावताच बाहिरचउत्थपञ्चस्थिमिल्ले अनमंडले सम्मत्ते भवद । एवं खलु देणं मासेणं चंदे सेरस चप्पण्णगाई दुवे तेरसगाई जाई चंदे परस्स चिपणं पडिचरति, तेरस २ गाई जाई चंदे अप्पणो चिपणं पश्यिरति, दुवे ईतालीसगाई अट्ट सत्तविभागाई सत्तहिभागं च एकतीसधा ऐत्ता अट्ठारसभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिपणं पहिचरति, अवराई खलु दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ अस्सामन्नगाई Fit अनुक्रम [११३] ~488~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत सूत्रांक सू८१ [८१] दीप सूर्यप्रज- सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति, इच्चेसो चंदमासोऽभिगमणणिक्खमणहिणियुडिअणवहितसंठाणसंठितीवि- १३प्राभृते प्तिवृत्तिः ||उवणगिहिपत्ते रुवी चंदे देवे २ आहितेति बदेजा (सूत्र ८१)॥ ॥ तेरसमं पाहुई समत्तं ॥ चन्द्रायनम (मल०) | 'ता चंदेण अदमासेण'मित्यादि ता इति' पूर्ववत् चान्द्रेण अर्द्धमासेन प्रागुक्तस्वरूपेण चन्द्रः कति मण्डलानि Aण्डलचा। चरति 1, भगवानाह-'ता चोहसे त्यादि चतुर्दश सचतुर्भागमण्डलानि-पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्भागसहितानि मण्ड-1 ॥२३८॥ लानि चरति, एकं च चतुर्विंशशतभागं मण्डलस्य, किमुक्तं भवति ?-परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्ड-18 लिस्य चतुर्भाग-चतुर्विंशत्यधिकशतसत्कैकत्रिंशद्भागप्रमाणमेकं च चतुर्विंशशतभागं मण्डलस्य, सर्वसलवया द्वात्रिंशत पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधिकशतभागान चरतीति, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, त्रैराशिकवलात् , तथाहि-12 यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तदशा शतान्यष्टपश्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा किलभ्यते । राशिवयस्थापना १२४ । १७६८ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते स च तावानेव जातः, तत्रायेन राशिना । भागहरणं लब्धाश्चतुर्दश शेषास्तिष्ठन्ति द्वात्रिंशत् १४२ तत्र छेद्यच्छेदकराश्योकेिनापवर्तना क्रियते, तत इदमाग-1 छति-चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य मण्डलस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः १४ । उक्तं चैतदन्यत्रापि-"चोद्दस य मंडलाई || विसद्विभागा य सोलस हविजा । मासद्धेण उडुबई एत्तियमित्तं चरइ खित्तं ॥१॥" "ता आइयेण'मित्यादि, आदित्येनाी-11 मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ?, भगवानाह-'ता सोलसे त्यादि, षोडश मण्डलानि चरति, पोडशमण्डलचारी च २३८॥ तदा अपरे खलु द्वे अष्टके-चतुर्विंशत्यधिकशतसत्कभागाष्टकप्रमाणे ये केनाप्यसामान्ये-केनाप्यनाचीर्णपूर्वे चन्द्रः स्वयमेव अनुक्रम [११३] ~489~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] दीप प्रविश्य चारं चरति, कयराई खल्लु'दुवे इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-इमाई खल्लु'एते खलु द्वे अष्टके ये केनाप्यना-1 चीर्णपूर्वे चन्द्रः स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाहिर्निष्कामन्नेवामावास्यान्ते एकमष्टकं केनाप्यनाचीर्ण चन्द्रः प्रविश्य चार चरति, सर्यवाह्यात् मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्नेव पौर्णमास्यन्ते द्वितीयमष्टक केनाप्यनाचीर्ण चन्द्रः प्रविश्य चारं चरति, 'एपाई खलु दुवे अट्टगाई'इत्यादि उपसंहारवाक्यं सुगम, इह परमार्थतो द्वी पन्द्री एकेन। चान्द्रेणार्द्धमासेन चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान भ्रमणेन पूरयतः ।। पर लोकरूढ्या व्यक्तिभेदमनपेक्ष्य जातिभेदमेव केवलमाश्रित्य चन्द्रश्चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् चरतीत्युकं । अधुना एकश्चन्द्रमा एकस्मिन्नयने कति अर्द्धमण्डलानि दक्षिणभागे कत्यु-17 चरभागे धम्या पूरयतीति प्रतिपिपादयिषुभंगवानाह-ता पढमायणगए चंदे'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, प्रथमायन-II गते-प्रथममयनं प्रविष्टे चन्द्रे दक्षिणस्मादागादभ्यन्तरं प्रविशति सप्त अर्द्धमण्डलानि भवन्ति यानि चन्द्रो दक्षिणमाद | भागादभ्यन्तरं प्रविशन्नाकम्प चार चरति, कयराई खलु' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'इमाई खलु'इत्यादि । इमानि खलु सप्तार्द्धमण्डलानि यानि चन्द्रो दक्षिणस्माद्भागादभ्यन्तरं प्रविशन्नाक्रम्य चारं चरति, तद्यथा-द्वितीयममण्ड-11 लमित्यादि, सुगम, नवरमियमत्र भावना-सर्यवाह्ये पञ्चदशे मण्डले परिचमणेन पूरणमधिकृत्य परिपूर्ण पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिर्भवति, ततोऽपरयुगप्रथमायनप्रवृत्तौ प्रथमेऽहोरात्रे एकश्चन्द्रमा दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रविशन द्वितीयमण्डलमाक्रम्य | RI चारं चरति, स च पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिदिवसे उत्तरस्यां दिशि चारं चरति-चारं चरितवान् स वेदितव्यः, ततः स] अनुक्रम [११३] marwaTNEDHNOrg ~490~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत सूत्रांक [८१] दीप सूर्यप्रज्ञ- तस्मात् द्वितीयात् मण्डलात् शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं १३प्राभूते तृतीयमर्द्धमण्डलमाक्रम्य चार चरति, तृतीये अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थमीमण्डलं चतुर्थे अहोरात्रे उत्तरस्यां चन्द्रायनम (मल०) | दिशि पञ्चममर्द्धमण्डलं पशमे अहोराने दक्षिणस्यां दिशि षष्ठमर्द्धमण्डलं पष्ठे अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि सप्तममर्द्धमण्डलं ICTण्डलाचारः सप्तमे अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि अष्टममर्द्धमण्डलमष्टमेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि नवममर्द्धभण्डलं नवमे अहोरात्रे दक्षि-II | सू८१ ॥२३९॥ प्रणयां दिशि दशममीमण्डलं दशमे अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि एकादशममर्द्धमण्डलमेकादशे अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि द्वादशमर्द्धमण्डलं द्वादशे अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि त्रयोदशमर्द्धमण्डलं त्रयोदशेऽहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि चतुर्दशमी| मण्डल चतुर्दशो अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि पञ्चदशस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदशसधपष्टिभागानाक्रम्य चारं घरति, पतावता ४ाच कालेन चन्द्रस्यायनं परिसमाप्तं । चन्द्रायनं हि नक्षत्रार्द्धमासप्रमाणं, तेन च नक्षत्रार्द्धमासेन चन्द्रधारे सामान्यतस्त्र योदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सषष्टिभागा लभ्यन्ते, तथाहि-यदि चतुस्त्रिंशदधिकेनायनशतेन | सप्तदश शतान्यष्टषष्टिसहितानि मण्डलाना लभ्यन्ते तत एकेनायनेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना १३४ ॥१७६८३१ अत्राम्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशि ण्यते जातः स तावानेव ततस्तस्यायेन राशिना चतुस्खिंदादधिकशतरूपेण भागहरणं लब्धास्त्रयोदश शेषास्तिष्ठन्ति षड्विंशतिः तत्र छेद्यच्छेदकराश्योर्द्विकेनापवर्तना लम्धास्त्रयोदशा सप्तपष्टिभागा P२३९॥ इति, सक्तं च-"तेरस य मंडलाणि य तेरस सत्तहि चेव भागा य । अयणेण चरह सोमो नक्खतेणखमासेणं ॥१॥"LA एतच सामान्यत उक्तं, विशेषचिन्तायां त्वेकस्य चन्द्रमसो युगस्य प्रथमे अयने यथोक्तेन प्रकारेण दक्षिणभागादभ्यन्तरं अनुक्रम [११३] FhiralMAPIMIREUMORE ~491~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [८१] दीप प्रवेशे द्वितीयादीन्येकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्तार्द्धमण्डलानि लभ्यन्ते, उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे तृतीयादीन्ये-121 कान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि षटू परिपूर्णान्यर्द्धमण्डलानि सप्तमस्य तु पञ्चदशमण्डलगतस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः, एतावता च यद्वक्ष्यति उत्तरभागाभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां 'तईए अमंडले' इत्यादि सूत्रं तदपि भावितमेव, सम्पति दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशे यानि सप्ताधमण्डलान्युक्तानि तदुपसंहारमाह-एयाई'इत्यादि सुगर्म । अधुना तस्यैव ।। ला चन्द्रमसस्तस्मिन्नेव प्रथमेऽयने उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे यावन्त्यर्द्धमण्डलानि भवन्ति तावन्ति विवक्षुराह-'ता पक्षमाप णगए' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, प्रथमायनगते-युगस्यादौ प्रथममयनं प्रविष्टे चन्द्रे उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रविवाति पद | अर्द्धमण्डलानि भवन्ति सप्तमस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा यानि चन्द्र उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रविशन् | आक्रम्य चारं चरति, 'कपराई खलु'इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम 'इमाई खल्लु' इत्यादि निर्वचनसूत्र एतच्च प्रागेव भावित.IX IMI'एयाई खलु'इत्यादि, निगमनवाक्यं निगदसिद्धं, 'एतावता इत्यादि एतावता कालेन प्रथमं चन्द्रस्यायनं समाप्तं भवति, एतदपि प्राग्भावितं, तदेवं पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिचरमदिवसे य उत्तरस्यां दिशि चारं चरितवान् तस्याभिनवयुगपक्षे प्रथमेऽयने यावन्ति दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशेऽर्द्धमण्डलानि यावन्ति चोत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशेऽर्धमण्डलानि तापन्ति साक्षा-18 |दुक्तानि, एतदनुसारेण द्वितीयस्यापि चन्द्रमसस्तस्मिन्नेव प्रथमे चन्द्रायणेऽर्द्धमण्डलानि वक्तव्यानि, तानि चैवम्-स पाश्च-| त्ययुगपरिसमाप्तिचरमदिवसे दक्षिणदिग्भागे सर्वबाह्यमण्डले चार चरित्या अभिनवस्य युगस्य प्रथमेऽयने प्रथमेऽहोरात्रे | उत्तरस्यां दिशि द्वितीयमर्द्धमण्डलं प्रविश्य चारं चरति, द्वितीयेऽहोराने दक्षिणस्यां दिशि सर्ववाह्यात् तृतीयमर्द्धमण्डलं अनुक्रम [११३] **ॐॐॐॐ - - - JAINEDuratim intimatsim ~492~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] दीप सूर्यप्रज्ञ- पविश्य चारं चरति तृतीयेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि चतुर्थमर्द्धमण्डलमित्यादि प्रागुक्तानुसारेण सकलमपि वक्तव्यं, तदेव-15१३प्राभते प्तिवृत्तिःलामस्य चन्द्रमसः प्रथमेऽयने उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां द्वितीयादीन्येकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्ताम- चन्द्रायनम (मलण्ड लानि भवन्ति, दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां तृतीयादीन्येकान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि षट् अर्द्धमण्डलानि ण्डलचारः भवन्ति, पञ्चदशस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः, एवं च सति यावान चन्द्रस्यार्द्धमासस्तावान् नक्षत्रस्या- सू८१ ॥२४०॥ मासो न भवन्ति, किन्तु ततो न्यून इति सामर्थ्यात् द्रष्टव्यं, तथा चाहता नक्खसे'इत्यादि, यद्येवमेकस्मिन्नयने नक्ष-18 त्रार्द्धमासरूपे सामान्यतश्चन्द्रमसस्त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः 'ता'इति ततो नाक्षत्रोऽर्द्धमासश्चान्द्रोऽर्धमासो न भवति, चान्द्रेऽर्द्धमासे चतुर्दशानां मण्डलानां पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतश्चतु-8 विंशत्यधिकशतभागानां प्राप्यमाणल्यात, इह नाक्षत्रोऽर्धमासश्चान्द्रोऽर्धमासो न भवतीत्युक्ती नाक्षत्रोऽधमासश्चान्द्रोऽर्ध-MI मासो न भवति, यस्तु चान्द्रोऽर्धमासः स कदाचित् नाक्षत्रोऽप्यर्द्धमासः स्यात् , यथा ‘परमाणुरप्रदेश' इत्युक्तौ परमा-12 गुरप्रदेश एवं यस्तु अप्रदेशः स परमाणुरपि भवत्यपरमाणुश्च क्षेत्रप्रदेशादिरिति शङ्का स्यात् ततस्तदपनोदार्थमाह-बान्द्रोऽ-17 मासो नाक्षत्रोऽर्धमासो न भवति, एवमुक्त भगवान् गौतमो नाक्षत्रार्द्धमासचान्द्रार्धमासयोविशेषपरिज्ञानार्थमाह-'ता नक्खत्ताओ अद्धमासाओ'इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् , नाक्षत्रात् अर्द्धमासात् ते-तव मतेन भगवन् ! चन्द्रश्चान्द्रे | ॥२४॥ ४ाणार्द्धमासेन किनधिक चरति !, भगवानाह-ता एग'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डलं द्वितीयस्य चार्द्धमण्डलस्य चतुरः सप्तप-18 टिभागानेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशद्धा विभक्तस्य सस्कान् नय भागानधिकं चरति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, अनुक्रम [११३] JAINEairatominumatina FitraalMAPINAMORE ~493~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] दीप उच्यते, त्रैराशिकवलात्, तथाहि-यदि चतुविदात्यधिकेन शतेन सप्तदश शतानि अष्टपश्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते । तत एकेन पणा किलभामहे !, राशित्रयस्थापना १२४ । १७६८1१। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते जातः सर ताबानेव तत आयेन चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण राशिना भागहरणं छेद्यच्छेदकराश्योश्चतुष्केनापवर्तना लब्धानि चतु-14 Pाईश मण्डलानि अष्टौ च एकत्रिंशद् भागाः, एतस्मान्नक्षत्रार्द्धमासगम्यं क्षेत्र त्रयोदश मण्डलानि एकस्य च मण्डलस्य प्रयो-15 ४/दश सप्तपष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, तत्र चतुर्दशभ्यस्त्रयोदश मण्डलानि शुद्धानि एकमवशिष्ट सम्प्रत्यष्टभ्य एकत्रिशद्भागेभ्यत्रयोदश सप्तपष्टिभागाः शोध्याः, तत्र सप्तपष्टिरष्टभिर्गुणिता जातानि पञ्च शतानि पत्रिंशदधिकानि ५३०/ एकत्रिंशता त्रयोदश गुणिता जातानि चत्वारि शतानि व्युत्तराणि ४०३ एतानि पञ्चभ्यः शतेभ्यः पत्रिंशदधिकेभ्यः15 शोध्यन्ते स्थितं शेपं त्रयस्त्रिंशदधिकं शतं १३३ तत एतत् सप्तपष्टिभागानयनाथ सप्तषश्या गुण्यते जातानि नवाशीतिः । शतान्येकादशाधिकानि ८९११ छेदराशिमौल एकत्रिंशत् सा सप्तपट्या गुण्यते जाते वे सहस्रे सप्तसप्तत्यधिके २०७७४ ताभ्यां भागो हियते लब्धाश्चत्वारः सप्तषष्टिभागाः शेषाणि तिष्ठन्ति पट् शतानि युत्तराणि ६०३ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः मसप्तपट्याऽपवर्तना जाता उपरि नव अधस्तादेकत्रिंशत् लब्धा एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नव एकत्रिंशच्छेदकृता भागाः। उक्तं च-“एगं च मंडल मंडलस्स सत्तद्विभाग चत्तारि । नव चेव चुग्णियातो इगतीसकरण छेएण ॥१॥" इह भावनां कुर्वता मण्डलं मण्डलमिति यदुक्तं तत्सामान्यतो ग्रन्थान्तरे या प्रसिद्धा भावना तदुपरोधादयसेयं, परमार्थतः पुनरी-14 मण्डलमवसातव्यं, ततो न कश्चित् सूत्रभावनिकयोविरोधः, तदेवमेकचन्द्रायणवक्तव्यतोक्का, सम्प्रति द्वितीयचन्द्राय अनुक्रम [११३] FitraalMAPINAMORE ~494~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ROCE%A5%8 [८१] दीप सूर्यमज्ञ-प्रणवक्तव्यताभिधीयते, तत्र यः प्रथमे चन्द्रायणे दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रविशन सप्तार्द्धमण्डलानि उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रबि- १३माइते मिवृत्तिः शन षट् अर्द्धमण्डलानि सप्तमस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागान् चरितवान् तमधिकृत्य द्वितीयायनभावना चन्द्रायनम (मल) क्रियते, तत्रायनस्य मण्डलक्षेत्रपरिमाणं त्रयोदश अर्द्धमण्डलानि चतुर्दशस्य चा॰मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः, तत्र पडलचार प्राक्तनमयनमुत्तरस्यां दिशि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्रयोदश सप्तषष्टिभागपर्यन्ते परिसमाप्त, तदनन्तरं द्वितीयायनप्रवेशे | ॥२४॥ चतुःपञ्चाशता सप्तपष्टिभागः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं परिसमाप्य ततो द्वितीये मण्डले चारं चरति, तन्त्र प्रयोदशभागपर्यन्ते एकमर्द्धमण्डलं द्वितीयस्यायनस्य परिसमाप्तं, द्वितीयमर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां सर्वाभ्यन्तरात्तृतीये अर्द्धमण्डले त्रयोदशभागपर्यन्ते तृतीयमर्द्धमण्डल दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थेऽर्द्धमण्डले चतुर्धमर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां दिशि पञ्चमेऽर्द्धमण्डले पश्चममद्धे-12 मण्डलं दक्षिणस्यां दिशि पष्ठे अर्द्धमण्डले षष्ठमर्द्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि सप्तमेऽर्द्धमण्डले सप्तमम मण्डलं दक्षिणयां: दिशि अष्टमेऽर्द्धमण्डलेऽष्टममर्द्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि नवमे अर्द्धमण्डले नवममर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि दशमे अर्द्ध-11 मण्डले दशममर्द्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि एकादशेऽर्द्धमण्डले एकादशमर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि द्वादशे अर्द्धमण्डले || द्वादशमर्द्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि त्रयोदशे अर्द्धमण्डले त्रयोदशमर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले चतुर्दश|मर्द्धमण्डलं तच त्रयोदशभागपर्यन्ते परिसमाप्तं, तदनन्तरं त्रयोदश सप्तषष्टिभागान अन्यान् चरति, एतायता द्वितीय-1 | ॥२४॥ | मवन परिसमाप्त, चतुर्दशे च मण्डले सङ्क्रान्तः सन् प्रथमक्षणाय सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं चारं चरति, ततः परमार्थतः12 | कतिपयभागातिक्रमे पञ्चदश एव सर्ववाह्यमण्डले वेदितव्यः, तदेवमस्मिन्नयने पूर्वभागेन द्वितीयादीन्येकान्तरितानि 5 अनुक्रम [११३] ~495 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: C - प्रत सूत्रांक R [८१] दीप चतुर्दशपर्यन्तानि सप्तामण्डलानि चीर्णानि, पश्चिमभागे च तृतीयादीन्येकान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि षडर्द्धमण्ड-1 लानि, तत्र पूर्वभागे पश्चिमभागे वा यत् प्रतिमण्डलं स्वयं चीर्णमन्यचीर्ण या चरति तन्निरूपयति-ता दोचायणगए 15इत्यादि, ता इति पूर्ववत् द्वितीयायनगते चन्द्रे पौरस्त्यात् भागान्निष्कामति, किमुक्त भवति ?-पौरस्त्ये भागे चारं || चरति, सप्त चतुःपथाशकानि भवन्ति यानि चन्द्रः परस्वेति तृतीयाथै षष्ठी परेण सूर्यादिना चीर्णानि प्रतिचरति, सप्त च त्रयोदशकानि भवन्ति यानि चन्द्र आत्मनैव चीर्णानि प्रतिचरति, इयमन्त्र भावना-मेरोः पूर्वस्यां दिशि यो भागः स पूर्वभागो यश्चापरस्यां दिशि स पश्चिमभागः, तत्र पूर्वभागे सप्तस्वपि द्वितीयादिध्येकान्तरितेषु चतुर्दशपर्यन्तेषु सप्तष-121 राष्टिभागप्रविभक्तेषु प्रत्येक चतुःपञ्चाशत सप्तपष्टिभागान् चन्द्रः परेण सूर्यादिना चीर्णान् प्रति चरति, त्रयोदश अयोदश सप्तपष्टिभागान स्वयंचीणोनिति, 'ता दोचायणगए'इत्यादि, तस्मिन्नेव चन्द्रमसि द्वितीयायनगते पश्चिमभागानिष्कामति-पश्चिमभागे चार चरति, पटू चतुःपञ्चाशत्कानि भवन्ति यानि चन्द्रः 'परस्मेति परेण सूर्यादिना चीर्णानि प्रति-18 चरति, पद प्रयोदशकानि यानि चन्द्रः स्वयंचीणानि प्रतिचरति, अत्रापीय भावना-पश्चिमे भागे षट्रस्थापि तृतीयादिवे-11 कान्तरितेषु त्रयोदशपर्यन्तेषु अर्बमण्डलेषु सप्तषष्टिभागप्रविभक्तेषु प्रत्येकं चतुःपञ्चाशतं चतुःपञ्चाशतं सप्तपष्टिभागान वापरचीर्णान् चरति, त्रयोदश सप्तपष्टिभागान स्वयंचीर्णानिति, 'अवराई खलु दुवे'इत्यादि, अपरे खलु दे त्रयोदशके तस्मिन्नयने स्तो ये चन्द्रः फेनाप्यसामान्ये-केनाप्यनाचीर्णपूर्व स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति, 'कयराई खलु' इत्यादि। प्रश्नसूत्रं सुगम, इमाई खलु इत्यादि निर्वचनवाक्यमे तद्, एतच्च प्रायो निगदसिद्धम् , नवरमेकं यत् प्रयोदशकं सर्वाभ्य अनुक्रम [११३] -4650 JAINEDuratim intimalsina FirmaaMAPINHINORN ~496~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] दीप सूर्यप्रज्ञ- न्तरे मण्डले तत् पाश्चात्यायनगतत्रयोदशकादू वेदितव्यं, तस्यैव सम्भवास्पदत्वात् , द्वितीयं सर्वबाह्ये मण्डले तच्च विवृत्तिःपर्यन्तयत्ति पतिपत्तव्यं, 'एयाई खलु ताणि'इत्यादि निगमनवाक्यं सुगम, तदेवमेकं चन्द्रमसमधिकृत्य द्वितीयायन चन्द्रायनम (मट.) वक्तव्यतोक्का, एतदनुसारेण च द्वितीयमपि चन्द्रमसमधिकृत्य द्वितीयायनवक्तव्यता भावनीया, एवं तस्य पश्चिमभागे लचारः सप्त चतुःपञ्चाशत्कानि परचीचरणीयानि सप्त त्रयोदशकानि स्वयंचीर्णाचरणीयानि वक्तव्यानि, पूर्वभागे पटू चतुःपञ्चा- ॥२४२|| सू८१ शत्कानि परचीर्णाचरणीयानि षट् त्रयोदशकानि स्वयंचीर्णप्रतिचरणीयानि, 'एतावता'इत्यादि, एतावता कालेन द्वितीय चन्द्रायणं समाप्तं भवति, 'ता नक्खत्ते त्यादि, यद्येवं द्वितीयमप्ययनमेतावत्प्रमाणं ता इति-ततो नाक्षत्रो मासो न चान्द्रो मासो भवति नापि चान्द्रो मासो नाक्षत्रो मासः, सम्पति नक्षत्रमासात् कियता चन्द्रमासोऽधिक इति जिज्ञासुः प्रश्नं करोति-ता नक्खत्ताओ मासाओ'इत्यादि, ता इति-तत्र नाक्षात्रात् मासात् चन्द्रः चन्द्रेण मासेन किमधिक | चरति !, एवं प्रभे कृते भगवानाह-'ता दो अद्धमंडलाई इत्यादि, द्वे अर्द्धमण्डले तृतीयस्थामण्डलस्याष्टी सप्तपष्टि*भागान् एकं च सप्तपष्टिभागमेकत्रिंशद्धा छित्त्वा तस्य सत्कानष्टादश भागान अधिकं चरति, एतच प्रागुक्तमेकायनेऽधि-121 कमेकमण्डलमित्यादि द्विगुणं कृत्वा परिभायनीयं, सम्प्रति यावता चन्द्रमासः परिपूर्णो भवति तावन्मात्रतृतीयायनवक्त-11 व्यतामाह-'ता तमायणगए चंदे'इत्यादि, इह द्वितीयायनपर्यन्ते चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले पविंशतिसपसप्तपष्टिभागमात्रमाकान्त, तश्च परमार्थतः पश्चदशमीमण्डलं वेदितव्यं, बहु तदभिमुखं गतत्वात् , तदनन्तरं नीलवत्पर्यतपदेशो साक्षात् ॥२४२॥ | पादशमीमण्डलं प्रविष्टस्तत्पविष्टश्च प्रथमक्षणादूचं सर्वबाह्यानन्तराकिन द्वितीयमण्डलाभिमुखं चरति, ततस्तस्मिन्नेव अनुक्रम [११३] FridaIMAPIVARANORN ~497 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] दीप सर्वबाह्यानन्तरेऽक्तिने द्वितीयमण्डले चारं चरन् विवक्षितः, ततोऽधिकृतसूत्रोपनिपातः, तृतीयायनगते चन्द्रे पश्चिमे भागे प्रविशति बाह्यानन्तरस्थाग्भिागवर्तिनः पाश्चात्यस्यार्द्धमण्डलस्य एकचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागास्ते वर्तन्ते यान । चन्द्रः आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति त्रयोदश च सप्तपष्टिभागास्ते यान् चन्द्रः परेणैव चीर्णान् प्रतिचरति अन्ये | च त्रयोदश सप्तषष्टिभागास्ते यान् चन्द्रः स्वयं परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, एतावता परिभ्रमणेन बाह्यानन्तरमाक्तन || पाश्चात्यमर्द्धमण्डलं परिसमाप्तं भवति, तदनन्तरं च तस्मिन्नेव तृतीयायनगते चन्द्रे पौरस्त्यभागे प्रविशति सर्वबाह्याद-18 तिनस्य तृतीयस्थ पौरस्त्यार्द्धमण्डलस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा यान् चन्द्र आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, ततः परमन्ये ते त्रयोदश भागा यान् चन्द्रः परेणैव चीर्णान् प्रतिचरति, अन्ये च ते त्रयोदश भागा थान् चन्द्र आत्मना परेण च वीर्णान् प्रतिचरति, एतावता सर्वबाह्यान्मण्डलादक्तिनं तृतीयं पौरस्त्यमईमण्डलं परिसमाप्तं भवति, सप्तपटेरपि भागानां परिपूर्णतया जातत्वात् , 'ता'इत्यादि, ततस्तस्मिन्नेव तृतीयायनगते चन्द्रे पश्चिमे भागे प्रविशति सर्व बाह्यान्मण्डलाद कनस्य चतुर्थस्य पाश्चात्यस्यार्द्धमण्डलस्याप्टौ सप्तषष्टिभागा एकं च सप्तपष्टिभागमेकत्रिंशद्धा छित्त्वा तस्य सत्का अष्टादशा भागास्ते वर्तन्ते यान् चन्द्र आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, एतावता च परिश्चमणेन चान्द्रो मासः परिपूर्णो जातः । सम्प्रति पूर्वोक्तमेव स्मरयन् चन्द्रमासगतमुपसंहारमाह-एवं खलु चंदेणं मासेण'मित्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितं चान्द्रेण मासेन चन्द्रे त्रयोदश चतुष्पञ्चाशत्कानि जातानि द्वे च त्रयोदशके यानि चन्द्रः परेणेव पीर्णानि प्रतिचरति, वर्तमानकालनिर्देशः सकलकालयुगस्य प्रथमे चान्द्रे मासे एवमेव द्रष्टव्यमिति ज्ञापनार्थः, अनुक्रम [११३] FhiralMAPIMIREUMORE ~498~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] सूर्यप्रज्ञ- तत्र त्रयोदशापि चतुःपञ्चाशत्कानि द्वितीयेऽयने, तत्रापि सप्त चतुःपञ्चाशत्कानि पूर्वभागे षट् पाश्चात्ये भागे, ये च द्वे वयो- १३ प्राभूतेनिवृत्तिः दशके ते द्वितीयस्यायनस्योपरि चन्द्रमासावधेराक द्रष्टव्ये, तबैक त्रयोदशकं सर्वबाह्यादवाकने द्वितीये पाश्चात्येऽर्द्ध- चन्द्रायनम (मल०) मण्डले द्वितीयं पौरस्त्ये तृतीयेऽब्रमण्डले, तथा 'तेरसे'त्यादि, त्रयोदश त्रयोदशकानि यानि चन्द्र आत्मनैव चीनिण्ड लचार: २४ाप्रति चरति, एतानि च सर्वोण्यपि द्वितीयेऽयने बेदितव्यानि, तत्रापि सप्त पूर्वभागे पट् पश्चिमभागे, तथा 'दुवे इत्यादि, सू८१ एकचत्वारिंशत्के द्वे च त्रयोदशके अष्टौ सप्तपष्टिभागा एकं च सप्तपष्टिभागमेकत्रिंशदा छित्त्वा तस्य सस्का अष्टादश भागा यान्येतानि चन्द्र आत्मना परेण च चीणानि प्रतिचरति, तत्र एकमेकचत्वारिंशत्कमेकं च त्रयोदशकं द्वितीयायनो| परि सर्वबाह्यात् मण्डलार्वाक्तने द्वितीये पाश्चात्येऽर्द्धमण्डले द्वितीयमेकचत्वारिंशत्कं द्वितीयं च त्रयोदशकं सर्वबाह्यात्।। मण्डलादर्याकने तृतीये पौरस्त्ये शेषं पाश्चात्ये सर्वघाह्यादतिने चतुर्थेऽमण्डले, अधुनोपसंहारमाह-इचेसा'इत्यादि इत्येपा चन्द्रमसः संस्थितिरिति योगः, किंविशिष्टेत्याह-'अभिगमननिष्क्रमणवृद्धिनिवृदयनवस्थितसंस्थाना' अभिगमनंसर्पयाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रवेशन, निष्क्रमण-सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलाहिर्गमनं वृद्धि-चन्द्रमसः प्रकटताया उपचयो। निद्धिः-यथोक्तस्वरूपवृद्धाभावः, एताभिरनवस्थित-संस्थान, अभिगमननिष्क्रमणे अधिकृत्यानवस्थानं वृद्धिनिवृद्धी अपेक्ष्य संस्थान-आकारो यस्याः सा तथारूपा संस्थितिः, तथा परिदृश्यमानचन्द्रविमानस्याधिष्ठाता बिकुर्वद्धिप्राप्तो रूपी-रूपवान् अत्रातिशयने मत्वर्थीयोऽतिशयरूपयान् चन्द्रो देव आख्यातो नतु परिदृश्यमानविमानमात्रश्चन्द्रो देव ॥२४॥ & इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः ॥ ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां त्रयोदशम-प्राभृतं समाप्त 9549-640 दीप अनुक्रम [११३] waliSDHRUTH अत्र त्रयोदशं प्राभूतं परिसमाप्तं ~499~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२] &L तदेवमुक्तं त्रयोदशं प्राभूत, सम्प्रति चतुर्दशं वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा-'कदा ज्योत्स्ना प्रभूता भव-| ती'ति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कता ते दोसिणा यह आहितेति बदेजा ?, ता दोसिणापक्खे णं दोसिणा यह आहितेति वदेजा माता कह ते दोसिणापक्खे दोसिणा बहु आहितेति वदेजा, ता अंधकारपक्वओ ण दोसिणा यह आहि याति वदेजा, ता कहं ते अंधकारपक्खातो दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहिताति वदेजा ?, ता अंधकारपक्खातो गं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायाले मुरुत्तसते छत्सालीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे विरजति, तं०-पढमाए पढम भागं बिदियाए बिदियं भागं जाय पण्णरसीए पण्णरसं भार्ग, एवं खलु अंधकारपक्वतो दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहितातिवदेजा,ता केवतिया णं दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहिताति वदेजा ?, ता परित्ता असंखेजा भागा। ता कता ते अंधकारे यह आहितेति बदेला ?, ता| अंधपारपक्वे णं यह अंधकारे आहिताति वदेज्जा, ता कहं ते अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहिताति वदेजा ?, MIता दोसिणापक्खातो अंधकारपक्खे अंधकारे यहू आहितेति वदेज्जा, ता कहं ते दोसिणापक्खातो अंध कारपक्से अंधकारे बहू आहिताति वदेज्जा ?, ता दोसिणापक्वातो णं अंधकारपक्खं अथमाणे चंदे चत्तारि। बाताले मुहत्तसते चायालीसं च चावट्ठिभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे रज्जति, सं०-पढमाए पढम भागं विदियाए। |विदियं भागं जाव पण्णरसीए पपणरसमं भागं, एवं खलु दोसिणापक्खातो अंधकारपक्खे अंधकारे यह SEKSekSSCSC दीप अनुक्रम [११४] FridaIMAPIVAHauWORK अथ चतुर्दशं प्राभृतं आरभ्यते ~500~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२] सुर्यप- आहिताति वदेजा, ता केवतिएणं अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहियाति वदेजा ? परित्ता असंखेज्जा भागा॥ १४प्राभृते प्तिवृत्तिः (सूत्रं ८२)॥ चोइसमं पाहुई समत्तं ॥ ज्योत्स्वान्ध (मल०) | 'ता कया ते दोसिणा'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् 'कदा'कस्मिन् काले भगवन् ! त्वया ज्योत्स्ना प्रभूता आख्याता कारबहुत्वं ॥२४॥ इति वदेत् !, भगवानाह-'ता दोसिणे'त्यादि, ता इति पूर्ववत् , ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत ८२ 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति प्राग्वत् , कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्यया ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत् ।, भग-15 &ायानाह-'ता अंधकारे'ल्यादि, सुगर्म, पुनरपि 'ता कह तेइत्यादि प्रश्नसूत्रं निगदसिद्ध, निर्षचनमाह-'ता अंधकारप-IN क्खातो'इत्यादि, सुगर्म, पुनरपि 'ता कहं ते'इत्यादि प्रश्नसूत्र, निर्वचनमाह-'ता अंधकारपक्खाओ'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , अन्धकारपक्षात् ज्योत्स्नापक्षमयमानश्चन्द्रश्चत्वारि मुहर्सशतानि द्वाचत्वारिंशानि-द्विचत्वारिंशदधिकानि षट्चत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान मुहूर्तस्य यावत् ज्योत्स्ना निरन्तरं प्रवर्द्धते, तथा चाह-यानि यावत् चन्द्रो विरन्यतेWशनैः शनै राहुविमानेनानावृतस्वरूपो भवति, मुहूर्तसङ्ग्यागणितभावना प्राग्वत्कर्तव्या, कथमनावृतो भवतीत्यत आह तद्यथा-प्रथमाया-प्रतिपलक्षणायो तिथी प्रथम पञ्चदर्श द्वापष्टिभागसत्कभागचतुष्टयप्रमाणं यावदनावृतो भवति, द्विती-1 यस्यां तिथौ द्वितीय भार्ग यावत् एवं तावद् द्रष्टव्यं यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदशमपि भार्ग याबदनावृतो भवति, सर्वात्मना राहुविमानेनानावतो भवतीति भावः, उपसंहारमाह-एवं खलु'इत्यादि, तत एवं-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमन्ध-131" कारपक्षात् ज्योत्तापक्षे ग्योरखा बहुराख्याता इति वदेव, इयमत्र भावना-इह शुक्लपक्षे यथा प्रतिपत्प्रथमक्षणादारभ्य दीप अनुक्रम [११४] 15 % M२४४॥ % RR FP ~501~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -- प्रत सूत्रांक [८२] 9- * प्रतिमुहूर्त यावन्मात्रं यायन्मात्रं शनैः शनैश्चन्द्रः प्रकटो भवति तथा अन्धकारपक्षे प्रतिपत्मथमक्षणादारभ्य प्रतिमुहर्ता तावन्मानं तावन्मानं शनैः शनैश्चन्द्र आवृत उपजायते, तत एवं सति यावत्येवान्धकारपक्षे ज्योत्स्ना तावत्येव शुक्लपक्षेऽपि प्राप्ता, परं शुक्लपक्षे या पादश्यां ज्योत्स्ना साऽधकारपक्षादधिकेति अंधकारपक्षात् शक्लपक्षे व्योत्स्ना प्रभूता आख्यातेति, 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कियती ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना आख्याता इति वदेत् ?, भगवानाह-परीता:परिमिताच असोया भागा निर्विभागाः। एवमन्धकारसूत्राण्यप्युक्तानुसारेण भावनीयानि, नवरमन्धकारपक्षेऽमाया-18 स्थायां योऽधकारः स ज्योत्स्नापक्षादधिक इति ज्योत्स्नापक्षादन्धकारपक्षेऽन्धकार प्रभूत आख्यात इति वदेत् ॥ इति 81 इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां चतुर्दशमं-प्राभृतं समाप्तं । तदेवमुक्तं चतुर्दशं प्राभृतं, सम्पति पञ्चदशमारभ्यते-तस्य चायमाधिकारी यथा-कः शीघ्रगतिर्भगवन् !131 आख्यात' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहला ता कहं ते सिग्घगती वत्थू आहितेति षदेना , ता एतेसिणं चंदिमसूरियगहगणनक्वत्ततारारूवाणं चंदेहितो सूरे सिग्घगती सूरहितो गहा सिग्धगती गहेहिंतो गक्खत्ता सिग्घगती णक्खत्तेहिंतो ताराका सिग्घगती, सबप्पगती चंदा सबसिग्धगती तारा, ता एगमेगेणं मुहत्तेणं चंदे केवतियाई भागसताई गच्छति !, ताजं जं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति तस्स २मंडलपरिक्खेवस्स सत्तरस अडसद्धि - दीप अनुक्रम [११४] - - अत्र चतुर्दशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ पञ्चदशं प्राभृतं आरभ्यते ~502~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३]] दीप अनुक्रम [११५] सूर्यप्रज्ञ- भागसते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउतीसतेहिं छेत्ता, ता पगमेगेणं मुहतेणं सूरिए केवतियाई १५ माभूत प्तिवृत्तिः भागसयाई गच्छति, ताज मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तस्स २ मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारस तीसचन्द्रादीनां (मला भागसते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउत्तीसतेहि छेत्ता, ता एगमेगेणं मुहत्तेणं णक्खत्ते केवतियाई ततारत म्यं सू ८३ ॥२४॥ भागसताई गच्छति ?, ता जं जं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरति तस्स २ मंडलस्म परिक्वेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउतीसतेहिं छेत्ता ।। (मत्रं ८३) 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं भगवन् ! त्वया चन्द्रसूर्यादिक वस्तु शीघ्रगति आख्यातं इति वदेत् । भगवानाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, एतेषां-चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारकाणां पश्चाना मध्ये पन्द्रेभ्यः सूर्याः शीघ्रगतय, सीसूर्येभ्योऽपि ग्रहाः शीघ्रगतयो ग्रहेभ्योऽपि नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि नक्षत्रेभ्योऽपि ताराः शीघगतयः, अत एवैतेषां पञ्चाना मध्ये सर्वाल्पगतयश्चन्द्राः सर्वशीघ्रगतयस्ताराः । एतस्यैवार्थस्य सविशेषपरिज्ञानाय प्रश्नं करोति-'ता एगमेगेण मित्यादि, शता इति पूर्ववत् , एकैकेन मुहर्तेन चन्द्रः कियन्ति मण्डलस्य भागशतानि गच्छति !, भगवानाह-'ता जंज'मित्यादि यत् यत् मण्डलमुपसङ्क्रम्य चन्द्रश्चारं चरति तस्य तस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परिधेः सप्तदश शतान्यष्टषष्ट्य|धिकानि भागानां गच्छति, मण्डलं-मण्डलपरिक्षेपमेकेन शतसहस्रेणाटानवत्या च शसै भिउवा-विभव्य, इयमत्र भावना-13 इह प्रथमतश्चन्द्रमसो मण्डलकालो निरूपणीयः तदनन्तरं तदनुसारेण मुहूर्त्तगतिपरिमाणं परिभावनीय, तत्र मण्डलकाल-1 ॥२५॥ निरूपणार्थमिदं त्रैराशिक-यदि सप्तदशभिः शतैरष्टषष्ट्यधिकैः सकलयुगवत्तिभिरर्द्धमण्डलैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि | ~503~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३]] दीप अनुक्रम [११५] राबिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यां-एकेन मण्डलेनेति भावः कति रात्रिन्दिबानि लभ्यन्ते ?, राशियः । स्थापना-१७६८ । १८३० ।। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनं, जातानि पत्रिंशसहस्राणि पश्य|धिकानि ३६०६०, तेपामायेन राशिना भागहरणं, लब्धे द्वे रानिन्दिवे, शेपं तिष्ठति चतुर्विशत्यधिकं शतं १२४, तत्रैककस्मिन् रात्रिन्दिये त्रिंशन्मुहूत्तों इति तस्य त्रिंशता गुणने जातानि सप्तत्रिंशच्छतानि विंशत्यधिकानि ३७२०, तेषां | सप्तदशभिः शतैरष्टपश्यधिक भागे हते लब्धौ द्वौ मुहूत्तौं, ततः शेषच्छेद्यराशिफ्छेदकराश्योरटकेनापवर्तना जातशेयो INराशिखयोविंशतिः छेदकराशिर्वे शते एकविंशत्यधिके, आगतं मुहूर्तस्यैकविंशत्यधिकशतद्वयभागीस्त्रयोविंशतिः, एतावता | कालेन द्वे अर्द्धमण्डले परिपूर्ण चरति, किमुक्कं भवति !-तावता कालेन परिपूर्णमेकं मण्डलं चन्द्रश्चरति, तदेवं मण्डलकालपरिज्ञानं कृतं, साम्प्रतमेतदनुसारेण मुहूर्तगतिपरिमाणं चिन्त्यते-तत्र ये द्वे रात्रिन्दिवे ते मुहर्तकरणार्धं त्रिंशता गुण्येते, जाताः पष्टिमहर्ताः ६०, तत उपरितनौ द्वौ मुहूत्तौ प्रक्षिप्तौ जाता द्वापष्टिः ६२, एपा सवर्णनाथ द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां गुण्यते गुणयित्वा चोपरितना बयोविंशतिः क्षिप्यते जातानि त्रयोदश सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १३७२५, एतत् एकमण्डलकालगतमुहर्तसत्कै कविंशत्यधिकशतद्वयभागानां परिमाणं, ततस्त्रैराशिककम्विसरो-यदि त्रयोदशभिः सहस्रः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैरेकविंशत्यधिकशतद्वयभागानां मण्डलभागा एका शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि लभ्यन्ते तत एकेन मुहूर्तेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना । १३७२५ । १०९८०० ॥१॥ 1) इहायो राशिर्मुहुर्तगतकविंशत्यधिकशतद्वयभागरूपस्ततः सवर्णनार्थमन्त्यो राशिरेककलक्षणो द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंश RACCSC- SACRACTICS - - - FitraalMAPINANORN ~504~ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मल. प्रत सूत्रांक [८३]] दीप अनुक्रम [११५] त्यधिकाभ्यां गुण्यते, जाले द्वे शते एकविंशत्यधिक २२१, ताभ्यां मध्यो राशि ण्यते, जाते द्वे कोव्यी द्विचत्वारिंशल्लक्षामाभृते प्तिवृत्तिः पञ्चषष्टिः सहनाण्यष्टौ शतानि २४२६५८००, तेषां त्रयोदशभिः सहस्रः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागो हियते लब्धानि चन्द्रादीनां सप्तदश शतानि अष्टपट्याधिकानि १७६८, एतायतो भागान् यत्र तत्र या मण्डले चन्द्रो मुहूर्तेन गच्छति, 'ता एगमे गतितारत गणे'त्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकन मुहूर्तेन सूर्यः कियन्ति भागशतानि गच्छति !, भगवानाह-'ताजं ज'मित्यादि, म्य सू ८३ ॥२४६॥ यत् यत् मण्डलमुपसङ्कग्य सूर्यश्चारं चरति तस्य तस्य मण्डलसम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परिधेरष्टादश भागशतानि त्रिंशदअधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहनेणाटानवत्या च शतैछित्त्वा, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, त्रैराशिकवलात् । तथाहि-यदि पथ्या मुहत्तरेक शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि मण्डलभागानां लभ्यन्ते तत एकेन मुहूर्तेन कति भागान लभामहे !, राशित्रयस्थापना ६० ॥ १०९८०० ॥ १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनं जातः स तावानेव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , ततस्तस्यायेन राशिना षष्टिलक्षणेन भागो हियते, लब्धान्यष्टादश | |शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतावतो भागान् मण्डलस्य सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, 'ता एगमेगेण मित्यादि, लता इति पूर्ववत्, एकैकेन मुहूर्तेन कियतो भागान् मण्डलस्य नक्षत्रं गच्छति !, भगवानाह-ताज जमित्यादि, यत् यत् आत्मीयमाकालप्रतिनियतं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तस्य तस्यात्मीयस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परि-IN धेरष्टादश भागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रेणाष्टानयत्या च शतैश्छित्वा, इहापि प्रथमतो २४६॥ लामण्डलकालो निरूपणीयः यतस्तदनुसारेणैव मुहूर्त्तगतिपरिमाणभावना, तन्त्र मण्डलकालप्रमाणचिन्तायामिदं त्रैराशिक-I -ॐॐ26-05 FridaIMAPIVARANORN ~505 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३]] दीप अनुक्रम [११५] यद्यष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकः सकलयुगभाविभिरर्द्धमण्डलैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते। ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलायो एककन परिपूर्णेन मण्डलेनेति भावः किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना १८३५ । १८३०॥ अबान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातानि पटूविंशच्छतानि पाल्पधिकानि ३६६० तत आयेन राशिना १८३५] माभागहरणं लब्धमेकं रात्रिन्दिवं १ शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १८२५, ततो मुहू नयनार्थमेतानि | |त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चाशदधिकानि ५४७५०, तेषामष्टादशभिः शतैः पश-TA त्रिंशदधिकांगे इसे लब्धा एकोनत्रिंशन्महाः २२, ततः शेषरछेद्यच्छेदकराश्योः पञ्चकेनापवर्त्तना जात उपरितनो। राशिः त्रीणि दातानि सप्तोत्तराणि ३०७ छेदकराशिस्त्रीणि शतानि सप्तपश्चाधिकानि ३६७, तत आगतमेकं रात्रिन्दि-1 वमेकस्य च रानिन्दियस्य एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपश्यधिकत्रिशतभागानां त्रीणि शतानि सप्तोत्त राणि १।२९। इदानीमेतदनुसारेण मुहूत्र्तगतिपरिमाणं चिन्त्यते, तत्र रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ताः ३० तेषु उपरितना 181 एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनषष्टिर्मुहूर्ताना, ततः सा सवर्णनाथ त्रिभिः शतैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गुण्यते, गुण यित्वा चोपरितनानि त्रीणि शतानि सप्तोसराणि प्रक्षिप्यन्ते, जातान्येकविंशतिः सहस्राणि नव शतानि पट्यधिकानि । IN२१९६०, ततौराशिक-यदि मुहूर्तगतसप्तपश्यधिकत्रिशतभागानामेकविंशत्या सहौनयभिः शतैः षषधिकैरेकं शतस हस्रमष्टानवतिः शतानि मण्डलभागानां लभ्यते तत एकेन मुहूर्चेन किं लभामहे ?, राशिवयस्थापना।२१९६०।१०९८००। । अत्राघो राशिर्मुहुर्तगतसप्तपश्यधिकत्रिशतभागरूपस्ततोऽन्त्योऽपि राशिस्त्रिभिः शतैः सप्तषष्पधिकैगुण्यते जातानि FP marwaTNEDHNOrg ~506~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यमझ 2 प्रत सूत्रांक [८३]] बीण्येव शतानि सप्तषष्यधिकानि ३६७, तैमध्यो राशिगुण्यते जाताश्चतस्रः कोटयो वे लक्षे षण्णवतिः सहस्राणि षट् ॥१५प्राभूते तिवृत्तिः शतानि ४०२९६६०० तेपामायेन राशिना एकविंशतिः सहस्राणि नव शतानि पश्यधिकानीत्येवरूपेण भागो ह्रियते लब्धा- चन्द्रादाना (मलावष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि १८३५ एतावतो भागान्नक्षत्रं प्रतिमुहूर्त गच्छति । तदेवं यतश्चन्द्रो यत्र तत्र वा मण्डले । गतितारत यंसू ८४ एकैकेन मुहूर्तेन मण्डलपरिक्षेपस्य सप्तदश शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि भागानां गच्छति सूर्योऽष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि ॥२४७॥ 18 नक्षत्रमष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि ततश्चन्द्रेभ्यः शीघ्रगतयः सूर्योः सूर्येभ्यः शीघ्रगतीनि नक्षत्राणि, ग्रहास्तु वका-| नुवादिगतिभावतोऽनियतगतिप्रस्थानास्ततो न तेषामुक्तप्रकारेण गतिप्रमाणप्ररूपणा कृता, उक्त च-चंदेहि सिग्धयरा सूरा सूरेहि होति नक्सत्ता । अणिययगइपत्थाणा हवंति सेसा गहा सवे ॥ १ ॥ अहारस पणतीसे भागसए गच्छई मुहु-11 तेणं । नक्खत्तं चंदो पुण सत्तरस सए उ अडसहे॥२॥ अट्ठारस भागसए तीसे गच्छद रवी मुहत्तेण । नक्खत्तसीमछेदो सो चेय इहपि नायबो ॥३॥" इदं गाधात्रयमपि सुगम, नवरं नक्षत्रसीमाछेदः स एव अत्रापि ज्ञातव्य इति किमुक्तं भवति ?-अनापि मण्डलमेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः प्रविभक्तव्यमिति ॥ सम्प्रत्युक्तस्वरूपमेव चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागविषयं विशेष निर्धारयतिता जया णं चंदं गतिसमावणं सूरे गतिसमावण्णे भवति, से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति !, याय-17 २४७॥ द्विभागे विसेसेति, ता जया णं चंदं गतिसमावणं णक्खसे गतिसमावण्णे भबइ से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेइ , ता सत्तट्टि भागे विसेसेति, ता जताणं सूरं गतिसमावणं शक्खत्ते गतिसमावण्णे भवति 056-5 दीप अनुक्रम [११५] JAINEDuratim intimatsina ~507~ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5 2 प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [११६] से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति ?, तापंच भागे विसेसेति, ता जना णं चंदं गतिसमावणं अभीयी-13 णक्खत्ते णं गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादित्ता णव | मुहले सत्तावीसं च सत्तद्विभागे मुहत्तस्स चंदेण सहि जोएति. जोजोपत्ता जोयं अणपरियति. जो 8२ सा विप्पजहाति विगतजोई यावि भवति, ता जता णं चंदं गतिसमावणं सवणे णक्खरो गतिसमावण्णे | &Iपुरच्छिमाति भागादे समासादेति, पुरछिमाते भागाते समासादेत्ता तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धिं जो जोएति जोयं अणुपरियति जो०२त्ता विप्पजहति विगतजोई यावि भवइ. एवं एएणं अभिलावेणं णेतवं, पण-II रसमुहुत्ताई तीसतिमुहुत्ताई पणयालीसमुहत्ताई भाणितचाई जाय उत्तरासादा। ता जता णं चंदं | गतिसमायणं गहे गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति पुर०२त्ता चंदेणं सद्धिं जोगं जुजति सा जोगं अणुपरिपट्टति २त्ता विष्पजहति विगतजोई यावि भवति । ता जया णं सूरं गतिसमावणं अभीयीणक्खत्ते गतिसमावणे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पुर०२ ता चत्तारि अहोरले छच्च मुहुत्ते सूरेणं सद्धिं जोपं जोएति २ जोयं अणुपरियति रत्ता विजेते विगतजोगी यावि भवति, एवं अहोरता छ एकवीसं मुहत्ता प रस अहोरत्ता बारस मुहुत्ता य वीसं अहोरत्ता तिथिण मुहुत्ता य सधे भणितवा पाजाय जता णं सरं गतिसमावणं उत्तरासादाणक्वत्ते गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति पु०२ सा वीसं अहोरत्ते तिपिण य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएति जो०२ ता जोयं अणुपरियति जो०२] FP ~508~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत KRER सूत्रांक [८४] सर्या विजेति विजहति विप्पजाति विगतजोगी यावि भवति, ता जता णं सूरं गतिसमावणं णक्खत्ते (गहे) १५ प्राभते निवृत्तिःगतिसमावणे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पु०२ सा भूरेण सद्धि जोयं जुजति २ ता जोयं अगुपरि- चन्द्रादीनां (मल.) यति २ता जाब विजेति विगतजोगी पावि भवति । (सूत्रं०८४) गतितारतIN 'ता जया णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , यदा णमिति वाक्यालङ्कारे चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य सूर्यो गतिसमापन्नो म्यं सू ८४ ॥२४८||&ाता जया मामला विवक्षितो भवति, किमुक्तं भवति -प्रतिमुहर्स चन्द्रगतिमपेक्ष्य सूर्यगतिश्चिन्त्यते तदा सूर्यो गतिमात्रया-एकमहर्तगत-15 गतिपरिमाणेन कियतो भागान् विशेषयति !, एकेन मुहूर्त्तन चन्द्राक्रमितेभ्यो भागेभ्यः कियतोऽधिकतरान् भागान् | सूर्य आक्रामतीति भावः, भगवानाह-द्वापष्टिभागान विशेषयति, तथाहि-चन्द्र एकेन मुहर्सेन सप्तदश भागशतान्यष्टपध्यधिकानि गच्छति १७६८ सूर्योऽष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० ततो भवति द्वापष्टिभागकृतः परस्पर विशेषः, 'ता जया णमित्यादि, ता इति प्राम्यत् , यदा चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य नक्षत्रं गतिसमापन विवक्षित भवति तदा नक्षत्र गतिमात्रया-एकमुहूर्तगतपरिमाणेन कियन्तं विशेषयति !, चन्द्राक्रमितेभ्यो भागेभ्धः कियतो भागानधिकान् । आक्रामतीति भावः, भगवानाह-सप्तपष्टिभागान , नक्षत्रं ह्ये केन मुहूर्तेनाष्टादश भागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति। ट्राचन्द्रस्तु सप्तदश भागशतानि अष्टपट्याधिकानि तत उपपद्यते सप्तपष्टिभागकृतो विशेषः, 'ता जया ण'मित्यादि प्रश्न-1 सूत्र माग्य भावनीयं, भगवानाह-'ता पंचे'त्यादि, पञ्च भागान् विशेषयति-सूर्याक्रान्तभागेभ्यो नक्षत्राकान्तभागानां ॥२४८॥ डीपञ्चभिरधिकत्वात् , तथाहि-सूर्यः एकेन मुहनाष्टादश भागशतानि त्रिंशदधिकानि गच्छति नक्षत्रमष्टादश भागशतानि | दीप अनुक्रम [११६] - - FitraalMAPINAMORE ~509~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत CCCC सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [११६] पापञ्चत्रिंशदधिकानि ततो भवति परस्परं पञ्चभागकृतो विशेषः, 'ता जया ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , यदा णमिति । &वाक्यालङ्कारे चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्याभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति तदा पौरस्त्याद् भागात प्रथमतोऽभिजिन्नक्षत्र नाचन्द्रमसं समासादयति एतच्च प्रागेव भाक्तिं समासाद्य च नच मुहूतान दशमस्य च मुहूर्तस्य सप्तविशति सप्तपष्टिभा-11 | गान् चन्द्रेण साझे योग युनक्ति-करोति, एतदपि प्रागेव भायितं, एवंप्रमाणं कालं योगं युक्त्या पर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्त्तयति, श्रवणनक्षत्रस्य योगं समर्पयतीति भावः, योगं च परावर्त्य स्वेन सह योग विजहाति, किंबहुना ?, विगत योगी चापि भवति, 'ता जया णमित्यादि, ता इति प्राग्वत् , यदा चन्द्र गतिसमापनमपेक्ष्य श्रवणनक्षत्रं | गतिसमापन्नं भवति तदा तत् श्रवणनक्षत्रं प्रथमतः पौरस्त्याद् भागात-पूर्वेण भागेन चन्द्रमसं समासादयति,13 समासाद्य चन्द्रेण साई त्रिंशतं मुहान यावत् योगं युनक्ति, एवंप्रमाणे च कालं यावत् योग युक्त्वा पर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्त्तयति, धनिष्ठानक्षत्रस्प योग समर्पयितुमारभते इत्यर्थः, योगमनुपरिवर्य च |स्वेन सह योगं विप्रजहाति, किंबहुना !, विगतयोगी चापि भवति, 'एच'मित्यादि एयमुक्केन प्रकारेण एतेनानन्तरोपदर्शितेनाभिलापेन यानि पञ्चदश मुहूर्त्तानि शतभिषगप्रभृतीनि नक्षत्राणि यानि त्रिंशन्मुहूतानि | धनिष्ठाप्रभृतीनि यानि च पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्तानि उत्तरभद्पदादीनि तानि सर्वाण्यपि क्रमेण तावद् भणितव्यानि यावदुत्तरापाढा, तत्राभिलाषः सुगमत्यात् स्वयं भावनीयो ग्रन्थगौरवभयात् नाख्यायते इति । सम्पति ग्रहमधिकृत्य योगचिन्तां करोति-'ता जया ण'मित्यादि ता इति पूर्ववत् चदाणमिति वाक्यालगरे चन्द्र गतिसमापन्नमपेक्ष्य महो गति-| JAINEDuratim intimational F OR ~510 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [११६] सूर्यप्रज्ञ- समापन्नो भवति तदा स ग्रहः पौरस्त्याद् भागात-पूर्वेण भागेन प्रथमतश्चन्द्रमसं समासादयति समासाद्य च यथास- ३माभृते प्तिवृत्तिःम्भवं योग युनक्ति, यथासम्भवं योग युक्त्वा पर्यन्तसमये यथासम्भवं योगमनुपरिवयति, यथासम्भवमन्यस्य ग्रहस्य चन्द्रादीनां (मल.) योगं समर्पयितमारभते इति भावः, योगमनुवर्ण च स्वेन सह योग विप्रजहाति.किंबहुना !, विगतयोगी चापि भवति। गाततारत अधुना सूर्येण सह नक्षत्रस्य योगचिन्तां करोति-'ता जया णमित्यादि, ता इति प्राग्यत् , यदा सूर्य गतिसमापन्नम-11 ॥२४९॥ बसू ८४ पेक्ष्याभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति तदा तदभिजिन्नक्षत्रं प्रथमतः पौरस्त्याद् भागात् सूर्य समासादयति समासाद्य चतुरः परिपूर्णान अहोरात्रान् पश्चमस्य चाहोरात्रस्य पद महान यावत् सूर्येण सह योग युनक्ति, एवंप्रमाणं च कालं यावत् योगं युक्त्या पर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्तयति, श्रवणनक्षत्रस्य योग समर्पयितुमारभते इति भावः, अनुपरिवर्त्य च स्वेन सह योग विजहाति विप्रजहाति, किंबहुना !, विगतयोगी चापि भवति, 'एच'मित्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण पञ्चदशमुहूर्तानां शतभिषमभृतीनां षट् अहोरात्राः सप्तमस्य अहोरात्रस्य एकविंशतिर्मुहर्ताः त्रिंशन्मुहानां श्रवणादीनां त्रयोदश अहोरात्राश्चतुर्दशस्य अहोरात्रस्य द्वादश मुहूर्ताः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानामुत्तरभद्रपदादीनां विंशतिरहोरात्रा एकविंशतितमस्य चाहोरात्रस्य त्रयो मुहूर्ताः क्रमेण सर्वे तावद् भणितच्याः यावदुत्तराषाढानक्षत्र, तत्रोत्तराषाढानक्षत्रगतिमभिलापं साक्षादर्शयति-ता जया ण'मित्यादि, सुगम, एतदनुसारेण शेषा अप्यालापाः स्वयं वक्तव्याः, सुगमत्वानु | C on नोपदश्यन्ते । सम्पति सूर्येण सह ग्रहस्य योगचिन्तां करोति-'ता जया ण'मित्यादि सुगर्म । अधुना चन्द्रादयो नक्षमित्रेण मासेन कति मण्डलानि चरन्तीत्येतन्निरूपयितुकाम आह २४९॥ Fhi maratTEDTUNorg ~511~ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5 5 प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [११६] ताणक्खत्तेणं मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता तेरस मंडलाई चरति, तेरस य सत्तविभागे मंडलस्स, ताणक्खत्तेणं मासेणं सूरे कति मंडलाई चरति ?, तेरस मंडलाई चरति, चोत्तालीसं च सत्तद्विभागे | मंडलस्स, ता णक्वत्तेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाई चरति !, ता तेरस मंडलाई चरति अद्धसीतालीसं मच सत्तट्ठिभागे मंडलस्स । ता चंदेणं मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति, चोइस चउभागाई मंडलाई। चरति एगं च धीससतं भागं मंडलस्स,ता चंदेणं मासेणं सरे कति मंडलाई चरति , ता पपणरस चउभागूणाई मंडलाइं चरति, एमं च चवीससयभाग मंडलस्स. ता चंदेणं मासेणं णखत्ते कति मंड-18 लाई चरति !, ता पण्णरस चउभागूणाई मंडलाई चरति उच्च चउवीससतभागे मंडलस्स, ता उडणा मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता चोइस मंडलाई चरति तीसं च एगट्ठिभागे मंडलस्स, ता उडणार INमासेणं सरे कति मंडलाई चरति ?, ता पपणरस मंडलाई चरति, ता उडणा मासेणं णक्खसे कति मंडलाई चरति !, ता पण्णरस मंडलाई चरति पंच य वाचीससतभागे मंडलस्स, ता आदिच्चेणं मासेणं चंदे कति । मंडलाइं चरति !, ता चोइस मंडलाई चरति, एकारस भागे मंडलस्स, ता आदिच्चेणं मासेणं सूरे कति मंडसलाई चरति !, ता पपणरस चउभागाहिगाई मंडलाई चरति, ता आदिघेणं मासेणं णक्खसे कति मंडलाई । माचरति ?, तापण्णरस चउभागाहिगाई मंडलाई चरति पंचतीसं च चउचीससतभागमंडलाई चरति, ता अभि-IP दावहिएण मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति !, ता पणरस मंडलाई तेसीर्ति छलसीपसतभागे मंडलस्स, ता| 8269-56-4-56--56-0-56 Fhi ~512~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] ॥२५॥ सुर्यप्रज्ञ- अभिवहितेणं मासेणं सूरे कति मंडलाई चरति ?, ता सोलस मंडलाई चरति तिहिं भागेहिं ऊणगाई दोहिं१५ प्राभूत निवृत्तिःअध्यालेहिं सएहिं मंडलं छित्ता, अभिवहितेणं मासेणं नक्खत्ते कति मंडलाई चरति !, ता सोलस मंडलाईन (मल0) चरति सीतालीसएहि भागेहिं अहियाई चोदसहिं अट्ठासीरहिं मंडलं छत्ता (सूत्रं ८५) मासैश्चन्द्रा दीनां चारः 'ता नक्खते णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , नक्षत्रेण मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवा-IT८५ नाह–'तेरसे त्यादि, त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागान् , कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, त्रैराशिकबलात् , तथाहि-यदि सप्तपट्या नक्षत्रमासैरष्टौ शतानि चतुरशी त्यधिकानि महलाना लभ्यन्ते तत एकेन । नक्षत्रमासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-६७१८८४।१ । अत्रान्त्येन राशिना गुणनं जातः स ताबानेव तस्य सप्तपश्या भागहरणं लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः १२।।ता नक्खत्तेण-10 मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-ता तेरसे'त्यादि, त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य चतुश्चत्वारिंशतं सप्तषष्टिभागान् , तथाहि-यदि सप्तषष्ट्या नाक्षत्रैर्मासर्नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि मण्डलानां सूर्यस्य । लभ्यन्ते तत एकेन नाक्षत्रेण मासेन कति मण्डलानि लभामहे !, राशिवयस्थापना ६७ । ९१५ । १ । अत्रान्त्येन | ४ ॥२५॥ राशिना मध्यराशेगुणनं तत आयेन राशिना भागहारो लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य चतुश्च-18 मात्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः १३ । । । 'ता मक्खत्ते'त्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र सुगर्म, भगवानाह-'ता तेरसे' त्यादि, त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य अर्द्धसप्तचत्वारिंशत-सार्बपट्चत्वारिंशतं सप्तपष्टिभागान् चरति,81 CCCCRE दीप अनुक्रम [११७] JAMEairstum intimated FP maratTEDTUNorg ~513~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] दीप अनुक्रम [११७] तथाहि-यदि सप्तपट्या नाक्षत्रैमासैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अर्द्धमण्डलानि नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन । नाक्षत्रेण मासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-६७ १ १८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, तत। आयेन राशिना भागहारो लब्धानि सप्तविंशतिरर्द्धमण्डलानि अष्टाविंशतितमस्य चाईमण्डलस्य पविंशतिः सप्तपष्टि-11 भागाः २७॥ ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यामेकं मण्डलमित्यस्य राशेरर्द्धकरणे लब्धानि प्रयोदश मण्डलानि चतुर्द 14 *शस्य मण्डलस्य साजोः पट्चत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः । १३-१४३। सम्प्रति चन्द्रमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलनिरूपणां करोति-'ता चंदेणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , चान्द्रेण मासेन प्रागुक्त स्वरूपेण चन्द्रः कति मण्डलानि चरति !, भगवानाह-ता चोदसे त्यादि, चतईश सचतुर्भागमण्डलानि-चतुर्भागसहितानि मण्डलानि चरति एकं च चतुर्विंशशत-1x भागं मण्डलस्य, किमुक्तं भवति ?-परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्भाग-चतुर्विंशत्यधिकश-IN तसरकमेकत्रिंशद्भागप्रमाणमेकं च चतुर्विशत्यधिकशतस्य भार्ग-द्वात्रिंशतं पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् चरति, तथाहि-यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेनाष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते सतो दाभ्यां पर्यभ्यां किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१२४ १८८४।२। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेगुणनं, जातानि सप्तदश शतान्यष्टषष्ट्यधिकानि १७६८, तेषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि 20 पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशत् चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः १४ । ३३ । 'ता देण'मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्र || सुगर्म, 'ता पन्नरसे त्यादि, पञ्चदश चतुर्भागन्यूनानि मण्डलानि चरति एकं च चतुर्विंशत्यधिकशतभागं मण्डलस्य, JAMEairatum intimatunt ~514 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [८५]] ॥२५॥ दीप अनुक्रम [११७] CACANCHISCLACK किमुक्तं भवति :-चतुर्दश परिपूर्णानि मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्नवतिं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् चरति, १५ प्राभृते तथाहि-यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि मण्डलानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां किं लभामहे 1,151 नक्षत्रादिराशित्रयस्थापना-१२४ ॥ ९१५। २ । अवान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातान्यष्टादशा शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, मासश्चन्द्रा एतेपामायेन राशिना चतुर्थिशत्यधिकेन शतेन भागहरण, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुन-शदानाचा मावतिश्चतुर्विशत्यधिकशतभागाः । ४ । २४ । इति, 'ता चन्देण'मित्यादि नक्षत्रविपर्य प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-ताला ट्रापण्णरसे'त्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चतुर्भागन्यूनानि चरति पट च चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् मण्डलस्य, किमुक्त। भवति :-परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि चरति पञ्चदशस्य च मण्डलस्य नवनवतिं चतुर्थिंशत्यधिकशतभागान् , तथाहि-11 यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेनाष्टादश शतानि पश्चत्रिंशदधिकानि अर्द्धमण्डलानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां कि लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१२४ । १८३५ । २ । अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातानि पनिं- शच्छतानि सप्तत्यधिकानि १६७०, एतेषामायेन राशिना चतुर्विशत्यधिक शतरूपेण भागहरणं, लम्धा एकोनविंशत्M शेषा तिष्ठति चतुःसप्ततिः, इदं चार्द्धमण्डलगतं परिमाण, द्वाभ्यां चार्द्धमण्डलाभ्यामेकं परिपूर्ण मण्डलं ततोऽस्य राशेट्रादिकेन भागहारो लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य नवनवतिश्चतुर्विशत्यधिकशतभागाः १५ । सास साम्प्रतं ऋतुमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलनिरूपणां करोति-ता उउमासेण चंदे' इत्यादि, ऋतुमासेन-कर्ममासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ।, भगवानाह-ता चोइसे त्यादि चतुर्दश मण्डलानि परति पश्चदशस्य मण्ड-11 ||२५१॥ है JHNEmathrmstime FitraaMSPINAMORE ~515 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] दीप अनुक्रम [११७] कालस्य त्रिंशतमेकपष्टिभागान् , तथाहि-यदि एकपल्या कर्ममासैरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां दालभ्यन्ते तत एकेन कर्ममासेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना । ६१४८८४ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककल-12 क्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्य एकषष्ट्या भागहरणं लब्धानि परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य । सच मण्डलस्य त्रिंशदेकषष्टिभागाः । १४ । ।ता उउमासेण'मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'ता? पन्नरसे'त्यादि, पाचदश परिपूर्णानि मण्डलानि चरति, तथाहि-ययेक पट्या कर्ममासैनव शतानि पञ्चदशोत्तराणिE सूर्यमण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन कर्ममासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना । ६१ । ९१५ । १ । अत्रान्त्येन | राशिना मध्यराशि ण्यते जातः स तावानेव तस्य एकपट्या भागहरणं रब्धानि परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि १५, |'ता उउमासेण'मित्यादि नक्षत्रविषवं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह--'ता पन्नरसे'त्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चरति, |पोडशस्य च मण्डलस्य पश्य द्वाविंशशतभागान , तधाहि-यदि द्वाविंशेन कर्ममासशतेनाष्टादश शतानि पत्रिंशदधि कानि मण्डलानां नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन कर्ममासेन कि सभामहे !, राशित्रयस्थापना १२२ । १८३५ । १।। [अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेच तस्यायेन राशिना द्वाविंशत्यधिकशतरूपेण भागहरणं लब्धानि | पञ्चदश मण्डलानि पोडशस्य च पञ्च द्वाधिशशतभागाः १५ । २३ । सम्पति सूर्यमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलानि | निरूपयति-ता आइयेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , आदित्येन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति !, भगया-11 नाह-चतुर्दश मण्डलानि चरति पञ्चदशस्य च मण्डलस्य एकादश पश्चभागान्, तथाहि-यदि पट्या सूर्यमासैरष्टी JAMEairatomintimatains Fhi waliSDHRUTH ~516~ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] ॥२५२१ दीप अनुक्रम [११७] सूर्यप्रज्ञ- शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां चन्द्रस्य लभ्यन्ते तत एकन सूर्यमासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना- १५प्राभूते तिवृत्तिः६०1८८४ । १ । अत्रात्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्य पठ्या भागहरणं लब्धानि चसुदेश । नक्षत्रादि(मल मण्डलानि शेपास्तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशत् ४४ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योश्चतुष्केनापवर्तना जात उपरितनो राशिरेकादश-मासश्चन्द्रा रूपोऽधस्तनः पश्चदशरूपः लब्धाः पञ्चदशमण्डलस्य एकादशभागाः १४ ।। 'ता आइक्षेण'मित्यादि सूर्यविषयं दानाचार प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-पादश चतुर्भागाधिकानि मण्डलानि चरति, तथाहि-यदि पट्या सूर्यमासनेय शतानि पञ्च-18 दशोत्तराणि मण्डलानां सूर्यस्य लभ्यन्ते तत एकेन मासेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना ६० । ९१५ । १ । अत्राअन्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्य पछया भागहरणं लब्धानि पञ्चदश भण्डलानि || सापोडशस्य च पष्टिभागविभक्तस्य पञ्चदशभागात्मकश्चतुर्भागः । १५।।ता आइचेण'मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र | सुगमम् , भगवानाह-'ता पण्णरसे'त्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चतुर्भागाधिकानि पञ्चत्रिंशतं विंशत्यधिकशतभागान् । मण्डलस्य चरति, किमुक्तं भवति !-पोडशस्य च मण्डलस्य पञ्चत्रिंशतं विंशत्यधिकशतभागान् चरति, तथाहि-यदि बि-18 शेन सूर्यमासझतेनाष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मण्डलानां नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन सूर्यमासेन किं लभ्यते राशित्रयस्थापना-१२० । १८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुणितो जातस्तावानेव तस्य विंशत्यधिकेन । शतेन भागहरणं लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि पञ्चविंशच्च विंशत्यधिकशतभागाः षोडशस्य १५ ॥ ३५. अधुना अभिव-४॥२५२॥ डितमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलानि निरूपयन्नाह-'ता अभिवहिएण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , अभिवर्द्धि FitraalMAPINANORN ~517 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] दीप अनुक्रम [११७] तेन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति !, भगवानाह-'ता पण्णरसे'त्यादि, पञ्चदश मण्डलानि परति पोखशस्य ४च मण्डलस्य व्यशीतिः चतुरशीत्यधिकशतभागान् , तथाहि-अत्रैवं त्रैराशिक-इह युगेऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत् । सप्त चाहोरात्रा एकादश मुहूर्ताखयोविंशतिश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्थ, एष च राशिः सांश इति न राशिककर्मविषयस्ततः परिपूर्णमासप्रतिपत्त्यर्थमयं राशिः षट्पञ्चाशदधिकेन शतेन गुण्यते, जातानि परिपूर्णानि नवाशीतिः शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि अभिवद्धितमासाना, किमुक्तं भवति !-पट्पश्चाशदधिकशतसङ्ख्येषु युगेषु एतायन्तः परिपूर्णा अभिहावीद्धतमासाः लभ्यन्ते, एतच द्वादशमाभृते सूत्रकृतैव साक्षादभिहितं, ततस्त्रैराशिककर्मावतार:-याष्टाविंशत्यधिकर भिवतिमासैनवाशीतिशतैः पट्पञ्चाशदधिकशतसङ्ख्ययुगभाविभिश्चन्द्रमण्डलानामेकं सक्षं सप्तत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि चतुरुत्तराणि लभ्यन्ते तत एकेनाभिवतिमासेन किं लभामहे !, राशिवयस्थापना-८९२८ ॥ १३७९०४ ॥ १॥ अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेस्ताडनाजातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ८९२८ भागहरणं लब्धानि ।। पञ्चदश मण्डलानि १५ शेपमुद्धरति एकोनचत्वारिंशत् शतानि चतुरशीत्यधिकानि ३९८४, तत छेद्यच्छेदकराश्योरष्टा-16 चत्वारिंशताऽपवर्तना जात उपरितनो राशिख्यशीतिरधस्तनः पडशीत्यधिक शतं आगतं षोडशमण्डलस्य व्यशीतिः। पडशीत्यधिकशतभागाः।'ता अभिवहिएणमित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'सोलसे'त्यादि, पोडश मण्डलानि विभिर्भागन्यूनानि चरति, मण्डलं द्वाभ्यामष्टाचत्वारिंशदधिकाभ्यां शताभ्यां छित्त्या, तथाहि-यदि पप-10 चाशदधिकशतसययुगभाविभिरष्टाविंशत्यधिकैरभिवर्द्धितमासैनवाशीतिशतैः सूर्यमण्डलानामेकं लक्षं द्विचत्वारिंशत्स-IK F OR ~518~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] सूर्यप्रज्ञ- शिवृत्तिः (मळ०) ॥२५३|| हस्राणि सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि लभ्यन्ते तत एकेनाभिवद्धितमासेन किं लभामहे 1, राशिनयस्थापना ८९२८।।। १५ प्राभूते |१४२७४० । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशिर्गुष्यते जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ८९२८ । नक्षत्रादिभागो हियते लब्धानि पणदश मण्डलानि १५ शेषमुद्धरन्ति अष्टाशीतिः शतानि विंशत्यधिकानि ८०२० तताछेथ-सामासश्चन्द्रा पछेदकराग्योः पशिताऽपवर्तना जात उपरितनो राशिः द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके २४५ मधस्तनो देशते अष्टाच-II दीनां चारः त्वारिंशदधिके २४८ आगतं पोडशं मण्डलं विभिभागैyनं द्वाभ्यामष्टाचत्वारिंशदधिकाभ्यां शताभ्यां प्रविभक्त २४८ 112 'ता अभिवहिएण'मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र सुगर्म, भगवानाह-'ता सोलसे'त्यादि, पोडश मण्डलानि सप्तच-14 शत्वारिंशता भागैरधिकानि चतुर्दशभिः शतैरष्टाशीत्यधिकर्मण्डलं छित्त्या, तथाहि-यदि षट्पञ्चाशदधिकशतसमयुगभा-II विभिरभिवद्धि तमासवाशीतिश औरष्टाविंशत्यधिक क्षत्रमण्डलानामेकं लक्षं त्रिचत्वारिंशत् सहस्राणि शतमेकं त्रिंशद-12 [धिकं लभ्यते ततः एकेनाभिवद्धितमासेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना । ८९२८ । १४३१३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ८९२८ भागो प्रियते लब्धानि षोडश मण्डलानि शेषमुद्धरति द्वे शत वशोत्यधिक २८२ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः षट्रेनापवर्तना जाता उपरि सप्तचत्वारिंशत् * ४७ अधस्तु चतुर्दश शतान्यष्टाशीत्यधिकानि १४८८ आगताः सप्तचत्वारिंशत् अष्टाशीत्यधिकचतुर्दशशतभागाः । सम्भ-1॥५३॥ | त्येकैकेनाहोरात्रेण चन्द्रादयः प्रत्येकं कति मण्डलानि चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाह ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता एगं अद्धमंडलं चरति एकतीसाए भागेहिं ऊणं| दीप अनुक्रम [११७] 2 -2 Fhi ~519~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] दीप अनुक्रम [१९८] लाणवहि पण्णरसेहिं अद्धमंडलं छेत्ता, ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं सूरिए कति मंडलाई चरति ?, ता एगं अद्धम-18 डलं चरति, ता एगमेगेणं अहोरशेणं णवत्ते कति मंडलाई चरति!,ता एग अमंडलं चरति दोहिं भागेहि अधियं सत्तहिं बत्तीसेहिं सरहिं सद्धमंडलं छेत्ता । ता एगमेग मंडलं चंदे कतिहिं अहोरत्तेहिं चरति ?, ता| दोहिं अहोरत्तेहिं चरति एकतीसाए भागेहिं अधितेहिं चउहिं चोतालेहिं सतेहिं राईदिएहि छेत्ता, ता एगमेगं मंडलं सूरे कतिहिं अहोरत्तेहिं चरनि !, ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरति, ता एगमेगं मंडल णखत्ते कतिहिं| अहोरत्तेहिं चरति १. ता दोहिं अहोरत्तेहि चरति दोहिं ऊणेहिं तिहिं सत्तसझेहि सतेहिं राइदिएहिए लाछत्ता । ता जुगेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता अट्ठ चुल्लसीते मंडलसते चरति, ता जुगेणं सूरे| कति मंडलाई चरति !, ता णवपण्णरमंडलसते चरति, ता जुगेणं णक्खत्ते कति मंडलाई परति P.IN ४ाता अट्ठारस पणतीसे दभागमंडलसते चरति । इच्चेसा मुहत्तगती रिक्खातिमासराईदियजुगमंडलपवि-IA भत्ता सिग्घगती वत्थु आहितेत्ति येमि ।। (सूत्र०८६) पन्नरसमं पाहुई समत्तं ॥ RAI 'ता एगमेगणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एकैकेनाहोरात्रेण चन्द्रः कति मण्डलानि चरति !, भगवानाह-'ता| एग'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डलं चरति एकत्रिंशता भागैऍनं नवभिः पञ्चदशोत्त। शतैरर्बमण्डलं छित्या, तथाहिरात्रिन्दिवानामष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तदश शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि अर्द्धमण्डलानां चन्द्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन रात्रिन्दिवेन किं लभ्यते ?, राशित्रयस्थापना १८३० । १७६८ ॥ १। अत्रान्त्येन राशिना, एककलक्षणेन मध्य-16 JAINEDuratim intimalsina ~520~ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] दीप अनुक्रम [१९८] सूर्यप्रश- राशिगुण्यते जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना १८३० भागहरणं, स चोपरिसनस्य राशेः स्तोकत्वाद् भार्ग न लभते १५प्राभले मिवृत्तिः ततश्छेद्यच्छेदकराश्योति केनापवर्त्तना जातः उपरितनो राशिरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि अधस्तनो नव शतानि चन्द्रादीना (मल.) पञ्चदशोचराणि । तत आगतमेकविंशता भागै!नमेकमर्द्धमण्डलं नवभिः पशोत्तरः प्रविभक्तमिति । 'ता एग महोरात्रम॥२५॥ मेगणमित्यादि सूर्यविपर्य प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह–ता एग'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डलं चरति, एतच सुमतीत मेव, ण्डलयुगग141ता एगमेगेण'मित्यादि नक्षत्रविपर्य प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह–ता एगमेगेण'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डल द्वाभ्यां तया सू८६ भागाभ्यामधिकं चरति द्वात्रिंशदधिकैः सप्तभिः शतैरर्द्धमण्डलं छित्त्वा, तथाहि-यद्यहोरात्राणामष्टादशभिः शतै स्त्रिंशदधिकरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि नक्षत्राणामर्द्धभण्डलानि लभ्यन्ते तत एकेनाहोरात्रेण किं लभ्यते ?, राशि यस्थापना १८३० । १८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककरूपेण मध्यराशेर्गुणना जातः स तावानेव तस्यायेन। | राशिना १८३० भागहरणं लब्धमेकमद्धमण्डलं शेषास्तिष्ठन्ति पञ्च तत छेद्यच्छेदकराश्योरर्बतनीयरपवर्तना जातावुपरि द्वौ अधस्तात् सप्तशतानि द्वात्रिंशदधिकानि, लब्धौ द्वौ द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागी अधुना एकै परिपूर्ण मण्डलं चन्द्रादयः प्रत्येकं कतिभिरहोरात्रैश्चरन्तीत्येतनिरूपणार्थमाह-'ता एग'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एकैकं मण्डल चन्द्रः कतिभिरहोरात्रश्चरति !, भगवानाह-ता दोहि'इत्यादि द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति एकत्रिंशता भागैरधि-18 काभ्यां चतुर्भिश्चत्वारिंशदधिकैः शतैः रात्रिन्दिवं छित्त्वा, तथाहि-यादे चन्द्रस्य मण्डलानामष्टभिः दातैश्चतुरशीत्यधि-I करहोरात्राणामष्टादश दातानि त्रिंशदधिकानि लभ्यन्ते तत एकेन मण्डलेन कति रात्रिन्दिवानि लभामहे !, राशित्रय-1 FitraalMAPINAMORE ~521 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] दीप अनुक्रम [१९८] स्थापना ८८४ । १८३० ॥ १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना चतुरशीत्य&ाधिकाष्टशतप्रमाणेन भागहरण लब्धौ द्वावहोरात्री शेषास्तिष्ठति द्वाषष्टिः ६२ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योदिकेनापवर्चना जात उपरितनो राशिरेकत्रिंशदूपोऽधस्तनश्चत्वारि शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि आगतं एकत्रिंशत् द्विचत्वारिंशद-1 ४ाधिकचतुःशतभागाः। 'ता एगमेग'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एकैकं मण्डलं सूर्यः कतिभिरहोरात्रैश्चरति !, भगयाMनाह–ता दोहिं'इत्यादि, द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति, तथाहि-यदि सूर्यस्य मण्डलानां नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तर रष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि अहोरात्राणां लभ्यन्ते तत एकेन मण्डलेन कति अहोरात्रान् लभामहे !, राशित्रयस्था-1 पना-९१५ । १८३० ॥ १। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ९१५ भागहरणं| दिलब्धौ द्वायहोरात्राविति । 'ता एगमेग'मित्यादि ता इति पूर्ववत् एकैकमात्मीय मण्डल नक्षत्र कतिभिरहोरात्रैश्चरति,भग-2 Pथानाह-'ता दोहि'इत्यादि, द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां द्वाभ्यां भागाभ्यां हीनाभ्यां त्रिभिः सप्तपष्टैः-सप्तपश्यधिक शतै रात्रिन्दिवं । छित्त्या, तथाहि-यदि नक्षत्रस्य मण्डलानामष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकैः पट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्याधिकानि राबिन्दियानां | हालभामहे तत एकेन मण्डलेन किं लभामहे, राशित्रयस्थापना १८३५ । ३६६०।१ । अनामत्येन राशिना मध्यराशेस्ताइन । जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना १८३५ भागहरणं लब्धमेकं रात्रिन्दिवं शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पञ्चबिशत्यधिकानि १८२५ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योकेिनापवर्तना जात उपरितनो राशिः त्रीणि शतानि पजषयधिकानि छेद-1 राशिस्त्रीणि शतानि सप्तषष्ठयधिकानि 11 तत आगतं द्वाभ्यां सप्तषष्टयधिकत्रिशतभागाभ्यां हीनं द्वितीयं रात्रिन्दि-1 ~522~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः (मन) प्रत सूत्रांक ॥२५५॥ दीप अनुक्रम [१९८] यमिति । सम्प्रति चन्द्रादयः प्रत्येकं कति मण्डलानि युगे चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाह-'ता जुगे णमित्यादि, ता इति ||१५ प्राभृते पूर्ववत् , युगेन कति मण्डलानि चरति !, भगवानाह-'ता अट्टे'त्यादि, ता इति पूर्ववत् , अष्टौ मण्डलशतानि चतुर-18/चन्द्रादीना शीत्यधिकानि चरति, चन्द्रः एकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या शतैः प्रविभक्तस्य मण्डलस्याष्ट्रपश्यधिकसप्तदशशतसङ्ख्यान महोरात्रमभागान् एकेन मुहूर्तेन गच्छति, युगे च मुहूर्ताः सर्वसज्ञपया चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नव सतानि, ततः सप्तदश शतानि भण्डलयुगग| अष्टषष्ट्यधिकानि चतुःपश्चाशता सहनैनषभिश्च शतैर्गुण्यन्ते जाता नव कोटयः सप्ततिर्लक्षात्रिषष्टिः सहस्राणि द्वे शते || ९७०६३२०० ततोऽस्य राशेरेफेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः १०९८०० मण्डलानयनाय भागो हियते, लब्धानि अष्टौ शतानि चसुरशीत्यधिकानि मण्डलानामिति, ता जुगेण मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह–ता नवपण्णरसे'-11 त्यादि. ता इति पूर्ववत , नव मण्डलशतानि पशदशाधिकानि चरति, तथाहि-यदि द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामेकं सूर्य-18 मण्डलं लभ्यते ततः सकलयुगभाविभिरष्टादशभिरहोरात्रशतैत्रिंशदधिकः कति भण्डलानि लभ्यन्ते १, राशित्रयस्थापना ।१।१८३० । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८५० तेपामायेन| 2 राशिना द्विकरूपेण भागहरणं लब्धानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ । 'ता जुगेण मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'ता अट्ठारसे'त्यादि, अष्टादश द्विभागमण्डलशतानि-अर्द्धमण्डलशतानि पश्चत्रिंशानि-पत्रिंश-C॥२५५|| दधिकानि चरति, तथाहि-नक्षत्रमेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः प्रविभक्तस्य मण्डलस्य सत्कान् पञ्चत्रिंशदधि-121 काष्टादशशतसङ्ग्यान भागान एकेन मुद्दन गच्छति, युगे च मुहूर्ताः सर्वसयया चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि, ~523~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] दीप अनुक्रम [१९८] ततस्तैश्चतुःपञ्चाशता सहस्रनवभिः शतैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गुण्यन्ते, जाता दश कोटयः सप्त लक्षा एक चत्वारिंशत्सहस्राणि पञ्च शतानि १००७४ १५००, अर्द्धमण्डलानि चेह ज्ञातुमिष्टानि तत एकस्य शतसहस्रस्याष्टानवतेश्च Wशतानामढ़ें यानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नय शतानि तेर्भागो हियते, लब्धानि अष्टादश शतानि पश्चत्रिंशदधिकानि | अर्द्धमण्डलानामिति । सम्मति सकलमाभृतगतमुपसंहारमाह-'इच्चेसा मुहुत्तगई'इत्यादि, इति-एवमुक्तेन प्रकारेण एषाअनन्तरोदिता मुहूर्तगतिः-प्रतिमुहूर्त चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां गतिपरिमाण तथा ऋक्षादिमासान्-नक्षत्रमासं चन्द्रमास सूर्यमासमभिवद्धितमासं तथा रानिन्दिवं तथा युगं चाधिकृत्य मण्डलपविभक्तिः-मण्डलपविभागो वैविक्त्येन मण्डलसङ्ग्यामरूपणा इत्यर्थः तथा शीघ्रगतिरूपं वस्तु आख्यातमित्येतद् ब्रवीमि अहं, इदं च भगवदचनमतः सम्यक्त्वेन पूर्वोक्तं श्रद्धेयं ॥ । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां पञ्चदशम-प्राभतं समाप्त I तदेवमुक्तं पञ्चदर्श प्राभृत, सम्प्रति षोडशमारभ्यते, तस्य चायमाधिकारो यथा 'कथं ज्योत्स्नालक्षणमाख्यात'मिति | तत एवंरूपमेव प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते दोसिणालक्खणे आहितेति वदेजा ? ता चंदलेसादी य दोसिणादी य दोसिणाई य चंदलेसादी य के अटेलिक्खणे ?, ता एकटे एगलक्खणे, ता सूरलेस्सादी य आयवेइ य आतवेतिय सूरलेहस्सादी य के अहे किलक्खणे , ता एगढे एगलक्खणे, ता अंधकारेति प छापाह प छायाति य अंधकारेति लय के अ8 किलक्खणेता एग? एगलक्खणं ॥ (सूत्रं०८७) सोलसमं पाहुड समत्त ॥ JANElairatonintimalsina अत्र पञ्चदर्श प्राभृतं परिसमाप्तं अथ षोडशं प्राभृतं आरभ्यते ~524~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१६], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सर्वप्र प्रत कार्थलक्षणे सूत्रांक [८७] २4 दीप अनुक्रम [११९] 'ता कहते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! ते-त्यया ज्योत्स्नालक्षणमाख्यातं इति वदेत् !, १प्राभूत निवृत्तिः एवं सामान्यतः पृष्ट्वा विवक्षितप्रष्ट व्यार्थप्रकटनाय विशेषमश्नं करोति,'ता चंद्रलेसाई'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , चन्द्र (मल.) पार (ग्रंथ ८०००) लेश्या इति ज्योत्स्ना इति अनयोः पदयोरथवा ज्योत्स्ना इति चन्द्रलेश्या इत्यनयोः पदयो , इहाक्षरा-IC ॥२५६॥ गामानुपूर्वीभेदेनार्थभेदो दृष्टः, यथा वेदो देव इति, पदानामपि चानुपूर्वीभेददर्शनादर्थभेददर्शनं यथा-पुत्रस्य गुरुः |गुरोः पुत्र इति, तत इहापि कदाचिदानुपूर्वीभेदादर्थभेदो भविष्यतीत्याशङ्कायशाचन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इत्युक्त्वा | है ज्योत्स्ना इति चन्द्रलेझ्या इत्युक्तं, अनयोः पदयोरानुपूर्ध्या अनानुपूा या व्यवस्थितयोः कोऽर्थः, किं परस्परं भिन्न उता|भिन्न इति । स च किंलक्षणः-किस्वरूपो लक्ष्यते-तदन्यव्यवच्छेदेन ज्ञायते येन तलक्षणं-असाधारण स्वरूपं किं लक्षणंअसाधारणं स्वरूपं यस्य स तथा, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह–ता एगढे एगलक्खणे' इति, ता इति पूर्ववत्, चन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इत्यनयोः पदयोरानुपूा अनानुपूा वा व्यवस्थितयोरेक एव-अभिन्न एवाघः, य एव एकस्य । पदस्य वाच्योऽर्थः स एव द्वितीयस्थापि पदस्येति भावः, 'एगलक्खणे' इति एक-अभिन्नमसाधारणस्वरूपं लक्षणं | यस्य स तथा, किमुक्तं भवति ।-यदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेन पदेन वाच्यस्थासाधारणं स्वरूप प्रतीयते तदेव ज्योत्स्ना| २५६५ इत्यनेनापि पदेन, यदेव च ज्योत्स्ना इत्यनेन पदेन तदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेनापि पदेनेति, एवं आतप इति सूर्यलेश्या इति यदिवा सूर्यलेश्या इति आतप इति, तथा अन्धकार इति छाया इति अथवा छाया इति अन्धकार इति, ते पदेषु विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां षोडशमं-प्राभूतं समाप्तं । R-64CONG- JAINEDuratim intimati FirmwalMAPINHEUMORE ~525 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१७], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८८] दीप तदेवमुक्तं पोडशं प्राभृतं सम्पति सप्तदशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः-'च्यवनोपपातौ वक्तव्यापिति सतस्त-18 द्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते चरणोचवाता आहितेति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णताओ, तस्थ एगे एवमासु ता अणुसमयमेव चंदिमसूरिया अपणे चयंति अण्णे उबवजंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहत्तमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अपणे उववज्जति २ एवं जव हेडा तहेब जाय पता एगे पुण एबमाइंसु ता अणुओसप्पिणी उस्सप्पिणीमेव चंदिमसूरिया अण्णे चपंति अण्णे उवचनं ति एगे|| शोएबमाहंस, वयं पुण एवं बदामो-ता चंदिमसूरियाणं देवा महिहीआ महाजुतीया महाबला महाजसा महासोक्खा महाणुभावा वरवत्थधरा वरमल्लधरा बरगन्धधरा वराभरणधरा अघोछिसिणपट्टताए काले| अण्णे चयंति अण्णे उघवजंति ॥ सूत्र ८८) सत्तरसमं पाहुढं समत्तं ॥ 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति प्राग्वत् , कथं?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया चन्द्रादीनां च्यवनोपपातौ व्याख्याता-1 विति वदेत् १, सूत्रे च द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् , उक्त च-"बहुबयणेण दुवयण"मिति प्रश्ने कृते भगवानेतद्विपये यावत्यः प्रतिपत्तयः सन्ति तायतीरुपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तब-यवनोपपातविषये खल्विमा-पक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः-परतीथिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्धेगे'इत्यादि, तत्र-तेषां पाचविंशतेः परती-| थिकानां मध्ये एके-परतीथिका एवमाहुः, ता इति तेषां प्रथम स्वशिध्य प्रत्यनेकवतव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, अनुस,4-16 अनुक्रम [१२०] FO अत्र षोडशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ सप्तदशं प्राभृतं आरभ्यते ~526~ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१७], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: (मल) प्रत सूत्रांक [८८] दीप सूर्यप्रज्ञ- मेव चन्द्रसूर्या अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्चयवन्ते-च्यवमानाः अन्येऽपूर्वा उत्पद्यन्ते-उत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् , अत्रोपसं- १७ माभृते विपत्तिःहार:-एके एवमाहुः, एके पुनरेवमाहुः अनुमुहूर्तमेव चन्द्रसूर्या अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्यवन्ते-प्ययमानाः अन्येऽपूर्वा उत्पधन्ते | 31 | उत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् , उपसंहारमाह-एगे एवमासु एवं जहा हिट्ठा तहेव जावे'त्यादि. एवं उक्तेन प्र- पाती सू८८ ॥२५७॥ कारण यथा अधस्तात् षष्ठे प्राभृते ओजःसंस्थितौ चिन्त्यमानायां पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तय उक्तास्तथैवात्रापि वक्तव्याः, यायद् 'अणुओसप्पिणिउस्सप्पिणिमेवे त्यादि चरमसूत्र, ताश्चैवं भणितज्या:-'एगे पुण एवमासु ता अणुराईदियमेव चंदि-1 मसूरिया अन्ने चयंति अन्ने उववजति आहियाति वएज्जा, एगे एवमाहेसु ३, एगे पुण एचमासु ता एव अणुपक्खमेव चैदिमसू-15 रिया अन्ने चयंति अन्ने उबवजति आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाइंसु ४ एगे पुण एवमाहंसु ता अशुमासमेव चंदिमसूरिया | अन्ने चयंति अन्ने उवधजंति आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु ५ एगे पुण एवमाहंसु ता अणुउउमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयति अन्ने उववजंति आहियति वएज्जा एगे एवमासु ६ एवं ता अणुअयणमेव ७ ता अणुसंवच्छरमेव ८ ताल अणुजुगमेव ९ ता अणुवाससयमेव १० ता अणुवाससहस्समेव ११ ता अणुषाससयसहस्समेव १२ ता अणुपुवमेव १३ ता अणुपुषसयमेव १४ ता अणुपुषसहस्समेष १५ ता अणुपुबसयसहस्समेव १५ ता अणुपलिओवममेव १७ ता अणुपलिओषमसयमेव १८ ता अणुपलिओवमसहस्समेव १९ ता अणुपलिओवमसयसहस्समेय २० ता अणुसागरोक्ममेव २१ सभा २५७॥ ता अणुसागरोवमसयमेव २२ ता अणुसागरोवमसहस्समेव २३ ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव २४" पश्चविंशतितमप्रतिपत्तिसूत्रं तु साक्षादेव सूत्रकृता दर्शितं, तदेवमुक्ताः परतीकिपतिपत्तयः, एताश्च सर्वा अपि मिथ्यारूपास्तत एताभ्यः अनुक्रम [१२०] FitraalMAPINANORN ~527~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१७], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 40 - प्रत सूत्रांक % [८८] दीप पृथग्भूतं स्वमतं भगवानुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञाना एवं-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव कारमाह-'ता चंदिम'त्यादि, ता इति पूर्ववत् चन्द्रसूर्या णमिति वाक्यालङ्कारे देवा 'महर्डिका' महती ऋद्धिर्विमानपरिवारादिका येषां ते तथा, तथा महती द्युतिः-शरीराभरणाश्रिता येषां ते महाद्युतयः, तथा महत् पलं-शारीरः प्राणो येषां ते महाबलाः, तथा महत्-विस्तीर्ण सर्वस्मिन्नपि जगति विस्तृतत्वात् यशः-लाघा येषां ते महायशसः, तथा महान् अनुभावो-क्रियकरणादिविषयोऽचिन्त्यः शक्तिविशेषो येषां ते महानुभावाः, तथा महत्-भवनपतिब्यन्तरे-|| भ्योऽतिप्रभूतं तदपेक्षया तेषां प्रशान्तत्वात् सौख्यं येषां ते महासौख्याः, वरयखधरा माल्यधरा वरगन्धधरा वराभरणधरा अग्यवछिन्ननयार्थतया-द्रव्यास्तिकनयमतेन काले-वक्ष्यमाणप्रमाणस्वस्वायुर्व्यवच्छेदे अन्ये पूर्वोत्पन्नाच्यवन्तेयवमानाः अन्ये तथाजगत्स्वाभाब्यारषण्मासादारतो नियमतः उत्पद्यन्तेउत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् स्खशिष्येभ्यः।। इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां सप्तदशम-प्राभृतं समाप्त तदेवमुक्त सप्तदर्श प्राभूत, साम्प्रतमष्टादशमारभ्यते, तस्य चायमधाधिकारः यथा-चन्द्रसूयादाना भूमरूवसामुञ्चत्वप्रमाणं वक्तव्य मिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते उच्चत्ते आहितेति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ, तत्धेगे एवमाहंसु-ता Pाएगं जोपणसहस्सं सूरे उहुं उच्चत्तेणं दिवहुं चंदे एगे एवमासु १ एगे पुण एवमाहंसु ता दो जोयणसह-II स्साई सूरे उर्ल्ड उचलेणं अढातिजाई चंदे एगे एवमासु २ एगे पुण एचमाईसुता तिनि जोपणसहस्साई। %-2-55 अनुक्रम [१२०] । JANElairatam intimatsind. FhiraMAPIVARAuNORE अत्र सप्तदर्श प्राभृतं परिसमाप्तं अथ अष्टादशं प्राभृतं आरभ्यते ~528~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] स८९ गाथा सूर्यमज्ञ- सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्भुट्ठाई चंदे एगे एवमाहंसु ३ एमे पुण एवमाहंसु ता चत्तारि जोयणसहस्साई सूरे उहाभूतें उपत्तेणं अशपंचमाइं चंदे एगे एबमाहंसुभएगे पुण एवमासु ता पंच जोपणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अब- चन्द्रसूया. (मल छ ट्टाई चंदे एगे एवमासु ५ एगे पुण एवमाहंसु ता छ जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अडसत्तमाई चंदे ॥२५८॥ एगे एषमाइंसु ६ एगे पुण एवमाइंसु ता सत्त जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अट्टमाई चंदे एगे एव-| माहंसु ७ एगे पुण एचमाहेसु ता अट्ठ जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धनवमाई चंदे एगे एवमाहंसु ८ पाएगे पुण एवमासु ता नव जोयणसहस्साई सूरे उडे उच्चत्तेणं अहदसमाई चंदे एगे एवमासु १ एगे | पुण एवमाहंसु ता दस जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धएकारस चंदे एगे एवमाहंसु १० एगे पुण एवमा-12 ट्रासु एकारस जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अख़बारस चंदे ११ एतेणं अभिलावणं णेत वारस सूरे अद्धतेरस चंदे १२ तेरस सूरे अद्धचोद्दस चंदे १३ चोद्दस सूरे अद्भपण्णरस चंदे १४ पण्णरस सूरे अद्धसोलस मा १५ सोलस सूरे अद्वसत्तरस चंदे १६ सत्तरस सूरे अद्धअट्ठारस चंदे १७ अट्ठारस सूरे अदएकूणवीस चंदे १८ एकोणबीसं सूरे अद्धचीस चंदे १९ वीसं सूरे अद्धएकवीसं चंदे २० एकवीस सूरे अद्धवावीसं चंदेरी |२१ याबीसं सूरे अद्धतेवीसं चंदे २२ तेवीसं सूरे अडचउवीसं चंदे २३ चउवीसं सूरे अद्धपणवीसं चंदे २४ एगे एवमाहंसु एगे पुण एवमासु पणवीसं जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अडच्चीसं चंदे एगे एवमाहंसु २५ । वयं पुण एवं वदामो-ता इमीसे रयणष्पभाए पुढबीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सत्त-I दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] ReccCG--SC JAINEDuratim intimats Fhi ~529~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा णउइजोयणसए उहूं उत्पतित्ता हेहिल्ले ताराविमाणे चार चरति अजोयणसते उह उप्पतित्ता सूरविमाणे चारं चरति अट्ठअसीए जोयणसए उर्जा उप्पइत्ता चंदविमाणे चार चरति णव जोयणसताई उडे उप्पतित्ता उचरिं ताराविमाणे चार चरति, हेद्विल्लातो ताराविमाणातो दसजोयणाई उहूं उत्पतित्ता सूरविमाणा चार चरंति नउति जोयणाई उई उप्पतित्ता चंदविमाणा चारं चरति दसोत्तरं जोयणसतं उई उप्पतित्ता उब-10 रिल्ले तारारूवे चारं चरति, सूरविमाणातो असीतिं जोयणाई उडे उप्पतित्ता चंदविमाणे चारं चरति जोयणसतं उडे उप्पतित्ता उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति, ता चंदविमाणातो ण वीसं जोषणाई उहं उप्पतित्ता उबरिल्लते तारारूवे चारं चरति, एवामेव सपुवावरेणं दसुत्तरजोयणसतं बाहले तिरियमसंखेज्जे जोतिस-15 विसए जोतिसं चारं घरति आहितेति षदेना । (सूत्रं ८९) ता अस्थि णं चंदिमसूरियाणं देवाणं हिडंपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि समंपि तारारुवा अणुपि तुल्लावि उप्पिपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि?, ता अस्थि, |ता कहं ते चंदिमसूरियाणं देवाणं हिट्ठपि ताराख्वा अणुंपि तुल्लावि समपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि उपिपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि, ता जहा जहा ण तेसि णं देवाणं तवणियमयंभचेराई उस्सिताई भवंति तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं भवति, तं०-अणुते वा तलते वा, ता एवं खलु चंदिमसूरियाणं देवाणं हिडंपि| तारारूबा अणुंपि तुल्लावि तहेब जाव उपिपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि (सूत्रं९०) ता एगमेगस्स गं चंदस्स देवस्स केवतिया गहा परिवारो पं० केवतिया णक्खत्ता परिवारो पणत्तो केवतिया तारा परिवारोपण्णत्तो, दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] ~530~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) ""चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्तिवृत्तिः सूत्रांक [८९-९३] गाथा म ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स अट्ठासीतिगहा परिवारो पण्णत्तो, अट्ठावीसं णखत्ता परिवारो पण्णत्तो, १८ प्राइते (मल०) 'छावद्विसहस्साई णव चेव सताई पंचुत्तराई (पंचसयराई)। एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥१॥ चन्द्रादेरु परिवारो पं० (सूत्रं९१) ता मंदरस्सणं पद्यतस्स केवतियं अयाधाए (जोइसे)चारं चरति?, ता एक्कारस एकवीसे चत्व तारक ॥२५९॥ जोपणसते अवाधाए जोइसे चारं चरति, ता लोअंतातोणं केवतिय अबाधाए जोतिसे पं०?,ताएकारस एकारे तार परिचारः जोयणसते अबाधाए जोइसे पं० (सूत्रं९२) ता जंबुद्दीवेणं दीवे कतरे णक्खत्ते सबम्भंतरिलं चारं चरति कतरे जणखत्ते सत्वबाहिरिलं चार चरति कयरे णक्खत्ते सखुवरिलं चार चरति कयरे णक्खत्ते सबहिटिलं चारं माअबाधा अ - चरह !, अभीयी णक्खत्ते सबम्भितरिल्लं चारं चरति, मूले णक्खत्ते सत्वयाहिरिलं चार चरति, साती - रासू &खते सम्बुवरिलं चार चरति, भरणी णक्खत्ते सबहेडिल्लं चारं चरति (सूत्र ९३) 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, क -केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया भूमेरुई चन्द्रादीनामुश्चत्वमाख्यातमिति यदेत् ।, एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयः तावतीरुपदर्शयति-तत्वेत्यादि, तत्र-पच्चत्वविषये| &ाखविमा: वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः-परतीथिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, ता एव 'तत्थेगे' इत्यादिना दर्शयति, तत्र-तेषां पञ्चविंशातेः परतीर्धिकानां मध्ये एके परतीथिका एबमा, ता इति पूर्ववत् एकं योजनसहनं सूर्यो २५९॥ | भूमेरुर्ध्वमुच्चस्पेन व्यवस्थितो बर्द्ध-सार्द्ध योजनसहस्रं भूमेरू चन्द्रः, किमुक्त भवति ।-भूमेरूष योजनसहने गते अत्रान्तरे सूयों व्यवस्थितः, साढ़े च योजनसहस्र गते चन्द्रः, सूत्रे च योजनसङ्ख्यापदस्य सूर्यादिपदस्य च तुल्याधिकर दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] ~531 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत I सूत्रांक [८९-९३] गाथा णत्यनिर्देशोऽभेदोपचारात् , यथा पाटलिपुत्रात् राजगृहं नव योजनानीत्यादी, एवमुत्तरेष्वपि सूत्रेषु भावनीय, अत्रोपसंहा-11 रमाह-एगे एवमासु १, एके पुनरेवमाहुः ता इति पूर्ववत् , द्वे योजनसहने भूमेरूर्व सूर्यो व्यवस्थितः अर्द्धतृतीयानि योजनसहस्राणि चन्द्रः अत्रोपसंहारः 'एगे एवमासु २,एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, एएण'मित्यादि, एतेन-अन्तरोदितेनाभिलापेन शेषप्रतिपत्तिगतमपि सूत्रजातं नेतव्यं, तचैवम्-'तिपणी'त्यादि, एगे पुण एवमासु तिणि जोमण-11 सहस्साई सूरे उई उच्चत्तेणं अडुडाई चंदे एगे एवमाहंसु ३, 'ता चत्तारी'त्यादि एगे पुण एबमासु ता चत्तारि जोय-11 सहस्साई सूरे उह उच्चत्तेणं अद्धपंचमाई चंदे एगे एवमाहंसु ४, 'ता पंचेत्यादि, एगे पुण एवमासु ता पंच जोरायणसहस्साई सूरे उर्दु उच्चत्तेणे अद्धछटाई चंदे एगे एवमासु ५ 'एवं छ सूरे अद्धसत्तमाई चंदे' एगे पुण एव-131 मासु ता छ जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धसत्तमाई चंदे एगे एवमासु ६ 'सत्त सूरे अडट्ठमाई चंदे' इति एगे । पुण एवमाहेसु ता सत्त जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अट्ठमाई चंदे एगे एवमासु ७ 'अट्ठसूरे अद्धनवमाइं चंदे | इति एगे पुण एवमासु ता अट्ठ जोयणाई सूरे उहुँ उच्चत्तेणं अद्धनबमाई चंदे एगे एवमाहंसु ८'नव सूरे अद्धदसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता नव जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धदसमाई चंदे एगे एवमाहंसुरी 'दस सूरे अदएकारसाई चंदें' इति, एगे पुण एवमाहंसु ता दस जोयणसहस्साई सूरे उई उपत्तेणे अद्धए-IN कारसाई चंदे एगे एवमासु १० 'एकारस सूरे अवारस चंदे' इति, एगे पुण एवमासु ता इका-18|| IN रस जोयणसहस्साई सूरे उडे उच्चत्तेणं अद्धबारस चंदे एगे एमाहंसु ११ 'पारस सूरे अद्भुतेरसमाई दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] JANEairatomitimatine FirmaaMAPINHINORN ~532~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा सूर्यप्रज्ञ- चंदे' इति एगे पुण एबमासु ता वारस जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धतरसमाई चंदे एगे पुण एवमासु मिवृत्तिः४१२, 'तेरस सूरे अद्धचउसमाई चंदे' इति, एगे पुण एवमासु ता तेरस जोयणसहस्साई सूरे उहं उच्चत्तेणं अद्ध-18 चन्द्रादेरु(मल चोइसमाई चंदे एगे एबमाइंसु १३, 'चोइस सूरे अपंचदसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाइंसदा चोदस जोय- चत्वं तारक ॥२६॥ सहस्साई सूरे उ९ उच्चत्तेणं अपंचदसमाई चंदे एगे एवमाइंसु १४, पनरस सूरे अद्धसोलसमाई चंदे' इति एगे पाणुतादि पुण एवमाहंसु ता पण्णरस जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धसोलसमाई चंदे एगे एवमासु १५, 'सोलस सूरे | परिवारः अबससरसाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता सोलस जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेण भवसत्तरसमाई चंदे एगे। भ्यन्तरचाएवमासु १६, 'सत्तरस सूरे अदद्वारसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाइंसु ता सत्तरस जोषणसहस्साई सूरे रही | उग्रतेणं अजहारसमाई चंदे एगे एवमासु १७, 'अट्ठारस सूरे अद्धएगणवीसमाई चंद्दे' इति एगे पुण एवमाहंसा P८९-९३ लाता अवारस जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अद्धएगूणवीसमाई चंदे एगे एवमाइंसु १८ 'एगूणवीस सूरे अद्भवी-| समाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता एगूणवीसं जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्भवीसमाई चंदे एगे एवमाहंसु |१९, 'बीस सूरे अद्धएकवीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता वीस जोयणसहस्साई सूरे उई उश्चत्तेणं अद्धएक|वीसमाई चंदे एगे एबमाईसु २०, 'एकवीसं सूरे अदयावीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु वा इकवीसं जोपराणसहस्साई सूर उहं उच्चत्तेणं अद्धबावीसमाई चंदे एगे एबमाईसु २१, 'बावीसं सूरे अडतेवीसा चं ति ॥२६०॥ पुण एबमाइंसु ता बाबी जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चनेणं अद्भतेवीसमाई हे एगे एवमासु २२ 'तेवीसं सूरे| 3. रा:सू दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] ~533~ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा अचचीसमाई चंद्रे' इति एगे पुण एवमाईसु ता तेवीसं जोयणसहस्माई सूरे उहं उच्चत्ते अबचावीचमा परे। लगे एवमाइंसु २३ 'चउचीस सूरे अद्धपंचवीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु चउवीस जोयणसहस्साई सूो उहं उच्चचे अपंचवीसमाई चंदे एगे एवमासु २४, पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिसूत्रं तु साक्षादबति-'एगे पुण एवमाहंसु-ता पणवीसमित्यादि, एतानि च सूत्राणि सुगमत्वात् स्वयं भावनीयानि, तदेवमुक्ताः परमतिपतयः सम्पति | स्वमतं भगवानुपदर्शयति-'वयं पुणा एवं वदामो' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलवेदसः एवं-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण यदामखमेव प्रकारमाह-ता इमीसे' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभा-11 गादूर्थ सप्त योजनशतानि नवतानि-नवत्यधिकानि उत्प्लुत्य गत्वा अत्रान्तरे अधस्तनं ताराविमानं चारं परति-मण्डलगल्या परिभ्रमण प्रतिपद्यते, तथा अस्या एव रक्षप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्ध्वमष्टौ योजनशतान्युन लुत्यात्रान्तरे सूर्यविमानं चारं चरति, तथा अस्या एव रक्षमभायाः पृथिच्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्व परिपूर्णानि | नव योजनशतान्युत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं ताराविमानं चार चरति । अधस्तनाचाराविमानादूर्व दश योजनान्युरमु-13 त्यात्राम्तो सूर्यविमानं चार चरति, तत एवाधस्तनातू ताराविमानानवति योजनान्यूर्ध्वमुत्प्लुत्यानान्तरे चन्द्रविमानं | चार चरति, तत एव सर्वाधस्तनात् ताराविमानाद्दशोचरं योजनशतमूर्ध्वमुत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं वाराविमानं चार चरति, 'ता सूरविमाणाओं इत्यादि, ता इति पूर्ववत् सूर्यविमानादूर्वमशीति योजनान्युप्लुल्यावान्तरे चन्द्रविमानं ४ ट्राचारं परति, तस्मादेव सूर्यविमानादूय योजनशतमुत्प्लुल्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं तारारूपं ज्योतिश्चकं चार चरति, 'ता. दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] %25 JAINEDuratim intimational F OR ~534~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१८], --------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) ॥२६॥ [८९-९३] गाथा चंदविमाणाओं' इत्यादि ता इति पूर्ववत् चन्द्रविमानादूर्व विंशति योजनानि उत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं तारारूपं १८ प्राभृते ज्योतिश्चकं चार चरति, एवमेवे त्यादि एवमेव-उक्तेनैव प्रकारेण सपुत्वावरेण ति सह पूर्वेण वर्तन्ते इति सपूर्व सपूर्व च चन्द्रादेरु. तत् अपरं च सपूर्वापरं तेन पूर्वापरमीलनेनेत्यर्थः, दशोत्तरयोजनशतवाहल्येन, तथाहि-सर्वाधस्तनात्तारारूपात् ज्यो- चख तारक तिश्चक्रादूर्ध्व दशभियोजनैः सूर्यविमानं ततोऽप्यशीत्या योजनैश्चन्द्रविमानं ततो विंशत्या सर्वोपरितनं तारारूपं ज्योति-INणुता परिवारः |श्चक्रमिति भवति ज्योतिश्चक्रचारविषयस्य दशोत्तरं योजनशतं बाहल्यं, तस्मिन् दशोत्तरयोजनशतबाहल्ये, पुनः कथं-15 अबाधा अभूते इत्याह-तिर्यगसोये--असङ्घययोजनकोटीकोटीप्रमाणे ज्योतिर्विषये मनुष्यक्षेत्रविषयं ज्योतिश्चक्र चार चरति- भ्यन्तरचाचारं चरत् मनुष्यक्षेत्राहिः पुनरवस्थितमाख्यातं इति वदेत् ॥'ता अस्थि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , अस्त्ये रासू तत् भगवन् ! यदुत चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिदिपित्ति क्षेत्रापेक्षया अधस्तना अपि तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवा ८९-९३ युतिविभवलेश्यादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि-लघवोऽपि भवन्ति, हीना अपि भवन्तीत्यर्थः, केचित्तुल्या अपि भवन्ति, तथा सममपि-चन्द्रविमानैः सूर्यविमानैश्च क्षेत्रापेक्षया समश्रेण्यापि व्यवस्थितास्तारारूपाः-ताराविमानाधिष्ठातारो देवा|स्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि भवन्ति केचित्तुल्या अपि, तथा चन्द्रविमानानां सूर्यविमानानां चोपर्यपि ये व्यवस्थितास्तारारूपाः-तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवास्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिवि भवादिकमपेक्ष्य केचिदणयोऽपि भवन्ति केचित्तुल्या अपि !, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-ता अस्थिति यदे४ तत्त्वया पृष्टं तत्सर्वं तथैवास्ति, एवमुक्ते पुनः प्रश्नयति-'ता कहं ते' इत्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता जह जहें'त्यादि, दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] 18॥२६शा JANElaimstom intimatundine|| F OR ~535 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - [८९-९३] - -0- गाथा ता इति पूर्ववत् यथा यथा णमिति वाक्यालङ्कारे तेषां देवानां तारारूपविमानाधिष्ठातॄणां प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि उच्छ्रितानि-उत्कटानि भवन्ति तथा तथा तेषां देवानां तस्मिन्-तारारूपविमानाधिष्ठातृभवे एवं भवति यथा| अणुत्वं या तुल्यत्वं वा, किमुक्त भयति !-यैः प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि मन्दानि कृतानि ते तारारूपविमानाधिष्ठा-13 तृदेवभवमनुप्राप्ताश्चन्द्रसूर्येभ्यो देवेभ्यो द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य हीना भवन्ति, वैस्तु भवान्तरे तपोनियमब्रह्मचर्याणि |अत्युत्कटान्यासेवितानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातरूपदेवत्वमनुप्राप्ता युतिविभवादिकमपेक्ष्य चन्द्रसूर्देवैः सह समाना भयन्ति, न चैतदनुपपन्न, दृश्यन्ते. हि मनुष्यलोकेऽपि केचिजन्मान्तरोपचिततथाविधपुण्यप्रारभारा राजस्थमप्राप्ता अपि राज्ञा सह तुल्यातिविभवा इति, 'ता एवं खलु' इत्यादि निगमनवाक्यं सुगर्म । 'ता एगमेगस्स गमि-14 |त्यादि, महादिपरिवारविषयाणि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि सुगमानि, 'ता मंदरस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, मन्दरस्य । |पर्वतस्य जम्बूद्वीपगतस्य सकलतिर्यग्लोकमध्यवर्तिनः कियत्क्षेत्रमवाधया सर्वतः कृत्वा चार घरति !, भगवानाह-'ता। |एकारसे'त्यादि, ता इति पूर्ववत् एकादश योजनशतानि एकविंशानि-एकविंशत्यधिकानि अबाधया कृत्या चार चरति, किमुक्तं भवति ?-मेरोः सर्वत एकादश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि मुक्त्वा तदनन्तरं चक्रवालतया ज्योतिश्चकं चारं | xचरति, 'ता लोयंताओणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् लोकान्तादर्वाक णमिति वाक्याल द्वारे कियत् क्षेत्रमवाधया | कृत्वा-अपान्तरालं कृत्वा ज्योतिष प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह–'एक्कारसे'त्यादि, एकादश योजनशतान्येकादशानि-एका -2 -0- * दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] - JHNEmathrmstime ~536~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१८], --------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा सूर्यप्रज्ञ- दशाधिकानि अबाधया कृत्वा-अपान्तरालं विधाय ज्योतिषं प्रज्ञप्तं, 'ता जवुद्दीवेणं दीवे कयरे नक्खत्ते' इत्यादि सुगम १८ प्राभृते निवृत्तिः|| नवरमभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलिकामपेक्ष्य एवं मूलादीनि सर्वबाह्यादीनि वेदितव्यानि । चन्द्रादेस(मल०) ता चंदविमाणेणं किंसंठिते ६०?, ता अडकविट्ठगसंठाणसंठिते सवफालियामए अभुग्गय मूसितपहसिते मादिवाहिशामविविधमणि रपणभत्तिचित्ते जाव पडिरूवे एवं सूरविमाणे गहविमाणे णक्ख सविमाणे ताराविमाणे। तारा चंदविमाणे णं केवतियं आयामविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं केवतियं याहल्लेणं पं०?, ता छप्पणं एगहिभागे जोयणस्स आयाममिक्खंभेणं तं तिगुणं सथिसेसं परिरयेणं अट्ठावीसं एगविभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पणत्ते, तिला ता सूरबिमाणे ण केवतिय आयामविखंभेणं पुच्छा, ता अडयालीसं एगडिभागे जोयणस्स आयामविक्वं-12 सू९५ भणं तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं चञ्चीसं एगविभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पं०, ता णक्खत्तविमाणे णं केवतियं पुच्छा, ता कोर्स आयामविक्वंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं अद्धकोस याहल्लेणं पं०, ता ताराविमाणे णं केवतियं पुरुछा, ता अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं पंचधणुसयाई वाह-IA लणं पं० ॥ ता चंडिमाण णं कति देवसाहस्सीओ परिचहति?, सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंति, सं०-पुर-3 छिमेणं सीहरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीभो परिवहति, दाहिणे णं गयरूवधारी चसारि देवसाह-IT सीओ परिवहंति, पञ्चस्थिमेणं घसभरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहति, उत्तरेणं तुरगस्वधारीणं ॥२६२॥ चित्तारि देवसाहसीओ परिवहूति, एवं परविमाणपि, ना गहविमाणे णं कति देवमास्मीनो परिच-1 दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] ~537~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९४-९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] हंति ?, ता अट्ठ देवसाहस्सीओ परिवहंति, सं०-पुरच्छिमेणं सिंहरूवधारीणं देवाणं दो देवसाहस्सीओ परिवहंति, एवं जाच उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं, ता नक्खत्तविमाणेणं कति देवसाहस्सीओ परिवहति?, ता चत्तारि।। देवसाहस्सीओ परिवहति, तं०-पुरच्छिमेणं सीहरूवधारीणं देवाणं एका देवसाहस्सी परिवहति एवं जाब I उत्तरेणं तुरगरूबधारीणं देवाणं, ता ताराविमाणे णं कति देवसाहस्सीओ परिवहति ?,ता दो देवसाहस्सीओ परिवहति तं०-पुरछिमेणं सीहरूबधारीणं देवाणं पंच देवसता परिवहंति, एवं जावुत्तरेणं तुरगरूवधारीण (सूत्रं ९४) एतेसि णं चंदिमसरियगहणक्वत्ततारारूवाणं कयरेरहितो सिग्धगती वा मंदगती वा ?, ता| चंदेहितो सूरा सिग्घगती सूरेहितो गहा सिग्धगती गहेहितोणक्खत्ता सिग्घगतीणक्खत्तेहितो तारा सिग्धगती, सबप्पगती चंदा सबसिग्धगती तारा । ता एएसिणं चंद्मिसूरियगहगणणक्णत्ततारारूवाणं कपरेशहितो | अपिहिया वा महितिषाचा, तारास्तिो महिडिया णक्खत्ता णक्खत्तेहितो गहा महिहिया गहेहितो पासूरा महिहिया सूरेहितो चंदा महिहिया सबप्पड्डिया तारा सबमहिहिया चंदा (सूनं ९५) | 'ता चंदचिमाणे णमित्यादि संस्थानविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'ता अडकविद्वगे'त्यादि, उत्तानीकृतमर्द्धमात्रं कपित्थं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितमर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं, आह-यदि चन्द्रविमानमुत्तानीकृतार्द्धमा-12 कपित्थफलसंस्थानसंस्थितं तत उदयकाले अस्तमयकाले वा यदिवा तिर्यक् परिश्रमत् पौर्णमास्यां कस्मात्तदर्धकपित्थलफलोकारं नोपलभ्यन्ते, काम शिरस उपरि वर्तमानं वर्तुलमुपलभ्यते, अर्द्धकपित्थस्य उपरि दूरमवस्थापितस्य परभागाद-11 ॐॐॐॐ गाथा दीप अनुक्रम [१२१-१२६]] 1565% JANEairatomitimatun ~538~ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], ------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूल [९४-९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४-९५]] ॥२६शा दीप * सर्यप्रज्ञ-12नितो यर्नुलतया रश्यमानस्यात् , उच्यते, इहार्द्धकपित्थफलाकार चन्द्र विमानं न सामस्त्येन प्रतिपत्तव्यं किन्तु तस्य १८ प्राभते प्तिवृत्तिःचन्द्रविमानस्य पीठं, तस्य च पीठस्योपरि चन्द्रदेवस्य ज्योतिश्चक्रराजस्य प्रासादः, स च प्रासादस्तथा कथंचनापि व्यव- चन्द्रादेःसं(मल०) स्थितो यथा पीठेन सह भूयान वर्नुलाकारो भवति, स च दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते, ततो न स्थानमाया. कश्चिदोषः, न चैतत्स्वमनीपिकाया विजृम्भित, यत एतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषणवत्यामाक्षेपपुरस्सर मादिवाहिउक्तम्-"अद्धकविवागारा उदयत्वममि कह न दीसति । ससिसूराण विमाणा तिरियक्खेत्तहियाणं च ॥१॥ आoनशानच उत्ताणशकविवागार पीढं तदुवरिं च पासाओ । वहालेखेण तो समबट्ट दूरभावाओ ॥२॥" तथा सर्व-निरवशेष IN अल्पेतरग तिऋद्धी स्फटिकमयं-स्फटिकविशेषमणिमयं तथा अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृता-अयलतया सर्वासु दिक्षु । प्रसृता या प्रभा-दीप्तिस्तया सितं-शुक्लं अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितं तथा विविधा-अनेकप्रकारा भणय:-चन्द्रकान्तादयो| रत्नानि-कतनादीनि तेषां भक्कयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्रं-अनेकरूपवत् आश्चर्यबद्धा विविधमणिरत्नचित्रं यावत्शब्दात् 'वाउडुयविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जालंतररयण पंजरुम्मीलियब। मणिकणगथूभियागे वियसियसयवत्तपुंडरीयतिलयरयणडचंदचित्ते अंतो वहिं च सण्हे तबणिजबालुगापत्थडे सुहफासे | सरिसरीयरूवे पासाईए दरिसणिजे” इति, तत्र वातोद्भुता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तसंसूचिका वैजयन्त्यभिधाना: ॥२६॥ या पताका अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पावकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः पताका:ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः छत्रातिच्छत्राणि च-उपर्युपरिस्थितातपत्राणि तैः कलितं वातो तविजयवैजयन्तीपता % अनुक्रम [१२७-१२८] % % % F OR ~539~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१८], --------------------प्राभृतप्राभूत , -------------------- मूलं [९४-९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४-९५]] काछत्रातिच्छनकलितं तुई-उच्चमत एव 'गगणतलमणुलिहंतसिहरे'त्ति गगनतलं-अम्बरतलमनुलिखत्-अभिलङ्गम्यत् | शिखरं यस्य तत् गगनतलानुलिखशिखरं, तथा जालानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्तानि यत्र तत् जालान्तररलं, सूत्रे चात्र प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः, तथा पञ्जरात् उन्मीलितमिव-बहिष्कृतमिव पञ्जरोन्मीलितं, यथा हि किल किमपि वस्तु पञ्जरात्-वंशादिमयपच्छादनविशेषाद् बहिष्कृतमत्यतिमविनष्टच्छायत्वात् शोभते एवं तदपि विमानमिति भावः, तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिकाशिखरं यस्य तत् मणिकनकस्तूपिकाकै, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकाश्च |भित्त्यादिषु पुण्डाणि रत्नमयाश्चार्द्धचन्द्रा द्वाराग्रादिषु तैश्चित्रं विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकार्द्धचन्द्रचित्रं, तथा अन्तपहिश्च श्लक्ष्णं मसूणमित्यर्थः, तथा तपनीयं-सुवर्णविशेषस्तन्मय्याः बालुकायाः-सिकतायाः प्रस्तटा-प्रतरो यत्र तत्तथा, तथा सुखस्पशै शुभस्पर्श वा तथा सश्रीकाणि-सशोभानि रूपाणि-नरयुग्मादीनि यत्र तत् सश्रीकरूपं तथा प्रसादीयमनःप्रसादहेतुः अत एव दर्शनीयं-द्रष्टुं योग्य, तद्दर्शनेन तृप्तेरसम्भवात् , तथा प्रतिविशिष्ट-असाधारण रूपं यस्य । तत्तथा, 'एवं सूरविमाणेची' त्यादि, यथा चन्द्रविमानस्वरूपमुक्तमेवं सूर्यविमानं ताराविमानं च वक्तव्यं, प्रायः सर्वे पामपि ज्योतिर्विमानानामेकरूपत्वात् , तथा चोक्त समवायाङ्गे-"केवइयाणं भंते जोइसियावासा पण्णता?, गोयमा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सत्तनल्याई जोयणसयाई उखु उप्पइत्ता दसुत्तरजोयणसयवाहल्ले तिरियमसंखेजे जोइसविसए जोइसियाण देवाणं असंखेजा जोइसियविमाणावासा पन्नत्ता, ते णं जोइसिय 324 दीप अनुक्रम [१२७-१२८] Fhi waliSDHRUTH ~540~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९४-९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (मल) [९४-९५]] ॥२६॥ दीप अनुक्रम [१२७-१२८] बिमाणावासा अब्भुग्गयसमूसियपहसिया विविहमणिरयणभित्तिचित्ता तं चेव जाव पासाईया दरिसणिजा अभिरूबाप-18|१८ पाभृते लाहिरूवा' इति, 'ता चंदविमाणे ण'मित्यादीनि आयामविष्कम्भादिविषयाणि सर्वाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि सुगमानि. चन्द्रादेःसं नवरं सर्वत्रापि परिधिपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टरस परिरओ होइ" [विष्कम्भवर्गदशगुणकरणिवृत्तस्य स्थानमायापरिरयो भवति ] इति करणवशात् स्वयमेव नेतन्य, तथा यत्ताराविमानस्यायामविष्कम्भपरिमाणमुक्तमीगन्यूतमुच्चय-12 मादिवाहि नश्च सू९४ परिमाणं कोशचतुर्भागः तदुरस्कृष्टस्थितिकस्य तारादेवस्य सम्बन्धिनो विमानस्यायसेयं, यहपुनर्जपन्यस्थितिकस्य तारा-1 देवस्य सम्बन्धि विमानं तस्याऽऽयामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चधनुःशतानि उच्चत्वपरिमाणमझतृतीयानि धनुःशतानि, तथातिकदी चोक्तं तत्त्वार्थभाष्ये-'अष्टाचत्वारिंशयोजनकषष्टिभागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः चन्द्रमसः षट्पञ्चाशदू ग्रहाणामर्द्धयो- सू९६ जनं गव्यूतं नक्षत्राणां सर्वोत्कृष्टायास्ताराया अर्बकोशो जघन्यायाः पश धनुःशतानि, विष्कम्भार्द्धबाहल्याश्च भवन्ति सर्वे सूर्यादयोऽत्र लोक" इति, 'ता चंदविमाणं कद देवसाहस्सीओ परिवहति' इत्यादीन्यपि वाहन विषयाणि प्रश्न-IN निर्वचनसूत्राणि सुगमानि, नवरमियमत्र भावना-इह चन्द्रादीनां विमानानि तथाजगरस्वाभाच्यान्निरालम्बानि वहन्त्यब-18 तिष्ठन्ते, फेवलं ये आभियोगिका देवास्ते तथाविधनामकर्मोदयवशात् समानजातीयानां हीनजातीयानां वा देवानां |निजस्फातिविशेपदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमानाः प्रसादभृतः सततवहनशीलेषु विमानेषु अधः स्थित्वा २ केचित् सिंह- ॥२६॥ रूपाणि केचिद् गजरूपाणि केचित् वृषभरूपाणि केचित्तुरगरूपाणि कृत्वा तानि विमानानि वहन्ति, न चैतदनपपन्न.४ तथाहि-यह कोऽपि तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां हीनजातीयानां या पूर्व FirmwMAPINIUMORE ~541 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], ------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूल [९४-९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४-९५]] -- परिचितानामेवमहं नायकस्यास्य सुप्रसिद्धस्य सम्मत इति निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थं सर्वमपि स्वोचितं कर्म नायकसमक्ष प्रमुदितः करोति, तथाऽऽभियोगिका अपि देवास्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभाजः समानजातीयानां हीन जातीयानां वा देवानामन्येषामेवं वयं समृद्धा यत्सकललोकप्रसिद्धानां चन्द्रादीनां विमानानि वहाम इत्येवं निजस्फा-1 प्रातिविशेषप्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमाना उक्कप्रकारेण चन्द्रादिविमानानि वहन्तीति, तेषां च चन्द्रादिविमानबहनशीलानामाभियोगिकदेवानामिमे सङ्ख्यासङ्घाहिके जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्के गाथे-“सोलस देवसहस्सा बहंति चंदेसु चेव सूरेसु ।। अवेव सहस्साई एककमी गहविमाणे ॥१॥चत्तारि सहस्साई नक्वत्तमि य हवंति एकेके । दो चेय सहस्साई तारा रूबेकमेकंमि ॥२॥"ता एएसि ण'मित्यादि, शीघ्रगतिविषयं प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्रं च सुगर्भ, एतच पश्चादप्युक्त | लापरं भूयो विमानवहनप्रस्तावादुक्तमित्यदोषः, अन्यद्वा कारण बहुश्रुतेभ्योऽवगन्तव्यं । I ता जंबुद्दीवे गंदीवे तारारुवस्स य २ एस णं केवतिए अबाधाए अंतरे पण्णत्ते, दुविहे अंतरे। पं०,०-वाघातिमे य णिवाघातिमे य, तत्थ णं जे से वाघातिमे से णं जहपणेणं दोणि थापट्टे जोय[ सले उकोसेणं पारस जोयणसहस्साई दोषिण बाताले जोयणसते तारारुवस्स २ य अबाधाए अंतरे पण्णत्ते, तत्य जे से निवाघातिमे से जहाणेणं पंच धणुसताई उकोसेणं अद्धजोपणं तारारुवस्स य २ अबाधाए अंतरे 14० (सूत्रं ९६) ता चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरपणो कति अग्गमहिसीओ पण्णताओ , ता चत्तारित ४ अग्गामहिमीभो पण्णसाओ, तं-चंदप्पभा दोसिणाभा अचिमालीपभंकरा, तत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि दीप अनुक्रम [१२७-१२८] 550- - R ~542 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप सूर्यप्रज्ञ-18/ देवीसाहस्सी परियारो पण्णत्तो, पभू णं तातो एगमेगा देवी अण्णाई चत्तारि २ देवीसहस्साई परिवारं१८ प्राभूते तिवृत्तिः विउवित्तए ?, एवामेव सपुवावरेणं सोलस देवीसहस्सा, सेत्तं तुडिए, ता पभू णं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया-तारान्तरं (मल) चंदवसिए विमाणे सभाए सुधम्माए तुडिएणं सद्धिं दिवाई भोगभोमाई भुंजमाणे विहरित्तए?, णो इणचन्द्रादिद समटे, ता कहं ते णो पभू जोतिर्सिदे जोतिसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुधम्माए तुडिएणं सद्धिं ॥२६५|| ९६-९७ दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ?, ता चंदस्स गं जोतिसिंदस्स जोतिसरपणो चंदवाडसए विमाणे| सभाए सुधम्माए माणवएस चेतियखंभेसु बहरामएसु गोलबहसमुग्गएसु पहवे जिणसकपा संणिक्खित्ता चिट्ठति, ताओ णं चंदस्स जोतिसिंदस्स जोइसरपणो अपणसिं च यहणं जोतिसियाणं देवाण य देवीण य अचणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूपणिज्जाओ सकारणिवाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पजवासणिज्जाओ एवं खलु णो पभू चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवसिए विमाणे सभाए सुहम्माए तुहिएणं सहिं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए । पभू णं चंदे जोतिसिंदे जोतिसरापा चंदवडिसए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहि अग्गमहिसीहि सपरिवाराही |तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवतीहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अपणेहि ॥२६५॥ य बहहिं जोतिसिएहि देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे महताहतणहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुर-2 गपडुप्पवाइतरवेणं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए केवलं परियारणिडीए णो चेव णं मेहुणवत्तियाए। अनुक्रम [१२९-१३२] +CONTAC JAINEdiminimalsina FridaIMAPIVARANORN ~543~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] - -- ता सूरस्स णं जोइसिंदस्स जोतिसरणो कति अग्गमहिसीओ पं०, ता चत्तारि अग्गमहिसीओ पं. तं०-सूरपभा आतवा अचिमाला पभंकरा, सेसं जहा चंदस्स, णवरं सूरवडेसए विमाणे जाव णो चेव णं | मेहुणवत्तियताए (सूत्रं ९७ ) जोतिसिपार्ण देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णता ?, जहणेणं अहभागप-IN |लितोवर्म उकोसेणं पलितोषमं वाससतसहस्समन्भहियं, ता जोतिसिणीणं देवीणं केवतियं कालं ठिती 14०१, ता जहनेणं अट्ठभागपलितोवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवर्म पन्नासाए वाससहस्सेहिं अम्भहियं, चंद-11 विमाणे णं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता?, जहन्नेणं चउम्भागपलितोवर्म उक्कोसेणं पलितोवमं वाससयसहस्समम्भहिप, ता चंदविमाणे णं देवीणं केवतियं कालं ठिती पं०१, जहपणेणं चउम्भागपलितोवर्म उकोसेणं अद्धपलितोवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अम्भहियं, सूरविमाणे णं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता, जहणेणं चउम्भागपलितोवर्म उकोसेणं पलिओवमं वाससहस्समभहियं, ता सूरविमाणे गं देवाणं केवतियं कालं ठिती पं०?, जहण्णेणं चउभागपलितोवर्म उक्कोसेणं अद्धपलितोवर्म पंचर्हि वासस-181 एहि अम्भहिप, ता गहविमाणे णं देवाणं केवतियं कालं ठिती पं०१, जहणणं चउम्भागपलितोवमं उक्कोसेणं भापलितोवर्म, ता गहषिमाणे णं देवीण केवतियं कालं ठिती पं०१, जहण्णेणं चउम्भागपलितोयमं पकोसेणं अपलितोवर्म, ताणखत्तबिमाणे ण देवाणं केवतियं कालं ठिती पं०१, जहणेणं च उभागपलितोवम81 उकोसेणं अदपलिओवर्म, ताणक्वत्तविमाणे णं देवाणं केवइयं कालं ठिती पं०१, जहणेणं अट्ठभागपलि-1 45* दीप अनुक्रम [१२९-१३२] -- - * F OR ~544~ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप अनुक्रम [१२९-१३२] तोवमं पकोसेणं चउम्भागपलितोवर्म, ता ताराविमाणे णं देवाणं पुच्छा, जहणेणं अवभागपलितोयम Merभने मितिःउकोसणं चउम्भागपलियोचम, ता ताराविमाणे णं देवीणं पुच्छा, ता जहण्णेणं अट्ठभागपलितोवम उकोसेणं ज्योतिष्क(मल.) साइरेगावभागपलिओचम (सूत्रं ९८) ता एएसि णं चंदिमसूरियगहणक्षत्सतारारूवाणं कतरे २ हितो स्थितिः अ अप्पा या पहुया वा तुल्ला चा विसेसाहिया चा?, ता चंदा य सूरा य एसे णं दोवि तुल्ला सबस्थोवा णक्खसाल्पबहुत्वं ॥२६॥ संखिजगुणा गहा संखिजगुणा तारा संखिजगुणा ॥ (सूत्रं ९९) अट्ठारसं पाहुढं समत्तं ॥ ४९८-९९ 'ता जंबुरी णं भंते ! दीवे' इत्यादि ताराविमानान्तरविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'ता दुविहे'इत्यादि। वाद्विविधमन्तरं प्रज्ञप्त, तयधा-व्यापातिम निळपातिमंच, तन्न ब्याहननं व्याघात:-पर्वतादिस्खलनं तेन निवृत्त व्याधातिम भावादिम' इति इमप्रत्ययः, नियापातिम-व्यापातिमानिर्गतं स्वाभाविकमित्यर्थः, तत्र यत् व्यापातिमं । तत् जपन्यतो वे योजनशते पटूषयधिके, एतच्च निषधकूटादिकमपेक्ष्य वेदितव्य, तथाहि-निषधपर्वतः स्वभावतोऽगायश्चत्वारि योजनशतानि तस्य चोपरि पञ्च योजनशतोच्चानि कूटानि, तानि च मूडे पञ्चयोजनशतान्यायामविष्क-1 Xम्माभ्यां मध्ये त्रीणि योजनशतानि पश्चसधत्यधिकानि उपरि अर्द्धतृतीये दे योजनशते, तेषां चोपरितनभागसमणि| प्रदेश तथाजगत्स्वाभाच्यादष्टावष्टौ योजनान्युभयतोऽवाधया कृत्वा ताराविमानानि परिभ्रमन्ति, ततो जघन्यतो व्यापातिममन्तर वे योजनशते षषष्ट्यधिके भवतः, उत्कर्षतो द्वादश योजनसहनाणि द्वे योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके, २६॥ एतब मेरुमपेक्ष्य द्रष्टव्य, तथाहि-मेरी दश योजनसहस्राणि मेरोश्चोभयतोऽवाधया एकादश योजनशतान्येकविंशत्य-18 marwaTNEDHNOrg ~545~ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] B.SCk दीप अनुक्रम [१२९-१३२] धिकानि, ततः सर्वसङ्ग्यामीलने भवन्ति द्वादश योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके । निर्व्यापाति-18 मान्तरविषयं सूत्र सुगर्म । 'ता चंदस्स ण'मित्यादि अग्रमहिषीविषयं सूत्रं सुगम, नवरमेकैकस्या देव्याश्चत्वारि देवीसहमात्राणि परिवार इति किमुकं भवति ?-एकैका अग्रमहिषी चतुर्णा चतुर्णा चन्द्रसत्कदेवीसहस्राणां पट्टराज्ञी, एकैका च सा इत्थंभूता अग्रमहिषी परिचारणावसरे तथाविधां ज्योतिकराजचन्द्रदेवेच्छामुपलभ्य प्रभुरन्यानि आत्मसमानरूपाणि चत्वारि चत्वारि देवीसहस्राणि विकुवितुं, इह सिद्धान्तप्रसिद्धो विकुर्व इति धातुरस्ति, यस्य विकुर्वणा इति प्रयोगः, ततो विकुर्वितुमित्युक्त, एवमेवेति एवमेव-उत्कप्रकारेणैव 'सपुवावरेणीति सह पूर्वेणेति सपूर्व सपूर्व च अपरं च सपूर्वापर तेन सपूर्वापरेण-पूर्वापरमीलनेन स्वाभाविकानि पोडश देवीसहस्राणि चन्द्रदेवस्य भवन्ति, तथाहि-चतम्रोऽयमहिष्यः | &ा एकैका चात्मना सह चतुचतुर्देवीसहस्रपरिवारा ततः सर्वसङ्कलनेन भवंति षोडश देवीसहस्राणि 'सेतं तुहिए' इति तदेतावत् चन्द्रदेवस्थ तुटिक-अन्तःपुरं, उक्तं च जीवाभिगमचूर्णी-"तुटिकमन्तःपुरमिति" 'पभू णं चंदे'इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-'नो इणढे समढ़ेनायमर्थः समर्थः-उपपन्नो, न युकोऽयम इति भावः, यथा चन्द्रावतसके विमाने या सुधर्मा सभा तस्यामन्तःपुरेण सार्द्ध दिन्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो बिहरतीति, 'ता कहं ते नो पार इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-ता चंदस्स णमित्यादि, चन्द्रावतंसके विमाने सुधर्मायां सभायां माणवको नाम चैत्यस्तम्भोऽस्ति, तस्मिंश्च माणवके स्तम्भे ये यज्रमयेषु सिककेषु वज्रमया गोलाकारा वृत्ताः समुद्गकास्तेषु बहूनि जिन-18 सक्थीनि निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, 'ताओ णमित्यादि, तानि जिनसक्थीनि, इह सूत्रे स्त्रीत्यनिर्देशः प्राकृतत्वात् , चन्द्रस्य F OR ~546~ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप अनुक्रम [१२९-१३२] सूर्यप्रज्ञ- ज्योतिपेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्यान्येषां च बहूनां ज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च अर्थनीयानि पुष्पादिभिर्वन्दनीयानि-12१८प्राभूते प्तिवृत्तिः 12 स्तोतव्यानि विशिष्टः स्तोत्रैः पूजनीयानि वस्त्रादिभिः सत्कारणीयानि आदरपतिपत्त्या सन्माननीयानि जिनोचितप्रति. योतिष्का (मल०) पत्या कल्याण-कल्याणहेतुर्मशाल-दुरितोपशमहेतुर्दैवर्त-परमदेवता चैत्यं-इष्टदेवताप्रतिमा इत्येवं पर्युपासनीयानिन्तिपुरसाद ॥२६७॥ तत एवं-अनेन कारणेन खलु-निश्चितं न प्रभुरित्यादि सुगम, 'ता पभू णं चंदे'इत्यादि, केवलं परिचारणा -परिचा || रणसमृझ्या, एते सर्वेऽपि मम परिचारका अहं खेतेषां स्वामीत्येवं निजस्फातिविशेषदर्शनाभिप्रायेणेति भावः, प्रभुश्चन्द्रो।। ज्योतिषेन्द्रो ज्योतिषराजश्चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्राभिधानसिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्त्रैश्चतस-1 भिरनमहिषीभिः सपरिवाराभिस्तिमृभिरभ्यन्तरमध्यमबाह्यरूपाभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोड-13 शभिरात्मरक्षकदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिज्योतिष्कदेवदेवीभिश्च साई सम्परिवृतो महता येणेति योगः, 'आहय'त्ति: आख्यानकप्रतिबद्धानीति वृद्धाः अथवा अहतानि-अव्याहतानि नाट्यगीतवादित्राणि तथा तन्त्री-वीणा तलताला-13 हस्ततालाः त्रुटितानि-शेषतूर्याणि तधा पनो-घनाकारो ध्वनिसाधात् यो मृदङ्गो-मर्दलः पटुना-दक्षपुरुषेण प्रवा|दितस्तत एतेषां पदानां द्वन्द्वस्तेषां यो वस्तेन दिव्यान-दिवि भवान् अतिप्रधानानित्यर्धः भोगार्हा ये भोगा:-शब्दा-15 दयस्तान भुञ्जानो विहन्तुं प्रभुरिति योगः, न पुनमैथुनप्रत्ययं-मैथुननिमित्तं स्पर्शादिभोगं भुजानो विहर्त प्रभुरिति, 'एवं | ॥२६॥ ता सूरस्स ण'मित्यादीन्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि, 'ता जोइसियाण देवाण'मित्यादि, सर्व सुगम यावत् | प्राभूतपरिसमाप्तिः, नवरं चन्द्रविमाने चन्द्रदेव उत्पद्यते तत्सामानिकात्मरक्षकादयश्च, तत्रात्मरक्षकादीनां यथोक्ता जघ-18 JHNEmathrmstimatta ~547~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१८], --------------------प्राभृतप्राभूत , -------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप अनुक्रम [१२९-१३२] 40-5-ACCORSC+C4%AK न्या स्थितिरुत्कृष्टा तु चन्द्रदेवस्य तत्सामानिकादीनां च, एवं सूर्यविमानादिष्वपि भावनीयम् ॥ ... ...४ १. 112 इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां अष्टादशम-प्राभृतं समाप्तं तदेवमुक्तमष्टादशं प्राभृतं, सम्पति एकोनविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा 'कति चन्द्रसूर्याः | सर्वलोके आख्याता' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कति णं चंदिमसूरिया सबलोयं ओभासंति उज्जोएंति तति पभाति आहितेति बदेजा , तत्व माखलु इमाओ दुवालस पडिवत्तीओ पण्णताओ, तत्धेगे एवमाहंसु ता एगे चंदे एगे सूरे सबलोयं ओभा सति उल्लोएति तवेति पभासति, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु ता तिणि चंदा तिपिण सूरा सबलोयं ओभासेंति ४ एगे एवंमाहंसु २, एगे पुण एवमाहंसु ता आउहि चंदा आउहि सूरा सबलोयं ओ-IMI भासंति उजोति तवेति पगासिति एगे एवमाहंसु ३ एगे पुण एवमाहंसु एतेणं अभिलावेणं णेतई | सत्त चंदा सत्र सूरा दस चंदा दस सूरा बारस चंदा २ वातालीसं चंदा २ वायत्तरि चंदा २ यातालीसं चंदसतं २ बावत्तरं चंदसयं यावत्तरि सूरसपं बायालीसं चंदसहस्सं बातालीसं सूरसहस्सं यावत्तरं चन्दसहस्सं वायत्तरं सूरसहस्सं सबलोयं ओभासंति उज्जोति तति पगासंति, एगे एवमाहंसु, वर्ष पुण एवं बदामो-ता अयपणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, ता जंबुद्दीवे २ केवतिया चंदा पभासिंसु वा पभासिति || F OR अत्र अष्टादशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ एकोनविंशति प्राभृतं आरभ्यते ~548~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत --------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- निवृत्तिः (मल०) [१००] ॥२६८॥ गाथा: IPL या पभासिस्संति वा?, केवतिया सूरा तर्विसु वा तवेंति वा तविस्संति वा?, केवतिया णक्वत्ता जो जोइंसु१९प्राभूते वा जोएंति वा जोइस्संति वा? केवतिया गहा चारं चरिसुवा चरंति वा चरिस्संति वा? केवतिया तारागणको- चन्द्रसूर्योडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वारी, ता जंबुद्दीवे २ दो चंदा पभासेंसु वा ४ दो सूरियादिपरिमाण तबइंसु वा ३, छप्पपर्ण पक्खता जोपं जोएंसु वा ३ यावत्तरि गहसतं चार चरिंसु पा ३ एर्ग सपसहस्संगर १०. तेसीसं च सहस्सा णव सपा पपणासा तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभैसु वा ३ । “दो चंदा दो|| सूरा पक्वत्ता खलु हवंति छप्पण्णा । यावत्तरं गहसतं जंबुद्दीवे विचारीणं ॥१॥ एगं च सयसहस्सं|| तित्तीसं खलु भये सहस्साई। णव य सता पण्णासा तारागण कोडिकोडीणं ॥२॥” ता जंबुद्दीवं गं दीव लवणे नामं समुद्दे वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते सवतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति, ता लवणे णं समुद्दे किं समचकवालसंठिते विसमयकवालसंठिते ?, ता लवणसमुद्दे समचकवालसंठिते नो विसमचकवालसंठित, ता लवणसमुरे केवइयं चकवालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा , ता दो जोषणसतस-121 हस्साई चकचालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसतसहस्साई एक्कासीयं च सहस्साई सतं च ऊतालं किंचिबिसेसूर्ण परिक्नेयेणं आहितेति वदेजा, ता लवणसमु केवतियं चंदा पभासेंसु वा ३, एवं पुच्छा जाव केव ४ ॥२६८॥ तियाउ तारागणकोडिकोडीओ सोभिंसु वा ३१, ता लवणे णं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासेंसु वा ३ चत्तारि सरिया तवइंसु वा ३ पारस णक्खत्तसतं जोयं जोएंसु वा ३ तिपिण थावण्णा महग्गहसता चारं चरिंसु दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] JHNEmathemista ~549 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] FACACA गाथा: वा ३ दो सतसहस्सा सत्तढि च सहस्सा णव प सता तारागणकोडीणं सोभिंसु वा ३ । पण्णरस सतसहस्सा एकासीतं सतं च ऊतालं । किंचिविसेसेणूणो लवणोदधिणो परिक्खेवो ॥ १ ॥ चत्तारि चेव चंदा |चत्तारिप सूरिया लवणतोये । वारस णक्खत्तसपं गहाण तिपणेव यावपणा ॥१॥ दोचेच सतसहस्सा सत्तहिं| खलु भवे सहस्साई । णव प सता लवणजले तारागणकोडिकोडीणं ॥२॥ ता लवणसमुदं धातईसंडे णाम दीवे घट्टे वलयाकारसंठिते तहेव जाय णो विसमचउकबालसंठिते, धातईसंडे णं दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं केवतिय परिक्खेवेणं आहितेति वदेवा, ता चत्तारि जोधणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं| लाईतालीस जोपणसतसहस्साई दस य सहस्साई णव य एकटे जोपणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं आहि-| तेति वदेजा, धातईसंडे दीवे केवतिया चंदा पभासु वा ३ पुच्छा तहेव धातईसंडे गं दीवे वारस चंदा पभासेंसु वा ३ पारस सूरिया तवेंसु वा ३ तिष्णि छत्तीसा णक्वत्तसता जोअंजोएंसु वा ३ एगं छप्पणं महग्गह-2 सहस्सं चारं चरिंसु वा३-'अद्वेव सतसहस्सा तिणि सहस्साई सत्तय सयाई । (एगससीपरिवारो) तारागणकोडिकोडीओसोभं सोभसुधा३-धातईसंडपरिरओ ईताल दसुत्तरा सतसहस्सा। णव ध सता एगट्ठा किंचिविसेसेण परिहीणा ॥१॥ चवीसं ससिरविणो णक्खत्तसता य तिषिण छत्तीसा । एगं च गहसहस्सं छप्पणं धातईसंडे ॥ २॥ अद्वैव सतसहस्सा तिणि सहस्साई सत्त य सताई। धायइसंडे दीये तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥ ता धायईसडं पं दीवं कालोपणे णामं समुद्दे घट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते जाव णो विसमचकवाल दीप A -% अनुक्रम [१३३ -१९६] FitneralMAPINAHINORN ~550~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत --------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूर्यमज्ञ- संठाणसंठिते, ता कालोयणे णं समुई केवतियं चक्कवालविखंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितेति ११९प्राभूते तिवृत्तिःवदेजा, ता कालोयणे समुदे अट्ट जोयणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं पन्नत्ते एक्काणउर्ति जोपणसयसह-सचन्द्रसूर्या(मल० स्साई सत्तरि च सहस्साई छच्च पंचुत्तरे जोयणसते किंचिविसेसाधिए परिक्वेवेणं आहितेति बदेजा, तादिपरिमाण भासू १०० कालोयणे णं समुद्दे केवतिया चंदा पभासेंसु वा ३ पुच्छा, ता कालोयणे समुदे पातालीसं चंदा पभासेंस वा ३ बायालीसं सूरिया लवेसु वा ३ एक्कारस बावत्तरा णक्खत्तसता जोयं जोइंसु वा ३, तिनि सहस्सा छच उन्नउया महगहसया चारं चरिंसु वा ३ अट्ठावीसं च सहस्साई यारस सयसहस्साई नच य सपा पण्णासा तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा सोहंति वा सोभिस्संति वा "एक्काणउई सतराई। सहस्साई परिरतो तस्स । अहियाई मंच पंचुत्तराई कालोदधिवरस्स ॥१॥ बातालीसं चंदा बातालीसं|| च दिणकरा दित्ता । कालोदधिमि एते चरंति संबद्धलेसागा ॥२॥णक्खत्तसहस्सं एगमेव छावत्तरं च सतमणं । छच्च सया छपणउया महग्गहा तिपिण य सहस्सा ॥३॥ अट्ठावीसं कालोदर्हिमि बारस य सहस्साई । णव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं ॥ ४॥" ता कालोयं णं समुई पुक्खरवरे णाम दीवे चट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते सबतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति, ता पुक्खरचरे णं दीये किं समचक-ICIAREER वालसंठिए विसमथकवालसंठिए, ता समचक्कचालसंठिए नो विसमचकवालसंठिए, ता पुकखरवरे पण दीवे केवइयं समचकचालविक्खंभेणं ?, केवइ परिकखेवेणं , ता सोलस जोयणसयसहस्साई दीप अनुक्रम [१३३-१९६] JaiMEDuratimintimes F OR ~551~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: चकवालविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी याणउतिं च सतसहस्साई अउणावन्नं च सहस्साई अह-IAL चउणउते जोअणसते परिक्खेवेणं आहितेति बढेजा, ता पुक्खरवरे णं दीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा ३ | पुच्छा तधेव ता चोतालचंदसदं पभासेंसु वा ३ चोत्सालं सूरियाणं सतं तवइंसु वा ३ चत्तारि सहस्साई पत्तीसं |च नक्खत्ता जो जोएंसु पाश्चारस सहस्साई उच्च पावत्तरा महम्गहसता चारं चरिंसु वा ३ उपणउतिसप-10 सहस्साई चोयालीसं सहस्साइं चत्तारि य सयाई तारागणकोडिकोडीणं सोमं सोभेसु वा ३ 'कोडी वाण-18 उती खलु अउणाणउतिं भवे सहस्साई । अट्टसता चउपाउता य परिरओ पोक्खरवरस्स ॥१॥ चोत्तालं दसतं चत्ताल व सरिपाण सतं । पोक्वरवर दीवम्मिच चरति एते पभासंता ॥२॥चत्तारि सहस्साई छत्तीस चेव हति णक्वता । छच्च सता बावत्तर महग्गहा बारह सहस्सा ॥ ३॥ छपणउति सयसहस्सा चोत्तालीसं||| खलु भवे सहस्साई । चत्तारि य सता खलु तारागणकोडिकोडीणं ॥ ४ ॥ ता पुक्खरवरस्स ण दीवस्स बहमझदेसभाए माणुसुत्तरे णाम पवए वलयाकारसंठाणसंठिते जेणं पुक्स्वरवरं दीयं दुधा विभयमाणे २ चिट्ठति, तंजहा-अम्भितरपुक्खरद्धं च बाहिरपुक्खरद्धं च, ता अभितरपुक्खरद्धे णं किं समचक्बालसंठिए। विसमचकवालसंठिए, ता समचकवालसंठिए थो पिसमचकवालसंटिते, ता. अम्भितरपुक्खरद्धे गं केवतियं चकवालविक्खंभेणं केवतिय परिक्खेवेणं आहितेति षदेजा, ता अट्ठ जोयणसतसहस्साई चक-120 वालविखंभेणं एका जोपणकोही बापालीसं च सयसहस्साई तीसं च सहस्साई दो अउणापण्णे जोयणसते || दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] JAINEDuratim intimati Fhi ~552~ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत --------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रशप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्राप्ति" मूल एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूर्यप्रज्ञ-18 परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा, ता अम्भितरपुक्खरखू णं केवतिया चंदा पभासेंसु बा ३ केवतिया सूरा १९ प्राभूते विवृत्तिः सर्विसु वा ३ पुच्छा, बावत्तरि चंदा पभासिंसु वा ३ यावत्सरि सूरिया तबइंसु वा ३ दोणि सोला णक्खत्त- चन्द्रसूर्या(मल०) सहस्सा जोभं जोएंसु चा३८ महग्गहसहस्सा तिन्नि य पसीसा चार चरेसु वाअडतालीससतसहस्साबायीसंदिपरिमाण ॥२७॥ |च सहस्सा दोपिण य सता तारागण कोडिकोडीणं सोभं सोभिंसु वा ३।ता समयक्खेत्ते णं केवतिष आयाम-181 विकखंभेण केवइयं परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा,ता पणतालीसंजोयणसतसहस्साई आयामविक्खंभेणं एका जोयणकोडी यायालीसं च सतसहस्साई। दोषिण य अउणापपणे जोयणसते परिक्खेवेणं आहितेति षदेजा, ता2 समयक्खेते णं केवतिया चंदा पभासेंसुवापुच्छा तधेच, ता बत्तीसं चंदसतं पभासु वाश्यत्तीसं सूरियाण: &सतं तवइंसु वा ३ तिषिण सहस्सा उच छपणउता णक्खत्तसता जोयं जोएंसु वा ३ एकारस सहस्सा छच सोलस महग्गहसता चारं चरिंसु वा ३ अट्ठासीति सतसहस्साई चत्तालीसं च सहस्सा सत्त य सया तारागणकोडीकोडीणं सोभं सोभिंसु वा ३ । अद्वेव सतसहस्सा अम्भितरपुक्खरस्स विक्खंभो। पणतालसयसहस्सा माणुसखेतस्स विक्खंभो ॥१॥ कोडी यातालीसं सहस्स दुसया य अउणपण्णासा | माणुसखे-13 तपरिरओ एमेव य पुक्खरद्धस्स ॥२॥ यावत्तरिंच चंदा बावत्तरिमेव दिण्णकरा दित्ता। पुक्खरवरदीवहे M२७०॥ चरंति एते पभासेंता ॥ ३॥ तिषिण सता छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु । णक्वत्ताणं तु भवे सोलाई लाचे सहस्साई ॥ ४ ॥ अडपालसयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई। दो त सय पुक्खरहे तारागणकोटि दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] FP ~553~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभूत [१९], --...............---- प्राभूतप्राभूत --------------------- मलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: कोडीणं ॥ ५॥ यत्तीसं चंदसतं यत्तीसं चेव सूरियाण सतं । सयलं माणुसलोअंचरंति एते पभासेंता ॥६॥ एकारस य सहस्सा छप्पिय सोला महग्गहाणं तु । छच्च सता छण्णउया णक्खता लिणि य सहस्सा ॥७॥ अट्टासीइ चत्ताई सतसहस्साई मणुषलोगमि । सत्त य सता अणूणा तारागणकोडिकोडीणं ॥ ८॥ एसो तारापिंडो सबसमासेण मणुयलोयंमि । यहिता पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेजाओ ॥९॥ एवतियं तारगंज भणियं माणुसंमि लोगमि । चारं कलंबुयापुप्फसंठितं जोतिसं चरति ॥ १० ॥ रविससिगहणक्खत्ता एवतिया आहिता मणुयलोए । जेसिं णामागोत्तं न पागता पण्णवेहंति ।। ११ ।। छावढि पिढगाई। चंदादिचाण मणुलोमि । दो चंदा दो सूरा य हंति एकेको पिडए ॥ १२ ॥ छाढि पिडगाई णवत्ताण ती मणुयलोयंमि । छप्पण्णं णक्खता हुंति एकेकए पिडए ॥१३॥ छावढि पिडगाई महागहाणं तु मणुघलोमि ।। गवत्तरं गहसतं होइ एककए पिडए ॥ १४ ॥ चत्तारि य पंतीओ चंदाइचाण मणुयलोयम्मि । छावलुि २ च। Xोर एकिकिया पन्ती ॥ १५ ॥ छप्पन पतीओ णखत्ताणं तु मणुषलोमि । छावढेि २ हवंति एक्ककिया प्रपती॥ १६ ॥ छावत्तरं गहाणं पंतिसयं हवति मणुयलोमि । छावहि २ हवइ य एकेकिया पंती ॥१७॥ ते मेरुयणुचरंता पदाहिणावत्तमंडला सवे । अणववियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य ॥ १८॥णक्खत्ततार-12 गाणं अवहिता मंडला मुणेयचा । तेऽविय पदाहिणावत्तमेव मेरु अणुचरंति ॥ १९ ॥ रयणिकरदिणकराणं Pउद्धं च अहे व संकमो नस्थि । मंडलसंकमणं पुण सम्भतरवाहिरं तिरिए ॥ २० ॥ रमणिकरदिणकराणं णक्ख-17 दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] FirmwalMAPINEUMORE ~554~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूचमन- ताणं महग्गहाणं च । चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविधी मणुस्साणं ॥ २१॥ तेसिं पविसंताणं तावक्खेतं तु१९प्राभृते तिवृत्तिः लावते णिययं । तेणेव कमेण पुणो परिहायति निक्खमंताणं ॥ २२ ॥ तेर्सि कलंबुयापुष्फसंठिता हुंति ताव- (मल.) चन्द्रसूर्योखेसपहा । अंतो य संकुडा बाहि वित्थडा चंदमूराणं ॥२३॥ दिपरिमाण 11 'ता का णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति-प्रिमाणा णमिति वाक्यालकारे चन्द्रसर्याः सर्वलोकेऽवभासन्ते-अब- सू.१०० भासमाना उद्योतयन्तः तापयन्तः-प्रकाशयन्तः प्रभासयन्त आख्याता इति वदेत् !, एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावत्यः | प्रतिपचयः तावतीरुपदर्शयति-तस्धे'त्यादि, तत्र-सर्वलोकविषय चन्द्रसूर्यास्तित्वविपये खखिमाः-वक्ष्यमाणवरूपा ठाद्वादश प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपा प्रज्ञप्ताः, तत्र-तेषां द्वादशानां परतीथिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एव-11 माहुः, ता इति-तेषां परतीथिकानां प्रथम स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, एकश्चन्द्रः एकः सूर्यः || सर्वलोकमवभासयति, अवभासयन उद्योतयन तापयन् प्रभासयन् आख्यात इति वदेत् , अत्रयोपसंहारमाह-एगे । एवमाईसु' १, एके पुनरेवमाहुः-नयश्चन्द्राः त्रयः सूर्याः सर्वलोकमवभासयन्तः आख्याता इति वदेत् , उपसंहारवाक्य 'एगे एवमासु' २, एके पुनरेवमाहुरर्बचतुर्थाश्चन्द्रा अर्द्धचतुर्थाः सूर्याः सर्वलोकमवभासयन्त आख्याता इति वदेत् | |अत्राप्युपसंहारः 'एगे एवमाईसु' ३, एव'मित्यादि एवं-उक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन तृतीयप्राभूतपाभृतोक्तप्रकारेण द्वादशप्रतिपत्तिविषय सकलमपि सूत्र नेतव्यं, तच्चैवम्-'सत्त 'चंदा सत्त सूरा' इति, एगे पुण एषमासु ॥२७॥ &ता सत्त चंदा सत्त सूरा सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति वएजा, एगे एवमाइंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु-ता दस चंदा दीप अनुक्रम [१३३ 22-25 495 -१९६] JAINEDuratim intimation FitraMAPINAHINORN ~555~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] १८ गाथा: ट्रा दस सूरा सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु ५, एगे पुण एवमाहंसु ता चारस चंदा वारस सूरा र सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति बएजा, एगे एबमासु ६, एगे पुग एवमासु ता बायालीसं चंदा बायालीस सूरा। सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति वएजा एगे एवमासु ७, एगे पुण एवमासु-वावत्तरि चंदा यावत्तरि सूरा सप-12 लोयं ओभासंति ४ आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु ८, एगे पुण एवमाहंसु-बायालीसं चंदसयं यायालीस सूरसयं सबलोयं ओभासें ति ४ आहियत्ति थएजा, एगे एवमासु ९, एगे पुण एवमासु ता बावतरं चंदसयं पायत्तरं सूरसयं सबलोयं भोभासेंति ४ आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमासु १०, एगे पुण एवमासु ता बायालीस नंदसहस्सं वायालीस सूरसहस्सं | सबलोयं ओभासेन्ति ४ आहियत्ति वएना एगे एवमासु ११, एगे पुण एबमासु ता बावत्तरं चंदसहस्सं वायत्तरं | सूरसहस्सं सबलोयं ओभासेंति ४ आहियत्ति यएज्जा, एगे एवमासु १२, एताश्च सर्वा अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः | तथा च भगवान् स्वमतमताभ्यः पृथग्भूतमाह-वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवल ज्ञाना एवं यक्ष्यमाणप्रकारेण बदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता अयपण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीयं ब्याख्यानीयं च, 'ता जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रभासितवन्तौ प्रभासेते प्रभासिष्येते द्रव्यास्तिकनयमतेन सकलकालमेवंविधाया एवं जगत्स्थितेः सद्भावात् , तथा द्वौ स्यों तापितवन्तौ तापयतस्तापयिष्यतः, तथा एकैकस्यश शशिनोऽष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिवारो जम्बूद्वीपे च द्वौ शशिनौ ततः षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि जम्यूद्वीपे चन्द्रसूर्याभ्यां सह योग युक्तवन्ति युद्धन्ति योश्यन्ति वा, तथा एकैकस्य शशिनोऽष्टाशीतिग्रहाः परिवारः ततः शशिद्वयसत्कग्रहमीलने | दीप -96496-947 अनुक्रम [१३३ -१९६] JAINEDuratim intimalsina F OR ~556~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: प्रज्ञ- सर्वसङ्ख्यया पट्सप्तत्यधिक प्रहशतं भवति, तत् जम्बूद्वीपे चारं चरितवत् चरति चरिष्यति च, तथा एकैकस्य शशि- प्रा. सिंवृत्तिःनस्तारापरिवारः कोटीकोटीनां षट्पष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि जम्बूद्वीपे घ द्वौ शशिनौ तत है, चन्द्रसूर्यान (मल)लएतत्ताराप्रमाणं द्वाभ्यां गुण्यते, तत एक शतसहस्रं त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पञ्चाशदधिकानि तारागण-दिपरिमाण कोटिकोटीनां भवन्ति, एतावत्प्रमाणास्तारा जम्बूद्वीपे शोभितवत्यः शोभन्ते शोभिष्यन्ते । सम्प्रति विनेयजनानुग्रहाय | मासू१०० ॥२७२॥ यथोक्तजम्बूद्वीपगतचन्द्रादिसयासङ्घाहिके द्वे गार्थ आह-'दो चंदा इत्यादि, एते च द्वे अपि सुगमे, नवरं 'जंबुद्दीवे | वियारी ण' तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, ततो वियारीति विभक्तिपरिणामेन चन्द्रादिभिः सह सामानाधिकरण्येन योजभनीयमिति । 'ता जंबुद्दीवेण मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपं द्वीपं णमितिवाक्यालङ्कारे लवणो नाम समुद्रो वृत्तो | वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वैतः समन्तात्-सर्वासु दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः संपरिक्षिप्य-वेष्टयित्या तिष्ठति, एवं उक्त भगवान गौतमः प्रश्नयति-'ता लवणे णं समुद्दे इत्यादि सुगम, भगवानाह-'ता समचकवाले'त्यादि सुगम, पुनः प्रश्नयति-ता लवणे ण'मित्यादि सुगर्म, भगवानाह-'ता दो जोयणे'त्यादि, द्वे योजनशतसहने चक्रवालविष्कम्भेन | पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशदधिक किचिद्विदोषोनं परिक्षेपेण, तथाहि-लय-13 ॥२७॥ |णसमुद्र एकतोऽपि दे योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भोऽपरतोऽपि द्वे योजनशतसहस्र मध्ये च जम्बूद्वीपो। योजनशतसहस्रमिति सर्वसम्मीलने पञ्च लक्षा भवन्ति ५००००० एतेषां धर्गे जाताः पञ्चविंशतिर्दश च शून्यानि | २५०००००००००० दशभिर्गुणने जातान्येकादश शून्यानि २५००००००००००० एतस्य राशेवर्गमूलानयने लब्धानि 21 दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] JANEairatam intimanav ~557~ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: पञ्चदश लक्षाणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकमष्टात्रिंशदधिकं १५८११३८, दोषमुद्धरति पपिंशतिर्लक्षाश्चतुर्विंशतिः &सहस्राणि नव शतानि षट्पञ्चाशदधिकानि छेदराशिरेकत्रिंशल्लक्षा द्वापष्टिः सहस्राणि द्वे शते षट्सप्तत्यधिक ३१२१२७ एत दपेक्षया योजनमेक किशिदून लभ्यते, तत उक्त-"सयं च ऊयालं किंचिविसेसूण'मिति, 'ता लवणे णं समुद्दे इत्यादि सुगम, लवणसमुद्रे चत्वारः शशिन इत्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि चतुर्भिर्गुण्यन्ते, ततो द्वादशोत्तरं नक्षत्राणां शत तत्र भवति, अष्टाशीतिश्च ग्रहाश्चतुभिर्गुण्यन्ते ततखीणि शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि तेषां भवन्ति, ताराकोटीकोटीनां | पट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते ततो यथोक्त ताराप्रमाणं भवति, 'ता लवणं थे। समुद्द'मित्यादि सकलमपि सुगम, नवरं परिधिगणितपरिभावना एवं कर्तव्या-जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भे योजनलक्षं लवण18|स्योभयतो देदे योजनलक्षे मिलिते इति ताश्चतम्रो लक्षाः धातकीखण्डस्योभयतश्चतम्रो २ लक्षा मिलिता अष्टौ IN सर्वसङ्ख्या जाताखयोदश लक्षाणि १३००००० ततोऽस्य राशेर्वगों जात एकका पट्टो नवकः शून्यानि च दश 1१६९०००००००००० भूयो दशभिर्गुणने जातान्येकादश शून्यानि १६९००००००००००० एतेषां वर्गमूलानयने | लब्धानि एकचत्वारिंशच्छतसहस्राणि दश सहस्राणि नव शतानि एकपश्यधिकानि ४११०९६१ नक्षत्रादिपरिमाणमप्यपाटाविंशत्यादिसयानि नक्षत्रादीनि द्वादशभिर्गुणयित्वा स्वयमानेतव्यं । 'ता धापइखंडपण'मित्यादि, एतदपि सकलं | | सुगम, 'ता कालोए णं समुद्देइत्यादि, एतदपि सुगम, नवरं परिक्षेपगणितभावना इयं-कालोदसमुद्रस्य एकतोऽपि चक्रबालतया विष्कम्भोऽष्टौ योजनलक्षा अपरतोऽपीति पोडश धातकीखण्डस्य एकतोऽपि चतम्रो लक्षा अपरतोऽपी-1 दीप अनुक्रम [१३३ PORN -१९६] FhiraIMAPIVARAuNORN ~558~ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], --------------------प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूल [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूर्यमज- त्यष्टौ लवणसमुद्रस्य एकतोऽपि द्वे लक्षे अपरतोऽपीति चतनः एका लक्षा जम्बूद्वीपस्येति सर्वसङ्ख्यया एकोनत्रिंशल्लक्षाः १९ प्राभूते तिवृत्तिः २९००००० एतेषां वो विधीयते जातोऽष्टकश्चतुष्क एककः शून्यानि दश ८४१०००००००००० ततो दशभिर्गुणने चन्द्रसूर्या(मल०) जातान्येकादश शून्यानि ८४१००००००००००० तेषां वर्गमूलानयने लब्धं यथोक्तं परिधिपरिमाणं ९१७०६०५, शेष दिपरिमाण ॥२७॥ | Pात्रिको नवकस्त्रिकस्त्रिको नवकः सप्तकः पञ्चकः ३९२३९७५ इति यदा त्रिको नवकस्त्रिकखिको नवकः सप्तकः पञ्चकः ३९३३९७५ इति यदवतिष्ठते तदपेक्षया विशेषाधिकत्वमुक्तं, 'एकाण- सू १०० उई सपराई सयसहस्साईति एकनवतिः शतसहस्राणि सप्ततानि-सप्ततिसहस्राधिकानि, नक्षत्रादिपरिमाणं च अष्टा-ली विंशत्यादिसङ्ख्यानि नक्षत्रादीनि द्वाचत्वारिंशता गुणयित्वा भावनीय, 'ता कालोयं णं समुई पुक्खरवरेण मित्यादि । सुगम, गणितभावना त्वियं-पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वतः पोडश लक्षा अपरतोऽपीति द्वात्रिंशत् लक्षाः कालोदधेः पूर्वतोऽटो ४ अपरतोऽप्यष्टाविति षोडश धातकीखण्डत्य एकतोऽपि चतनो लक्षा अपरतोऽपि चतन इत्यष्टौ लवणसमुद्रे एकतोऽपि द्वेलक्षे अपरतोऽपि द्वे इति चतस्रो जम्बूद्वीपो लक्षमिति सर्वसङ्कलनया जाता एकपष्टिलक्षाः ६१००००० एतस्य राशेर्वा 18 विधीयते जातखिकः सप्तको द्विक एकका दश च शून्यानि ३७२१०००००००००० ता दशभिर्गुणने जातानि शून्यान्ये-12 कादश ३७२१००००००००००० एतेषां वर्गमूलानयने लब्धं यथोक परिधिपरिमाणं, नक्षत्रादिपरिमाणं चाष्टाविंशत्यादिसयानि नक्षत्रादीनि चतुश्चत्वारिंशेन शतेन गुणयित्वा स्वयं परिभावनीयं । 'ता पुक्खरवरस्स ण'मित्यादि, ता. इति पूर्ववत् , पुष्करवरस्य द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मानुषोत्तरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, स च वृत्तो, वृत्तं च मध्यपूर्णमपि || ॥२७३॥ भवति यथा कौमुदीक्षणे शशांकमण्डलं ततस्तद्रूपताब्यवच्छेदार्थमाह-वलयाकारसंस्थानसंस्थितो यः पुष्करवरद्वीपं द्विधा | दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] F OR ~559~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभूत [१९], --...............---- प्राभूतप्राभूत --------------------- मलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च विभजमानो विभजमान स्तिष्ठति, केनोले खेन द्विधा विभजमानस्तिष्ठति अत आह-तद्यथा-अभ्य-| &ान्तरपुष्कराई च बाह्यपुष्कराई च, पशब्दः समुच्चये, किमुक्तं भवति ।-मानुपोत्तरात्पर्वतादाक् यत् पुस्कराई तदभ्यशान्तरपुष्कराई यत्पुनस्तस्मान्मानुषोत्तरात्पर्वतात्परतः पुष्करार्द्ध तद्बाह्यपुष्कराद्धमिति, 'ता अभितरपुक्खरद्धे जग मित्यादि सर्थमपि सुगर्भ, नवरं परिधिगणितभावना प्राग्वत्कर्चच्या, नक्षत्रादिपरिमाणं चाष्टाविंशत्यादिसपानि नक्षत्रा-18 दीनि द्वासप्तत्या गुणयित्वा परिभावनीयं ॥ सम्मति मनुष्यक्षेत्रवक्तव्यतामाह-'ता माणुसखेत्ते णं केवइय'मित्यादि। सुगर्म, नवरं मानुषक्षेत्रस्यायामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चचत्वारिंशल्लक्षा एवं एका लक्षा जम्बूद्वीपे ततो लवणसमुद्रे एकतोऽपि ढे लक्षे अपरतोऽपि द्वे लक्षे इति चतस्रः धातकीखण्डे एकतोऽपि चतम्रो लक्षा अपरतोऽपीत्यष्टौ कालोदसमुद्रे एकतोऽपि अष्टावपरतोऽप्यष्टाविति पोडश अभ्यन्तरपुष्कराःऽप्येकतोऽप्यष्टी लक्षा अपरतोऽपीति पोडशेति सर्वसमया पञ्चचत्वारिंशतक्षाः, परिधिगणितपरिभावना तु 'विक्खम्भवम्गदगुणे त्यादिकरणवशात् स्वयं कर्तव्या, नक्षत्रादिपपरिमाणं तु अष्टाविंशत्यादिसपानि नक्षत्रादीन्येकशशिपरिवारभूतानि द्वात्रिंशेन शतेन गुणयित्वा स्वयमानेतम्यं, 'अद्वैव 5 सयसहस्सा इत्यादि, अन्न गाधापूर्वार्द्धनाभ्यन्तरपुष्करार्द्धस्य विष्कम्भपरिमाणमुकं, उत्तरार्द्धन मानुपक्षेत्रस्य । 'कोटी त्यादि, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशत्-द्विचत्वारिंशच्छतसहस्राधिका त्रिंशत् सहस्राणि द्वे शते एकोनपञ्चाशदधिके । ४२४२३०२४९ एतावत्यमाणो मानुपक्षेत्रस्य परिरयः, एष एतावत्प्रमाण एव पुटकरा स्थ-अभ्यन्तरपुष्करार्द्ध स्थापि परि-15 रयः, 'बावतरं च चंदा' इत्यादिगाथात्रयमभ्यन्तरपुष्करार्द्धगतचन्द्रादिसङ्ग्याप्रतिपादकं सुगर्म, यदपि च 'यत्तीसं चंद दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] JHNEDEathmIntimalsina Fith ~560~ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत --------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूर्यप्रज्ञ- सयमित्यादि गाथात्रयं सकलमनुष्यलोकगतचन्द्रादिसङ्ख्याप्रतिपादकं तदपि सुगम, 'अट्टासीई चत्ता'इति अष्टाशीतिः १९ प्राभूते निवृत्तिः शतसहस्राणि चत्वारिंशानि-चत्वारिंशत्सहस्राधिकानि शेषं गताध, सम्प्रति सकलमनुष्यलोकगततारागणस्यैवोपसंहा- चन्द्रसूर्या(मल०) रमाह-एसो'इत्यादि, एषः-अनन्तरगाथोक्तसङ्ग्याकस्तारापिण्डः सर्वसषया मनुष्यलोके आख्यात इति गम्यते, बहिः दिपरिमाणं पुनर्मनुष्यलोकात् यास्तारास्ता जिनैः-सर्वज्ञेस्तीर्घकृद्भिर्भणिता असङ्ख्याताः, द्वीपसमुद्राणामसङ्ग्यातत्वात् , प्रतिद्वीपंसू १०० ॥२७॥ प्रतिसमुद्रं च यथायोगे सोयानामसङ्ख्येयानां च ताराणां सद्भावात् , 'एचइय'मित्यादि, एतावत्सयाकं तारापरिमाणं | यदनन्तरं भणित भानुषे लोके तत् ज्योतिष्क-ज्योतिष्कदेवविमानरूपं 'कदम्बपुष्पसंस्थित'कदम्बपुष्पवत् अधः सङ्क-11 चितं उपरि विस्तीर्णमुत्तानीकृतार्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितमित्यर्थः चार चरति चारं प्रतिपद्यते, तथाजगत्स्वाभाव्यात् । ताराग्रहणं चोपलक्षणं तेन सूर्यादयोऽपि यथोक्तसङ्ख्याका मनुष्यलोके तथाजगत्स्वाभाब्याञ्चार प्रतिपद्यन्ते इति द्रष्टव्यं ।। सम्प्रत्येतद्गतमेवोपसंहारमाह-रवी'त्यादि, रविशशिग्रहनक्षत्राणि उपलक्षणमेतत् तारकाणि च एतावन्ति-एतावत्स-ग यानि आण्यातानि सर्वहर्मनुष्यलोके, येषां किमित्याह-येषां सूर्यादीनां यथोक्तसङ्ख्याकानां सकलमनुष्यलोकभाविनां I ट्र प्रत्येकं 'नामगोत्राणि'इहान्यर्थयुक्तं नाम सिद्धान्तपरिभाषया नामगोत्रमित्युच्यते, ततोऽयमर्थः-नामगोत्राणि-अन्वर्थ युक्तानि नामानि यदिवा नामानि च गोत्राणि च नामगोत्राणि प्राकृता-अनतिशायिनः पुरुषा न कदाचनापि प्रज्ञाप-18 विष्यन्ति, केवलं यदा तदा वा सर्वज्ञा एव, तत इदमपि सूर्यादिसङ्ख्यानं प्राकृतपुरुषाप्रमेयं सर्वज्ञोपदिष्टमिति सम्यक् | ट्र श्रद्धेयमिति । 'छावट्ठी पिडगाई'इत्यादि, इह द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूयौं चैकं पिटकमुच्यते, इत्यम्भूतानि च चन्द्रादित्यानां दीप अनुक्रम [१३३ X ॥२७॥ -१९६] Skse FP ~561~ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक %ER40- [१००] गाथा: पिटकानि सर्वसङ्ख्यया मनुष्यलोके भवन्ति षट्षष्टिः-षट्पष्टिसङ्ख्याकानि । अथ किंप्रमाणे पिटकमिति पिटकप्रमाणमाह-एकैकस्मिन्नपि पिटके द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यों भवतः, किमुक्तं भवति ?-द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यावित्येतावत्प्रमाणमेकैक । चन्द्रादित्यानां पिटकमिति, एवंप्रमाणं च पिटकै जम्बूद्वी, एकं जम्बूद्वीपे द्वयोरेव चन्द्रमसोईयोरेव च सूर्ययोर्भावात् , द्वे पिटके लवणसमुढे तन्त्र चतुर्णा चन्द्रमसां चतुर्णा च सूर्याणां भावात् , एवं षट् पिटकानि धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराबें इति भवन्ति सर्वमीलने चन्द्रादित्यानां षट्पष्टिः पिटकानि । 'छावट्ठी'त्यादि, सर्व-IA स्मिन्नपि मनुष्यलोके सर्वसङ्कपया नक्षत्राणां पिटकानि भवन्ति षट्पष्टिः, नक्षत्रपिटकप्रमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिनक्षत्र-12 सङ्ख्यापरिमाण, तथा चाह-एकैकस्मिन् पिटके नक्षत्राणि भवन्ति षट्पश्चाशत्सवानि, किमुक्तं भवति ?-पट्पवाशनक्षत्र-13 सब्याकमेकैक नक्षत्रपिटक, अत्रापि पट्टषष्टिसयाभावना एवं-एक नक्षत्रपिटकं जम्बूद्वीपे द्वे लवणसमुद्रे षट् धातकी-1 खण्डे एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराद्धे इति । 'छावट्ठी'त्यादि, महाग्रहाणामपि सर्वस्मिन् मनुष्यलोके सर्व-12 ट्रासापया पिटकानि भवन्ति पटूपष्टिः, महपिटकप्रमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिग्रहसङ्ख्यापरिमाण, तथा चाह-एककस्मिन् | ग्रहपिटके भवति षट्सप्तत्यधिक ग्रहशत, सप्तत्यधिकग्रहशतपरिमाणमेकै ग्रहपिटकमिति भावः, षट्षष्टिसङ्ख्या भावना च प्राग्वत्कर्तव्या। चत्तारि य' इत्यादि, इह मनुष्यलोके चन्द्रादित्यानां पतयश्चतस्रो भवन्ति, तद्यथा-वे पती चन्द्राणां वे सूर्याणां, एकैका च पति पति षट्षष्टिः-षट्षष्टिसूर्यादिसल्या, तद्भावना चै-एकः किल सूर्यो जम्बूद्वीपे मेरौ दक्षिणभागे चारं परन् वर्तते एक उत्तरभागे एकश्चन्द्रमा मेरोः पूर्वभागे एकोऽपरभागे, तत्र यो मेरोदक्षिणभागे सूर्यश्चारं | दीप अनुक्रम [१३३ 440-425-035 - -१९६] Fhi maratTEDTUNorg ~562 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूर्यमज्ञ-चिरन् वर्तते तत्समश्रेणिव्यवस्थितौ द्वौ दक्षिणभागे सूयौँ लबणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशत् १९प्राभूते तिवृत्तिः अभ्यन्तरपुष्करा इत्यस्यां सूर्यपटी पक्षष्टिः सूर्याः, योऽपि च मेरोरुत्तरभागे व्यवस्थितः सूर्यश्चारं चरन् वर्तते अस्यापि चन्द्रसूर्यो(मलासमश्रेण्या व्यवस्थितौ द्वावुत्तरभागे सूर्यों लवणसमुद्रे धातकोखण्डे षट् एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराद्धे दिपरिमाण १२ इ त्यस्यामपि पङ्को सर्वसङ्ख्यया पट्पष्टिः सूर्याः, तथा यो मेरोः किल पूर्वभागे चारं चरन् यतते चन्द्रमा तत्समश्रेणिज्य- सू१०० ४ वस्थिती द्वौ पूर्वभाग एवं चन्द्रमसौ लवणसमुद्रे पट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्करा. इत्यस्यां चन्द्रपको सर्वसङ्ख्यया पट्षष्टिश्चन्द्रमसः, एवं यो मेरोरपरभागे चन्द्रमास्तन्मूलायामपि पती षट्षष्टिश्चन्द्रमसो वेदितव्या: 'छावट्ठी' इत्यादि, नक्षत्राणां मनुष्यलोके सर्वसङ्ख्यया पतयो भवन्ति षट्पञ्चाशत् , एकैका च पतिर्भवति पट्पष्टिः-IN पट्षष्टिनक्षत्रप्रमाणा इत्यर्थः, तथाहि-अस्मिन् किल जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य शशिनः परिधारभूतानि अभि-13 जिदादीन्यष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि चारं चरन्ति उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूतानि| अष्टाविंशतिसङ्ख्याकान्यभिजिदादीन्येव नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि, तत्र दक्षिणतोऽर्द्धभागे यदभिजिन्नक्षत्रं तत्स|मश्रेणिव्यवस्थिते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराः इति | सर्वसङ्ख्या पक्षष्टिरभिजिन्नक्षत्राणि पङ्क्त्या व्यवस्थितानि, एवं श्रवणादीन्यपि दक्षिणतोऽर्द्धभागे पड्कत्या व्यवस्थितानि | ॥२७॥ पट्पष्टिसङ्ख्याकानि भावनीयानि, उत्तरतोऽप्यर्द्धभागे यदभिजिन्नक्षत्रं तत्समश्रेणिव्यवस्थिते उत्तरभागे एव द्वे अभिजि-11 अन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशत् पुष्कराः, एवं श्रवणादिपङ्क्तयोऽपि प्रत्येक षट् दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] CA ~563~ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: पष्टिसङ्ख्याका वेदितच्या इति भवन्ति सर्वसङ्ख्यया षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणां पतयः, एकैका च पङ्गिः षट्षष्टिसवेति । छावट्ठी'त्यादि, ग्रहाणामकारकप्रभृतीनां सर्वसङ्ख्यया मनुष्यलोके षट्सप्तत्यधिकं पशितं एकैका च पद्धिर्भवति पट-13 पष्टिः-पटूपष्टिग्रहसया, अचापीय भावना-इह जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽद्धेभागे एकस्य शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृत्योऽष्टाशीतिर्ग्रहाः, उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृतय एवाटाशीतिः, तत्र दक्षिण-2 तोऽर्द्धभागे योऽझारकनामा ग्रहस्तत्समश्रेणिव्यवस्थितौ दक्षिणभागे एवं द्वावारकी लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्करा इति पट्पष्टिः एवं शेषा अपि सप्ताशीतिर्महाः पङ्क्त्या व्यवस्थिताः प्रत्येक पक्षष्टिर्वेदितव्या, एवमुत्तरतोऽप्यर्द्धभागे अनारकप्रभृतीनामष्टाशीतेहाणां पतयः प्रत्येकं पट्पष्टिसङ्ख्याका भावनीया । Pइति भयति सर्वसङ्ग्लया ग्रहाणां पट्सप्ततं पतिशतमेकैका च पतिः षट्षष्टिसमा केति । 'ते मेरुमणुचरंती'त्यादि, ते-13 मनुष्यलोकवर्तिनः सर्वे चन्द्राः सर्वे सूर्याः सर्वे च ग्रहगणा अनवस्थितैः-यथायोगमन्पैरन्यै क्षत्रेण सह योगेरुपलक्षिताः जापयाहिणावचमंडला' इति प्रकर्षण-सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एव मेरुर्भवति यस्मिन्नाव | तने-मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणा प्रदक्षिण आवों येषां मण्डलानां तानि तथा प्रदक्षिणावतानि मण्डलानि येषां |ते तथा, मेरुमनुलक्षीकृत्य चरन्ति, एतेनैतदुक्तं भवति-सूर्यादयः समस्ता अपि मनुष्यलोकवर्तिनः प्रदक्षिणावर्त्तमण्डल-13 गत्या परिभ्रमन्तीति, इह चन्द्रादित्यग्रहाणां मण्डलानि अनवस्थितानि, यथायोगमन्यस्मिन् अन्यस्मिन् मण्डले नेपा। सञ्चारित्वात् , नक्षत्रताराणां तु मण्डलान्यवस्थितान्येव, तथा चाह-निक्खत्ते त्यादि, नक्षत्राणां तारकाणां च मण्डला-13 दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] ~564~ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] -TAS - गाथा: सूर्यप्रज्ञ- यवस्थितानि ज्ञातव्यानि, किमुक्तं भवति ?-आकालं प्रतिनियतमेकैकं नक्षत्राणां तारकाणां च प्रत्येक मण्डलमिति, न १९ प्राभृते प्तिवृत्तिःचत्यमवस्थितमण्डलत्योक्तावेवमाशङ्कनीयं यथतेषां गतिरेव न भवतीति, यत आह-'तेऽविय'इत्यादि, तान्यपि-नक्ष- चन्द्रसूर्यो(मल०) वाणि तारकाणि च, सूत्र पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्रदक्षिणावर्तमेव, इदै क्रियाविशेषणं, मेरुमनुलक्षीकृत्य चरन्ति, एतच दपरिमार्ण मेरे लक्षीकृत्य प्रदक्षिणावर्त तेषां चरणं प्रत्यक्षत एवोपलक्ष्यत इति संवादि । 'रपणिपरे' त्यादि, रजनिकरदिनकराणा-सार ॥२७६॥ चन्द्रादित्यानामूवमधश्च सङ्कामो न भवति, तथाजगत्स्वाभाच्यात् , तिर्यक् पुनर्मण्डलेषु सङ्गमणं भवति, किंविशिष्टमित्याहसाभ्यन्तरवाय-अभ्यन्तरं च बाह्य च अभ्यन्तरवाद्यं सहाभ्यन्तरवाह्येन वर्तते इति साभ्यन्तरबाज़, एतदुक्तं भवति-17 सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः तावन्मण्डलेषु सङ्क्रमणं यावत् सर्वबाह्य मण्डलं सर्ववाह्याच मण्डलार्वाक् तावन्मण्डलेषु सङ्क मणं यावत् सर्वाभ्यन्तरमिति। 'रपणियरे'त्यादि, रजनिकरदिनकराणां--चन्द्रादित्यानां नक्षत्राणां च महाग्रहाणां च चार-1 | विशेषेण-सेन तेन चारेण सुखदुःखविधयो मनुष्याणां भवन्ति, तथाहि-द्विविधानि सन्ति सदा मनुष्याणां कम्मोणि, | तद्यथा-शुभवेद्यानि अशुभवेद्यानि च, कर्मणां च सामान्यतो विपाकहेतयः पत्र, तद्यथा-द्रव्यं क्षेत्र कालो भावो भवश्व, उक्तं च-"उदयक्खयक्खओवसमोवसमा जं च कन्मुणो भणिया। दवं च खेतं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥ १॥" |शुभकर्मणां प्रायः शुभवेद्यानां च कर्मणां शुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री विपाकहेतुरशुभवेद्यानामशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री, सतो यदा येषां जन्मनक्षत्रादिविरोधी चन्द्रसूर्यादीनां चारो भवति तदा तेषां प्रायो यान्यशुभवेद्यानि कर्माणि तानि तां तथाविधा विपाकसामनीमवाप्य विपाकमायान्ति, विपाकमागतानि च शरीररोगोत्पादनेन धनहानिकरणतो वा दीप --** अनुक्रम [१३३ -१९६] FhiralMAPIMIREUMORE ~565~ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभूत [१९], ----...............-- प्राभूतप्राभूत -1,-------------------- मलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत रूद्र सूत्रांक [१००] गाथा: समियविप्रयोगजननेन वा कलहसंपादनतो वा दुःखमुत्पादयन्ति, यदा च येषां जन्मनक्षत्राद्यनुकूलः चन्द्रादीनां चारस्तदा। तषां प्रायो यानि शुभवेद्यानि कर्माणि तानि तां तधाविधां विपाकसामग्रीमधिगम्य विपार्क प्रतिपद्यन्ते, प्रपन्नविषाकानि च | तानि शरीरनीरोगतासम्पादनतो धनवृद्धिकरणेन वा वैरोपशमनतः प्रियसम्प्रयोगसम्पादनतो वा यदिवा प्रारब्धाभीष्टप्रयो जननिष्पत्तिकरणतः सुखमुपजनयन्ति, अत एव महीयांसः परमविवेकिनोऽल्पमपि प्रयोजनं शुभतिथिनक्षत्रादावारभन्ते | दीन तु यथाकथंचन, अत एव जिनानामप्याज्ञा पत्राजनादिकमधिकृत्येत्थमवर्सिष्ट यथा शुभक्षेत्रे शुभां दिशमभिमुखी-| IMI कृत्य शुभे तिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादौ प्रजाजनवतारोपणादि कर्तव्यं, नान्यथा, तथा चोकं पञ्चवस्तुके-"एसा जिणाणPमाणा खित्ताईया य कम्मुणो भणिया । उदयाइकारणं जं तम्हा सवस्थ जइयचं ॥ १॥" अस्या अक्षरगमनिका-15 एषा जिनानामाज्ञा शुभे क्षेत्रे शुभां दिशमभिमुखीकृत्य शुभे तिथिनक्षत्रमुहूर्तादौ प्रजाजनबतारोपणादि कर्तव्य, नान्य-18 था, अपिच-क्षेत्रादयोऽपि कर्मणामुदयादिकारणं भगवद्भिक्ताः , ततोऽशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री प्राप्य कदाचिदशुभMवेद्यानि कम्माणि विपाकं गत्योदयमासादयेयुः, तदुदये च गृहीतव्रतभङ्गादिदोषप्रसङ्गः, शुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्यां तु प्रायो नाशुभकर्मविपाकसम्भव इति निर्विघ्नं सामायिकपरिपालनादि, तस्मादवश्यं छद्मस्थेन सर्वत्र शुभक्षेत्रादौ यतितव्यं ।। ये तु भगवन्तोऽतिशयिनस्ते अतिशयवलादेव सविघ्नं निर्विघ्नं वा सम्यगधिगच्छन्ति ते न शुभतिथिमुह दिकमपेक्षन्ते | इति न तन्मार्गानुसरणं छद्मस्थानां न्याय्यं, तेन थे परममुनिपर्युपासितप्रवचनविडम्बका अपरिमलितजिनशासनोपनिपद्भूतशाखा गुरुपरम्परायातनिरवद्यविशदकालोचितसामाचारीप्रतिपन्धिनः स्वमतिकल्पितसामाचारीका अभिदधति दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] JAINEDuratim intimatsim FhiralMAPIMIREUMORE ~566~ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः (मल.) [१००] ॥२७७॥ गाथा: यथा-न प्रजाजनादिषु शुभतिथिनक्षत्रादिनिरीक्षणं कर्त्तव्यं, न खलु भगवान् जगत्स्वामी प्रजाजनायोपस्थितेषु शुभ- १९ प्राभूत तिथ्यादिनिरीक्षणं कृतवानिति ते अपास्ता द्रष्टव्याः । 'तेसिमित्यादि, तेषां-सूर्यचन्द्रमसां सर्ववाह्यात् मण्डलादभ्यन्तरं चन्द्रसूर्याप्रविशतां तापक्षेत्र प्रतिदिवस क्रमेण नियमादायामतो वर्द्धते, येन च क्रमेण परिवर्द्धते तेनैव क्रमेण सर्वाभ्यतरान्म-दिपरिमाणं ण्डलाद् बहिः निष्क्रमतां परिहीयते, तथाहि-सर्ववाह्ये मण्डले चारं घरता सूर्याचन्द्रमसां प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवा- सू १०० लस्य दशधापविभक्तस्य द्वौ द्वी भागी तापक्षेत्रं, ततः सूर्यस्याभ्यन्तरं प्रविशतः प्रतिमण्डलं पष्ठयधिकषत्रिंशच्छतप्रधिभक्तस्य द्वौ द्वौ भागो तापक्षेत्रस्य वर्द्धते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येकं पौर्णमासीसम्भवे क्रमेण प्रतिमण्डलं पविंशतिः पड्विंशतिभांगाः सप्तविंशतितमस्य च एकः सप्तभाग इति बर्द्धते, एवं च क्रमेण प्रतिमण्डलमभिवृद्धौ यदा सर्वाभ्यन्तरे ।। मण्डले चारं चरतः तदा प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य त्रयः परिपूर्णा दशभागास्तापक्षेत्र, ततः पुनरपि सर्वाभ्यन्तरामण्डलाबहिनिष्क्रमणे सूर्यस्य प्रतिमण्डलं पश्यधिकषत्रिंशच्छतप्रविभक्तस्य जम्बूद्वीपचक्रवालस्य द्वौ द्वौ भागौ परिहीयेते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येक पौर्णमासीसम्भवे क्रमेण प्रतिमण्डलं षविंशतिर्भागाः सप्तविंशतितमस्य च भाग-2 स्य एकः सप्तभाग इति । 'तेसिमित्यादि, तेषां चन्द्रसूर्यादीनां तापक्षेत्रपथाः कलम्बुकापुष्पसंस्थिताजालिकापुष्पाकारा भवन्ति, एतदेय ब्याचष्टे-अन्ता-मेहदिशि सङ्कुचिता, बहिः-लवणदिशि विस्तृता, एतच्च प्रागेव चतुर्थे प्राभूते भावित-11 मिति न भूयो भाव्यते ।। सम्प्रति चन्द्रमसमधिकृत्य गौतमः प्रश्नयति ४॥२७७॥ केणं बद्दति चंदो ? परिहाणी केण हुंति चंदस्स ? । कालो वा जोहो पा केणऽणुभावेण चंदस्स १ ॥ २४ ॥11 दीप KAR अनुक्रम [१३३ -१९६] ~567~ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] - गाथा: - किण्हं राहुविमाणं णिचं चंदेण होइ अधिरहितं । चतुरंगुलमसंपत्तं हिचा चंदस्स तं चरति ॥ २५ ॥ पावहिर २ दिवसे २ तु सुकपक्खस्स । जं परिवहति चंदो खवेइ तं चेव कालेणं ॥ २६ ॥ पण्णरसहभागेण य चंद। |पण्णरसमेव तं वरति । पण्णरसतिभागेण य पुणोवि तं चेव वक्कमति ॥ २७॥ एवं वहति चंदो परिहाणी दाएव होइ चंदस्स । कालो वा जुल्हो वा एवऽणुभावेण चंदस्स ॥ २८ ॥ अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारो-18 वगा तु उपवण्णा । पंचविहा जोतिसिया चंदा सूरा गहगणा य॥२९॥ तेण परंजे सेसा चंदादिचगहतारण-18 लक्खत्ता । णस्थि गती णवि चारो अवविता ते मुणेयथा ॥ ३० ॥ एवं जंबुद्दीये दुगुणा लवणे चगुणा इंति। लावणगा य तिगुणिता ससिसूरा धायइसंडे ॥ ३१ ॥ दो चंदा इह दीचे चत्तारि य सायरे लवणतोए। धायइसंडे दीवे बारस चंदा य सूरा य ॥ ३२ ॥ धातइसंडप्पभितिसु उद्दिट्टा तिगुणिता भवे चंदा । आदिमल्लचंदसहिता अर्णतराणंतरे खेले ।। ३३ ॥ रिक्खग्गहतारग्गं दीवसमुद्दे जहिच्छसी गाउं । तस्ससीहि तग्गुणितं रिक्खग्गहतारगग्गं तु ॥ ३४॥ वहिता तु माणुसनगरस चंदसूराणऽयद्विता जोण्हा। चंदा अभीपी-18 जुत्ता सूरा पुण हुंति पुस्सेहिं ॥ ३५ ॥ चंदातो सूरस्स य सूरा चंदस्स अंतरं होइ । पण्णाससहस्साई तु जोयणाणं अणूणाई ॥ ३३ ॥ सूरस्स य २ ससिणो २ य अंतरं होइ । बाहिं तु माणुसनगस्स जोयणाणं सत सहस्सं ॥ ३७॥ सरंतरिया चंदा चंदतरिया य दिषयरा दित्ता। चित्तरलेसागा सहलेसा मंदलेसा या IN॥ ३८ ॥ अट्टासीतिं च गहा अट्ठावीसं च हुंति नक्खत्ता । एगससीपरिवारो एत्तो ताराण योच्छामि ॥ ३९॥ दीप अनुक्रम [१३३ *%%%265 -१९६] ~568~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत --------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूर्यप्रज्ञ- छावहिसहस्साई णव चेव सताई पंचसतराई । एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥ ४० ॥ अंतो १९माइते प्तिवृत्तिः मणुस्सवेत्ते जे चंदिमसूरिया गहगणणक्वत्ततारारूवा ते णं देवा. किं उड्डोववगा कप्पोववण्णगा (मल०) विमाणोववण्णगा चारोववष्णगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा , ता ते ण देवा णो उड्डोवव पणगा नो कप्पोचवण्णगा विमाणोचवण्णगा चारोववण्मगा नो चारठितीया गइरइया गतिसमावण्णगा बापाला ॥२७॥ उढामुहकलंयुअपुष्फसंटाणसंठितेहिं जोअणसाहस्सिएहि तावक्खेत्तेहिं साहस्सिएहिं बाहिराहि य वेउधि सू १०० याहिं परिसाहिं महताहतणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवाइयरवेणं महता उफडिसीहणाद-| कलकलरवेणं अच्छं पचतरायं पदाहिणावत्तमंडलचारं मेरे अणुपरियति, ता तेसि णं देवाणं जाधे इंदे| चयति से कथमिदाणिं पकरेंति !, ता चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं उपसंपजित्ताणं विहरति जाव अण्णे इत्थ इंदे उबवणे भवति, ता इंदठाणे णं केवइएणं कालेणं विरहियं पन्नत्तं ?, ता जहणेण इथं समय उकोसेणं छम्मासे, ता पहिता णं माणुस्सखेत्तस्स जे चंदिममूरियगह जाव तारारूवा ते णं देवा किं उहो| ववष्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोचवण्णागा चारद्वितीया गतिरतीया गतिसमावण्णगा?, ता ते ण देवा णो उहोचवण्णगा नो कप्पोववरणगा विमाणोषवषणगा णो चारोववण्णगा चारठितीया नो गइरहया णो गतिसमावण्णगा पकिटगसंठाणसंठितहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावश्खेत्तेहिं सयसाहस्सियाहिं चाहि २७८|| राहिं वेउवियाहिं परिसाहि महताहतनहगीयवाइयजावरवेणं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति, दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] JAMEairatominaumati ~569~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: ४ सुहलेसा मंदलेसा मंदायवलेसा चित्तंतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं कूडा व ठाणठिता ते| &ापदेसे सबतो समंता ओभासंति उज्जोति तवेंति पभासेंति, ता तेसि णं देवाणं जाहे इंदे चपति से कह-1 मिदाणि पकरेंति , ता जाव चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं तहेव जाव छम्मासे (सूत्रं १००)॥ | केणमित्यादि, केन कारणेन शुक्लपक्षे चन्द्रो बर्द्धते !, केन वा कारणेन चन्द्रस्य कृष्णपक्षे परिहानिर्भवति, केन, वा अनुभावेन-प्रभावेन चन्द्रस्य एका पक्षः कृष्णो भवति एको ज्योत्स्न:-शुक्ल इति !, एवमुक्त भगवानाह-'किपह'मित्यादि, इह द्विविधो राहुस्सयथा-पराहुः नित्यराहुश्च, तत्र पर्वराहुः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात्समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं च अन्तरितं करोति, अन्तरिते च कृते लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः स इह न गृह्यते, यस्तु नित्यराहुस्तस्य विमानं कृष्णं, तच्च तथाजगत्स्वाभाव्यात् चन्द्रेण सह नित्य-सर्वकालमविरहितं तथा चतुरङ्गलेन-चतुर्भिरङ्ग|लेरमाप्तं सत् चन्द्रविमानस्याधस्ताचरति, तश्चैवं चरत् शुक्लपक्षे शनैः शनैः प्रकटीकरोति चन्द्रमसं कृष्णपक्षे च शनैः। शनैरावृणोति, तथा चाह-बावहिमित्यादि, इह द्वापष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्य द्वी भागायुपरितनावपाकृत्य [४] शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे हते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते द्वापष्टिशब्देनोच्यन्ते, 'अवयवे समुदायोपचारात्, एतच्च व्याख्यानं जीवाभिगमचूादिदर्शनतः कृतं, न पुनः स्वमनीषिकया, तथा चास्या एव गाथाया व्याख्याने जीवा-II ४ भिगमचूर्णि:-"चन्द्रविमान द्वापष्टिभागीक्रियते, ततः पञ्चदशभिभागो हियते, तत्र चत्वारो भागा द्वापष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, शेपी द्वी भागी, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यते" इत्यादि, एवं च सति यत् समया दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] ~570~ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यमज्ञ- प्तिवृत्तिः | (मल०)| सूत्रांक [१००] ॥२७९ सू१०० आतपद आर- गाथा: याङ्गसूत्र-'सुक्कपक्खस्स दिवसे २ चंदो बावहिं भागे परियड्डइत्ति तदप्येवमेव व्याख्येयं, सम्प्रदायवशाद्धि सूत्र १९प्राभृते व्याख्येयं, न स्वमनीपिकया, सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति, तत्र शुक्लपक्षस्य दिवसे यत्-यस्मात्कारणात् चन्द्रो द्वापष्टिं चन्द्रवृक्षा २ भागान-द्वापष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् यावत्परिवर्द्धते, 'कालेन' कृष्णपक्षेन पुनर्दिवसे दिवसे तानेवदि चन्द्रा द्वापष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् क्षपयति-परिहापयति । एतदेव ब्याचष्टे-पन्नरस'इत्यादि, कृष्णपक्षे प्रतिदि- दानामूच्या |वसं राहुबिमानं स्वकीयेन पञ्चदशेन भागेन चन्द्रविमानं पञ्चदशमेव भागं वृणोति-आच्छादयति, शुक्लपक्षे तु पुनस्तमेव सन्नत्वादि प्रतिदिवस पञ्चदशभागं आत्मीयेन पञ्चदशभागेन व्यक्तिकामति-मुञ्चति, किमुक्तं भवति !-कृष्णपक्षे प्रतिपद आरभ्यात्मीयेन पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागमुपरितनभागादारभ्यावृणोति, शुक्लपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य | |तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभाग प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलवृद्धिहानी प्रतिभासेते, स्वरूपतः|| पुनश्चन्द्रमण्डलमवस्थितमेव । तथा चाह-'एवं बडई इत्यादि, एवं-राहुविमानेन प्रतिदिवस क्रमेणानावरणकरणतो| बर्द्धते-बर्द्धमानः प्रतिभासते चन्द्रः, एवं-राहुविमानेन प्रतिदिवस क्रमेणावरणकरणतः प्रतिहानिः-प्रतिहानिप्रतिभासो भवति चन्द्रस्य विषये, एतेनैवानुभावन कारणेन एकः पक्षः कालः-कृष्णो भवति, यत्र चन्द्रस्य परिहानिः प्रतिभासते, एकस्तु ज्योत्स्न:-शुक्लो यत्र चन्द्रविषयो वृद्धिप्रतिभासः । 'अंतो'इत्यादि, अन्तः-मध्ये मनुष्यक्षेत्रे-मनुष्यस्य क्षेत्रस्य पञ्चविधा ज्योतिष्काः, तद्यथा-चन्द्राः सूर्या ग्रहगणाश्चशब्दान्नक्षत्राणि तारकाश्च भवन्ति, चारोपगा:-चार| युक्ताः, 'तण पर'मित्यादि, तेनेति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यथें तृतीया, ततो मनुष्यक्षेत्रात् परं यानि शेषाणि चन्द्रादित्यग्र-: दीप अनुक्रम [१३३ ॥२७९॥ -१९६] ~571 Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], --------------------प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूल [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: हतारानक्षत्राणि-चन्द्रादित्यग्रहतारानक्षत्रविमानानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश प्राकृतत्वात् , तेषां नास्ति गति:-न स्वस्मात् । | स्थानाचलनं नापि चारो-मण्डलगत्या परिधमणं किन्त्ववस्थितान्येव तानि ज्ञातव्यानि । 'एवं जंबुद्दीवे इत्यादि, एवं| सति एकैको चन्द्रसूर्यो जम्बूद्वीपे द्विगुणौ भवतः, किमुक्तं भवति :-द्वी चन्द्रमसी द्वी सूर्यों जम्बूद्वीपे, लवणसमुद्दे तावेको सूर्याचन्द्रमसौ चतुर्गुणी भवतः, चत्वारश्चन्द्राश्चत्वारश्च सूर्या लवणसमुद्रे भवन्तीति भावः, लावणिका-लव-13 |णसमुद्रभवा शशिसूरास्त्रिगुणिता धातकीखण्डे भवन्ति, द्वादश चन्द्रा द्वादश सूर्या धातकीखण्डे भवन्तीत्यर्थः । 'दो| चंदा इत्यादि सुगम, । 'धायहसंडे'इत्यादि, धातकीखण्डः प्रभृतिः-आदियेषां ते धातकीखण्डप्रभूतयस्तेषु धातकीखण्डप्रभृतिषु द्वीपेषु समुद्रेषु च य उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वादशादय उपलक्षणमेतत् सूर्या वा ते त्रिगुणिताः-त्रिगुणीकृताः सन्तः । 'आइल्लचंदसहिय'त्ति उद्दिष्टचन्द्रयुक्तात् द्वीपात् समुद्राद्वा प्राक् जम्बूद्वीपमादिं कृत्वा ये प्राक्तनाश्चन्द्रास्ते आदिमचन्द्रास्सैरादिमचन्द्ररुपलक्षणमेतदादिमसूर्यैश्च सहिता यावन्तो भवन्ति एतावत्प्रमाणा अनन्तरे-कालोदादी भवन्ति, तत्र धातकीखण्डे द्वीपे उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वादश ते त्रिगुणाः क्रियन्ते जाताः पत्रिंशत् , आदिमचन्द्राः षट्, तबधा-दी चन्द्री जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणसमुद्रे, एतैरादिमैश्चन्द्रैः सहिता द्वाचत्वारिंशद् भवन्ति, एतावन्तः कालोदे समुद्रे चन्द्राकाल एप एव करणविधिः सूर्याणामपि, तेन सूर्या अपि तत्रैतावन्तो वेदितव्याः, तथा कालोदसमुद्रे द्विचत्वारिंशचन्द्रमस उद्दिष्टास्ते त्रिगुणाः क्रियन्ते, जातं पड्विंशं शतं, आदिमचन्द्रा अष्टादश, तद्यथा-द्वी जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणसमुद्रे द्वादश धातकीखण्डे एतरादिमचन्द्रः सहित पडूविंशं शतं जातं चतुश्चत्वारिंशं शतं, एतावन्तः पुष्करवरद्वीपे चन्द्रा दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] ~572~ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभत [१९].-----.............--प्राभतप्राभत -1,------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] सू१०० गाथा: सूर्यप्रज्ञ- एतावन्त एव सूर्याः, एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु एतत्करणवशाञ्चन्द्रसमा प्रतिपत्तव्या । सम्प्रति प्रतिद्वीप प्रतिसमुद्रं १९प्राभृते शिवृत्तिःच ग्रहनक्षत्रतारापरिमाणपरिज्ञानोपायमाह-रिक्खग्गहतारग्ग'मित्यादि, अत्राप्रशब्दः परिणामवाची यत्र द्वीपे समुदे चन्द्रप्रया वा नक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं वा ज्ञातुमिच्छसि तस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा सम्बन्धिभिः शशिभिरेकस्य बा-दिचन्द्रा शिनः परिवारभूतं नक्षत्रपरिमाण ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं च गुणितं सत् यावद् भवति तावत्प्रमाणं तत्र द्वीपे समुद्रे वा दानामा म२८०॥ त्पन्नत्वादि नक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणमिति, यथा-लवणसमुद्रे किल नक्षत्रादिपरिमाणं ज्ञातुमिष्टं लवणसमुद्रे च शशिनश्चत्वारस्तत एकस्य शशिनः परिधारभूतानि यान्यष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातं द्वादशोत्तर शतंग एतावन्ति लवणसमुद्रे नक्षत्राणि, तथा अष्टाशीतिमहा एकस्य मशिनः परिवारभूतास्ते चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ३५२ एतावन्तो लवणसमुद्र ग्रहाः, तथा एकस्य शशिनः परिवारभूतानि तारागणकोटीकोटीनां षट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातानि कोटिकोटीनां वे लक्षे सप्तपष्टिः सहस्राणि नव शतानि २६७९०००००००००००००००० एतावत्यो लवणसमुद्रे तारागणकोटीकोटयः, एवंरूपा च नक्षत्रादीनां सङ्ख्या मागेवोक्ता, एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु नक्षत्रादिसल्यापरिमाणं परिभावनीयं । 'पहिया इत्यादि, KIमानुषनगस्य-मानुपोत्तरस्य पर्वतस्य बहिश्चन्द्रसूर्याणां तेजांसि अवस्थितानि भवन्ति, किमुक्तं भवति ?-सूर्याः सदैवान-14॥२०॥ इत्युष्णतेजसो नतु जातुचिदपि मनुष्यलोके ग्रीष्मकाल इवात्युष्णतेजसः, चन्द्रमसोऽपि सर्वदैवानतिशीतलेश्याका नतु | कदाचनाप्यन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य शिशिरकाल इवातिशीततेजसः, तथा मनुष्यक्षेत्राहिः सर्वेऽपि चन्द्राः सर्वदेवाभिजिता *56 5 - दीप अनुक्रम [१३३ - -१९६] %* ~573~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] ROHN गाथा: नक्षत्रेण युक्ताः सूर्याः पुनर्भवन्ति पुष्यैर्युक्ता इति । 'चंदाओ'इत्यादि, मनुष्यक्षेत्राहिश्चन्द्रात् सूर्यस्य सूर्याच चन्द्रस्या न्तरं भवति अन्यूनानि-परिपूर्णानि योजनानां पञ्चाशत्सहस्राणि । तदेवं सूर्यस्य चन्द्रस्य च परस्परमन्तरमुक्त, सम्प्रति चपन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्य सूर्यस्य च परस्परमन्तरमाह-'सूरस्स य सूरस्स य'इत्यादि, मानुपनगस्य-मानुपोत्तरपर्वतस्य बहिः | सूर्यस्य२ परस्परं चन्द्रस्य २ च परस्परमन्तरं भवति योजनानां शतसहस्र-लक्षं, तथाहि-चन्द्रान्तरिताः सूर्याः सूर्यान्तरिताश्चन्द्रा व्यवस्थिताः चन्द्रसूर्याणां च परस्परमन्तरं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि ५००००, ततश्चन्द्रस्य सूर्यस्य च परस्प रमन्तरं योजनानां लक्षं भवतीति । सम्पति बहिश्चन्द्रसूर्याणां पङ्काववस्थानमाह--'सूरतरिया इत्यादि, नृलोकादहिः12 पापचा स्थिताः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राश्चन्द्रान्तरिता दिनकरा दीप्ता-दीप्यन्ते स्म दीप्ता भास्क(स्व)रा इत्यर्थः, कथंभूतास्ते चन्द्र-17 सूर्या इत्याह-चित्रान्तरलेश्याकाः' चित्रमन्तरं लेश्या च-प्रकाशरूपा येषां ते तथा, तत्र चित्रमन्तरं चन्द्राणां सूर्यान्तरि-1 तत्वात सूर्याणां च चन्द्रान्तरितत्वात् , चित्रलेश्या चन्द्रमसां शीतरश्मित्वात् सूर्याणामुष्णश्मित्वात् । लेश्याविशेषप्रदर्श-12/ नार्थमेवाह-'मुहलेसा मंदलेसा य' सुखलेश्याश्चन्द्रमसो न शीतकाले मनुष्यलोक इवात्यन्त शीतरश्मय इत्यर्थः, मन्दलेश्याः सूर्याः न तु मनुष्यलोके निदाघसमये इच एकान्तोष्णरश्मय इत्यर्थः, आह च तत्त्वार्थटीकाकारो हरिभद्रसरि:"नात्यन्तशीताश्चन्द्रमसो नाप्यत्यन्तोष्णाः सूर्याः, किन्तु साधारणा द्वयोरपी"ति । इहेदमुक्त-यत्र द्वीपे समुद्रे वा नक्ष-| प्रादिपरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तत्र एकशशिपरियारभूतं नक्षत्रादिपरिमाणं तावनिः शशिभिर्गुणयितव्यमिति, तत एकशशिपरिवारभूतानां ग्रहादीनां सङ्ख्यामाह-'अट्ठासीई गहा इत्यादि, गाथाद्वयं निगदसिद्धं । 'अंतो माणुसखेत्ते'इ -RE -RED दीप अनुक्रम [१३३ -22 -2 -१९६] JAMEmathemistimattiti F OR ~574~ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूर्यप्रज्ञ-पत्यादि, अन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपा देवास्ते किं ऊोपपन्नाः-सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्य १९ मामले विवृत्तिः ऊर्ध्वमुपपन्ना ऊोपपन्नाः कल्पेषु-सौधर्मादिषु उपपन्नाः कल्योपपन्नाः विमानेषु-सामान्येषूपपन्ना विमानोपपन्नाः चारो- चन्द्रवृद्ध्या (मळ०) मण्डलगत्या परिभ्रमण तमुपपन्ना-आश्रिताश्वारोपपन्नाः चारस्व-यथोकरूपस्य स्थितिः-अभावो येषां ते चारस्थितिकादि चन्द्राअपगतचारा इत्यर्थेः, गती रतिः-आसक्तिः प्रीतियेषां ते गतिरतिकाः, एतेन गती रतिमात्रमुक, सम्पति साक्षाद् गति दीनामूवो प्रश्नयति-गतिसमापन्ना' गतियुक्ताः, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता ते ण देवा' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् ते चन्द्रादयो देवा नोर्योपपन्नाः नापि कल्पोपपन्नाः किन्तु विमानोपपन्नाः चारोपपन्नाः-चारसहिता नो चारस्थितिकाः, तथा स्वभा-11 सू१०० वतोऽपि गतिरतिकाः साक्षाद् गतियुक्ताश्च, ऊर्ध्वमुखीकृतकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थितयोजनसाहनिका-अनेकयोजनसहन प्रमाणस्तापक्षेत्रः साहनिकाभिः-अनेकसहस्रसमाभिर्वाह्याभिः पर्षद्भिः, अत्र बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, वैकुर्विकाभिः-11 विकुर्वितनानारूपधारिणीभिः, महता रवेगेति योगः अहतानि-अक्षतानि अनघानीत्यर्थः यानि नाव्यानि गीतानि वादिवाणि च याश्च तन्यो-वीणा ये च तलताला-हस्तताला यानि च त्रुटितानि-शेपाणि तूर्याणि ये च धना-धनाकारा ध्वनिसाधात् पटुप्रवादिता-निपुणपुरुषप्रवादिता मृदङ्गास्तेषां खेण तथा स्वभावतो गतिरतिकैर्वाह्यपर्पदन्तर्गतैर्देवै-1 लागेन गच्छत्सु विमानेषु उत्कृष्टितः-उत्कर्षवशेन ये मुच्यन्ते सिंहनादा यश्च क्रियते वोलो, बोलो नाम मुखे हस्तं दवा महता शब्देन पूत्करणं, यश्च कलकलो-व्याकुलः शब्दसमूहस्तद्रवेण, मेरुमिति योगः, किंविशिष्टमित्याह-अच्छ-अतीय स्वच्छमतिनिर्मलजाम्बूनदरमबहुलत्वात् पर्वतराज-पर्वतेन्द्र प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलचारं यथा भवति तथा मेरुमनुलक्षी दीप अनुक्रम [१३३ -१९६] FirmwalMAPINHEUMORE ~575 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: कृस्य परियति-पर्यटन्ति । पुनः प्रश्नयति-ता तेसि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, तेषां-ज्योतिष्काणां देवानां | शायदा इन्द्रश्यवते तदा ते देवा इदानी-इन्द्रविरहकाले कथं प्रकुर्वन्ति !, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्,XI चत्वारः पञ्च वा सामानिका देवाः समुदितीभूय तत् शून्यमिन्द्रस्थानमुपसम्पद्य विहरन्ति-तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, सञ्जाती शुक्लस्थानादिकं पञ्चकुलबत् , कियन्तं कालं यावत्तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्तीति चेदत आह-यावदन्यसवेन्द्र छाउपपन्नो भवति, 'ता इंदठाणे णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् इन्द्रस्थान कियकालमुपपातेन विरहितं प्रज्ञप्तं !, भगवा-|| नाह-'ता'इत्यादि, जघन्येन एक समयं यावत् उत्कर्षेण षण्मासान् । 'ता पहिया णमित्यादि प्रश्नसूत्रमिदं प्राग्वत् व्याख्येयं, भगयानाहता ते णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् ते मनुष्यक्षेत्रादहिवर्तिनश्चन्द्रादयो देवा नोयोपपन्ना नापि कल्पोपपन्नाः किन्तु विमानोपपन्नास्तथा नो चारोपपन्ना:-चारयुक्ताः किन्तु चारस्थितिकाः, अत एव नो गतिरतयो नापि गतिसमापनकाः, पक्केष्टकासंस्थानसंस्थितर्योजनशतसाहनिकैरातपक्षेत्रः, यथा पक्का इष्ट का आयामतो दीर्घा भवति बिस्तरमातस्तु स्तोका चतुरस्रा च तथा तेषामपि मनुष्यक्षेत्राहियवस्थितानां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राण्यायामतो अनेकयोजन शतसहन्नप्रमाणानि विस्तरत एकयोजनशतसहस्राणि चतुरस्राणि चेति, तैरित्थंभूतैरातपक्षेत्रैः साहतिकाभिः-अनेकसहनसङ्ख्याभिर्वाह्याभिः पर्पभिः, अत्रापि बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, 'महये'त्यादि पूर्ववत् , दिवि भवान् दिव्यान भोगभोगान्-भोगार्हान् शब्दादीन भोगान भुञ्जाना विहरन्ति, कथंभूता इत्याह-शुभलेश्याः, एतच विशेषणं चन्द्रमसः प्रति, तेन नातिशीततेजसः किन्तु सुखोत्पादहेतुपरमलेश्याका इत्यर्थः, मन्दलेश्याः, एतच विशेषण सूर्यान् प्रति, तथा च एत दीप अनुक्रम [१३३ SA- STER -१९६] JAMEmathemistimattin FP ~576 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) (१७) प्राभूत [१९], --...............---- प्राभूतप्राभूत --------------------- मलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [१००] ॥२८॥ गाथा: सूर्यप्रज्ञ देव व्याचष्टे-'मन्दातपलेश्याः' मन्दा-अनत्युष्णस्वभावा आतपरूपा लेश्या-रश्मिसातो येषां ते तथा, पुनः कथंभूता- १९पामृते तिवृत्तिः चन्द्रादित्या इत्याह-चित्रान्तरलेश्याः चित्रमन्तर-अन्तराल लेश्या च येषां ते तथा, भावार्थश्चास्य पदस्य प्रागेवोपद-पुष्करोदाद (मल०)शर्शितः, ते इत्थंभूताश्चन्द्रादित्याः परस्परमवगाढाभिलेश्याभिः, तथाहि-चन्द्रमसा सूर्याणां च प्रत्येकं लेश्या योजनशत- यः सू१०१ सहस्रप्रमाणविस्ताराचन्द्रसूर्याणां च सूचीपङ्कचा व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पश्चाशत् योजनसहस्राणि ततश्चन्द्रप्रभा-12 सम्मिश्राः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभासम्मिश्राश्चन्द्रमभाः, इत्थं परस्परमवगाढाभिलेश्याभिः कटानीव-पर्वतोपरिव्यवस्थितशि-IA खराणीय स्थानस्थिताः-सदैव एकत्र स्थाने स्थिताः तान् प्रदेशान्-स्वस्वप्रत्यासन्नान उद्योतयन्ति अवभासयन्ति ताप-12 यन्ति प्रकाशयन्ति, 'ता तेसि णं देवाणं जाहे इंदे चयहे त्यादि प्राग्वद् व्याख्येयं । ता पुक्खरचर णं दीवं पुक्वरोदे णाम समुद्दे चट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते सबजाव चिट्ठति, ता पुक्खरोदे णं! समुद्दे कि समचकवालसंठिते जाव णो विसमचक्वालसंठिते, ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवतियं चकवालवि-18 सक्खंभेणं केवइयं परिक्खयेणं आहितेति वदेज्जा ?, ता संखेजाई जोषणसहस्साई आयामविक्खंभेण संखे-18 जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहितेति बदेवा, ता पुक्खरवरोदे णं समुद्दे केवतिया चंदा पभासेंस वा ३ पुच्छा तहेब, तहेव ता पुक्खरोदे णं समुदे संखेजा चंदा पभासु वा ३ जाब संखेजाओ तारागण-11 | ॥२८॥ || कोडाकोडीओ सोभं सोभंस वा । एतेणं अभिलावेणं वरुणवरे दीवे वरुणोदे समरे ४ खीरवरे दीवे खीर-IXI बरे समुरे ५ घतवरे दीवे घतोदे समुद्दे ६ खोतवरे दीवे खोतोदे समुदेणंदिस्सरवरे दीये शंदिस्सवरे दीप अनुक्रम [१३३-१९६] JAMEairatam intimatun: F OR | अत्र सूत्र १०१ एव वर्तते परन्तु मूल-संपादकस्य किञ्चित् स्खलनत्वात् अस्य सूत्रक्रमस्य नोन्ध-करणे सूत्रान्ते सूत्रक्रम १०३ लिखितं ~577~ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत दर सूत्रांक [१०३] समुद्दे ८ अरुणोदे दीवे अरुणोदे समुरे ९ अरुणवरे दीवे अरुणवरे समुऐ १० अरुणवरोभासे दीवे अरुण बरोभासे समुदे ११ कुंडले दीवे कुंडलोदे समुद्दे १२ कुंडलवरे दीवे कुंडलवरोदे समुद्दे १३ कुंडलवरोभासे ४ लादी कुंडलवरोभासे समुद्दे १४ सबेसि विक्खंभपरिक्खेवो जोतिसाई पुक्खरोदसागरसरिसाई। ता कुंडशालघरोभासण समुदं रुपए दीवे बड़े वलयाकारसंठाणसंठिए २ सयतो जाव चिट्ठति, ता रुपए ण दीवे किं| समचक्वालजाव णो विसमचकवालसंठिते,तारुयए गंदीवे केवइयं समचक्कचालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा ?, ता असंखेजाई जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेण असंखेलाई जोपणसहस्साई परिक्षेवेणं आहितेति वदेजा,ता रुपगे णं दीवे केबतिया चंदा पभासेंसु वा ३ पुच्छा, तारुयगे णं दीवे असंत्रेजा चंदा पभासेंसु वा ३ जाव असंखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोमेंसु वा ३, एवं रुयगे समुदे रुपगवरे दीवे रुयगवरोदे समुद्दे रुयगवरोभासे दीचे रुयगवरोभासे समुदे, एवं तिपडोयारा णतवा जाव | सूरे दीवे सूरोदे समुद्दे सूरवरे दीवे सूरवरे समुद्दे सूरवरोभासे दीवे सूरवराभासे समुद्दे, सवेसि विक्खंभपरिक्खेबजोतिसाई रुयगवरदीवसरिसाई, ता सूरवरोभासोदपणं समुदं देवे णामं दीचे वडे वलयाकारसंठाणसंठिते सवतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति जाव णो विसम चकवालसंठिते, ता देवे गं दीवे केवतियं चक-18 बालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवणं आहितति वदेजा !, असंखेजाई जोयणसहस्साई चकवालविक्खंभेणं| असंखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहितेति वदेज्जा, ता देवे पं दीवे केवतिया चंदा पभासेसु वा दीप अनुक्रम [१९७] RXटव ~578~ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१९], -------------------- प्राभृतप्रामृत --------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०३] दीप सूर्यप्रज्ञा पुच्छा तधेच, ता देवे णं दीवे असंखेज़ा चंदा पभासेंसु वा ३ जाव असंखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ|१९प्राभृते प्तिवृत्ति. सोभस चा ३ एवं देवोदे समुद्दे णागे दीचे जागोदे समुद्दे जक्खे दीवे जक्खोदे समुहे भते दीवे मतोदे पुष्करोदा(मल.) समुई सयंभुरमणे दीचे सयंभुरमणे समुद्दे सधे देवदीवसरिसा (सू१०३) । एकूणवीसतिम पाहु समत्तं ॥ धातू ॥२८३॥ II 'ता पुक्खरखरपण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् पुष्करवरं णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपं पुष्करोदो नाम समद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति, पुष्करोदे च समुद्रे जलमतिस्बरई पथ्यं जात्यं तथ्यपरिणाम स्फटिकवर्णाभं प्रकृत्या उदकरसं, द्वौ च तत्र देवावाधिपत्यं परिपालयतस्तद्यथा-श्रीधरः श्रीप्रभश्च, तत्र श्रीधरः पूर्वादाधिपतिः श्रीप्रभोऽपरार्द्धाधिपतिः, विष्कम्भादिपरिमाणं च सुगमं । 'एएण'मित्यादि, एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन वरुणवरो द्वीपो वक्तव्यः, तदनन्तरं वरुणोदः समुद्रः ततः क्षीरवरो द्वीप क्षीरोदः समुद्र इत्यादि, सूत्रपाठश्चैवम्-ता। पुक्खरोदणं समुदं वरुणवरे दीये बट्टे वलयाकारसँठाणसंठिए सबओ समता संपरिक्खित्ताणं चिटई'इत्यादि, वरुणद्वीपेश लाच वरुणवरुणप्रभी द्वी देवी स्वामिनी नवरमाधः पूर्वार्द्धाधिपतिरपरोऽपराोधिपतिरेवं सर्वत्र भावनीयं, वरुणोदे समुद्रे परमसुजातमद्वीकारसनिष्पन्नरसादपीष्टतरास्वाद तोयं वारुणिरप्रभी चद्वो तत्र देवी, क्षीरवरे द्वीपे पण्डरसुप्रदन्ती रा... मदेवौ, क्षीरोदे समुद्रे जात्यपुण्ड्रेक्षुचारिणीनां गवां यत् क्षीरं तदन्याभ्यो गोभ्यो दीयते तासामपि क्षीरमन्याभ्यस्तासामप्य ॥२८॥ न्याभ्यः एवं चतुर्थस्थानपर्यवसितस्य क्षीरस्य प्रयलतो मन्दाग्निना कधितस्य जात्येन खण्डेन मत्स्यण्डिकया सम्मिश्रस्य यादृशो रसस्ततोऽपीटतरास्वादं तत्कालविकसितकर्णिकारपुष्पवर्णाभं] तोयं विमलविमलप्रभौ च तत्र देवी, प्रतवरे द्वीपे अनुक्रम [१९७] JAINEDuratim intimatsumm F OR wwwlandinavar अत्र सूत्र १०१ एव वर्तते परन्तु मूल-संपादकस्य किञ्चित् स्खलनत्वात् अस्य सूत्रक्रमस्य नोन्ध-करणे सूत्रान्ते सूत्रक्रम १०३ लिखितं ~579~ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०३] कनककनकप्रभी देवी, घृतोदे समुद्रे सद्यो विस्यन्दितगोघृतास्वाद तत्कालपविकसितकर्णिकारपुष्पवर्णाभ तोयं कान्तसुकान्ती तब देवी, इचवरे द्वीपे सुप्रभमहाप्रभी देवी, इक्षुवरे समुद्र जात्यवरपुण्ड्राणामिक्षणामपनीतमलोपरित्रिभागानां विशिष्टगन्धद्रव्यपरियासितानां यो रसः श्लक्ष्णवस्त्रपरिपूतस्तस्मादपीष्टतरास्वाद तोयं पूर्णपूर्णप्रभौ च तत्र देवी, नन्दी|श्वरे द्वीपे कैलाशहस्तिवाहनौ देवी, नन्दीश्वरे समुद्रे इक्षुरसास्वाद तोयं सुमनःसौमनसौ देवी, एते अष्टावपि च द्वीपा | अष्टायपि समुद्रा एकमत्यवताराः, एकैकरूपा इत्यर्थः, अत ऊर्दू तु द्वीपाः समुद्राश्च त्रिप्रत्यवतारास्तद्यथा--अरुणः १ अरुणवरोऽरुणवरावभासः कुण्डलः कुण्डलबरः कुण्डलवरावभास इत्यादि, तत्रारुणे द्वीपे अशोकचीतशोकौ देवी, अरु-151 णोदे समुद्रे सुभद्रमनोभद्रौ, अरुणवरे द्वीपे अरुणवरभद्रअरुणवरमहाभद्रौ, अरुणवरे समुद्रे अरुणवरभद्रारुणयरमहाभद्री अरुणवरावभासे द्वीपे अरुणवरावभासभद्रअरुणवरावभासमहाभद्री अरुणवरावभासे समुद्रे अरुणवरावभासवरारुणवरा-1 भासमहावरी, कुण्डले द्वीपे कुण्डलकुण्डभद्रौ देवी कुण्डलसमुद्रे चक्षु शुभचक्षुःकान्तौ कुण्डलबरे द्वोपे कुण्डलवरभद्र-2 कुण्डलवरमहाभद्री कुण्डबरे समुद्रे कुण्डलवरकुण्डलमहावरौ कुण्डलवरावभासे द्वीपे कुण्डलवरावभासभद्रकुण्डलवरावभासमहाभद्री कुण्डलवरावभासे समुद्रे कुण्डलबरावभासवरकुण्डलवरावभासमहावरी, एते सूत्रोपाचा द्वीपसमुद्रा, अत ऊई। तु सूत्रानुपाता दयन्ते, कुण्डलबरावभाससमुद्रानन्तरं रुचको द्वीपः रुचकः समुद्रः, ततो रुचकवरो द्वीपो रुचकवरः। समुद्रः तदनन्तरं रुचकवरावभासो द्वीपो रुचकवरावभासः समुद्रः, तत्र रुचके द्वीपे सर्वार्थमनोरमी देवौ रुषकसमुद्रे सुमनःसौमनसौ रुचकवरे द्वीपे रुचकवरभद्ररुचकवरमहाभद्री रुचकवरे समुद्रे रुचकवररुचकमहावरौ रुचकवराव दीप अनुक्रम [१९७] IE 99 सर JHNETataintimattine FhiralMAPIMIREUMORE maratTEDTUNorg ~580 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: (मल) प्रत सूत्रांक [१०३] सूर्यप्रज्ञ- भासे द्वीपे रुचकवरावभासभद्ररुचकबरावभासमहाभद्रो रुचकवरावभासे समुद्रे रुचकवरावभासवररुचकवरावभास-II १९प्राभूत ठिवृत्तिःमहावरी, कियन्तो नाम नामग्रह द्वीपसमुद्रा वक्तुं शक्यन्ते । ततो यानि कानिचिदाभरणनामानि-हाराहारकनका-पुष्करोदा बलिरत्नावलिप्रभृतीनि यानि च वस्त्रनामानि यानि च गन्धनामानि कोष्ठपुटादीनि यानि चोत्पलनामानि-जलरुहचन्द्रो-यासू१०३ ॥२८॥ योतप्रमुखाणि यानि पतिलकप्रभृतीनि वृक्षनामानि यानि च पद्मनामानि शतपत्रसहस्रपत्रप्रभृतीनि यानि च पृथिवीनामानि-पृथिवीशर्करावालुके त्यादीनि यानि च नवानां निधीनां चतुर्दशानां चक्रवर्तिरलानां क्षुल्लहिमवदादीनां वर्षधरपर्वतानां पद्मादीनां इदानां गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां नदीनां कच्छादीनां विजयानो माल्यवदादीनां यक्षस्कारपर्वताना सौधमादीनां कल्पानां शक्रादीनामिन्द्राणां देवकुरुत्तरमन्दराणामावासानां शकादिसम्बन्धिना मेरुप्रत्यासन्नानां गजदन्तानां कूटादीनां क्षुलहिमवदादिसम्बन्धिनां नक्षत्राणां-कृत्तिकादीनां चन्द्राणां सूर्याणां च नामानि तानि सर्वाण्यपि द्वीपसमुद्राणां त्रिप्रत्यवताराणि वक्तव्यानि, तद्यथा-हारो द्वीपो हारः समुद्रो हारबरो द्वीपो हारवर। समुद्री हारवरावभासो द्वीपो हारवरावभासः समुद्र इत्यादि, एतेषु समस्तद्वीपसमुद्रेषु सधेययोजमशतसहचप्रमाणो विष्कम्भः साधेययोजनशतसहस्रप्रमाणः परिक्षेपः सोयाश्च चन्द्रादयस्तावद् वक्तव्याः यावदन्यः कुण्डलवरावभासः समुद्र, तथा चाह-सबेसि'मित्यादि, सर्वेषामुक्तस्वरूपाणां द्वीपसमुद्राणामन्यकुण्डलवरावभाससमुद्रपर्यन्तामा विष्कम्भपरिक्षेपयोतिषाणि पुष्करोदसागरसहIR शानि वक्तव्यानि-सोययोजनप्रमाणो विष्कम्भः साधेययोजनप्रमाणः परिक्षेपः सोयाबन्द्रादयो यतच्या इत्यर्थः।। ततस्तदनन्तरं योऽन्यो चकनामा द्वीपस्तत्प्रभृतिषु रुचकसमुद्ररुचकवरद्वीपरुषकवरसमुद्ररुचकवरावभासद्वीपरुषक-11 -COME दीप अनुक्रम [१९७] 9 ॥२८४॥ + JAINEDuratim intimated FitraalMAPINANORN अत्र सूत्र १०१ एव वर्तते परन्तु मूल-संपादकस्य किञ्चित् स्खलनत्वात् अस्य सूत्रक्रमस्य नोन्ध-करणे सूत्रान्ते सूत्रक्रम १०३ लिखितं ~581~ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१९], --------------------प्राभृतप्राभूत ], -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०३] दीप अनुक्रम [१९७] वरावभाससमुद्रादिष्यपि सङ्घषेययोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽसङ्ख्येययोजनप्रमाणः परिक्षेपोऽसयेयाश्चन्द्रादयो वक्तव्याः, तथा चाह-'ता कुंडलवरावभासपण' इत्यादि, 'एवं रुयगे समुद्दे'इत्यादि, 'एवं तिपडोयारा' इत्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण रुचकवरावभासात्समुद्रात्परतो द्वीपसमुद्राश्च त्रिप्रत्यवतारास्तावत् ज्ञातव्या यावत् सूर्यो द्वीपः सूर्यः समुद्रः सूर्यवरो द्वीपः सूर्यवरः समुद्रः सूर्यवरावभासो द्वीपः सूर्यवरावभासः समुद्रः, उक्त च जीवाभिगमचूौं- "अरुणाई दीवसमुद्दा तिपडोयारा यावत्सूर्यवरावभासः समुद्रः"इति, 'सोसि'मित्यादि, सर्वेषां रुचकसमुद्रादीनां सूर्यवरावभास-1 समुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भपरिक्षेपज्योतिपाणि रुचकद्वीपसदृशानि वक्तव्यानि असङ्खयेययोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽसङ्घषेययोजनप्रमाणः परिक्षेपोऽसोयाः प्रत्येकं चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारका वक्तव्या इति भावः, 'सूरवरावभासोदपणं समुई। इत्यादि सुगर्भ, नवरमेते पञ्च देवादयो द्वीपाः पञ्च देवादयः समुद्राः प्रत्येकमेकरूपान पुनरेषां त्रिप्रत्यवतारः, उक्तं च ४ जीवाभिगमचूर्णों-"अंते पंच द्वीपा पंच समुद्दो एकप्रकारा" इति, जीवाभिगमसूत्रेऽप्युक्तम्-"देवे नागे जक्खे भूये सय सयंभुरमणे य । एकेके चेव भाणियो, तिपडोवारं नस्थि"त्ति, तत्र देवे द्वीपे द्वौ देवी देवभद्रदेवमहाभद्री देवे समुद्रे देववरदेवमहावरी नागे द्वीपे नागभद्रनागमहाभद्री नागे समुद्रे नागवरनागमहावरी यक्षे द्वीपे यक्षभद्रयक्षमहाभद्री यक्षे समुद्रे यक्षवरयक्षमहावरौ भूते द्वीपे भूतभद्रभूतमहाभद्री भूते समुद्रे भूतवरभूतमहावरी खयंभूरमणे द्वीपे स्वयम्भूभद्| स्वयम्भूमहाभद्री स्वम्भूरमणे समुद्रे स्वम्भूवरस्वयम्भूमहावरो, इह नन्दीश्वरादयः सर्वे समुद्रा भूतसमुद्रपर्यवसाना इधुरसोदसमुद्रसदृशोदकाः प्रतिपत्तव्याः, स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य तूदकं पुष्करोदसमुद्रोदकसदृशं, तथा जम्बूद्वीप इति नाम्ना JAMEairatminematural Fhi ~582 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्तिवृत्तिः प्रत सू१०४ सूत्रांक [१०३] दीप सूर्यप्रज्ञ-18 असावेया द्वीपा लवण इति नाम्ना असलयेयाः समुद्राः एवं तावत् वाच्यं यावत्सूर्यवरावभास इति नाना असह्यपेयाः२० प्राभते समुद्राः, ये तु पक्ष देवादयो द्वीपाः पञ्च देवादयः समुद्रास्ते एकैका एवं प्रतिपत्तव्याः, नैतेषां नामभिरन्ये द्वीपसमुद्राः, चन्द्रादीना (मल०) उक्त च जीवाभिगमे-'केवइया णं भंते ! जंबुद्दीवा दीवा पन्नत्ता ?, गोयमा! असंखेज्जा पन्नत्ता, केवइया ण भंते ! देव- मनुभावः ॥२८५॥ दीया पन्नत्ता ?, गोयमा ! एगे देवदीये पण्णत्ते, दसवि एगागारा" इति ॥ ॥ इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां एकोनविंशतितम-प्राभृतं समाप्त तदेवमुक्तमेकोनविंशतितमं प्राभृतं, सम्प्रति विंशतितममारभ्यते-तस्य चायमाधिकारी यथा 'कीदृशश्चन्द्रादी-1 नामनुभाव' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते अणुभावे आहितेति वदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओपण्णताओ, तस्थेगे एवमामासुता चंदिमसूरिया गं णो जीवा अजीवा णो घणा झुसिरा णो बादरयो दिधरा कलेवरा नत्थि णं तेसि उहाणेति वा कम्मेति वा बलेति वा विरिएति वा पुरिसकारपरकमेति वा ते णो विज लवंति णो असणि लवंति Mणो थणितं लचंति, अहे य णं बादरे चाउकाए संमुच्छति अहे य गं बादरे वाउकाए समुच्छित्ता विलुपि [॥२८५॥ लवंति असणिपि लचंति धणितंपि लवंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु, ता चंदिमसूरियाणं जीवा णो अजीवा घणा णो झुसिरा बादरदिधरा नो कलेवरा अत्थि णं तेसिं उहाणेति वा ते विजुपि लवंति 113 अनुक्रम [१९७] R-CRACANC 44 अत्र एकोनविंशति प्राभृतं परिसमाप्तं अथ विंशति प्राभृतं आरभ्यते ~583~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] ESSA दीप अनुक्रम [१९८] एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वदामो-ता चंदिमसूरिया णं देवाणं महिड्डिया जाव महाणुभागा वरवत्थघरा वरमल्लधरा वराभरणधारी अवोच्छित्तिणयदृताए अन्ने चयंति अण्णे उघ वजंति (सूत्रं १०४)॥ 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण चन्द्रादीनामनुभावः-स्वरूपविशेष आख्यात इति | बदेत् ?, एवमुक्त भगवानेतद्विपये ये द्वे प्रतिपत्ती ते उपदर्शयति-तत्व खलु'इत्यादि, तब-पन्द्रादीनामनुभावविषये | खल्विमे द्वे प्रतिपत्ती-परतीधिकाभ्युपगमरूपे प्रज्ञप्ते, तद्यथा-'तत्धेगे'इत्यादि, तत्र-तेषां द्वयानां परतीथिकानां मध्ये | एके परतीर्थिका एवमाहुः, 'ता'इति तेषां परतीथिकानां अधर्म स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, चन्द्रसूर्या णमिति वाक्यालङ्कारे नो जीवा-जीवरूपाः किन्त्यजीवाः, तथा नो घना-निविडप्रदेशोपचयाः किन्तु शुषिराः, तथा न बरबोन्दिधरा:-प्रधानसजीवसुव्यक्तावयवशरीरोपेताः किन्तु कलेवरा:-कलेवरमात्राः तथा नास्ति णमिति बाक्या-IA लङ्कारे तेषां चन्द्रादीनामुत्थानं-ऊवीभवनमितिरुपदर्शने वाशब्दो विकल्पे समुच्चये वा कर्म-उत्क्षेपणावक्षेपणादि पलं| शारीरः प्राणो वीर्य-आन्तरोत्साहः 'पुरिसकारपरकम इति पुरुषकारः-पौरुषाभिमानः पराक्रमः स एव साधिताभिमतप्रयोजनः पुरुषकारश्च पराकमश्च पुरुषकारपराक्रममिति वाशब्दः सर्वत्रापि पूर्ववत्, तथा ते चन्द्रादित्याः 'नो विजय लयंति'त्ति नो विद्युत प्रवर्तयन्ति नाप्यशनि-विद्युद्विशेषरूपं नापि गर्जितं-मेघवनि किन्तु 'अहो ण'मित्यादि चन्द्रादित्यानामधो णमिति पूर्ववत् वादरो वायुकायिकः सम्मूर्छति अधश्च बादरो वायुकायिकः सम्मूच्छर्घ 'विजुपि| लबइ'इति विद्युतमपि प्रवर्त्तयति, अशनिमपि प्रवर्त्तयति, विद्युदादिरूपेण परिणमते इति भावः, अत्रोपसंहारमाह JAINEDuratim intimature FridaIMAPIVARANORN ~584~ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- 1 ठिवृत्तिः (मल) प्रत सूत्रांक [१०४] ॥२८॥ दीप अनुक्रम [१९८] एगे एवमाहंसु' १, एके पुनरेवमाहुः, ता इति प्राग्वत् , चन्द्रसूर्या णमिति वाक्यालङ्कारे जीया-जीवरूपा न पुनर-IA२० प्राभूते जीवाः यथाऽऽहुः पूर्वापरतीधिकाः तथा घना-न शुपिरा तथा बरबोन्दिधरान कलेवरमात्रा तथा अस्ति तेषां उहाणे चन्द्रादीना इति-या इत्यादि पूर्ववत् व्याख्येय, 'ते विजुपि लवंति'त्ति विद्युतमपि प्रवर्तयन्ति अशनिमपि प्रवर्तयन्ति गर्जितमपि मनुभाव किमुक्तं भवति ?- विद्युदादिकं सर्वं चन्द्रादित्यप्रवर्तितमिति, अत्रोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु'२, एवं परतीथिंकप्रतिपत्तिद्वयमुपदर्य सम्पति भगवान् स्वमतं कथयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेवं वदामः, कथं वदध इत्याहता इति पूर्ववत् चन्द्रसूर्याः णमिति वाक्यालङ्कारे देवा-देवस्वरूपा न सामान्यतो जीवमात्राः, कथंभूताः ते देवा इत्याह'महर्दिकाः' महती ऋद्धिर्विमानपरिवारादिका येषां ते तथा 'जाय महाणुभावा' इति यावत्करणात् 'महजुश्या महबला महाजसा महेसक्खा' इति द्रष्टव्यं, तत्र महती द्युतिः शरीराभरणविषया येषां ते महायुतयः, तथा महत् बलंशारीरः प्राणो येषां ते महाबलाः, तथा महद् यशः-ख्यातिर्येषां ते महायशसः, तथा महेश इति महान् इशः-ईश्वर इत्याख्या येषां ते महेशाख्याः, क्वचित् महासोक्खा इति पाठः, तत्र महत् सौख्यं येषां ते महासौख्याः, तथा महानसानुभावो-विशिष्टयक्रियकरणादिविषया अचिन्त्या शक्तियेषां ते महानुभावाः बरवखधरा वरमास्यधरा पराभरणधारिणः, अच्युरिछत्तिनयार्थतया-द्रव्यास्तिकनयमतेन अन्ये पूर्वोत्पन्नाः स्वायुःक्षये च्यवन्ते अन्ये उत्पद्यन्ते । ४॥२८६॥ | ता कहं ते राहुकम्मे आहितेति बदेजा , तत्व खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तस्धेगे एव-IN |माहंसु, अस्थि से राह देवे जेणं चंद या सूरं वा गिण्हति, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु नस्थि %%% FitraalMAPINAMORE ~585 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप से राहत देवे जेणं चंदं वा सूरं वा गिण्हइ, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता अत्धि णं से राहू देवे जेण चंदं वा सूर वा गिण्हति से एवमाहंसु-ता राहणं देवे चंदं वा सूरं वा गेण्हमाणे बुद्धतेणं गिण्हित्ता बुद्धतेणं मुयति। बुद्धतेणं गिहित्ता मुद्धतणं मुयह मुद्धतेणं गिण्हित्ता मुदतणं मुपति, चामभुयन्तेणं गिपिहसा वामभुपं-12 वा नेणं मुयति चामभुषतेणं गिमिहत्ता दाहिणभुयंतेणं मुयति दाहिणभुपंतेणं गिहिसा वामभुपतेणं मुपति दाहिणभुपंतेणं गिण्हित्ता दाहिणभुयंतेणं मुयति, तस्थ जे ते एवमाहंसुता नस्थि णं से राहू देये जे णं चंदं वा। सूरं वा गेण्हति ते एवमाहंसु-तत्य गं इमे पपणरसकसिणपोग्गला पं० सं०-सिंघाणए जडिलए खरए खतए अंजणे खंजणे सीतले हिमसीपले केलासे अरुणाभे परिजए णभसूरए कवि लिए पिंगलए राह, ता जया णं एते पण्णरस कसिणा २ पोग्गला सदा चंदस्स चा सूरस्स वा लेसाणुबद्धचारिणो भवति तता णं माणुसलोनयंसि माणुसा एवं वदंति-एवं खलु राहू चंदं वा सूरं वा गेण्हति, एवं० २, ता जता णं एते पण्णरस कसिपणा २ पोग्गला णो सदा चंदस्स वा सूरस्स चा लेसाणुबद्धचारिणो खलु तदा माणुसलोयम्मि मणुस्सा एवं &ी वदंति एवं खलु राह चंदं सूरं घा मेपहति, एते एवमाहंसु, वयं पुण एवं बदामो-ता राष्ट्र ण देवे महिहीए। महाणुभावे वरवधधरे घराभरणधारी, राहुस्स ण देवस्स णव णामधेला पं०, ०-सिंघाडए जडिलए खरए ४ खेत्तए हरे मगरे मच्छे कच्छभे कण्णसप्पे, ता राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवपणा पं० २०-किण्हा नीला लोहिता हालिद्दा सुकिल्ला, अस्थि कालए राहुविमाणे खंजणवण्णाभे अधि नीलए राहुषिमाणे अनुक्रम [१९९] ~586 Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२०], -------------------- प्राभृतप्रामृत -,-------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] १२८॥ -- - दीप सूर्यप्रज्ञ- लाउयवपणाभे पण्णत्ते, अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिट्ठावण्णाभे पण्णत्ते, अस्थि हालिद्दए राहुविमाणे २० माभूते विवृत्तिःहलिदावण्णाभे पं०, अस्थि सुकिल्लए राहुविमाणे भासरासिवण्णाभे पं०, ता जया गं राहुदेचे आगच्छ- राहुक्रिया (मल.) माणे वा गच्छमाणे वा विज्वेमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं पुरच्छिमेणं आवरित्ता सू १०५ पस्थिमेणं वीतीवतति, तया पण पुरच्छिमेणं चंदे सूरे वा उवदंसेति पञ्चस्थिमेणं राहू, जदा गं राहुदेवे k आगच्छमाणे या गच्छमाणे वा विउधमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणणं आच-12 रित्ता उत्तरेणं बीतीवतति, तदा णं दाहिणणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेति उत्तरेणं राह, एतेणं अभिलावेणं| पञ्चस्थिमेणं आवरित्ता पुरच्छिमेणं वीतीवतति उत्तरेणं आवरित्ता दाहिणणं वीतिवतति, जया ण राहू देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउत्रमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स चा लेसं दाहिणपुरच्छिटमेणं आवरित्ता उत्तरपञ्चत्थिमेणं बीईवयइ तया णं दाहिणपुरच्छिमेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ उत्तरपच स्थिमेणं राह,जया कराह देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउच्चमाणे चा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणपचत्थिमेणं आधरित्ता उत्तर पुरच्छिमेणं बीतीवतति तदा दाहिणपञ्चत्थिमेणं चंदे वा सूरे वा | उपदंसेति उत्तरपुरछिमेणं राहू, एतेणं अभिलावेणं उत्तरपञ्चस्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपुरछिमेणं बीतीव-|| | तति, उत्तरपुरच्छिमेणं आवरेत्ता दाहिणपचत्थिमेणं बीतीवयइ, ता जता णं राहू देवे आगच्छमाणे वा० चंदस्स चा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता बीतीव० तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-राहुणा चंदे सूरे वा गहिते, - अनुक्रम [१९९] भर JAINEDuratim intimatsind FitraalMAPINANORN ~587 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] 486860-56 ** दीप ताजपा राह देवे आगच्छमाणे वा० चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता पासेणं बीतीयतति तता गं मणुस्सलोअंमि मणुस्सा वदंति-चंदेण वा सूरेण वा राहुस्स कुच्छी भिण्णा, ना जता गं राह देवे आगच्छमाणे |R वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता पचोसकति तता गं मणुस्सलोए मणुस्सा एवं वदति-राहणा चंदे ।। मावा सूरे या वंते राहणा०२, ता जता रात देवे आगच्छमाणे वा० चंदस्स वा सूरस्स चा लेस आवरेत्ता मजन मोणं वीतिवतति तता णं मणुस्सलोयंसि मणुस्सा वदंति-राहुणा चंदे वा सूरे वा विइयरिए राहुणा०२,18 ता जता णं राहू देवे आगच्छमाणे० चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता णं अधे सपक्खिं सपडिदिसि चिट्ठति लता णं मणुस्सलोअंसि मणुस्सा वदंति-राहुणा चंदे वा० धत्थे राहणा० २॥ कतिविधे णं राहू पं०१, दुविहे पं० त०-ता धुषराहू य पवराहू य, तत्थ णं जे से धुवराह से णं बहुलपक्खस्स पाडिवए पण्णरसइ-18 भागेणं भागं चंदस्स लेसं आवरेमाणे चिट्ठति, तं०-पढमाए पढम भागं जाव पन्नरसम भार्ग, चरमे समए चंदे । रत्ते भवति अबसेसे समए चंदे र य विरत्ते य भवइ, तमेव मुक्तपक्खे उपदंसेमाणे २ चिट्ठति, तं०-पढ-12 |माए पदम भार्ग जाव चंदे विरते य भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते विरते य भवति, तस्थ ण जे ते पवINराह से जहणणेणं छाई मासाणं, उकोसेणं यायालीसाए मासाणं चंदस्स अडतालीसाए संवच्छराणं सूरस्स (सूत्रं १०५)॥ 'ता कह 'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारेण भगवान् ! त्वया राहुकर्म-राहुक्रिया आख्यातमिति %-6-56 अनुक्रम [१९९] : - FridaIMAPIVAHauWORK : ~588~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] CHER ।२८८| दीप सूर्यप्रज्ञ-विदेत् !, एवमुक्त भगवानेतद्विषये ये द्वे परतीर्थिकप्रतिपत्ती ते उपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तत्र-राहुकर्मविषये खस्विमे २० प्राभूते प्तिवृत्तिःलादे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, 'तत्धेगे'इत्यादि, तत्र-तेषां द्ववानां परतीथिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एघमाहुः-ता इति पूर्व राहुक्रिया वत् अस्ति णमिति वाक्यालङ्कारे स राहुनामा देवो यश्चन्द्र सूर्य वा गृह्णाति, अनोपसंहारमाह-एगे एवमाहेसु.IN सू १०५ एके पुण एबमासु' एके पुनरेवमाहुः, ता इति पूर्ववत् , नास्ति स राहुनामा देयो यश्चन्द्र सूर्य वा गृहाति, तदेव।। प्रतिपत्तिद्वयमुपदर्य सम्पत्येतद्भावनार्थमाह-'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते वादिनः एयमाहुः-अस्ति स राहुनामा देयो। यश्चन्द्र सूर्य वा गृहातीति त एवमाहुः-त एवं स्वमतभावनिका कुर्वन्ति, 'ता राहू णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् राहुपश्चन्द्रं सूर्य या गृह्णन् कदाचित् बुध्धान्तनव गृहीत्वा वुनान्तेनैव मुञ्चति, अधोभागे गृहीत्वा अधोभागेनैव मुञ्चतीति भावः, कदाचित् बुभ्रान्तेन गृहीत्या मूर्द्धान्तेन मुथति, अधोभागेन गृहीत्या उपरितनेन भागेन मुबतीत्यर्थः, अथवा कदाचित मूर्धान्तेन गृहीत्या बुधाम्तेन मुञ्चति, यदिया मूर्द्धान्तेन गृहीत्वा मूर्द्धान्तेनैव मुथति, भावार्थः प्राग्यद् भावनीयः, |अथवा कदाचित् वामभुजान्तेन गृहीत्वा वामभुजान्तेन मुञ्चति, किमुक्त भवति ।-बामपार्थेन गृहीत्या चामपार्थेनैव मुखति, यदिया वामभुजान्तेन गृहीत्या दक्षिणभुजान्तेन मुञ्चति, अथवा कदाचित् दक्षिणभुजाम्तेन गृहीत्वा वामभुजाइन्तेन मुञ्चति, यद्वा दक्षिणभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेनैव मुञ्चति, भावार्थः सुगमः, 'तत्य जे ते इत्यादि, तत्र तेषां द्वयानां परतीथिकानां मध्ये ये ते एवमाहुः यथा नास्ति स राहुर्देवो यश्चन्द्रं सूर्य वा गृह्णातीति ते एवमाहुः, 'तस्थ ण'मित्यादि, तब जगति णमिति बाक्यालङ्कारे इमे वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चदशभेदाः कृष्णाः पुद्गलाः प्रज्ञा अनुक्रम [१९९] DSCAKA ~589~ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] 25 4666-0-%%% तद्यथे'त्यादिना तानेव दर्शयति,-एते यथासम्प्रदायं वैविक्त्येन प्रतिपत्तव्याः, 'ता जया ण'मित्यादि, ततो यदा णमिति वाक्पालङ्कारे एते अनन्तरोदिताः पञ्चदशभेदाः कृष्णाः पुद्गलाः कृत्स्ना:-समस्ताः 'सता'इति सदा सातत्ये-M नेत्यर्थः चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यानुबन्धचारिणः-चन्द्रसूर्यबिम्बगतप्रभानुचारिणो भवन्ति तदा मनुष्यलोके मनुष्या एवं वदन्ति, यथा एवं खलु राहुश्चन्द्र सूर्य या गृह्णातीति, 'ता जया णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , यदा णमिति | KIपुनरर्थे निपातस्थानेकार्थत्वात् यदा पुनरेते पञ्चदश कृष्णाः पुद्गलाः समस्ताः नो सदा-न सातत्येन चन्द्रस्य सूर्यस्य या लेश्यानुबन्धचारिणो भवन्ति, न खलु तदा मनुष्यलोके मनुष्या एवं वदन्ति-यथा एवं खलु राहुश्चन्दं सूर्य था। गृह्णातीति, तेषामेवोपसंहारवाक्यमाह-एवं खलु इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण राहुश्चन्द्र सूर्य वा गृह्णातीति लौकिक वाक्यं प्रतिपत्तव्यं, न पुनः प्रागुतपरतौर्थिकाभिप्रायेण, भगवानाह-एते'इत्यादि, एते परतीथिंका एवमाहः, 'चयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवलाः केवलविदोपलभ्य एवं वदामो, यथा-राहण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , राहुः णमिति वाक्यालङ्कारे, न देयो न परपरिकल्पितपुद्गलमात्रं स च देवो महद्धिंको महाधुतिः महावलो महायशा महासौख्यो। महानुभावः, एतेषां पदानामर्थः प्राग्वद् भावनीयः, बरवस्त्रधरो वरमाल्यधरो वराभरणधारी, राहुस्स ण'मित्यादि, तस्य र च राहोर्देवस्य नव नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-'सिंघाडए इत्यादि सुगर्म, 'ता राहुस्स णमित्यादि, ता इति पूर्व-IA वत्, राहोदेवस्य विमानानि पञ्चवर्णानि प्रज्ञप्तानि, किमुक्त भवति ?-पञ्च विमानानि पृधगेकैकवर्णयुक्तानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-'किण्हे नीले'इत्यादि, सुगर्म, नवरं खञ्जन-दीपमल्लिकामल: 'लाउयवण्णाभे'इति आईतुम्बवर्णाभं, 'ता दीप अनुक्रम [१९९] % %A5 -% % FitraalMAPINANORN ~590~ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२०], -------------------- प्राभृतप्रामृत -,-------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] सूर्यमज्ञ-14जया णमित्यादि, ता इति-तत्र यदा राहदेव आगच्छन् कुतश्चित्स्थानात् गच्छन् वा कापि स्थाने विकुर्वन् वा-खेच्छ-२०प्राभूते या तां तां बिक्रियां कुर्वन् वा परिचरणबुद्धया इतस्ततो गच्छन् वा चन्द्रस्य वा सूर्यस्य या लेश्या-विमानगतधवलि-1 राहुक्रिया(मल.) समानं 'पुरच्छिमेणं'ति पौरस्त्येनावृत्त्याग्रभागेनावृत्त्येत्यर्थः, पाश्चात्यभागेन व्यतिब्रजति-व्यतिक्रामति तदा णमितिधिकार ॥२८९॥ माम्यत् पौरस्त्येन चन्द्रः सूर्यो वाऽऽस्मानं दर्शयति पश्चिमभागेन राहुः, किमुक्तं भवति !-तदा मोक्षकाले चन्द्रः सूर्यो| दासू१०४ दावा पूर्वदिग्भागे प्रकटं उपलभ्यते अधस्ताञ्च पश्चिमभागे राहुरिति, 'एवं जया णं राहू' इत्याद्यपि दक्षिणोत्तरविषयं सूत्रं भायनीयं, 'एएण'मित्यादि, एतेनानन्तरोदितेनाभिटापेन 'पञ्चस्थिमेणं आवरेत्ता पुरच्छिमेणं वीइवयइ उत्तरेणं आषरित्ता दाहिणेणं बीईवयइ'इत्येतद्विषये अपि द्वे सूत्रे वक्तव्ये, ते चैवम्-'ता जया पे राहू देवे आगच्छमाणे [विउधमाणे वा० चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं पञ्चस्थिमेणं आवरित्ता पुरच्छिमेणं वीइययइ तथा णं पञ्चस्थिमेणं चंदे सूरे था| | उवदंसेइ पुरच्छिमे णं राहू, एवं द्वितीयसूत्रेऽपि वक्तव्यं, एवं जया णमित्यादीनि दक्षिणपूर्वोत्तरपश्चिमदक्षिणपश्चिमो-12 |त्तरपूर्वोत्तरपश्चिमदक्षिणपूर्वोत्तरपूर्वदक्षिणपश्चिमविषयाण्यपि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि, 'ता जया 'मित्यादि, लसुगम, नवरमयं भावार्थ:-यदा चन्द्रस्य सूर्यस्य वा लेश्यामावृत्य स्थितो भवति राहुस्तदा लोके एवमुक्तिर्यथा राहुणा सचन्द्रः सूर्यो या गृहीत इति, यदा तु राहुलेश्यामावृत्य पार्थेन व्यतिकामति तदैवं मनुष्याणामुक्तिः यथा चन्द्रेण सूर्येण ॥२८९।। मावा राहोः कुक्षिभिन्ना, राहोः कुक्षि भित्त्वा चन्द्रः सूर्यो वा निर्गत इति भायः, यदा च राहुश्चन्द्रस्य सूर्यस्य वा लेश्या-121 मावृत्य प्रत्ययवष्कते--पश्चादवसति तदैवं मनुष्यलोके मनुष्याः प्रबदन्ति, यथा-राहुणा चन्द्रः सूर्यो वा वान्त इति, दीप अनुक्रम [१९९] ~591 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप यदा च राहुश्चन्द्रस्य सूर्यस्य वा मध्यभागेन लेश्यामावृण्वन् व्यतिब्रजतिच्छति तदैवं मनुष्यलोके प्रवादो, यथा-चन्द्रः सूर्यो वा राहुणा व्यतिचरित इति, किमुक्तं भवति ?-मध्यभागेन विभिन्न इति, यदा च राहुश्चन्द्रस्य सूर्यस्य या 'सप विख'मिति सह पक्षरिति सपक्षं सर्वेषु पाषु पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेष्वित्यर्थः, सह प्रतिदिग्भिः सप्रतिदिक्, सर्यास्वपि तविदिक्षु इत्यर्थः, लेश्यामावृत्याधस्तिष्ठति तदैवं मनुष्पलोकोक्तिर्यथा राहुणा चन्द्रः सूर्यो वा सर्वात्मना गृहीत इति । आह चन्द्रविमानस्य पञ्चैकषष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वात् राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्येनार्द्धयोजनप्रमाणत्वात् कथं राहुविमानस्य सर्वात्मना चन्द्रविमानावरणसम्भवः ?, उच्यते, यदिदं ग्रहविमानानामर्द्धयोजनमिति प्रमाणं तत्प्रायिकम-13 बसेयं, ततो राहोर्यहस्योक्ताधिकप्रमाणमपि विमानं सम्भाव्यते इति न कदा(का)चिदनुपपत्तिः, अन्ये पुनरेवमाहुः-राहुवि-13 मानस्य महान् बहलस्ति मिश्ररश्मिसमूहस्ततो लघीयसाऽपि राहुविमानेन महता बहलेन तमिश्ररश्मिजालेन प्रसरमधिरोहता सकलमपि चन्द्रमण्डलमात्रियते ततो न कश्चिद्दोषः । अथ राहो दं जिज्ञासिषुः प्रश्नयति-ता कइ बिहे '-13 मित्यादि, सुगम, भगवानाह--'दुबिहे'इत्यादि, द्विविधो राहुः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ध्रुवराहुः पर्वराहुश्च, तत्र यः सदैव चन्द्रविमानस्याधस्तात् सञ्चरति स धुवराहः, यस्तु पर्वणि-पौर्णमास्यां अमावास्थायां वा यथाक्रम चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उपरागं करोति स पर्वराहुः, तत्र योऽसौ ध्रुवराहुः स बहुलपक्षस्य कृष्णपक्षस्य-सम्बन्धिन्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथि | आत्मीयेन पञ्चदशेन भागेन पञ्चदशभाग २ चन्द्रस्य लेश्यामावृण्वन् तिष्ठति, तद्यथा-प्रथमाया-प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ प्रधर्म पञ्चदशभागं द्वितीयस्यां द्वितीय तृतीयस्यां तृतीयं यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदर्श, ततः पञ्चदश्यां तिथी चरम अनुक्रम [१९९] JanEairation intimathun FitraalMAPINANORN ~592~ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२०], --------------------प्राभृतप्राभूत ], -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] सूर्यप्रज्ञ- समये रक्तो भवति-राहुविमानेनोपरक्तो भवति, सारमना राहुविमानेनाच्छादितो भवतीत्यर्थः, अवशेषे समये प्रति-IN २० प्राभते सित्तिःपिद्वितीयातृतीयादिकाले चन्द्रो रक्तश्च भवति विरत्तश्च भवति, देशेन राहुविमानेनाच्छादितो भवति देशतश्चानाच्छा-राक्रिया (मल.) दित इत्यर्थः, शुक्लपक्षस्य प्रतिपद आरभ्य पुनस्तमेव पञ्चदर्श २ भागं प्रतितिथि उपदर्शयन्-प्रकटीकुर्वन् तिष्ठति,Iधिकारः तद्यथा-प्रथमायां प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ प्रधर्म पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति द्वितीयायां- द्वितीयं एवं यावत् पञ्चदश्यांसू १०४ ॥२९॥ पौर्णमास्यां पञ्चदशं पञ्चदशभाग, चरमसमये-पौर्णमासीचरमसमये चन्द्रः सर्वात्मना विरक्तो भवति, सर्वात्मना प्रक-४ टीभवतीत्यर्थः, लेशतोऽपि राहुविमानेनानाच्छादितत्यात् , आह-शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे वा कतिपयान दिवसान यावत् राहुविमानं वृत्तमुपलभ्यते, यथा ग्रहणकाले पर्वराहुः, कतिपयांश्च दिवसान यावन्न तथा, ततः किमत्र कारणमिति, उच्यते, इह येषु दिवसेष्वतिशयेन तमसाऽभिभूयते शशी तेषु तद्विमानं वृत्तमाभाति, चन्द्रप्रभाया बाहुल्येन प्रसराभावतो राहुविमानस्य यथावस्थिततयोपलम्भात् , येषु पुनश्चन्द्रो भूयान प्रकटो भवति तेषु न चन्द्रप्रभा राहुविमानेनाभिभूयत्ते, किन्त्यतिबहुलतया चन्द्रप्रभयैव स्तोकं २ राहुविमानप्रभाया अभिभवस्ततो न वृत्ततोपलम्भः, पर्वराहुविमानं | च ध्रुवराहुविमानादतीव तमोबहुलं ततस्तस्य स्तोकस्यापि न चन्द्रस्य प्रभयाऽभिभवसम्भव इति तस्य स्तोफरूपस्यापि लवृत्तत्वेनोपलब्धिः, तथा चाह विशेषणवत्यां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:-"वदृच्छेओ कथयदिवसे धुवराहुणो|||२९०॥ | बिमाणरस । दीसह परं न दीसइ जह गहणे पबराहुस्स ॥१॥" आचार्य आह-अश्वत्थं नहि तमसाऽभिभूयते जं ससी विमुचंतो । तेणं बट्टच्छेओ गहणे उ तमो तमोबहुलो ॥२॥" 'तत्व णं जे से'इत्यादि, तत्र योऽसौ पर्वराहुः स जघन्येन दीप अनुक्रम [१९९] K + ~593 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप पण्णां मासानामुपरि चन्द्रस्य सूर्यस्य चोपरागं करोति, उत्कर्षतो द्वाचस्वारिंशतो मासानामुपरि चन्द्रस्य अष्टाचत्वारिं-17 शतः संवत्सराणामुपरि सूर्यस्य । सम्प्रति चन्द्रस्य लोके शशीति यदभिधानं प्रसिद्धं तस्यान्वर्धतावगमनिमित्तं प्रश्नं करोति ता कहते चंदे ससी आहितेति षदेजा , ता चंदस्स जोतिसिंदस्स जोतिसरपणो मियंके वि-13 माणे कंता देवा कंताओ देवीमो कंताई आसणसपणखभभंडमत्तोषगरणाई अप्पणाविण चंदे देवे जोतिसिंदे जोतिसरापा सोमे कंते सुभे पिपदंसणे सुरूवे ता एवं खलु चंदे ससी चंदे ससी आहितेति वदेजा। ता कहं ते सूरिए आदिचे सूरे २ आहितति वदेजा, ता सूरादीया समयाति वा आवलियाति वा आणापा-3 गृति वा धोवेति वा जाव उस्सप्पिणिओसप्पिणीति वा, एवं खलु सूरे आदिचे २आहितेति बदेला (सू०१०५)/४ ता चंदस्स ण जोतिसिंदस्स जोतिसरणो कति अग्गमहिसीओ पपणत्ताओ?, ता चंद०चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णशाओ,-चंदप्पभा दोसिणाभा अचिमाली पभंकरा, जहा हेट्टा तं चेच जाव णो चेव मेहुण-18 बसियं, एवं सरस्सविणेतचं, ता चंदिममूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसरायाणो केरिसगा कामभोगे पच-13 गुभवमाणा विहरति?,ता से जहाणामते कई पुरिसे पढमजोवणुढाणवलसमत्थे पदमजोवणुद्वाणयलसमत्वाए भारिपाए सद्धि अचिरवत्तवीवाहे अस्थत्धी अत्धगवेसणताए सोलसबासविप्पवसिते से गं ततो लढे | कतकजे अणहसमग्गे पुणरवि णियगघरं हवमागते पहाते कतवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छिते सुद्धपावसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिते अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे मणुण्णं धालीपाकसुद्धं अट्ठारस-1 अनुक्रम [१९९] *%-456 अत्र मूल-संपादकस्य मुद्रण-दोषस्य स्खलनाजन्य एका स्खलना वर्तते-सूत्र क्रमांक १०५ द्वि-वारान् लिखितं ~594~ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभत (२०].---.-..-...---------प्राभतप्राभत -------------------- मूलं [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R * सूर्यप्रज्ञ- जणाउलं भोयणं भुत्ते समाणे तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अंतो सचित्तकम्मे बाहिरतो दूमितघहमढे ||२० प्राभूते प्तिवृत्तिः विचित्तउल्लोअचिल्लियतले यहुसमसुविभत्तभूमिभाए मणिरयणपणासितंधयारे कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक- चन्द्रादि(मल०) धूवमघमघेतगंधुदुयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवटिभूते तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि दुहतो उपणते मो- त्यान्व ॥२९॥ णतगंभीरे सालिंगणवाहिए पपणत्तगंडविडोयणे सुरम्मे गंगापुलिणवालुयाउद्दालसालिसए सुचिरइयरयत्ताणे-14 ओयवियखोमिय खोमदुगूलपट्टपडिच्छायणे रत्तंसुयसंवुडे सुरम्मे आईणगरूतबूरणवणीततूलफासे सुगंधवर-1 कामभोगाः कुसुमधुण्णसयणोवयारकलिते ताए तारिसाए भारियाए सद्धिं सिंगाराकारचारुबेसाए संगतहसितभणितचिट्टितसंलाबविलासणिणजुत्तोवयारकुसलाए अणुरत्ताविरत्ताए मणाणुकलाए एगंतरतिपसत्ते अण्ण स्थ कच्छइ मणं अकुबमाणे इहे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविधे माणुस्सए कामभोमे पचणुम्भवमाणे विह-13 Kारिजा, ता से णं पुरिसे विउसमणकालसमयसि केरिसए सातासोक्वं पञ्चणुभवमाणे विहरति ?, उरालं, |समणाउसो !, ता तस्स णं पुरिसस्स कामभोगेहिंतो एत्तो अर्णतगुणविसिद्वतराए चेव चाणमंतराणं देवाणं कामभोगा, वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहितो अणतगुणविसिट्टतराए चेव असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं | देवाणं कामभोगा, असुरिंदवजियाणं देवाणं कामभोगेहिंतो एतो अर्णतगुणविसिट्टतरा चेव असुरकुमाराणं इंदभूयाणं देवाणं कामभोगा, असुरकुमाराणं देवाणं कामभोगेहितो. गहणक्खत्ततारूवाणं कामभोगा, गहगणक्खत्ततारारूवाणं कामभोगेहितो अणंतगुणचिसिद्धतरा चेव चंदिमसूरियाणं देवाणं कामभोगा, * * दीप अनुक्रम [२००-२०१] * FitraalMAPINAMORE ~595 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूल [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R ४ता एरसिए णं चंदिमसूरिया जोइसिंदा जोइसरायाणो कामभोगे पञ्चणुभवमाणा विहरंति (सूत्र १०६)[४] 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेण केनान्वर्थेनेति भावः चन्द्रः शाशीत्याख्यात इति वदेत ? भगवानाह-'ता चंदस्स 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, चन्द्रस्य ज्योतिपेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य मृगाङ्के-मृगचिहे विमाने अधिकरणभूते कान्ता:-कमनीयरूपा देवाः कान्ता देव्यः कान्तानि च आसनशयनस्तम्भभाण्डमात्रोपकरणानि आत्मनाऽपि | KIचन्द्रो देवो ज्योतिपेन्द्रो ज्योतिपराजः सौम्यः-अरौद्राकारः कान्त:-कान्तिमान् सुभगः सौभाम्ययुक्तस्यात् वल्लभो जनस्य प्रियं-प्रेमकारि दर्शनं यस्य स प्रियदर्शनः शोभनमतिशायि रूपं-अङ्गप्रत्यङ्कावयवसन्निवेशविशेषो यस्य स सुरूपः,ता-ततः एवं खलु अनेन कारणेन चन्द्रः शशी चन्द्रः शशीत्याख्यात इति वदेत् , किमुक्तं भवति?-सर्वात्मना कमनीयत्वलक्षणमन्यर्थमा-|| &ाश्रित्य चन्द्रः शशीति व्यपदिश्यते, कथा व्युत्पत्त्येति, उच्यते, इह 'शश कान्ताविति धातुरदन्तश्वीरादिकोऽस्ति, चुरादयो हि धातवोऽपरिमिता न तेषामियत्ताऽस्ति, केवलं यथालक्ष्यमनुसर्तव्याः, अत एव चन्द्रगोमी चुरादिगणस्यापरिमिततया पर-12 मार्थतो यथालक्ष्यमनुसरणमवगम्य द्विवानेव चुरादिधातून पठितवान् न भूयसः, ततो णिगन्तस्य शशन शश इति पञ्-X प्रत्यये पाश इति भवति, शशोऽस्यास्तीति शशी, स्वविमानवास्तव्यदेवदेवीशयनासनादिभिः सह कमनीयकान्तिकलित इति भावः, अन्ये तु व्याचक्षते-शशीति सह श्रिया वर्तते इति सश्रीः प्राकृतत्वाच शशीतिरूपं, 'ता कहं ते'इत्यादि, |४|ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेण केनान्वर्थेनेति भावः सूर आदित्यः २ इत्याख्यायते इति वदेत् ?, भगवानाह-'ता| सूराइया'इत्यादि, सूर आदि:-प्रथमो येषां ते सूरादिकाः, के इत्याह-'समयाइति या' समया-अहोरात्रादिकालस्य | दीप अनुक्रम [२००-२०१] JainEairatominumatun FridaIMAPIVAHauWORK ~596~ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूल [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R सूर्यप्रज्ञ- निविभागा भागाः, ते सूरादिकाः-सूरकारणाः, तथाहि-सूर्योदयमयधिं कृत्वा अहोरात्रारम्भकः समयो गण्यते, नान्यथा, २० प्राभृते विवृत्तिः एवमावलिकादयोऽपि सूरादिका भावनीयाः, नवरमसयसमयसमुदायात्मिका आवलिका असलयेया आवलि का एका चन्द्रादि(मल०) आनप्राणः, द्विपञ्चाशदधिकत्रिचत्वारिंशच्छतसङ्ख्याबलिकाप्रमाण एक आनप्राण इति वृद्धसम्प्रदायः, तथा चोक्तम्-"एगो त्याम्बर्थः आणापाणू तेयालीस सया उ बावन्ना । आवलियपमाणेणं अणंतनाणीहि निद्दिडो ॥१॥" सप्तानप्राणप्रमाणः स्तोकः,318 १२९२|| कामभोगाः यावच्छब्दान्मुहूदियो द्रष्टव्याः, ते च सुगमत्वात् स्वयं भावनीयाः, एवं खलु' इत्यादि,एयमनेन कारणेन खलु-निश्चितःITHME सूर आदित्यः२इल्याख्यात इति वदेत , आदौ भव आदित्यो बहुलवचनात् त्यप्रत्यय इति व्युत्पत्तेः। ता चंदस्स ण'मित्यादि। कसूत्रमग्रमहिपीविषयं पूर्ववद्वेदितव्यं, प्रस्तावानुरोधाच्च भूय उक्तमित्यदोषः। 'ता चंदित्यादि, ता इति पूर्ववत् , चंद्रसूर्या में रणमिति वाक्यालङ्कारे ज्योतिपेन्द्रा ज्योतिपराजाः कीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-अवतिष्ठन्ते?, भगवानाह 'ता से जहे'त्यादि, ता इति पूर्ववत् से इत्यनिर्दिष्टस्वरूपो नाम यथा कोऽपि पुरुषः प्रथमयोवनोद्गमे बदल-शारीरः मामाणस्तेन समर्थः, प्रथमयौवनोस्थानवलसमर्थया भार्यया सह अचिरवृत्तवीवाहः सन् अथ अर्थाथी अर्थगवेषणया-अर्थ-11 गवेषणनिमित्त पोडश वर्षाणि यावत् विप्रोषितो-देशान्तरे प्रयासं कृतवान् , ततः पोडशवानन्तरं स पुरुषो लब्धार्थः-18 प्रभूतविढपितार्थः (कृतकार्य:-निष्ठिताखिलप्रयोजनः) 'अणहसमग्गत्ति अनघ-अक्षतं न पुनरपान्तराले केनापि N२९२॥ चौरादिना बिलुसं समग्रं-द्रव्यभाण्डोपकरणादि यस्य स तथा, स च पुनरपि निजकं गृहं शीघ्रमागतः, ततः स्नातः कृत-12 १ बलिको कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शुद्धात्मा वेष्याणिवेषोचितानि प्रवराणि वस्त्राणि परिहितो-निवसितः, 'अप्प दीप अनुक्रम [२००-२०१] JAINEDuratim intimation ~597 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभत [२०]. -------------------प्राभतप्राभत -,------------------ मूलं [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R महग्याभरणालंकियसरीरे'इति अल्पैः-स्तोकैर्महा:महामूल्यैराभरणैरलङ्कृतशरीरो मनोझं कलमौदनादि स्थाली-पिठरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा, अन्यत्र हि पक्कं न सुपक्कं भवति तत इदं विशेषणं, शुद्ध-भक्तदोषविवर्जित, स्थालीपाकं च तत् शुद्धं च स्थालीपाकशुद्ध, 'अट्ठारसर्वजणाउल मिति अष्टादशभिलोंकप्रतीतैर्व्यञ्जनैः-शालनकतकादिभिराकुलं अष्टादशव्यञ्जनाकुलं,अथवा अष्टादशभेदं च तत् व्यञ्जनाकुलं च अष्टादशव्यञ्जनाकुले, शाकपार्थिवादिदर्शनाद्भेदशब्दलोपः, अष्टा-M दश भेदा इमे-"सूओ १ यणो २ जवण्णं ३ तिण्णि य मंसाइ ६ गोरसो ७ जूसो ८ । भक्खा ९ गुललावणिया १० मूलफला महरियगं १२ डागो १३ ॥१॥ होइ रसालू य तहा १४ पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं चेव १७ । अट्ठारसमो सागो १८ निरुवहओ लोइओ पिंडो ॥२॥” इदं गाथाद्वयमपि सुगम, नवरं मांसत्रयं जलजादिसत्कं यूषो-मुद्गतण्डुलजीरककड-1) भाण्डादिरसः भक्ष्याणि-खण्डखाद्यानि गुडलावणिका लोकप्रसिद्धा गुडपर्पटिका गुडधाना वा मूलफलानीत्येकमेव पदं । द्वन्द्वसमासरूप हरितक-जीरकादि शाको-वस्तुलादिभर्जिका रसालू-मर्जिका तल्लक्षणमिदम्-"दो घयपला महुपलं दहिस्स। | अद्धाढयं मिरिय बीसा । दस खंडगुल पलाई एस रसालू निवइजोग्गो ॥१॥" इति, पान-सुरादि पानीयं-जलं पानक-18 द्राक्षापानकादि शाका-तक्रसिद्धा, एवंभूतं भोजनं भुक्तः सन् तस्मिन् तादृशे वासगृहे, किंविशिष्टे इत्याह-अन्तः सचिमात्रकर्मणि 'बही दमियघट्टमट्टे'त्ति इमिए-सुधापधवलिते घृष्टे पाषाणादिना उपरि घर्षिते ततो मृष्टे-मसणीकृते,IR तथा विचित्रेण-विविधचित्रयुक्तेनोल्लोचेन-चन्द्रोदयेन 'चिल्लिय'ति दीप्यमानं गृहमध्यभागे उपरितनं तलं यस्य | तत्तथा तस्मिन् , तथा बहसमा प्रभूतसमः सुविभक्तः-सुविच्छित्तिको भूमिभागो यत्र तस्मिन् , तथा मणिरजप्रणाशिता दीप अनुक्रम [२००-२०१] CRIC ACAGARCAN ~598~ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२९३।। [१०५R सूर्यप्रज्ञ- न्धकारे तथा कालागुरुप्रवरकुन्दुरुकतुरुष्कधूपस्य यो गन्धो मघमघायमानः उद्भूतः-इतस्ततो विप्रस्तस्तेनाभिराम- २० प्राभृते प्तिवृत्तिःसरमणीयं तस्मिन् , तत्र कुंदुरु-सिल्हकं, तथा शोभनो गन्धः तेन कृत्वा (पं० ९०००) वरगन्धिक-वरो गन्धो वर- चन्द्रादि(मल गन्धः सोऽस्यास्तीति परगन्धिक, 'अतोऽनेकस्वरा'दितीकप्रत्ययः, तस्मिन् , अत एव गन्धवर्तिभूते तस्मिन् , तादृशे शय- त्यान्वर्थ: नीये 'उभयतः' उभयोः पार्श्वयोरुन्नते मध्येन च-मध्यभागेन गम्भीरे 'सालिंगणवहिए'त्ति सहालिङ्गनवा-शरीर- सू१०५ प्रमाणेनोपधानेन वर्तते यत्तत्तथा, तथा 'उभयो विन्योयणे'इति उभयोः प्रदेशयोः-शिरोऽन्तपादान्तलक्षणयोर्विधो-कामभोगा यणे-उपधानके यत्र तत्तथा, तत्र क्वचित् 'पण्णत्तगंडवियोयणे'त्ति पाठः तत्रैवं व्युत्पत्तिः-प्रज्ञया-विशिष्टकर्मविषयवुझ्या आवे-प्राप्ते अतीव सुषु परिकम्मिते इति भावः गण्डोपधानके यत्र तत्तथा तत्र, ओयवियखोमियदुगुल्लपट्टपडिकछायणे' ओयवियं-सुपरिकम्मितं क्षौमिकं दुकूल-कार्पासिकमतसीमयं वा वस्रं तस्य युगलरूपो यः पट्टशाटकः स | प्रतिच्छादन-आच्छादनं यस्य तत्तथा तत्र, 'रत्तंसुयसंवुडे' रक्तांशुकेन-मशकगृहाभिधानेन यस्त्रविशेषेण संवृते-समन्तत आवृते 'आईणगरूयबूरनवणीयतूलफासे' आजिनक-चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च स्वभावादतिकोमलो भवति रुतं चकापासपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतं च-रक्षणं तूलश्च-अर्कतूल इति द्वन्द्वः अत एतेपामिव स्पों यस्य तत्तथा तस्मिन् , 'सुगन्धवरकुसुमचुण्णसयणोपयारकलिए' सुगन्धीनि यानि वरकुसुमानि ये च सुगन्धयचूर्णाःपटवासादयो ये च एतव्यतिरिक्तास्तथाविधाः शयनोपचारास्तैः कलिते, तथा तादृशया वक्तुमशक्यस्वरूपतया पुण्यवतां योग्यया 'सिंगारागारचारुवेसाए'त्ति शृङ्गारः-शृङ्गाररसपोषकः आकार:-सन्निवेशविशेषो यस्य स शनाराकारः इत्थं दीप अनुक्रम [२००-२०१] ॥२९३॥ ~599~ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R भूतश्चारुः-शोभनो पो यस्याः सा तथाभूता तया 'संगतहसियभणियचिट्टियसंलाबविलासनिउणजुत्तोबया-1 रकुसलाए' संगत-मैत्रीगतं गमनं सविलासं चङ्कमणमित्यर्थः हसितं-सप्रमोदं कपोलसूचितं हसनं भणित-मन्मथोद्दीपिका विचित्रा भणितिश्चेष्टितं-सकाममङ्गमत्यङ्गावययप्रदर्शनपुरस्सरं प्रियस्य पुरतोऽवस्थान संलापः-प्रियेण सह सप्रमोदं सकाम | परस्परं सङ्कथा एतेषु बिलासेन-शुभलीलया यो निपुणः-सूक्ष्मबुद्धिगम्योऽत्यन्तकामविषयपरमनैपुण्योपेत इत्यर्थः युक्तो-देश-: कालोपपन्न उपचारस्तत्कुशलया अनुरक्तया कदाचिदप्यविरक्कया मनोऽनुकूलया भार्यया साईमेकान्तेन रतिप्रसक्तो-रमण-दा प्रसक्तोऽन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन, अन्यत्र मनःकरणे हि न यथावस्थितमिष्टभार्यागतं कामसुखमनुभवति, इष्टान् शब्द-12 स्पर्शरसरूपगन्धरूपान् पञ्चविधान मानुषान्-मनुष्यभवसम्बन्धिनः कामभोगान् प्रत्यनुभवन्-प्रतिशब्द आभिमूख्ये संवेदयमानो बिहरेद-अवतिष्ठेत् , 'ता से णमित्यादि, तावच्छन्दः क्रमार्थः, आस्तामन्यदतनं वक्तव्यमिदं तावत्क-13 यता, स पुरुषः तस्मिन् 'कालसमये कालेन तथाविधेनोपलक्षितः समयः-अबसरः कालसमयस्तस्मिन् , कीरश सात-IN | रूपं-आल्हादरूपं सौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति ।, एवमुक्त गौतम आह-'ओरालं समणाउसो। हे भगवन् ! श्रमण! आयुष्मन् ! उदारं-अत्यद्भुतं सातसौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति, भगवानाह-'तस्स ण'मित्यादि, 'एत्तो' एतेभ्यस्तस्य | II पपस्य सम्बन्धिभ्यः कामभोगेभ्य 'अर्णतगुणविसिट्ठतरा चेव'त्ति अनन्तगुणा-अनन्तगुणतया विशिष्टतरा एव व्यन्तरदेवानां कामभोगाः, व्यन्तरदेवकामभोगेभ्योऽप्यसुरेन्द्रवर्णानां देवानां कामभोगा अनन्तगुणविशिष्टतराः, तेभ्योऽनन्तगुणविशिष्टतरा इन्द्रभूतानां असुरकुमाराणां देवानां कामभोगाः, तेभ्योऽप्यनन्तगुणविशिष्टतरा प्रहनक्षत्र 29%83929 दीप अनुक्रम [२००-२०१] JAINEDuratim intimation ~600~ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभूत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [-], -------------------- मूलं [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R तारारूपाणां देवानां कामभोगाः, तेभ्योऽप्यनन्तगुणविशिष्टतराः कामभोगाः चन्द्रसूर्याणां, एतादृशान् चन्द्रसूर्या ज्योति- २० प्राभृते प्तिवृत्तिःपेन्द्रा ज्योतिपराजाः कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति । सम्मति पूर्वमष्टाशीतिसवाग्रहा उक्तास्तान् नाममाहमुप- भष्ट्राशीति(मल०)दिति दिदर्शयिषुराह गुहाः ॥२९॥ 8 तस्थ खलु इमे अट्ठासीती महरगहा पं० सं०-इंगालए वियालए लोहितके सणिकछरे आहुणिए पाहुणिए। कणो कणए कणकणए कविताणए १०कणगसंताणे सोमे सहिते अस्सासणो कजोबए कायरए अयकरए दुईं। भए संखे संखणाभे २० संखवण्णाभे कंसे कंसणाभे कंसवण्णाभे णीले णीलोभासे रुप्पे रुप्पोभासे भासे भासरासी ३० तिले तिलपुष्पवणे दगे दगवण्णे काये बंधे इंदग्गी धूमकेतू हरी पिंगलए ४० बुधे सुके यह-131 स्सती राह अगत्थी माणवए कामफासे धुरे पमुहे बियडेविसंधिकप्पेल्लए पइल्ले जडियालए अरुणे अग्गिल्लए काले महाकाले सोस्थिए सोवस्थिए बदमाणगे ६० पलंधे णिचालोए णिचजोते सर्यपभे ओभासे सेयंकरे खेमकरे। आभंकरे पभंकरे अरए ७० विरए असोगे बीतसोगे य विमले विवसे विवत्थे विसाल साले सुखते अणियट्टी एगजडी८०दुजड़ी कर करिए रायऽग्गले पुप्फकेतू भाव केतू , संगहणी-इंगालए विद्यालए लोहितके सणिच्छरे | चेव । आहुणिए पाहुणिए कणकसणामावि पंचेच ॥ १॥ सोमे सहिते अस्सासणे य कोषए य कवरए । अयकरए दुंदुभए संखसणामावि तिपणेव ॥ २॥ तिन्नेव कंसणामा णीले रुप्पी य हुंति चत्तारि। भास तिल पुष्फवणे दगवणे काल बंधे य ॥ ३ ॥ इंदग्गी धूमकेतू हरि पिंगलए बुधे य सुके य । वहसति राहु अगस्थी दीप अनुक्रम [२००-२०१] COCKREAM JAINEDuratim intimation ~601 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्राभृत [-], ----------------- मूलं [१०७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० -१०८] गाथा: माणवए कामफासे य ।। ४ ।। धुरण पमुहे विपडे विसंधिकप्पे सहा पयल्ले य । जडियालए य अरुणे अ-11 | रिगल काले महाकाले ॥५॥ सोत्थिय सोवस्थिय बदमाणगे तथा पलंघे य । णिचालोए णिज्जोए सयंपा येव ओभासे ॥६॥ सेयंकर खेमकर आभंकर पभंकरे य योद्धधे । अरए विरए य तहा असोग तह वीतसोगे । य॥ ७॥ विमले वितत विवत्धे विसाल तह साल मुबते चेव । अणियट्टी एगजडी य होह विजडी य योद्धयो ४॥८॥ कर करिए रायऽग्गल योद्धये पुष्फ भाव केतू पअट्ठासीति गहा खलु यवा आणुपुधीए ॥९॥(सूत्रं १०७) इति एस पाहुडत्या अभवजणहिययदुल्लहा इणमो । उकित्तिता भगवता जोतिसरायस्स पण्णात्ती ॥१॥ एस गहिताधि संता बढे गारविषमाणिपडिणीए । अबहुस्सुए ण देवा तषिवरीते भये देया ॥२॥सद्धामधितिउहाणुच्छाहकम्मबलविरियपुरिसकारहि । जो सिक्खिओघि संतो अभायणे परिकहेजाहि ॥ ३॥ सो पापवयणकुलगणसंघबाहिरो णाणविणयपरिहीणो । अरहतधेरगणहरमेरं फिर होति वोलीणो ॥ ४॥ तम्हास धिति उहाणुच्छाहकम्मबलविरियसिक्खिरं जाणं । धारेयचं णियमा ण य अधिणएस दायत्वं ॥५॥ वीरव-भी रिस भगवतो जरमरणकिलेसदोसरहियरस । बंदामि विणयपणतो सोपानुपाए सपा पाए ॥५॥ (सत्र १०८ .. इइ संगहणि गाहा |१०८ चन्द्रप्रज्ञप्ति संपूर्ण || ग्रन्थाग्रं २२०० दीप अनुक्रम [२०२-२१८] • अत्र विंशति प्राभृतं परिसमाप्तं ~602~ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्राभृत -, ----------------- मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७ -१०८] गाथा: सूर्यप्रज्ञ-18 'तत्थ खलु इत्यादि, तत्र-तेषु चन्द्रसूर्यनक्षत्रतारारूपेषु मध्ये ये पूर्वमष्टाशीतिराळ्या ग्रहाः प्रज्ञप्ताः से इमे, तद्यथा--12२० प्राभृते सिवृत्तिःला इंगालए' इत्यादि सुगम, एतेषामेव नाम्नां सुखप्रतिपत्त्यर्थ सहणिगाथाषटूमाह-"इंगालए वियालए लोहियके सणि- अष्टाशीति. छिरे पेव । आहुणिए पाहुणिए कणगसनामावि पंचेव ॥१॥ सोमे सहिए अस्सासणे या कजोगए य कवरए । अयकर गुहार दुंदुभए वि य संखसनामावि तिन्नेव ॥ २॥ तिन्नेव कसनामा नीले रुप्पी य हुँति चत्तारि । भासतिलपुष्कबन्ने दगवन्ने सू१०७ काय बंधे य ॥ ३ ॥ इंदग्गि धूमकेऊ हरि पिंगलए बुधे व सुक्के य । वहसइ राहु अगच्छी माणयगे कामफासे य ॥ ४॥ धुरए पमुहे वियडे विसंधिकरपे तहा पहले य । जडियालए य अरुणे अग्गिल काले महाकाले ॥५॥ सोस्थिय सोबस्थियए बद्धमाणग तहा पलंचे य । निचालोए निच्चुजोए सर्यपभे चेव ओभासे ॥ ६ ॥ सेयंकर खेमंकर आभंकर पोंलाकरे य धोद्धये । अरए विरए य तहा असोग तह वीयसोगे य॥७॥ विमले वितत विवरथे विसाल तह साल सुथए। चेव । अनियट्टी एगजडी य होइ थियडी य बोद्धवे ॥८॥कर करिए रायऽग्गल बोद्धये पुष्फ भाव केऊ य । अट्ठासीइ। गहा खलु नायचा आणुपुबीए ॥९॥" आसां व्याख्या-अङ्गारकः १ विकालका २ लोहित्यकः ३ शनैश्चरः ४ आधु-12 निकः ५ प्राधुनिकः ६ 'कणगसनामावि पंचेव'त्ति कनकेन सह एकदेशेन समानं नाम येषां ते कनकसमाननामा-४॥ नस्ते. पचव प्रागुक्तकमेण द्रष्टव्याः, तद्यथा-कणः ७ कणकः ८ कणकणकः ९ कणवितानकः १० कणसन्तानका ११ ॥२९५।। 51'सोमे त्यादि सोमः १२ सहितः १३ आश्वासनः १४ कार्योपगः १५ कटकः १६ अजकरकः १७ दुन्दुभकः १८ शंख-12 समाननामस्त्रयस्तद्यथा-शङ्गः १९ शजनाभः २० शङ्खवर्णाभः २१ । 'तिन्नेवेत्यादि वयः कंसनामानः, तद्यथा-कंसः।। दीप अनुक्रम [२०२-२१८] ~603~ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्रामृत -,----------------- मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधितः सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्राप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० -१०८] 964 ८-8-%- गाथा: |२२ कसनाभः २३ कंसवर्णाभः २४ 'नीले रुप्पी य हवंति चत्तारित्ति नीले रुप्पे च शब्दे विषयभूते द्विद्विनामसम्भ-18 वात् सर्वसञ्जयया चत्वारः, तद्यथा-नीलः २५ नीलावभासः २६ रूपी २७ रूप्यवभासः २८ भासेति नामद्वयोपलक्षणं तद्यथा-भस्म २९ भस्मराशिः ३० तिलः ३१ तिलपुष्पवर्णकः ३२ दकः ३३ दकवर्णः ३४ कायः ३५ बम्ध्य ३६ | | इन्द्राग्निः ३७ धूमकेतुः ३८ हरिः ३९ पिङ्गलः ४०. बुधः ४१ शुक्रः ४२ वृहस्पतिः ४३ राहुः ४४ अगस्तिः ४५ माणवकः[४ |४६ कामस्पर्शः ४७ धुरः ४८ प्रमुखः ४९ विकटः ५० विसंधिकल्पः ५१ प्रकल्पः ५२ जटालः ५३ अरुणः ५४ अग्निः ५५ कालः ५६ महाकालः ५७ स्वस्तिकः ५८ सौवस्तिकः ५९ वर्द्धमानकः ६० प्रलम्बः ६१ नित्यालोकः ६२ नित्योद्योतः ६३ स्वयंप्रभः ६४ अवभासः ६५ श्रेयस्करः ६६ खेमंकरः ६७ आभंकरः ६८ प्रभथरः ६९ अरजा ७० विरजा ७१ अशोकः ७२ वीतशोकः ७६ विवर्तः ७४ विवस्त्रः ७५ विशालः ७६ शालः ७७ सुवतः ७८ अनिवृत्तिः ७९ एकजटी ८० द्विजटी ८१ करः ८२ करिकः ८३ राजः ८४ अर्गलः ८५ पुष्पः ८६ भावः ८७ केतुः ८८ सम्पति सकलशास्त्रो-1 पसंहारमाह-"इय एस पागडत्या अभवजणहिययदुल्लभा इणमो । उकित्तिया भगवई जोइसरायस्स पन्नत्ती ॥१॥ इति, एवं-उक्तेन प्रकारेण अनन्तरमुदिएस्वरूपा प्रकदार्था-जिनवचनतत्त्ववेदिनामुत्तानार्था, इयं चेत्थं प्रकटार्थापि सती अभव्यजनानां हृदयेन-पारमाधिकाभिप्रायेण दुर्लभा, भावार्थमधिकृत्याभव्यजनानां दुर्लभेत्यर्थः, अभव्यत्वादेव तेप सम्यगजिनवचनपरिणतेरभावात् , उत्कीर्तिता-कधिता भगवती-ज्ञानेश्वर्या देवता ज्योतिपराजस्य-सूर्यस्य प्रज्ञप्तिः । एषा | च स्वयंगृहीता सती यस्मै न दातव्या तत्प्रतिपादनार्थमाह-एसा गहियावि'इत्यादि गाथाद्वयं, एषा-सूर्यप्रज्ञप्तिः दीप अनुक्रम [२०२-२१८] -56-4424-2- W Tereltmoryam * अत्र विंशति प्राभृतं परिसमाप्तं. तत् पश्चात् उपसंहार-गाथा: आरम्भा: ~604~ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्राभृत -, ----------------- मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७ योग्यौ -१०८] गाथा: सूयमन स्वयं सम्यक्करणेन गृहीतापि सती "व्यत्ययोऽप्यासा"मिति वचनाच्चतुर्थ्य) सप्तमी, ततोऽयमर्थः-धद्धे इति स्तब्धाय तिवृत्तिः स्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयधंशकारिणे, 'गारविय'त्ति, ऋयादि गौरवं सञ्जातमस्येति गौरवितस्तस्म ऋद्धिरस-IMR: दाने योग्या (मल |सातानामन्यतमेन गौरवेण गुरुतरायेति भावः, ऋयादिमदोपेतो ह्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पमपीदं सूर्यप्रज्ञप्तिप्रकीर्णक-I माचार्यादिकं च तद्वत्तारमवज्ञया पश्यति, सा चावज्ञा दुरन्तनरकादिप्रपातहेतुरतस्तदुपकारायैव तस्मै दामप्रतिषेधः, १०८ इयं च भावना सम्धमाभ्यादिष्यपि भावनीया, तथा मानिने-जात्यादिमदोपेताय प्रत्यनीकाय-दूरभव्यतया अभव्य|| तया या सिद्धान्तबचननिकुट्टनपराय, तथा अल्पश्रुताय-अवगाहस्तोकशास्त्राय, स हि जिनवचनेषु (अ)सम्यग्भावितत्वात | शब्दार्थपर्यालोचनायामक्षुण्णत्वाञ्च यथावत्कथ्यमानमपि न सम्यगभिरोचयते इति न देया, किन्तु तद्विपरीताय दात-12 1व्या भवेत् , भवेदिति क्रियापदस्य सामर्थलब्धावप्युपादानं दातव्यत्वावधारणार्थ, तद्विपरीताय दातव्यच नादातव्या. अदाने शास्त्रध्यवच्छेदप्रसक्त्या तीर्थव्यवच्छेदप्रसक्तेः, एतदेव व्यक्ती कुर्वन्नाह-'सत्यादि, श्रद्धा-श्रवणं प्रति वाञ्छा धृतिः-विवक्षितं जिनवचनं सत्यमेव नान्यथेति मनसोऽवष्टम्भः उत्थान-श्रवणाय गुरु प्रत्यभिमुखगमनं उत्साहः श्रवणविषये मनसः उत्कलिकाविशेषः यद्वशादिदानीमेव यदि मे पुण्यवशात् सामग्री सम्पद्यते शृणोमि च ततः शोभनं || &भवतीति परिणाम उपजायते कर्म-वन्दनादिलक्षणं बलं-शारीरो वाचनादिविषयः प्राणः वीर्य-अनुप्रेक्षायां । सूक्ष्मसूक्ष्माथोंहनशक्तिः पुरुषकारः-तदेव वीर्य साधिताभिमतप्रयोजन, एतैः कारणैः यः वयं शिक्षितोऽपि "M२९॥ गृहीतसूर्यप्रज्ञप्तिसूत्राओंभयोऽपि सन् यो दाक्षिण्यादिना अन्तेवासिनि अभाजने-अयोग्ये प्रतिक्षिपेत्-सूत्रतो *-* दीप अनुक्रम [२०२-२१८] -45050 FhipuraaNMSPIRIUMORE ~605~ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्रामृत -,----------------- मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७ ISISत उभयतो वा न्यसेत् 'सो पयवणे'त्यादि स प्रवचनकुलगणसङ्घबाह्यो ज्ञानविनयपरिहीणो-ज्ञानाचारपरिहीणोXI भगवदर्हत्स्थविरगणधरमर्यादां-भगवदर्हदादिकृतां व्यवस्थां भवति किल व्यतिक्रान्तः, किलेत्याप्तवादसूचक, इत्थमाप्त-11 | वचनं व्यवस्थितं यथा स नूनं भगवदहंदादिव्यवस्थामतिक्रान्त इति, तदतिक्रमे च दीर्घसंसारिता । 'तम्हेत्यादि, तस्माद् धृत्युत्थानोत्साहकर्मवलवीयर्यत् ज्ञान-सूर्यप्रज्ञाप्यादि स्वयं मुमुक्षुणा सता शिक्षितं तन्नियमादात्मन्येव धर्तव्यं, &| न तु जातुचिदप्यविनीतेषु दातव्यं, उक्तप्रकारेण तद्दाने आत्मपरदीर्घसंसारित्वप्रसक्तेः, तदेवमुक्तः प्रदानविधिः । इति मलयगिरिविरचितायां चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां विंशतितम-प्राभृतं समाप्त -१०८] गाथा: 95-9915555-256* दीप अनुक्रम [२०२-२१८] चन्द्रप्रज्ञप्ते: हस्तप्रत एवं पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ते: आधारेण मुनिश्री दीपरत्नसागरेण संकलित: (आगमसूत्र १७) “चन्द्रप्रज्ञप्ति"- (उवंगसूत्र-६) परिसमाप्त: JAINEdium ~606~ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२०], ----------------- प्राभृतप्रामृत ------------------ मूलं [१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०८] सूर्यप्रज्ञd प्तिवृत्तिः (मल०) वृत्तिकारेण कृता अन्तिम मंगल-आदि गाथा: ॥२९७॥ दीप अनुक्रम [२१८] वन्दे यथास्थिताशेषपदार्थप्रतिभासकम् । नित्योदितं तमोऽस्पृश्य, जैनसिद्धान्तभास्करम् ॥ १॥ विजयन्तां गुणगुरवो गुरवो जिनतीर्थ भासनैकपराः । यद्वचनगुणादहमपि जातो लेशेन पटुबुद्धिः ॥२॥ चंद्र विज्ञप्तिमिमामतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा साधुजनस्तेन भवतु कृती ॥ ३ ॥ ജയവും മയക്കുമരു al इति श्रीमलयगिरिविरचिता टीकायुक्ता चन्द्रप्रज्ञप्ति: समाता ॥ JAMEaintiming भाग 22 चन्द्रप्रज्ञप्ति-उवंगसूत्र [६] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रस्य हस्तप्रत एवं पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी म.सा. संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रस्य साहाय्येन किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) । ~607~ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१० ~608~ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ 27 ३३० ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, ___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ 38 | ५२८ ५६० ३९४ ~609~ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः आगम [17] “चन्द्रप्रज्ञप्ति (उपांगसूत्र-६)” [मूलं एवं मलयगिरि-प्रणित वृत्तिः] हस्तप्रत एवं पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रस्य मुद्रित प्रत आधारेण (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) । मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "चन्द्रप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: > "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग- 22 ~610~ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਸ਼ ਸ਼ ਬਾਸ ਜੈਨ ਭਾਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸ ਦੀ ਸਹੀ ਵਸ ਗਲ ਕਲਹਾਲ ਸ਼ ਸਗਲ ਪੁਲਸ आगम [[IST Cਕ ਹਲਕਸ ਕਾਰਨ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਹੈਡਲ ਪ੍ਰਧਾਨ ਕਤਲ - 611 - Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता inhindi । समानता पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज __ आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदावाद Mo 9825598855798253062751 ~612~ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा SINES RemesONISCHENNAR NE ROFIEOHIROEN -613 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम् आगम आगम आजम मूल संशोधक - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब म आजम आगम आगमा आगम आगम आमा आगम 17 “चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं वृत्तिः आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी राणाम् [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आगम आजम आगम आगम आगम आगम ~614~