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________________ आगम (१७) "चन्द्रप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्राभृत [-], ----------------- मूलं [१०७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: सूर्यप्रज्ञप्ति आधारेण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१७],उपांगसूत्र-[६] "चन्द्रप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० -१०८] गाथा: माणवए कामफासे य ।। ४ ।। धुरण पमुहे विपडे विसंधिकप्पे सहा पयल्ले य । जडियालए य अरुणे अ-11 | रिगल काले महाकाले ॥५॥ सोत्थिय सोवस्थिय बदमाणगे तथा पलंघे य । णिचालोए णिज्जोए सयंपा येव ओभासे ॥६॥ सेयंकर खेमकर आभंकर पभंकरे य योद्धधे । अरए विरए य तहा असोग तह वीतसोगे । य॥ ७॥ विमले वितत विवत्धे विसाल तह साल मुबते चेव । अणियट्टी एगजडी य होह विजडी य योद्धयो ४॥८॥ कर करिए रायऽग्गल योद्धये पुष्फ भाव केतू पअट्ठासीति गहा खलु यवा आणुपुधीए ॥९॥(सूत्रं १०७) इति एस पाहुडत्या अभवजणहिययदुल्लहा इणमो । उकित्तिता भगवता जोतिसरायस्स पण्णात्ती ॥१॥ एस गहिताधि संता बढे गारविषमाणिपडिणीए । अबहुस्सुए ण देवा तषिवरीते भये देया ॥२॥सद्धामधितिउहाणुच्छाहकम्मबलविरियपुरिसकारहि । जो सिक्खिओघि संतो अभायणे परिकहेजाहि ॥ ३॥ सो पापवयणकुलगणसंघबाहिरो णाणविणयपरिहीणो । अरहतधेरगणहरमेरं फिर होति वोलीणो ॥ ४॥ तम्हास धिति उहाणुच्छाहकम्मबलविरियसिक्खिरं जाणं । धारेयचं णियमा ण य अधिणएस दायत्वं ॥५॥ वीरव-भी रिस भगवतो जरमरणकिलेसदोसरहियरस । बंदामि विणयपणतो सोपानुपाए सपा पाए ॥५॥ (सत्र १०८ .. इइ संगहणि गाहा |१०८ चन्द्रप्रज्ञप्ति संपूर्ण || ग्रन्थाग्रं २२०० दीप अनुक्रम [२०२-२१८] • अत्र विंशति प्राभृतं परिसमाप्तं ~602~
SR No.035022
Book TitleSavruttik Aagam Sootraani 1 Part 22 Chandrapragyapti Mool evam Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherVardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
Publication Year2017
Total Pages614
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chandrapragnapti
File Size133 MB
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